हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 52 ☆ आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 52 ☆

☆ आत्मविश्वास – अनमोल धरोहर

‘यदि दूसरे आपकी सहायता करने को इंकार कर देते हैं, मैं उनका आभार व्यक्त करता हूं, क्योंकि न कहने के कारण मैं इसे करने में समर्थ हो पाया। इसलिए आत्मविश्वास कीजिए; यही आपको उत्साहित करेगा,’ आइंस्टीन के उपरोक्त कथन में विरोधाभास है। यदि कोई आपकी सहायता करने से इंकार कर देता है, तो अक्सर मानव उसे अपना शत्रु समझने लग जाता है। यदि हम इसके दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें, तो यह इंकार हमें ऊर्जस्वित करता है; हमारे अंतर्मन में आत्मविश्वास जाग्रत कर उत्साहित करता है और हमें अपनी आंतरिक शक्तियों का अहसास दिलाता है, जिसके बल पर हम उसे क्रियान्वित करने में सफल हो जाते हैं। सो ! हमें उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए, जो हमें बीच मंझधार छोड़ कर चल देते हैं। सत्य ही तो है, जब तक इंसान गहरे जल में छलांग नहीं लगाता, वह तैरना कैसे सीख सकता है? उसकी स्थिति तो कबीरदास के नायक की भांति ‘मैं बपुरौ बूड़न डरा,रहा किनारे बैठ’ जैसी होगी।

सो! यह मत कहो कि ‘मैं नहीं कर सकता’, क्योंकि आप अनंत हैं। आप कुछ भी कर सकते हैं।’ स्वामी विवेकानंद जी की यह उक्ति मानव में अदम्य साहस संचरित करती है, उत्साहित करती है कि आप में अनंत शक्तियां संचित हैं; आप कुछ भी कर सकते हैं। हमारे गुरु-जन, आध्यात्मिक वेद-शास्त्र व उनके ज्ञाता विद्वत्तजन हमें अंतर्मन में निहित अलौकिक शक्तियों से रू-ब-रू कराते हैं और हम उन असंभव कार्यों को भी सहजता-पूर्वक कर गुज़रते हैं। इसके लिए मौन का अभ्यास आवश्यक है, क्योंकि यह साधक को अंतर्मुखी बनाता है; जो उसे ध्यान की गहराइयों में ले जाने में सहायक सिद्ध होता है। महर्षि रमण, महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर वर्द्धमान आदि ने भी मौन साधना द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार किया।

मौन रूपी वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं अर्थात् मौन से हमारे अंतर्मन में अलौकिक शक्तियां जाग्रत होती हैं और जीवन में सकारात्मकता दस्तक देती है। वास्तव में मौन जीवन का सर्वाधिक गहरा संवाद है। सो! मानव को शब्दों का चयन सावधानीपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि यह महाभारत जैसे महायुद्ध के जनक भी हो सकते हैं।

स्वामी योगानंद जी के शब्दों में ‘यह हमारा छोटा-सा मुख एक तोप के समान है और शब्द बारूद के समान हैं– जो सब कुछ नष्ट कर देते हैं। सो! व्यर्थ व अनावश्यक मत बोलो और तब तक मत बोलो; जब तक तुम्हें यह न लगे कि तुम्हारे शब्द कुछ अच्छा कहने जा रहे हैं।’ इसलिए मौन मानव की वह मन: स्थिति है, जहां पहुंच कर तमाम झंझावात शांत हो जाते हैं और मानव को विभिन्न मनोविकारों चिंता, तनाव, आतुरता व अवसाद से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। इसलिए स्वामी योगानंद जी मानव-समाज को अपनी अमूल्य शक्ति व समय को निरंतर व्यर्थ के वार्तालाप में बर्बाद न करने का संदेश देते हैं; वहीं भोजन व कार्य करते समय भी मौन रहने की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं।

सो! जब आपके हृदय की भाव-लहरियां शांत होती हैं, उस स्थिति में आपको अच्छे विकल्प सूझते हैं; आप में आत्मविश्वास का भाव जाग्रत होता है और आप उन लोगों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं; जिनके कारण आप उस असंभव कार्य को अंजाम देने में समर्थ हो सके। परंतु इस समस्त प्रक्रिया में तथाकथित अनुकूल परिस्थितियों व आपकी सकारात्मक सोच का भी अभूतपूर्व योगदान होता है। इसलिए ‘मैं कर सकता हूं’ को जीवन का मूल-मंत्र बनाइए और आजीवन निराशा को अपने हृदय में प्रवेश न पाने दीजिए। इसमें दोस्त, किताबें, रास्ता व सोच अहम् भूमिका निभाते हैं। यदि वे ठीक हैं, तो आपके लिए सहायक सिद्ध होते हैं; यदि वे ग़लत हैं, तो गुमराह कर पथ-भ्रष्ट कर देते हैं और उस अंधकूप में धकेल देते हैं; जहां से मानव कभी बाहर आने की कल्पना भी नहीं पाता। इसलिए सदैव अच्छे दोस्त बनाइए; अच्छी किताबें पढ़िए; सकारात्मक सोच रखिए और सही राह का चुनाव कीजिए… राग-द्वेष व स्व-पर का त्याग कर, ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ की स्वस्ति कामना कीजिए, क्योंकि जैसा आप दूसरों के लिए करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। सो ! संसार में स्वयं पर विश्वास रखिए और सदैव अच्छे कर्म कीजिए, क्योंकि वे आपकी अनमोल धरोहर होते हैं; जो आपको जीते-जी मुक्ति की राह पर चलने को प्रेरित ही नहीं करते; आवागमन के चक्र से मुक्त करा देते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 5 ☆ काश! ये हो पाता… ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सकारात्मक आलेख  ‘काश! ये हो पाता…।)

☆ किसलय की कलम से # 5 ☆

☆ काश! ये हो पाता…☆

भारतीय संस्कृति, हिन्दुधर्म, सनातन परम्पराओं तथा रिश्तों की प्रगाढ़ता से तो विदेशी भी अभिभूत रहते हैं परन्तु जमीनी हकीकत शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में नजदीकी भ्रमण से ही पता चलती है। हम अपने मियाँ मुँह मिट्ठू सदा से बनते आये हैं। अपनी तारीफों के पुल बाँधते लोग कहीं भी दिख जायेंगे। वैसे तो देश के मंत्री-संतरियों से लेकर आम आदमी तक विदेशों तक में अपना लोहा मनवाने और अपना झंडा गाड़ने का सामथ्र्य रखता है। अपने दृष्टिकोण और अपनी हर अच्छी-बुरी बात को सही मनवाना अपने बाँये हाथ का खेल समझता है। ऐसा ही एक वाक्या विगत दिनों मेरे साथ हुआ जब एक सज्जन ने अपने इस शहर की सड़कों, स्ट्रीट लाईट्स, सरकारी नलों, ट्रैफिक पुलिस और साहित्यकारों की विचित्र स्थितियों पर हमसे लम्बी चर्चा की। कई विषयों पर उन्होंने मुझे विस्तार पूर्वक समझाने की कोशिश की पर मेरी समझ के परे ही रहा।  उनका कहना था कि जबलपुर की सड़कों के गड्ढों से लोग परेशान कम लाभान्वित ज्यादा हो रहे हैं। मैंने जब बड़े विस्मयभाव से पूछा कि कैसे, तो उन्होंने बताना शुरू किया कि गड्ढों भरी सड़क पर चलते समय कूद-कूदकर गड्ढे पार करने और संतुलन बनाए रखने से लोगों की एक्सरसाइज होती है, जिससे मॉर्निंग अथवा ईव्हनिंग वाक पर जाने की जरूरत नहीं पड़ती, इस बचे हुए समय का उपयोग ये लोग बड़ी सिद्दत से किसी दूसरे महत्त्वपूर्ण कार्यों में कर लेते हैं। इन सड़कों पर जब वाहनों का उपयोग किया जाता है तो गड्ढों द्वारा उत्पन्न हिचकोलों से लोगों का पाचन संस्थान और एक्टिव हो जाता है। भोजन को पचाने के लिए अलग से कोई डाईजिन टेबलेट्स या अन्य पाचक चूर्ण नहीं खाना पड़ता। इन गड्ढों के कारण लोगों के वाहन तेज रफ्तार से नहीं भाग पाते जिससे एक्सीडेंट के खतरे की गुंजाईश लगभग समाप्त हो जाती है। आप मानें या न मानें, ये गड्ढे स्पीड ब्रेकर का भी काम करते हैं, जिससे स्पीड ब्रेकर बनाने में खर्च होने वाले सरकारी पैसे तथा समय दोनों की बर्बादी रुकती है। ऐसे में आपके दिमाग में ये जरूर आया होगा कि जब तेज रफ्तार नहीं तो ट्रैफिक पुलिस की क्या आवश्यकता है। तब उनका मानना था कि यदि फायदे न होते तो ट्रैफिक पुलिस का गठन ही क्यों किया जाता? वैसे भी बिना गड्ढों वाली सड़कों पर ये पुलिस वाले ट्रैफिक व्यवस्था देखते ही कब हैं। हमने तो इन्हें बगुलों की तरह शिकार पर पैनी नजर रखते देखा है अथवा चंद पैसों के लिए लार बहाते देखा है। कतिपय पुलिस वाले एनकेनप्रकारेण चालान काटने का डर दिखाकर लोगों से पैसे ऐंठ लेते हैं और उन पैसों से अपनी जरूरतें तथा शौक पूरे करते हैं। होटलों तथा बार में लंच, डिनर, पीना-खाना इनके प्रिय शगल होते हैं। इससे एक ओर इनको होटल का लजीज खाना मिल जाता है वहीं घर में उनकी बीवियों को भी खाना न बनाने की वजह से आराम मिल जाता है। फिर यदि  सड़कों की मरम्मत हेतु जनता परेशान होकर गुहार लगाती है तो नगर निगम सड़कों के गड्ढे भरने के लिए ठेका दे देता है। ठेका में कमीशन बाजी होती है। जब कमीशन बाजी होगी तो गुणवत्ता निश्चित रूप से कम होगी ही। जहाँ गिट्टी-डामर या सीमेंट-रेत-गिट्टी लगाना चाहिए वहाँ आसपास का मलमा, मिट्टी और राखड़ वगैरह डालकर गड्ढे भर दिए जाते हैं। लोगों और संबंधित अधिकारियों की आँखों में धूल झोंकने के लिए ज्यादा हुआ तो मलमा और ईंटों के टुकड़ों से भरी गई सड़कों पर काली डस्ट डाल दी जाती है, जिससे यह समझ में नहीं आता कि इनमें केवल खानापूर्ति की गई है।

