हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ राजभाषा दिवस विशेष – राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ राजभाषा दिवस विशेष – राष्ट्रभाषा : मनन-मंथन-मंतव्य 

(विकिबुक्स ने हिंदी भाषा सम्बंधी लेखों के संकलन में इस लेख को प्रथम क्रमांक पर रखा है। लेख का शीर्षक ही संकलन को भी दिया है।)

भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भाँति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियाँ उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।

यहाँ तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी कूटनीति और स्वार्थ के अनुरूप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हें वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था किंतुु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए फिरंगी अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का ‘लॉलीपॉप’ जरुर दिया गया। धीरे-धीरे ‘लॉलीपॉप’ भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया।

राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहाँ की जा रही है।

राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर अपभ्रंश बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहाँ अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस़्कृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं? भीरु व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का कारक बनती है जबकि सुशासन स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता है।

सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। राजधानी के एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया गया- ‘सीता वॉज़ स्वीटहार्ट ऑफ रामा।’ ठीक इसके विपरीत श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मण जी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मण जी का कहना कि मैने सदैव भाभी माँ के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में ‘चार भिंतीत नाचली’ ( शादीशुदा बेटी का मायके आने पर आनंद विभोर होना) का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।

कटु सत्य यह है कि भाषाई प्रतिबद्धता और सांस्कृतिक चेतना के धरातल पर वर्तमान में भयावह उदासीनता दिखाई देती है। समृद्ध परंपराओं के स्वर्णमहल खंडहर हो रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है, भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम से बेदखल किया जाना। चूँकि भाषा संस्कृति की संवाहक है, अंग्रेजी माध्यम का अध्ययन यूरोपीय संस्कृति का आयात कर रहा है। एक भव्य धरोहर डकारी जा रही है और हम दर्शक-से खड़े हैं। शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने सदा प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें वर्षों कूड़े-दानों में पड़ी रहीं। नई शिक्षा नीति में भारत सरकार ने पहली बार प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने को प्रधानता दी है। यह सराहनीय है।

यूरोपीय भाषा समूह की अंग्रेजी के प्रयोग से ‘कॉन्वेंट एजुकेटेड’ पीढ़ी, भारतीय भाषा समूह के अनेक अक्षरों का उच्चारण नहीं कर पाती। ‘ड़’,‘ण’  अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। ‘पूर्ण’, पूर्न हो चला है, ‘ शर्म ’ और ‘श्रम’ में एकाकार हो चला है। हृस्व और दीर्घ मात्राओं के अंतर का निरंतर होता क्षय अर्थ का अनर्थ कर रहा है।‘लुटना’ और ‘लूटना’ एक ही हो गये हैं। विदेशियों द्वारा की गई ‘लूट’ को ‘लुटना’ मानकर हम अपनी लुटिया डुबोने में अभिभूत हो रहे हैं।

लिपि नये संकट से गुजर रही है। इंटरनेट पर खास तौर पर फेसबुक, गूगल प्लस, ट्विटर जैसी साइट्स पर देवनागरी को रोमन में लिखा जा रहा है। ‘बड़बड़’ के लिए barbar/ badbad  (बर्बर या बारबर या बार-बार) लिखा जा रहा है। ‘करता’, ‘कराता’, ‘कर्ता’ में फर्क कर पाना भी संभव नहीं रहा है। जैसे-जैसे पीढ़ी पेपरलेस हो रही है, स्क्रिप्टलेस भी होती जा रही है। मृत्यु की अपरिहार्यता को लिपि पर लागू करनेवाले भूल जाते हैं कि मृत्यु प्राकृतिक हो तब भी प्राण बचाने की चेष्टा की जाती है। ऐसे लोगों को याद दिलाया जाना चाहिये कि यहाँ तो लिपि की सुनियोजित हत्या हो रही है और हत्या के लिए भारतीय दंडसंहिता की धारा 302 के अंतर्गत मृत्युदंड का प्रावधान है।

सारी विसंगतियों के बीच अपना प्रभामंडल बढ़ाती भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी के विरुद्ध ‘फूट डालो और राज करो’ की कूटनीति निरंतर प्रयोग में लाई जा रही है। इन दिनों  हिंदी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दिलाने की गलाकाट प्रतियोगिता शुरु हो चुकी है। खास तौर पर गत जनगणना के समय इंटरनेट के जरिये इस बात का जोरदार प्रचार किया गया कि हम हिंदी की बजाय उसकी बोलियों को अपनी मातृभाषा के रूप में पंजीकृत करायें। संबंधित बोली को आठवीं अनुसूची में दर्ज कराने के सब्जबाग दिखाकर, हिंदी की व्यापकता को कागज़ों पर कम दिखाकर आंकड़ो के युद्ध में उसे परास्त करने के वीभत्स षड्यंत्र से क्या हम लोग अनजान हैं? राजनीतिक इच्छाओं की नाव पर सवार बोलियों को भाषा में बदलने के आंदोलनों के प्रणेताओं (!) को समझना होगा कि यह नाव उन्हें घातक भाषाई षड्यंत्र की सुनामी के केंद्र की ओर ले जा रही है। अपनी राजनीति चमकाने और अपनी रोटी सेंकनेवालों के हाथ फंसा नागरिक संभवतः समझ नहीं पा रहा है कि यह भाषाई बंदरबाँट है। रोटी किसीके हिस्से आने की बजाय बंदर के पेट में जायेगी। बेहतर होता कि मूलभाषा-हिंदी और उपभाषा के रूप में बोली की बात की जाती।

संसर्गजन्य संवेदनहीनता, थोथे दंभवाला कृत्रिम मनुष्य तैयार कर रही है। कृत्रिमता की ये पराकाष्ठा है कि मातृभाषा या हिंदी न बोल पाने पर व्यक्ति लज्जा अनुभव नहीं करता पर अंग्रेजी न जानने पर उसकी आँखें स्वयंमेव नीची हो जाती हैं। शर्म से गड़ी इन आँखों को देखकर मैकाले और उसके भारतीय वंशजों की आँखों में विजय के अभिमान का जो भाव उठता होगा, ग्यारह अक्षौहिणी सेना को परास्त कर वैसा भाव पांडवों की आँखों में भी न उठा होगा।

संस्कृत को पाठ्यक्रम से हटाना एक अक्षम्य भूल रही। त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं।

साहित्यकारों के साथ भी समस्या है। दुर्भाग्य से भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के बड़े वर्ग में  भाषाई प्रतिबद्धता दिखाई नहीं देती। इनमें से अधिकांश ने भाषा को साधन बनाया, साध्य नहीं। यही स्थिति हिंदी की रोटी खानेवाले प्राध्यापकों, अधिकारियों और हिंदी फिल्म के कलाकारों की भी है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। ऐसे सारे वर्गों के लिए वर्तमान दुर्दशा पर अनिवार्य आत्मपरीक्षण का समय आ चुका है।

भाषा के साथ-साथ भारतीयता के विनाश का जो षडयंत्र रचा गया, वह अब आकार ले चुका है। भारत में दी जा रही तथाकथित आधुनिक शिक्षा में रोल मॉडेल भी यूरोपीय चेहरे ही हैं। नया भारतीय अन्वेषण अपवादस्वरूप ही दिखता है। डूबते सूरज के भूखंड से आती हवाएँ, उगते सूरज की भूमि को उष्माहीन कर रही हैं।

छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात  संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में ‘हर-हर महादेव’ और ‘पीरबाबा सलामत रहें’ जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासित समाज जन्म लेता हो तो भावुकता देश की अनिवार्य आवश्यकता हो जाती है।

हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वे सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएँ।

भारतीय भाषाओं के आंदोलन को आगे ले जाने के लिए छात्रों से अपेक्षित है कि वे अपनी भाषा में उच्च शिक्षा पाने के अधिकार को यथार्थ में बदलने के लिए पहल करें। स्वाधीनता के सत्तर वर्ष बाद भी न्यायव्यवस्था के निर्णय विदेशी भाषा में आते हों तो संविधान की पंक्ति-‘भारत एक सार्वभौम गणतंत्र है’ अपना अर्थ खोने लगती है।

भारतीय युवाओं से वांछित है कि दुनिया की हर तकनीक को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करा दें। आधुनिक तकनीक और संचार के अधुनातन साधनों से अपनी बात दुनिया तक पहुँचाना तुलनात्मक रूप से बेहद आसान हो गया है। भारतीय भाषाओं में अंतरजाल पर इतनी सामग्री अपलोड कर दें कि ज्ञान के इस महासागर में डुबकी लगाने के लिए अन्य भाषा भाषी भी हमारी  भाषाएँ सीखने को  विवश  हो जाएँ।

