हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #56 ☆ शून्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – शून्य ☆

शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य में आशंका देखते हो, सो आतंकित होते हो। शून्य में संभावना देखोगे तो  प्रफुल्लित होगे। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। वैसे प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी सब चक्राकार हैं। प्रकृति भी वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता है। प्रसव की यह क्षमता हर बिंदु के केंद्र बन सकने की संभावना है।

यों गणित में भी शून्य अंतिम नहीं होता। वह संख्याशास्त्र का संतुलन है। शून्य से पहले माइनस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल,पात्र,परिस्थिति अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक हद तक के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।

शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी।  शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ।

…मैं अपने अपने शून्य का रसपान कर रहा हूँ। शून्य में शून्य उँड़ेल रहा हूँ , शून्य से शून्य उलीच रहा हूँ। शून्य आदि है, शून्य अंत है।

 

© संजय भारद्वाज

परमसत्य की यात्रा मंगलमय हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 56 ☆ शांति और प्रशंसा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख शांति और प्रशंसा।  मौन एवं ध्यान का हमारे जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है जिसका  आध्यात्मिक अनुभव हमें उम्र तथा अनुभव के साथ ही मिलता है अथवा किसी अनुभवी व्यक्ति के मार्गदर्शन से मिलता है ।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 56 ☆

☆ शांति और प्रशंसा

मानव जीवन का प्रमुख प्रयोजन है– शांति प्राप्त करना, जिसके लिए वह आजीवन प्रयासरत रहता है। शांति बाह्य परिस्थितियों की गुलाम नहीं है, बल्कि इसका संबंध तो हमारे अंतर्मन व मन:स्थिति से होता है। जब हम स्व में स्थित हो जाते हैं, तो बाह्य परिस्थितियों का हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और हम सत्, चित्, आनंद अर्थात् अलौकिक आनंद को प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में मानव हृदय में दैवीय गुणों-शक्तियों का विकास होता है और वह निंदा, राग-द्वेष, स्व-पर, आत्मश्लाघा आदि दुष्प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लेता है। आत्म- प्रशंसा करना व सुनना संसार में सबसे बड़ा दोष है, जिसका कोई निदान नहीं। यह मायाजाल युग- युगांतर से निरंतर चला आ रहा है और वह ययाति जैसे तपस्वियों को भी अर्श से फर्श पर गिरा देता है।

ययाति घोर तपस्या के पश्चात् स्वर्ग पहुंचे, क्योंकि  उन्हें ब्रह्मलोक में विचरण करने का वरदान प्राप्त था; जो देवताओं की ईर्ष्या का कारण बना। एक दिन इंद्र ने ययाति  की प्रशंसा की तथा उस द्वारा किए गये जप-तप के बारे में जानना चाहा। ययाति आत्म- प्रशंसा सुन फूले नहीं समाए और अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने लगे। इंद्र ने ययाति को आसन से उतर जाने को कहा, क्योंकि उसने ऋषियों, गंधर्वों, देवताओं व मनुष्यों की तपस्या का तिरस्कार किया  और वे स्वर्ग से नीचे गिर गए। परंतु उसके अनुनय- विनय पर इन्द्र ने उसे सत्पुरुषों की संगति में रहने की अनुमति प्रदान कर दी।

सो! आत्म-प्रशंसा से बचने का उपाय है मौन, जो प्रारंभ में तो कष्ट-साध्य प्रतीत होता है। परंतु धीरे- धीरे श्वास व शब्द को साधने से हृदय की चंचलता समाप्त हो जाती है और चित्त शांत हो जाता है। आती-जाती श्वास को देखने पर मन स्थिर होने लगता है और मानव को उसमें आनंद आने लगता है। यह वह दिव्य भाव है, जिससे चंचल मन की समस्त वृत्तियों पर अंकुश लग जाता है। मानव अपना समय निरर्थक संवाद व तेरी-मेरी अर्थात् पर-निंदा में समय नष्ट नहीं करता। मौन की स्थिति में मानव आत्मावलोकन करता है तथा वह संबंध- सरोकारों से ऊपर उठ जाता है। इस स्थिति में अपेक्षा-उपेक्षा के भाव का भी शमन हो जाता है। जब व्यक्ति को किसी से अपेक्षा अथवा उम्मीद ही नहीं रहती, फिर विवाद कैसा? उम्मीद सब दु:खों की जननी है। जब मानव इससे ऊपर उठ जाता है, तो भाव-लहरियां शांत हो जाती हैं; संशय व अनिर्णय की स्थिति पर विराम लग जाता है। परिणामत: मानसिक द्वंद्व को विश्राम प्राप्त होता है और दैवीय गुणों स्नेह, करूणा, सहानुभूति, त्याग आदि के भाव जाग्रत होते हैं। उसे संसार में हम सभी के तथा सब हमारे नज़र आते हैं तथा ‘सर्वेभवन्तु सुखीनाम्’ का भाव जाग्रत होता है।

मानव हरि चरणों में सर्वस्व समर्पित कर मीरा की भांति ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूजो न कोय’ अनुभव कर सुक़ून पाता है। इस स्थिति में सभी भाव- लहरियों को अपनी मंज़िल प्राप्त हो जाती है तथा अहं का विगलन हो जाता हो, जो सभी दोषों की जड़ है। अहं हमारे अंतर्मन में सर्वश्रेष्ठता का भाव उत्पन्न करता है, जो आत्म- प्रशंसा का जनक है। अपने गुणों के बखान करने के असाध्य रोग से वह चाह कर भी मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। वह न तो दूसरे की अहमियत स्वीकारता है; न ही उसके द्वारा प्रेषित सार्थक सुझावों की ओर ध्यान देता है। सो! वह गलत राहों पर चल निकलता है। यदि कोई उसके हित की बात भी करता है, तो वह उसे शत्रु-सम भासता है और वह उसका निरादर कर संतोष पाता है। उसके शत्रुओं की संख्या में निरंतर इज़ाफ़ा होता जाता है। एक लम्बे अंतराल के पश्चात् जब उसका शरीर क्षीण हो जाता है और वह एकांत की त्रासदी झेलता हुआ तंग आ जाता है, तो उसे अपने घर व परिवार-जनों की स्मृति आती है। वह लौटना चाहता है, अपनों के मध्य… परंतु उसके हाथ निराशा ही लगती है और उसे प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य विकल्प नज़र नहीं आता। वह सांसारिक ऊहापोह व मायाजाल से निज़ात पाना चाहता है; चैन की सांस लेना चाहता है, परंतु यह उसके लिए संभव नहीं होता। उसे लगता है, वह व्यर्थ ही धन कमाने हित उचित- अनुचित राहों पर चलता रहा, जिसकी अब किसी को दरक़ार नहीं। वह न पहले शांत था, न ही उसे अब सुक़ून प्राप्त होता है। वह शांति पाने का हर संभव प्रयास करता रहा, परंतु अतीत की स्मृतियां ग़ाहे-बेग़ाहे उसके हृदय को उद्वेलित-विचलित करती रहती हैं। वह चाह कर भी इनके शिकंजे से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। अंत में इस जहान से रुख्स्त होने से पहले वह सबको इस तथ्य से अवगत कराता है कि सुख-शांति अपनों के साथ है। सो! संबंधों की अहमियत स्वीकारो…आत्म-प्रशंसा की भूल-भुलैया में फंस कर अपना अनमोल जीवन नष्ट न करो। सच्चे दोस्त संजीवनी की तरह होते हैं, उनकी तलाश करो। वे हर आकस्मिक आपदा व विषम परिस्थिति में आपकी अनुपस्थिति में भी आपकी ढाल बन कर खड़े रहते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 9 ☆ हमारा दुर्भाग्य है रिश्तों की टूटती कड़ियाँ ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

`डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं अनुकरणीय आलेख  हमारा दुर्भाग्य है रिश्तों की टूटती कड़ियाँ।)

☆ किसलय की कलम से # 9 ☆

☆ हमारा दुर्भाग्य है रिश्तों की टूटती कड़ियाँ ☆

रिश्ता अथवा बंधन शब्द दो या दो से अधिक समान या भिन्न-भिन्न जीवों, वनस्पतियों, पदार्थों आदि की उत्पत्ति का एक ही स्रोत होना, अति निकट आना, परस्पर मिश्रित अथवा समाहित होने का परिणाम है। एक ही प्रजाति के परिवार में परस्पर समानता के गुण पाए जाते हैं। यह समानता मनुष्यों में इसलिए स्पष्ट समझ में आ जाती है क्योंकि मनुष्य एक दूसरे के दैहिक, चारित्रिक, बौद्धिक गुणों के साथ-साथ नृत्य, संगीत, गायन जैसी कलाओं को आसानी से परखने की सामर्थ्य रखता है। वैसे भी एक वंश में उत्पन्न संतति में  प्रायः अनेक समानताएँ हम सब देखते चले आ रहे हैं। ये अनुवांशिक गुण खून के रिश्तों में ही पाए जाते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे परिलक्षित होते रहते हैं। फिर बात आती है दो अलग-अलग परिवारों के रिश्तों की, जो वैवाहिक बंधन से बनते हैं। इसमें एक परिवार की लड़की और दूसरे परिवार का लड़का होता है और वह सदा के लिए पति-पत्नी कहलाते हैं। अगले क्रम के रिश्ते इन्हीं दो अलग-अलग परिवारों के शेष सदस्यों से बन जाते हैं, जिन्हें फूफा, मौसी, मामा, नाना, नानी आदि का नाम दिया जाता है। तत्पश्चात मानव विभिन्न कारणों से भी रिश्तों में बँधता-बिखरता रहता है। मालिक-नौकर, दुकानदार-ग्राहक, समान गुण, कला, संगीत, साहित्य, पड़ोस, व्यवसाय आदि में भी रिश्ते कायम होते हैं। एक और  रिश्ते को पृथक से वर्गीकृत करना आवश्यक है और वह है मित्रता का रिश्ता। प्रमुखतः ये दो तरह के होते हैं।  प्रथम किसी हेतुवश की गई मित्रता और द्वितीय निःस्वार्थ मित्रता। आज निःस्वार्थ मित्रता के रिश्ते बड़े दुर्लभ व कहानियों तक सीमित हो गए हैं। आधुनिक युग में इसे पागलपन कहा जाता है और ये पागलपन भला आज कोई क्यों करेगा?

