हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 84 ☆ गाली के विरुद्ध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 84 ☆ गाली के विरुद्ध ☆

रात चढ़ रही है। एक मकान में घनघोर कलह जारी है। सास-बहू के ऊँचे कर्कश स्वर गूँज रहे हैं, साथ ही किसी जंगली पशु की तरह पुरुष स्वर की गुर्राहट कान के पर्दे से बार-बार टकरा रही है। अनुमान लगाता हूँ कि घर के बच्चे किसी कोने में सुन्न खड़े होंगे। संभव है कि डर से रो रहे हों जिनकी आवाज़ कर्कश स्वरों का मुकाबला नहीं कर पा रही हो। बच्चों की मनोदशा और उनके मन पर अंकित होते प्रभाव को नज़रअंदाज़ कर असभ्यता का तांडव जारी है।

‘थिअरी ऑफ इवोल्युशन’ या क्रमिक विकास का सिद्धांत आदमी के सभ्य और सुसंस्कृत होने की यात्रा को परिभाषित करता है। यह केवल एक कोशिकीय से बहु कोशिकीय होने की यात्रा भर नहीं है। संरचना के संदर्भ में विज्ञान की दृष्टि से यह सरल से जटिल की यात्रा भी है। ज्ञान या अनुभूति की दृष्टि से देखें तो संवेदना के स्तर पर यह नादानी से परिपक्वता की यात्रा है। विकास गलत सिद्ध हुआ है या उसे पुनर्परिभाषित करना है, इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।

लेकिन यहाँ चीखने-चिल्लाने के अस्पष्ट शब्दों में सबसे ज़्यादा स्पष्ट हैं पुरुष द्वारा बेतहाशा दी जा रही वीभत्स गालियाँ। माँ, पत्नी, बेटी की उपस्थिति में गालियों की बरसात। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह बरसात निम्न से लेकर उच्चवर्ग तक अधिकांश घरों में परंपरा बन चुकी है।

क्रोध के पारावार में दी जा रही गाली के अर्थ पर गाली देनेवाले के स्तर पर विचार न किया जाए, यह तो समझा जा सकता है। उससे अधिक यह समझने की आवश्यकता है कि घट चुकने के बाद भी उसी घटना की बार-बार, अनेक बार पुनरावृत्ति करनेवाले का बौद्धिक स्तर इतना होता ही नहीं कि वह विचार के उस स्तर तक पहुँचे।

वस्तुतः क्रोध में पगलाते, बौराते लोग मुझे कभी क्रोध नहीं दिलाते। ये सब मुझे मनोरोगी लगते हैं, दया के पात्र। बीमार, जिनका खुद पर नियंत्रण नहीं होता।

अलबत्ता गाली को परंपरा बनानेवालों के खिलाफ ‘मी टू’ की तरह एक अभियान चलाने की आवश्यकता है। स्त्रियाँ (और पुरुष भी) सामने आएँ और कहें कि फलां रिश्तेदार ने, पति ने, अपवादस्वरूप बेटे ने भी गाली दी थी। अपने सार्वजनिक अपमान से इन गालीबाज पुरुषों को वही तिलमिलाहट हो सकती है जो अकेले में ही सही गाली की शिकार किसी महिला की होती होगी।

गाली शाब्दिक अश्लीलता है, गाली वाचा द्वारा किया गया यौन अत्याचार और लैंगिक अपमान है। सरकार ने जैसे ‘नो स्मोकिंग जोन’ कर दिये हैं, उसी तरह गालियों को घरों से बाहर करने, बाहर से भी सीमापार करने के लिए एक मुहिम की आवश्यकता है।

आइए, ‘नो एब्यूसिंग’ की शपथ लें। गाली न दें, गाली न सुनें। गाली का सम्पूर्ण निषेध करें। व्यक्तिगत स्तर पर # No Abusing आरंभ कर रहा हूँ। आप भी साथ दें, इस अभियान से जुड़ें।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ऊर्जा के मन्दिरों की घाटी ☆ श्री हेमचंद्र सकलानी

श्री हेमचंद्र सकलानी

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हेमचन्द्र सकलानी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप उत्तराखंड जल विद्युत् निगम से सेवानिवृत्त हैं।  अभियांत्रिक पृष्ठभूमि के साथ साहित्य सृजन स्वयं में एक अभूतपूर्व उपलब्धि है। आपके साहित्य संसार की उपलब्धियों की कल्पना आपके निम्नलिखित संक्षिप्त परिचय से की जा सकती है।)

संक्षिप्त परिचय 

शिक्षा  – एम.ए.राजनीति विज्ञान और इतिहस।

प्रकाशन  – 1-विरासत को खोजते हुए (उत्तराखंड के यात्रा वृतांत) 2- शब्दों के पंछी (कविता संग्रह) 3- इस सिलसिले में (कहानी संग्रह) 4- विरासत को खोजते हुए (यात्रा वृतांत -भाग – 2) 5- एक युद्ध  अपनों से (कहानी संग्रह) 6- विरासत को खोजते हुए – (भाग -3) 7- उत्तराखंड की जल धाराएं और उनके तट पर ऊर्जा के मन्दिर 8- डूबती टिहरी की आखरी कविताएं (कविता संग्रह का संपादन) 9- अंतर्मन की अनुभूतियां (कहानी संग्रह) 10-विरासत की यात्राएं ( यात्रा वृतांत भाग -४)  11- दुनिया घूमते हुए ( विदेशों के यात्रा संस्मरण, यात्रा वृतांत भाग 5) 12- विरासत की यात्राएं (देश के यात्रा वृतांत भाग 6) इसके अतिरिक्त 1- उत्तराखंड महोत्सव की.

पुरस्कार / सम्मान – देश भर की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा हिमालय गौरव, उत्तराखंड रत्न, भारतेन्दु साहित्य शिरोमणि, हिंदी गौरव सम्मान, यात्रा साहित्य पर भारत सरकार से प्रथम पुरस्कार, मुंबई कहानी प्रतियोगिता में प्रथम स्थान सहित 94 सम्मान प्राप्त। देश भक्ति के गीतों की सीडी “देश को समर्पित वंदना के स्वर” जारी जिसको अपने मधुर स्वरों से सजाया “सारेगामापा” की 2019 की विजेता ईशिता विश्वकर्मा और साथियों ने। 2002, 2004, 2008, 2012, 2014 का तथा पावर जूनियर इंजीनियर एसोशिएसन की वर्ष 2008, 2010, 2012 की स्मारिकाओं का संपादन।

(आज प्रस्तुत है उत्तराखंड की जलधाराओं के तट पर ऊर्जा के मंदिर की गाथा – ऊर्जा के मन्दिरों की घाटी )

 ☆ आलेख ☆ ऊर्जा के मन्दिरों की घाटी ☆ श्री हेमचंद्र सकलानी ☆ 

उत्तरकाशी देश का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल, पर्यटक स्थल, अपनी प्राकृति सुन्दरता के कारण तो जाना ही जाता है, साथ ही अनेक पवित्र नदियों, जैसे गंगा, जाड़गंगा, यमुना, तमसा, केदार गंगा जैसी नदियों का उदगम स्थल भी है। यह जलधारांए अपने अन्दर अनेक पैराणिक कथांए समेटे हैं। जिससे प्राचीन काल से ही ये हमारी असीम आस्था, श्रद्धा का पात्र बनी हुई हैं। उत्तरकाशी की हिमच्छादित पर्वत श्रंखला भागीरथी शिखर से यदि गंगा प्रवाहित होती है। तो गंगोत्री ग्लेशियर के दूसरे छोर बंदरपुंछ अर्थात कालिन्दी शिखर से यमुना उदगमित होती है। पुराणों में यमुना को कालिन्दी के साथ एक हजार नामों से सुशोभित किया गया है। इसी से इस पवित्र नदी का महत्व पता चलता है।

दूसरी ओर हर की दून नामक स्थान से नीचे उतरने पर सांकरी नामक स्थान के पास सुपिन नदी तथा सियान गाड़ नामक जलधाराएं मिलकर तमसा नदी का निर्माण करती हैं। नैटवार, नालगल घाटी, सिंगला घाटी की जलधाराएं रूपिन नदी का रूप लेकर तमसा से मिलती हैं। गलामुंड, कुलनी से आकर कुछ जलधाराएं मोरी के पास तथा जरमोला, पुरोला से, चिरधार से आ रही जलधाराएं  पब्बर नदी, मीनस नदी और दिबन खैरा की दो जलधाराएं अपनी जलराशि से तमसा को समद्ध करती हैं।

आगे चलकर तमसा और यमुना, प्रसिद्ध यमुना घाटी का निर्माण करती हैं। यह जल धाराएं अनेक पौराणिक कथाओं के साथ अपने अन्दर असीम विद्युत शक्ति का भण्डार तथा सिंचाई की क्षमता समेटे हुये हैं। यमुना अपनी सहायक तमसा नदी के साथ उत्तरी क्षेत्र की सर्वाधिक विद्युुत उत्पादन क्षमताओं वाली नदियों में से एक है। इनकी अनुमानित विद्युत क्षमता 1960-70 के दशक में लगभग 55 लाख किलोवाट आंकी गयी थी, तथा इसमें लगभग 3 लाख हैक्टेयर भूमि सिंचाई के लिये 19,000 लाख घनमीटर अतिरिक्त जल प्रदान करने की भी क्षमता है। स्वतन्त्रता के बाद तमसा, यमुना के तट पर कुछ ऊर्जा के मन्दिरों का निर्माण कर इनकी जलशक्ति का उपयोग कर जनजीवन के उपयोग हेतु सिंचाई जल तथा विद्युत शक्ति उत्पन्न करना लक्ष्य रखा गया। जिनमें कुछ एक उददेशीय  परियोजनाए थी तो कुछ बहुउददेशीय परियोजनाए थी। एक उददेशीय परियोजना का लक्ष्य विद्युत उत्पादन था तो बहुउददेशीय परियोजना का विद्युत के साथ सिंचाई के लिए जल उपलब्ध कराने के साथ बाढ़ से होने वाली जन-धन हानि से सुरक्षा प्रदान करना था।