सरकार से अपेक्षित है कि हिंदी प्रचार संस्थाओं के सहयोग से विदेशियों को हिंदी सिखाने के लिए क्रैश कोर्सेस शुरू करे। भारत आनेवाले  सैलानियों के लिए ये कोर्सेस अनिवार्य हों। वीसा के लिए आवश्यक नियमावली में इसे समाविष्ट किया जा सकता है।

बढ़ते विदेशी पूँजीनिवेश के साथ भारतीय भाषाओं और भारतीयता का संघर्ष ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’की स्थिति में आ खड़ा हुआ है। समय की मांग है कि हिंदी और सभी भारतीय भाषाएँ एकसाथ आएँ। प्रादेशिक स्तर पर प्रादेशिक भाषा और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के नारे को बुलंद करना होगा। ‘अंधाधुंध अंग्रेजी’के विरुद्ध ये एकता अनिवार्य है।

बीते सात दशकों में पहली बार भाषा नीति को लेकर  वर्तमान केंद्र सरकार संवेदनशील और सक्रिय दिखाई दे रही है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता के पक्ष में स्वयं प्रधानमंत्री ने पहल की है। मंत्री तो मंत्री रक्षा और विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता भी हिंदी में अपनी बात रख रहे हैं। नई शिक्षानीति भारतीय भाषाओं की उन्नति की दृष्टि से दूरगामी सिद्ध होगी। प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो,च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम हो या उच्चस्तर पर आधुनिक भारतीय भाषाओं का अध्ययन, अरुणोदय की संभावनाएँ तो बन रही हैं। आशा है कि इन किरणों के आलोक में ‘इंडिया’की केंचुली उतारकर ‘भारत’ शीघ्रतिशीघ्र बाहर आएगा।

 

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ राजभाषा दिवस विशेष – हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों की विकास यात्रा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज राजभाषा दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय आलेख हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों की विकास यात्रा।  राजभाषा दिवस पर  प्रस्तुत इस अलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ राजभाषा दिवस विशेष – हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों की विकास यात्रा ☆

  एक छोटा बच्चा भी जो कोई भाषा नही जानता चेहरे के हाव भाव व स्पर्श की मृदुलता से हमारी भावनायें समझ लेता है. विलोम में अपनी मुस्कान. रुदन या उं आां से ही अपनी सारी बातें मां पिता को समझा लेता है. विश्व की हर भाषा में हंसी व रुदन के स्वर समान ही होते हैं. पालतू पशु पक्षी तक अपने स्वामी से सहज संवाद अपनी विशिष्ट शैली में कर लेते हैं. अर्थात भाषा भावनाओ के परस्पर संप्रेषण का माध्यम है.

हिंदी एक पूर्ण समृद्ध भाषा है. इसके वर्तमान स्‍वरूप के विकास से पहले खड़ी बोली के कई साहित्यिक रूप विकसित थे, जैसे दकनी, उर्दू, हिंदुस्‍तानी आदि.  यह जानना भी रोचक है कि हिंदी के विकास में अंग्रेजों और उनकी संस्‍थाओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण  रही है.  उन्‍नीसवीं सदी हिंदी के विकास की दृष्टि से निर्णायक सदी थी.  आधुनिकता की अवधारणा और राजभाषा के सवाल से हिंदी के स्‍वरूप निर्धारण और विकास का गहरा संबंध है. उन्‍नीसवीं सदी के नवजागरण के पुरोधाओं, जैसे राजा शिवप्रसाद, भारतेंदु, बालकृष्‍ण भट्ट, अयोध्‍याप्रसाद खत्री, महावीर प्रसाद द्विवेदी, देवकीनंद खत्री आदि का हिंदी के विकास में उल्‍लेखनीय योगदान रहा है.

महात्मा गांधी ने हिंदी को  स्‍वाधीनता आंदोलन की भाषा के रूप में अंगीकार कर  देश को एक सूत्र में जोड़ने का काम किया था.  नेहरू जी, लोहिया जी व प्रायः राष्ट्रीय नेताओ के समर्थन से हिंदी भारत की राजभाषा बनी.   आज के दौर की सूचना-तकनीक की हिंदी , हमें हिंदी के भविष्‍य के बारे में संकेत करती है.

एक छोटे क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा बोली कहलाती है. बोली में साहित्य रचना का अभाव दिखता है. जब किसी बोली में साहित्य रचना होने लगती है और क्षेत्र का विकास हो जाता है तो वह बोली न रहकर उपभाषा के रूप में स्थापित हो जाती है.  साहित्यकार जब किसी भाषा को  साहित्य रचना द्वारा  सर्वमान्य स्वरूप प्रदान कर लेते हैं तथा उसका  क्षेत्र व्यापक हो जाता है तो वह भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो जाती  है. भारत के बाहर हिन्दी बोलने वाले देशो में  अमेरिका, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, यमन, युगांडा, सिंगापुर, नेपाल, न्यूजीलैंड, जर्मनी, पाकिस्तान, बांगलादेश आदि राष्ट्रों सहित दुनिया भर में  हिन्दी का प्रयोग हो रहा है.

पहले भाषा का जन्म हुआ और उसकी सार्वभौमिकता और एकात्मकता के लिए लिपि का आविष्कार हुआ. भाषा की सही-सही अभिव्यक्ति की कसौटी ही लिपि की सार्थकता है. प्रतिलेखन और लिप्यांतरण के दृष्टिकोण से देवनागरी लिपि अन्य उपलब्ध लिपियों से बहुत ऊपर है.इसमें मात्र 52 अक्षर (14 स्वर और 38 व्यंजन) हैं. किंतु प्रत्येक फोनेटिक शब्द के लिप्यांतरण में हिन्दी पूर्नतः सक्षम है. हिन्दी की विकास यात्रा की विवेचना करें तो हम पाते हैं कि हिन्दी  संस्कृत, प्राकृत, फारसी और कुछ अन्य भाषाओं के विभिन्न संयोजनों से निर्मित भाषाओं से जनित है.  यह द्रविड़ियन, तुर्की, फारसी, अरबी, पुर्तगाली और अंग्रेजी द्वारा प्रभावित और समृद्ध हुई भाषा है. यह एक बहुत ही अभिव्यंजक भाषा है, जो कविता और गीतों में बहुत ही लयात्मक और सरल और सौम्य शब्दों का उपयोग कर भावनाओं को व्यक्त कर सकने में सक्षम है. हिन्दी की क्षेत्रारानुसार अनेक बोलियाँ हैं, जिनमें अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, हड़ौती,भोजपुरी, हरयाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुमाउँनी, मगही आदि प्रमुख हैं.  इनमें से कुछ में अत्यंत उच्च श्रेणी के साहित्य की रचना हुई है.  ब्रजभाषा और अवधी में हिन्दी का साहित्य प्रचुरता से लिखा गया है. स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के विरुद्ध भी लोकभाषा में बहुत लिखा जा रहा है. भोजपुरी सिनेमा ने नये समय में उसका साहित्य समृद्ध किया है. इधर बुंदेली. बघेली बोलियो में भी व्यापक साहियत्यिक लेखन हो रहा है.