संबंध या रिश्तों की बात आते ही हम राम-लक्ष्मण, यशोदा-कृष्ण, रावण-विभीषण, देवकी-कंस, अर्जुन-कृष्ण, सीता-राम, पांडव-कौरवों के रिश्तों में स्वयं का किरदार नियत करने की सोचने लगते हैं, लेकिन हम स्वयं की तुलना इनमें से किसी के साथ नहीं कर पाते, क्योंकि आज के युग में हम न लक्ष्मण जैसे भाई बन सकते, न ही यशोदा जैसी माँ और न ही सीता जैसी आदर्श पत्नी, लेकिन हम स्वार्थवश रावण, कंस अथवा कौरवों से भी आगे वाले किरदारों की जरूर सोच लेंगे।

एक समय था जब कबीले का मुखिया सबका ध्यान रखता था, उनके उदर-पोषण का दायित्व सम्हालता था। फिर संयुक्त परिवारों का मुखिया समान रूप से व्यवहार व सुरक्षा करने लगा। एकाध सदी पूर्व का संयुक्त परिवार माँ-बाप, पति-पत्नी और बच्चों तक सिमट गया। पिछले कुछ ही दशकों में हमें अपने माँ-बाप या सास-श्वसुर भी बोझ लगने लगे। वर्तमान में इसका कारण आवश्यकता कम स्वच्छंदता की चाह ज्यादा समझ में आती है। हम अपने ही बूढ़े माँ-बाप या सास-श्वसुर की सेवा नहीं करना चाहते। आखिर हमारी सोच इतनी निम्न क्यों होती जा रही है?

यह बात इतनी सीधी व सरल नहीं है। हम माँ-बाप से अलग रहने पर विवश क्यों हो जाते हैं?

गंभीर चिंतन व मनन से कुछ प्रमुख कारण सामने जरूर आएँगे। सबसे प्रमुख बात है हमारी संस्कृति, संस्कार, परंपराओं और सोच में बदलाव की। अपनी संतानों को हम अपने धार्मिक व पौराणिक ग्रंथों में निहित सीख व उपदेशों के साथ-साथ नाना-नानी की प्रचलित रहीं दिशाबोधी कथा-कहानियों से लगातार दूर रखने लगे। वैसे भी गुरुकुल प्रथा की समाप्ति के पश्चात व्यवसाय केंद्रित शिक्षा ने हमारे सारे आदर्शों को हाशिए पर डाल दिया है। रही शेष बचे प्रेम-भाईचारे, त्याग-समर्पण, सरलता, परोपकार जैसे कर्त्तव्यों की बात, तो इनके दूसरे घृणित पहलुओं पर केंद्रित चलचित्र, टीवी शो, टीवी धारावाहिकों के साथ अब सोशल मीडिया ने भी भारतीय संस्कारों और परंपराओं के विरुद्ध पूरे समाज की सोच और परिवेश तक बदलने की ठान ली है।

आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बात बिना हिंसा, सौदेबाजी, लूटमार, शोषण और वैमनस्यता के पूरी होती ही नहीं है। चूँकि सच्चाई कभी बदली नहीं जा सकती, इसीलिए श्रोताओं व दर्शकों के भय से दस-बीस प्रतिशत सच्चाई को दिखाना इन की विवशता होती है, परंतु हमारी संतानें बार-बार, लगातार यही देखते और सुनते रहने से क्या भ्रमित होने से बच पाएँगी? आज घर के ही सदस्यों के मध्य द्वेष, घृणा, स्वार्थ, अनैतिक संबंधों के दृश्य दिखाने की अनियत सीमा नई पीढ़ी को अमानवीय व तथाकथित आधुनिकता के रंग में रँगना चाहती है। निर्माताओं तथा लेखकों की पैंतरेबाजी, कानून की लचर धाराओं और देश के कर्णधारों का भी इस ओर ध्यान न दिया जाना, वर्तमान के साथ ही भावी पीढी के लिए भी घातक बनता जा रहा है।

संयुक्त परिवार तो अब अंतिम साँसें गिन ही रहे हैं। एकल परिवार का रुझान अब एक आम प्रक्रिया हो चली है। तन-मन-धन खपाने वाले माँ-बाप की त्याग-तपस्या आज मूल्यहीन मानी जाती है। बचपन से जवानी तक किया गया सब कुछ अपनी आँखों से देखने वाली संतान जब स्वयं अपने माँ-बाप को महत्त्व न दे। नवागत वधु अपने सास-श्वसुर की सेवा-सुश्रूषा तथा चिंता की बात तो दूर महत्त्व ही न दें और खुद का बेटा विवश होकर उसका साथ दे, तो क्या होगा उन असहाय बुजुर्ग माँ-बाप का। कोई बाहरी व्यक्ति तो उनकी मदद करने से रहे। बेटे की विवशता और उसकी दुविधा अपने माता-पिता के साथ पत्नी के हितों से भी जुड़ी होती है। स्वभावतः अथवा माता-पिता द्वारा उचित शिक्षा, संस्कार व कर्त्तव्य निर्वहन के गुण सीखकर न आने वाली वधुएँ भी आज केवल पति और अपने बच्चों के साथ एकल परिवारों को बढ़ाने में अहम भूमिका का निर्वहन कर रही हैं। वैसे अविवाहित रहते उनके माँ-बाप द्वारा सिखाने का भी एक समय होता है। आचार-व्यवहार व सलीके स्वयं सीखना भी उनका दायित्व है, लेकिन जब इन बातों की अनदेखी होगी तो परिवार में टूटन के साथ खून के रिश्तो में दरार पड़ने से कोई भी नहीं रोक पायेगा।  अपने माता-पिता की छत्रछाया के अनगिनत लाभों को नजर अंदाज कर कुछेक स्वार्थों की पूर्ति हेतु एकल परिवारों की बाढ़ आना आज के युग की सबसे बड़ी विडंबना कही जाएगी। ये पारिवारिक रिश्तों की टूटती कड़ियाँ हमारा दुर्भाग्य ही हैं।

आजकल महिलाओं की आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता आंदोलनों के अधूरे सच ने भी विकट स्थितियाँ निर्मित की हैं। जिस उद्देश्य को लेकर महिला मोर्चा और नारी आंदोलन शुरू किए गए थे उनका मूल उद्देश्य नारी का सम्मान, समानता का भाव और शोषण से मुक्त होना था, लेकिन आज इनकी आड़ में यदा-कदा बहुत कुछ ऐसा भी होने लगा है, जिससे समाज में किंचित असहजता तथा रिश्तों में गाँठें भी दिखाई देने लगी हैं। नारी हितार्थ बने कानूनों का भी दुरुपयोग होते देखा गया है। आज मित्रता हो, संपत्ति बँटवारा हो, वर्चस्व की बात हो अथवा राजनीतिक बात हो, ये लगभग सभी रिश्ते स्वार्थ के सहारे ही अग्रसर होने लगे हैं। गिरते नैतिक मूल्य, निजी स्वार्थों का टकराव और अपनों के प्रति त्याग-समर्पण तथा आत्मीयता की कमी आज आदर्श रिश्तों के अंत के प्रमुख कारकों में गिने जायेंगे।

उपरोक्त सभी तथ्यों पर आदिकाल से ही पढ़ा, सुना और देखा जा रहा है। आज भी यही सब हो रहा है, लेकिन कोई भी इसे स्वीकारने हेतु तैयार नहीं है। आज अधिकांश लोग खून के रिश्तों तक का निर्वहन करना भूलते जा रहे हैं। हम सभी जानते हैं मानव जीवन क्षणभंगुर है, जग में आपकी उपलब्धियों और आपके आचार-व्यवहार के अतिरिक्त कुछ भी याद नहीं किया जायेगा। यह भी परम सत्य है कि रिश्तों तथा अपनों के प्रति किए गए दुर्व्यवहार व अनैतिक कृत्यों की अंतःपीड़ा से कोई जीवन पर्यंत भी नहीं उबर पाता। अतः मानव की श्रेष्ठ योनि में जन्म लेकर सद्व्यवहार, सत्कर्म, परोपकार तथा रिश्तों के उचित निर्वहन में स्वयं समर्पित होना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है और यही सच्चे अर्थों में रिश्तों की कड़ियों को टूटने से बचाना भी कहलायेगा।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 63 ☆ एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक विचारणीय आलेख  “एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें। इस अत्यंत सार्थक आलेख के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 63 ☆

☆ एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें ☆

कोरोना के परिदृश्य में स्पष्ट हो चुका है कि केवल सबके बचाव में ही स्वयं का बचाव संभव है. एकता की शक्ति से वैश्विक उम्मीदें हैं. जो देश इस कठिनाई के समय में भी विस्तार की नीति अपना रहे हैं, वहां की सरकारें जनता से छल कर रही हैं. दुनियां के लिये यह समय सामंजस्य और एकता के विस्तार का है.

हमारी युवा शक्ति ही देश की  सबसे बड़ी ताकत है. बुद्धि और विद्वता के स्तर पर हमारे देश के युवाओ ने सारे विश्व में मुकाम स्थापित किया है. हमारे साफ्टवेयर इंजीनियर्स  के बगैर किसी अमेरिकन कंपनी का काम नही चलता. हमारी स्त्री शक्ति सशक्त हुई है. देश के युवाओ से यही कहना है कि  हम किसी से कम नही है और हमारे देश को विश्व में नम्बर वन बनाने की जबाबदारी हमारी पीढ़ी की ही है. हमें नीति शिक्षा की किताबो से चारित्रिक उत्थान के पाठ पढ़ने ही नही उसे अपने जीवन में उतारने की जरूरत है. मेरा विश्वास है कि भारतीय लोकतंत्र एक परिपक्व शासन प्रणाली प्रमाणित होगी, इस समय जो कमियां भ्रष्टाचार, जातिगत आरक्षण, क्षेत्रीयता, भाषावाद, वोटो की खरीद फरोक्त को लेकर देश में दिख रही हैं उन्हें दूर करके हम विश्व नेतृत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् के प्राचीन भारतीय मंत्र को साकार कर दिखायेंगे. आज जब मानवीय मूल्य समाप्त होते जा रहे हैं, संभवतः रोबोट और मशीनी व्यवस्थायें ही देश से भ्रष्टाचार समाप्त कर सकती है, जैसा कंप्यूटरीकरण के विस्तार से रेल्वे या अन्य विभिन्न क्षेत्रो में हो भी रहा है.

