( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सकारात्मक आलेख ‘ये समय है सकारात्मक सोच के क्रियान्वयन का’।)
☆ किसलय की कलम से # 1 ☆
☆ ये समय है सकारात्मक सोच के क्रियान्वयन का ☆
ईश्वर साक्षी है, जिसने समय से सबक नहीं लिया वह सदा ही मुसीबत में पड़ा है। समय सबको एक बार पूर्वाभास अवश्य कराता है, लेकिन अपने में मशगूल आज के इंसान को अच्छे या बुरे वक्त की आहट या दस्तक सुनाई ही नहीं पड़ती। समय जब बुरे वक्त की दस्तक देता है तब हम दुनियादारी के शोर में कुछ सुन नहीं पाते, चिंतन-मनन की बात तो बहुत दूर की है। इसी तरह जब अच्छे वक्त की आहट होती है तब भी हम सुनना नहीं चाहते। उन अच्छे दिनों को ईशकृपा मानने के बजाय स्वयं की उपलब्धि मान बैठते हैं, जबकि यह अच्छा वक्त केवल आपके कर्मों का फल नहीं होता। इसमें हमारे परिवार, हमारे समाज एवं हमारी प्रकृति की भी भागीदारी होती है। यदि इंसान इस सत्सूत्र को जान ले तो वह सभी प्राणियों व प्रकृति से मित्रवत व्यवहार करने लगेगा, इस प्रकार ‘जियो और जीने दो’ वाक्य के चरितार्थ होने देर नहीं लगेगी।
हमने देखा है कि किसी कार्य के प्रारंभ होने से पूर्व ही उस कार्य की परिणति के विचार मानस पटल पर उभरने लगते हैं। ज्ञानवान तो इन विचारों की बारीकियों को पकड़ लेते हैं लेकिन आम आदमी का पूरा ध्यान सफलता के आभासी उत्स में ही डूबा रहता है। वह कमियों को सिरे से नकारता रहता है। यही भ्रम उस कार्य के परिणाम पर भी प्रभाव डालता है।
पेड़-पौधों व जंगलों के घटते क्षेत्रफल से उत्पन्न पानी का अभाव, गर्मी का प्रकोप, शुद्ध वायु की कमी, वन्यजीवों की घटती संख्या एवं पृथ्वी के हठात दोहन से आज प्राकृतिक असंतुलन की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। अब तो आदमी परेशानी महसूस करने लगा है। बुरे वक्त की दस्तकों व चेतावनी सुनकर हमने कोई संतोषजनक कदम नहीं उठाए। बढ़ते कांक्रीट जंगलों, असंयत खानपान की वजह से बीमारियाँ तथा स्वास्थ्यगत कमजोरियाँ बढ़ती जा रही हैं, बावजूद इन सबके इन दस्तकों से किसी ने जीवन शैली में सुधार करने की कोशिश नहीं की।
आज से पचास-साठ वर्ष पूर्व की ही बात करें तो क्या इतनी भयानक और आधिक्य में बीमारियाँ होती थीं। आज तो हम न बीमारियों के नाम और न ही डॉक्टरों के प्रकार गिन पाते। और तो और उस समय के इंसान ने आज पाई जाने वाली बीमारियों की कल्पना तक नहीं की होगी कि ऐसी भी कोई बीमारियाँ हो सकती हैं, जो चमगादड़, सूअर, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली या साँप-बिच्छू के खाने से भी होंगी। सोचते भी कैसे, क्योंकि हमने कभी सुना भी नहीं था कि लोग इन जीव-जंतुओं को कच्चा भी खाते होंगे। हमारे देश में तो ‘अहिंसा परमोधर्मः’ पर चलने वाले लोग वनस्पतियों तक को अनावश्यक क्षति पहुँचाने को हिंसा मानते थे, लेकिन आज ये सब अतीत की बातें हो गई हैं।
वक्त ने दस्तक दी हिंसा बुरी बात है, पर क्या सांप्रदायिक दंगे और आतंकवाद कम हुए? वक्त ने दस्तक दी-प्रेम भाईचारे की, क्या ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के भाव जगे। इसके विपरीत विश्व के विभिन्न देश आज लड़ाई-झगड़े और अपने वर्चस्व की खातिर इंसानियत की हद भी पार करने से नहीं चूक रहे। आज परमाणु युद्ध और स्पेसवार के आगे भी व्यापार युद्ध,पानीयुद्ध और सबसे बड़े युद्ध ‘वायरस वार’ की दस्तक और सुगबुगाहट हम सुन पा रहे है। क्या यह इंसान के लिए अत्यंत संवेदनशील एवं विचारणीय समय नहीं है? आज राष्ट्रीय सीमाओं और हीन विचारों से ऊपर उठकर प्राकृतिक संतुलन को पुनः स्थापित करने का वक्त है। आज कोविड-19 नामक विश्वव्यापी महामारी के चलते जब सारी दुनिया थम सी गई है। आज जैसे हर घर में एक अजीब सा मौन पसरा हुआ है। लोगों की मनःस्थिति का पता लगाना मुश्किल हो गया है। ये ‘किंकर्त्तव्यविमूढ़’ जैसी स्थिति है, परंतु इन दिनों हमारे पास पर्याप्त समय है जब हम मानव जीवन की उपादेयता, शांतिपूर्ण सामाजिक वातावरण तथा प्रकृति से निकटता स्थापित करने विषयक कुछ सकारात्मक चिंतन-मनन कर सकते हैं। कहा भी गया है कि इंसान को दुख या मुश्किल के क्षणों में ही अच्छा-बुरा, सत्य-असत्य, लाभ-हानि कुछ ज्यादा ही दिखाई देने लगता है। विगत जीवन की अनेकानेक यादें स्मृत हो उठती हैं।
अतः ये समय है सकारात्मक सोच के क्रियान्वयन का। हम समय निकालकर अपने जीवन की उपादेयता व सामाजिक सद्भावना पर चिंतन-मनन करें और उस पर अमल करना आज से ही प्रारंभ करें। मुझे विश्वास है इससे हमारे मन निर्मल होंगे और मानव समाज निश्चित रूप से सकारात्मक दिशा में अग्रसर होगा।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
आज इसी अंक में प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की कविता “ चुप्पियाँ“ का अंग्रेजी अनुवाद “Silence” शीर्षक से । हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने इस कविता का अत्यंत सुन्दर भावानुवाद किया है। )
☆ संजय दृष्टि ☆ मालामाल ☆
ऐसी ऊँची भाषा लिखकर तो हमेशा कंगाल ही रहोगे।….सुनो लेखक, मालामाल कर दूँगा, बस मेरी शर्तों पर लिखो।
लेखक ने भाषा को मालामाल कर दिया जब उसने ‘शर्त’ का विलोम शब्द ‘लेखन’ रचा।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
आदरणीय श्री अरुण डनायक जी ने गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर 02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है. लेख में वर्णित विचार श्री अरुण जी के व्यक्तिगत विचार हैं। ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक दृष्टिकोण से लें. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ प्रत्येक बुधवार को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मेरे घर में यह कलह नहीं चल सकता”)
☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर विशेष ☆
☆ गांधी चर्चा # 29 – बापू के संस्मरण – 3- मेरे घर में यह कलह नहीं चल सकता ☆
गांधीजी डरबन में वकालत करते थे । उनके मुंशी भी प्राय: उन्हीं के साथ रहते थे । उसमें हिन्दू, ईसाई, गुजराती, मद्रासी सभी धर्म और प्रान्तों के व्यक्ति होते थे । गांधीजी उनके साथ किसी तरह का भेद-भाव नहीं रखते थे उन्हे अपने परिवार के रुप में ही मानते थे । जिस घर में वह रहते थे, उसकी बनावट पश्चिमी ढंग की थी, कमरों में नालियां नहीं थी, पेशाब के लिए खास तरह के बरतन रखे जाते थे, उन्हें नौकर नहीं उठाते थे, यह काम घर के मालिक और मालकिन करते थे । जो मुंशी घर में घुल-मिल जाते थे, वें अपने बरतन स्वयं ही उठा ले जाते थे । एक बार एक ईसाई मुंशी उनके घर में रहने के लिये आया उसका बरतन घर के मालिक और मालकिन को ही उठाना चाहिए था लेकिन कस्तुरबा गांधी ने इस मुंशी का बरतन उठाने से इंकार कर दिया। वह मुंशी पंचम कुल में पैदा हुआ था उसका बरतन बा कैसे उठाती! गांधीजी स्वयं उठावें, यह भी वह नहीं सह सकती थीं । इस बात को लेकर दोनों में काफी झगड़ा हुआ बा बरतन उठाकर ले तो गई, लेकिन क्रोध और ग्लानि से उनकी आंखे लाल हो आई । गांधीजी को इस तरह बरतन उठाने से संतोष नहीं हुआ वह चाहते थे कि बा हंसते-हंसते बरतन ले जायें, इसलिये उन्होंने ऊंचे स्वर में कहा, “मेरे घर में यह कलह नहीं चल सकता” । ये शब्द बा के हृदय में तीर की तरह चुभ गये वह तड़प-कर बोलीं, “तो अपना घर अपने पास रखो मैं जाती हूँ” । गांधीजी भी कठोर हो उठे क्रोध में भरकर उन्होंने बा का हाथ पकड़ा और दरवाजे तक खींचकर ले गये । वह उन्हें बाहर कर देना चाहते थे, लेकिन जैसे ही उन्होंने दरवाजा खोला अश्रुधारा बहाती हुई बा बोलीं, “तुमको तो शर्म नहीं है, लेकिन मुझे है जरा तो शर्माओ मैं बाहर निकलकर कहाँ जाऊं यहाँ मेरे मां-बाप भी नहीं हैं, जो उनके घर चली जाऊं । मैं स्त्री ठहरी तुम्हारी धौंस मुझे सहनी होगी अब शर्म करो और दरवाजा बंद कर दो कोई देख लेगा तो दोनों का ही मुंह काला होगा” । यह सुनकर मन-ही-मन गांधीजी बहुत लज्जित हुए उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया सोचा–अगर पत्नी मुझै छोड़कर कहीं नहीं जा सकती तो मैं भी उसे छोड़कर कहाँ जानेवाला हूँ ।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि ☆ शिक्षा – दीक्षा ☆
जो धान बोता है, उसके खेत में धान लहलहाता है। गेहूँ बोने वाला, गेहूँ की फसल पाता है। जिसने चना रोपा, उसने चना काटा। आम उगाने वाला आम का स्वामी हुआ। दीक्षा, जीवन को सरलता और सहजता प्रदान करती है। सरल और सहज के घर आनंद वास करता है।
शिक्षित ईर्ष्या बोता है, सम्मान काटना चाहता है। षड्यंत्र रोपता है, यश उगा देखने की इच्छा करता है। पैसा, पद, जुगाड़ से बनी अपनी अस्थायी स्थिति से स्थायी लाभ लेना चाहता है। बीज के तत्व और कोख में होनेवाली प्रक्रिया परिवर्तित करने की विफल कुचेष्टा, कुंठा और अवसाद को घर करने देती है।
सुना है कि सरकार बच्चों के ऑनलाइन अध्ययन अभियान का नामकरण ‘दीक्षा’ करने जा रही है। काश सारे शिक्षित, दीक्षित हो सकें!