प्रकाशन तकनीक का विकास. कम्प्यूटर में हिन्दी व अन्य भारतीय लिपियों की सुविधाओ का विस्तार. यू ट्यूब व अन्य संसाधनो से हिन्दी व संबंधित बोलियां लगातार समृद्ध हो रही हैं. हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों के विकास का मूल मंत्र यही है कि हम मूल रचना कर्म तथा अन्य भाषाओ से निरंतर अनुवाद के द्वारा अपनी भाषा की समृद्धि को बढ़ाने का कार्य करते रहें. अंग्रेजी की दासता से मुक्त होना जरूरी है.  नई पीढ़ी को निज भाषा के गौरव से अवगत कराने के निरंतर यत्न करते रहने होंगे.जब हिन्दी के उपयोगकर्ता बढ़ेंगे तो स्वतः ही तकनीक का वैश्विक बाजार हिन्दी के समर्थन में खड़ा मिलेगा. हिन्दी का शब्दागार व साहित्य निरंतर समृद्ध करते रहने की आवश्यकता है.नई पीढ़ी की जबाबदारी है कि नये इलेक्ट्रानिक माध्यमो के जरिये हिन्दी व बोलियो के साहित्य की प्रस्तुति यदि बढ़ाई जावे . ई बुक्स व आडियो वीडियो संसाधनो को युवा पसंद कर रहा है हिन्दी के प्राचीन साहित्य व नई रचनाओ को इन माध्यमो में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है. जिससे हिन्दी भाषा और संबद्ध बोलियों की विकास यात्रा अनवरत जारी रहे.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ राजभाषा दिवस विशेष – यांत्रिक युग में भौतिक कलेवर में फंसी हिंदी ☆ डॉ.राशि सिन्हा

डॉ.राशि सिन्हा

(राजभाषा दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है डॉ राशि सिन्हा जी का एक विचारणीय आलेख यांत्रिक युग में भौतिक कलेवर में फंसी हिंदी।)  

☆ राजभाषा दिवस विशेष – यांत्रिक युग में भौतिक कलेवर में फंसी हिंदी ☆ डॉ.राशि सिन्हा ☆ 

अभिव्यक्ति के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं व सृजनात्मक संभावनाओं का सरलीकरण कर किसी राष्ट्र की विद्यमान जीवन-स्थिति को व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान कर देश की सामाजिक, सांस्कृतिक व समस्त विविधताओं को आत्मिक स्वरुप प्रदान कर देश को एकसूत्र में बाँधने में किसी देश की भाषा का योगदान सबसे बड़ा होता है।  संदर्भगत हॉवेल की उक्ति सार्थक प्रतीत होती है, किसी भी देश और समाज के चरित्र को समझने की कसौटी केवल एक है और वह यह है कि उस देश और समाज का भाषा से सरोकार क्या है”। इन्हीं कारणों से अभ्यंतर अभिव्यक्ति को सर्वाधिक सशक्त  अभिव्यक्ति मानते हुए 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को संविधान  के अधिकारिक राजभाषा के रुप में स्वीकृत किया गया, ताकि वसुधैव कुटुंबकम की भावना पर आधारित देश की ‘राज्य-राष्ट्र’ की कल्पना को अखंडित-अक्षुण्ण रख  विकास के पथ पर निरंतर अग्रसर हो सके हमारा राष्ट्र, किंतु ‘यांत्रिक युग’ के रुप में परिभाषित होते वर्तमान में ‘भाषायी वैश्विकरण’, उदारवाद व उपभोक्ता-संस्कृति के केंद्र में बैठे बाजारवाद की चुनौतियों के आगे हमारी मातृभाषा ‘हिंदी’ अपने ही घर में ‘दोयम दर्जे’ की मार झेलने को विवश होती दिखाई देती है।  साथ ही,  संस्कृति निष्ठ हिंदी के समर्थकों के एक विशेष वर्ग के कारण भी आज इसकी अभिव्यंजना शक्ति को नजरअंदाज किया जा रहा है।  फलत: यह आम लोगों की पकड़ से दूर होती जा रही है। आज समाज में एक ऐसा भी वर्ग है जो स्वभाषा के प्रति आत्महीनता के भाव से ग्रसित, निज भौतिक स्वार्थ में लिप्त, अँग्रेजी के ऐतिहासिक आतंक से, ऊपर उठने के बजाय इस वर्ग ने हिंदी व अँग्रेजी में प्रतिस्पर्धा की स्थति उत्पन्न कर रखा है।  फलत: भाषायी वैश्वीकरण के नाम पर गुगल में सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने के बावजूद आज अपने ही घर में हिंदी तिरस्कृत है।  बोलचाल की भाषा के रुप में प्रचलित ‘हिंग्लिश -संस्कृति’ युवाओं की मानसिकता के साथ साथ समाज के प्रत्येक वर्ग-व्यवसाय को मनोवैज्ञानिक रुप से ऐसा जकड़ रखा है कि हिंदी की जड़ें अपनी  ही संस्कृति के आँगन में हिलती नजर आती है।  भाषा का समाज -शिक्षा-संस्कृति के साथ नाभि-नाल संबंध होता है, किंतु आज हमारे देश में यह भाषायी विडंबना है कि सिविल सर्विसेज जैसी उच्च कोटि में अँग्रेजी भाषा-तंत्र का बोलबाला है हिंदी माध्यम के परिणाम दिनोंदिन कम से कमतर होते जा रहें हैं। परिणामत:महत्वकांक्षी युवावर्ग अँग्रेजी को अपनाने के लिए विवश हो रहा है।  कहने का तात्पर्य यह है कि सरकारी तंत्र से लेकर समाज का हर व्यक्ति दिनोंदिन अपनी मातृभाषा को हेय समझ उसे दोयम दर्जा देने को आतुर दिख रहा है।  इन्हीं भौतिक कलेवर में फँसीबिचारी हिंदी आज अपने ही घर में दोयम-दर्जे के अस्तित्व को जीने के लिए विवश होती दिखाई देती है।

ऐसे में भरतेंदु हरिश्चन्द्र की पंक्तियाँ याद आती हैं,

“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति का मूल/बिनु निज भाषा ग्यान के, मिटै न हिय के शूल।  ”

इन सारी बातों से इतना तो तय है कि राष्ट्र के वैश्विक पहचान व निरंतर विकास हेतु निज भाषा को अपनाना, सम्मान देना अति आवश्यक है।  इसके लिए सरकारी तंत्र पर निर्भर रहने के बजाय व्यापक जनआंदोलन में व्यक्तिगत रुप से अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।  वैसी जिम्मेदारी जिसमें मनोवैज्ञानिक रुप से भाषायी आत्मियता को महसूस कर उसे अंगीकार करना होगा।  तभी हिंदी अपने घर में गूंगी होने से बच सकेगी और हम अपनी भाषायी विरासत को एकदिवसीय महत्ता से निकालकर इसके अस्तित्व को पूर्ण अस्तित्व प्रदान कर सकेंगे।

डॉ.राशि सिन्हा

नवादा, बिहार

( साभार श्री विजय कुमार, सह संपादक – शुभ तारिका, अम्बाला)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सामाजिक चेतना – #65 ☆ राजभाषा दिवस विशेष – असमिया भाषा का इतिहास ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में  राजभाषा दिवस पर प्रस्तुत है हमारे उत्तर पूर्व  में स्थित असम की आधिकारिक भाषा का  ज्ञानवर्धक इतिहास असमिया भाषा का इतिहास।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री  निशा नंदिनी  जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना  #65 ☆

☆ राजभाषा दिवस विशेष – असमिया भाषा का इतिहास ☆

आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की श्रृंखला में पूर्वी सीमा पर अवस्थित असम की भाषा को  असमी,असमिया अथवा आसामीकहा जाता है।असमिया भारत के असम प्रांत की आधिकारिक भाषा तथा असम में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा है। इसको बोलने वालों की संख्या डेढ़ करोड़ से अधिक है।

भाषाई परिवार की दृष्टि से इसका संबंध आर्य भाषा परिवार से है। बांग्ला, मैथिली, उड़िया और नेपाली से इसका निकट का संबंध है। गियर्सन के वर्गीकरण की दृष्टि से यह बाहरी उपशाखा के पूर्वी समुदाय की भाषा है। सुनीतिकुमार चटर्जी के वर्गीकरण में प्राच्य समुदाय में इसका स्थान है। उड़िया तथा बंगला की भांति असमी की भी उत्पत्ति प्राकृत तथा अपभ्रंश से ही हुई है।

यद्यपि असमिया भाषा की उत्पत्ति सत्रहवीं शताब्दी से मानी जाती है। किंतु साहित्यिक अभिरुचियों का प्रदर्शन तेरहवीं शताब्दी में रुद्र कंदलि के द्रोण पर्व (महाभारत) तथा माधव कंदलि के रामायण से प्रारंभ हुआ। वैष्णवी आंदोलन ने प्रांतीय साहित्य को बल दिया।शंकर देव (1449-1567) ने अपनी लंबी जीवन-यात्रा में इस आंदोलन को स्वरचित काव्य, नाट्य व गीतों से जीवित रखा।

सीमा की दृष्टि से असमिया क्षेत्र के पश्चिम में बंगला है। अन्य दिशाओं में कई विभिन्न परिवारों की भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें से तिब्बती, बर्मी तथा खासी प्रमुख हैं। इन सीमावर्ती भाषाओं का गहरा प्रभाव असमिया की मूल प्रकृति में देखा जा सकता है।असमिया एकमात्र बोली नहीं हैं। यह प्रमुखतः मैदानों की भाषा है।

