हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 39 – वास्तु शास्त्र एवं गीता ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं शिखाप्रद आलेख  “ज्योतिष शास्त्र। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 39 ☆

☆ वास्तु शास्त्र एवं गीता

आप आकाश के विज्ञान के विषय में नहीं जानते जिसे वास्तु कहा जाता है ? वास्तु शास्त्र पारंपरिक वास्तुकला का पारंपरिक हिंदू तंत्र है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘वास्तुकला का विज्ञान’। संस्कृत में कहा गया है कि… गृहस्थस्य क्रियास्सर्वा न सिद्धयन्ति गृहं विना । वास्तु शास्त्र घर, प्रासाद, भवन अथवा मन्दिर निर्मान करने का प्राचीन भारतीय विज्ञान है जिसे आधुनिक समय के विज्ञान आर्किटेक्चर का प्राचीन स्वरुप माना जा सकता है । दक्षिण भारत में वास्तु की नींव के लिए परंपरागत महान साधु मायन को जिम्मेदार माना जाता है और उत्तर भारत में विश्वकर्मा को जिम्मेदार माना जाता है । उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम ये चार मूल दिशाएं हैं । वास्तु विज्ञान में इन चार दिशाओं के अतरिक्त 4 विदिशाएं हैं । आकाश और पाताल को भी इसमें दिशा स्वरूप शामिल किया गया है । इस प्रकार चार दिशा, चार विदिशा और आकाश पाताल को जोड़कर इस विज्ञान में दिशाओं की संख्या कुल दस मानी गयी है । मूल दिशाओं के मध्य की दिशा ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य को विदिशा कहा गया है ।

वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है। इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं । भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए। यह सुख और समृद्धि कारक होता है । इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं । परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं । उन्नति के मार्ग में भी बाधा आती है । पूर्व और दक्षिण के मध्य की दिशा को आग्नेश दिशा कहते हैं । अग्निदेव इस दिशा के स्वामी हैं । इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर का वातावरण अशाँत और तनावपूर्ण रहता है । धन की हानि होती है । मानसिक परेशानी और चिन्ता बनी रहती है । यह दिशा शुभ होने पर भवन में रहने वाले उर्जावान और स्वस्थ रहते हैं । इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है । अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होती है । दक्षिण दिशा के स्वामी यम देव हैं । यह दिशा वास्तुशास्त्र में सुख और समृद्धि का प्रतीक होती है । इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए । दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी एवं रोजी रोजगार में परेशानी का सामना करना पड़ता है । गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होती है । दक्षिण और पश्चिम के मध्य की दिशा को नैऋत्य दिशा कहते हैं । इस दिशा का वास्तुदोष दुर्घटना, रोग एवं मानसिक अशांति देता है । यह आचरण एवं व्यवहार को भी दूषित करता है । भवन निर्माण करते समय इस दिशा को भारी रखना चाहिए । इस दिशा का स्वामी देवी निर्ऋति है। यह दिशा वास्तु दोष से मुक्त होने पर भवन में रहने वाला व्यक्ति सेहतमंद रहता है एवं उसके मान सम्मान में भी वृद्धि होती है । इशान दिशा के स्वामी शिव होते हैं, इस दिशा में कभी भी शौचालय नहीं बनना चाहिये । नलकुप, कुआ आदि इस दिशा में बनाने से जल प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है ।

दरअसल वास्तु संरचना के विभिन्न हिस्सों में प्राण ऊर्जा के प्रवाह से खुद को जागरूक करा कर उसके साथ सामंजस्य स्थापित करने के अतरिक्त और कुछ भी नहीं है । हम आंतरिक प्राण वायुओं की पहचान कर सकते हैं क्योंकि प्राण दृष्टि की भावना के लिए जिम्मेदार है, गंध के लिए अपान, स्वाद के लिए समान, सुनने के लिए उदान और स्पर्श के लिए व्यान । इसके अतरिक्त हम सबसे सामान्य स्थिति में पर्यावरण की प्राण वायुओं को श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं उत्तर दिशा का वायु प्राण है, दक्षिण में अपान है, पूर्व में समान है, पश्चिम में यह व्यान और ऊपर की ओर उदान है ।