( कविता-संग्रह *चुप्पियाँ* से।)
( 2.9.18, प्रातः 6:59 बजे )
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। आज प्रस्तुत है एक आलेख “अमेज़न किंडल – अपने मोबाईल पर ईबुक्स पढ़ें ”। अभी भी 60 प्रतिशत से अधिक लेखक पाठक विशेषकर मेरी समवयस्क पीढ़ी सोचती है कि अमेजन किंडल ईबुक्स पढ़ने के लिए उन्हें अमेजन किंडल रीडर खरीदना पड़ेगा। ऐसी कई भ्रांतियां और आपको ईबुक्स की दुनिया से रूबरू कराने का एक छोटा सा प्रयास। अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 17 ☆
☆ आलेख – अमेज़न किंडल – अपने मोबाईल पर ईबुक्स पढ़ें ☆
आज सारा विश्व एक विचित्र समय से गुजर रहा है। जैसा उन्मुक्त जीवन हम सब व्यतीत कर चुके हैं वैसा पुनः जी भी पाएंगे यह हमें स्वप्न सा प्रतीत हो रहा है। आज जब हम सुबह उठकर आदतन चाय के साथ समाचार पत्र पढ़ने के लिए समाचार पत्र उठाने के लिए हाथ बढ़ाते हैं तो मन में पहले यह विचार आता है कि समाचार पत्र को सेनिटाइज़ कैसे करें। इस चक्कर में लोगों ने समाचार पत्र के स्थान पर मोबाइल पर ई-समाचार पत्र पढ़ना प्रारम्भ कर दिया है अथवा टेलीविज़न पर समाचार देखना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। अब तो यूट्यूब पर भी वरिष्ठ पत्रकारों ने अपने यूट्यूब समाचार चैनल बना लिए हैं।
अब रही पुस्तकों के प्रकाशन की बात तो यह तय है कि अन्य उद्योगों कि तरह प्रकाशन उद्योग को भी पटरी पर आने में समय लगेगा। आपको अपनी ही पुस्तक को छूने से पहले लगेगा कि इसे सेनीटाइज़ कैसे करें और जिसे आप पुस्तक देंगे वह उसे कैसे स्वीकारेगा? यह भविष्य ही बताएगा। ऐसे में ई-बुक व्यवसाय निश्चित ही एक क्रांतिकारी कदम है।
यदि आपको ईबुक्स के इतिहास जानने में रुचि है तो आप गूगल में सर्च कर सकते हैं अथवा U.S. Government Publishing Office’s (GPO) Government Book Talk! के निम्न लिंक कर क्लिक कर विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं:
इसमें कोई दो मत नहीं कि पुस्तक का प्रिंट एडिशन ही सबको भाता है और किसी भी लेखक को अपनी पुस्तक के पेपरबेक या सजिल्द संस्करण को भेंट करने में गर्व का अनुभव होता है। किन्तु, आज पुस्तक प्रकाशन पहले जैसा नहीं रहा जब पुस्तक की गुणवत्ता के आधार पर पुस्तक का प्रकाशन होता था और उसके अनुरूप लेखक को रॉयल्टी प्राप्त होती थी।
आज सेल्फ पब्लिशिंग का समय है। लेखक को अपनी पुस्तक स्वयं के खर्च पर प्रकाशित करनी होती है और स्वयं ही सोशल मीडिया का सहारा लेकर बेचनी होती है, या मुफ्त में बांटनी होती है।
ऐसे समय में लेखकों के लिए ई-बुक एक वरदान है। यदि आपको ई-बुक्स की तकनीकी जानकारी है तो आप इस प्रणाली का बेहतर उपयोग कर सकते हैं। यह सुविधा अमेज़न द्वारा मुफ्त में उपलब्ध है, जिसे किंडल डाइरेक्ट पब्लिशिंग के नाम से जाना जाता है। आप इसकी विस्तृत जानकारी kdp.amazon.com पर प्राप्त कर सकते हैं। इस माध्यम से आप अपनी पुस्तकों को अमेजन की आवश्यकतानुसार उनके द्वारा तय मानकों में वर्ड फॉर्मेट में पुस्तक तैयार करने के पश्चात् अमेजन में अपलोड कर मुफ्त में ई-बुक के रूप में प्रकाशित कर अमेज़न पर बेच सकते हैं। अमेज़न प्लेटफॉर्म वर्तमान में लेखकों को गुजराती, हिन्दी, मलयालम, मराठी और तमिल भाषाओं में ईबुक्स प्रकाशित करने की सुविधा देता है।
लेखक अपनी अङ्ग्रेज़ी पुस्तकों को ईबुक्स और पेपरबेक दोनों संस्करण मुफ्त में प्रकाशित कर सकते हैं। किन्तु, भारत में अङ्ग्रेज़ी का प्रिंट संस्कारण उपलब्ध नहीं है। अभी भारतीय भाषाओं में अमेज़न द्वारा भारत में पेपरबेक संस्कारण की सुविधा उपलब्ध नहीं हैं। सार यह है कि वर्तमान में आप उपरोक्त पाँच भारतीय भाषाओं में ईबुक्स मुफ्त में प्रकाशित कर सकते हैं। प्रत्येक लेखक का डेशबोर्ड होता है जिसमे वे अपने बुकशेल्फ विक्रित पुस्तकों का लेखा जोखा देख सकते हैं । अमेजन द्वारा निर्धारित रॉयल्टी लेखक के खाते में जमा कर दी जाती है। ईबुक प्रकाशन एक अलग विषय है, जिसकी संक्षिप्त जानकारी मैंने आपको देने का प्रयास किया है। यदि लेखक/पाठक चाहेंगे तो इसकी जानकारी भविष्य के लेखों में दी जा सकती है।
जब मैंने लोगों से ईबुक्स के बारे में जानना चाहा तो पता चला कि 25% युवा पीढ़ी के लेखकों को ईबुक्स की बेहतर अथवा सतही जानकारी है। किन्तु, 80% प्रतिशत से अधिक लेखक/पाठक इस प्रक्रिया से अनभिज्ञ हैं, विशेषकर मेरी समवयस्क पीढ़ी। मेरे कई समवयस्क मित्रों की पुस्तकों को प्रकाशक ने पेपरबेक और ईबुक फॉर्मेट में प्रकाशित किया है किन्तु जानकारी के अभाव में उन्होंने अपनी पुस्तकों का मात्र पेपरबेक संस्करण ही पढ़ा है और ईबुक अब तक नहीं पढ़ सके हैं। यहाँ हम ईबुक्स को एक पाठक के दृष्टिकोण से देखना चाहेंगे।
यदि हम ईबुक को संक्षिप्त में जानना चाहेंगे तो ईबुक, सामान्य बुक अथवा पुस्तक का डिजिटल संस्करण है। ईबुक को आप वैसे ही पढ़ सकते हैं जैसे आप एक सामान्य पुस्तक पढ़ते हैं। बिलकुल वैसे ही पृष्ठ पलटकर पढ़ सकते हैं जैसे आप सामान्य पुस्तक के पृष्ठ पलटकर पढ़ते हैं।
आप अपनी पुस्तक को उँगलियों से स्क्रीन पर स्पर्श कर वैसे ही पलटा सकते हैं जैसे आप पुस्तक के पृष्ठ पलटते हैं ( कृपया उपरोक्त चित्र देखें )
अब तो ऐसी ईबुक्स भी आ गईं हैं जिन्हें आप इयरफोन से बिना पढे आडिओ बुक की तरह सुन भी सकते हैं। ईबुक में आवश्यकतानुसार चित्र, ग्राफ, चार्ट आदि भी डाल सकते हैं। पुस्तक इसके अतिरिक्त आप ईबुक्स में आडिओ, यूट्यूब विडियो या इंटरनेट के किसी भी साइट के लिंक्स दे सकते हैं और पुस्तक पढ़ते हुए उस इंटरनेट साइट पर जाकर वापिस पढ़ना जारी रख सकते हैं। बच्चों के लिए इंटरैक्टिव ईबुक्स भी बाजार में उपलब्ध हैं।
साधारणतया ईबुक EPUB, MOBI, AZW, AZW3, PDF, IBA (iBook), PDF आदि कई फॉर्मेट में उपलब्ध हैं। IBA (iBook) आईफोन अथवा आईपेड पर पढ़ने वाले ईबुक का फार्मेट है। AZW और AZW3 अमेज़न ईबुक के फॉर्मेट हैं। किसी भी ईबुक को पढ़ने के लिए आपको रीडर डिवाइस की आवश्यकता होगी। अमेज़न ईबुक के लिए किंडल रीडर डिवाइस उपलब्ध है। EPUB सबसे लोकप्रिय ईबुक फॉर्मेट है।