सैक्स के बाद यदि दुनिया में कुछ सबसे अधिक लोकप्रिय विषय है तो संभवतः वह राजनीति ही है. लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली मानी जाती है और सारे विश्व में भारतीय लोकतंत्र न केवल सबसे बड़ा है वरन सबसे  तटस्थ चुनावी प्रणाली के चलते विश्वसनीय भी है. चुनावी उम्मीदवार अपने नामांकन पत्र में अपनी जो आय  घोषित कर चुके हैं  वह हमसे छिपी नही है,  एक सांसद को जो कुछ आर्थिक सुविधायें हमारा संविधान सुलभ करवाता है, वह इन उम्मीदवारो के लिये ऊँट के मुह में जीरा है. प्रश्न है कि  आखिर क्या है जो लोगो को राजनीति की ओर आकर्षित करता है. क्या सचमुच जनसेवा और देशभक्ति ? क्या सत्ता सुख, अधिकार संपन्नता इसका कारण है ? मेरे तो परिवार जन तक मेरे इतने ब्लाइंड फालोअर नही है, कि कड़ी धूप में वे मेरा घंटों इंतजार करते रहें, पर ऐसा क्या चुंबकीय व्यक्तित्व है,  राजनेताओ का कि हमने देखा लोग कड़ी गर्मी के बाद भी लाखो की तादाद में हेलीकाप्टर से उतरने वाले नेताओ के इंतजार में घंटो खड़े रहे, देश भर में.  जबकि उन्हें पता था कि नेता जी आकर क्या बोलने वाले हैं. इसका अर्थ  यही है कि अवश्य कुछ ऐसा है राजनीति में कि हारने वाले या जीतने वाले या केवल नाम के लिये चुनाव लड़ने वाले सभी किसी ऐसी ताकत के लिये राजनीति में आते हैं जिसे मेरे जैसे मूढ़ बुद्धि शायद समझ नही पा रहे. तमाम राजनैतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार देश के “रामभरोसे” मतदाता की तारीफ करते नही अघाते, देश ही नही दुनिया भर में हमारे रामभरोसे की प्रशंसा होती है, उसकी शक्ति के सम्मुख लोकतंत्र नतमस्तक है. रामभरोस वोटर के फैसले के पूर्वानुमान की रनिंग कमेंट्री कई कई चैनल कई कई तरह से करते रहे हैं. मैं भी अपनी मूढ़ मति से नई सरकार का हृदय से स्वागत करती हूं.पिछले अनुभवों में हर बार बेचारा रामभरोसे वोटर ठगा गया है, कभी गरीबी हटाने के नाम पर तो कभी धार्मिकता के नाम पर, कभी देश की सुरक्षा के नाम पर तो कभी रोजगार के सपनो की खातिर. एक बार और सही. हर बार परिवर्तन को वोट करता है रामभरोसे, कभी यह चुना जाता है कभी वह. पर रामभरोसे का सपना टूट जाता है, वह फिर से राम के भरोसे ही रह जाता है, नेता जी कुछ और मोटे हो जाते हैं. नेता जी के निर्णयो पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं, जाँच कमीशन व न्यायालय के फैसलो में वे प्रश्न चिन्ह गुम जाते हैं. रामभरोसे किसी नये को नई उम्मीद से चुन लेता है. चुने जाने वाला रामभरोसे पर राज करता है, वह उसके भाग्य के घोटाले भरे फैसले करता है. मेरी पीढ़ी ने तो कम से कम अब तक यही होते देखा है. प्याज के छिलको की परतो की तरह नेताजी की कई छबिया होती हैं. कभी वे  जनता के लिये श्रमदान करते नजर आते हैं, शासन के प्रकाशन में छपते हैं. कभी पांच सितारा होटल में रात की रंगीनियो में रामभरोसे के भरोसे तोड़ते हुये उन्हें कोई स्पाई कैमरा कैद   कर लेता है. कभी वे संसद में संसदीय मर्यादायें तोड़ डालते हैं, पर उन्हें सारा गुस्सा केवल रामभरोसे के हित चिंतन के कारण ही आता है. कभी कोई तहलका मचा देता है स्कूप स्टोरी करके कि  नेता जी का स्विस एकाउंट भी है. कभी नेता जी विदेश यात्रा पर निकल जाते हैं रामभरोसे के खर्चे पर, वे जन प्रतिनिधि जो ठहरे. संभवतः सर्वहारा को सर्व शक्तिमान बना सकने की ताकत रखने वाले लोकतंत्र की सफलता के लिये उसकी ये कमियां स्वीकार करनी जरूरी हैं. जो भी हो शायद यही लोकतंत्र है, तभी तो सारी दुनिया इसकी इतनी तारीफ करती है.

भारतीय लोकतात्रिक प्रणाली की वैधानिक व्यवस्थायें अमेरिकन व इंगलैण्ड सहित दुनिया के विभिन्न संविधानो के अध्ययन के उपरांत भीमराव अम्बेडकर जैसे विद्वानो ने निर्धारित की थीं. भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार तो विजयी उम्मीदवारों में से सबसे बड़े दल के सांसद, अपना नेता चुनते हैं, जो प्रधानमंत्री पद के लिये राष्ट्रपति के सम्मुख अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत करता है, अर्थात जनता अपने वोट से सीधे रूप से प्रधानमंत्री का चुनाव नही करती यद्यपि सत्ता की मूल शक्ति प्रधानमंत्री में ही सन्नहित होती है . जबकि अमेरिकन प्रणाली में राष्ट्रपति सत्ता की शक्ति का केंद्र होता है, और उसका सीधा चुनाव जनता अपने मत से करती है.

अब जन आकांक्षा केवल घोषणायें और शिलान्यास नहीं कुछ सचमुच ठोस चाहती है. सरकार से हमें देश की सीमाओ की सुरक्षा, भय मुक्त नागरिक जीवन, भारतवासी होने का गर्व, और नैसर्गिक न्याय जैसी छोटी छोटी उम्मीदें  हैं . सरकार सबके हितो के लिये काम करे न कि पार्टी विशेष के, पर्दे के सामने या पीछे के नुमाइन्दो से सिफारिश पर, केवल उन लोगो के काम हो जिन के पास वह खास सिफारिश हो. जो उम्मीदें चुनावी भाषणो और रैलियो में जगाई गई हैं, वे बिना भ्रष्टाचार के मूर्त रूप लें .महिलाओ को सुरक्षा मिले, पुरुषो की बराबरी का अधिकार मिले. युवाओ को अच्छी शिक्षा तथा रोजगार मिले. आम आदमी को मंहगाई और भ्रष्टाचार से निजात मिले. अल्पसंख्यको को विश्वास मिले. देश का सर्वांगीण विकास हो सके. राष्ट्र कूटनीतिक रूप से, तकनीकी रूप से, सक्षम हो.  विकास के रथ पर सवार होकर हमारा देश दुनिया के सामने एक विकसित राष्ट्र के रूप में पहचान बनाये यह हर भारतीय की आकांक्षा है, और यही  सरकार की चुनौती है.

कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के चलते विकास के सारे मापदण्ड छिन्न भिन्न हैं  निश्चित ही सारी जबाबदारी केवल सरकार पर नही डाली जा सकती, हर नागरिक को भी इस महायज्ञ में अपनी भूमिका निभानी ही  होगी. सरकार विकास का वातावरण बना सकती है, सुविधायें जुटा सकती है, पर विकास तो तभी होगा जब प्रत्येक इकाई विकसित होगी, हर नागरिक सुशिक्षित बनेगा. जब देशप्रेम की भावना का अभ्युदय  हर बच्चे में होगा तो स्वहित के साथ साथ देशहित भी हर नागरिक के मन मस्तिष्क का मंथन करेगा. भ्रष्टाचार स्वयमेव नियंत्रित होता जायेगा और देश उत्तरोत्तर विकसित हो सकेगा. अतः नागरिको में सुसंस्कार विकसित करना भी नई सरकार के सम्मुख एक चुनौती है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #55 ☆ इनबिल्ट ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – इनबिल्ट ☆

अपने दैनिक पूजा-पाठ में या जब कभी मंदिर जाते हो,  सामान्यतः याचक बनकर ईश्वर के आगे खड़ा होते हो। कभी धन, कभी स्वास्थ्य, कभी परिवार में सुख-शांति, कभी बच्चों का विकास तो कभी…, कभी की सूची लंबी है, बहुत लंबी।

लेकिन कभी विचार किया कि दाता ने सारा कुछ, सब कुछ पहले ही दे रखा है। ‘जो पिंड में, सोई बिरमांड में।’ उससे अलग क्या मांग लोगे? स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ब्रह्मांड की सारी शक्तियाँ पहले से हमारे भीतर है। अपनी आँखों को अपने ही हाथों से ढककर हम ‘अंधकार, अंधकार’ चिल्लाते हैं। कितना गहन पर कितना सरल वक्तव्य है। ‘एवरीथिंग इज इनबिल्ट।’…तुम रोज मांगते हो, वह रोज मुस्कराता है।

एक भोला भंडारी भगवान से रोज लॉटरी खुलवाने की गुहार लगाता था। एक दिन भगवान ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा,’बावरे! पहले लॉटरी का टिकट तो खरीद।’

तुम्हारा कर्म, तुम्हारा परिश्रम, तुम्हारा टिकट है। ये लॉटरी नहीं जो किसी को लगे, किसी को न लगे। इसमें परिणाम मिलना निश्चित है। हाँ, परिणाम कभी जल्दी, कभी कुछ देर से आ सकता है।

उपदेशक से समस्या का समाधान पाने के लिए उसके पीछे या उसके बताये मार्ग पर चलना होता है। उपदेशक के पास समस्या का सर्वसाधारण हल है।  राजा और रंक के लिए, कुटिल और संत के लिए, बुद्धिमान और नादान के लिए, मरियल और पहलवान के लिए एक ही हल है।

समुपदेशक की स्थिति भिन्न है। समुपदेशक तुम्हारी अंतस प्रेरणा को जागृत करता है कि अपनी समस्या का हल तलाशने का सामर्थ्य तुम्हारे भीतर है। तुम्हें अपने तरीके से अपना प्रमेय हल करना है। प्रमेय भले एक हो, हल करने का तरीका प्रत्येक की अपनी दैहिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है।

समुपदेशक तुम्हारे इनबिल्ट को एक्टिवेट करने में सहायता करता है। ईश्वर से मत कहो कि मुझे फलां दे। कहो कि फलां हासिल करने की मेरी शक्ति को जागृत करने में सहायक हो। जिसने ईश्वर को समुपदेशक बना लिया, उसने भीतर के ब्रह्म को जगा लिया….और ब्रह्मांड में ब्रह्म से बड़ा क्या है?