यमुना जल विद्युत परियोजना के प्रथम चरण में देहरादून से 50 कि0मी0 दूर डाकपत्थर में एक बांध बनाया गया । सन 1949 में प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने इस बांध की आधारशिला रखी थी। इस बांध से शक्ति नहर निकाल कर 9 कि0मी0 दूर ढकरानी नामक गांव के समीप ढकरानी पावर हाउस से (11.25MW x 3) अर्थात 33.75 मेगावाट तथा ढालीपुर गांव के समीप ढालीपुर जल विद्युत परियोजना से  (17 MW x 3) अर्थात 51 मेगावाट की परियोजनाओं से नवम्बर-दिसम्बर 1965 में  विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा था।

यमुना जल विद्युत परियोजना के द्वितीय चरण में डाकपत्थर से 40 कि0मी0 दूर इच्छाड़ी नामक गांव के समीप तमसा नदी पर एक बांध बनाया गया । जहां पर एशिया का उच्चतम टेंटर गेट  16.5 मीटर ऊंचाई के हैं। इस बांध की जलराशी को 7 मीटर व्यास की 6.174 कि0मी0 लम्बी भूमिगत सुरंग (पहाडों के अन्दर) को छिबरो गांव के समीप सर्ज टैंक से जोड़ा गया। यह सर्ज टैंक 20 मीटर व्यास का तथा 92 मीटर ऊंचाई का है। इस परियोजना में विश्व में अपने ढंग की सर्व प्रथम सैन्डीमेन्टेशन तथा इनटेक प्रणाली अपनायी गयी है। छिबरो गांव में तमसा के समीप पर्वत के गर्भ में 113 मीटर लम्बे, 18.2 मीटर चौड़े, 32 मीटर व्यास के भू गर्भित जल विद्युत गह, जिसमें चार 60 मेगावाट, की टरबाईनों वाला 240 मेगावाट का विद्युत गह निर्मित हुआ। वर्ष 1974-75 में इस विद्युत गह से विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा।

छिबरो पावर हाउस के उपरान्त तमसा नदी के पानी के उपयोग के लिए यमुना जल विद्युत परियोजना के द्वितीय चरण में हिमाचल प्रदेश के खोदरी नामक गांव मे, डाकपत्थर के समीप खोदरी जल विद्युत गह का निर्माण हुआ। वर्ष 1984 से जिसकी 4 टरबाईनों से (30MW x 4) अर्थात 120 मेगावाट विद्युत का उत्पादन प्राप्त हुआ। इन दोनों विद्युत गृह के मध्य विश्व में सर्वप्रथम टैण्डम प्रणाली अपनायी गयी। छिबरो पावर हाउस से खोदरी पावर हाउस तक विश्व की प्रथम ”एक्टिव इन्ट्रा थ्रस्ट” क्षेत्रों से गुजरने वाली 5.9 कि0मी0 लम्बी भूमिगत सुरंग बनायी गयी। खोदरी पावर हाउस का सर्ज टैंक 21 मीटर व्यास तथा 57.5 मीटर ऊंचाई का है। उपर्युक्त दोनों परियोजनाओं में तमसा की जलराशी का उपयोग हुआ। डाकपत्थर बांध में यमुना-तमसा आपस में मिल जाती हैं। यमुना की यह सहायक नदी तमसा लगभग 4900 वर्ग कि0मी0 के विशाल जल ग्रहण क्षेत्र से निरन्तर प्रवाह हेतु जल ग्रहण करती हुई, संकीर्ण घाटी से प्रवाहित होती है। जिस कारण इसमें सिंचाई तथा विद्युत उत्पादन के लिए पर्याप्त डिस्चार्ज तथा उचित हैड मिल जाता है। इच्छाड़ी बांध तथा छिबरो पावर हाउस के निर्माण की परिकल्पना तो स्वतन्त्रता से पूर्व कर ली गई थी। परन्तु इस परियोजना पर अमल सन 1966 से प्रारम्भ हुआ।

यमुना जल विद्युत परियोजना के चौथे चरण में शक्ति नहर से प्रवाहित होने वाली जलराशी के उपयोग के लिए कुल्हाल नामक गांव के समीप ढालीपुर से 5 किलोमीटर दूर कुल्हाल विद्युत गह का निर्माण हुआ जिसकी 10 मेगावाट की 3 टरबाईनों से सन 1975में 30 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा। यहां से निकली जलराशी का उपयोग बादशाही बाग नामक स्थान पर खारा जलविधुत परियोजना का निर्माण कर किया गया। सन 1986 में इस परियोजना से 78.75 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्राप्त होने लगा।

इनके अतिरिक्त तमसा-यमुना की घाटी में कुछ ऐसी परियोजनाएं हैं जो अपने निर्माण की प्रतीक्षा में हैं। इनमे से यमुना जलविधुत परियोजना के ततीय चरण में जौनसार के किशाऊ नामक गांव के समीप तमसा पर बांध बनाकर 750 मेगावाट (बाद में इसे 600 मेगावाट) की जल विद्युत परियोजना प्रस्तावित है। ऐसे ही यमुना नदी पर लखवाड़ गांव के समीप एक बांध बनाया जाना है, तथा एक भूगर्भित विद्युत गृह बनाया जाना है, जिससे 300 मेगावाट विद्युत उत्पादन प्राप्त होगा। इसी जलराशी का उपयोग कर व्यासी गांव के समीप व्यासी बांध तथा यमुना पर 120 मेगावाट का विद्युत गृह बनाया जाना है। तथा हत्यारी गांव के समीप 19 मेगावाट की क्षमता का विद्युत गृह भी प्रस्तावित है।

यदि सभी परियोजनाएं पूरी होकर आस्तित्व मे आ जायें तो यमुना घाटी में तमसा यमुना की जलराशी से 1723.750 मेगावाट विद्युत का उत्पादन उत्तराखण्ड को प्राप्त होगा। जो सम्पूर्ण उत्तराखण्ड की ही नही देश के, अनेक स्थानों की सुखः समृद्धि में अहम भूमिका निभायेगा। यद्यिपि अभी मात्र 553.500 मेगावाट विद्युत उत्पादन ही प्राप्त हो पा रहा है। इनके अतिरिक्त भी कई दशक पूर्व यमुना घाटी की तमसा यमुना पर कई जल विद्युत् परियोजनाओं के लिए सर्वेक्षण हुए, तथा निर्माण हेतु प्रास्तावित हुई जिनके नाम निम्न प्रकार हैं तालुका सांकरी हाइड्रोस्कीम 60 मेगावाट, जखोल सांकरी 60 मेगावाट, सिडरी डियोरा 80 मेगावाट, डिपरोमोरी 34 मेगावाट, छाताडैम 225 मेंगावाट, आराकोट त्यूणी 62 मेगावाट, त्यूणी प्लासू 50 मेगावाट, हनोल न्यूणी 26 मेगावाट। बाद मे किशाऊ बांध जल विधुत परियोजना की विद्युत क्षमता 750 मेगावाट से घटाकर 600 मेगावाट कर दी गई। ये सारी परियोजनाएं तमसा पर निर्मित होनी थीं जबकि यमुना पर हनुमानचटटी 33 मेगावाट, सियानचटटी 46 मेगावाट, बड़कोट कुआ 25 मेगावाट, कुआ डामटा 126 मेगावाट की परियोजनाए थीं। इस पर भी ऊर्जा के मन्दिरों, छिबरो, खोदरी, ढकरानी, ढालीपूर, कुल्हाल, ने तमसा यमुना धाटी को अपने विद्युत् रूपी आशीर्वाद से जगमग तो किया ही है साथ ही उन्नति, विकास, समद्वि से भरपूर भी किया। आज जो विकास तमसा-यमुना घाटी में हमें दिखाई पड़ता है उसमें निसंदेह तमसा-यमुना के ऊर्जा मन्दिरों के योगदान को कभी भुलाया नही जा सकेगा।

©  श्री हेमचन्द्र सकलानी 

संपर्क – सकलानी साहित्य सदन,विद्यापीठ मार्ग,विकासनगर देहरादून (उत्तराखंड)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बिन इंटरनेट सब सून! ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक  विचारणीय आलेख  ‘बिन इंटरनेट सब सून!’। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ आलेख ☆ बिन इंटरनेट सब सून! ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

तीन दिन इंटरनेट बंद क्या हुआ, सब कुछ फीका फीका सा लग रहा था। व्हाटसएप पर देश भर से जुड़ने वाले दोस्तों से मुलाकात ही नहीं हुई। बार बार चैक कर रहे हैं कि नेट आया कि नहीं।

सुबह सुबह मिलने वाले दोस्तों के गुड मॉर्निंग संदेश नहीं मिल रहे थे। जब मिलते थे तो कहते थे, इनकी रोज़ रोज़ क्या ज़रूरत है। सारी मेमोरी खा जाते हैं। ज़्यादातर वक्त तो फ़िज़ूल से लगने वाले मेसेज डिलीट करने में ही लग जाता था। नेटबंदी में नहीं आए तो इनका इंतजार सा हो रहा था। कुछ मित्र सुबह प्रेरक संदेश भेजते थे, वो भी नहीं मिले। एक मित्र रंग बिरंगे पक्षियों के चित्र भेज कर मन खुश कर देते थे। अब बस उनकी यादें हैं।

ज़िन्दगी की गति जैसे ढीली पड़ गई थी। हम अपने मनपसंद साइट टेड टाक्स से भी नहीं जुड़ सके। जो मेसेज आते हैं हम उनमें से कुछ सेव करके रख लेते हैं। उन्हे दोबारा पढ़ कर कुछ चैन मिला।