यहाँ हम अमेज़न किंडल ईबुक को अपने एंड्रोएड फोन पर कैसे पढ़ें इसकी जानकारी साझा करने का प्रयास करेंगे।
अमेजन एप्प्स >>>>
आपके एंड्रोएड मोबाइल फोन पर अमेज़न किंडल ईबुक पढ़ने के लिए दो मुख्य एप्प होने चाहिए –
अमेज़न किंडल – रीड ईबुक्स, कॉमिक्स अँड मोर (Amazon Kindle – Read eBooks, comics & More App)
उपरोक्त प्रथम अमेज़न शॉपिंग एप्प से आप ईबूक खरीद सकते हैं और दूसरे अमेज़न किंडल एप्प से आप ईबुक पढ़ भी सकते हैं और खरीद भी सकते हैं।
इस प्रक्रिया में यह आवश्यक है कि जब आप एप्प अपने मोबाइल पर इन्स्टाल करेंगे तो दोनों एप्प में मोबाइल फोन नंबर तथा ईमेल आईडी एक ही होने चाहिए। एप्प इन्स्टाल करने के लिए आपको गूगल प्ले स्टोर में जाना पड़ेगा और उपरोक्त एप्प के नाम डालकर सर्च कर इन्स्टाल करना पड़ेगा।
आज ऑनलाइन शॉपिंग करने वाले 99.9 प्रतिशत क्रेता अमेज़न एप्प से परिचित हैं। यदि मेरी समवयस्क पीढ़ी के मित्रों को इसकी जानकारी नहीं है तो इसके लिए अपने परिजनों या मित्रों से जानकारी लेनी चाहिए जो ऑनलाइन शॉपिंग से परिचित हैं अथवा एप्प का उपयोग करते हैं। जैसा कि मैंने ऊपर बताया है। जब आप ऑनलाइन प्रक्रिया से भलीभाँति परिचित हो जाते हैं तो आप अमेज़न किंडल एप्प से ही सीधे पुस्तक क्रय कर सकते हैं क्योंकि उसमे भी अमेज़न शॉपिंग एप्प की तरह पुस्तक खरीदने के लिए शॉपिंग कार्ट और भुगतान की सुविधा रहती है।
एक बार एप्प आपके मोबाइल पर इन्स्टाल हो गया फिर ईबुक खरीदना अत्यंत आसान है। आपको जिस लेखक की ईबुक क्रय करना है उस लेखक का नाम डालकर सर्च करें तो आपके स्क्रीन पर उस लेखक कि सभी पुस्तकें दिखाई देंगी। (कृपया निम्न चित्र देखें ) जिस पुस्तक को आप क्रय करना चाहते हैं उस पर क्लिक कर शॉपिंग कार्ट में जोड़ दें और पेमेंट गेटवे के माध्यम से पेमेंट कर दें।
आप पेमेंट गेट वे से जैसे ही भुगतान करते हैं संबन्धित पुस्तक आपके अमेज़न किंडल रीड एप्प में सिंक्रोनाइज होकर अपने आप आ जाती है जिसे आप अपनी सुविधानुसार कभी भी पढ़ सकते हैं।
यहाँ हमने अमेज़न किंडल ईबुक की चर्चा की है। यदि आप एक तकनीक से वाकिफ हो जाते हैं तो बाजार में उपलब्ध अन्य तकनीकों का उपयोग कर सकते हैं। इसी तरह गूगल प्ले बुक्स – ईबुक्स, आडिओ बुक्स अँड कॉमिक्स एप्प और विभिन्न ईबुक रीडर बाजार में उपलब्ध हैं।
ईबुक की सबसे बड़ी सुविधा यह है कि आपको अपने साथ बड़ी बड़ी पुस्तकें लेकर नहीं जाना है और न ही अपने घर में पुस्तकालय बनाना है । आपकी जेब में आपका मोबाइल ही आपकी ईबुक्स का बुक शेल्फ / पुस्तकालय है। फिर एक बार ईबुक आपके मोबाइल में लोड हो गई उसके बाद उसे पढ़ने के लिए आपको इंटरनेट की भी आवश्यकता नहीं है। ये आपके मोबाईल की मेमोरी का ज्यादा स्थान भी नहीं लेतीं और आवश्यकता पड़ने पर आप उन्हें मेमोरी कार्ड में लोड भी कर सकते हैं। हाँ यदि आपकी ईबुक में कोई आडिओ या यूट्यूब विडियो लिंक है तो आपको इंटरनेट की आवश्यकता पड़ सकती है। आज नहीं तो कल अमेजन अवश्य अन्य देशों की भांति भारत में भी अंग्रेजी पुस्तकों का पेपर बेक संस्करण ईबुक के साथ में लाएगा ऐसी कल्पना है। कुछ भारतीय प्रकाशक यह तकनीक अपना रहे हैं किन्तु,, वे लेखकों के लिए अत्यंत महँगी हैं अथवा उन्हें एक निश्चित संख्या में पुस्तकें मजबूरन प्रकाशित करना अनिवार्य होता है। आज का समय निश्चित ही ईबुक का है और लेखक किसी भी तरह से प्रकाशक पर निर्भर नहीं रह सकेंगे।
(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव। वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत। इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –
आज जब हम सब मानवता के एक कठिन समय से गुजर रहे हैं, ऐसे में आपका समसामयिक आलेख सामयिक संदर्भ और युवा पीढ़ी निश्चित ही युवाओं में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करेगा। हम भविष्य में आपसे ऐसे ही सकारात्मक साहित्य कि अपेक्षा करते हैं। इस अतिसुन्दर आलेख के लिए आपकी लेखनी को सादर नमन। )
☆ सामयिक संदर्भ और युवा पीढ़ी ☆
बीत गया एक और दिन…. !! कैसा मंज़र है यह… हम तालाबंदी में साँसें ले रहे हैं। घरों में सुरक्षित हैं और बाहर असुरक्षित! अबतक कभी नहीं जाना नहीं था कि दिन क्या गिनना क्या होता है? अभी अभी तक व्यस्तताओं में दिन फूर्रर्र से उड़ जाया करते थे। एक दिन होता था ‘रविवार’ का .. राहत का… आराम का…खुशी का। अब हर दिन रविवार हो गया है। हमारे जीवन में रविवार का एक विशेष अर्थ है। उसके कई आयाम होते हैं। रविवार यानि छुट्टी ! कोई आपा धापी नहीं। कोई होड़ हडबडी नहीं। कोई व्यस्तता नहीं। यह दिन होता है अलसाने का… लंबी साँस लेकर फिर से बिस्तर पर पसर जाने का.. फूर्सत का! नरेश मेहता ने शायद इसी कारण अपनी एक कविता में प्रिया से कहा था, “एक रविवार बनकर आओ”! कहना यही है कि जब हर दिन रविवार हो जाता है तो उसका महत्व घट जाता है। इन दिनों हम सब हर रोज ‘रविवार’ को जी रहे हैं… और इस ‘रविवार’ से ऊब भी रहे हैं। हमने अब दिन गिनना शुरु किया है। जैसे जैसे दिन गुज़र रहे हैं मन उदास होता जा रहा है। निराशा का कुहासा गहन होता चला जा रहा है। जीवन की गति एकदम से रुक गयी है। मन को कितना भी क्यों न समझाऊँ, कितना भी व्यस्त क्यों न रखूँ, मन का एक कोना बहुत अधिक हताश और निराश ही हो रहा है। आए दिन आनेवाली खबरों से मन और बैठा जा रहा है। ऐसे समय मेरे सामने आ जाती है आज की युवा पीढ़ी। वह युवा पीढ़ी जो तालाबंदी के कारण घरों में कैद है।