अब स्ट्रीट लाइट की बात करें तो स्ट्रीट लाइट से दबंग लोगों के घरों के सामने लगे सोडियम लेम्प, मरकरी लेम्प, हाई मॉस लाइट उनकी बिल्डिंगों को जगमगाते हैं। अपने जगमग घरों को देखकर ये लोग फूले नहीं समाते, वहीं आम लोगों की भी समझ में आता रहता है कि ये धन्नासेठों-राजनेताओं के मकान हैं। इससे यह भी होता है कि इन बिल्डिंग वालों को बाहर अतिरिक्त कोई लाईट नहीं जलाना पड़ती। कारपोरेशन का प्रकाश आँगन, लॉन या टेरिस पर आने-जाने, उठने-बैठने या मौज-मस्ती हेतु पर्याप्त होता है। स्ट्रीट लाईट वाले अक्सर लाईट बुझाना भूल जाते हैं, इससे फायदा ये होता है कि ये लाइटें उल्टे दिन में सूर्य को प्रकाशित करती रहती हैं। वहीं शाम को कर्मचारी द्वारा लाईट जलाने की जहमत नहीं उठाना पड़ती, इससे मानो कुछ कर्मचारियों की अघोषित छुट्टी हो जाती है और ये अपने दूसरे काम निपटा लेते हैं। लाईटें खराब न होने पर भी उन्हें बदलने के बहाने कीमती लाईट से संबंधित सामान इश्यू करा लिए जाता है, जिसे बेचकर कर्मचारी कुछ अतिरिक्त पैसे कमा लेते हैं। इससे उनके कई छोटे-मोटे सपने भी पूरे होते रहते हैं। मैंने सोचा इसमें भी क्या बुरा है, देश का पैसा देश में तो रहता है। लोग तो विदेशी स्विस बैंक में पैसे जमा करते हैं, जो उनके अलावा दूसरे के काम आता ही नहीं है। शिकायतें करने का दायित्व पब्लिक हमेशा की तरह एक-दूसरे पर छोड़ती है, जिससे कार्यवाही के अभाव में कर्मचारियों पर अंकुश नहीं लग पाता और सब यूँ ही चलता रहता है।

यही हाल सरकारी नलों एवं निगम के टैंकरों के होते हैं। इसी तरह की छोटी-छोटी छूटों या खामियों का फायदा उठाने में कुछ विशेष किस्म के माहिर लोग होते हैं। ये लाईट न होने या फाल्ट सुधारने के नाम पर नल-जल की सप्लाई बंद करवा देते हैं जिससे पानी के टैंकरों की बिक्री बढ़ जाती है। वाटर सप्लायर्स भी खुश हो जाते हैं। वहीं पत्नीव्रता पतियों की सारे घर के कपड़े धोने की छुट्टी स्वतंत्रता दिवस के रूप में बदल जाती है। शहर के अधिकांश नलों की टोंटियाँ लोगों के घरों में देखी जा सकती हैं। बूँद-बूँद पानी का महत्त्व समझने वाले बड़े शहरों के लोगों को ये सब देखकर आश्चर्य होता है। उन्हें हमारी खुशकिस्मती पर ईष्र्या होने लगती है, पर हमारे नगर निगम का तजुर्बा है कि बिना टोंटी के नलों से बहने वाला पानी वातावरण को शीतलता प्रदान करता है और पानी द्वारा उत्पन्न लहलहाती हरियाली से शहर की सुंदरता में चार चाँद लगते हैं। कहीं कहीं यह पानी छोटी-छोटी झीलों का रूप धारण कर लेता है जहाँ लोग श्वेत बगुलों को तैरते देख आनन्दानुभूति प्राप्त कर सकते हैं।

हमारे एक दोस्त का कहना है कि जो आदमी अपनी बुद्धि का जितना उपयोग करता है उसकी जेब उतनी ज्यादा गर्म रहती है। पर मेरा मानना है कि बुद्धि के सदुपयोग से ज्यादा बुद्धि के दुरुपयोग से जल्दी और ज्यादा पैसा कमाया जा सकता है परन्तु यह काम सोने पर सुहागा तब हो जाता है जब इन परम बुद्धिमानों का जेल गमन होता है। वहाँ तो खाना-पीना और पैर पसार कर सोना सब मुफ्त उपलब्ध होने लगता है, समाचार पत्रों और मीडिया की हेड लाइन बनना उनके लिए आम बातें हो जाती हैं।

आगे साहित्यकारों के बारे में उन्होंने बताया कि आज के साहित्यकारों द्वारा दूसरों की रचनाएँ पढ़ने का शौक ही खत्म हो गया है। ये तो बस अपनी सुनाना चाहते हैं, जिससे आत्मावलोकन या स्वमूल्यांकन के अवसर ही नहीं आ पाते। इसीलिए किसी दूसरे की नई या पुरानी रचना को देखकर, उसमें कुछ फेरबदल कर या पात्र बदलकर कम मेहनत में रचना तैयार कर ली जाती है, जो कुछ साहित्यकारों के बीच अपनी धाक जमाने में काम आती है। ऐसे लोग भाषा के जानकार तो होने के साथ साथ अपने नकल-कौशल से अपना लोहा मनवाने का भी हुनर रखते हैं। इनसे पूछने पर इनका सीधा जवाब होता है कि रचना तो ऊपर से उतरती है, हम तो बस अपनी कलम चलाते हैं। परोक्ष रूप में उनके श्रीमुख से सच ही निकल जाता है कि वे बस अपनी कलम चलाते हैं। विचार तो पके-पकाये मिल ही जाते हैं। रात के 2,00 – 3,00 बजे तक जागने की बजाए दूसरों का, दूसरे देशों का साहित्य चुराकर अपना सीना ठोकते हुए ऐसे लोग अपने नाम से उस रचना को सुनाना ज्यादा आसान मानते हैं। पकड़े जाने पर उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे वाली कहावत सार्थक कर देते हैं। अक्सर इन सबका एक ही कहना रहता है कि मैंने नहीं उनने मेरी रचना चुराई है। ऐसे शब्दों के हेरफेर करने वाले लोग आज बहुतायत में देखे जा सकते हैं। आजकल यह भी देखा गया है कि लोग अपना बेशकीमती समय खपाकर जब एक रचना का सृजन करते हैं तो उसका प्रतिफल उन्हें न के बराबर मिलता है, लेकिन एक या दो रचना लेकर पूरा इंडिया घूमने वाले कवि, चुटकुलेबाज अनेक मिल जाएँगे। इतना सब कुछ करने और चिंतन-मनन के बाद अब हमारी भी तीव्र इच्छा होने लगी है कि ऐसी मेहनत किस काम की जो दो पैसे भी न दिला सके। इससे अच्छा तो आज मंच से तथाकथित नामी-गिरामी चुटकुलेबाज, कवि एक-दो मुक्तक की आड़ में 25-50 चुटकुले सुनाकर रुपये कमा लेते हैं, वाहवाही लूटते रहते हैं। हम ऐसे श्रोताओं को अतिरिक्त धन्यवाद देना चाहेंगे जो इन तथाकथित प्रसिद्धिप्राप्त चुटकुलेबाजों की आय के साधन हैं। लेकिन हमें तरस आता है अपने उन उत्तम और सच्चे साहित्यकारांें पर जो धन के महत्त्व को समझते हुए भी उनकी लाईन में जाना पसंद नहीं करते! और देखिए, जनता आखिरी तक इंतजार करती रह जाती है कि शायद अब एक आदर्श रचना उनसे सुनने मिलेगी मगर चुटकुलेबाज कभी अपने घटियापन से बाज नहीं आते। वे निम्न स्तरीय बातों या नेताओं पर बनाये चुटकुलों की झड़ी लगा देंगे लेकिन उस कवि सम्मेलन के नाम की सार्थकता एक दिशाबोधी कविता सुनाकर सिद्ध नहीं करेंगे। अरे भाई वे तो बस फिल्मी धुनों पर पैरोडी सुनाते हैं और जनता को चुटकुले सुना-सुनाकर बहलाते रहते हैं।

तथाकथित सज्जन की बातों से मेरा सिर चकराने लगा था। उनकी बातों में कुछ बात तो थी। मैंने उनसे कहा बस भी करो भाई। मुझे और भी काम हैं, इतना कहते हुए तेजी से उन्हें वहीं छोड़कर भाग निकला परंतु उनकी उल्टी बातें मुझे सीधा सोचने पर मजबूर कर रहीं थी। काश! एक बार फिर हमारे साहित्यकार बंधु अपने दायित्व को समझते। बिजली वाले, नगर निगम वाले या और सभी सरकारी कर्मचारी- अधिकारी अपना फर्ज निभाते तो समाज और देश की आधी से ज्यादा समस्याएँ वैसे ही समाप्त हो जातीं और सामान्य जनता राहत की साँस लेती। काश! ये हो पाता…, यही सोचता हुआ मैं अपने घर की ओर भाग रहा था।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 23 ☆ बहानेबाजी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बहानेबाजी ।  वास्तव में श्रीमती छाया सक्सेना जी की प्रत्येक रचना कोई न कोई सीख अवश्य देती है। इस समसामयिक सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 23 ☆

☆ बहानेबाजी  

बहाना बनाने का गुण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बड़ी कुशलता के साथ हस्तांतरित होता चला आ रहा । झूठ व मक्कारी दोनों ही  इसके परममित्र हैं । पर कोरोना ने इस पर भी वार कर इसे चारो खाने चित्त कर दिया है । अब आप सोच रहे होंगे कि ये भी भला कोई चिंतन का मुद्दा है , सो जाग जाइये साहब आज की सबसे बड़ी समस्या यही है । जो भी लोग  या कार्य हमें पसन्द नहीं आता था वहाँ हम बड़े चातुर्य के साथ सफेद झूठ बोल देते थे । पर अब क्या करेंगे….?