ब्रह्मांड में कुछ अन्य प्रकार के वायु भी हैं जो विभिन्न वायुमंडलीय गतिविधियों के लिए जिम्मेदार हैं । वे संख्या में 7 हैं :

  1. प्रवाह : यह वायु आकाश में बिजली निर्मित करता है ।
  2. अहावा : इस वायु द्वारा ही अंतरिक्ष में सितारे चमकते हैं और समुद्र का पानी जल-वाष्प के रूप में ऊपर जाता है और बारिश के रूप में नीचे आता हैं ।
  3. उधवाहा : यह वायु बादलों के बीच गति के लिए जिम्मेदार है और गर्जन पैदा करता है ।
  4. सांवाहा : यह वायु पहाड़ों को धड़काता है । सांवाहा बादलों को आकार देने और गरज का उत्पादन करने के लिए भी जिम्मेदार है ।
  5. व्यावाहा : यह वायु आकाश में पवित्र जल तैयार करने और आकाशगंगा के निर्माण के लिए जिम्मेदार है।
  6. पारिवाहा : यह वायु ध्यान में बैठने वाले व्यक्ति को ताकत देता है ।
  7. पारावहा : यह वह वायु है जिस पर आत्मा यात्रा करता है ।

© आशीष कुमार 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 24 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। डॉ भीमराव  आम्बेडकर जी के जन्म दिवस के अवसर पर हम आपसे इस माह महात्मा गाँधी जी एवं  डॉ भीमराव आंबेडकर जी पर आधारित आलेख की श्रंखला प्रस्तुत करने का प्रयास  कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का  द्वितीय  आलेख  “महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 24 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर – 2

महात्मा गांधी की भांति डाक्टर आम्बेडकर ने भी जनजागृति हेतु समाचार-पत्र प्रकाशन का सहारा लिया और कोल्हापुर के महाराजा शाहूजी से आर्थिक सहयोग प्राप्त कर एक पाक्षिक ‘मूकनायक’ का प्रकाशन जनवरी 1920 में शुरू किया, बाद में इसे 1927 से ‘बहिष्कृत भारत’ के नाम से प्रकाशित किया जाने लगा।  फिर लम्बे समय तक डाक्टर आम्बेडकर ने विभिन्न सम्मेलनों, और शोधपरक लेखन के माध्यम से दलित वर्ग की समस्याओं को उजागर करने का प्रयास किया। 1927 आते आते उनकी प्रतिष्ठा बढ़ गई और कार्यक्षेत्र का विस्तार भी हो गया। अपने आन्दोलनों के लिए उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा प्रतिपादित सत्याग्रह का मार्ग चुना और महाड़ के चवदार तालाब में दलितों के प्रवेश को लेकर सत्यागृह किया। सत्याग्रह के दौरान उन्होंने गांधीजी की तस्वीरें धरना प्रदर्शन स्थल पर लगवाई और प्रतीकात्मक तरीके से तालाब का जल अंजलि में लेकर पिया।  सत्याग्रह  को लेकर डाक्टर आम्बेडकर  के विचार गांधीजी से थोड़े भिन्न थे वे सत्याग्रह के तौर तरीके को लेकर गांधीजी जितने कठोर न थे और हर तरीके को अपनाकर सच्चाई उजागर करने में विश्वास रखते थे। दूसरी ओर महात्मा गांधी साधन की पवित्रता पर बहुत अधिक जोर देते और अहिंसा का रास्ता अपनाए रखने पर दृढ़ रहते।