हमारा देश युवाओं का देश है। बल्कि युवाओं के मामले में विश्व में हमारा देश सबसे समृद्ध है। दुनिया में सबसे अधिक युवा हमारे देश में हैं। किंतु युवा महज एक उम्र नहीं है। उससे भी अधिक कुछ है। युवा जिसमें असीमित संभावनाएं होती हैं, रचनात्मकता होती है, जिनमें कल्पना की ऊँची उड़ान होती है। ।युवाओं में होती है असीम उत्सुकता, बेहोशी, जोश और उतावलापन। यह आयु होती है ऊर्जा से भरपुर। यह वह युवा है जो सपने देखने और उसे पुरा करने की हिम्मत रखता है। किंतु आज की इस दारुण स्थिति में यह युवा पीढ़ी, उनका सारा गणित ही बदल जाने के कारण असंमजस की स्थिति में हैं। क्या करें… कैसे करें.. कहाँ जाय.. कैसे जाय… ऐसे कई सारे सवाल उनके मूँह बायें खडे हैं। भले ही अभी उनके मूँह से इन प्रश्नों की बौछार नहीं हो रही हैं, किंतु उनका मन बहुताधिक हताश है। सारी परीक्षाएँ आगे बढ गयी है। शिक्षा सत्रों का कैंलडर बदलता जा रहा है। पढाई में लगे हुए हैं पर अभी भी असंसजस में हैं। भले ही इंटरनेट के माध्यम से कई सारी जानकारी हासिल कर रहे हैं। जानकारियों से लैंस हैं पर इसका करें क्या? इतना ही नहीं इस तालेबंदी के चलते कई युवाओं की नोकरियों पर गाज़ गिर रही है। अनेक ऐसे युवा ऐसे भी हैं जिनकी शादी भी होने वाली थी, लेकिन अब अनिश्चित काल के लिये विवाह की तारीखें आगे बढ़ानी पड रही हैं।
आज कोरोना के संक्रमण से देश के देश उसकी चपेट में आ चुके हैं। सारी आर्थिक व्यवस्था चरमरा रही हैं और हम समय के पीछे चलने लगे हैं। इस सच्चाई से अब हर कोई अवगत है। जिन युवाओं ने अपनी आँखों में भविष्य के सुनहरे सपने संजोए थें, जिन आँखों में एक नया जीवन करवट ले रहा था, जिनके लिए आसमान को अपने आलिंगन में लेने की चाह थी, वह युवा वर्ग आज किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में आ गया हैं।
जब यह महामारी बिना दस्तक दिए हमारे जीवन में घुस गयी हैं तब से हमारे जीवन की दिशा ही बदल गयी है। सोशल लाइफ के आदी युवाओं को सोशल डिस्टनसिंग का कल्चर अपनाना पड़ रहा है। पश्चिम की देखा देखी गले लगना, हाथ मिलाना, गलबाहियाँ डालना आदि की जो वृत्ति युवाओं में आ गयी है, उन्हें अब दो गज देह की दूरी को स्वीकारना पड़ रहा है। वे आज न किसी से मिल पा रहे हैं… न किसी से मुलाकात हो पा रही है। न वीक एंड की पार्टी है और ना ही घूमने जाने ही योजना, न शॉपिग है ना लॉंग ड्राईव है, ना पानी पुरी है ना चाट है। कुछ नहीं, है तो बस हाथ में मोबाईल है और जिसके माध्यम से जुडे है अपने अपने संसार से!
पिछले दो चार दिन से विश्वविद्यायल जा रही हूँ। तैंतीस प्रतिशत कर्मचारियों को ड्युटी पर जाना है। तो जा रही हूँ। गत बीस सालों से यह कैंपस मेरे जीवन का अहम हिस्सा रहा है। सच कहती हूँ, काफी दिनों बाद जब गयी तब प्राकृतिक सुंदरता के बावजूद कैंपस में मन नहीं लगा था। विश्विविद्यालय की ‘जान’ वे बच्चे ही वहाँ नदारद थे। कक्षाएँ खाली पडी थीं, कैंटिन की कुर्सियाँ उदास पडी थीं। पैरापीट उजाड से लग रहे थे। पेडों के नीचे के बेंचिस पर जहाँ सारे छात्र छात्राएं हँसते खेलते रहते थे, गप्पे लगाते बैठा करते थे आज एकदम वीरान लग रहे थे। वहाँ पसरी पडी हरी दूब अपने छोटे छोटे सिर उठाकर मानों उनके आने का इंतजार कर रहीं थी। वह स्कूल, कॉलेज ही क्या. जहाँ विद्यार्थी ही ना हो?
यह युवापीढ़ी आज करोना की बदौलत घरों में कैद हैं। उनके आँखों में कुछ प्रश्न उभरते हैं, पर जूबाँ पर नहीं आते, आखिर हम कबतक इंटरनेट पर सर्फिंग करें? कबतक आँनलाईन पढाई करें?.. ऑनलाईन पढाई भी क्या पढाई है? .. क्लास में बैठकर टीचर्स के लेक्चर्स सुनना, बोर्ड-चॉक से विषय का समझाना और समझना अलग ही होता है। और तो और क्लास का अपना एक ‘क्लास रुम कल्चर’ भी तो होता है। टिचर्स पर कमेंट करना, फुसफुसाना, टिचर्स के देखते ही चुप होना, और उनकी पीठ होते ही फिर बोलना, मुस्कुराना… यह सब आँन लाईन कक्षाओं में कैसे संभव हैं? ऑनलाइन क्लास में तो बस टीचर्स की आवाज़ साफ सुनाई दे इसलिए सबको म्यूट किया जाता है, सबके विडीओ स्टॉप किए जाते हैं… और चलती रहती हैं एक तरफा क्लास…पहले पहले तो अच्छा लगा… फिर वही मनोटोनोस हो गया तो इससे भी उकता गए!
सुवह पीठ पर बैकपैक डालकर निकला हुआ बच्चा शाम देर से थका हारा घर आ जाता है तो उसके लिए घर ‘राहत’ का स्थान था। किंतु इन दिनों मात्र घर ही सीमांत हो गया है। टी. वी की खबरें और इंटरनेट की जानकारियाँ और भी दहला देनेवाली होती हैं तो अपना घर की स्वर्ग लगने लगता है। पीज्जा, बर्गर, पानी पुरी, इडली दोसा, नुडल्स से अपना पेट भर लेनेवाले इन युवाओं को अब घर की दाल रोटी से काम लेना पड़ रहा है। याद तो आती है फास्ट फूड की किंतु भय भी है कि उतने ही ‘फास्ट’ यह ‘फूड’ करोना का संक्रमण घर लेकर आएगा। इसलिए अपने जीवन में ‘भय’ के साथ आयी इस ‘ऊब’ को वे अपने ‘इनोवेटीव’ अंदाज में अभिव्यक्त कर रहे हैं। फिर वह टीक टॉक का विडिओ हो, अपनी बनायी बिर्यानी हो या ऑस्ट्रेलिया के नक्शे की तरह बनायी रोटी हो उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट कर अपने सोशल लाइफ को maintain भी कर रहे हैं। युवा ही नहीं घर में बंद लगभग सब के सब सोशल मीडिया पर अपनी अदाकारी की तसवींरें साझा कर रहे हैं।
इस युवापीढ़ी को अब अपनों का, अपने रिश्तों का सही अर्थ, उनके सही मायने समझ आ रहे हैं, घर की रोटी का असली स्वाद भी समझ आ रहा है, असकी अहमियत भी पता लग रही है…किंतु भीतर से उनका मन-पाखी उड़कर बाहर जाना चाहता है… चार दीवारों से बाहर.. आसमान को नापना चाहता है।
किंतु इसके साथ साथ सिक्के का एक और पहलू भी है। युवा और विकास एक दूसरे के पूरक हैं। युवा आज और कल के भी नेता हैं। यह युवा पीढ़ी विश्व का वर्तमान तो है ही, भविष्य भी है। कोरोना संक्रमण के कारण युवाओं के व्यक्तित्व का एक पहलू मुझे बहुत बहुत भाया, और वह है उनके भीतर की इन्सानियत का, उनके भीतर के दयाभाव का और करुणाभाव का। आज इस करोना काल के वे ‘वॉरियर’ हैं। अच्छा लगता है, मन भर आता है, अपने उत्तरदायित्व के प्रति उनकी सजगता देखकर दिल से उनके लिए दुआ निकलती है।