वक्त जैसे पांच साल पीछे चला गया था जब हमने स्मार्टफोन लिया था और इसके साथ ही हम वॉट्सएप और फेसबुक से जुड़ गए थे।

इसी के सहारे हम एक ऐसे ग्रुप से जुड़ गए जहां सर्विस के दौरान साथ रहे मित्र फिर आन मिले थे अपनी वे कहानियां और किस्से लेकर जिन्हे हमने सर्विस कैरियर में भी नहीं सुना था। खूब जन्मदिन व शादी की साल गिरह मनाते थे। तीन दिन से कुछ नहीं मनाया था।

सर्विस वाले ही क्यूं, कुछ कॉलेज व यूनिवर्सिटी के दोस्त भी करीबन 50 साल बाद ढूंढ लिए थे हमने। हां एक स्कूल वाला दोस्त भी मिल गया 60 साल पुराना। लंबे समय से परिचित इन दोस्तों से असली पहचान तो अब हुई थी। उनकी विचारधारा और छुपे गुणों का पता तो अब चला। कई छुपे रुस्तम निकले तो कई बस फॉरवर्ड करने वाले ही थे। पर सभी प्यारे थे। मैं कुछ मित्रों से इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उन पर लेख भी लिख दिए। स्मार्टफोन और इंटरनेट ने मेरे लेखन को बहुत तराशा है। मित्रों से मिली प्रशंसा उत्साहवर्धन करती है।

पांच साल पहले मैं साहित्यकारों के एक ग्रुप से जुड़ा। मैं शाम को सोने से पहले और सुबह उठते ही मैं साहित्यिक रचनाएं ही पढ़ता था।

अखबार तो बासी से लगने लगे थे। हर ताज़ा समाचार अलर्ट के साथ वॉट्सएप पर मिल जाता था।

इंटरनेट हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनता जा रहा है। इसीलिए लगता है, बिन इंटरनेट सब सून। इंटरनेट अलग किस्म का जनसंचार, मास मीडिया, है। अखबार, रेडियो, टेलीविजन बहुत हद तक एक तरफ साधन है। आपको संदेश सुनाए, पढ़ाए, दिखाए जाते हैं। दर्शक, पाठक, श्रोता की कोई खास सुनवाई नहीं होती। इंटरनेट पर आप जो चाहें उसे गूगल से ढूंढ कर पा सकते हैं, अपनी पसंद के मुताबिक। जिससे चाहें उससे बात करें, या फिर ग्रुप छोड़ दें। पर यहां भी विवेक की ज़रूरत है, वर्ना लुभावने संदेश आपके मन मस्तिष्क को काबू कर लेंगे। आपकी पसंद नापसंद का पता लगा कर आपकी सोच और जेब दोनों खाली कर देंगे। आपकी स्वतंत्रता छीन लेंगे, आपको भीडतंत्र का हिस्सा बना देंगे, केवल नारे लगाने के लिए।

करीबन दस साल पहले जब अरब देशों में अरब बसंत नाम के आंदोलन चल रहे थे और सरकारों ने इंटरनेट की सुविधा बंद कर दी थी तो उस वक्त अमेरिका की तत्कालीन विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन का बयान आया था कि संपर्क करने का अधिकार संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में मूलाधिकार के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। इंटरनेट किसी खास मुद्दे को लेकर समर्थकों के विशाल समुदाय खड़े कर सकता है। ये समुदाय किसी भी सरकार के लिए उसकी किसी नीति या उसके अस्तित्व तक पर सवाल खड़े कर सकता है।

टेक्नोलॉजी के विस्तार के साथ अब दुनिया की हर घटना की जानकारी लाइव सभी के पास पहुंच जाती है। भारत में लालकिले पर किसानों के एक गुट द्वारा उपद्रव हो या अमेरिका में ट्रंप समर्थकों द्वारा वहां की संसद में घुसकर तोड़फोड़, सबकुछ दुनिया भर में उसी समय पहुंच जाता है जिस समय यह घटित हो रहा होता है। इस स्थिति में आंदोलन और भी भड़क सकता है या फिर यहीं से इसका पतन भी शुरू हो सकता है।

प्रजातंत्र एक धीमी प्रक्रिया है। पूर्ण बहुमत की सरकार भी अपने चुनाव पूर्व घोषित कार्यक्रम को फिर से जनमत बनाए बिना लागू नहीं कर सकती। विपक्ष चाहे वह किसी भी दल का हो, वह सत्तारूढ़ दल के खिलाफ हर मुद्दे पर विरोध करता ही रहता है। प्रजातंत्र में यह नैतिक अभाव रहता ही है, विरोध केवल विरोध के लिए। अत: पूर्ण बहुमत के बावजूद सत्ता दल को विपक्ष को साथ लेकर चलना ही पड़ता है।

पिछली सदी में साम्यवादी व्यवस्था से दुनिया के अनेक देशों ने भारी तरक्की की पर मानवीय मूल्यों और स्वतंत्रता के मुद्दों की अनदेखी के कारण सोवियत संघ के विघटन के बाद आज दुनिया के लगभग दो तिहाई देशों में प्रजातंत्र व्यवस्था काम कर रही है हालांकि इसका स्वरूप एक समान नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था प्रजातांत्रिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है। अमेरिका व यूरोपीय देशों ने इसी व्यवस्था के तहत तेज़ तरक्की की है। पर इस व्यवस्था का भी एक गंभीर दोष सामने आ रहा है। समाज की पूंजी कुछ एक अमीर घरानों के पास इकट्ठी हो रही है। अमीर अधिक अमीर होता जा रहा है और गरीब अधिक गरीब। लगता है दोनों ही व्यवस्थाएं फेल हो रही हैं और कोई नया विकल्प भी नहीं सूझ रहा। विभिन्न देशों में उभरे आंदोलन इसी विफलता की निशानी हैं।

नागरिक स्वतंत्रता भी बनी रहे और तेज तरक्की भी हो जिसके लाभ सभी तक समान रूप से पहुंच सकें, ऐसी व्यवस्था की ज़रूरत है पर यह कैसे संभव होगी यही लाख टके का सवाल है। मेरी निजी राय है कि अनेक अन्य देशों की तुलना में भारत कुल मिलाकर विकास और नागरिक आज़ादी की व्यवस्था का एक अच्छा उदाहरण है पर राजनैतिक दलों में पारस्परिक सद्भाव की कमी अक्सर खेल बिगाड़ देती है।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#1 – प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें! ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ। )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#1 – प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें! ☆ श्री आशीष कुमार☆

प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें!

जंगल में एक गर्भवती हिरनी बच्चे को जन्म देने को थी वो एकांत जगह की तलाश में घूम रही थी कि उसे नदी किनारे ऊँची और घनी घास दिखी। उसे वो उपयुक्त स्थान लगा शिशु को जन्म देने के लिये वहां पहुँचते ही उसे प्रसव पीडा शुरू हो गयी।

उसी समय आसमान में घनघोर बादल वर्षा को आतुर हो उठे और बिजली कडकने लगी।

उसने बायें देखा तो एक शिकारी तीर का निशाना उस की तरफ साध रहा था। घबराकर वह दाहिने मुड़ी तो वहां एक भूखा शेर, झपटने को तैयार बैठा था। सामने सूखी घास आग पकड चुकी थी और पीछे मुड़ी तो नदी में जल बहुत था।

मादा हिरनी क्या करती? वह प्रसव पीडा से व्याकुल थी। अब क्या होगा? क्या हिरनी जीवित बचेगी? क्या वो अपने शावक को जन्म दे पायेगी? क्या शावक जीवित रहेगा?

क्या जंगल की आग सब कुछ जला देगी? क्या मादा हिरनी शिकारी के तीर से बच पायेगी? क्या मादा हिरनी भूखे शेर का भोजन बनेगी?

वो एक तरफ आग से घिरी है और पीछे नदी है। क्या करेगी वो?

हिरनी अपने आप को शून्य में छोड़,अपने प्राथमिक उत्तरदायित्व अपने बच्चे को जन्म देने में लग गयी।  कुदरत का करिश्मा देखिये बिजली चमकी और तीर छोडते हुए , शिकारी की आँखे चौंधिया गयी उसका तीर हिरनी के पास से गुजरते शेर की आँख में जा लगा, शेर दहाडता हुआ इधर उधर भागने लगा और शिकारी शेर को घायल ज़ानकर भाग गया घनघोर बारिश शुरू हो गयी और जंगल की आग बुझ गयी हिरनी ने शावक को जन्म दिया।

हमारे जीवन में भी कभी कभी कुछ क्षण ऐसे आते है, जब हम चारो तरफ से समस्याओं से घिरे होते हैं और कोई निर्णय नहीं ले पाते तब सब कुछ नियति के हाथों सौंपकर अपने उत्तरदायित्व व प्राथमिकता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। अन्तत: यश- अपयश, हार-जीत, जीवन-मृत्यु का अन्तिम निर्णय ईश्वर करता है। हमें उस पर विश्वास कर उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 81 ☆ मोबाइल और ज़िन्दगी ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  स्त्री विमर्श मोबाइल और ज़िन्दगी।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 81 ☆

☆ मोबाइल और ज़िन्दगी ☆

ज़िन्दगी एक मोबाइल की भांति है, जिसमें अनचाही तस्वीरें, फाइलों व अनचाही स्मृतियों को डिलीट करने से उसकी गति-रफ़्तार तेज़ हो जाती है। भले ही मोबाइल ने हमें आत्मकेंद्रित बना दिया है; हम सब अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह गये हैं; खुद में सिमट कर रह गये हैं…संबंधों व सामाजिक सरोकारों से दूर…बहुत दूर, परंतु मोबाइल पर बात करते हुए हम विचित्र-सा सामीप्य अनुभव करते हैं।