बहुत दिनों तक असमिया को बंगला की एक उपबोली सिद्ध करने का उपक्रम होता रहा है। असमिया की तुलना में बंगला भाषा और साहित्य के बहुमुखी प्रसार को देखकर ही लोग इस प्रकार की धारण बनाते रहे हैं। परंतु भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि से बंगला और असमिया का समानांतर विकास आसानी से देखा जा सकता है। मागधी अपभ्रंश के एक ही स्रोत से निःसृत होने के कारण दोनों में समानताएँ हो सकती हैं। पर उनके आधार पर एक दूसरे की बोली सिद्ध नहीं किया जा सकता।

क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से असमिया के कई उपरूप मिलते हैं। इनमें से दो मुख्य हैं- पूर्वी रूप और पश्चिमी रूप। साहित्यिक प्रयोग की दृष्टि से पूर्वी रूप को ही मानक माना जाता है। पूर्वी की अपेक्षा पश्चिमी रूप में बोलीगत विभिन्नताएँ अधिक हैं। असमिया के इन दो मुख्य रूपों में ध्वनि, व्याकरण तथा शब्दसमूह, इन तीनों ही दृष्टियों से अंतर मिलते हैं। असमिया के शब्दसमूह में संस्कृत तत्सम, तद्भव तथा देशज के अतिरिक्त विदेशी भाषाओं के शब्द भी मिलते हैं। अनार्य भाषा परिवारों से गृहीत शब्दों की संख्या भी कम नहीं है। भाषा में सामान्यत: तद्भव शब्दों की प्रधानता है। हिंदी उर्दू के माध्यम से फारसी, अरबी तथा पुर्तगाली और कुछ अन्य यूरोपीय भाषाओं के भी शब्द आ गए हैं।

भारतीय आर्यभाषाओं की श्रृंखला में पूर्वी सीमा पर स्थित होने के कारण असमिया कई अनार्य भाषा परिवारों से घिरी हुई है। इस स्तर पर सीमावर्ती भाषा होने के कारण उसके शब्द समूह में अनार्य भाषाओं के कई स्रोतों के लिए हुए शब्द मिलते हैं। इन स्रोतों में से तीन अपेक्षाकृत अधिक मुख्य हैं-

(१) ऑस्ट्रो-एशियाटिक – खासी, कोलारी, मलायन

(२) तिब्बती-बर्मी-बोडो

(३) थाई-अहोम

शब्द समूह की इस मिश्रित स्थिति के प्रसंग में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि खासी, बोडो तथा थाई तत्व तो असमिया में उधार लिए गए हैं। पर मलायन और कोलारी तत्वों का मिश्रण इन भाषाओं के मूलाधार के पास्परिक मिश्रण के फलस्वरूप है। अनार्य भाषाओं के प्रभाव को असम के अनेक स्थान नामों में भी देखा जा सकता है। ऑस्ट्रिक, बोडो तथा अहोम के बहुत से स्थान नाम ग्रामों, नगरों तथा नदियों के नामकरण की पृष्ठभूमि में मिलते हैं। अहोम के स्थान नाम प्रमुखत: नदियों को दिए गए नामों में हैं।

असमिया लिपि मूलत: ब्राह्मी का ही एक विकसित रूप है। बंगला से उसकी निकट समानता है। लिपि का प्राचीनतम उपलब्ध रूप भास्कर वर्मन का 610 ई. का ताम्रपत्र है। परंतु उसके बाद से आधुनिक रूप तक लिपि में “नागरी” के माध्यम से कई प्रकार के परिवर्तन हुए हैं।

असमिया भाषा का व्यवस्थित रूप 13वीं तथा 14वीं शताब्दी से मिलने पर भी उसका पूर्वरूप बौद्ध सिद्धों के “चर्यापद” में देखा जा सकता है। “चर्यापद” का समय विद्वानों ने ईसवी सन् 600 से 1000 के बीच स्थिर किया है। दोहों के लेखक सिद्धों में से कुछ का तो कामरूप प्रदेश से घनिष्ट संबंध था। “चर्यापद” के समय से 12वीं शताब्दी तक असमी भाषा में कई प्रकार के मौखिक साहित्य का सृजन हुआ था। मणिकोंवर-फुलकोंवर-गीत, डाकवचन, तंत्र मंत्र आदि इस मौखिक साहिय के कुछ रूप हैं।

असमिया भाषा का पूर्ववर्ती रूप अपभ्रंश मिश्रित बोली से भिन्न रूप प्राय: 18वीं शताब्दी से स्पष्ट होता है। भाषागत विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए असमिया के विकास के तीन काल माने जा सकते हैं।

14वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी के अंत तक। इस काल को फिर दो युगों में विभक्त किया जा सकता है। पहला वैष्णव-पूर्व युग दूसरा वैष्णव युग। इस युग के सभी लेखकों में भाषा का अपना स्वाभाविक रूप निखर आया है। यद्यपि कुछ प्राचीन प्रभावों से वह सर्वथा मुक्त नहीं हो सकी है। व्याकरण की दृष्टि से भाषा में पर्याप्त एकरूपता नहीं मिलती। परंतु असमिया के प्रथम महत्वूपर्ण लेखक शंकरदेव (जन्म-1449) की भाषा में ये त्रुटियाँ नहीं मिलती हैं। वैष्णव-पूर्व-युग की भाषा की अव्यवस्था यहाँ समाप्त हो जाती है। शंकरदेव की रचनाओं में ब्रजबुलि प्रयोगों का बाहुल्य है।

17वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक। इस युग में अहोम राजाओं के दरबार की गद्यभाषा का रूप प्रधान है। इन गद्य कर्ताओं को बुरंजी कहा गया है। बुरंजी साहित्य में इतिहास लेखन की प्रारंभिक स्थिति के दर्शन होते हैं। प्रवृत्ति की दृष्टि से यह पूर्ववर्ती धार्मिक साहित्य से भिन्न है। बुरंजियों की भाषा आधुनिक रूप के अधिक निकट है।

19वीं शताब्दी के प्रारंभ से। 1819 ई. में अमरीकी बप्तिस्त पादरियों द्वारा प्रकाशित असमीया गद्य में बाइबिल के अनुवाद से आधुनिक असमीया का काल प्रारंभ होता है। मिशन का केंद्र पूर्वी आसाम में होने के कारण उसकी भाषा में पूर्वी आसाम की बोली को ही आधार माना गया। 1846 ई. में मिशन द्वारा एक मासिक पत्र “अरुणोदय” प्रकाशित किया गया। 1848 में असमीया का प्रथम व्याकरण छपा और 1867 में प्रथम असमीया अंग्रेजी शब्दकोश तैयार हुआ। श्रीमन्त शंकरदेव असमिया भाषा के अत्यंत प्रसिद्ध कवि, नाटककार तथा हिन्दू समाज सुधारक थे।

असमीया की पारंपरिक कविता उच्चवर्ग तक ही सीमित थी। भट्टदेव (1558-1638) ने असमिया गद्य साहित्य को सुगठित रूप प्रदान किया। दामोदरदेव ने प्रमुख जीवनियाँ लिखीं। पुरुषोत्तम ठाकुर ने व्याकरण पर काम किया। अठारहवी शती के तीन दशक तक साहित्य में विशेष परिवर्तन दिखाई नहीं दिए। उसके बाद चालीस वर्षों तक असमिया साहित्य पर बांग्ला का वर्चस्व बना रहा। असमिया को जीवन प्रदान करने में चन्द्र कुमार अग्रवाल (1858-1938), लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा (1867-1838) व हेमचन्द्र गोस्वामी (1872-1928) का योगदान रहा। असमीया में छायावादी आंदोलन छेड़ने वाली मासिक पत्रिका जोनाकी का प्रारंभ इन्हीं लोगों ने किया था। उन्नीसवीं शताब्दी के उपन्यासकार पद्मनाभ गोहाञिबरुवा और रजनीकान्त बरदलै ने ऐतिहासिक उपन्यास लिखे। सामाजिक उपन्यास के क्षेत्र में देवाचन्द्र तालुकदार व बीना बरुवा का नाम प्रमुखता से आता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य को मृत्यंजय उपन्यास के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस भाषा में क्षेत्रीय व जीवनी रूप में भी बहुत से उपन्यास लिखे गए हैं। 40वें व 50वें दशक की कविताएँ व गद्य मार्क्सवादी विचारधारा से भी प्रभावित दिखाई देती है।