मेरा एक छात्र है.. समाजसेवा में तत्पर। कोराना के कारण अपने गाँव में बंद हो गया है। मैंने हरबार उसे दूसरों की मदद करते हुए देखा है। इस संकट की स्थिति में एक गर्भवती महिला को अपने गाँव से शहर तक लाने के लिए बिना अपने स्वास्थ्य की परवाह किए सहायता के लिए दौड़ पड़ा। मैंने देखा है मेरे अपने भाई को जो चिलचिलाती धूप में अपना कर्तव्य शिद्दत से निभानेवाले पुलिसकर्मियों के लिए पानी मुहैय्या कराता है। देखा है उस युवा को जो अपनी स्कूटर पर मरीज को बिठाकर अस्पताल लिए जा रहा है। देखा है, इस युवा पीढ़ी को जो इस आपदा के काल में भूखों को खाना खिला रही हैं। सड़क पर आवारा घूमनेवाले बेज़ुबान पशुओं को दाना,पानी, चारा और खाना दे रहे हैं। यही वह युवा है देश का, जो सारे संकटों का सामना करते हुए निकल पड़ा है अपने देश को संभालने! जिताने! कोराना के प्रकोप ने सारी दुनिया पर कहर ढाया है। किंतु युवा पीढ़ी ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए एक नया रूप दिखाया है। कई डाक्टरों, नर्सों, पुलिसकर्मिंयों और सुरक्षाकर्मियों ने अपनी जान की बाजी लगाकर मोर्चा संभाला है और उनके दृढविश्वास और समर्पण ने एक बार और साबित कर दिया है कि युवा देश का भविष्य है। भले ही अब दिन उतने सहज नहीं है किंतु भारत की युवा पीढी देश को नई ऊँचाई पर ले जा रही है। यह ऊंचाई है परस्पर सहयोग की, करुणा की, मदद की, आत्मभाव की, रचनात्मक विचार की, जुडने की और जोडने की। इसलिए आज वह अपने देश के भविष्य और उम्मीद की शक्ति है।
अक्सर पुरानी पीढ़ी आनेवाली पीढ़ी में नुख्स देखती ही। आज भले ही दौर बदला है, सदियाँ बदली हैं पर बदली नहीं है तो युवाओं के प्रति हमारी शिकायतें। इनको अक्सर नकारात्मक और परिवेश के प्रति उपेक्षा का भाव रखनेवाली पीढ़ी माना जाता रहा है। लेकिन कोरोना महामारी के इस संकट में युवा पीढ़ी का यूं आगे आना और सकारात्मक कार्य में भागीदार बनना सराहनीय ही है। उनके इस कार्य ने हमारी बुजर्आ सोच को बदला है। उनका यह सहयोग और उनकी समझ कितनों के लिए अनुकरणीय है। विश्व भर में फैली इस महामारी के प्रकोप में हमारे गांवों से लेकर महानगरों तक युवा पीढ़ी पूरी एहतियात के साथ लोगों की मदद में जुटी हुई हैं। इतिहास गवाह है कि प्राकृतिक आपदाओं के समय में देश के युवाओं ने हमेशा अपना योगदान दिया है। भूकंप, बाढ़ या फिर कोई दुर्घटना ही क्यों न हो युवाओं को पीड़ितों की मदद करते हुए देखा गया है। इस संक्रमण के संकट के समय युवा कई तरह से देश और समाज एक लिए सहायक बन हुए हैं। अपने तईं युवा अपनी अपनी सोच के बल पर कोरोना से लड़ाई लड़ रहे हैं।
आज कोराना से मनुष्य का अस्तित्व खतरे में आ गया है। किंतु मनुष्य में बहुत अधिक जीवतता है। वह कोरना से नहीं हारेगा। भले ही कोरोना मनुष्य को मारने पर आमादा हो जाए पर मनुष्यता का संबल लेकर चलने वाली युवापीढ़ी उसे हरा देगी। क्येंकि यह पीढ़ी चिंतित भी है और समर्पित भी है। उनका यह स्वार्थरहित कार्य ऐसे समय में भी हमारे होठों पर हल्की सी मुस्कुराहट लाता है और ह्दय में उम्मीद जगाता है।
अंत में हरिवंश राय बच्चन की कुछ पंक्तियाँ जो मुझे इस वक्त बहुत प्रासंगिक लग रही है उसे उद्घृत कर रही हूँ,
तू न थकेगा कभी/तू न रुकेगा कभी /तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
यह महान दृश्य है/चल रहा मनुष्य है/ अश्रु स्वेद रक्त से,
लथपथ लथपथ लथपथ,
अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनके स्थायी स्तम्भ “आशीष साहित्य”में उनकी पुस्तक पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक महत्वपूर्ण एवं ज्ञानवर्धक आलेख “स्थूल और सूक्ष्म ब्रह्माण्ड”। )
मैंने आपको शरीर की तीन मुख्य नाड़ियों के विषय में बताया था। इन तीनों नाड़ियों की तुलना भारत की तीन मुख्य नदियों के साथ कर सकते हैं गंगा इड़ा है, यमुना पिंगला और सरस्वती सुषुम्ना नाड़ी है । कलियुग में इन नाड़ियों के कर्म इनके नामों के अनुसार ही समझ सकते हैं । इन दिनों कोई भी नहीं या बहुत कम लोग आध्यात्मिक रूप से दिनचर्या जीते हैं, जिसका अर्थ है सुषुम्ना नाड़ी या सरस्वती नदी में कोई प्रवाह नहीं है क्योंकि सुषुम्ना नाड़ी किसी भी व्यक्ति के जीवन के अध्यात्म को दर्शाती है । सरस्वती नदी की वास्तविक उपस्थिति की स्थिति के विषय में भी यह सत्य है । कलियुग में सरस्वती नदी लगभग लुप्त हो गयी है ।
अब इड़ा नाड़ी या गंगा नदी को ले लो जो मानसिक गतिविधियों को दर्शाती है । आजकल हमारे विचार शुद्ध नहीं हैं, और वास्तविक गंगा नदी भी बहुत ज्यादा प्रदूषित हो गयी है । पिंगला नाड़ी या यमुना नदी के साथ भी सामान परिस्थिति है, आजकल लोग शारीरिक रूप से तंदरुस्त नहीं हैं । उन्हें हर दिन पैदा होने वाली कई नई बीमारियां होती रहती हैं । पिंगला नाड़ी शारीरिक शक्ति या सूर्य ऊर्जा होती है । तो फिर इन दिनों पिंगला नाड़ी और यमुना नदी शुद्ध नहीं रह गयी है । इसी तरह मानव शरीर में उपस्थित सभी नाड़ियाँ वास्तव में भारत की प्राचीन नदियाँ ही हैं । मैं वेदों, पुराणों आदि में उल्लिखित नदियों के विषय में बात कर रहा हूँ ।
पर क्या कारण है कि ये नदियाँ केवल भारत में है दुनिया में अन्य कहीं नहीं? क्योंकि उस समय सभ्यता केवल भारत में ही उपस्थित थी । जिसकी सीमाएं भारत के इन दिनों की भौगोलिक सीमाओं से बहुत अलग थी, और इसमें एशिया, यूरोप, अफ्रीका आदि के भौगोलिक क्षेत्र भी शामिल थे । और उस समय लगभग पूरी मानव आबादी उस समय के भौगोलिक भारत में ही बसी थी । कृष्णा, कावेरी, सरयू इत्यादि जैसी सभी भारतीय नदियाँ वास्तव में मानव शरीर की नाड़ियों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । यहाँ तक कि नदी ‘वैतरनी’ जो यमलोक (मृत्यु के भगवान के निवास स्थान) की ओर जाती है भी मानव शरीर में सूक्ष्म रूप में भी उपस्थित है । और यमलोक की ओर जाने वाली आत्मा मृत्यु के समय इस नदी से ही निकलती है कुछ लोगों ने इस नदी को अन्य नाम दिए हैं ।
मैंने कलियुग का उदाहरण लिया है । क्या आप जानते हैं कि विभिन्न युगों के बीच बुनियादी अंतर क्या है और हमारे दैनिक जीवन को अच्छे गुण और बुरे गुण कैसे प्रभावित करते हैं?