कोरोना के चलते एक  बड़ा नुकसान हुआ है कि अब पुराने झूठ नहीं चल पा रहे हैं । पहले अक्सर ही लोग कह देते थे , घर पर नहीं  हैं , अब तो सभी को घर पर ही रहना है। साहब कहाँ गए हैं ,इसका उत्तर भी सोच समझकर ही दिया जा सकता है क्योंकि बहुत से कन्टेनमेंट एरिया हैं जहाँ जाना प्रतिबंधित है ।

बच्चों की भी ऑन लाइन पढ़ाई शुरू हो चुकी है सो उन्हें भी अब समय पर उठना होगा । पहले तो पेटदर्द का बहाना चल जाता था पर अब कोई सुनवाई नहीं । नींद पूरी हो या न हो , तबियत ठीक हो या न हो पढ़ना तो पड़ेगा , ऐसा आदेश माताश्री ने पास कर दिया है ।

बस अब कोई बचा सकता है तो वो है नेटवर्क न मिलने का बहाना, पढ़ाई वाला नया एप ठीक से कार्य नहीं कर रहा या क्लास अटेंड कर फिर गोल मार देना । ये सब बहाने जोर -शोर से चल रहे हैं । मोबाइल या लैपटॉप तो हाथ में है ही,  बस जो जी आये देखिए । न कोई चुगली करेगा , न टीचर कॉपी चेक करेगी । बस मम्मी का ही डर है ,जो धड़धड़ाते हुए किसी भी समय चेकिंग करने आ धमकती हैं ।

इस समय एक समस्या और जोर पकड़ रही है कि पहले अक्सर ही बीबी से कह देता था कि आज ऑफिस में ज्यादा काम है देर से आऊँगा पर अब तो समय से पहले ही घर आना पड़ता है क्योंकि नियत समय के बाद कर्फ़्यू लग जाता है । पहले  दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ाते रहो कोई रोकने -टोकने वाला नहीं था पर अब तो कोरोना के डर से वे भी कोई न कोई बहानेबाजी कर देते हैं ।

सदैव की तरह सिर दर्द है , मूड ठीक नहीं है , डिप्रेशन है, काम में मन नहीं लग रहा, ये बहाने आज भी उपयोगी बने हुए हैं । खैर वो कहते हैं न कि एक रास्ता बंद हो तो हजारों रास्ते खुलते हैं । इसलिए चिंता की कोई बात नहीं मनुष्य बहुत चिंतनशील प्राणी है ; अवश्य ही कोई न कोई नए झूठों का अविष्कार कर लेगा । कहा भी गया है आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 33 – बापू के संस्मरण-7 बा, बापू और सुभाष बाबू की चाय ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – बा, बापू और सुभाष बाबू की चाय”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 33 – बापू के संस्मरण – 7 – बा, बापू और सुभाष बाबू की चाय ☆ 

 

सुभाषचन्द्र  बोस महात्मा गांधी से मिलने सेवाग्राम आश्रम मे आए थे। वे चाय पीने के आदी थे। कस्तूरबा   उनके  लिए चाय  बना   रही  थी। उधर से गांधीजी गुजरे और बा को चाय  बनाते  बिफर गए। ‘क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि आश्रम मे चाय बनाना और पिलाना मना है । तुम ऐसा क्यो  कर रही हो ?  कस्तूरबा ने कोई उत्तर नहीं दिया और सुभाष बाबू की तरफ चाय का प्याला बढा  दिया।

गांधी जी को यह अच्छा नहीं लगा और वे कोई टिप्पणी करते उसके पहले कस्तूरबा ने उत्तर दिया – मुझे सब मालूम है लेकिन मेहमानो के लिए नियम लागू नहीं होते। गांधीजी निरुत्तर हो गए और वहाँ से चले गए। यह था कस्तूरबा का प्रभाव जिससे गांधीजी भी प्रभावित थे।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ईमेल@अनजान -1 ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार

डॉ प्रतिभा मुदलियार


(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

आज प्रस्तुत है डॉ प्रतिभा जी का एक अभिनव प्रयोग  ईमेल@अनजान।  अभिनव प्रयोग इसलिए क्योंकि आज पत्र  भला कौन लिखता है? कृपया आत्मसात करें । )

☆ ईमेल@अनजान -1☆

प्रिय अनजान,

बहुत दिनों से सोच रही थी कि किसी से मन भर कर बात करूँ। पर किससे? हर किसी से हर तरह की बात नहीं की जा सकती.. कारण लोग शब्दों का अर्थ अपने अपने हिसाब से ग्रहण करते हैं …जैसे वर्षा हो तो मयुर नाचता है और पपिहा रोता है…और उसके अनुसार रिएक्ट भी करते हैं… हमें पता ही नहीं होता कि हमारे शब्दों का कोई विशेष अर्थ भी लिया जा रहा है और उसके तहत कुछ भिन्न माहौल तैयार हो रहा है जिसकी हमें कोई कल्पना तक नहीं होती। सच कहूँ.. आज अपनों से निखालिस खुलकर बात करने के दिन नहीं रहे.. अब हमें शब्दों को माप तोलकर बोलना होता है.. ताकि सामने वाला ‘हर्ट’ ना हो…..अब वे दिन नहीं रहें जब हम अपने दोस्तों से, सखी-सहेलियों से, अपने किसी रिश्तेदार से या हमारे रहस्य के साझेदारों से…. न जाने कितनी बातें किया करते थे.. आज भी याद है … मैं और मेरी फूफी खूब बातें किया करती थी…. सभी कहा करते थे.. पता नहीं दोनों का क्या चलता रहता है… जब देखों बातें, बातें और बातें… सच में हमारी बातों का अंत ही नहीं होता था… और उसमें खास कुछ होता भी नहीं था… लेकिन लगातार बातें हुआ करती थीं… और फिर हो हो करके हँसना… वैसे मैं अपनी सहेलियों के बीच अपनी हंसी के लिए जानी जाती थी….. जब मैं लेक्चरार बनी तब हमारा अपना एक महिला लेक्चरार का ग्रूप था.. हम सब अपनी अपनी क्लासेस खतम करके स्टाफ रूम में आ जाती थीं तो ढेरों बातें हुआ करती थीं.. और उसके साथ हमारी हँसी के फव्वारें भी उड़ा करते थे। यादगार दिन थे…. अकादमिक उंचाइयाँ पाते पाते कुछ अच्छे दोस्त पीछे छूट गए.. और एक वैक्युम बन गया जो आजतक भरा हीं नहीं.. सच है… दोस्तों की कमी कोई नहीं पूरा कर सकता….!!

पता है मैं तुम्हें यह मेल क्यों लिख रही हूँ? क्यों कि आज किसी से रु ब रु होकर बात करनी है… बहुत सी… पहले ही बताए देती हूँ.. मेरी बातों में कोई भी खास विषय नहीं है….. मुझे यह कहना है.. या वह कहना है….. ऐसा कुछ नहीं… बस बोलना है… जो मन में आए… तुम जैसा श्रोता हो तो फिर मुझे शब्दों को नाप तोलकर बोलने की क्या आवश्यकता? कभी कभी खुद को एकदम सहज रखना चाहिए ..जिससे मन के जाले अपने अपने आप साफ हो जाते हैं… फिर मन में ग्रंथियाँ घर नहीं करती.. अक्सर मैं कविता के माध्यम से कुछ अभिव्यक्त कर देती हूँ… फिर सोचा चलो इमेल के द्वारा ही कुछ बोलुँ.. यही तो आज की दुनिया का कारगर माध्यम है ना….  और तो और पहले  की तरह पत्र लिखने का आनंद भी लिया जा सकता है… एक जमाना था जब डाकिए की प्रतिक्षा में आँखे बिछाए बैठे रहते थे….. खिडकी से झाँक कर गली के कोने तक नज़र दौडाया करते थे…. और पत्र पाकर फूले अंग नहीं समाते थे….किंतु आज ऐसा नहीं है… आज के तकनीकी युग में सोशल होने के इतने सारे माध्यम उपलब्ध हैं कि हर कोई इस दुनिया से जुडा हुआ है.. सबके सोशल फ्रेंडस होते हैं … और यदि आप सोशल मीडिया पर एक्टिव नहीं होते हैं तो आप फिर समय के पीछे  हैं… पर इतना सारा होने के बावजूद अंततः अपनी चार दीवारों में फिर भी अकेले……. कभी सोचती हूँ… भला क्यों आज हम इतने अकेले हो गए हैं…. अकेले नहीं हुए हैं.. हमने यह अकेलापन जान बुझकर अपनाया है… आज जिसे ‘स्पेस’ कहा जाता है ना… यह वही ‘स्पेस’ है जो हमें अपने अपने ‘शेल’ में बंद कर रहा है…गत दो महीने से कोराना की वजह से लोग तालाबंदी में जीवन जी रहे हैं… और सभी सोशल मीडिया में एकदम से व्यस्त हो गए…. इन दो महीनों ने ‘स्पेस और टाइम’ का अच्छा पाठ हम सबको पढाया है… मैं भी अपना ‘स्पेस’ चाहती हूँ…. तुम्हे भी चाहिए… हर किसी को लगता है कि अपना एक … अपने हक का कोना हो…जहाँ सिर्फ ‘मैं और मेरा मैं’ पसरा पड़ा हो…. जिसमें किसी की कोई दखल न हो…. मुझे अच्छा लगता है अपना ‘मैं’ और अपने ‘मैं का स्पेस’…… मैं खूब बातें करती हूँ… अपने से और अपने मैं से…  आज इस मैं के दायरे में मैंने तुम्हें शामिल किया है… कारण मेरे मैं का तुम  एक तरह से प्रतिबिंब ही हो…