अहोम वंश की मुद्रा जिस पर असमिया लिपि में लिखा गया है। असमिया लिपि ‘पूर्वी नागरी’ का एक रूप है जो असमिया के साथ-साथ बांग्ला और विष्णुपुरिया मणिपुरी को लिखने के लिये प्रयोग की जाती है। केवल तीन वर्णों को छोड़कर शेष सभी वर्ण बांग्ला में भी ज्यों-के-त्यों प्रयुक्त होते हैं। ये तीन वर्ण हैं- ৰ (र), ৱ (व) और ক্ষ (क्ष)।

इस तरह असमिया भाषा का इतिहास बहुत प्राचीन और विस्तृत है।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

9435533394

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #62 ☆ साक्षर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच –  साक्षर ☆

बालकनी से देख रहा हूँ कि सड़क पार खड़े,  हरी पत्तियों से लकदक  पेड़ पर कुछ पीली पत्तियाँ भी हैं। इस पीलेपन से हरे की आभा में उठाव आ गया है,  पेड़ की छवि में समग्रता का भाव आ गया है।

रंगसिद्धांत के अनुसार नीला और पीला मिलकर बनता है हरा..। वनस्पतिशास्त्र बताता है कि हरा रंग अमूनन युवा और युवतर पत्तियों का होता है। पकी हुई पत्तियों का रंग सामान्यत: पीला होता है। नवजात पत्तियों के हरेपन में पीले की मात्रा अधिक होती है।

पीले और हरे से बना दृश्य मोहक है। परिवार में युवा और बुजुर्ग की रंगछटा भी इसी भूमिका की वाहक होती है। एक के बिना दूसरे की आभा फीकी पड़ने लगती है। अतीत के बिना वर्तमान शोभता नहीं और भविष्य तो होता ही नहीं। नवजात हरे में अधिक पीलापन बचपन और बुढ़ापा के बीच अनन्य सूत्र दर्शाता है।

प्रकृति पग-पग पर जीवन के सूत्र पढ़ाती है। हम  देखते तो हैं पर बाँचते नहीं। जो प्रकृति के सूत्र  बाँच सका, विश्वास करना वही अपने समय का सबसे बड़ा साक्षर और साधक भी हुआ।

 

© संजय भारद्वाज

अपराह्न 3:26, 12.9.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार : जीवन विद्या का आलोक केन्द्र ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास। हम  श्री सदानंद आंबेकर  जी  के हृदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे पाठकों के लिए एक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की जानकारी दी है जिसके बारे में संभवतः बहुत कम  अथवा सीमित जानकारी है। श्री सदानंद जी इस विश्वविद्यालय में के नियमों के अनुरूप  शिक्षण कार्य भी करते हैं। बंधुवर  श्री सदानंद जी  का यह ज्ञानवर्धक आलेख निश्चित ही हमारे पाठकों को शिक्षा के क्षेत्र के इस ज्ञानमंदिर की अनुपम जानकारी उपलब्ध कराएगा।  इस अतिसुन्दर आलेख के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार : जीवन विद्या का आलोक केन्द्र 

विश्व की प्राचीन एवं आध्यात्मिक नगरी हरिद्वार में ऋषिकेश मार्ग पर अवस्थित देव संस्कृति विश्वविद्यालय एक विशिष्ट शैक्षणिक संस्थान एवं ज्ञान का आलोक केन्द्र है जिसका प्रमुख लक्ष्य है मानव में देवत्व का उदय एवं धरती पर स्वर्ग का अवतरण।

उत्तराखण्ड सरकार की विशेष अधिसूचना के अनुसार वर्ष 2002 में इसे विश्वविद्यालय का स्वरूप प्रदान किया गया। गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में विशाल हरित एवं शिवालिक श्रेणियों के निकट परिक्षेत्र में इस विश्वविद्यालय का निर्माण गायत्री परिवार के संस्थापक, संत-दार्शनिक, वेदमूर्ति पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी की परिकल्पना के अनुसार हुआ है। उन्होंने कहा था – ऐसा एक विश्वविद्यालय देश में होना ही चाहिये जो सच्चे मनुष्य, बडे मनुष्य, महान मनुष्य, सर्वांगपूर्ण मनुष्य बनाने की आवश्यकता को पूर्ण कर सके।

गुरुकुल के रूप में विकसित इस विश्वविद्यालय में धर्म, दर्शन, संस्कृति, आदि पर आधारित पाठ्यक्रमों का शिक्षण एवं इनके समसामयिक बिन्दुओं पर शोध का कार्य होता है।

योग एवं मानव स्वास्थ्य, शिक्षा, कंप्यूटर साइंस, संचार, पत्रकारिता-जनसंचार, भारतीय संस्कृति एवं पर्यटन भाषा विज्ञान, ग्राम प्रबंधन प्राच्य अध्ययन  एवं पर्यावरण विषयों में सर्टिफिकेट से लेकर स्नातकोत्तर एवं चयनित विषयों में शोध की व्यवस्था यहाँ है।

न्यूनतम सहयोग लेते हुये समयदान आधार पर शिक्षक एवं कर्मचारीगण यहाँ अपना कार्य करते हैं। विद्यार्थियों को अनवरत ज्ञान धारा प्रदान करने हेतु लगभग सैंतीस हजार पुस्तकों का कंप्यूटरीकृत वाचनालय यहाँ पर है। विविध प्रयोगशालाओं में विद्यार्थी अपने ज्ञान का प्रायोगिक करके सूत्रों की सत्यता सिद्ध कर सकते हैं।

न्यूनतम शुल्क पर चलने वाले इस विश्वविद्यालय में गुरुदक्षिणा के रूप में हर विद्यार्थी को सामाजिक दायित्व का निर्वहन करने निर्धारित अवधि हेतु सामाजिक इंटर्नशिप हेतु क्षेत्रों में जाकर समयदान करना आवश्यक होता है।

योग एवं मानव चेतना के अनिवार्य विषयों के साथ हर सत्र का शुभारंभ ज्ञान दीक्षा जैसे प्रेरक संस्कार से होता है जिसमें विद्यार्थी को विद्यार्जन संबंधी अनुशासनों का संकल्प लेना होता है।

बाहरी तौर पर देखने पर किसी संस्था विशेष के दिखने वाले इस विश्वविद्यालय का आंतरिक स्वरूप एकदम भिन्न है। अनेक देशों यथा – रूस, जर्मनी, इटली, चीन, सं. रा. अमेरिक अर्जेंटीना एवं इंडोनेशिया आदि के नामांकित संस्थानों के साथ शिक्षण के अनुबंध हुये हैं जिनके यहां हमारे एवं उनके यहां से अनेक विद्यार्थी यहां पढने आते हैं।

अनेक अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों, गोष्ठियों, विचार मंचों का आयोजन एवं दीक्षांत समारोहों का आयोजन यहां हुआ है जिसमें महामहिम पूर्व राष्ट्रपति स्व कलाम साहब, महामहिम  पूर्व राष्ट्रपति स्व प्रणब मुखर्जी एवं श्री कैलाश सत्यार्थी जैसी विभूतियों का आगमन हुआ है जिससे विश्वविद्यालय के गौरव में बढोत्तरी हुई है।

विद्यार्थियों के समग्र व्यक्तित्व के विकास हेतु संगीत, चित्रकारी, योग प्रतियोगितायें, खेलकूद, जूड़ो आदि का शिक्षण भी दिया जाता है जिसमें यहां के छात्र अक्सर पदक प्राप्त करते हैं।

श्रेष्ठ मानव निर्माण करने वाली इस टकसाल – देव संस्कृति विश्वविद्यालय में प्रवेश प्रक्रिया ऑनलाईन आवेदन के बाद लिखित परीक्षा एवं व्यक्तिगत साक्षात्कार के साथ पूर्ण होती है जिसके माध्यम से अनगढ़ माटी को सुगढ़ आकार देकर श्रेष्ठ व्यक्तित्व निकाल कर राष्ट्र को समर्पित किये जाते हैं।

web ::  www.dsvv.ac.in

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखंड)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 61 ☆ प्रतिशोध नहीं परिवर्तन ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख प्रतिशोध नहीं परिवर्तन। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 61 ☆

☆ प्रतिशोध नहीं परिवर्तन ☆

 