सत्य युग में सत्य के चार भाग थे और कुछ भी भ्रष्ट या धोखाधड़ी या बुरा नहीं था । सत्य हर जगह उपस्थित था, यह वैदिक युग और उससे पहले का समय था । दूसरे युग त्रेता युग होता है जिसमें तीन भाग अच्छे और एक बुरा होता है । इस युग में विभिन्न साम्राज्यों के अधीन विभिन्न विभिन्न क्षेत्र थे कुछ क्षेत्रों में अच्छे साम्राज्य स्थापित थे एवं कुछ अन्य में बुरे । जिनके बीच में कभी कभी टकराव हुआ करता था जिसमें अच्छे एवं सच्चे साम्राज्य के लोग बुरे और गंदे साम्राज्य के लोगों को परास्त कर देते थे । उदाहरण रामायण जिसमें भगवान राम के क्षेत्र अयोध्या में धर्म के अनुसार ही सब कार्य होते थे और लंका का क्षेत्र जिसमें धर्म विरुद्ध कार्य होते थे एवं जिसका राजा राक्षस रावण था वह क्षेत्र अयोध्या से दूर स्थान पर स्थित था। भगवान राम ने रावण को मार डाला और फिर से सच्चाई स्थापित की ।
तीसरा युग द्वापर होता है जिसमें दो भाग अच्छे और दो बुरे थे । उस युग में अच्छाई और बुराई और करीब आ गयी । उदाहरण महाभारत जिसमें एक ही परिवार में अच्छे और बुरे लोग उपस्थित थे । कुछ परिवार के सदस्य पांडव अच्छे थे, और अन्य कौरव बुरे थे । पांडव और कौरव एक ही परिवार के थे । उनके बीच में संपत्ति को लेकर युद्ध हुआ जिसमें पांडव जीते और कौरव हार गए, और सच्चाई एवं धर्म फिर से स्थापित हुए । कलियुग में सभी लोग अच्छे और बुरे का संयोजन हैं । कोई भी शत प्रतिशत अच्छा नहीं है और कोई भी शत प्रतिशत बुरा नहीं है”
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का जीवन में चिंता का स्थान एवं उसके व्यक्तिगत, सामाजिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक पक्ष को उजागर करता एकआलेख चिंता बनाम पूजा।यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 46 ☆
☆ चिंता बनाम पूजा ☆
‘जब आप अपनी चिंता को पूजा, आराधना व उपासना में बदल देते हैं, तो संघर्ष दुआओं में परिवर्तित हो जाता है।’ चिंता तनाव की जनक व आत्मकेंद्रिता की प्रतीक है, जो हमारे हृदय में अलगाव की स्थिति उत्पन्न करती है। इसके कारण ज़माने भर की ख़ुशियाँ, हमें अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं और उसके परिणाम-स्वरूप हम घिर जाते हैं–चिंता, तनाव व अवसाद के घने अंधकार में–जहां हमें मंज़िल तक पहुंचाने वाली कोई भी राह नज़र नहीं आती।’
वैसे भी चिंता को चिता समान कहा गया है, जो हमें कहीं का नहीं छोड़ती और हम नितांत अकेले रह जाते हैं। कोई भी हमसे बात तक करना पसंद नहीं करता, क्योंकि सब सुख के साथी होते हैं और दु:ख में तो अपना साया तक भी साथ नहीं देता। सुख और दु:ख एक-दूसरे के विरोधी हैं, शत्रु हैं। एक की अनुपस्थिति में ही दूसरा दस्तक देने का साहस जुटा पाता है…तो क्यों न इन दोनों का स्वागत किया जाए। ‘अतिथि देवो भव’ हमारी संस्कृति है, हमारी परंपरा है, आस्था है, विश्वास है, जो सुसंस्कारों से पल्लवित व पोषित होता है। आस्था व श्रद्धा से तो धन्ना भगत ने पत्थर से भी भगवान को प्रकट कर दिया था। हां! जब हम चिंता को पूजा में बदल लेते हैं अर्थात् सम्पूर्ण समर्पण कर देते हैं, तो वह प्रभु की चिंता बन जाती है, क्योंकि वे हमारे हित के बारे में हमसे बेहतर जानते हैं। सो! आइए–अपनी चिंताओं को उस सृष्टि-नियंता को समर्पित कर सुक़ून से ज़िंदगी बसर करें।
‘बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय’ इस कहावत से तो आप सब परिचित होंगे कि जिस मनुष्य पर प्रभु का वरद्-हस्त रहता है, उसे कोई लेशमात्र भी हानि नहीं पहुंचा सकता; उसका अहित नहीं कर सकता। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाएं कि अब तो सब कुछ प्रभु ही करेगा। जो भाग्य में लिखा है, अवश्य होकर अर्थात् मिल कर रहेगा क्योंकि ‘कर्म गति टारे नहीं टरहुं।’ गीता मेंं भी भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म का संदेश दिया है तथा उसे ‘सार्थक कर्म’ की संज्ञा दी है। उसके साथ ही वे परोपकार का संदेश हुए, मानव-मात्र के हितों का ख्याल रखने को कहते हैं। दूसरे शब्दों में वे हाशिये के उस पार के नि:सहाय लोगों के लिए मंगल-कामना करते हैं, ताकि समाज में सामंजस्यता व समरसता की स्थापना हो सके। वास्तव में यही है–सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम राह, जिस पर चल कर हम कैवल्य की स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।
संघर्ष को दुआओं में बदलने की स्थिति जीवन में तभी आती है, जब आपके संघर्ष करने से दूसरों का हित होता है और असहाय व पराश्रित लोग अभिभूत हो, आप पर दुआओं की वर्षा करनी प्रारंभ कर देते हैं। दुआ दवा से भी अधिक श्रेयस्कर व कारग़र होती है, जो मीलों का फ़ासला पल भर में तय कर प्रार्थी तक पहुंच अपना करिश्मा दिखा देती है तथा उसका प्रभाव अक्षुण्ण होता है…रेकी भी इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। आजकल तो वैज्ञानिक भी गायत्री मंत्र के अलौकिक प्रभाव देख कर अचंभित हैं। वे भी इस तथ्य को स्वीकारने लगे हैं कि दुआओं व वैदिक मंत्रों में विलक्षण व अलौकिक शक्ति होती है। मुझे स्मरण हो रही हैं– स्वरचित मुक्तक-संग्रह ‘अहसास चंद लम्हों का’ की चंद पंक्तियां… जो जीवन मे अहसासों की महत्ता व प्रभुता को दर्शाती हैं… ‘अहसास से रोशन होती है ज़िंदगी की शमा/ अहसास कभी ग़म, कभी खुशी दे जाता है/ अहसास की धरोहर को सदा संजोए रखना/ अहसास ही इंसान को बुलंदियों पर पहुंचाता है।’ अहसास व मन के भावों में असीम शक्ति है, जो असंभव को संभव बनाने की क्षमता रखते हैं।
उक्त संग्रह की यह पंक्तियां सर्वस्व समर्पण के भाव को अभिव्यक्त करती है…’मैं मन को मंदिर कर लूं /देह को मैं चंदन कर लूं /तुम आन बसो मेरे मन में /मैं हर पल तेरा वंदन कर लूं’…जी हां! यह है मानसिक उपासना… जहां मैं और तुम का भाव समाप्त हो जाता है और मन, मंदिर हो जाता है और भक्त को प्रभु को तलाशने के लिए मंदिर-मस्जिद व अन्य धार्मिक-स्थलों में माथा रगड़ने की आवश्यकता महसूस नहीं होती। उसकी देह चंदन-सम हो जाती है, जिसे घिस-घिस कर अर्थात् जीवन को साधना में लगा कर, वह प्रभु के चरणों में स्थान प्राप्त करना चाहता है। उसकी एकमात्र उत्कट इच्छा यही होती है कि परमात्मा उसके मन में रच-बस जाए और वह हर पल उसका वंदन करता रहे… एक भी सांस बिना सिमरन के व्यर्थ न जाए। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रहा है–महाभारत का वह प्रसंग, जब भीष्म पितामह शर-शैय्या पर लेटे थे। दुर्योधन पहले आकर उनके शीश की ओर स्थान प्राप्त कर स्वयं को गर्वित व हर्षित महसूसता है और कृष्ण उनके चरणों में बैठ कर संतोष का अनुभव करते हैं। सो! वह कृष्ण से प्रसन्नता का कारण पूछता है और अपने प्रश्न का उत्तर पाकर हतप्रभ रह जाता है कि ‘मानव की दृष्टि सबसे पहले सामने वाले अर्थात् चरणों की ओर बैठे व्यक्ति पर पड़ती है, शीश की ओर बैठे व्यक्ति पर नहीं।’ भीष्म पितामह भी पहले कृष्ण से संवाद करते हैं और दुर्योधन से कहते हैं कि मेरी दृष्टि तो पहले वासुदेव कृष्ण पर पड़ी है। इससे संदेश मिलता है कि यदि तुम जीवन.में ऊंचाई पाना चाहते हो, तो अहं को त्याग, विनम्र बन कर रहो, क्योंकि जो व्यक्ति ज़मीन से जुड़कर रहता है; फलदार वृक्ष की भांति झुक कर रहता है… सदैव उन्नति के शिखर पर पहुंच सूक़ून व प्रसिद्धि पाता है।’