आइए! हम मोबाइल व ज़िन्दगी की साम्यता पर चिंतन-मनन करने का प्रयास करें। सो! यदि ज़िन्दगी व ज़हन से भी मोबाइल की भांति, अनचाहे अनुभव व स्मृतियों को फ़लक से हटा दिया जाये, तो आप खुशी से ज़िन्दगी जी सकते हैं। वैसे ज़िन्दगी बहुत छोटी है तथा मानव जीवन क्षणभंगुर … जैसा हमारे वेद-शास्त्रों में उद्धृत है। कबीरदास जी ने भी—‘पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात/ देखत ही छिप जायेगा,ज्यों तारा प्रभात’ तथा ‘जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी/ फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तत् कह्यो ज्ञानी’…यह दोनों पद मानव जीवन की क्षणभंगुरता व नश्वरता का संदेश देते हैं। मानव जीवन बुलबुले व आकाश के चमकते तारे के समान है। जिस प्रकार पानी के बुलबुले का अस्तित्व पल-भर नष्ट हो जाता है और वह पुनः जल में विलीन हो जाता है; उसी प्रकार भोर होते तारे भी सूर्योदय होने पर अस्त हो जाते हैं। जल से भरा कुंभ टूटने पर उसका जल, बाहर के जल में समा जाता है, जिसमें वह कुंभ रखा होता है। सो! दोनों के जल में भेद करना संभव नहीं होता। यही है मानव जीवन की कहानी अर्थात् जिस शरीर पर मानव गर्व करता है; आत्मा के साथ छोड़ जाने पर वह उसी पल चेतनहीन हो जाता है, स्पंदनहीन हो जाता है, क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त समस्त जीव-जगत् मिथ्या होता है।

अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। परंतु बावरा मन इस तथ्य से अवगत नहीं होता कि प्रभु मानव को पल-भर में अर्श से फर्श पर गिरा सकते हैं, क्योंकि जब जीवन में अहं का पदार्पण होता है, तब हमें लगता है कि हमने कुछ विशिष्ट अथवा कुछ अलग किया है। यही ‘कुछ विशेष’ हमें ले डूबता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब हम दूसरों की कही बातों व जुमलों पर विश्वास करने लगते हैं तथा उसकी गहराई तक नहीं जाना चाहते। वास्तव में ऐसे लोग हमारे शत्रु होते हैं, जो हमसे ईर्ष्या करते हैं। वे हमें उन्नति के पथ पर अग्रसर होते देख सहन नहीं कर पाते और तुरंत नीचे गिरा देते हैं। सो! उनसे दूर रहना ही बेहतर है, उपयोगी है, क़ारगर है।

परंतु हमें सम्मान तब मिलता है, जब दुनिया वालों को यह विश्वास हो जाता है कि आपने दूसरों से कुछ अलग व विशेष किया है, क्योंकि मानव के कर्म ही उसका आईना होते हैं। शायद! इसलिए ही इंसान के पहुंचने से पहले उसकी प्रतिष्ठा, कार्य-प्रणाली, सोच, व्यवहार व दृष्टिकोण वहां पहुंच जाते हैं। वे हमारे शुभ कर्म ही होते हैं, जो हमें सबका प्रिय बनाते हैं तथा विशिष्ट मान-सम्मान दिलाते हैं। सम्मान पाने की आवश्यक शर्त है— दूसरों की भावनाओं को अहमियत देना; उनके प्रति स्नेह, सौहार्द व विश्वास रखना, क्योंकि इस संसार में– जो आप दूसरों को देते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है…वह आस्था, श्रद्धा हो या आलोचना; प्रशंसा हो या निंदा; अच्छाई हो या बुराई। सो! महात्मा बुद्ध का यह संदेश मुझे सार्थक प्रतीत होता है कि ‘आप दूसरों से वैसा व्यवहार कीजिए, जिसकी अपेक्षा आप उनसे रखते हैं।’ मधुर वाणी व मधुर व्यवहार हमारे जीवन के आधार हैं। मधुर वचन बोल कर आप शत्रु को भी अपना प्रिय मित्र बना सकते हैं और वे आपके क़ायल हो सकते हैं…आप उनके हृदय पर शासन कर सकते हैं। कटु वचन बोलने से आपका मान-सम्मान उसी क्षण मिट्टी में मिल जाता है; जो कभी लौटकर नहीं आता…जैसे पानी से भरे गिलास में आप और पानी तो नहीं डाल सकते, परंतु यदि आप आपका व्यवहार मधुर है, तो आप शक्कर या नमक की भांति सबके हृदय में अपना स्थान बना कर अपना अस्तित्व कायम कर सकते हैं। सामान्यतः नमक हृदय में कटुता व ईर्ष्या का भाव उत्पन्न करता है, परंतु शक्कर सौहार्द व माधुर्य … जो जीवन में अपेक्षित है और वह उसकी दशा व दिशा बदल देती है।

महाभारत के युद्ध का कारण द्रौपदी द्वारा उच्चरित शब्द ‘अंधे का पुत्र अंधा’ ही थे, जिसके कारण वर्षों तक उनके मन में कटुता का भाव व्याप्त रहा और वे प्रतिशोध रूपी अग्नि में प्रज्ज्वलित होते रहे। उसके अंत से तो हम हम सब भली-भांति परिचित हैं। कुरुक्षेत्र के मैदान में महायुद्ध हुआ और श्रीकृष्ण को गीता का उपदेश देना पड़ा; जो आज भी प्रासंगिक व सम-सामयिक है। इतना ही नहीं, विदेशी लोग तो गीता को मैनेजमेंट गुरु के रूप में स्वीकारने लगे हैं और विश्व में ‘गीता जयंती’ व ‘योग दिवस’ बहुत धूमधाम से मनाया जाता है… परंतु यह सब हम लोगों के दिलों में पूर्ण रूप से नहीं उतर पाया। वैसे भी ‘जो वस्तु विदेश के रास्ते से भारत में आती है, उसे हम पूर्ण उत्साह व जोशो-ख़रोश से अपनाते व मान सम्मान देते हैं तथा जीवन में धारण कर लेते हैं, क्योंकि हम भारतीय विदेशी होने में फख़्र महसूस करते हैं।’ इससे स्पष्ट होता है कि हमारे मन में अपनी संस्कृति के प्रति श्रद्धा व आस्था का अभाव है और पाश्चात्य की जूठन स्वीकार करना; हमारी आदत में शुमार है। इसलिए हम ‘जीन्स-कल्चर व हैलो-हॉय’ को इतना महत्व देते हैं। ‘लिव-इन, मी टू व परस्त्री-गमन’ हमारे लिए स्टेटस-सिंबल बन गए हैं, जो हमारी पारिवारिक व्यवस्था में बखूबी सेंध लगा रहे हैं। इनके भयावह परिणाम बच्चों में बढ़ रही हिंसा, बुज़ुर्गों के प्रति पनप रहा उपेक्षा भाव व वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के रूप में हमारे समक्ष हैं। इसी कारण शिशु से लेकर वृद्ध तक अतिव्यस्त व तनाव-ग्रस्त दिखाई पड़ते हैं। हमारे संबंधों को दीमक चाट रही है और सामाजिक सरोकार जाने कहां मुंह छिपाए बैठे हैं। संबंधों की अहमियत न रहने से स्नेह-सौहार्द के अस्तित्व व स्थायित्व की कल्पना करना बेमानी है। सो! जहां मनोमालिन्य, स्व-पर व ईर्ष्या-द्वेष की भावनाओं का एकछत्र साम्राज्य होगा; वहां प्रेम व सुख-शांति कैसे क़ायम रह सकती है? सो! मोबाइल जहां संबंधों में प्रगाढ़ता लाता है; दिलों की दूरियों को नज़दीकियों में बदलता है; हमें दु:खों के अथाह सागर में डूबने से बचाता है… वहीं ज़िंदगी में अजनबीपन के अहसास को भी जाग्रत करता है। इतना ही नहीं, वह उनके दिलों की धड़कन बन सदैव अंग-संग रहता है और उसके बिना जीवन की  कल्पना करना बेमानी प्रतीत होता है।

आइए! इस संदर्भ में सुख व सुविधा के अंतर पर दृष्टिपात कर लें। मोबाइल से हमें सुविधा के साथ  सुख तो मिल सकता है, परंतु शांति नहीं, क्योंकि सुख भौतिक व शारीरिक होता है और शांति का संबंध मन व आत्मा से होता है। जब मानव को मोबाइल की लत लग जाती है और वह सुविधा के स्थान पर उसकी ज़रूरत बन जाती है, तो उसके अभाव में उसका हृदय पल-भर के लिये भी शांत नहीं रह पाता; जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण विदेशों में बसे लोग हैं। उनके पास भौतिक सुख-सुविधाएं तो हैं, परंतु मानसिक शांति व सुक़ून की तलाश में वे भारत आते हैं, क्योंकि हमारी भारतीय संस्कृति अत्यंत समृद्ध है तथा ‘सर्वेभवंतु सुखीनाम्’ अर्थात् मानव-मात्र के कल्याण की भावना से आप्लावित है। ‘अतिथि देवो भव’ का परिचय–’अरुण यह मधुमय देश हमारा/ जहां पहुंच अनजान क्षितिज को/ मिलता एक सहारा’ की भावना, हमें विश्व में सिरमौर स्वीकारने को बाध्य करती है; जहां बाहर से आने वाले अतिथि को हम सिर-आंखों पर बिठाते हैं और उनके प्रति अजनबीपन का भाव, हृदय में लेशमात्र भी दस्तक तक नहीं दे पाता। जिस प्रकार सागर में विभिन्न नदी-नाले समा जाते हैं; वैसे ही बाहर के देशों से आने वाले लोग  हमारे यहां इस क़दर रच-बस जाते हैं कि यहां रंग, धर्म, जाति-पाति आदि के भेदभाव का कोई स्थान नहीं रहता।