जीवन की इस संध्याछाया में मन का कोई कोना कुछ उदास हो गया था…कुछ ही पल के लिए…उदास होने के लिए कारण?… संसार पर आयी यह विपदा…कोराना का भयाक्रांत वर्तमान…असमंजस का वातावरण…मज़दूरों का पलायन.. गरीबों की भूख…और अपनों की दूरियाँ यह सब भी तो मेरी उदासी में शामिल है…. मैं समझ नहीं पा रही हूँ कि यह सब क्यों हो रहा है?  एकाध महीने से पहले जीवन की रफ्तार कैसी तेज थी… हर एक के पैर में पहिए लगे हुए थे… सभी बस भागे जा रहे थे.. और एकदम से हमारी गति में लग गया ब्रेक… और मेरे मन में उठने लगा विचारों बवंडर ….दुनिया में होनेवाली मृत्यु को लेकर मन अशांत सा हो रहा है….पर साथ ही इस दुनिया में आनेवाले मासुम बच्चे जीवन की एक नयी परिभाषा भी तो लिख रहे हैं….उन निश्छल आँखों में जीवन का कितना ताजा रंग भरा है…अपनी छोटी छोटी आँखें खोलकर अपनी मुट्टी में जब माँ की उंगली थाम लेते हैं तब उस माँ को दुनिया का सबसे बडा संबंल मिल जाता होगा न…. तब सच में लगता है जीवन सुंदर ही होता है… उसमें होते हैं बहुत सारे रंग.. जैसे कभी कभी आसमान में देखने मिलते हैं….उनको निहारने में होती है सुखद अनुभूति… उन बादलों के रंगों को निहारने में समय का भान ही नहीं रहता…  वे रंग हमें खुशी भी देते हैं और कुछ भुले बिसरे पल याद भी दिलाते हैं… और ले जाते हैं हमें… पता नहीं स्मृति के किस कोने में! …और अनायास उस भूली बिसुरी स्मृति से पता लगता है… अरे समय कितना ही तो बीत गया न!!  …. अरी समय है …. रुकता थोडे ही… उसे तो चलना है निरंतर…यही होता तुम्हारा कहना… जानती हूँ मैं….. हाँ…..तो मैं बता रही थी कि… जीवन सुंदर होता है… उसमें होते हैं कई तरह के रंग…. वे रंग कभी मैले नहीं होते… किंतु कभी कभी हमें कुछ रंगों से शिकायत होती है… और लगने लगता है कि यह कैसा रंग है जीवन का.. ऐसा भी क्या जीवन होता है… ऐसा जीवन तो हमने कभी चाहा ही नहीं था… फिर??? तुम्हें लगेगा ….. जिंदगी का इतना सारा सफर तय करने के बाद… अब इस पडाव पर आकर मैं अध्यात्म झाड रही हूँ.. न न…. ऐसा नहीं है… एकांत में… अकेलेपन में जब हम होते हैं न तब यूँही हम अपने बीते जीवन के पन्ने पलट ही लेते हैं…और लगता है… अच्छा था जीवन…. ठेस थी, संघर्ष था, पीडा थी, पुरस्कार था…भीड भी थी और तनहा भी थे … ईश्वर से शिकायत भी थी और प्रार्थना में हाथ जुडे थे… मजेदार है न…यही तो है मर्म जीवन… इन्हीं इंद्रधनुषी रंगों से खिलता है जीवनपुष्प…किसी ने जीवन को लेकर बहुत अच्छि बात कही है… जीवन जीने का नाम है… और हमें जीना है.. चाहे हँसकर चाहे रोकर… अपने सुखद जीवन के लिए हमें ही अपने रंग चुनने है..अपनी अंतरात्मा की आवाज हमें ही सुननी है……हमें ही तय करने होते है हमारे मार्ग… हमारा लक्ष्य….आज वॉटस एप पर एक अच्छा वाक्य पढने मिला.. जीयों के ऐसे जियो कि यमराज प्राण लेने के लिए आए और कहकर जाए जी लो यार मैं फिर कभी आता हूँ… कितनी सकारात्मकता है ना… कभी कभी वॉटस् एप बहुत ही गंभीर जानकारी मिलती है।

अरे ये मैं क्या लिख गयी!!… मैं इसे डिलिट नहीं करूँगी…. क्योंकि चाहती हूँ… लिखुं… वह सब जो बिना सोचे समझे शब्दों से झरता  चला जाए…. पर, एक बात यह भी तो है कि जीवन का एक स्याह रंग भी तो होता है… हर एक के जीवन में होता है यह स्याह रंग… कालापक्ष… कितना भयावह लगता है यह शब्द.. कालापक्ष… पर होता तो है ना..असफलताएँ, अपमान,  अभाव आदि को हम इस पक्ष में डाल देते हैं और … आँखों को आँसुओं के भरोसे छोड देते है…और कोसते रहते हैं नियती को, भाग्य को…. स्वाभाविक है…ऐसा ही होता है….खूब आँसू बहें है मेरे… खूब कोसा है भगवान को….लडी भी हूँ मैं उससे… पर आखिर झुकी भी हूँ उसके ही सामने….मानती हूँ मैं उस परम शक्ति को जो देती है मुझे एक विश्वास.. साहस…. जीने का, लडने का…… ।। मंजिले तय करने के बाद रास्ते बन जाते है…. पर रास्तों पर चलना आसान भी तो नहीं होता न…..यही तो परीक्षा का समय है… संघर्ष की राह पर चलकर कुंदन बनकर निखरना होता है…… आज का यह वर्तमान भी समस्त विश्व का स्याहपक्ष है…यह दौर भी गुजर जाएगा… शाश्वत तो कुछ भी नहीं है…. हमारे सब से कठिन समय में अगर कुछ हमारे साथ होता है तो वह है उम्मीद… इस उम्मीद के ही भरोसे हमें जीना है…

यह उम्मीद ही थी जो मुझे अपने जीवन-संघर्ष करने के लिए शक्ति दे गयी थी… लेकिन एक बात है मैने अपने जीवन से कभी शिकायत नहीं की…. शायद .. शायद…ऐसा भी हो सकता है कि मेरे प्रयत्नों को सफलता मिलती गयी…. मैंने अपने अपयश को अवसर दिया… हर वह जो मुझे लगा सीखना अवश्य है तो मैंने उसे सीखा… मेरे पापा मुझे अक्सर कहते थे कि सीखने का अवसर कभी गवांना नहीं… ज्ञान फिर वह किसी भी प्रकार का क्यों न हो समृद्ध ही करता है ….जीवन के प्रारंभिक दौर में अभाव ही अभाव थे पर उनके प्रति कभी कोई शिकायत थी ही नहीं.. करें किससे?… इतनी अकल तो थी ही कि जिद करने से कुछ मिलनेवाला तो नहीं है.. हाँ माँ परेशान हो जाएगी… माँ का कलेजा है…. इसलिए शिकायत कभी की ही नहीं.. मेरे लिए मेरे भाइयों की जिद सबसे अहम थी…छोटी जिद होती थी..किसी को बॉल चाहिए था, किसी को एक टी शर्ट, किसी को पेन, पेन्सिल, पुस्तक या  कभी कभी अपनी जेब में रखने के लिए दस रुपये..कितनी छोटी जरूरत.. कितनी छोटी जिद..कितनी छोटी जरूरत… पर पुरी नहीं हो पाती थी… आर्थिक अभाव सबको तोडता है…सच है…जीवन का सबसे बडा सच है… मेरी एक मित्र है… अक्सर कहती थी… प्रतिभा, जीवन में पैसा होना चाहिए… कम से कम वह तुम्हारी रोटी की चिंता कम कर देता है….सच है…  दरअसल उसके जीवन की समस्याएं भिन्न थीं… रोटी समस्या ही नहीं थी उसकी… लेकिन…. जिसके जीवन की समस्या ही रोटी हो… भूख हो .. वह क्या करें….उसे तो पैसा अर्जित कर पहले रोटी की समस्या ही तो हल करनी है … रामवृक्ष बेनिपुरी का एक निबंध है… गेहूँ बनाम गुलाब… मुझे यह निंबध अक्सर याद आता है… उसमें उन्होंने कहा है… “गेहूँ हम खाते हैं, गुलाब सूँघते हैं। एक से शरीर की पुष्टि होती है, दूसरे से मानस तृप्‍त होता है। गेहूँ बड़ा या गुलाब? हम क्‍या चाहते हैं – पुष्‍ट शरीर या तृप्‍त मानस? या पुष्‍ट शरीर पर तृप्‍त मानस”? पेट में जब ठंडक पड जाती है तभी तो इन्सान गुनगुनाने लगता है।

जानते हो रात की साढे बारह बज रहे हैं… नींद लगते लगते एक बज जाएगा.. फिर सुबह का रुटिन है…. आज बस इतना भर लिखती हूँ… और कुछ किसी और दिन… पर सुनो…तुम से बात करना अच्छा लगा…

तुम्हारी मैं…

 

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 8 – दादा साहब फाल्के….2 ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : दादा साहब फाल्के….2 पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 8 ☆ 

☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के अभिनेता : दादा साहब फाल्के….2 ☆ 

शुरू में शूटिंग दादर के एक फ़ोटो स्टूडियो में सेट बनाकर की गई। सभी शूटिंग दिन की रोशनी में की गई क्योंकि वह एक्सपोज्ड फुटेज को रात में डेवलप करते थे और प्रिंट करते थे।  पत्नी की सहायता से छह माह में 3700 फीट की लंबी फिल्म तैयार हुई। आठ महीने की कठोर साधना के बाद दादासाहब के द्वारा पहली मूक फिल्म “राजा हरिश्चंन्द्र” का निर्माण हुआ। यह चलचित्र सर्वप्रथम दिसम्बर 1912 में कोरोनेशन थिएटर में प्रदर्शित किया गया। 21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में प्रिमीयर हुई और 3 मई 1913 शनिवार  को कोरोनेशन सिनेमा गिरगांव में पहली भारतीय फ़िल्म का प्रदर्शन हुआ।

पश्चिमी फिल्म के नकचढ़े दर्शकों ने ही नहीं, बल्कि प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की। लेकिन फालके जानते थे कि वे आम जनता के लिए अपनी फिल्म बना रहे हैं, बम्बई के कला मर्मज्ञ और सिनेप्रेमी के कारण फिल्म जबरदस्त हिट रही। फालके के फिल्मनिर्मिती के प्रथम प्रयास के संघर्ष की गाथा पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के निर्माण पर मराठी में एक फिचर फिल्म ‘हरिश्चंद्राची फॅक्टरी’ 2009 में बनी, जिसे देश विदेश में सराहा गया।

इस चलचित्र के बाद दादासाहब ने दो और पौराणिक फिल्में “भस्मासुर मोहिनी” और “सावित्री” बनाई। 1915 में अपनी इन तीन फिल्मों के साथ दादासाहब विदेश चले गए। लंदन में इन फिल्मों की बहुत प्रशंसा हुई।

उन्होंने राजा हरिश्चंद्र (१९१३) के बाद मोहिनी भास्मासुर बनाई जिसमें दुर्गा बाई कामत पार्वती और कमला बाई गोखले मोहिनी के रूप में पहली महिला अदाकारा बनीं, सत्यवान सावित्री (१९१४) भी बहुत सफल रही।