 

© संजय भारद्वाज

परमसत्य की यात्रा मंगलमय हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ लिखना सीखें आप भी – कहानी लेखन महाविद्यालय ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार 

( सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक   श्री विजय कुमार जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। शुभ तारिका का 56 वर्ष का इतिहास रहा है। मैं स्वयं अपने सैन्य जीवन में 1972 से 1980 तक इस पत्रिका का सदस्य रहा हूँ। मेरी पीढ़ी के साहित्यकारों ने अवश्य ही कहानी लेखन महाविद्यालय, अम्बाला के विज्ञापन अपने समय में देखे होंगे और पुराने पोस्टकार्ड एवं अंक संजो रखे होंगे। इस महाविद्यालय ने प्रतिष्ठित लेखकों की एक पीढ़ी का मार्गदर्शन किया है जो साहित्य, पत्रकारिता, आकाशवाणी, दूरदर्शन  एवं फिल्मों में विभिन्न पदों पर सुशोभित है। एक  पेज  से तारिका के नाम से प्रारम्भ शुभ तारिका तक इस पत्रिका का अपना इतिहास रहा है। मैं इस संस्थान  एवं पत्रिका को इतने वर्षों के पश्चात भी विस्मृत नहीं कर पाया और अंततः श्री कमलेश भारतीय जी के सहयोग से खोज निकाला। यह आलेख संभवतः आपको विज्ञापन लगे किन्तु,ऐसा समर्पित संस्थान 56 वर्षों से सतत चल रहा है, यही उन समर्पित सदस्यों के परिश्रम का परिणाम है।

ई-अभिव्यक्ति की ओर स्व डॉ महाराज कृष्ण जैन जी को विनम्र श्रद्धांजलि । इस संस्थान को सतत जीवन देने के लिए सुश्री उर्मि कृष्ण जी को सादर नमन। संस्थान के इतिहास एवं वर्तमान जानकारी को हमारे पाठकों से साझा करने के लिए आदरणीय श्री विजय कुमार जी, सह संपादक ” शुभ तारिका” का हार्दिक आभार।)

☆ लिखना सीखें आप भी – कहानी लेखन महाविद्यालय ☆

‘लिखना सीखें आप भी’ शीर्षक से शुभ तारिका तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में आप एक विज्ञापन पढ़ते होंगे/हैं। दो कमरों में संचालित कहानी-लेखन महाविद्यालय, ‘कृष्णदीप’, ए-47, शास्त्री कालोनी, अम्बाला छावनी-133001 (हरियाणा) के विषय में आप भी जानिए –

मैं आज ‘डा. महाराज कृष्ण जैन’ द्वारा स्थापित किए गए ‘कहानी-लेखन महाविद्यालय’ के विषय में कुछ लिख रहा हूं। ‘कहानी-लेखन महाविद्यालय’ के संस्थापक डा. महाराज कृष्ण जैन ने कहानी लिखना सिखाने के लिए इस विद्यालय की शुरूआत 1964 में की थी। ‘लिखना सीखें आप भी’ कहानी लिखना सिखाने के लिए रचनात्मक पाठ्यक्रम है। डा.जैन के परिचय के बाद जानिए उनके द्वारा स्थापित विद्यालय को।

अम्बाला (हरियाणा) के एक छोटे से शहर अम्बाला छावनी में जन्म लेकर सारे देश और विदेश में लोकप्रिय हुए साहित्यकार, कहानीकार डा. महाराज कृष्ण जैन। उनका जन्म, पालन, शिक्षा, विवाह और जीवन एक कठिन किन्तु साहसिक संघर्ष का साक्षी है। पांच वर्ष की अल्पायु में यह बालक पोलियो का शिकार हुआ और जीवनपर्यन्त पहियाकुर्सी पर चला। यह शारीरिक अस्वस्थता उनके दृढ़ इरादों में कभी आड़े नहीं आई।

कई अनियमितताओं, अभावों और अव्यवस्थाओं के बीच डा. जैन ने अपनी पढ़ाई पूरी की। 1968 में पंजाब यूनिवर्सिटी से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। विषय था – ‘प्रेमचन्दोत्तर उपन्यासों में नारी की परिकल्पना का विकास’।

हिन्दी साहित्य के अतिरिक्त डा.जैन अंग्रेजी, विज्ञान, गणित, आयुर्वेद, ज्योतिष, वनस्पति शास्त्र, होम्योपैथी, फोटोग्राफी के अच्छे ज्ञाता थे। संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, फ्रेंच भाषाएं उन्हें आती थीं। उनके पुस्तकालय में चुटकुलों से लेकर कालिदास, शेक्सपीयर, लाओत्से, कृष्णमूर्ति, ओशो, रविंद्र, शरत, प्रसाद, श्रीनरेश मेहता, निर्मल वर्मा, अज्ञेय सभी की पुस्तकें संकलित हैं। वे सबसे अधिक पैसा पुस्तकें खरीदने में ही खर्च करते थे। ‘विश्व की प्रसिद्ध कहानियां’ पुस्तक का अनुवाद और संपादन उन्होंने किया। दिलीप भाटिया द्वारा संकलित व उर्मि कृष्ण द्वारा संपादित ‘गुरु नमन’ (डा. महाराज कृष्ण जैन के लेख) पुस्तक भी प्रकाशित हुई है।

पर्यटन, प्रकृति, फूल-पौधे, वन और वनवासी जीवों से उन्हें खूब लगाव था। विश्व में पाये जाने वाले अधिकांश पेड़-पौधों और फूलों के नाम उन्हें ज्ञात थे। विश्व के रहस्यों को जानने में भी उनकी विशेष रुचि थी।

डा. जैन बौद्धिक व मानसिक रूप से अत्यन्त स्वस्थ और सजग थे। उनका मनोबल देखते ही बनता था। एक जगह कमलेश भारतीय लिखते हैं–‘ऐसा लगता था कि जैसे उनकी व्हील चेयर न होकर कोई पौराणिक ग्रंथों का रथ हो, जो उन्हें दूर दराज तक ले जाने में ही नहीं कल्पना की उड़ान भरने में भी सक्षम है।’

विष्णु प्रभाकर लिखते हैं– ‘उनसे मिलकर मैं निश्चित ही भाव-विह्नल हो उठता था। वे कहानी लेखकों का मार्गदर्शन ही नहीं करते थे बल्कि मानव जीवन के रहस्यों का आह्नान भी करते थे। सागर से गहरे, नदियों से मीठे, कवि मन, एक पारखी, एक कद्रदान–कितनी-कितनी उपमाएं मिली हुई हैं डा. जैन को। उर्मि कृष्ण कहानी-लेखन महाविद्यालय के माध्यम से डा. जैन से परिचित हुई थीं, उनकी विलक्षण सर्वोन्मुखी प्रतिभा से अभिभूत होकर वह डा. जैन के साथ प्रणय सूत्र में बंध गयीं।’

कहानी उपन्यास लेखन में विशेष रुचि रखने वाले डा.जैन ने 1964 में कहानी-लेखन महाविद्यालय की स्थापना की। रचनात्मक लेखन में पत्राचार द्वारा मार्गदर्शन देने वाला यह भारत का प्रथम संस्थान था।

डा. महाराज कृष्ण जैन और कहानी-लेखन महाविद्यालय का नाम लेखकों के बीच में एक चिरपरिचित नाम है जो आज भी चर्चा में रहता है। कितने ही लेखक जो कलम पकड़ कर कागज पर मन के भावों को उतारना चाहते थे, वे कहानी-लेखन महाविद्यालय से जुड़े और उनकी प्रतिभा पूर्ण रूप से विकसित होकर सामने आई।

देश के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों में डा. जैन ने कहानी को न केवल लिखा व लिखना सिखाया बल्कि बहुत करीब से जिया भी।

‘कहानी-लेखन महाविद्यालय’ रचनात्मक लेखन में पत्राचार द्वारा शिक्षण देने वाला संभवतः भारत का प्रथम संस्थान है। डा. महाराज कृष्ण जैन स्वयं ने लेखन करते हुए जिन कठिनाइयों का सामना किया उन्हीं कठिनाइयों में मार्गदर्शन देने के लिये इस पाठ्यक्रम की शुरूआत 1964 में पत्राचार माध्यम से की गई। कहानी-लेखन के अतिरिक्त पत्रकारिता का शिक्षण भी कुछ समय बाद इसमें आरंभ किया गया। जिस समय इस पत्राचार पाठ्यक्रम की शुरूआत हुई (1964) उस समय भारत में रचनात्मक लेखन में मार्गदर्शन की कोई अवधारणा नहीं थी। पत्राचार माध्यम से तो हमारे देश में कहीं कोई शिक्षण नहीं चल रहा था।