सो! प्रभु का कृपा-प्रसाद पाने के लिए उनकी चरण-वंदना करनी चाहिए… जो इस कथन को सार्थकता प्रदान करता है कि ‘यदि तुम जीवन में ऊंचाई पाना चाहते हो अथवा उन्नति के शिखर को छूना चाहते हो, तो किसी काम को छोटा मत समझो। जीवन में खूब परिश्रम करके सदैव नंबर ‘वन’ पर बने रहो और उस कार्य को इतनी एकाग्रता व तल्लीनता से करो कि तुम से श्रेष्ठ कोई कर ही न सके। सदैव विनम्रता का दामन थामे रखो, क्योंकि फलदार वृक्ष व सुसंस्कृत मानव सदैव झुक कर ही रहता है।’ सो! अहं मिटाने के पश्चात् ही आपको करुणा-सागर के निज़ाम में प्रवेश पाने का सुअवसर प्राप्त होगा। अहंनिष्ठ मानव का वर्तमान व भविष्य दोनों अंधकारमय होते हैं। वह कहीं का भी नहीं रहता…न वह इस लोक में सबका प्रिय बन पाता है, न ही उसका भविष्य संवर सकता है अर्थात् उसे कहीं भी सुख-चैन की प्राप्ति नहीं होती।
इसलिए भारतीय संस्कृति में नमन को महत्व दिया गया है अर्थात् अपने मन से नत अथवा झुक कर रहिए, क्योंकि अहं को विगलित करने के पश्चात् ही मानव के लिए प्रभु के चरणों में स्थान पाना संभव है। नमन व मनन दोनों का संबंध मन से होता है। नमन में मन से पहले न लगा देने से और मनन में मन के पश्चात् न लगा देने से मनन बन जाता है। दोनों स्थितियों का प्रभाव अद्भुत व विलक्षण होता है, जो मानव को कैवल्य की ओर ले जाती हैं। सो! नमन व मनन वही व्यक्ति कर पाता है, जिसका अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता का भाव विगलित हो जाता है और वह विनम्र.प्राणी निरहंकार की स्थिति में आकाश की बुलंदियों को छूने का सामर्थ्य रखता है।
‘यदि मानव में प्रेम, प्रार्थना व क्षमा भाव व्याप्त हैं, तो उसमें शक्ति, साहस व सामर्थ्य स्वत: प्रकट हो जाते हैं, जो जीवन को उज्ज्वल बनाने में सक्षम हैं।’ इसलिए सब से प्रेम करने से सहयोग व सौहार्द बना रहेगा और आपके ह्रदय में प्रार्थना भाव जाग्रत हो जायेगा …आप मानव-मात्र के हित व मंगल की कामना करना प्रारंभ कर देंगे। इस स्थिति में अहं व क्रोध का भाव विलीन हो जाने पर करुणा भाव जाग्रत हो जाना स्वाभाविक है। महात्मा बुद्ध ने भी प्रेम, करुणा व क्षमा को सर्वोत्तम भाव स्वीकारते हुए, क्षमा भाव को क्रोध पर नियंत्रित करने के अचूक साधन व उपाय के रूप में प्रतिष्ठापित किया है। इन परिस्थितियों में मानव शक्ति व साहस के होते हुए भी, अपने क्रोध पर नियंत्रण कर, निर्बल पर वीरता का प्रदर्शन नहीं करता, क्योंकि वह ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात’ अर्थात् वह बड़ों में क्षमा भाव की उपयोगिता, आवश्यकता, सार्थकता व महत्ता को समझता-स्वीकारता है। महात्मा बुद्ध भी प्रेम व करुणा का संदेश देते हुए स्पष्ट करते हैं कि वास्तव में ‘जब आप शक्तिशाली होते हुए भी निर्बल पर प्रहार नहीं करते, श्लाघनीय है, प्रशंसनीय है।’ इसके विपरीत यदि आप में शत्रु का सामना करने की सामर्थ्य व शक्ति ही नहीं है, तो चुप रहना आप की विवशता है, मजबूरी है, करुणा नहीं। मुझे स्मरण हो रहा है, शिशुपाल प्रसंग …जब शिशुपाल ने क्रोधित होकर भगवान कृष्ण को 99 बार गालियां दीं और वे शांत भाव से मुस्कराते रहे। परंतु उसके 100वीं बार वही सब दोहराने पर उन्होंने उसके दुष्कर्मों की सज़ा देकर उसके अस्तित्व को मिटा डाला।
सो! कृष्ण की भांति क्षमाशील बनिए। विषम व विपरीत परिस्थितियों में धैर्य का दामन थामे रखें, क्योंकि तुरंत प्रतिक्रिया देने से जीवन में केवल तनाव की स्थिति ही उत्पन्न नहीं होती, बल्कि ज्वालामुखी पर्वत की भांति विस्फोट होने की संभावना बनी रहती है। इतना ही नहीं, कभी-कभी जीवन में सुनामी जीवन की समस्त खुशियों को लील जाता है। इसलिए थोड़ी देर के लिए उस स्थान को त्यागना श्रेयस्कर है, क्योंकि क्रोध तो दूध के उफ़ान की भांति पूर्ण वेग से आता है और पल-भर में शांत हो जाता है। सो! जीवन में अहं का प्रवेश निषिद्घ कर दीजिए …क्रोध अपना ठिकाना स्वत: बदल लेगा।
वास्तव में दो वस्तुओं के द्वंद्व अर्थात् अहं के टकराने से संघर्ष का जन्म होता है। सो! पारिवारिक सौहार्द बनाए रखने के लिए अहं का त्याग अपेक्षित है, क्योंकि संघर्ष व टकराव से पति-पत्नी के मध्य अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसका खामियाज़ा बच्चों को एकांत की त्रासदी के दंश रूप में झेलना पड़ता है। सो! संयुक्त परिवार-व्यवस्था के पुन: प्रचलन से जीवन में खुशहाली छा जाएगी। सत्संग, सेवा व सिमरन का भाव पुन: जाग्रत हो जाएगा अर्थात् जहां सत्संगति है, सहयोग व सेवा भाव अवश्य होगा, जिसका उद्गम-स्थल समर्पण है। सो! जहां समर्पण है, वहां अहं नहीं; जहां अहं नहीं, वहां क्रोध व द्वंद्व नहीं– टकराव नहीं, संघर्ष नहीं; क्योंकि द्वंद्व ही संघर्ष का जनक है। यह स्नेह, प्रेम, सौहार्द, त्याग, विश्वास, सहनशीलता व सहानुभूति के दैवीय भावों को लील जाता है और हम चिंता, तनाव व अवसाद के मकड़जाल में फ़स कर रह जाते हैं… जो हमें जीते-जी नरक के द्वार तक ले जाते हैं। आइए! चिंता को त्याग व अहं भाव को मिटा कर, पूर्ण समर्पण करें, ताकि संघर्ष दुआओं में परिवर्तित हो जाए और जीते-जी मुक्ति प्राप्त करने की राह सहज व सुगम हो जाए।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि ☆ एक पाठ ऐसा भी☆
मनुष्य का जीवन घटनाओं का संग्रह है। निरंतर कुछ घट रहा होता है। इस अखंडित घट रहे को हरेक अपने दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। मेरे जीवन में घटी इस सामान्य-सी घटना ने असामान्य सीख दी। यह सीख आज भी पग-पग पर मेरा मार्गदर्शन कर रही है।
वर्ष 1986 की बात है। बड़े भाई का विवाह निश्चित हो गया था। विवाह जयपुर से करना तय हुआ। जयपुर में हमारा मकान है जो सामान्यत: बंद रहता है। पुणे से वहाँ जाकर पहले छोटी-मोटी टूट-फूट ठीक करानी थी, रंग-रोगन कराना था। पिता जी ने यह मिशन मुझे सौंपा। मिशन पूरा हुआ।
4 दिसम्बर का विवाह था। कड़ाके की ठंड का समय था। हमारे मकान के साथ ही बगीची (मंगल कार्यालय) है। मेहमानों के लिए वहाँ बुकिंग थी पर कुटुम्ब और ननिहाल के सभी सभी परिजन स्वाभाविक रूप से घर पर ही रुके। मकान काफी बड़ा है, सो जगह की कमी नहीं थी पर इतने रजाई, गद्दे तो घर में हो नहीं सकते थे। अत: लगभग आधा किलोमीटर दूर स्थित सुभाष चौक से मैंने 20 गद्दे, 20 चादरें और 20 रजाइयाँ किराये पर लीं।
उन दिनों सायकलरिक्शा का चलन था। एक सायकलरिक्शा पर सब कुछ लादकर बांध दिया गया। दो फुट ऊँचा रिक्शा, उस पर लदे गद्दे-रजाई, लगभग बारह फीट का पहाड़ खड़ा हो गया। जीवन का अधिक समय पुणे में व्यतीत होने के कारण इतनी ऊँचाई तक सामान बांधना मेरे लिए कुछ असामान्य था।