फरवरी 1928 को जब साइमन कमीशन भारत आया तो गांधीजी के आह्वान पर कांग्रेस ने जगह जगह कमीशन के विरोध मे प्रदर्शनों का आयोजन किया और आम जनता ने सभी जगहों पर साइमन गो बैक के नारे लगाए हड़ताल की व शहर को बंद रखा। इसके उलट डाक्टर आम्बेडकर ने कमीशन की मदद के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाई गई बम्बई विधान परिषद् की समिति की न केवल सदस्यता ग्रहण की वरन अक्टूबर 1928 को पूना में कमीशन के सामने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की ओर से  उपस्थित होकर अछूतों के प्रतिनिधि के रूप में  एक स्मरण पत्र पेश किया, अछूतों के लिए संयुक्त निर्वाचन, मतदान का अधिकार  और सीटों पर  आरक्षण की मांग की।  उन्होंने कमीशन के सवालों का जबाब भी बड़ी चतुराई से दिया। गांधीजी के विपरीत आम्बेडकर अस्पृश्यता की समस्या का समाधान राजनीतिक सत्ता हासिल कर  चाहते थे। अभी  तक डाक्टर आम्बेडकर व गांधीजी की कोई मुलाक़ात नहीं हुई थी और गांधीजी भी उन्हें ब्राह्मण समझते थे। लेकिन आम जनता को, डाक्टर आम्बेडकर का साइमन कमीशन को सहयोग देना, पसंद नहीं आया।

मार्च 1930 में डाक्टर आम्बेडकर ने नाशिक के कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश को लेकर बड़ा सत्याग्रह किया। इस सत्याग्रह का तरीका गांधीमार्ग जैसा ही था और मंदिर के सभी दरवाजों की घेराबंदी की गई। इसी दौरान गांधीजी ने अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया था। गांधीजी के अनुयायी घनश्याम दास बिड़ला ने डाक्टर आम्बेडकर से मिलकर उनसे अपना सत्याग्रह वापिस लेने की सलाह दी जिससे  सविनय अवज्ञा आन्दोलन मे सभी वर्ग व समाज की एकजुटता का प्रदर्शन हो सके व उसे बल मिले। लेकिन डाक्टर आम्बेडकर ने अपना सत्याग्रह वापस लेने से मना कर दिया। इसके फलस्वरूप नाशिक कांग्रेस ने भी डाक्टर आम्बेडकर का साथ नहीं दिया और  रुढ़िवादियों ने तो शुरू से ही इस सत्याग्रह का भारी विरोध किया फलस्वरूप उनका सत्याग्रह लंबा चला                    और  पांच वर्ष तक चले इस आन्दोलन को तब सफलता मिली जब  अछूतों को मंदिर में प्रवेश का क़ानून बना। यहाँ हमें गांधीजी  और डाक्टर आम्बेडकर के सत्याग्रह आन्दोलन के तरीकों में स्पष्ट अंतर नज़र आता है। गांधीजी जहाँ आन्दोलन के दौरान मध्यस्थता की गुंजाइश बनाए रखते थे और बातचीत का रास्ता खुला रखना चाहते थे वहीं दूसरी ओर आम्बेडकर कडा रुख रखते और मध्यस्थता तथा बातचीत से दो टूक इन्कार कर देते। डाक्टर आम्बेडकर ने उस वक्त गांधीजी के अनुयायी घनश्याम दास बिड़ला की बात न मानकर एक प्रकार से अंग्रेजों की ‘बाँटों और राज करो’ नीति को समर्थन ही दे दिया। एक ओर मुस्लिम समुदाय को अंग्रेज आज़ादी के आन्दोलन से दूर रखने के प्रयास कर रहे थे और महात्मा गांधी अंग्रेजों की इस कूटनीतिक चाल को ध्वस्त करने हेतु समझौतावादी रुख अख्तियार कर रहे थे। ऐसे में डाक्टर आम्बेडकर का सत्याग्रह कांग्रेस द्वारा संचालित सविनय अवज्ञा भंग आन्दोलन को और कमजोर कर रहा था। अंग्रेजों ने गांधीजी और डाक्टर आम्बेडकर के मतभेदों को हवा देने के लिए साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित कर दी और दलित वर्ग के लिए संयुक्त निर्वाचन के साथ सीटों के आरक्षण की बात कही। इसी दौरान अक्टूबर 1930 में डाक्टर आम्बेडकर ने प्रथम गोलमेज कांफ्रेंस मे भाग लेकर विधायिका और सरकारी नौकरियों में अछूत समुदाय के लिए आरक्षण के अलावा अपनी पुरानी मांग के विपरीत दलित वर्ग के लिए प्रथक निर्वाचन  की नई मांग रखी और इसके बाद उनका कद देश के राजनीतिक गलियारों में तेजी से बढ़ने लगा । ज्ञात हो कि कांग्रेस ने प्रथम गोलमेज कांफ्रेंस मे भाग न लेने का निर्णय किया था।