‘ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे, जो प्रतिशोध के बजाय परिवर्तन की सोच रखते हैं।’ प्रतिशोध उन्नति के पथ में अवरोधक का कार्य करता है तथा मानसिक उद्वेलन व क्रोध को बढ़ाता है; मन की शांति को मगर की भांति लील जाता है… ऐसे व्यक्ति को कहीं भी कल अथवा चैन नहीं पड़ती। उसका सारा ध्यान विरोधी पक्ष की गतिविधियों पर ही केंद्रित नहीं होता, वह उसे नीचा दिखाने के अवसर की तलाश में रहता है। उसका मन अनावश्यक उधेड़बुन में उलझा रहता है, क्योंकि उसे अपने दोष व अवगुण नज़र नहीं आते और अन्य सब उसे दोषों व बुराइयों की खान नज़र आते हैं। फलत: उसके लिए उन्नति के सभी द्वार बंद हो जाते हैं। उन विषम परिस्थितियों में अनायास सिर उठाए कुकुरमुत्ते हर दिन सिर उठाए उसे प्रतिद्वंद्वी के रूप में नज़र आते हैं और हर इंसान उसे उपहास अथवा व्यंग्य करता-सा दिखाई पड़ता है।

ऊंचा उठने के लिए पंखों की ज़रूरत पक्षियों को पड़ती है। परंतु मानव जितना विनम्रता से झुकता है; उतना ही ऊपर उठता है। सो! विनम्र व्यक्ति सदैव झुकता है; फूल-फल लगे वृक्षों की डालिओं की तरह… और वह सदैव ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर के भाव से मुक्त रहता है। उसे सब मित्र-सम लगते हैं और वह दूसरों में दोष-दर्शन न कर, आत्मावलोकन करता है… अपने दोष व अवगुणों का चिंतन कर, वह खुद को बदलने में प्रयासरत रहता है। प्रतिशोध की बजाय परिवर्तन की सोच रखने वाला व्यक्ति सदैव उन्नति के अंतिम शिखर पर पहुंचता है। परंतु इसके लिए आवश्यकता है– अपनी सोच व रुचि बदलने की; नकारात्मकता से मुक्ति पाने की; स्नेह, प्रेम व सौहार्द के दैवीय गुणों को जीवन में धारण करने की; प्राणी-मात्र के हित की कामना करने की; अहं को कोटि शत्रुओं-सम त्यागने की; विनम्रता को जीवन में धारण करने की; संग्रह की प्रवृत्ति को त्याग परार्थ व परोपकार को अपनाने की; सब के प्रति दया, करुणा और सहानुभूति भाव जाग्रत करने की… यदि मानव उपरोक्त दुष्प्रवृत्तियों को त्याग, सात्विक वृत्तियों को जीवन में धारण कर लेता है, तो संसार की कोई शक्ति उसे पथ-विचलित व परास्त नहीं कर सकती।

इंसान, इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि उम्मीदें धोखा देती हैं; जो वह दूसरों से करता है। इससे  संदेश मिलता है कि हमें दूसरों से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि इंसान ही नहीं, हमारी अपेक्षाएं व उम्मीदें ही हमें धोखा देती हैं, जो इंसान दूसरों से करता है। वैसे यह कहावत भी प्रसिद्ध है कि ‘पैसा उधार दीजिए; आपका पक्का दोस्त भी आपका कट्टर निंदक अर्थात् दुश्मन बन जाएगा।’ सो! पैसा उधार देने के पश्चात् भूल जाइए, क्योंकि वह लौट कर कभी नहीं आएगा। यदि आप वापसी की उम्मीद रखते हैं, तो यह आपकी ग़लती ही नहीं, मूर्खता है। जिस प्रकार दुनिया से जाने वाले लौट कर नहीं आते, वही स्थिति ऋण के रूप में दिये गये धन की है। यदि वह लौट कर आता भी है, तो आपका वह सबसे प्रिय मित्र भी शत्रु के रूप में सीना ताने खड़ा दिखाई पड़ता है। सो! प्रतिशोध की भावना को त्याग, अपनी सोच व विचारों को बदलिए– जैसे एक हाथ से दिए गए दान की खबर, दूसरे हाथ को भी नहीं लगनी चाहिए; उसी प्रकार उधार देने के पश्चात् उसे भुला देने में ही आप सबका मंगल है। सो! जो इंसान अपने हित के बारे में ही नहीं सोचता, वह दूसरों के लिए क्या ख़ाक सोचेगा?

समय परिवर्तनशील है और प्रकृति भी पल-पल रंग बदलती है। मौसम भी यथा-समय बदलते रहते हैं। सो! मानव को श्रेष्ठ संबंधों को कायम रखने के लिए, स्वयं को बदलना होगा। जैसे अगली सांस लेने के लिए, मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है, उसी प्रकार आवश्यकता से अधिक संग्रह करना भी मानव के लिए कष्टकारी होता है। सो! अपनी ‘इच्छाओं पर अंकुश लगाइए और तनाव को दूर भगाइए… दूसरों से उम्मीद मत रखिए, क्योंकि वह तनाव का कारण होती हैं।’ महात्मा बुद्ध की यह उक्ति ‘आवश्यकता से अधिक सोचना, संचय करना व सेवन करना– दु:ख और अप्रसन्नता का कारण है… जो हमें सोचने पर विवश करता है कि मानव को व्यर्थ के चिंतन से दूर रहना चाहिए; परंतु यह तभी संभव है, जब वह आत्मचिंतन करता है; दुनियादारी व दोस्तों की भीड़ से दूरी बनाकर रखता है।

वास्तव में दूसरों से अपेक्षा करना हमें अंधकूप में धकेल देता है, जिससे मानव चाह कर भी बाहर निकल नहीं पाता। वह आजीवन ‘तेरी-मेरी’ में उलझा रहता है तथा ‘लोग क्या कहेंगे’… यह सोचकर अपने हंसते-खेलते जीवन को अग्नि में झोंक देता है। यदि इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, तो क्रोध बढ़ता है और पूरी होती हैं तो लोभ। इसलिए उसे हर स्थिति में धैर्य बनाए रखना अपेक्षित है। ‘इच्छाओं को हृदय में मत अंकुरित होने दें, अन्यथा आपके जीवन की खुशियों को ग्रहण लग जाएगा और आप क्रोध व लोभ के भंवर से कभी मुक्त नहीं हो पाएंगे। कठिनाई की  स्थिति में केवल आत्मविश्वास ही आपका साथ देता है, इसलिए सदैव उसका दामन थामे रखिए। ‘तुलना के खेल में स्वयं को मत झोंकिए, क्योंकि जहां इसकी शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद समाप्त हो जाता है… कोसों दूर चला जाता है।’ इसलिए जो मिला है, उससे संतोष कीजिए। स्पर्द्धा भाव रखिए, ईर्ष्या भाव नहीं। खुद को बदलिए, क्योंकि जिसने संसार को बदलने की कोशिश की, वह हार गया और जिसने खुद को बदल लिया, वह जीत गया। दूसरों से उम्मीद रखने के भाव का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। सो! उस राह को त्याग दीजिए, जो कांटों से भरी है, क्योंकि दुनिया भर के कांटों को चुनना व दु:खों को मिटाना संभव नहीं। इसलिए उस विचार को समूल नष्ट करने में सबका कल्याण है। इसके साथ ही बीती बातों को भुला देना कारग़र है, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए वर्तमान में जीना सीखिए। अतीत अनुभव है, उससे शिक्षा लीजिए तथा उन ग़लतियों को वर्तमान में मत दोहराइए, अन्यथा आपके भविष्य का अंधकारमय होना निश्चित है।

वैसे तो आजकल लोग अपने सिवाय किसी के बारे में सोचते ही नहीं, क्योंकि वे अपने अहं में इस क़दर मदमस्त रहते हैं कि उन्हें दूसरों का अस्तित्व नगण्य प्रतीत होती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘यदि आप किसी से सच्चे संबंध बनाए रखना चाहते हैं, तो आप उसके बारे में जो जानते हैं; उस पर विश्वास रखें … न कि जो उसके बारे में सुना है’…  यह कथन कोटिश: सत्य है। आंखों-देखी पर सदैव विश्वास करें, कानों-सुनी पर नहीं, क्योंकि लोगों का काम तो होता है कहना… आलोचना करना; संबंधों में कटुता उत्पन्न करने के लिए इल्ज़ाम लगाना; भला-बुरा कहना; अकारण दोषारोपण करना। इसलिए मानव को व्यर्थ की बातों में समय नष्ट न करने तथा बाह्य आकर्षणों व ऐसे लोगों से सचेत रहने की सीख दी गयी है क्योंकि ‘बाहर रिश्तों का मेला है/ भीतर हर शख्स अकेला है/ यही ज़िंदगी का झमेला है।’ इसलिए ज़रा संभल कर चलें, क्योंकि तारीफ़ के पुल के नीचे सदैव मतलब की नदी बहती है अर्थात् यह दुनिया पल-पल गिरगिट की भांति रंग बदलती है। लोग आपके सामने तो प्रशंसा के पुल बांधते हैं, परंतु पीछे से फब्तियां कसते हैं; भरपूर निंदा करते हैं और पीठ में छुरा घोंपने से तनिक भी गुरेज़ नहीं करते।