‘प्रभु के सब बंदे, सब में प्रभु समाया’ अर्थात् हम सब उसी परमात्मा की संतान हैं और समस्त जीव-जगत् व सृष्टि के कण-कण में मानव उसी ब्रह्म की सत्ता का आभास पाता है। आदि शंकराचार्य का यह वाक्य ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ का इस संदर्भ में विश्लेषण करना आवश्यक है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है और उसके अतिरिक्त जो भी हमें दिखाई पड़ता है, मिथ्या है; परंंतु माया के कारण सत्य भासता है। सो! प्राणी-मात्र में उस प्रभु के दर्शन पाकर हम स्वयं को धन्य व भाग्यशाली समझते हैं; उनकी प्रभु के समान उपासना करते हैं। इसलिए हम हर दिन को उदार मन से उत्सव की तरह मनाते हैं और उस मन:स्थिति में दुष्प्रवृत्तियां हमें लेशमात्र भी छू नहीं पातीं।

अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता के भाव से ग्रस्त व्यक्ति हमें यह सोचने पर विवश कर देता है कि वह हमारे पथ की बाधा बनकर उपस्थित हुआ है और हमें उसकी रौ में नहीं बह जाना है। तभी हमारे मन में यह भाव दस्तक देता है कि हमें आत्मावलोकन कर आत्म-विश्लेषण करना होगा ताकि हम स्वयं में सुधार ला सकें। वास्तव में यह अपने गुण-दोषों के प्रति स्वीकार्यता का भाव है। जब हमें यह अनुभूति हो जाती है कि हम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उस स्थिति में हम खुद में सुधार ला सकते हैं और दूसरों को दुष्भावनाओं व दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति दिलाने में अहम् भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। वास्तव में जब तक हम अपने दोषों व अवगुणों से वाक़िफ़ नहीं होते; आत्म-परिष्कार संभव नहीं है। वास्तव में वे लोग उत्तम श्रेणी में आते हैं; जो दूसरों के अनुभव से सीखते हैं। जो लोग अपने अनुभव से सीखते हैं, वे द्वितीय श्रेणी में आते हैं और जो लोग ग़लती करने पर भी उसे नहीं स्वीकारते; वे ठीक राह को नहीं अपना पाते। वास्तव में वे निकृष्टतम श्रेणी के बाशिंदे कहलाते हैं तथा उनमें  सुधार की कोई गुंजाइश नहीं होती। हां! कोई दैवीय शक्ति अवश्य उनका सही मार्गदर्शन कर सकती है। ऐसे लोग अपने अनुभव से अर्थात् ठोकरें खाने के पश्चात् भी अपने पक्ष को सही ठहराते हैं। मोबाइल के वाट्सएप, फेसबुक आदि के ‘लाइक’ के चक्कर में लोग इतने रच-बस जाते हैं कि लाख चाहने पर भी वे उससे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते और वे शारीरिक व मानसिक रोगी बन जाते हैं। इस मन:स्थिति में वे स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझते।

परमात्मा सबका हितैषी है। वह जानता है कि हमारा हित किस में है…इसलिए वह हमें हमारा मनचाहा नहीं देता, बल्कि वह देता है…जो हमारे लिए हितकर होता है। परंतु विनाश काल में अक्सर बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है; विपरीत दिशा में चलती है और उसे सावन के अंधे की भांति सब  हरा ही हरा दिखाई पड़ता है। उस स्थिति में मानव अतीत की स्मृतियों में खोया रहता है और स्वयं को उस उधेड़बुन से मुक्त नहीं कर पाता, क्योंकि अतीत अर्थात् जो गुज़र गया है, कभी लौटकर नहीं आता। सो! उसे स्मरण कर समय व शक्ति को नष्ट करना उचित नहीं है। हमें अतीत की स्मृतियों को अपने जीवन से निकाल बाहर फेंक देना चाहिए, क्योंकि वे हमारे विकास में बाधक व अवरोधक होती हैं। हां! स्वर्णिम स्मृतियां हमारे लिए प्रेरणास्पद होती हैं, जिनका स्मरण कर हम वर्तमान की ऊहापोह से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं और उस स्थिति में हमारे हृदय में आत्मविश्वास जागृत होता है। प्रश्न उठता है कि यदि हममें पहले से ही वह सब करने की सामर्थ्य थी, तो हम पहले ही वैसे क्यों नहीं बन पाये? सो! यदि हममें आज भी साहस है, उत्साह है, ओज है, ऊर्जा है, सकारात्मकता है…फिर कमी किस बात की है? शायद जज़्बे की… ‘मैं कर सकता हूं; मेरे लिए कोई भी कार्य कठिन नहीं है। ‘वह विषम परिस्थितियों में सहज रहकर उनका साहसपूर्वक सामना कर, अपनी मंज़िल को प्राप्त कर सकता है। मुझे याद आ रही हैं– स्वरचित अस्मिता की अंतिम कविता की अंतिम पंक्तियां…’मुझमें साहस ‘औ’ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं मैं/ आकाश की बुलंदियां।’ हर मानव में साहस है, उत्साह है ….हां! आवश्यकता है– आत्मविश्वास और जज़्बे की…जिससे वह कठिन से कठिन कार्य कर सकता है और मनचाहा प्राप्त कर सकता है। ‘कौन कहता है/ आकाश में छेद/ हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो/ तबीयत से उछालो! यारो।’ आप कर सकते हैं…निष्ठा से, साहस से, आत्मविश्वास से…परंतु उस कार्य को अंजाम देने के लिए अथक परिश्रम की आवश्यकता होती है।

हां! असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है और बुद्धिमान तो अपने लक्ष्य-प्राप्ति के लिए वह सब कुछ कर गुज़रते हैं; जो कल्पनातीत होता है और पर्वत भी उनकी राह में बाधा नहीं बन सकते। वे विषम परिस्थितियों में भी पूर्ण तल्लीनता से अपने पथ पर अग्रसर रहते हैं। वैसे भी जीवन में ग़लती को पुन: न दोहराना श्रेष्ठ होता है। सो! अपने पूर्वानुभवों से शिक्षा ग्रहण कर जीने की राह को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जीवन में केवल दो रास्ते ही नहीं होते …तीसरा विकल्प भी अवश्य होता है। उद्यमी व परिश्रमी व्यक्ति सदैव तीसरे विकल्प की ओर कदम बढ़ाते हैं और मंज़िल को प्राप्त कर लेते हैं। बनी-बनाई लीक पर चलने वाले ज़िंदगी में कुछ भी नया नहीं कर सकते और उनके हिस्से में सदैव निराशा ही आती है; जो भविष्य में कुंठा का रूप धारण कर लेती है। मुझे तो रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘एकला चलो रे’ पंक्तियों का स्मरण हो रही हैं… ‘इसलिए भीड़ का हिस्सा बनने से परहेज़ रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि शेरों की जमात नहीं होती।’ इसलिए अपनी राह का निर्माण खुद करें। मालिक सबका हित चाहता है और हमें सत्य मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है– ‘उसकी नवाज़िशों में कोई कमी न थी/ झोली हमारी में ही छेद था।’ यह पंक्तियां परमात्मा के प्रति हमारे दृढ-संकल्प व अटूट विश्वास को दर्शाती हैं व स्थिरता प्रदान करती हैं। वह करुणामय प्रभु सब पर आशीषों की वर्षा करता है तथा हमें आग़ामी आपदाओं से बचाता है। हां! कमी हममें ही होती है, क्योंकि हम पर माया का आवरण इस क़दर चढ़ा होता है कि हम सृष्टि-नियंता की रहमतों का अंदाज़ भी नहीं लगा पाते…उस पर विश्वास करना तो कल्पनातीत है। हम अपने अहं में इस क़दर डूबे रहते हैं कि हम स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ समझने का दंभ भरने लगते हैं। इसलिए हमारी  झोली हमेशा खाली रह जाती है। वास्तव में जब हम उस सृष्टि-नियंता के प्रति समर्पित हो जाते हैं; उसके प्रति आस्था, श्रद्धा व विश्वास रखने लगते हैं; तो हमारा अहं स्वत: विगलित होने  लगता है और हम पर उसकी रहमतें बरसने लगती हैं। इस स्थिति में हम सोचने पर विवश हो जाते हैं कि हमारा कौन-सा अच्छा कर्म, उस मालिक को भा गया होगा कि उसने हमें फ़र्श से उठाकर अर्श पर पहुंचा दिया।

यदि हम उपरोक्त स्थिति पर दृष्टिपात करें, तो मानव को अपने हृदय में निहित काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि भावों को निकाल बाहर फेंकना होगा और उसके स्थान पर स्नेह, प्यार, त्याग, सहानुभूति आदि से अपनी झोली के छेदों को भरना होगा। इस स्थिति में आपको दूसरों से संगति व सद्भाव की अपेक्षा नहीं रहेगी। आप एकांत में अत्यंत प्रसन्न रहेंगे, क्योंकि मौन को सबसे बड़ा तप व त्याग स्वीकारा गया है; जो नव-निधियों का प्रदाता है। ‘बुरी संगति से अकेला भला’ में भी यह सर्वश्रेष्ठ संदेश निहित है। इसलिए जो व्यक्ति एकांत रूपी सागर में अवग़ाहन करता है; वह अलौकिक आनंद की स्थिति को प्राप्त कर सकता है; जिसमें उसे अनहद-नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं। सो! तादात्म्य की स्थिति तक पहुंचने के लिए मानव को अनगिनत जन्म लेने पड़ते हैं। हां! यदि आप अलौकिक आनंद की स्थिति को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, तो भी यह सच्चा सौदा है। आप सांसारिक बुराइयों अर्थात् तेरी-मेरी, राग-द्वेष, निंदा-प्रशंसा आदि दुष्प्रवृत्तियों में लिप्त नहीं होंगे … आपका मन सदैव पावन, मुक्त व शून्यावस्था में रहेगा और आप प्रभु की करुणा-कृपा पाने के सुयोग्य पात्र बने रहेंगे।