डाक्टर आम्बेडकर और गांधीजी की पहली मुलाक़ात 14 अगस्त 1931 को मुंबई में गांधीजी के निमंत्रण पर हुई। इस मुलाक़ात के ठीक एक महीने बाद द्वितीय गोलमेज कांफ्रेंस लन्दन में होने वाली थी और कांग्रेस ने इस कांफ्रेंस में गांधीजी को अपने प्रतिनिधि  के रूप में भेजने का निर्णय लिया था। गांधीजी ने डाक्टर आम्बेडकर से अनुरोध किया कि कांग्रेस के अनुसार छुआछूत एक सामाजिक और धार्मिक मसला है इसे राजनीति के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। डाक्टर आम्बेडकर इस बात से तो सहमत थे कि गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने छुआछूत मिटाने के लिए अभियान चलाया है पर उन्होंने इसे नाकाफी माना। गांधीजी का यह कथन कि ‘ अछूत वर्ग को हिन्दू समाज से अलग करने का सीधा अर्थ है – आत्महत्या करना। मैं राजनीति के स्तर पर अछूतों को हिन्दू समाज से पृथक करने के विरुद्ध हूँ’ भी आम्बेडकर का विश्वास और दिल  जीतने में सफल नहीं हो सका।  दलित वर्ग के लिए प्रथक निर्वाचन  की मांग पर भी दोनों में विस्तृत चर्चा तो हुई पर सहमति न बन सकी।

द्वितीय गोलमेज कांफ्रेस शुरू होने के पहले गांधीजी और कांग्रेस अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल को ध्वस्त करना चाहते थे। मुस्लिम लीग की पृथकतावादी मांगों की काट के रूप में गांधीजी यह दावा कर रहे थे कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों एवं दलितों की साथ सारे भारतीयों का  प्रतिनिधित्व करती है और इसीलिये उन्होंने मुसलमानों के लिए अंग्रेजों द्वारा तय पृथक निर्वाचन और विशेष संरक्षण को स्वीकार कर लिया था। दूसरी ओर अंग्रेज यह चाल चल रहे थे कि अछूतों को हिन्दू धर्म से पृथक कर दिया जाय जिससे कांग्रेस का जनाधार कम हो जाय। गांधीजी की आम्बेडकर से मुलाक़ात इसी भावना को लेकर थी। डाक्टर आम्बेडकर भी अंग्रेजों की कुटिल चाल को समझ रहे थे और वे दलित समुदाय को हिन्दुओं से अलग मानने से इन्कार कर रहे थे।

……….क्रमशः  – 3

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सामानांतर / संजय उवाच – वीडियो लिंक ☆ श्री संजय भारद्वाज

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

एक विनम्र निवेदन – आज के संजय दृष्टी  को आत्मसात करने के पूर्व आप सभी से एक विनम्र निवेदन।  कृपया आदरणीय श्री संजय भारद्वाज जी का संजय उवाच के अंतर्गत 12 अप्रैल 2020 का वीडियो लिंक अवश्य आत्मसात करें। )