आज इस संस्थान द्वारा कहानी-कला के अतिरिक्त लेख और फीचर लेखन, पत्रकारिता और संपादन, पत्रिका- संचालन, पटकथा लेखन, प्रेक्टिकल इंग्लिश आदि कोर्स चलाये जा रहे हैं। इस समय एक उप कोर्स फीचर एजेंसी संचालन भी सफलतापूर्वक चलाया जा रहा है। भारत में ही नहीं, इसके सदस्य नेपाल, सऊदी अरब, मारीशस, इंग्लैंड, अमेरिका, जापान सभी जगह फैले हैं।

पत्राचार शिक्षा के लाभ
पत्राचार शिक्षा में आप घर बैठे अध्ययन कर सकते हैं। आपको किसी कालेज या विश्वविद्यालय में नहीं जाना पड़ता और न घर से दूर छात्रावास आदि में रहने की समस्या है।

हमारे विशाल देश में सभी स्थानों पर सभी विषयों की शिक्षा की व्यवस्था करना संभव नहीं है। पत्राचार-शिक्षा से देश के सुदूर और पिछड़े से पिछड़े स्थानों के व्यक्ति भी अपने इच्छित विषयों का अध्ययन कर सकते हैं।

पत्राचार अध्ययन आपकी सुविधा पर चलता है, कालेज की सुविधा पर नहीं। आप अपनी नौकरी या व्यवसाय में संलग्न रहते हुए भी कुछ घण्टे अध्ययन के लिए निकाल कर अपनी योग्यता बढ़ा सकते हैं।

सुविधाएं
सदस्यों को पहले प्रति पन्द्रह दिन बाद दो पाठ, इस प्रकार एक मास में चार पाठ भेजे जाते थे। (पाठों की संख्या कुछ पाठ्यक्रमों में कम और कुछ में अधिक हो सकती है।) डाक व्यवस्था में गड़बड़ी से बहुत सी डाक गुम होने के कारण आजकल दो बार में पूरे पाठ रजिस्ट्री डाक से भिजवाए जा रहे हैं।

पाठों के साथ सदस्यों के अध्ययन की जांच के लिए समय-समय पर कुछ अभ्यास-पत्र तथा प्रश्न-पत्र दिये जाते हैं। अभ्यास-पत्र सदस्य के अपने दोहराने के लिए होते हैं। प्रश्न-पत्रों के लिखित उत्तर संस्थान में भेजने होते हैं।

आप अपने खाली समय में पाठ पढ़ें। इसके उपरांत प्रश्न-पत्र के उत्तर लिखकर भेजने होते हैं। शिक्षक उसका निरीक्षण करने के बाद उस पर टिप्पणी और सुझाव देते हैं। संशोधित उत्तर-पुस्तिका तथा टिप्पणी आपको अगले पाठों के साथ भेज दी जाती है।

पाठ्यक्रम में कोई भी कठिनाई या समस्या आने पर आप संस्थान से सहायता और परामर्श ले सकते हैं।

सदस्य अपनी किसी भी कठिनाई के सम्बन्ध में संस्थान से निःसंकोच पत्र-व्यवहार कर सकते हैं। उनके सभी प्रश्नों व शंकाओं का समाधान किया जाता है।

एक पाठ्यक्रम की अवधि लगभग 6 मास होती है किन्तु यह विद्यार्थी की आवश्यकता के अनुसार घटाई-बढ़ाई जा सकती है। अवधि बढ़ाने का कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया जाता। पाठ्यक्रम पूर्ण होने पर प्रमाण-पत्र दिया जाता है।

पाठयक्रम पूर्ण होने के पश्चात् भी सदस्य पूर्ववत् हर प्रकार की सहायता, सहयोग एवं परामर्श प्राप्त कर सकते हैं। (इसके लिये कुछ सेवा शुल्क देना होता है।)

इन पाठों के अध्ययन और अभ्यास में प्रति सप्ताह केवल 3-4 घंटे का समय लगता है। अतः इससे आपकी पढ़ाई अथवा नौकरी में जरा भी बाधा न पड़ेगी। बल्कि आपकी पढ़ाई में ये पाठ्यक्रम सहायक ही सिद्ध होंगे।

कोर्स करने के लिए
सरकारी कर्मचारी या सैनिकों को पाठ्यक्रम करने के लिए सरकारी अनुमति की आवश्यकता नहीं है। अनेक सरकारी कर्मचारियों तथा सैनिकों ने ये कोर्स किये हैं/कर रहे हैं।

कहानी-लेखन महाविद्यालय एक प्राइवेट संस्थान है। यह पिछले 56 वर्षों से भारतभर में प्रसिद्ध है। अतः इसके प्रमाण पत्र की बहुत महत्ता व प्रतिष्ठा है। वैसे आज दुनिया में महत्त्व प्रमाण-पत्रों को नहीं, काम में कुशलता को दिया जाता है। संस्थान के कोर्स आपको विषय और क्षेत्र का पूरा ज्ञान व कुशलता देते हैं। इन पाठ्यक्रमों को करने के लिए आपके पास कोई भारी-भरकम डिग्री की अनिवार्यता नहीं है। आपका हिन्दी का ज्ञान अच्छा होना चाहिए। संस्थान के किसी भी कोर्स के लिए वर्ष में आप जब भी चाहें प्रवेश ले सकते हैं। इसके लिए आवेदन-पत्र तथा निर्धारित शुल्क आपको भेजना होता है। ये आते ही आपका कोर्स आरंभ कर दिया जाता है।

आवेदन-पत्र एवं शुल्क ‘शुभ तारिका, केनरा बैंक, अम्बाला छावनी, अकाउंट नं. 0200201001906,  IFSC Code CNRB0000200 के नाम से भेजना होता है, किसी व्यक्ति विशेष के नाम से नहीं। अधिक जानकारी के लिए मोबाइल नंबर 9813130512 संपर्क कर सकते हैं।

अन्य सुविधाएं
‘शुभ तारिका’ इस संस्थान का अनुवर्ती उपक्रम है। इस मासिक पत्रिका में साहित्यिक कृतियों के अतिरिक्त कई रोचक स्तम्भ भी चलाये जा रहे हैं। यह पत्रिका देश और विदेश में लोकप्रिय है। इससे कई प्रसिद्ध लेखकों के नाम जुड़े हुए हैं। इस पत्रिका में छपने के लिए विद्यालय के सदस्यों को प्राथमिकता दी जाती है।

कहानी-लेखन महाविद्यालय संस्थान वर्ष में एक बार देश के अलग-अलग क्षेत्रों में लेखक मिलन शिविर, पत्रकारिता कार्यशाला का आयोजन करता है। इस आयोजन के पीछे सम्पूर्ण देश-विदेश में फैले अपने सदस्यों का मिलन, मार्गदर्शन तथा देश-विदेश की भाषा, संस्कृति का जुड़ाव और परिचय कराना होता है। ये शिविर सफलतापूर्वक चलाये जा चुके हैं। इसमें कहानी-लेखन महाविद्यालय के सदस्य, शुभ तारिका के पाठक और अन्य सभी देश-विदेशों के इच्छुक लेखक, साहित्यकार बन्धु बहुत उत्साह से भाग लेते हैं। आजकल ये शिविर शिलांग (मेघालय) में पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी, शिलांग के मानद सचिव डा.अकेलाभाइ (कहानी-लेखन महाविद्यालय के सदस्य) द्वारा हर वर्ष (2002, फिर 2008 से लगातार) आयोजित किये जा रहे हैं। इनके द्वारा डा. जैन की स्मृति में हर वर्ष लेखकों को ‘डा. महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान’ दिये जा रहे हैं।
5 जून 2001 को डा. महाराज कृष्ण जैन का अचानक निधन हो गया। तब से उनकी पत्नी सुश्री उर्मि कृष्ण संस्थान का सारा कार्यभार देख रही हैं।

जब डा. जैन ने लेखन के कोर्स आरंभ किये तो बहुत से नामी लेखकों ने कहा कि क्या प्रशिक्षण से कोई लेखक बन सकता है? लेखन और प्रतिभा तो ईश्वरीय देन होती है।

यह सवाल शुरू से आज तक कई व्यक्ति करते आए हैं और करते ही रहते हैं। जब गायन, वादन, नृत्य, चिकित्सा और कई तरह के व्यावहारिक ज्ञान के लिये प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है तो लेखन के लिये क्यों नहीं? नये लेखक जिसके पास भाव, भाषा, शब्द तो होते हैं किन्तु वे उन्हें व्यक्त करने, उनकी सही प्रस्तुति देने में गड़बड़ा जाते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें प्रशिक्षण की आवश्यकता जरूरी है, सहायता भी। आज के युग ने तो प्रमाणित कर दिया है कि जीवन के हर क्षेत्र में प्रशिक्षण की आवश्यकता है, मानसिक और शारीरिक दोनों क्षेत्रों में। शिक्षण द्वारा ही प्रगति, उन्नति संभव होती है। स्कूल, काॅलेज में 15 साल पढ़ लेने के बाद भी हर व्यक्ति को जीवन के क्षेत्र में उतरने के लिये किसी न किसी विशेष योग्यता की आवश्यकता रहती ही है।

पटकथा लेखन को छोड़कर बाकी सभी पाठ्यक्रम डाॅ. महाराज कृष्ण जैन स्वयं ने लिखे हैं। इसमें उनकी धर्मपत्नी श्रीमती उर्मि कृष्ण ने उनकी लगातार सहायता की है। पटकथा लेखन का कोर्स फिल्म संस्थान के एक प्रसिद्ध व्यक्ति से सहायता लेकर तैयार किया गया था।

आज ऐसा कोई भी पत्र या पत्रिका नहीं है जहां पर कहानी-लेखन महाविद्यालय के सदस्य उच्च पद पर विराजमान न हों। बहुत से तो आकाशवाणी, टीवी, फिल्मों में भी कार्यरत हैं।