…पर असली असामान्य तो अभी मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। रिक्शेवाला सायकल पर सवार हुआ और मेरी ओर देखकर कहा, ‘भाईसाब बेठो!” मेरी मंथन चल रहा था कि इतना वज़न यह अकेली जान केसे हाँकेगा! वैसे भी रिक्शा में तो तिल रखने की भी जगह नहीं थी सो मैं रिक्शा के साथ-साथ पैदल चलूँगा। दोबारा आवाज़ आई, “भाईसाब बेठो।” इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से मैं आश्चर्यचकित हो गया। ” कहाँ बैठूँ?” मैंने पूछा। “ऊपरली बैठ जाओ”, वह ठेठ मारवाड़ी में बोला। फिर उसने बताया कि वह इससे भी ऊँचे सामान पर ग्राहक को बैठाकर दस-दस किलोमीटर गया है। यह तो आधा किलोमीटर है। “भाईसाब डरपो मनि। कोन पड्स्यो। बेठो तो सही।” मैंने उसी वर्ष बी.एस्सी. की थी। उस आयु में कोई चुनौती दे, यह तो मान्य था ही नहीं। एक दृष्टि डाली और उस झूलते महामेरु पर विराजमान हो गया। ऊपर बैठते ही एक बात समझ में आ गई कि चढ़ने के लिए तो मार्ग मिल गया, उतरने के लिए कूदना ही एकमात्र विकल्प है।
रिक्शावाले ने पहला पैडल लगाया और मेरे ज्ञान में इस बात की वृद्धि हुई कि जिस रजाई को पकड़कर मैं बैठा था, उसका अपना आधार ही कच्चा है। अगले पैडल में उस कच्ची रस्सी को थामकर बैठा जिससे सारा जख़ीरा बंधा हुआ था। जल्दी ही आभास हो गया कि यह रस्सी जितनी दिख रही है, वास्तव में अंदर से है उससे अधिक कच्ची। उधर गड्ढों में सड़क इतने कलात्मक ढंग से धंसी थी कि एक गड्ढे से बचने का मूल्य दूसरे गड्ढे में प्रवेश था। फलत: हर दूसरे गड्ढे से उपजते झटके से समरस होता मैं अनन्य यात्रा का अद्भुत आनंद अनुभव कर रहा था।
यात्रा में बाधाएँ आती ही हैं। कुछ लोगों का तो जन्म ही बाधाएँ उत्पन्न करने के लिए हुआ होता है। ये वे विघ्नसंतोषी हैं जिनका दृढ़ विश्वास है कि ईश्वर ने मनुष्य को टांग दूसरों के काम में अड़ाने के लिए ही दी है। सायकलरिक्शा मुख्य सड़क से हमारे मकानवाली गली में मुड़ने ही वाला था कि गली से बिना ब्रेक की सायकल पर सवार एक विघ्नसंतोषी प्रकट हुआ। संभवत: पिछले जन्म में भागते घोड़े से गिरकर सिधारा था। इस जन्म में घोड़े का स्थान सायकल ने ले लिया था। हमें बायीं ओर मुड़ना था। वह गली से निकलकर दायीं ओर मुड़ा और सीधे हमारे सायकलरिक्शा के सामने। अनुभवी रिक्शाचालक के सामने उसे बचाने के लिए एकसाथ दोनों ब्रेक लगाने के सिवा कोई विकल्प नहीं था।
मैंने जड़त्व का नियम पढ़ा था, समझा भी था पर साक्षात अनुभव आज किया। नियम कहता है कि प्रत्येक पिण्ड तब तक अपनी विरामावस्था में एकसमान गति की अवस्था में रहता है जब तक कोई बाह्य बल उसे अन्यथा व्यवहार करने के लिए विवश नहीं करता। ब्रेक लगते ही मैंने शरीर की गति में परिवर्तन अनुभव किया। बैठी मुद्रा में ही शरीर विद्युत गति से ऊपर से नीचे आ रहा था। कुछ समझ पाता, उससे पहले चमत्कार घट चुका था। मैंने अपने आपको सायकलरिक्शा की सीट पर पाया। सीट पर विराजमान रिक्शाचालक, हैंडल पर औंधे मुँह गिरा था। उसकी देह बीच के डंडे पर झूल रही थी।
सायकलसवार आसन्न संकट की गंभीरता समझकर बिना ब्रेक की गति से ही निकल लिया। मैं उतरकर सड़क पर खड़ा हो गया। यह भी चमत्कार था कि मुझे खरोंच भी नहीं आई थी…पर आज तो चमत्कार जैसे सपरिवार ही आया था। औंधे मुँह गिरा चालक दमखम से खड़ा हुआ। सायकलरिक्शा और लदे सामान का जायज़ा लिया। रस्सियाँ फिर से कसीं। अपनी सीट पर बैठा। फिर ऐसे भाव से कि कुछ घटा ही न हो, उसी ऊँची जगह को इंगित करते हुए मुझसे बोला,” बेठो भाईसाब।”
भाईसाहब ने उसकी हिम्मत की मन ही मन दाद दी लेकिन स्पष्ट कर दिया कि आगे की यात्रा में सवारी पैदल ही चलेगी। कुछ समय बाद हम घर के दरवाज़े पर थे। सामान उतारकर किराया चुकाया। चालक विदा हुआ और भीतर विचार की शृंखला चलने लगी।
जिस रजाई पर बैठकर मैं ऊँचाई अनुभव कर रहा था, उसका अपना कोई ठोस आधार नहीं था। जीवन में एक पाठ पढ़ा कि क्षेत्र कोई भी हो, अपना आधार ठोस बनाओ। दिखावटी आधार औंधे मुँह पटकते हैं और जगहँसाई का कारण बनते हैं।
आज जब हर क्षेत्र विशेषकर साहित्य में बिना परिश्रम, बिना कर्म का आधार बनाए, जुगाड़ द्वारा रातोंरात प्रसिद्ध होने या पुरस्कार कूटने की इच्छा रखनेवालों से मिलता हूँ तो यह पाठ बलवत्तर होता जाता है।
अखंडित निष्ठा, संकल्प, साधना का आधार सुदृढ़ रहे तो मनुष्य सदा ऊँचाई पर बना रह सकता है। शव से शिव हो सकता है।
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय समसामयिक रचना “जरा सोचिए”। इस आलेख के माध्यम से श्रीमती छाया सक्सेना जी ने दो महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं। हम राज्य के नागरिक हैं या देश के और हम अपने ही देश में प्रवासी कैसे हो गए ? इस सार्थक एवं विचारणीय रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 18 ☆
☆ जरा सोचिए ☆
आज सोशल मीडिया पर एक पंक्ति पढ़ी- बड़ा गुमान था ये सड़क तुम्हें अपनी लंबाई पर देश के मजदूरों ने तुम्हें पैदल ही माप दिया।
ग्यारह न. की बस का प्रयोग अक्सर बात- चीत में सुविधाभोगी लोग करते हुए दिखते हैं। थोड़ा सा भी पैदल चलने पर पसीना – पसीना हो जाते हैं तो सोचिए ये भी इंसान ही हैं।
लॉक डाउन के दौरान सबसे ज्यादा अगर कोई परेशान हुआ तो वो मजदूर जो सबके लिए घर बनाते थे पर स्वयं बेघर रहे। लंबी यात्रा पर चल दिये बिना सोचे कि कैसे पहुँच पायेंगे। ताजुब होता है कि चुनावी रैलियों में जिनको संख्या बल बढ़ाने हेतु खाना- पानी और 500 रुपये देकर दिनभर घुमाया जाता है ,क्या उनको बिना स्वार्थ भोजन नहीं दिया जा सकता था। अरे भई जल्दी तो चुनाव होना नहीं तो कौन इन्वेस्ट करे इन पर। सामाजिक संस्थाओं से तो मदद मिली पर सब कुछ फ्री पाने का लेखा जोखा कहीं न कहीं भारी पड़ गया। सबसे बड़ा आश्चर्य तो जहाँ एक भी घर से निकले तो उसका पिछवाड़ा लाल कर दिया जा रहा था वहाँ पूरे मजदूर चल दिये कोई रोकने वाला नहीं वो तो सोशल मीडिया पर हड़कम्प मचा तो प्रशासन की नींद खुली और जो जहाँ था वहीं उसे रोका गया व उसके भोजन – पानी, आवास की व्यवस्था हुई। राज्य सरकारें भी जागीं और अपने- अपने नागरिकों की मदद हेतु आगे आयीं।
ऐसे ही समय के लिए सभी नागरिकों का पंजीकरण आवश्यक होता है। इस दौरान एक प्रश्न और उठा कि हम भारत के निवासी हैं या राज्यों के, कोई भी संकट पड़ने पर कौन आगे आयेगा ? प्रवासी कहलाने लगे ये अपने ही देश में।
नगर को महानगर बनाने में सबसे अधिक योगदान मजदूरों का ही होता है। इनसे ही बड़ी- बड़ी बिल्डिंगें, कारखाने व जनसंख्या बढ़ती व पनपती है तो इनकी व्यवस्था करें। लोकतंत्र में संख्या बल ही महत्वपूर्ण होता है। फ्री की योजना सरकार बना सकती है, ये तो देखा पर समय पर फ्री समान देने के समय; खुद को लॉक डाउन करके केवल मीडिया पर फ्री में वितरण करते रहे। अरे भाई सोशल डिस्टेंसिंग भी तो मेन्टेन करनी है सो करो कम गाओ ज्यादा।
ऐसे समय में जब जान की पड़ी थी तभी कुछ लोग अर्थ व्यवस्था की चिंता का रोना लेकर अपना अलग ही राग अलापने लगे । ऐसा लगा कि सबसे बड़े अर्थशास्त्री यही हैं, बस इन दिनों में ही देश आर्थिक मजबूत बन जायेगा। ट्विटर पर आर्थिक चिंतन का एक बिंदु दिया नहीं कि समर्थकों की लाइन लग गयी। अच्छे दिनों में दो खेमों का होना तो अच्छी बात है किंतु संकट के दौर में जब वैश्विक महामारी मुह बाये खड़ी है तब भी सरकारी नीतियों को कोसना तो बिल्कुल वैसे ही है जैसे प्यास लगने पर कुंआ खोदने का विचार करना।
खैर सोच विचार तो चलता ही रहेगा , यही तो मानवता का तकाजा है।