☆  संजय उवाच # सत्संगी मित्रो!  ☆

रविवार 12.4.2020 का दिन इस माह के सत्संग और प्रबोधन के लिए नियत था। वर्तमान स्थितियों में प्रत्यक्ष सत्संग संभव नहीं था, अत: यूट्युब के माध्यम से सत्संग को अखंड रखने का प्रयास किया है। आशा है कि आप सब महानुभाव इससे जुड़ेंगे।

वीडियो लिंक >>>>>

संजय उवाच 12 अप्रैल 2020

विनम्र निवेदन है कि विषय प्रेरक लगे तो लाइक देने के साथ-साथ अन्य मित्रों के साथ साझा भी करें।

कृपया घर में रहें। स्वास्थ्य का ध्यान रखें। ईश्वर पर आस्था रखते हुए नियमित प्रार्थना करते रहें।

सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यंतु, माकश्चिदु:खभाग्भवेत्।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

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☆ संजय दृष्टि  – *समानांतर* ☆

…….???

…..???

…???

पढ़ सके?

फिर पढ़ो!

नहीं…,

सुनो मित्र,

साथ न सही

मेरे समानांतर चलो,

फिर मेरा लिखो पढ़ो..!

 

कृपया घर पर रहें, सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(दोपहर 3:10 बजे, 15.6.2016)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #45 ☆ दान : दर्शन और प्रदर्शन (कोरोनावायरस और हम – 7) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 45 – दान : दर्शन और प्रदर्शन  ☆

(कोरोनावायरस और हम, भाग-7)

कोरोना वायरस से उपजे कोविड-19 से भारत प्रशासनिक स्तर पर अभूतपूर्व रूप से जूझ रहा है। प्रशासन के साथ-साथ आम आदमी भी अपने स्तर पर अपना योगदान देने का प्रयास कर रहा है। योगदान शब्द के अंतिम दो वर्णो पर विचार करें। ‘दान’अर्थात देने का भाव।

भारतीय संस्कृति में दान का संस्कार आरंभ से रहा है। महर्षि दधीचि, राजा शिवि जैसे दान देने की अनन्य परंपरा के असंख्य वाहक हुए हैं।

हिंदू शास्त्रों ने दान के तीन प्रकार बताये हैं, सात्विक, राजसी और तामसी। इन्हें क्रमशः श्रेष्ठ, मध्यम और अधम भी कहा जाता है। केवल दिखावे या प्रदर्शन मात्र के लिए किया गया दान तामसी होता है। विनिमय की इच्छा से अर्थात बदले में कुछ प्राप्त करने की तृष्णा से किया गया दान राजसी कहलाता है। नि:स्वार्थ भाव से किया गया दान सात्विक होता है। सात्विक में आदान-प्रदान नहीं होता, किसी भी वस्तु या भाव के बदले में कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं होती।

हमारे पूर्वज कहते थे कि दान देना हो तो इतना गुप्त रखो कि एक हाथ का दिया, दूसरे हाथ को भी मालूम ना चले। आज स्थितियाँ इससे ठीक विपरीत हैं। हम करते हैं तिल भर, दिखाना चाहते हैं ताड़ जैसा।

सनातन दर्शन ने कहा, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’, अर्थात स्वयं में अंतर्निहित ब्रह्म को देखो ताकि सूक्ष्म में विराजमान विराट के समक्ष स्थूल की नगण्यता का भान रहे। स्थूल ने स्वार्थ और अहंकार को साथ लिया और ‘मैं’ या ‘सेल्फ’ को सर्वोच्च घोषित करने की कुचेष्टा करने लगा। ‘सेल्फ’ तक सीमित रहने का स्वार्थ ‘सेल्फी कल्चर’ तक पहुँचा और मनुष्य पूरी तरह ‘सेल्फिश’ होता गया।

लॉकडाउन के समय में प्राय: पढ़ने, सुनने और देखने में आ रहा है कि किसी असहाय को भोजन का पैकेट देते समय भी सेल्फी लेने के अहंकार, प्रदर्शन और पाखंड से व्यक्ति मुक्त  नहीं हो पाता। दानवीरों (!) की ऐसी तस्वीरों से सोशल मीडिया पटा पड़ा है। इसी परिप्रेक्ष्य में एक कथन पढ़ने को मिला,..”अपनी गरीबी के चलते मैं तो आपसे खाने का पैकेट लेने को विवश हूँ  लेकिन आप किस कारण मेरे साथ फोटो खिंचवाने को विवश हैं?”