तो यदि आपकी लेखन में रुचि है और कुछ करना चाहते हैं तो आप निदेशक, कहानी-लेखन महाविद्यालय, ए-47, शास्त्री कालोनी, अम्बाला छावनी-133001 (हरियाणा) के पते पर 30 रुपये भेजकर विवरणी मंगा सकते हैं।

श्री विजय कुमार, सह-संपादक ‘शुभ तारिका’

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – भारतीय ज्योतिष शास्त्र भाग 2 – भारतीय ज्योतिष शास्त्र में हस्तरेखा का महत्व ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  जनसामान्य  के  ज्ञानवर्धन के लिए भारतीय ज्योतिष विषय पर एक शोधपरक आलेख भारतीय ज्योतिष शास्त्र भाग 2  – भारतीय ज्योतिष शास्त्र में हस्तरेखा का महत्व . भारतीय ज्योतिष शास्त्र के दोनों आलेखों के सम्पादन  सहयोग के लिए युवा ज्ञाता  श्री आशीष कुमार जी का हार्दिक आभार।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – भारतीय ज्योतिष शास्त्र भाग 2  – भारतीय ज्योतिष शास्त्र में हस्तरेखा का महत्व

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में हस्तरेखाओं का अलग ही महत्व है, व्यक्ति के कार्यशील हाथों तथा उसकी बनावट को देख कर बहुत कुछ जाना तथा समझा जा सकता है, हाथ व्यक्ति के शरीर का बहुत महत्वपूर्ण अंग है, पौराणिक मान्यता केअनुसार हमारे दिन की सुरूआत ही हाथों के दर्शन से होती है तथा हाथों के द्वारा किये गये शुभ कर्मों की शुरुआत ही दान धर्म से होती है जो जीवन में सुख शांति और समृद्धि के साथ-साथ सौहार्द का वातावरण भी सृजित करती है श्रद्धा से जुड़े हुए हाथ और झुके सिर विनम्रता सौम्यता तथा श्रद्धा का बोध कराते हैं जो हमारी संस्कृति के संवाहक है उनमें अलग ही आकर्षण होता है। पौराणिक नियम के अनुसार सर्वप्रथम व्यक्ति को निद्रा से जागने के बाद अपने हाथों को ही देखना चाहिए इससे व्यक्ति  मुखदर्शन के दोष से बच  सकता है इसलिए व्यक्ति को सुबह अपना हाथ ही देखना चाहिए।

कर दर्शन का मंत्र है—-

कराग्रे वसते लक्ष्मी ,कर मध्ये सरस्वती।

करमूले स्थितो ब्रह्मा  प्रभाते कर दर्शनम्।

अथवा

ब्रह्मामुरारी त्रिपुरांतकारी भानूसषि भूमि सुतौ बुधश्च।

गुरूश्चशुक्रौ शनिराहु केतव: सर्वे ग्रहा शांतु कराभवंते।।

अर्थात् हाथ में धन की देवी लक्ष्मी विद्या की देवी सरस्वती तथा सृष्टि कर्ता ब्रह्मा का निवास है। तथा हाथ में ही नवग्रहों का निवास है उनकी आराधना से ग्रहों के कोप का समन होता है। इसीलिए भारतीय ज्योतिष में ये बड़ा महत्व पूर्ण हो जाता है एक कुशल हस्तरेखा विशेषज्ञ हाथों की बनावट रंग रूप आकृति प्रकृति तथा उनमें बनने मिटने वाली रेखा देख कर बहुत कुछ भविष्यवाणी कर सकता है। मणिबंध रेखा से ही हस्तनिर्माण की शुरुआत मानी जाती है हाथों में नवग्रहों का स्थान भी ज्योतिष विज्ञानियों द्वारा निर्धारित किया गया है। तथा हाथों में ही हृदय रेखा, मस्तिष्क रेखा और आयु रेखा होती है, जिसे देखकर मानव का जीवन काल हृदय की भावना तथा बुद्धिमत्ता का आकलन किया जाता है।

एक चतुर हस्तरेखा विशेषज्ञ ही ठीक-ठाक भविष्य वाणी हाथ देख कर कर सकता है,रेखायें समय के साथ बनती तथा मिटती रहती है जो बहुत कुछ संकेत देती है। इनका संबंध मनोविज्ञान से भी बहुत गहराई से जुड़ा है। हाथों में स्थित नवग्रहों के उभरे अथवा दबे क्षेत्र तथा अनेक चिन्ह बहुत कुछ संकेत करते हैं उन्हें पढ़ना एक विशेषज्ञ हस्तरेखा विज्ञानी के लिए बहुत ही आसान है। जिस प्रकार जातक के जन्म के समय की खगोलीय स्थिति जन्मकुंडली में कालखंडों के ग्रहों नक्षत्रों के स्वभाव प्रभाव का अध्ययन करने में सहायक होती है। उसी प्रकार हस्तरेखा भी जातक के भूत भविष्य वर्तमान को दर्शाती है। इसका निर्धारण हस्तरेखा ही करती है। व्यक्ति बुद्धिहीन है अथवा बुद्धिमान यह तो हस्तरेखा विषेषज्ञ देखते भांप लेता है,क्योकि बुद्धिमान व्यक्ति का हाथ कोमलता युक्त लालिमा लिए होता है, वहीं मोटी बुद्धि वाले व्यक्ति का हाथ कठोर होता है तथा उसके हाथों की रेखाएं अस्पष्ट होती है। उसी प्रकार शारीरिक बनावट आदि भी हस्तरेखाओं के द्वारा भविष्य वाणी के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभातीं है जो विषय विशेषज्ञों के शोध की विषय वस्तु है।

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

विशेष – प्रस्तुत आलेख  के तथ्यात्मक आधार ज्योतिष शास्त्र की पुस्तकों पंचागों के तथ्य आधारित है भाषा शैली शब्द प्रवाह तथा विचार लेखक के अपने है, तथ्यो तथा शब्दों की त्रुटि संभव है, लेखक किसी भी प्रकार का दावा प्रतिदावा स्वीकार नहीं करता। पाठक स्वविवेक से इस विषय के समर्थन अथवा विरोध के लिए स्वतंत्र हैं, जो उनकी अपनी मान्यताओं तथा समझ पर निर्भर है।

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 55 ☆ संदेह और विश्वास ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख संदेह और विश्वास। संदेह अथवा शक का कोई इलाज़ नहीं है और विश्वास हमें जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करता है।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 55 ☆

☆ संदेह और विश्वास

संदेह मुसीबत के पहाड़ों का निर्माण करता है और विश्वास पहाड़ों से भी रास्तों का निर्माण करता है। मन का संकल्प व शरीर का पराक्रम, यदि किसी काम में पूरी तरह लगा दिया जाए, तो सफलता निश्चित रूप से प्राप्त होकर रहेगी। सो! मंज़िल तक पहुंचने के लिए दृढ़-निश्चय, शारीरिक साहस व तन्मयता की आवश्यकता होती है। वैसे भी कबीर दास जी की यह पंक्तियां ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ‘ बहुत सार्थक हैं। काव्यशास्त्र में भी तीन शक्तियां स्वीकारी जाती हैं…प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास। प्रतिभा जन्मजात होती है, व्युत्पत्ति का संबंध शास्त्रों के अध्ययन से है और सिद्धहस्तता प्राप्ति के लिए बार-बार उस कार्य को करना अभ्यास के अंतर्गत आता है। तीनों का परिणाम चामत्कारिक होता है। सो! आवश्यकता है–मन को एकाग्र कर अपनी शारीरिक शक्तियों को संचित कर, उसमें लिप्त करने की। इस स्थिति में कोई भी आपदा या बाधा आपके पथ की अवरोधक नहीं बन सकती। हां! संदेह अवश्य मुसीबतों के पर्वतों का निर्माण करता है अर्थात् मन को संशय की स्थिति में लाकर छोड़ देता है; जिसके जंजाल से निकलने की कोई राह नहीं दिखाई पड़ती। वास्तव मेंं यह संशय, भूल-भुलैया अथवा अनिर्णय की स्थिति होती है, जिसमें मानव की मानसिक शक्ति कुंद हो जाती है। इसलिए शक़ को दोस्ती का शत्रु स्वीकारा गया है। यह गुप्त ढंग से ह्रदय में दस्तक देती है और अपना आशियां बना कर बैठ जाती है। उस स्थिति में उससे मुक्ति पाने का कोई मार्ग नज़र नहीं आता।

दूसरी ओर विश्वास पहाड़ों में से भी रास्तों का निर्माण करता है। यहां हमारा संबंध आत्मविश्वास से है; जिसमें हर आपदा का सामना करने की क्षमता होती है, क्योंकि कोई भी समस्या इतनी बड़ी नहीं होती, जिसका समाधान न हो। चित्त की एकाग्रता इसकी प्राथमिक शर्त है और उस स्थिति में मन में संशय का प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। यदि किसी कारण संदेह हृदय में प्रवेश कर जाता है, कि ‘यदि ऐसा होता; तो वैसा होता… कहीं ऐसा-वैसा न हो जाए ‘ आदि अनेक आशंकाएं मन में अकारण जन्म लेती हैं और हमें पथ-विचलित करती हैं। सो! संदेह पर विश्वास द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है; जिसके लिए आवश्यकता है– चित्त की एकाग्रता व शारीरिक शक्तियों के एकाग्रता के अभ्यास की और यही अपनी मंज़िल तक पहुंचने का सबसे कारग़र उपाय व सर्वश्रेष्ठ साधन है। इसी संदर्भ में दिनकर जी का यह कथन बहुत सार्थक है–’ज़िंदगी के असली मज़े उनके लिए नहीं हैं, जो फूलों की छांह के नीचे खेलते व सोते हैं, बल्कि फूलों की छांह के नीचे यदि जीवन का स्वाद छिपा है, तो वह भी उन्हीं के लिए है जो दूर रेगिस्तान से आ रहे हैं, जिनका कंठ सूखा व ओंठ फटे और सारा शरीर पसीने से तर-ब-तर है। पानी में अमृत तत्व है; उसे वही जानता है, जो धूप में चलते-चलते सूख चुका है।’ इस उक्ति में शारीरिक पराक्रम की महत्ता को दर्शाते हुए कहा गया है कि यदि मानव परिश्रम करता है, तो पर्वतों में भी रास्ता बनाना भी कठिन नहीं। मुझे स्मरण हो रहा है दाना मांझी का प्रसंग, जो अपनी पत्नी के शव को कंधे पर लाद-कर पर्वतों के ऊबड़- खाबड़ रास्तों से अपने गांव तक ले गया। परंतु उसने दुर्गम पथ की कठिनाइयों को अनुभव करते हुए मीलों लंबी सड़क बनाकर एक मुक़ाम हासिल किया, जिसमें उसका स्वार्थ निहित नहीं था, बल्कि दूसरों के सुख-सुविधा के लिए पर्वतों को काट कर सपाट रास्ते का निर्माण करने की प्रबल इच्छा शक्ति थी। परंतु इस कार्य को सम्पन्न करने में उसे लंबे समय तक जूझना पड़ा।