तीन फ़िल्मों की सफलता से उन्होंने सभी क़र्ज़ चुका दिए। उसके बाद भी उनकी फ़िल्मों की माँग बनी होने से उन्होंने लंदन से 30,000 रुपयों की नई मशीन लाने का विचार किया। वे 1 अगस्त 1914 को लंदन पहुँच कर बायोस्कोप सिने वीक़ली के मालिक केपबर्न से मिले। उन्होंने फाल्के की फ़िल्मों की स्क्रीनिंग की व्यवस्था कर दी। फ़िल्मों के तकनीक पक्ष की बहुत प्रसंश हुई। हेपवर्थ कम्पनी के मालिक ने उन्हें भारतीय फ़िल्मों को लंदन में फ़िल्माने का प्रस्ताव दिया, वे सभी खर्चो के साथ फाल्के को 300 पौण्ड मासिक भुगतान के साथ लाभ में 20% हिस्सा देने  को भी तैयार थे लेकिन फाल्के ने उनका प्रस्ताव नामंज़ूर करके अपने देश में ही फ़िल्म बनाना जारी रखना सही समझा। वॉर्नर ब्रदर से 200 फ़िल्म रील का प्रस्ताव स्वीकार किया तभी प्रथम विश्वयुद्ध भड़क गया और उनकी माली हालत ख़स्ता हो गई।

उस समय देश में स्वदेशी आंदोलन चल रहा था और आंदोलन के नेता फाल्के से आंदोलन से जुड़ने को कह रहे थे इसलिए अगली फ़िल्मों बनाने हेतु धन की ज़रूरत पूरी करने के लिए उन्होंने नेताओं से सम्पर्क साधा। बाल गंगाधर तिलक ने कुछ प्रयास भी किए लेकिन सफल नहीं हुए। परेशान फाल्के ने अपनी फ़िल्मों के प्रदर्शन के साथ विभिन्न रियासतों में भ्रमण शुरू किया अवध, ग्वालियर, इंदौर, मिराज और जामखंडी गए। अवध से 1000.00, इंदौर से 5,000 मिले और बतौर फ़िल्म प्रदर्शन 1,500 रुपए प्राप्त हो गए।

इस बीच राजा हरीशचंद्र के निगेटिव यात्रा के दौरान गुम गए तो उन्होंने सत्यवादी राजा हरीशचंद्र के नाम से फिरसे फ़िल्म शूट की जिसे आर्यन सिनमा पूना में 3 अप्रेल 1917  को प्रदर्शित किया। इसके बाद उन्होंने “How movies are made” एक डॉक्युमेंटरी फ़िल्म बनाई। कांग्रेस के मई 1917  प्रांतीय अधिवेशन में फाल्के को आमंत्रित किया और तिलक जी ने उपस्थित लोगों से फाल्के जी की मदद की अपील की। तिलक जी की अपील इस व्यापक प्रभाव हुआ। फाल्के जी को अगली फ़िल्म “लंका दहन” बनाने के लिए धन मिल गया। फ़िल्म सितम्बर 1917 में आर्यन सिनमा पूना में प्रदर्शित हुई। फ़िल्म बड़े स्तर पर सफल हुई और फाल्के को 32,000 रुपयों की आमदनी हुई उन्होंने सारे क़र्ज़ उतार कर दिए साथ ही उनके दरवाजे पर पैसा लगाने वालों की भीड़ लगनी लगी।

“लंका-दहन” की भारी सफलता के पश्चात बाल गंगाधर तिलक, रतन जी टाटा और सेठ मनमोहन दास जी रामजी 3,00,000 रुपए इकट्ठे करके फाल्के फ़िल्म कम्पनी लिमिटेड बनाने का प्रस्ताव फाल्के जी के पास भेजा। वे अतिरिक्त 1,50,000 इस प्रावधान के साथ तैयार थे कि फाल्के जी को पूँजी 1,00,000 मान्य होगी और उन्हें लाभ में 75% हिस्सेदारी भी मिलेगी। फाल्के जी ने प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया।  उन्होंने बम्बई के कपड़ा व्यापारियों वामन श्रीधर आपटे, लक्ष्मण पाठक, मायाशंकर भट्ट, माधवी जेसिंघ और गोकुलदास के प्रस्ताव को स्वीकार करके 1 जनवरी 1918 को फाल्के फ़िल्म कम्पनी को हिंदुस्तान सिनेमा फ़िल्म कम्पनी में बदल कर वामन श्रीधर आपटे को मैनेजिंग पार्टनर और फाल्के जी को वर्किंग पार्टनर बनाया गया।

हिंदुस्तान सिनेमा फ़िल्म कम्पनी की पहली फ़िल्म “श्रीकृष्ण जन्म” बनाई गई जिसमें फाल्के की 6 साल की बेटी मंदाकिनी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। फ़िल्म 24 अगस्त 1918 को मजेस्टिक सिनेमा बम्बई में प्रदर्शित की गई। फ़िल्म ने भारी सफलता के साथ 3,00,000 की कमाई की। उसके बाद “कालिया-मर्दन” बनाई गई।  ये दोनों फ़िल्म सफल रहीं और अच्छा व्यवसाय किया। इसके बाद कम्पनी के कारिंदों का फाल्के जी से कुछ ख़र्चों और फ़िल्म के बनाने में लगने वाले समय को लेकर विवाद हो गया। फाल्के फ़िल्म निर्माण के कलात्मक पहलू पर कोई भी दख़लंदाज़ी स्वीकार करने को तैयार नहीं थे उनका मानना था कि फ़िल्म की तकनीकी गुणवत्ता हेतु कोई समझौता नहीं किया जा सकता इसलिए उन्होंने कम्पनी छोड़ने का निर्णय किया लेकिन 15 वर्षीय अनुबंध के तहत उन्हें कम्पनी छोड़ने की क्षतिपूर्ति स्वरुप कम्पनी से मिले लाभांश के 1,50,000 और 50,000 रुपए बतौर नुक़सान भरपायी कम्पनी को भुगतान करने होंगे।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 47 – तुलसी गीता ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “ कला । )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 47 ☆

☆ तुलसी गीता 

क्या आप जानते हैं कि हिन्दू तुलसी को देवी माँ का रूप मानते हैं। क्यों? क्योंकि इस दुनिया में कोई भी ऐसी बीमारी नहीं है जिसका अकेले तुलसी द्वारा इलाज नहीं किया जा सकता हो । इसके जीवन देने वाले गुणों के कारण तुलसी को देवी का रूप माना जाता है । इसलिए मैंने तुलसी देवी की प्रार्थना की और उससे अनुरोध किया कि कृपया मुझे अपने औषधिय गुण दें । मैं हर बार माँ तुलसी की ऐसी ही प्रार्थना करता हूँ जब भी उनसे कुछ पत्तियाँ या उनके बीज माँगता हूँ । किसी से कुछ भी प्राप्त करने का यह तरीका है ।

तब मैंने राम तुलसी या सफेद तुलसी की पाँच पत्तियों और श्यामा तुलसी या काली तुलसी की सात पत्तियों और राम तुलसी के 21 बीजों को तोड़ा । यह संयोजन महत्वपूर्ण है, और फिर पानी में उबालने के बाद मैंने आपको पीने के लिए उस समय दिया जब आपकी इड़ा नाड़ी या शीतल नाड़ी सक्रिय थी, जो गर्म पेय पीते समय सक्रीय होना स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा है । तुलसी के गुण सामान्य परिस्थितियों में गर्म होते हैं । मुझे ज्ञात है कि तुलसी के पत्तों और बीजों को पानी के साथ उबालकर पीने से एक विशेष ऊर्जा निकलती है जो कफ के नकारात्मक आयनों को बेअसर कर देती हैं, क्योंकि सर्दी, ज़ुखाम के समय शरीर में कफ अधिक उत्पन्न होता है । 45 मिनट के भीतर बुखार सहित आपकी खांसी, ज़ुखाम और ठंड खत्म हो जाएगी ।

तुलसी के उपयोग के कई फायदे और उसकी कई प्रकार की उर्जाएँ हैं कुछ सकल या स्थूल अन्य सूक्ष्म हैं, जो आमतौर पर मनुष्यों के लिए सकारात्मक होती हैं । पौधों और पेड़ों के इन सकारात्मक गुणों के कारण, हम आम तौर पर पेड़ों और पौधों की प्रार्थना करते हैं । कुछ हमारे शरीर के लिए फायदेमंद हैं, दूसरे हमारे मस्तिष्क के लिए, और कुछ आध्यात्मिक प्रगति के लिए, यहाँ तक कि कुछ भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी उपयोगी है ।  क्या आप जानते हैं कि साँस लेने से हमें शरीर के लिए आवश्यक ऑक्सीजन मिलती है जो शरीर के लिए प्राण का निर्माण करती है । पीपल का वृक्ष, उन कुछ वृक्षों में से एक है जो 24 घंटे ऑक्सीजन छोड़ते हैं । अस्थमा, मधुमेह, दस्त, मिर्गी, गैस्ट्रिक समस्याओं, सूजन, संक्रमण, और यौन विकारों के इलाज के लिए पीपल के वृक्ष का उपयोग किया जा सकता है । यह पीलिया के लिए भी बहुत अच्छा है । और आप तुलसी के महत्व को जानते हैं, वह पृथ्वी पर उन कुछ पौधे में से एक है जो प्रजारक या ओजोन भी छोड़ता है ।

हाँ, तुलसी संयंत्र दिन में 20 घंटे ऑक्सीजन और 4 घंटे ओजोन छोड़ता है । और यह चार घंटों की ओजोन ऐसे रूप में आती है, जो पर्यावरण को साफ करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । लेकिन इसे ध्यान में रखें की रविवार को तुलसी द्वारा मुक्त की गयी ओजोन हानिकारक है । इसलिए ही ऐसा कहा जाता है कि रविवार को तुलसी के पौधे को नहीं छूना चाहिए । तुलसी के पौधे को स्वर्ग और पृथ्वी को जोड़ने वाला बिंदु माना जाता है । एक पारंपरिक प्रार्थना बताती है कि निर्माता देवता ब्रह्मा इसकी शाखाओं में रहते हैं, सभी हिंदू तीर्थ इसकी जड़ों में रहते हैं ।  गंगा इसकी जड़ों में बहती है, इसके तनों और पत्तियों में सभी देवताओं का वास माना जा सकता है । इसकी शाखाओं के ऊपरी भाग में सभी वेदों का वास माना जाता है । इसे घरेलू देवी के रूप में माना जाता है जिसे विशेष रूप से “गृह देवी” भी कहा जाता है । मंगलवार और शुक्रवार को विशेष रूप से तुलसी पूजा के लिए पवित्र माना जाता है । ऐसी मान्यता है कि कार्तिक मास की देव प्रबोधिनी एकादशी को तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है । इस दिन शालिग्राम और तुलसी जी का विवाह कराकर पुण्यात्मा लोग कन्या दान का फल प्राप्त करते हैं । तुलसी के पौधे को पवित्र और पूजनीय माना गया है । तुलसी की नियमित पूजा से हमें सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है । तुलसी विवाह की कहानी कुछ इस तरह से है ।