प्रदर्शन की इस मारक विवशता की तुलना रहीम के दर्शन की अनुकरणीय विवशता से कीजिए। अब्दुलरहीम,अकबर के नवरत्नों में से एक थे। वे परम दानी थे। कहा जाता है कि दान देते समय वे अपनी आँखें सदैव नीची रखते थे। इस कारण अनेक लोग दो या तीन या उससे अधिक बार भी दान ले जाते थे। किसी ने रहीम जी के संज्ञान में इस बात को रखा और आँखें नीचे रखने का कारण भी पूछा। रहीम जी ने उत्तर दिया, “देनहार कोउ और है , भेजत सो दिन रैन।लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन॥”

विनय से झुके नैनों की जगह अब प्रदर्शन और अहंकार से उठी आँखों ने ले ली है। ये आँखें  वितृष्णा उत्पन्न करती हैं। इनकी दृष्टि दान का वास्तविक अर्थ समझने की क्षमता ही नहीं रखतीं।

दान का अर्थ केवल वित्त का दान नहीं होता। जिसके पास जो हो, वह दे सकता है। दान ज्ञान का, दान सेवा का, दान संपदा का, दान रोटी का, दान धन का, दान परामर्श का, दान मार्गदर्शन का।

दान, मनुष्य जाति का दर्शन है, प्रदर्शन नहीं। मनुष्य को लौटना होगा दान के मूल भाव और सहयोग के स्वभाव पर। वापसी की इस यात्रा में उसे प्रकृति को अपना गुरु बनाना चाहिए।

प्रकृति अपना सब कुछ लुटा रही है, नि:स्वार्थ दान कर रही है। मनुष्य देह प्रकृति के पंचतत्वों से बनी है। यदि प्रकृति ने इन पंचतत्वों का दान नहीं किया होता तो तुम प्रकृति का घटक कैसे बनते?

और वैसे भी है क्या तुम्हारे पास देने जैसा? जो उससे मिला, उसको अर्पित। था भी उसका, है भी उसका। तुम दानदाता कैसे हुए? सत्य तो यह है कि तुम दान के निमित्त हो।

नीति कहती है, जब आपदा हो तो अपना सर्वस्व अर्पित करो। कलयुग में सर्वस्व नहीं, यथाशक्ति तो अर्पित करो। देने के अपने कर्तव्य की पूर्ति करो। कर्तव्य की पूर्ति करना ही धर्म है।

स्मरण रहे, संसार में तुम्हारा जन्म धर्मार्थ हुआ है।… और यह भी स्मरण रहे कि ‘धर्मो रक्षति रक्षित:।’

*’पीएम केअर्स’ में यथाशक्ति दान करें। कोविड-19 से संघर्ष में सहायक बनें।*

 

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 11.09 बजे, 11.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 38 – ज्योतिष शास्त्र ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं शिखाप्रद आलेख  “ज्योतिष शास्त्र। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 38 ☆