सो! दिनकर जी भी श्रमिकों के साहस को सराहते हुए श्रम के महत्व को प्रतिपादित करते हैं कि जीवन के असली मज़े उन लोगों के लिए हैं, न कि उनके लिए जो फूलों की चाह में अपना जीवन सुख-पूर्वक गुज़ारते हैं। मानव को परिश्रम करने के पश्चात् जो सुक़ून की प्राप्ति होती है, वह अलौकिक आनंद प्रदान करती है।

‘बहुत आसान है/ ज़मीन पर मकां बना लेना/ दिल में जगह बनाने में/ उम्र गुज़र जाती है।’ सो! धरा पर बड़े-बड़े महल बना लेना तो आसान है, परंतु किसी के दिल में जगह बनाने में तमाम उम्र गुज़र जाती है। यह महल, चौबारे, मखमली बिस्तर, सुख-सुविधा के विविध उपादान दिल को सुक़ून प्रदान नहीं करते। मखमली बिस्तर पर लोगों को अक्सर करवटें बदलते देखा है और बड़े-बड़े आलीशान बंगलों में रहने वालों से हृदय से सुक़ून नदारद रहता है। एक छत के नीचे रहते हुए अजनबीपन का अहसास उनकी ज़िंदगी की हक़ीक़त बयां करने के लिए काफी है। वे नदी के द्वीप की भांति, अपने-अपने दायरे में कैद रहते हैं, जिसका मुख्य कारण है–संवादहीनता से उपजी संवेदनशून्यता और मिथ्या अहं की भावना, जो हमें  एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देती। इसका परिणाम हम तलाक़ की दिन-प्रतिदिन बढ़ती संख्या के रूप में देख सकते हैं। सिंगल पेरेंट के साथ एकांत की त्रासदी झेलते बच्चों को देख हृदय उद्वेलित हो उठता है। सो! इन असामान्य परिस्थितियों में उनका सर्वांगीण विकास कैसे संभव है?

‘पहाड़ियों की तरह/खामोश हैं/ आज के संबंध/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ भी नहीं आती’–ऐसे परिवारों की मन:स्थिति को उजागर करता है, जहां स्नेह-सौहार्द के स्थान पर अविश्वास, संशय व संदेह ने अपना आशियां बना रखा है। आजकल अति-व्यस्तता के कारण अंतहीन मौन अथवा गहन सन्नाटा छाया रहता है। मुझे स्मरण हो रही हैं इरफ़ान राही सैदपुरी की यह पंक्तियां, ‘हमारी बात सुनने की/ फुर्सत कहां तुमको/ बस कहते रहते हो/ अभी मसरूफ़ बहुत हूं’ उजागर करता है आज के समाज की त्रासदी को, जहां हर अहंनिष्ठ इंसान समयाभाव की बात कहता है; दिखावा-मात्र है। वास्तव में हम जिससे स्नेह करते हैं, जिस कार्य को करने की हमारे हृदय में तमन्ना होती है; उसके लिए हमारे पास समयाभाव नहीं होता। सो! जिसने जहान में दूसरों की खुशी में खुशी देखने का हुनर सीख लिया…वह इंसान कभी भी दु:खी नहीं हो सकता। दु:ख का मूल कारण है, इच्छाओं की पूर्ति न होना। अतृप्त इच्छाओं के कारण क्रोध बढ़ता है और इच्छाएं पूरी होने पर लोभ बढ़ता है। इसलिए धैर्यपूर्वक संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है। राह बड़ी सीधी है और मोड़ तो मन के हैं। अहं के कारण मन में ऊहापोह की स्थिति बनी रहती है और वह आजीवन इच्छाओं के मायाजाल से मुक्त नहीं हो पाता और उनकी पूर्ति-हित गलत राहों पर चल निकलता है, जिसका परिणाम भयंकर होता है। इसका दोष भी वह सृष्टि-नियंता के माथे मढ़ता है। ‘न जाने वह कैसे मुकद्दर की किताब लिख देता है/ सांसें गिनती की ख्वाहिशें बे-हिसाब लिख देता है।’ इसके लिए दोषी हम खुद हैं, क्योंकि हम सुरसा की भांति बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश नहीं लगाते, बल्कि उनकी पूर्ति में अपना पूरा जीवन खपा देते हैं। परंतु इच्छाएं कहां पूर्ण होती हैं। प्रसाद जी का यह पद,’ ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/ इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक दूसरे से मिल न सके/ यह विडंबना है जीवन की।’ हमें आवश्यकता है इच्छा-पूर्ति के लिए ज्ञान की और उस राह पर चल कर कर्म करने की, ताकि जीवन में सामंजस्य स्थापित हो सके। इसलिए ‘ख्याल रखने वाले को ढूंढिए/ इस्तेमाल करने वाले तो तुम्हें/ स्वयं ही ढूंढ ही लेंगे।’ इसलिए उस प्रभु को ढूंढने की चेष्टा कीजिए और उसकी कृपादृष्टि पाने कि हर संभव प्रयास कीजिए। उसे बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है, वह तो तुम्हारे मन में बसता है। इसलिए कहा गया है कि ‘तलाश न कर मुझे ज़मीन और आसमान की गर्दिशों में/ अगर तेरे दिल में नहीं, तो कहीं भी नहीं मैं।’ परंतु बावरा मन उसे पाने के लिए दर-दर की खाक़ छानता है। मृग की भांति कस्तूरी की महक के पीछे-पीछे दौड़ता है, जबकि वह उसकी नाभि में निहित होती है। यही दशा तो सब मन की होती है। वह भी प्रभु को मंदिर, मस्जिद आदि में ढूंढता रहता है और कई जन्मों तक उसकी भटकन समाप्त नहीं हो पाती। इसलिए भरोसा रखो ख़ुदा पर, अपनी ख़ुदी पर…आप अनंत शक्तियों के स्वामी हैं। ज़रूरत है- उन्हें जानने की, स्वयं को पहचानने की। जिस दिन तुम पर खुद पर भरोसा करने लगोगे, खुदा को अपने बहुत क़रीब पाओगे, क्योंकि तुम में और उसमें कोई भेद नहीं है। वह आत्मा के रूप में आपके भीतर ही स्थित है। पंच तत्वों से निर्मित शरीर अंत में पंच-तत्वों में विलीन हो जाता है। सो! दुनिया में असंभव कुछ नहीं, दृढ़- निश्चय व प्रबल इच्छा-शक्ति की दरक़ार है। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कर लग जाइए उसकी पूर्ति में, तल्लीनता से, पूरे जोशो-ख़रोश से। सो,! शक़ को अपने हृदय में घर न बनाने दें, मंज़िलें बाहें फैला कर आपका स्वागत करेंगी और समस्त दैवीय शक्तियां तुम्हारा अभिनंदन करने को आतुर दिखाई पड़ेंगी। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। ‘इस संसार में आप जो चाहते हैं, आप पाने में समर्थ हैं।’

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 8 ☆ चतुर्मास के पर्व, स्वास्थ्य व सावधानियाँ ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

`डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक समसामयिक, सार्थक एवं अनुकरणीय आलेख  चतुर्मास के पर्व, स्वास्थ्य व सावधानियाँ।)

☆ किसलय की कलम से # 8 ☆

☆ चतुर्मास के पर्व, स्वास्थ्य व सावधानियाँ☆

वर्ष के जिस कालखंड में श्री हरि विष्णु शयन करते हैं, सनातन मतानुसार उस अवधि को चतुर्मास, चौमासा, पावस अथवा सामान्य रूप से वर्षाऋतु कहते है। हिन्दी पंचांग के अनुसार देवशयनी एकादशी से हरि प्रबोधिनी एकादशी तक के समय को चतुर्मास कहते हैं। मुख्यरूप से वर्ष में शीत, गर्मी व वर्षा नामक तीन ऋतुएँ होती हैं। प्रत्येक ऋतु चार-चार माह की होती है, उनमें से यह चार मास की वर्षाऋतु विभिन्न विशेषताओं के कारण सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। ग्रीष्म की तपन के पश्चात वर्षा का आगमन धरा को तृप्त करता है। प्रकृति को पेड़-पौधों व हरियाली से समृद्ध करता है। कृषकों के लिए वर्षा सबसे महत्त्वपूर्ण होती है, क्योंकि संपूर्ण कृषि होने वाली वर्षा पर ही निर्भर करती है। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्षा का प्रभाव पूरी शीत ऋतु व गर्मी में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करती है।

ऋतु परिवर्तन का प्रभाव मनुष्यों के शरीर व मन-मस्तिष्क पर भी पड़ता है। हमारे पूर्वजों एवं ऋषि-मुनियों ने गहन साधना, विशद चिंतन-मनन व अध्ययन के उपरांत ऋतुसंगत पर्व, व्रत व उपवासों को नियत किया है, जिससे हमारे व प्रकृति के मध्य स्वस्थ सामंजस्य बना रहे। हम ऋतु के अनुरूप स्वयं को ढाल सकें और हमें किसी भी तरह का कष्ट अथवा बीमारियों का सामना न करना पड़े। वर्षाकाल अथवा पावस एक ऐसा कालखंड होता है जब भारतीय जनमानस खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्र के निवासियों का वर्ष के अन्य दिनों की अपेक्षा घर से निकलना बहुत कम हो जाता है। कृषि कार्य जहाँ बिल्कुल कम होते हैं, वहीं वर्षा के कारण घर के बाहर काम करना अथवा व्यवसाय भी कम हो जाता है।