प्राचीन काल में जलंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ़ बड़ा उत्पात मचा रखा था । वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था । उसकी वीरता का रहस्य था, उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म। उसी के प्रभाव से वह विजयी बना हुआ था । जलंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास गए तथा रक्षा की गुहार लगाई । उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया । उन्होंने जलंधर का रूप धर कर छल से वृंदा का स्पर्श किया । वृंदा का पति जलंधर, देवताओं से पराक्रम से युद्ध कर रहा था लेकिन वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया । जैसे ही वृंदा का सतीत्व भंग हुआ, जलंधर का सिर उसके आंगन में आ गिरा । जब वृंदा ने यह देखा तो क्रोधित होकर जानना चाहा कि फिर जिसे उसने स्पर्श किया वह कौन है । सामने साक्षात भगवान विष्णु जी खड़े थे । उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया, ‘जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम्हारी पत्नी का भी छलपूर्वक हरण होगा और स्त्री वियोग सहने के लिए तुम भी मृत्यु लोक में जन्म लोगे’ यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई । वृंदा के शाप से ही प्रभु श्रीराम ने अयोध्या में जन्म लिया और उन्हें माता सीता से वियोग सहना पड़ा़ । एक और शाप। जिस जगह वृंदा सती हुई वहाँ तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ ।

जिस घर में तुलसी होती हैं, वहाँ यम के दूत भी असमय नहीं जा सकते । गंगा व नर्मदा के जल में स्नान तथा तुलसी का पूजन बराबर माना जाता है । चाहे मनुष्य कितना भी पापी क्यों न हो, मृत्यु के समय जिसके प्राण मंजरी रहित तुलसी और गंगा जल मुख में रखकर निकल जाते हैं, वह पापों से मुक्त होकर वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है । जो मनुष्य तुलसी व आंवलों की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करता है, उसके पितर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं । वो दैत्य जालंधर की भूमि ही आज जलंधर शहर नाम से विख्यात है । सती वृंदा का मंदिर जलंधर शहर के मोहल्ला कोट किशनचंद में स्थित है । कहते हैं इस स्थान पर एक प्राचीन गुफ़ा थी, जो सीधी हरिद्वार तक जाती थी । सच्चे मन से 40 दिन तक सती वृंदा देवी के मंदिर में पूजा करने से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं ।

एक अन्य कथा में आरंभ यथावत है लेकिन इस कथा में वृंदा ने विष्णु जी को यह शाप दिया था कि तुमने मेरा सतीत्व भंग किया है । अत: तुम पत्थर के बनोगे । यह पत्थर शालिग्राम कहलाया । विष्णु ने कहा, ‘हे वृंदा! मैं तुम्हारे सतीत्व का आदर करता हूँ लेकिन तुम तुलसी बनकर सदा मेरे साथ रहोगी । जो मनुष्य कार्तिक एकादशी के दिन तुम्हारे साथ मेरा विवाह करेगा, उसकी हर मनोकामना पूरी होगी’ बिना तुलसी दल के शालिग्राम या विष्णु जी की पूजा अधूरी मानी जाती है । शालिग्राम और तुलसी का विवाह भगवान विष्णु और महालक्ष्मी का ही प्रतीकात्मक विवाह माना जाता है । तुलसी विवाह चार महीने की चतुर्मास काल का अंत होता है, जो मानसून का अंत है और शादी और अन्य अनुष्ठानों के लिए अशुभ माना जाता है, इसलिए इस दिन भारत में वार्षिक विवाह के मौसम का उद्घाटन हो जाता है । तुलसी पौधे की शाखाओं को उखाड़ फेंकना और कटौती करना प्रतिबंधित है । जब तुलसी का पौधा सूख जाता है तो सूखे पौधे को पानी में विसर्जित किया जाता है, क्योंकि धार्मिक संस्कारों में सूखी हुई तुलसी का उपयोग नहीं किया जाता । हालांकि हिंदू पूजा के लिए तुलसी की पत्तियाँ जरूरी हैं, इसके लिए सख्त नियम हैं । केवल एक पुरुष को ही तुलसी के पत्तों को केवल दिन के उजाले में ही तोडना चाहिए । तुलसी के पत्तों को तोड़ने से पहले माँ तुलसी से क्षमा प्रार्थना भी करनी चाहिए क्योंकि हम उनके शरीर का एक भाग ले रहे हैं ।

दुनिया में कई प्रकार के तुलसी के पौधे उत्पन्न होते हैं लेकिन छः सबसे महत्वपूर्ण हैं जो भारत में पाए जाते हैं । वे य़े हैं :

1) राम तुलसी या सफेद तुलसी : तुलसी की यह किस्म चीन, ब्राजील, पूर्वी नेपाल, साथ ही साथ बंगाल, बिहार चटगांव और भारत के दक्षिणी राज्यों में पाई जाती है । पौधे के सभी हिस्सों में से एक मजबूत सुगंध निकलती है । राम तुलसी की यह सुगंध बहुत ही सुहानी होती है । हथेलियों के बीच में इस तुलसी की पत्तियों को कुचलने से तुलसी की अन्य किस्मों की तुलना में इसमें से एक मजबूत सुगंध निकलती है । तुलसी की इस किस्म का उपयोग कुष्ठ रोग जैसी बीमारियों के इलाज के लिए किया जाता है ।

2) कृष्णा तुलसी या श्यामा तुलसी : यह किस्म भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में पाई जाती है । इसका उपयोग गले के संक्रमण और श्वसन प्रणाली, खांसी, आतंरिक बुखार, नाक घाव, संक्रमित घाव, कान दर्द, मूत्र संबंधी विकार, त्वचा रोग आदि के इलाज के लिए किया जाता है ।

3) कपूर तुलसी : जहाँ इस तुलसी के पौधों के माध्यम से हवा बहती है, यह आसपास के क्षेत्रों को शुद्ध बनाती है । समृद्ध उद्यान के लिए कपूर तुलसी सबसे अच्छी और पवित्र है । इस तुलसी को समशीतोष्ण मौसम में आत्म-बीज के लिए भी जाना जाता है, जो तुलसी के लिए काफी असामान्य है । यह अनुकूलजन, प्रतिरक्षक क्षमता बढ़ाने वाली, कवक विरोधी और जीवाणु विरोधी है । इस तुलसी का रोजाना एक ताजा पत्ता खाएं, या पत्तियों और फूलों को चुनें और उन्हें सूखाएं और चाय बनाएं ।

4) वन तुलसी : वन तुलसी हिमालय में और भारत के मैदानी इलाकों में पायी जाती हैं, जहाँ यह प्राकृतिक पौधे के रूप में बढ़ती है । वन तुलसी की खेती भी की जाती है और यह पूरे एशिया और अफ्रीका के जंगलों में अपने आप ही बढ़ती रहती है ।

5) नींबू तुलसी : इसमें नींबू की तरह सुगंध आती है ।

6) पुदीना तुलसी : इसमें से पुदीना की तरह सुगंध आती है ।

सामान्य लोगों को इन छह प्रकार के तुलसी के विषय में पता है, लेकिन एक बहुत ही दुर्लभ तुलसी भी होती हैं, जिनके विषय में बहुत ही कम लोग जानते हैं । जिसे ‘लक्ष्मी तुलसी’ कहा जाता है।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 51 ☆ मानव ग़लतियों का पुतला है ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख मानव ग़लतियों का पुतला है ।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 51 ☆