☆ ज्योतिष शास्त्र

क्या आप जानते हैं कि हमारी सौर प्रणाली की पूरी संरचना ऐसी है कि सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर अंडाकार कक्षा में गति कर रहे हैं । सूर्य के पास पहला ग्रह बुध है, फिर अगली कक्षा में शुक्र आता है । इन दो ग्रहों बुध और शुक्र को पृथ्वी काआंतरिक ग्रह कहा जाता है क्योंकि वे सूर्य और पृथ्वी के घूर्णन के बीच में आते हैं । तो शुक्र के बाद, पृथ्वी की कक्षा आती है जिसके चारों ओर हमारा चंद्रमा घूमता है । पृथ्वी के बाद के ग्रहों को बाहरी ग्रह कहा जाता है क्योंकि वे सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के घूर्णन की कक्षा के बाहर अपनी अलग अलग कक्षाओं में घूर्णन करते हैं । तो अनुक्रम में पृथ्वी के बाद आने वाले अन्य ग्रह मंगल, बृहस्पति और शनि हैं । तो ग्रहों का अनुक्रम है सूर्य (सूर्य को ज्योतिष के अनुसार ग्रह के रूप में मानें), बुध, शुक्र, पृथ्वी, पृथ्वी का चंद्रमा, मंगल, बृहस्पति, और फिर शनि । भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उल्टी दिशा में (180 डिग्री पर) स्थित रहते हैं । क्योंकि ये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है । सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के अनुसार ही राहु और केतु की स्थिति भी बदलती रहती है । तभी, पूर्णिमा के समय यदि चाँद राहू (अथवा केतु) बिंदु पर भी रहे तो पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्र ग्रहण लगता है, क्योंकि पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं । ये तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि “वक्र चंद्रमा ग्रसे ना राहू”। अंग्रेज़ी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं ।

अब अगर हम ज्योतिष की संभावनाओं से देखते हैं, तो ग्रहों की ऊर्जा इस प्रकार है सूर्य हमारी आत्मा या जीवन की रोशनी है, बुध स्मृति और संचार को दर्शाता है जो अक्सर बहुत तेजी से बदलते हैं । शुक्र, जो मूल रूप से इच्छाओं की भावनाओं को दिखाता है, भी तेजी से बदलता है, लेकिन बुध की तुलना में कम तेजी से । फिर पृथ्वी आती है, जिस पर हम विभिन्न ग्रहों के प्रभाव देख रहे हैं (जिसे हम मनुष्य का शरीर और मस्तिष्क आदि मान सकते हैं) । फिर चंद्रमा आता है जो हमारे बदलते मस्तिष्क को दर्शाता है जो परिवर्तन में सबसे तेज़ है ।

फिर मंगल ग्रह आता है, जो हमारी शारीरिक शक्ति, हमारी क्षमता, सहनशक्ति, क्रोध इत्यादि दर्शाता है । मंगल ग्रह के बाद बृहस्पति आता है, जो दूसरों को सिखाने के लिए ज्ञान, शिक्षण और गुणवत्ता दिखाता है । अंत में शनि आता है, जो हमारे जीवन की उचित संरचना बनाने के लिए हमारे ऊपर लगाने वाले प्रतिबंधों के लिए ज़िम्मेदार है इसे क्रिया स्वामी भी कहा जाता है क्योंकि शनि हमारी जिंदगी की गति में रुकावटें डाल डाल कर हमें एक या अन्य कार्यों में निपुण बनाता है ।

अब यदि हम राशि चक्र में ग्रहों की स्थितियों और उसके ज्योतिषीय ऊर्जा के गुणों की तुलना करते हैं तो हम पायँगे कि ये एकदम सटीक हैं । चलो सूर्य से शुरू करते हैं, यह हमारे सौर मंडल का केंद्र है। सूर्य के चारों ओर सभी ग्रह घूमते हैं । ज्योतिष में भी सूर्य बुनियादी चेतना और ऊर्जा है जिसके साथ हम पृथ्वी पर आये थे । अगला ग्रह बुध है, जिसका घूर्णन चक्र ग्रहों के बीच सबसे छोटा है । इसके अतरिक्त बुध स्मृति और संचार को दर्शाता है जो अक्सर बदलता रहता है । दूसरे शब्दों में, संचार के माध्यम से किसी के विषयमें किसी को कुछ बताने में बहुत कम समय लगता है, एवं स्मृति में संस्कारों को संग्रहीत करने और वापस निकालने में बहुत कम समय लगता है और प्रत्येक क्षण में हमारी कुल स्मृति बदलती रहती है ।