ठंडे मौसम व वर्षा के कारण मनुष्यों की पाचन शक्ति (मेटाबॉलिज्म) तो कम होती ही है, पाचन में सहायक एंजाइम की कमी भी होने लगती है। डाइसटेस व पेप्सिन 37 सेंटीग्रेड से अधिक तापमान पर ही ज्यादा सक्रिय रहते हैं। हमारे यहाँ मौसम के विशद अध्ययन के पश्चात ही पर्व व पथ्य निर्धारित किए गए हैं। इनका अनुकरण करने से हम अनेक बीमारियों से बचने के साथ-साथ स्वयं को स्वस्थ भी रख सकते हैं। पर्वों तथा व्रतों में उपवास रखने तथा उपवास के दौरान ऋतु अनुसार निर्धारित पथ्य से हम हानिकारक खाद्य पदार्थों के सेवन से बच सकते हैं क्योंकि हमारे पूर्व-प्रबुद्धों द्वारा ऐसी भोजन सामग्री का ही चयन किया गया है जो हमारे शरीर की परिस्थितियों के अनुरूप जरूरतें पूरी करने में सक्षम होती हैं।

पावस में हरियाली तीज, नागपंचमी, हरतालिका, प्रकाश उत्सव, गणेश चतुर्थी, ऋषि पंचमी, संतान सप्तमी, कृष्ण जन्माष्टमी, श्रावण सोमवार जैसे पर्वों पर अलग-अलग दिनचर्या, भोजन वह फलाहार का विधान है। शहद, पपीता, गुड़, मसाले (सोंठ, कालीमिर्च, दालचीनी, तेजपत्र, जीरा, पिप्पली, धनियाँ, अजवाइन, राई, हींग), पंचगव्य, कंद, मेवे आदि के यथा निर्देशित उपयोग से हमारे शारीरिक विकार शरीर से बाहर होते हैं और पाचन शक्ति बढ़ती है। इनसे हमारी रोग प्रतिरोधक शक्ति में भी वृद्धि होती है। इस काल में कम भोजन करने व कभी-कभी उपवास रखने पर शरीर में ऑटोफागी नाम की सफाई प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जिससे एक ओर शरीर की अनावश्यक कोशिकाएँ शरीर से बाहर होने लगती हैं वहीं दूसरी ओर नवीन कोशिकाओं के निर्माण में भी गति आती है। उपवास से शरीर के फैटी टिशुओं को विखंडित करने वाले हारमोन्स भी निकलते हैं, जिससे शरीर की चर्बी कम होती है अर्थात वजन कम होता है।

यह तो हम सभी जानते हैं कि व्रत उपवास व श्रम से पाचनशक्ति वर्धक जठराग्नि (डाइजेस्टिव फायर) भी बढ़ती है। हमारे पूर्वजों, वैद्यों, मौसम विज्ञानियों ने ऐसे अनेक प्रामाणिक ग्रंथ, सूक्तियाँ, दोहे, कविताएँ आदि लिखी हैं जो ऋतु परिवर्तन होने पर हमारे स्वास्थ्य व पथ्य हेतु अत्यंत उपयोगी हैं। हम घाघ कवि को ही ले लें, उन्होंने लिखा है:-

चैते गुड़, बैसाखे तेल,

जेठे पंथ, असाढ़े बेल।

सावन साग, भादों दही,

क्वाँर करेला, कातिक मही।

अगहन जीरा, पूसे धना,

माघे मिश्री, फागुन चना।

ई बारह जो देय बचाय

वहि घर वैद्य, कबौं न जाए

वर्षाऋतु में अधिकतर हरी एवं पत्तेदार सब्जियों में कीट व रोग बढ़ जाते हैं। कीटों की प्रजनन गति तेज हो जाती है। ये कीट प्रमुखतः पत्तियों पर ही ज्यादा पनपते हैं। कीट सब्जियों के अंदर जाकर उन्हें दूषित तथा हानिकारक भी बनाते हैं। कुछ सब्जियों में विषैलापन बढ़ जाता है। वर्षाऋतु में खासतौर पर गंदा पानी, कीचड़, सूर्य प्रकाश की कमी, सीलन, विभिन्न कीट पतंगे, साँप, बिच्छू भी हमें तरह-तरह से हानि पहुँचाते हैं। विषैले तथा गंदगी फैलाने वाले जीव-जन्तु भी घरों में व खाद्य पदार्थों में बढ़ने लगते हैं। जीवाणु व विषाणु भी श्वास तथा भोजन के माध्यम से हमें बीमार बनाते हैं। मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, हैज़ा आदि मच्छरों व मक्खियों की वृद्धि का ही दुष्परिणाम होता है। चर्मरोग, अतिसार (डायरिया), पीलिया जैसे रोग भी दूषित पानी व दूषित भोजन से होते हैं। इस अवधि में घर तथा बाहर दोनों जगहों पर आवागमन के दौरान विशेष सावधानी व सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए। वर्षा ऋतु में गंदे कुएँ, तालाब, पोखर, नहरों, नदियों तथा इनके समीप कम गहरे हैंडपंप आदि का पानी पीने से बचना चाहिए। साथ ही बीमार व्यक्ति का मल-मूत्र उल्टी आदि खुले स्थानों अथवा इन जलाशयों में नहीं डालना चाहिए। भोजन सदैव ताजा, गर्म, स्वच्छ एवं पौष्टिक ही खाना चाहिए। इन दिनों हमें फिल्टर, आर.ओ. अथवा आवश्यक मिनरल युक्त जल ही पीना चाहिए। पहले से कटे फल-फूल नहीं खाना चाहिए। बिना हाथ धोए खाना नहीं खाना चाहिए। बच्चों को बोतल से दूध पिलाने व बासी भोजन खाने से बचना भी वर्षाकाल की बीमारियों से सावधानी बरतना ही कहलाएगा।

इस तरह यदि आप चतुर्मास में स्वयं को स्वस्थ, सुखी व प्रसन्न रखना चाहते हैं तब आपको चौमासे के पर्वों पर उपवास रखना होगा। पर्वों पर सुझाया गया फलाहार अथवा भोजन संतुलित मात्रा में करना होगा। खानपान के साथ-साथ घर की स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान देना होगा। घर में अथवा घर के बाहर प्रदूषण, सीलन, भीगने व घर को शुष्क रखने का प्रयास करना भी जरूरी है। वक्त के साथ हमारी जीवन शैली में व्यापक परिवर्तन आए हैं, लेकिन नए-नए किस्म के प्रदूषण व संक्रमण भी बढ़े हैं। इसलिए हमें स्वविवेक व वैज्ञानिक तथ्यपरक दिशा-निर्देशों के अनुरूप सुरक्षा व सावधानी अपनानी होगी, तभी हम चतुर्मास में नीरोग तथा प्रसन्न रह पायेंगे।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 36 – बापू के संस्मरण-10- मैं अछूत के चरण-रज ले लूंगा, पर… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण –  मैं अछूत के चरण-रज ले लूंगा, पर…”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 36 – बापू के संस्मरण – 10 – मैं अछूत के चरण-रज ले लूंगा, पर… ☆ 

जब गोलमेज परिषद् में भाग लेने के लिए गांधीजी इंग्लैंड गये तो देश-विदेश के अनेक संवाददाता उनके साथ थे। उनमें से बहुत-से संवाददाता जहाजी जीवन की घटनाओं पर नमक-मिर्च लगाकर प्रसारित करते थे। वे प्रार्थना के दृश्य तथा चर्खा कातने के चित्र देकर ही संतुष्ट नहीं होते थे। ऐसी-ऐसी कल्पनाएं भी करते थे! कि हंसी आ जाये।

उदाहरण के लिए एक संवाददाता ने एक ऐसी बिल्ली का आविष्कार किया था, जों प्रतिदिन गांधीजी के साथ दूध पीती थी। इन्हीं में एक संवाददाता थे श्री स्लोकोव ।

गांधीजी से अपनी यरवदा-जेल की मुलाकात का रोमांचकारी वर्णन प्रकाशित कर वह काफी प्रसिद्ध हो गये थे । इर्वनिंग स्टैडर्डं में गांधीजी की उदारता की प्रशंसा करते समय उन्होंने भी अनुभव किया कि बिना किसी स्पष्ट उदाहरण के यह विवरण अधूरा रह जायेगा। बस, उन्होंने अपनी कल्पना दौड़ाई और लिख डाला कि जब प्रिंस आँफ वेल्स भारत गये थे, तब गांधीजी ने उन्हें दंडवत किया था।

यह पढ़कर गांधीजी ने उन्हें अपने पास बुलाया, बोले. मि स्लोकोव आपसे तो मैं यह आशा करता था कि आप सही बातें जानते होंगे और सही बातें ही लिखेंगे,  परंतु आपने जो कुछ लिखा है, वह तो आपकी कल्पना-शक्ति को भी लांछित करनेवाला है। मैं भारतवर्ष के गरीब  और अछूत के सामने न केवल घुटने टेकना ही पसंद करुंगा, बल्कि उनकी चरण-रज भी ले लूंगा, क्योंकि उन्हें सदियों से पद दलित करने में मेरा भी भाग रहा हैं परंतु प्रिंस ऑफ़  आँफ वेल्स तो दूर मैं बादशाह तक को भी दंडवत नहीं करुंगा । वह एक महान सत्ता का प्रतिनिधि है।! एक हाथी भले ही मुझे कुचल दे परंतु मैं उसके सामने सिर न झुकाऊंगा परंतु अजाने में चींटी पर पैर रख देने के कारण उसको प्रणाम कर लूंगा।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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