☆ मानव ग़लतियों का पुतला है

‘ग़लत लोगों से अच्छी वस्तुओं की अपेक्षा करके हम दु:खों व ग़मों को प्राप्त करते हैं और आधी मुसीबतें हम अच्छे लोगों में दोष ढूंढ कर प्राप्त करते हैं’… इसमें अंतर्निहित है बहुत सुंदर संदेश… एक ऐसी सीख, जिसे अपना कर आप अपना जीवन सफल बना सकते हैं। इस तथ्य से तो आप सब अवगत होंगे कि इंसान वही देता है, जो उसके पास होता है। यदि आप ग़लत लोगों की संगति में रहकर श्रेष्ठ पाने की चेष्टा करेंगे, तो आपको शुभ परिणाम की प्राप्ति कदापि नहीं होगी और एक दिन आपको अपनी भूल पर अवश्य पछताना पड़ेगा। ‘यह मथुरा काजर की कोठरि, जे आवहिं ते कारे’ से आप स्वयं ही अनुमान लगाएं कि काजल की कोठरी से बाहर आने वाला इंसान उजला कैसे हो सकता है? इसी प्रकार ‘कोयला होई न उजरा, सौ मन साबुन लाय’ से स्पष्ट होता है कि बुरी व दूषित मनोवृत्ति वाले व्यक्ति से शुभ की आशा व अपेक्षा करना, स्वयं के साथ विश्वासघात करना है; जो भविष्य में दु:ख व अवसाद का कारण बनती है और उस स्थिति में मानव की दशा अत्यंत दयनीय हो जाती है, शोचनीय हो जाती है।’अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् समय निकल जाने के पश्चात् प्रायश्चित करना व्यर्थ है, निष्फल है, क्योंकि उसका परिणाम कभी शुभ हो ही नहीं सकता। इसलिए आज में अर्थात् वर्तमान में जीने की आदत बनाएं, क्योंकि कल कभी आता नहीं और आज कभी जाता नहीं। सो! अतीत का स्मरण कर अपने वर्तमान को नष्ट मत करें। हां! अतीत से सबक व शिक्षा ग्रहण कर अपने आज अर्थात् वर्तमान को सुंदर अवश्य बनाएं, क्योंकि भविष्य सदा वर्तमान के रूप में ही दस्तक देता है।
दोष-दर्शन मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। हम प्रत्येक वस्तु व व्यक्ति में दोष देखते हैं, जो हमारे अंतर्मन की नकारात्मकता को दर्शाता है। आधी मुसीबतों का सामना तो मानव को अच्छे लोगों में अवगुण तलाशने के कारण करना पड़ता है। इसलिए हमें दूसरों पर दोषारोपण करने की अपेक्षा, आत्मावलोकन करना चाहिए…अपने अंतर्मन में निहित दोषों व अवगुणों पर दृष्टिपात कर, उनसे मुक्ति पाने के उपाय तलाशने चाहिएं। जीवन में जो भी अच्छा व उपयोगी दिखाई पड़े; उसे न केवल सहेज-संजोकर रखना चाहिए, बल्कि जीवन में धारण करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए अर्थात् जो अच्छा व उपयोगी नहीं है; उसके विषय में सोचना भी हानिकारक है, त्याज्य है, जीवन में विष समान है। जीवन में जो भी होता है, मानव के हित के लिए होता है और परमात्मा कभी किसी का बुरा करना तो दूर–मात्र उसकी कल्पना भी नहीं करता, क्योंकि हम सब उस परम-पिता की संतान हैं। सो! आवश्यकता है, उसकी महत्ता को जानने-समझने व स्वीकारने  की।
सो! उस लम्हे को बुरा मत कहो; जो आपको ठोकर मारता है; कष्ट पहुंचाता है, बल्कि उस लम्हे की क़द्र करो, क्योंकि वह आपको जीने का अंदाज़ सिखाता है अर्थात् यदि जीवन में कोई आपदा आती है, तो उस स्थिति में किसी को दोष मत दो और शत्रु व अपराधी मत स्वीकार करो, बल्कि उससे सीख लो और भविष्य में उस ग़लती को कभी मत दोहराओ। उस लम्हे को जीवन में सदैव स्मरण रखो, क्योंकि वह आपका गुरु है, शिक्षक है… जो जीने की सही राह दर्शाता है। ‘इस संसार में सबसे कठिन है… परवाह करने वालों को ढूंढना, क्योंकि इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ निकालते हैं।’ आधुनिक युग में हर इंसान स्वार्थी है तथा उपयोगिता के आधार पर संबंध कायम करता है, क्योंकि वह सदैव अहं में लिप्त रहता है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और अहंनिष्ठ मानव में सर्वश्रेष्ठता का भाव कूट-कूट कर भरा रहता है। इसलिए मानव ‘यूज़ एंड थ्रो’ के सिद्धांत में विश्वास करता है। इसी प्रकार संबंध भी उसी आधार पर कायम किए जाते हैं, जिससे मानव को लाभ प्राप्त होता है और वे उसकी स्वार्थ-सिद्धि में भी सहायक सिद्ध होते हैं। इसके साथ ही वह उन्ही कार्यों को अंजाम देता है; उन लोगों से ‘हैलो हाय’ करके स्वयं को भाग्यशाली स्वीकार, केवल उनकी ही सराहना करता है तथा समाज में अपना रूतबा कायम कर संतोष प्राप्त करता है।
सो! मानव को सदैव ऐसे लोगों की संगति करनी चाहिए, जो उसकी अनुपस्थिति में भी उसके पक्षधर बन, ढाल के रूप में खड़े रहें। एक सच्चा मित्र भले ही उसे साथ दिखाई न दे, परंतु कठिनाई के समय में वह उसका साथ अवश्य निभाता है। ऐसे लोगों की संगति मानव को श्रेष्ठतम स्थिति तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होती है तथा वह उसे अपने जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्धि स्वीकार करता है। सच्चा मित्र उसे बियाबान जंगल में अकेला भटकने के लिए कभी नहीं छोड़ता, बल्कि दु:ख के समय धैर्य बंधाता है;  प्रोत्साहित करता है… ‘मैं हूं न’ कहकर उसे टूटने नहीं देता। वह उसे आगामी आपदाओं के भंवर से निकाल, अपने दायित्व का यथोचित निर्वहन करता है।
आइए! मित्रता में दरार उत्पन्न करने वाले तत्वों के विषय में भी जानकारी प्राप्त कर लें। मानव का अहं अर्थात् स्वयं के सम्मुख दूसरे के अस्तित्व को नकार कर उसे हेय समझना– मैत्री भाव में शत्रुता का मुख्य कारण होता है। इसके साथ दूसरों से अपेक्षा करना भी मित्रता में सेंध लगाने के समान है। दोस्ती में छोटे -बड़े व अमीरी-गरीबी का भाव संबंध-विच्छेद का मुख्य कारण स्वीकार किया जाता है। कृष्ण सुदामा की दोस्ती आज भी विश्व-प्रसिद्ध है, क्योंकि वे तुच्छ स्वार्थों में लिप्त नहीं थे और वहां त्याग, सौहार्द व अधिकाधिक देने का भाव विद्यमान था। अविश्वास, संशय, शक़ व संदेह का भाव ही शत्रुता का मूल है। सो! मित्रता में अटूट विश्वास व समर्पण भाव होना अपेक्षित है। हमें यह नहीं सोचना है कि उसने हमारे लिए क्या किया है, बल्कि हममें वह सब करने का जुनून होना अपेक्षित है, जिसे करने का हम में साहस व सामर्थ्य है। सो! जितना हममें त्याग का भाव सुदृढ़ होगा; हमारी दोस्ती उतनी प्रगाढ़ होगी।
‘मौन सभी समस्याओं का समाधान है। आप तभी बोलिए, जब आप अनुभव करते हैं कि आपके शब्द मौन से बेहतर हैं।’ मौन नौ निधियों का आग़ार है। यदि आप किसी विषय, संवाद व समस्या पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देते और कुछ समय तक शांत बने रहते है, तो उसका समाधान स्वयं निकल आता है। मौन में वह असीम, अद्वितीय व अलौकिक शक्तियां निहित होती हैं; जिनका प्रभाव अक्षुण्ण होता है। वाणी का माधुर्य व यथासमय बोलना– शत्रुता का शमन करता है। वैसे अधिकतर समस्याओं का मूल हमारे कटु वचन हैं; जिसके अनगिनत उदाहरण हमारे समक्ष हैं। इसके साथ सभी उलझनों का जवाब व समस्याओं का समाधान भी अपनी जगह सही है। ‘तू भी सही है और अपनी जगह मैं भी सही हूं’– जब हम इस सकारात्मक दृष्टिकोण को जीवन में अपना लेते हैं, तो समस्याएं अस्तित्वहीन हो जाती हैं। हां! इसके लिए हमें दरक़ार होगी– विनम्रता से दूसरे की महत्ता स्वीकारने की। सो! यदि हम इस सिद्धांत को जीवन का हिस्सा बना लेते हैं, तो जीवन रूपी गाड़ी में स्पीड-ब्रेकर अर्थात् अवरोधक कभी आते ही नहीं।
सो! हमें सदैव अच्छे लोगों की संगति करनी चाहिए और उनमें अवगुणों-दोषों की तलाश नहीं करनी चाहिए, क्योंकि मानव तो ग़लतियों का पुतला है। यदि हम संपूर्ण मानव की तलाश में निकलेंगे, तो हमें सफलता नहीं प्राप्त होगी और हम नितांत अकेले रह जाएंगे। इसलिए हमें उनसे यह सीख लेनी चाहिए कि ‘जब दूसरे लोग हमारे दोषों को अनदेखा कर, हमारे साथ संबंध-निर्वाह कर सकते हैं, तो हम उन्हें दोषों के साथ क्यों नहीं स्वीकार कर सकते?’ इसके साथ ही हमें ग़लत लोगों से शुभ की अपेक्षा करने के भाव का त्याग करना होगा…यही मानव जीवन की उपलब्धि व पराकाष्ठा होगी। इसलिए जो आपको मिला है, उसे श्रेष्ठ समझ स्वीकार करना– सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम बनाना ही मानव की सफलता का रहस्य है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 4 ☆ समय है प्रकृति से जुड़ी जीवनशैली अपनाने का ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सकारात्मक आलेख  ‘समय है प्रकृति से जुड़ी जीवनशैली अपनाने का।)

☆ किसलय की कलम से # 4 ☆

☆ समय है प्रकृति से जुड़ी जीवनशैली अपनाने का ☆

प्रकृति और पर्यावरण परस्पर पूरक हैं। प्रकृति का असंतुलन ही पर्यावरण क्षरण का अहम कारक है। देश में जहाँ कांक्रीट जंगल बढ़ते जा रहे हैं और वन्यक्षेत्र कम हो रहे हैं, बावजूद इसके भारत में अब भी विस्तृत और सुरक्षित हरित् क्षेत्रफल की कमी नहीं है। सत्यता यह भी है कि आवास, उद्योग व कृषि क्षेत्रों के विस्तार से वन्य क्षेत्रफल में कमी आई है परंतु प्राकृतिक असंतुलन का मूल कारण शहरी, कृषि और औद्योगिक भूखंडों में अनिवार्यतः वृक्षारोपण एवं वन्यक्षेत्रों का और विस्तार न किया जाना है। घरों, इमारतों, सड़कों, औद्योगिक क्षेत्रों व कृषिभूमि में यथोचित वृक्षारोपण की अनिवार्यता सुनिश्चित होना चाहिए। आज प्रमुखतः शहरी क्षेत्रों में इसकी उपेक्षा का दंश वहाँ का हर नागरिक झेल रहा है। गर्मी का प्रकोप, जलस्तर में कमी एवं वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी आज स्पष्ट देखी जा सकती है। हमारे आसपास व सड़कों के किनारे छायादार वृक्षों की कमी समस्त जीवधारियों के लिए घातक सिद्ध हो रही है। वनों तथा पेड़ों की कटाई से जलस्रोत कम हो रहे हैं। नदियों का पानी घट रहा है। अंधाधुंध विषैले धुएँ से वायुमंडल जहरीला होता जा रहा है। इसके ठीक विपरीत आज भी ग्राम्यांचलों की हरियाली और लहराते खेत सभी को आकर्षित करते हैं। शुद्ध वायु ग्रामीणों की तंदुरुस्ती का एक प्रमुख कारक है।

हम कुछ प्रतिशत सक्षम परिवारों को छोड़ दें तो आज शहरी क्षेत्रों में आवास की विकट समस्या खड़ी हो गई है। लोग घोंसलों जैसे  छोटे कमरों, फ्लैट्स और मकानों में रहने हेतु बाध्य हैं। नगरों-महानगरों की बहुमंजली इमारतों में निवासरत मनुष्यों का घनत्व मधुमक्खियों के छत्तों जैसा हो गया है। ऐसी परिस्थितियों में आदमी अपने स्वास्थ्य व पर्यावरण पर ध्यान न देकर तथाकथित समृद्धि की चाह में अपने ही स्वास्थ्य की बाजी लगा बैठा है। निरंतर प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध चलने की हठ ने भी मनुष्यों में जो बीमारियाँ व परेशानियाँ पैदा की हैं, इन मानवघाती गलतियों का क्रम पिछली सदी से ही शुरू हो चुका था और तब से अभी तक हम अर्थ व स्वार्थ में ही संलिप्त हैं। हमने अपने उन ऋषि-मुनियों, महात्माओं और बुद्धिजीवियों से कुछ नहीं सीखा, जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से मानव कल्याण हेतु अपना श्रेष्ठ अर्पण किया। हम अपनी अधिकांश अच्छी परंपराएँ, प्रथाएँ और आदर्श कर्त्तव्य तक भूलते जा रहे हैं।