आइए! अतीत की स्मृतियों को विस्मृत कर वर्तमान में जीने की आदत बनाएं, ताकि सुखद व सुंदर भविष्य की कल्पना कर; हम खुशी से अपना समय व्यतीत कर सकें। ज़िंदगी बहुत छोटी है। सो! हर पल को जी लें। मुझे याद आ रही हैं… वक्त फिल्म की दो पंक्तियां ‘आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू/ जो भी है, बस यही एक पल है।’ यह पंक्तियां चारवॉक दर्शन ‘खाओ-पीओ और मौज उड़ाओ’ की पक्षधर हैं। इसलिए मानव को अतीत और भविष्य के भंवर से स्वयं को मुक्त कर, वर्तमान अर्थात् आज में जीने की दरक़ार है, क्योंकि यही वह सार्थक पल है। यह सर्वविदित है कि हम ज़िंदगी भर की संपूर्ण दौलत देकर एक पल भी नहीं खरीद सकते। इसलिए हमें समय की महत्ता को जानने, समझने व अनुभव करने की आवश्यकता है, क्योंकि गुज़रा हुआ समय लौट कर नहीं आता।  सो! सृष्टि-नियंता की करुणा-कृपा व रहमत को अनुभव कर उसके सान्निध्य को महसूस करना बेहतर है। यही वह माध्यम है…उस प्रभु को पाने का; उसके साथ एकाकार होने का; स्व-पर का भेद मिटा अलौकिक आनंद में अवग़ाहन करने का। सो! एक सांस को भी व्यर्थ न जाने दें… सदैव उसका नाम-स्मरण करें…उसे अपने क़रीब जानें और अपनी जीवन-डोर उसके हाथों में सौंप कर निर्मुक्त अवस्था में जीवन-यापन करें… यही निर्वाण की अवस्था है, जहां मानव लख-चौरासी अथवा आवागमन के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर लेता है और यही कैवल्य की स्थिति और हृदय की  मुक्तावस्था है। सो! हर पल ख़ुदा की रहमत को अनुभव करें और ज़िंदगी को सुहाना सफ़र समझें, क्योंकि ‘यहां कल क्या हो…किसने जाना’ आनंद फिल्म की इन पंक्तियों में निहित जीवन संदेश… ‘हंसते, गाते जहान से गुज़र, दुनिया की तू परवाह न कर’…इसलिए ‘लोग क्या कहेंगे’ इससे बचें, क्योंकि ‘लोगों का काम है कहना; टीका-टिप्पणी व आलोचना करना।’ परंतु यदि आप उनकी ओर ध्यान नहीं देते, तभी आप अपने ढंग से ज़िंदगी जी सकते हैं, क्योंकि प्रेम की राह अत्यंत संकरी है, जिसमें दो नहीं समा सकते। जब आप पूर्ण रूप से सृष्टि-नियंता के चरणों में समर्पित हो जाते हैं, तो परमात्मा आगे बढ़ कर आपको थाम लेते हैं … अपना लेते हैं और आप अपनी मंज़िल तक पहुंच पाते हैं। इसलिए कछुए की भांति स्वयं को आत्म-केंद्रित कर, अपनी पांचों कर्मेंद्रियों को अंकुश में रखें और हंसते-हंसते इस संसार से सदैव के लिए विदा हो जाएं। इस स्थिति में आप लख चौरासी से मुक्त हो जायेंगे, जो मानव के जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 33 ☆ नारी में सौन्दर्य ही पर्याप्त नहीं ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “नारी में सौन्दर्य ही पर्याप्त नहीं”.)

☆ किसलय की कलम से # 33 ☆

☆ नारी में सौन्दर्य ही पर्याप्त नहीं ☆

परियों और राजकुमारियों के सौन्दर्य बखान करने में कवियों – शायरों – कहानीकारों ने शायद ही कोई कसर छोड़ी होगी। आदि से अब तक रूप, रंग और सुन्दरता को ही प्राय: लोकप्रियता का आधार माना जाता रहा है, भले ही उसका दूसरा पहलू प्रशंसनीय रहा हो अथवा नहीं। यही कारण है कि लोगों का झुकाव सुन्दरता की दिशा में अधिक होता गया और निश्चित रूप से जो सुन्दर नहीं है, उनके मन में कहीं न कहीं हीन भावना अपना स्थान बनाने में सफल होती गई, मगर दृढ़ता और विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि ऐसा कदापि नहीं है। अनपढ़ कालिदास, अंधे सूरदास, पोलियोग्रस्त क्रिकेटर चन्द्रशेखर, संगीतज्ञ दिव्यदर्शी रवीन्द्र जैन आदि अनेक नामों को गिनाया जा सकता है, जिन्हें लोकप्रियता रंग, रूप अथवा सौन्दर्य के बलबूते नहीं मिली। इन्होंने अपनी विशेष योग्यताओं के कारण लोकप्रियता हासिल की है। आज भी कला, संगीत, अभिनय, नृत्य, गायन, खेल, समाज सेवा जैसे अनेक क्षेत्र हैं जिनमें दक्ष महिलायें अथवा पुरुष दोनों ही लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचकर अपने जीवन को सुखमय एवं सार्थक बनाने में सफल हो सकते हैं, फिर भी लड़कियों एवं महिलाओं में अपने रंग, रूप और सौन्दर्य को लेकर प्रतिस्पर्धा सहज ही निर्मित हो जाती है। वहीं दूसरी ओर हीन भावना भी पनपती है। यह हीन भावना उन लड़कियों में अधिक प्रभाव डालती है जो कम सुन्दर होने के साथ – साथ किसी भी अन्य क्षेत्र में निपुण नहीं होतीं। इन परिस्थितियों में स्वयं लड़कियों अथवा अभिभावकों की ज़रा सी भूल या असतर्कता उनका सारा जीवन अंधकारमय बना सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि लड़कियाँ आकर्षक अथवा सुन्दर नहीं हैं तब इसका मतलब यह कदापि नहीं होना चाहिये कि उनका तिरस्कार किया जाए। किसी न किसी बहाने अथवा मौका मिलते ही इनकी कमियों की ओर इशारा और समझाईश दी जाना चाहिए। उन लड़कियों और नवयुवतियों को भी चाहिए कि वे विवाह पूर्व इस कमी की पूर्ति हेतु अनेक कलाओं – विधाओं में दक्षता प्राप्त कर लें। यह पाया गया है कि अधिकांश लोगों का ध्यान सौन्दर्य दर्शन में ही केन्द्रित होता है और शेष गुणों की ओर अपेक्षाकृत कम प्रभावित होते हैं। यह सत्यता भी है कि सामने दिखाई देने वाले गुण प्रथम दृष्टि में ही प्रभावित कर लेते हैं, जबकि अन्य गुणों की जानकारी हेतु निकटता एवं संवाद की आवश्यकता होती है। प्राय: लड़कियों में उत्पन्न सौंदर्यबोध अभिमान का अनुभव कराने लगता है। साथ ही गैरों की टिप्पणियाँ जहाँ एक ओर आनंद की अनुभूति देती है, वहीं दूसरी ओर तनाव भी बढाती हैं, जिनसे वे लक्ष्य को पाने में आंशिक परेशानी महसूस करने लगती हैं। यहाँ कहा तो जा सकता है कि लड़कियों का दूसरा वर्ग इस तरह की परेशानियों से अछूता रहता है, फिर भी ऐसे में सुन्दरता की कमी को पूर्ण करने हेतु कोई न कोई पूरक अथवा विकल्प अत्यावश्यक होता है। यही पूरक अथवा विकल्प ही उन लड़कियों का भविष्य निश्चित करता है। उसमें कठिन परीक्षा लगन, साहस और धैर्य की आवश्यकता होती है। लगातार मेहनत और लगन उसे अच्छी गायिका, समाज सेवी, अभिनेत्री, साहित्यकार, चित्रकार अथवा किसी भी गरिमापूर्ण पद पर आसीन करा सकता है जो कि वर्तमान में आवश्यक भी है। इससे उन लड़कियों के लिए प्रतिष्ठित परिवार, सुयोग्य वर एवं सुखमय जीवन की सर्वोच्च आकांक्षा की पूर्ति के द्वार भी खुल जाते हैं।

नारी का सौंदर्य ही केवल सार्थक जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है। सुन्दरता के अतिरिक्त लड़की का एक भी अवगुण या कमी निश्चित रूप से उसका जीवन चुनौतीपूर्ण बना देती है। साथ ही उस कारण ससुराल में भी अनावश्यक कठिनाईयाँ पैदा हो सकती हैं, लेकिन लड़की यदि प्रतिभावान हो, अथवा परिवार चलाने की कला में निपुण हो, उसमें कोई उल्लेखनीय हुनर हो या फिर अच्छे ओहदे पर कार्यरत हो तो एक समझदार पति सारी जिन्दगी अपने परिवार को खुशहाल बनाए रख सकेगा और अपनी पत्नी का सदैव सम्मान भी करेगा। अत: यह बात हमारे परिवार के प्रत्येक सदस्यों को ध्यान में रखना होगी कि यदि हमारी लड़की, हमारी बहन, हमारी बहू आकर्षक अथवा सुन्दर नहीं हैं तब भी उसका तिरस्कार कदापि नहीं किया जाना चाहिए। हमें उनके अंत:करण में ऐसे बीज अंकुरित करना होंगे जो भविष्य में मीठे फलों को पैदा कर सके, जिनकी मिठास उनमें निहित कमी को भी भुला दे और परिवार के सदस्य उनकी प्रतिभा की भूरी – भूरी प्रशंसा करते रहें। यही हम सबका सार्थक प्रयास भी होना चाहिए अन्यथा महिलायें सदैव अपने भाग्य को कोसती रहेंगी, मनचाहा वर न मिलने पर स्वयं को दोषी ठहराएँगी, तब उनके लिए पश्चाताप के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं बचेगा।