‘इसलिए सच्चे दोस्तों को ढूंढना/ बहुत मुश्किल होता है/ छोड़ना और भी मुश्किल/ और भूल जाना नामुमक़िन।’ सो! मित्रों के प्रति शंका भाव कभी मत रखिए, क्योंकि वे सदैव तुम्हारा हित चाहते हैं। आपको गिरता हुआ देख, आगे बढ़ कर थाम लेते हैं। वास्तव में सच्चा दोस्त वही है, जिससे बात करने में खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए…केवल वो ही अपना है, शेष तो बस दुनिया है अर्थात् दोस्तों पर शक़ करने से बेहतर है… ‘वक्त पर छोड़ दीजिए/ कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे।’ समय अपनी गति से चलता है और समय के साथ मुखौटों के पीछे छिपे, लोगों का असली चेहरा उजागर अवश्य हो जाता है। सो! यह कथन कोटिश: सत्य है कि ख़ुदा की अदालत में देर है, अंधेर नहीं। अपने विश्वास को डगमगाने मत दें और निराशा का दामन कभी मत थामें। इसलिए ‘यदि सपने सच न हों/ तो रास्ते बदलो/ मुक़ाम नहीं/ पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं/ जड़ नहीं।’ सो! लोगों की बातों पर विश्वास न करें, क्योंकि आजकल लोग समझते कम और समझाते ज़्यादा हैं। तभी तो मामले सुलझते कम, उलझते ज़यादा हैं। दुनिया में कोई भी दूसरे को उन्नति करते देख प्रसन्न नहीं होता। सो! वे उस सीढ़ी को खींचने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा देते हैं तथा उसे सही राह दर्शाने की मंगल कामना नहीं करते।

इसलिए मानव को अहंनिष्ठ व स्वार्थी लोगों से सचेत व सावधान रहने का संदेश देते हुए कहा गया है, कि घमण्ड मत कर/ ऐ!दोस्त/  सुना ही होगा/ अंगारे राख ही बनते हैं’…जीवन को समझने से पहले मन को समझना आवश्यक है, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का साकार रूप है…’जैसी सोच, वैसी क़ायनात और वैसा ही जीवन।’ सो! मानव को प्रतिशोध के भाव को जीवन में दस्तक देने की कभी भी अनुमति नहीं प्रदान करनी चाहिए, क्योंकि आत्म-परिवर्तन को अपनाना श्रेयस्कर है। सो! मानव को अपनी सोच, अपना व्यवहार, अपना दृष्टिकोण, अपना नज़रिया बदलना चाहिए, क्योंकि नज़र का इलाज तो दुनिया में है, नज़रिये का नहीं। ‘नज़र बदलो, नज़ारे बदल जाएंगे। नज़रिया बदलो/ दुनिया के लोग ही नहीं/ वक्त के धारे भी बदल जाएंगे।’

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 14 ☆ जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला देश भारत ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  विश्व जनसंख्या दिवस – “जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला देश भारत”)

☆ किसलय की कलम से # 14 ☆

☆ जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला देश भारत 

 

जनसंख्या शब्द याद आते ही विश्व की बढ़ती आबादी का भयावह स्वरूप हम सबके सामने आ जाता है। खासतौर पर चीन और भारत की जनसंख्या वृद्धिदर जानकर। इसके पश्चात जनसंख्या वृद्धि को प्रभावित करने वाले प्रश्नों की अंतहीन श्रृंखला मानस पटल पर उभरने लगती है। ऐसा नहीं है कि पिछले छह-सात दशकों में शिक्षा का प्रतिशत न बढ़ा हो, जन जागरूकता न बढ़ी हो अथवा राष्ट्रस्तरीय जनसंख्या नियंत्रण हेतु प्रयास न किए गए हों। उक्त तीनों तथ्यों के अतिरिक्त हमारी सीमित सोच भी जनसंख्या नियंत्रण अभियान को प्रभावित करती है। हमने कभी सकारात्मकता पूर्वक सोचने का प्रयास ही नहीं किया कि हम जनसंख्या नियंत्रण में स्वयं कितना योगदान कर सकते हैं। हाँ, हमारा मस्तिष्क यह अवश्य सोच लेता है कि हमारी एक संतान के अधिक होने से क्या फर्क पड़ेगा। तब यह बताना आवश्यक है कि विश्व जनसंख्या के यदि एक अरब लोग भी इस सोच पर आगे बढ़ेंगे, तब वर्ष में एक अरब जनसंख्या तो वैसे ही बढ़ जाएगी। अब आप ही बताएँ कि यह सोच विश्वस्तर पर कितनी भारी पड़ेगी और देखा जाए तो भारी पड़ भी रही है।  वह दिन दूर नहीं है, जब हमारा देश पहले क्रम पर आकर जनसंख्या वृद्धि का सबसे अधिक खामियाजा भुगतने वाला राष्ट्र बन जाएगा।

अकेली शिक्षा अथवा शासन जनसामान्य को कितना या किस हद तक सचेत करेगा। आज पृथ्वी पर संसाधन हैं। प्रकृति भी साथ दे पा रही है, लेकिन प्रकृति कब तक साथ देगी? धीरे-धीरे हवा, पानी और हरित भूमि भी कम होती जाएगी। जनसंख्या के दबाव से माँगें बढ़ती ही जा रही हैं। माँगों की तुलना में अन्य जरूरतें कम पड़ेंगी ही। बड़े-बड़े कार्यक्रम व सरकारों की सक्रियता से भी आशानुरूप परिणाम सामने नहीं आ पा रहे हैं। हम जनसंख्या नियंत्रण से संबंधित हर वर्ष नई-नई थीम पर केंद्रित ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ मनाते चले आ रहे हैं और उन सब पर कार्य भी किये जा रहे हैं, लेकिन संतोषजनक परिणाम न आने के कारण चिंतित होना स्वाभाविक है।

अन्य राष्ट्रीय-पर्व व त्यौहारों के समान ही ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ मनाने की परिपाटी बन गई है। 11 जुलाई अर्थात विश्व जनसंख्या दिवस के पूर्व कुछ तैयारियाँ प्रारंभ होती हैं। कुछ घोषणाएँ, कुछ भाषण, कुछ संदेश, कुछ बड़े-बड़े आलेखों और उनकी रिपोर्ट का मीडिया में प्रकाशन-प्रसारण हो जाता है। इस दिवस को मनाने का जैसे बस यही उद्देश्य बचा हो। किसी भी स्तर का कार्यक्रम क्यों न हो, उसका प्रमुख विषय यह कभी नहीं देखा गया कि जनसंख्या विषयक पिछले पूरे वर्ष में कितनी प्रगति हुई है। आज विज्ञप्तियों, विशिष्ट लोगों के संदेशों के अतिरिक्त और होता भी क्या है। आज तक कितने बार आपके दरवाजे पर कोई जनप्रतिनिधि, किसी सामाजिक संस्था के सदस्य अथवा किसी सरकारी अमले ने आकर इस समस्या के निराकरण हेतु आपसे कभी पूछा है या कोई समझाइश दी है? क्या आपने…., जी हाँ आपने कभी इस समस्या पर किसी से गंभीरता पूर्वक चर्चा की । आप किसी एक को भी जनसंख्या नियंत्रण हेतु प्रेरित कर पाए हैं।

जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों से आज हम सभी अवगत हैं, मुझे नहीं लगता कि उन बातों का यहाँ उल्लेख अनिवार्य है और न ही यहाँ बहुत बड़ी-बड़ी बातें लिखने का कोई विशेष लाभ है। महत्त्वपूर्ण यह है कि जब तक हम सबसे छोटी इकाई से यह कार्य प्रारंभ नहीं करेंगे। युवा, वयस्क एवं बुजुर्ग सभी इस सर्वहिताय जनसंख्या नियंत्रण अभियान को स्वहिताय नहीं मानेंगे, तब तक जनसंख्या वृद्धि दर के संतोषजनक परिणाम मिलना कठिन ही लगता है।