पाश्चात्य जीवनशैली, परिस्थितियाँ व संस्कृति के मूलभाव को जाने बगैर हम भारत में रहकर उनका अंधानुकरण कर रहे हैं। विश्व के प्रत्येक देश अथवा भू-भाग के लोगों का रहन-सहन तथा खान-पान स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियाँ स्वमेव निर्धारित कर लेती हैं। हमारी भारतीय भौगोलिक परिस्थितियाँ उनसे बहुत भिन्न हैं। संस्कार और संस्कृति अहिंसावादी व उदार है, लेकिन आज के वैज्ञानिक युग ने विश्वस्तरीय नजदीकियाँ बढ़ा दी हैं, जिसके अब फायदे कम नुकसान ज्यादा दिखाई पड़ने लगे हैं। विश्व में बढ़ती वैमनस्यता, प्रतिस्पर्धा, वर्चस्व की भावना और अर्थ की आकांक्षा ने मतभेद और मनभेद दोनों पैदा कर दिए हैं। आज सीधा, सरल, सुखी व शांतिमय जीवनयापन किताबी बातों जैसा हो गया है।

एक जमाने में लोग ताजी हवा, स्वच्छ जल, प्राकृतिक परिवेश, शुद्ध-पौष्टिक-खाद्यान्न, योग, व्यायाम व नियम-संयम पर अधिक ध्यान दिया करते थे। शनैः शनैः यही ऐशोआराम और धनोपार्जन इंसान का ही दुश्मन बनता जा रहा है। स्वास्थ्य को छोड़कर सुख का मोह ही आज इंसान की सबसे बड़ी समस्या बन गई है। बदलती जीवनशैली एवं समयाभाव से उत्पन्न परिस्थितियों पर यदि हम गौर करें तो आज अपनाई जा रही दिनचर्या और रहन-सहन स्वयं को अप्रासंगिक तथा हास्यास्पद लगने लगेगी। हमने सुना है कि एक समय जब हमें पानी पीना होता था तो हमारे घर के लोग कुएँ आदि जलस्रोतों से ताजा-शीतल जल सामने प्रस्तुत कर देते थे। घरों के चारों ओर फलदार तथा छायादार वृक्ष हुआ करते थे। बिना रासायनिक खाद के बाड़ियों व खेतों में सब्जियाँ उपलब्ध रहती थीं। गर्मी में पेड़ों के नीचे शीतल छाया में आराम करना कितना सुखद होता था। आँगन में शीतल मंद पवन व प्राकृतिक वातावरण के आनंद की आज कल्पना ही रह गई है।

आज हमारी जो दिनचर्या है, हम जो करने हेतु बाध्य हैं, यदि चाह लें तो उसे बदला भी जा सकता है। कुछ भविष्यदृष्टा व प्रकृति प्रेमियों ने स्वयं को बदलना भी प्रारंभ कर दिया है। लोग दूषित शहरी जीवन को त्याग गाँवों की ओर पलायन करने लगे हैं। लोग प्रकृति की गोद में वृक्षारोपण, जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने के अभियान में जुट गए हैं। कुछ लोग योग व स्वाध्याय के माध्यम से अपनी जीवनशैली  बदलने में लगे हैं। इस समझदारी की आज सबसे बड़ी जरूरत इसलिए भी है कि ‘जान है तो जहान है’, जब हम ही नहीं रहेंगे तो हमारे द्वारा कमाये गए धन और संसाधनों का क्या औचित्य रहेगा?

सोचिए, अब पहले ताजे और शीतल जल को भूमि से निकालकर छत पर बनी टंकियों में कई दिनों के लिए भंडारण करते हैं। फिर दुबारा फ्रिज में शीतल करने रखा जाता है। तत्पश्चात उसके पीने की बारी आती है। पहले ईंट-कंक्रीट के बने कमरों का निर्माण किया जाता है जहाँ प्राकृतिक वायु, सूर्यप्रकाश और खुलापन नहीं होता। फिर वहाँ कृत्रिम प्रकाश, पंखे, ए.सी. से सामान्य वातावरण का अनुभव कर खुश होते हैं। पहले घरों के वातायन-दरवाजे बंद किये जाते हैं फिर बिजली और पंखों के उपयोग से खुलेपन का अनुभव करते हैं। पेड़-पौधे, पुष्प-लताएँ, पशु-पक्षी व पर्वत-जंगलों की कृत्रिमता से कमरे व हाल सजाकर नकली खुशी पाते हैं। ताजे फल-फूल, जूस व खाद्य पदार्थों को खाने के बजाए उन्हें रसायनों से संरक्षित कर सीलबंद कर उन्हें फ्रिजों और कोल्ड स्टोरों में रखते हैं। फिर रसायनों और संरक्षण अवधि के दुष्परिणामों की चिंता किए बगैर एक्सपायरी डेट के पहले खाकर स्वयं को सुरक्षित मान लेते हैं। चिंतन करने से ही समझ में आएगा कि हम अपने स्वास्थ्य की खातिर तरोताज़ा चीजों के उपयोग हेतु समय न निकालकर अपने ही शरीर को कितनी हानि पहुँचा रहे हैं। अर्थ को जीवन से अधिक मूल्यवान मानकर ऐसी असंयमित जीवनशैली का अभ्यस्त आज का इंसान अपनी बेवकूफियों को बुद्धिमानी समझ बैठा है।

यह बड़ी विडंबना ही कही जाएगी कि इस मानव और मानव समाज के हितार्थ जब प्रकृति अपने खुले हाथों से सब कुछ लुटाना चाहती है, तब भी मानव उसका उपभोग नहीं करना चाहता, लेकिन कुछ ही अवधि पश्चात प्रकृति प्रदत्त इन्हीं चीजों को हमने खाने-पीने की आदत में शुमार कर लिया है, अर्थात ताजी व स्वस्थ चीजें खाने-पीने के लिए हम प्रयास और अवसर भी नहीं निकाल पा रहे हैं।

देखते ही देखते एक शताब्दी में ही हम कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं। इतनी प्रगति और इतना परिवर्तन मानव समाज के स्वास्थ्य को लेकर किया गया होता तो आज मानव जीवन कितना सुखद व स्वस्थ होता? बीमारियों का कहीं नामोनिशान नहीं होता। आज जितना धन स्वास्थ्य को लेकर निजी व शासकीय स्तर पर व्यय किया जा रहा है, उससे हमारी यथार्थ प्रगति को पंख लग गए होते। सारांश यह है कि हमने आज तक स्वार्थान्ध हो जितनी स्वयं की क्षति की है जितने विनाश की ओर अग्रसर हुए हैं, यदि यही क्रम और गति रही तो एक दिन इस मानवीय जीवन की भयावह दुर्गति निश्चित है।

हम कह सकते हैं कि वर्तमान समय उन अंतिम अवसरों में एक उपयुक्त अवसर है जब हम अपनी सोच, अपनी मानसिकता और अपनी जीवनशैली में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं। हमें काम, क्रोध, मद, लोभ, व मोह इन पाँचों विकारों को सीमित व नियंत्रण में रखना होगा, तभी मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध होगी। यदि हम बदलेंगे तो युग निश्चित रूप से बदलेगा, बस शर्त यही है कि दूसरों का इंतजार किए बगैर हमें स्वयं से ही शुरुआत करना पड़ेगी। आज एक नए जीवन, नए समाज और इस नवीन विचारधारा से जुड़ने और जोड़ने का भी समय आ गया है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 32 – बापू के संस्मरण-6 बा और बापू दक्षिण अफ्रीका में ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – बा और बापू दक्षिण अफ्रीका में ”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 32 – बापू के संस्मरण – 6 – बा और बापू दक्षिण अफ्रीका में ☆ 

 

गांधीजी दक्षिण  अफ्रीका  मे सत्याग्रह  चलाने  के सिलसिले मे  गिरफ्तार  होकर फाक्सरस्ट जेल मे  बंद  कर  दिये  गए थे।जेल मे उनके  एक सहयोगी  श्री  वेस्ट  ने उन्हे  तार भेज  उनकी  पत्नी  कस्तूरबा  की बीमारी  की सूचना  दी। गांधीजी  के जेल के सहयोगिओ ने उन्हे सलाह  दी थी  कि वे जुर्माना  अदा  कर  जेल  से बाहर  होकर अपनी  पत्नी  कस्तूरबा  को देख  आयें  लेकिन  गांधी जी ने दृढ़ता  के साथ  इस सुझाव  को खारिज   कर दिया  और 9 नवम्बर 1908 को जेल से ही कस्तूरबा  को एक बहुत मार्मिक  पत्र  लिखा।

गांधीजी अपने  पत्र मे लिखते  हैं  कि  तुम्हारी  तबीयत  खराब  होने  की सूचना  पाकर मेरा हृदय  फटा जा रहा  है  और  मैं  रो रहा हूँ  लेकिन तुम्हारी सुश्रुषा करने  कैसे आऊँ, ऐसी स्थिति  नहीं है।सत्याग्रह  संघर्ष  को मैंने अपना सब कुछ अर्पित  कर दिया है।इस लिए मेरा  आना  नहीं हो सकता।

जुर्माना  दूँ  तभी आ सकता  हूँ  और जुर्माना मुझसे दिया नहीं जाएगा।मेरी बदकिस्मती से कहीं  ऐसा हो कि तुम चल बसो  तो मैं  इतना ही कहूँगा  कि तुम पर मेरा इतना  स्नेह  है कि तुम मर  कर भी मेरे मन मे जीवित  रहोगी।मैं तुम्हें विश्वासपूर्वक  कहता हूँ  कि यदि तुम चली जाओगी  तो मैं तुम्हारे  पीछे  दूसरी  शादी  नहीं करूंगा।ऐसा मैं  कई बार  कह भी चुका  हूँ।

तुम ईश्वर मे आस्था  रखकर  प्राण त्यागना। तुम मर जाती  हो तो यह भी सत्याग्रह  होगा। हमारा  संघर्ष  मात्र राजनीतिक  नहीं  है। यह संघर्ष  धार्मिक  है  इसलिए अत्यंत शुद्ध  है।उसमे मर  जाएँ  तो क्या ,और जीवित  रहे  हो क्या ? आशा है , तुम भी  ऐसा सोंच  कर तनिक भी खिन्न  नहीं होगी। इतना  मैं  तुमसे  मांगे  लेता  हूँ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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