आज जब नारी वर्ग शिक्षा, तकनीकि, उद्योग, अन्तरिक्ष, सैन्य सहित अन्य क्षेत्रों में अपना वर्चश्व कायम करने में सफल हो रहा है। समाज और शासन भी प्राचीन दकियानूसी बातों को नकार कर उन्हें प्रोत्साहित कर रहा है, तब बहन – बेटियों को चाहिए कि वे कोई न कोई ऐसी विशेषता, कला या गुणों में निपुण होना सुनिश्चित करें जो उनके सुखद भविष्य हेतु मील का पत्थर बने।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
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ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 60 ☆ कूड़े की आत्मकथा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक विचारणीय आलेख  “कूड़े की आत्मकथा.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 60 ☆

☆ कूड़े की आत्मकथा ☆ 

दोस्तो मैं कूड़ा हूँ । मुझे आज अपनी आत्मकथा इसलिए लिखनी पड़ रही है कि लोग मुझे यथास्थान न डालकर नाले – नालियों , रेलवे लाइनों के किनारे या ऐसी जगह फेंकते हैं, जहाँ कोई भी अपने को मनुष्य कहनेवाला मानव नहीं फेंकेगा। लेकिन लोग हैं कि मानते ही नहीं हैं , ऐसा लग रहा है कि वे बिल्कुल चिकने घड़े हो गए हैं। अपना चेहरा भी सबको ऐसे दिखाते हैं कि हमसे ज्यादा तो कोई काबिल है ही नहीं। बल्कि जो भी समझदार मनुष्य ऐसा करने के लिए मना भी करे या समझाए तो उसे पागल, मसखरा कहकर अपने ही जैसे लोगों के बीच मख़ौल उड़ाते हैं, कमाल के लोग हैं साहब इस प्रजातंत्र के। छुट्टे सांड की तरह मनमानी करना चाहते हैं। लज्जा शर्म तो उन्होंने उतार कर ही रख दी है। अज्ञान और अहंकार में गले तक डूबे हैं। क्योंकि उनको बाहुबल और माया का गुरूर है। वैसे मैं मानता हूँ कि सुविधाभोगी लोगों ने मुझ कूड़े से धरती और जल को पाटकर पर्यावरण को विनाशकारी बनाया है और निरंतर बना रहे हैं। अब मैं धरती पर प्लास्टिक अर्थात मोमजामे से बनी पन्नियों के रूप में धरती और जल पर अपना घर स्थापित कर रहा हूँ। लोग मुझे एक बार के अलावा दुबारा भी प्रयोग नहीं करना चाहते हैं। मुझसे तो खिलवाड़ गरीब और अमीर सब ही कर रहे हैं। सबको हर सामान प्लास्टिक की पन्नी में चाहिए। मजे की बात है कि सरकार ने मुझे बन्द करने के लिए कुछ आदेश भी कर रखे हैं लेकिन मैं तो कूड़े के रूप में वैध अवैध रूप से खूब उत्पादित हो रहा हूँ। सब कुछ भ्रष्टाचार के रूप में सब कुछ फल फूल रहा है। सब भाग रहे हैं मैराथन दौड़ में।

लोग हैं कि प्लास्टिक की पन्नियों में पशुओं के खाने का कूड़ा आदि भरकर सड़क, राह व मौहल्ले में फेंक देते हैं, उसे ही खाकर कितनी ही गाय आदि अकाल ही मौत के मुँह में समाए जा रही हैं। कमाल के लोग हैं साहब इस देश के, अति के लापरवाह और गैरजिम्मेदार।

दोस्तो हर घर में ही मेरा रहन सहन होता रहता है और हर घर से ही मुझे नाक मुँह सिकोड़ते और बेकार समझकर रोज – रोज तो कभी होली और दीवाली पर बाहर फेंक दिया जाता है। मुझ कूड़े के हजारों रूप हैं।

कुछ लोग मुझसे ही रोजगार पाते हैं, मुझे गले लगाते हैं, मेरे साथ सोते जागते भी हैं। बल्कि मेरी उपस्थिती में ही पीते-खाते हैं। मैं उनके लिए बड़े काम की चीज हूँ साहब।

नित्य ही वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे हैं। नई निराली वस्तुएँ सुविधाभोगिता की बढ़ती ही जा रही हैं। उतना ही मैं भी भी खूब फल फूल रहा हूँ। मुझसे ही कबाड़ का व्यापार करने वाले अनेकानेक बड़े और छोटे कबाड़ी रोजगार पा रहे हैं। कितने ही  मुझ कूड़ा में से उपयोगी चीजें एकत्रित करनेवाले परिवार मेरी सँग ही जीते और मरते हैं, हजारों बड़े और बच्चे।

हर वस्तु की अपनी उम्र भी होती है। लेकिन मैं अमर हूँ। मैं किसी न किसी रूप में हर युग में उपस्थित रहा हूँ। जब प्लास्टिक की उत्पाद का जन्म नहीं हुआ था, तब लोग सामान क्रय करने के लिए घर से कपड़े के थैले लेकर आते थे। घर के सब्जी व फलों के आदि के छिलकों आदि को गाय और पशुओं को खिला दिया जाता था। या उसका खाद ही बना लिया जाता था। अर्थात उसका सही उपयोग हो जाता था। साथ ही लोग सामान खरीदने के लिए अपने साथ कपड़े से बना थैला आदि रखते थे, लेकिन जब से नए नए आविष्कार और सुविधाभोगिता ने पाँव पसारे हैं, तब से तो मेरी बहार ही आ गई है। हर जगह मेरा साम्राज्य फैल गया है। धरती और नदियों से लेकर समुंदर तक।

हजारों टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल आदि जब पूरी तरह खराब और अनुपयोगी हो जाते हैं तब वे कूड़ा बनकर कबाड़ की दुकानों तक पहुंचते हैं, फिर बड़े व्यापारियों तक और फिर  उन तक जो मुझे जलाकर उसमें से तांबा आदि वस्तुओं को निकालते हैं। यह सब काम व्यापारी और पुलिस की सांठगांठ से सम्पन्न होता रहता है और मैं कूड़ा वायु में मिलकर तुम सबकी साँसों में समा जाता हूँ तथा तुम्हें बीमारियां परोसकर अपना साम्राज्य बढ़ाता रहता हूँ।

मैं कूड़ा हूँ मैं सुचारू रूप से अपना निदान और समाधान आपके द्वारा चाहता हूँ। एक हमारे दादाजी हैं वे तो सब्जी फल आदि के छिलकों का पौधों के लिए घर में ही खाद बना लेते हैं। तोते, बन्दर और गिलहरी आदि भी उसमें से चुन कर कुछ खा जाते हैं और जो बचता है उसकी खाद बना लेते हैं। पौधे मस्त और स्वस्थ हो जाते हैं। अर्थात एक पंथ दो काज।

मैं कूड़ा चाहता हूँ कि मुझे यथास्थान डालो, मेरा उपयोग करो। नाले और नालियों में नहीं डालो। न ही नदियों में मुझे डालो, जैसा कि धर्मभीरू लोग पूजा का अवशेष प्लास्टिक की पन्नियों में भरकर डाल रहे हैं। वे सब पाप के भागी ही बन रहे हैं। हरा और सूखा कूड़ा अलग डालो। उसका उपयोग हो। सरकारी मशीनरी उसका सही निदान खोजे।अनुपयोगी सामान जैसे टीवी, कम्प्यूटर, मोबाइल या अन्य ऐसे ही सामानों का सरकार और वैज्ञानिक समाधान और निदान खोजें। नहीं तो ये धरती एक दिन कूड़े के ढेर के रूप में सिमट जाएगी। वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण से आज सभी ही त्रस्त हैं। अधिकांश लोग अर्थात सरकारी मशीनरी से लेकर सभी सुविधाभोगिता और निजी स्वार्थ के मायाजाल में फँसे हुए हैं। बहुत कम लोग पंच तत्वों को बचाने की सोच रहे हैं। प्लास्टिक की फैक्टरियों पर प्रतिबंध भी लगने चाहिए। विशेष तौर अवैधों पर। तब कहाँ दिखेंगी ये धरा और जल पर फैली प्लास्टिक की पन्नियाँ। और कौन इन्हें जलाकर करेगा वायु प्रदूषण।

मैं कूड़ा हूँ मेरा उचित निदान और समाधान खोजिए, यदि युद्धस्तर पर नहीं सोचा गया या किया गया तो न पीने का पानी शुद्ध मिलेगा और न वायु। सारे के सारे भौतिक संसाधन और नए नए उत्पाद धरे के धरे रह जाएंगे। लोग कोरोना महामारी की तरह बेमौत दम तोड़ेंगे। मंथन और चिंतन करिए। शुरुआत अपने से करिए। मुझ कूड़े का यथासंभव निदान करिए।नदियों और नाले नालियों को मुझ कूड़े से मत पाटिए।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 83 ☆ अंगद का पाँव ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 83 ☆ अंगद का पाँव ☆

प्रातः भ्रमण के बाद कुछ समय के लिये उद्यान में बैठा। दृष्टि उठाकर देखा तो स्वयं को डेकोरेटिव प्रजाति के दो-चार पेड़ों से घिरा पाया। चिकनी-चुपड़ी छाल, आसमान छूने की जल्दबाज लोलुपता, किसी के काम न आनेवाली ऊँची टहनियाँ, धरती के भीतर जाकर अधिकाधिक जल अवशोषित करने को आतुर जड़ें, अपनी ही सूखी डाल को खटाक से नीचे फेंक देनेवाला पेड़। देखा कि इस पेड़ से निर्वासित सूखी डालियाँ भी दूसरे पेड़ों की डालियों पर आसन जमाये बैठी हैं।

विचार उठा कि साहित्य हो या राजनीति, ब्यूरोक्रेसी या कोई अन्य सार्वजनिक क्षेत्र, मनुष्य के भीतर भी एक डेकोरेटिव प्रजाति है जो निरंतर फलती-फूलती जा रहा है। साम, दाम, दंड या भेद से येन केन प्रकारेण सारा कुछ अवशोषित करने की स्वार्थलोलुप प्रवृत्ति वाली प्रजाति। दुर्भाग्य यह कि आजकल इसी प्रजाति एवं प्रवृत्ति का रोपण तथा विकास किया जाता है। मन खिन्न हो गया।