अंधविश्वास, अशिक्षा, जितने लोग होंगे उतनी अधिक कमाई होगी, जितना बड़ा परिवार उतनी बड़ी दमदारी, हमारे अकेले आगे आने से क्या होगा? ऐसे सभी बार-बार दोहराने वाले जुमलों को परे रखकर हम स्वयं से ही शुरुआत करें और जनसंख्या नियंत्रण में सहभागी बनना सुनिश्चित करें। जमीनी तौर पर यह सभी जानते हैं कि परिवार के सदस्य बढ़ेंगे तो संपत्ति तथा घर के भी अधिक भाग होंगे। चार-छह संतानों के बजाय एक संतान पर अधिक तथा समुचित ध्यान दिया जा सकता है। सीमित संसाधनों के चलते अधिक लोगों को नौकरी नहीं दी जा सकती तब ऐसे में बेरोजगारी तो बढ़ेगी ही। उच्च अर्थव्यवस्था के न होने से सबका खुश रहना और सभी आवश्यकताएँ पूर्ण करना संभव नहीं है। इन सभी बातों का उल्लेख प्राथमिक शालाओं के पाठ्यक्रम से ही प्रारंभ होना चाहिए। मोहल्ला समिति, ग्राम पंचायत, पार्षद, विधायक, सांसद तक प्रत्येक को अपनी दिनचर्या में जनसंख्या नियंत्रण विषय को शामिल करना होगा। अपने कार्यक्रमों, अपने उद्बोधनों एवं शासकीय नीतियों में प्रमुखता से जनसंख्या नियंत्रण की बात कहना होगी। जब तक जनसामान्य एवं सरकार इस विकराल समस्या को प्राथमिकता नहीं देगी, सच मानिए सफलता की आशा करना निरर्थक है।चिंतन-मनन-अध्ययन एवं कार्य भी वृहदरूप में हुए हैं, इसलिए जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणामों का संपूर्ण ब्यौरा देना यहाँ कदापि उचित नहीं है, उचित है तो बस जनसंख्या नियंत्रण हेतु इस अभियान के सुपरिणाम हेतु स्वस्फूर्त रूप से अग्रसर होना और लोगों को अधिक से अधिक प्रेरित करना, ताकि हम यह कह सकें कि हमारे देश में जनसंख्या नियंत्रण अभियान के सुखद परिणाम सामने आने लगे हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 70 ☆ साहित्य की चोरी और  पुरस्कार की भूख ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय आलेख साहित्य की चोरी और  पुरस्कार की भूख।  आलेख का शीर्षक ही साहित्यिक समाज में एक अक्षम्य अपराध / रोग को उजागर करता है। ऐसे विषय पर बेबाक रे रखने के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 70 ☆

☆ साहित्य की चोरी और  पुरस्कार की भूख ☆

जो सो रहा हो उसे जगाया जा सकता है, पर जो सोने का नाटक कर रहा हो उसे नहीं ।

अनेक लोगो को मैंने देखा सुना है जो बहुचर्चित रचनाओं विशेष रूप से कविता, शेर, गजलों को बेधड़क बिना मूल रचनाकार का उल्लेख किये उद्धृत करते हैं, कई दफा ऐसे जैसे वह उनकी रचना हो।

विलोम में कुछ लोग अपने कथन का प्रभाव जमाने के लिए सुप्रसिद्ध रचनाकार के नाम से उसे पोस्ट करते हैं। व्हाट्सएप, कम्प्यूटर ने यह बीमारी बधाई है, क्योंकि कट, कॉपी, पेस्ट और फारवर्ड की सुविधाएं हैं।

अनेक शातिराना लोगों को जो स्वयं अपने, अपनी पत्नी बच्चों के नाम से धड़ाधड़ लिखते दिखाई देते हैं उनके पास मौलिक चिंतन का वैचारिक अभाव होता है।  वे आगामी जयन्ती, पुण्यतिथि के कैलेंडर के अनुसार 4 दिनों पहले ही चुराये गये उधार के विचारों को,शब्द योजना बदलकर सम्प्रेषित करते हैं।  अखबार को भी सामयिक सामग्री चाहिए ही, सो वे छप भी जाते हैं, मांग कर, जुगाड़ से  पुरस्कार भी पा ही जाते हैं, ऐसे लोगो को  सुधारना मुश्किल है। कई दफा जल्दबाजी में ये सीधी चोरी कर लेते हैं व पकड़े जाते हैं। यह साहित्य के लिए दुखद है।

साफ सुथरा पुरस्कार सम्मान रचनाकार को आंतरिक ऊर्जा देता है। यह उसे साहित्य जगत में स्वीकार्यता देता है।

किंतु आदर्श स्थिति में ध्येय पुरस्कार नही लेखन होना चाहिए, पर आज समाज मे हर तरफ नैतिक पतन है, साहित्य में भी यह स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। ऐसे लोगो को  सुधारना मुश्किल काम है।

यू मैं तो यह मानता हूं कि ऐसी हरकतें सोशल मिडीया के इस समय मे छिपती नही है, और जब सब उजागर होता है तब सम्मानित व्यक्ति के प्रति श्रद्धा की जगह दया हास्य व वितृष्णा का भाव पनपने में देर नही लगती, अतः सही रस्ता ही पकड़ने की जरूरत है, सम्मान पाठकों के दिल मे लेखन की गुणवत्ता से ही बनता है।

सद विचार पंछी हैं उनका जितना विस्तार हो अच्छा है।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण-16- मेरा पुण्य तूने ले लिया……… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मेरा पुण्य तूने ले लिया……… ”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 16 – मेरा पुण्य तूने ले लिया………

नोआखली में गांधीजी पैदल गांव-गांव घूम रहे थे । वह दुखियों के आंसू पोंछते थे । उनमें जीने की प्रेरणा पैदा करते थे । वह उनके मन से डर को निकाल देना चाहते थे । इसीलिए उस आग में स्वयं भी अकेले ही घूम रहे थे ।

वहाँ की पगडंडियां बड़ी संकरी थी । इतनी कि दो आदमी एक साथ नहीं चल सकते थे । इस पर वे गंदी भी बहुत थी । जगह-जगह थूक और मल पड़ा रहता था ।

यह देखकर गांधीजी बहुत दुखी होते, लेकिन फिर भी चलते रहते । एक दिन चलते-चलते वे रुके । सामने मैला पड़ा था । उन्होंने आसपास से सूखे पत्ते बटोरे और अपने हाथ से वह मैला साफ कर दिया ।

गांव के लोग चकित हो देखते रह गये । मनु कुछ पीछे थी । पास आकर उसने यह दृश्य देखा ।

क्रोध में भरकर बोली “बापूजी, आप मुझे क्यों शर्मिंदा करते हैं? आपने मुझसे क्यों नहीं कहा? अपने आप ही यह क्यों साफ किया?”

गांधीजी हँस कर बोले, “तू नहीं जानती । ऐसे काम करने में मुझे कितनी खुशी होती है । तुझसे कहने के बजाय अपने-आप करने में कम तकलीफ है ।”

मनु ने कहा “मगर गाँव के लोग तो देख रहे हैं ।”

गांधीजी बोले, “आज की इस बात से लोगों को शिक्षा मिलेगी । कल से मुझे इस तरह के गंदे रास्ते साफ न करने पड़ेंगे । यह कोई छोटा काम नहीं है”

मनु ने कहा, “मान लीजिये गांव वाले कल तो रास्ता साफ कर देंगे । फिर न करें तब?”

गांधीजी ने तुरंत उत्तर दिया,”तब मैं तुझको देखने के लिए भेजूंगा । अगर राह इसी तरह गंदी मिली तो फिर मैं साफ करने के लिए आऊंगा ।”

दूसरे दिन उन्होंने सचमुच मनु को देखने के लिए भेजा । रास्ता उसी तरह गंदा था, लेकिन मनु गांधीजी से कहने के लिए नहीं लौटी। स्वयं उसे साफ करने लगी । यह देखकर गांव वाले लज्जित हुए और वे भी उसके साथ सफाई करने लगे । उन्होंने वचन दिया कि आज से वे ये रास्ते अपने-आप साफ कर लेंगे ।

लौटकर मनु ने जब यह कहानी गांधीजी को सुनाई तो वे बोले, “अरे, तो मेरा पुण्य तूने ले लिया! यह रास्ता तो मुझे साफ करना था । खैर, दो काम हो गये. एक तो सफाई रहेगी, दूसरे अगर लोग वचन पालेंगे तो उनको सच्चाई का सबक मिल जायेगा । ”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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