खिन्न विचारों की सुस्त धारा में एकाएक उमंग की कुछ लहरें उठने लगीं। एक बुजुर्ग महिला आती दिखीं। कुछ दूर खड़े पीपल की जड़ों में उन्होंने एक लोटा जल अर्पित किया। फिर दीया चासा। प्रज्ज्वलित दीपक से उठती लौ ने मानो नयी दृष्टि दी। दृष्टि आगे बढ़ी तो मन्नत के धागों से लिपटा किसी ऋषि-सा वटवृक्ष खड़ा था।…और विस्तार किया तो पाया कि उद्यान की सीमा पर विशालकाय नीम पहरा दे रहे हैं। सघन पेड़ों में अपने घरौंदे बनाये बैठे पंछियों के स्वर अब कानों में अमृत घोल रहे हैं।

सीमित आयु वाले निरुपयोगी डेकोरेटिव या सैकड़ों वर्ष की आयु वाले पीपल, बरगद, नीम! मनुष्य के पास विकल्प है- अस्थायी दिखावटी चमक से इतराने या चराचर के लिए घनी छाया देकर प्रकृति की स्मृति में अंगद के पाँव-सा डटने का।…सदा की तरह अंतिम बात, अपने विकल्प का चयन स्वयं करो।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 80 ☆ मी टू : अंतहीन सिलसिला ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  स्त्री विमर्श मी टू : अंतहीन सिलसिला।  यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 80 ☆

☆ मी टू : अंतहीन सिलसिला ☆

‘मी टू’ एक सार्थक प्रयास, शोषित महिलाओं को न्याय दिलाने की मुहिम, वर्षों से नासूर बन रिसते ज़ख्मों से निज़ात पाने की अचूक मरहम… एक अंतहीन सिलसिला है। बरसों से सीने में दफ़न चिंगारी ज्वालामुखी पर्वत की भांति सहसा फूट निकलती है, जो दूसरों के शांत-सुखद जीवन को तहस-नहस करने का उपादान बन, अपनी विजयश्री का उत्सव मना रही होती है, विजय पताका लहरा रही होती है, जिससे समाज में व्याप्त समन्वय व सामंजस्यता का अंत संभाव्य है। भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ ने शोषित मासूमों में अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने का साहस जगाया है, क्योंकि अन्याय व ज़ुल्म सहन करने वाला, ज़ुल्म करने वाले से अधिक दोषी व अपराधी  स्वीकारा जाता है। औरतों की ‘मी टू’ में सक्रिय प्रतिभागिता होने पर, समाज के हर वर्ग के रसूखदार सदमे में हैं, क्योंकि किसी भी पल उन पर उंगली उठ सकती है और वे हाशिए पर आ सकते हैं। वैसे तो हर औरत इन हादसों की शिकार होती है। बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक कदम-कदम पर उसकी अस्मत पर प्रहार किया जाता है और उसे इन विषम परिस्थितियों से जूझना पड़ता है…मुंह बंद कर के रहना पड़ता है ताकि परिवार का रूतबा कायम रह सके।

आइये! ज़रा दृष्टिपात करें  इसके स्याह पक्ष पर…  बहुत सी महिलाएं अपना स्वार्थ साधने हेतु निशाना दाग़ने से नहीं चूकतीं। वे धन- ऐश्वर्य पाने, झूठी पद- प्रतिष्ठा बटोरने व अधिकाधिक सुख-सुविधा जुटाने के निमित्त, लोक-मर्यादा की परवाह न करते हुए, हर सीमा का अतिक्रमण कर गुज़रती हैं। जैसे 498 ए के अंतर्गत दहेज मांगने के इल्ज़ाम में, पति व ससुराल पक्ष के लोगों को कटघरे खड़ा करना, जेल की सीखचों के पीछे पहुंचाना या दुष्कर्म के झूठे आरोप लगाने का दम्भ भरना, अपनी कारस्तानियों का सबके सम्मुख सीना तान कर दम्भ भरना..सोचने पर विवश करता है… आखिर किस घने स्याह अंधकार में खो गयी है ममता की सागर, सीने में अथाह प्यार, असीम वफ़ा व त्याग समेटे नि:स्वार्थी, संवेदनशील, श्रद्धेय नारी…जिसकी तलाश आज भी जारी है। मी टू के झूठे आरोप लगा कर या दुष्कर्म के झूठे आरोप लगाकर पैसा व धन- सम्पत्ति ऐंठने का प्रचलन बदस्तूर जारी है, जिसके  परिणाम- स्वरूप आत्महत्या के मामले भी सामने आ रहे हैं, जो समाज के लिए घातक हैं; मानव-जाति पर कलंक हैं… शोचनीय हैं, चिन्तनीय हैं, मननीय हैं, निन्दनीय हैं।

एक प्रश्न मन में कुलबुलाता है…आखिर इतने वर्षों के पश्चात्, इन दमित भावनाओं का प्राकट्य क्यों… यह दोषारोपण तुरन्त क्यों नहीं? इसके पीछे की मंशा व प्रयोजन जानने की आवश्यकता है, जिसका ज़िक्र पहले किया जा चुका है। इस संदर्भ में उन महिलाओं की चुप्पी व तथाकथित कारणों पर प्रकाश डालने की अत्यंत आवश्यकता है कि सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के पश्चात् सहसा यह विस्फोट क्यों?

प्रश्न उठता है क्या ‘मी टू’ वास्तव में विरेचन है…उन दमित भावनाओं का, अहसासों का, जज़्बातों का, जो उनके असामान्य व्यवहार को सामान्य बना सकता है। वे लोग,जो शराफ़त का नकाब ओढ़े, समाज में ऊंचे-ऊंचे पदों पर काबिज़ हैं, उनकी हक़ीक़त को उजागर करने का माध्यम है, उनके जीवन के कटु यथार्थ को प्रकट करने का मात्र उपादान है, साधन है। क्या यह आधी आबादी को न्याय दिलाने का एकमात्र उपाय है?

आइए! इस विषय के सकारात्मक व नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा करें…क्या यह दोनों पक्षों के हित में है… शायद नहीं। वास्तव में आरोपी पक्ष पर इल्ज़ाम लगाने पर, कीचड़ के छींटे हमारे उजले दामन को भी मैला करते हैं और दोनों परिवारों की इज़्ज़त ही दांव पर नहीं लगती, उनके घरों का सुख-चैन, शांति व सुक़ून भी नदारद हो जाता है। यहां तक कि चंद आत्महत्याओं के मामलों ने तो अंतर्मन को इस क़दर झिंझोड़ कर रख दिया कि सुप्रीम कोर्ट की सोच पर भी पुन:चिंतन करने की आवश्यकता का विचार मन में सहसा कौंधा, क्योंकि इससे मानसिक आघात व हंसते-खेलते परिवारों में ग्रहण लगने की अधिक संभावना है।शेष निर्णय व दायित्व आप पर।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 32 ☆ खुद की आलोचना पर आत्मावलोकन ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “खुद की आलोचना पर आत्मावलोकन”.)

☆ किसलय की कलम से # 32 ☆

☆ खुद की आलोचना पर आत्मावलोकन ☆

मानव के दुर्गुण जब समाज के सामने आते हैं तब उसकी निन्दा होना स्वाभाविक है। यदि किसी की आलोचना होती रहे तो वह निन्दित-दुर्गुणों की ओर ध्यान अवश्य देगा और उनके निराकरण के उपाय भी सोचेगा। वहीँ निन्दा से घबराए इन्सान अक्सर समाज में अपनी प्रतिष्ठा नहीं बना पाते। वैसे किसी ने सच ही कहा है कि निन्दा की सकारात्मक स्वीकृति एक बड़े साहस की परिचायक है। यदि इन्सान अपनी ही निन्दा अर्थात आत्मावलोकन करना स्वयं शुरू कर दे और उन पर अमल करे तो इसे हम “सोने पर सुहागा” वाली कहावत को चरितार्थ होना कहेंगे। मन से दुर्गुण रूपी मैल के निकल जाने से इन्सान में चोखापन आता है। स्वयं की बुराईयों को नज़र अन्दाज़ करने वाले इन्सान को कभी भी नीचा देखना पड़ सकता है, लेकिन इन्सान अपने आप में सद्विचार और परिवर्तन लाता है तब वह दूसरों को भी सुधारने या सद्मार्ग की ओर प्रेरित करने का हक़ प्राप्त कर लेता है। यही कारण है कि ऐसे इन्सान के समक्ष कोई भी दुर्गुणी ज्यादा देर तक टिक ही नहीं पाता। यह कहना भी उचित है कि कोई भी व्यक्ति सर्वगुण सम्पन्न हो ही नहीं सकता और यदि सर्वसम्पन्न है तो वह मानव नहीं देवता कहलायेगा।

हम सभी ये जानते हुए भी कि सद्कर्मी सर्वत्र प्रशंसनीय होते हैं, फिर भी हमारी प्रवृत्ति सद्कर्मोन्मुखी कम ही होती है। हम अपने गुणों का बखान करने के स्थान पर यदि आत्मावलोकन करें और बुराईयों को दूर करने का प्रयत्न करें तो निश्चित रूप से हमारे अन्दर ऐसे परिवर्तन आयेंगे जिससे हम समाज में कम से कम एक अच्छे इन्सान के रूप में तो जाने जायेंगे।

अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि अपनी निन्दा या आलोचना को सदैव सहज स्वीकृति देते हुए उस पर आत्मावलोकन करें, आत्म चिंतन करें और जो निष्कर्ष सामने आएँ उनका अनुकरण करें तो इन्सान कभी भी दुखी या निराश नहीं रहेगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
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