अगला ग्रह शुक्र है, जिसके घूर्णन का चक्र ज्योतिष में बुध से बड़ा है । शुक्र इच्छाओं से उत्पन्न भावनाओं को दर्शाता है । प्रेम जैसी कुछ भावनाओं के प्रभाव से वापस सामान्य अवस्था में आने के लिए मानव को कई सप्ताह भी लग सकते हैं । बुध और शुक्र सूर्य और पृथ्वी के बीच में अपनी परिक्रमायें करते हैं, और इसी लिए इन्हे आंतरिक ग्रह कहा जाता है ।

इसके अतरिक्त बुध और शुक्र, जो स्मृति, संचार और भावनाओं से जुड़े हुए ग्रह हैं, हर मानव के आंतरिक मुद्दे हैं और कोई भी बाहरी व्यक्ति बाहरी रूप से देखकर उनके विषय में नहीं बता सकता है । ये मनुष्य के अंदर छिपे हुए व्यक्ति के आंतरिक गुण हैं, इसलिए हमारे राशि चक्र में भी बुध और शुक्र आंतरिक ग्रह हैं । पृथ्वी हमारा शरीर है जिसके संदर्भ से हम सभी ग्रहों के गति को देख रहे हैं । चंद्रमा, जो पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, हमारे हमेशा बदलते मस्तिष्क को दिखाता है, विशेष रूप से मस्तिष्क का मन वाला भाग, जो मानव का सबसे तेज़ गति से बदलने वाला आंतरिक अंग है । तो पृथ्वी के चारों ओर चंद्रमा के घूर्णन को अन्य ग्रहो के घूर्णन की तुलना में सबसे कम समय लगता है । चंद्रमा के विषय में यह भी महत्वपूर्ण है कि अन्य ग्रहों की गति सूर्य के चारों ओर है, जो किसी व्यक्ति की आत्मा है, लेकिन चंद्रमा की गति पृथ्वी के चारों ओर या व्यक्ति की भौतिक, दृश्य संरचना के चारो ओर है ।

तो चंद्रमा हमारे शरीर के चारों ओर हमारी सोच दर्शाता है, इसका अर्थ मुख्य रूप से भौतिक वस्तुओ के विषय में है, या अधिक स्पष्ट रूप से चंद्रमा का घूर्णन हमारे अन्नमय कोश और प्राणमय कोश को मनोमय कोश के माध्यम से प्रभावित करता है ।

चंद्रमा के बाद बाहरी ग्रहआते हैं । पहला मंगल है, जो हमारी शारीरिक शक्ति, सहनशक्ति, क्षमता और क्रोध को दर्शाता है । बेशक ये वे गुण हैं जिनका कोई भी मनुष्य किसी की दैनिक गतिविधियों का बाह्य रूप से विश्लेषण करके उनके विषय में बता सकता है । अर्थात मैं बाहर से देखने के बाद बता सकता हूँ कि शारीरिक रूप से आप कितने बलशाली है, बुध, शुक्र और चंद्रमा की तरह इस पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है कि आपके शरीर या मस्तिष्क के अंदर क्या हो रहा है ।

तो बाहरी ग्रह वे गुण दिखाते हैं जो बाहर से दिखाई देते हैं । अगला ग्रह बृहस्पति है, जो आपके ज्ञान और सिखाने की क्षमता दिखाता है जिसे बाहर से तय किया जाता है । अंतिम बाहरी ग्रह शनि है, जो हमारे जीवन में प्रतिबंधों और समस्याओं को दिखाता है जिन्हें बाहर से देखा जा सकता है ।

अब इस बिंदु पर वापस आते हैं कि हमारे ब्रह्मांड का आकार, संरचना और संगठन समय के साथ-साथ बदलते रहते हैं । मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ । आपने क्षुद्रग्रह पट्टी के विषय में सुना है । क्षुद्रग्रह पट्टी सौर मंडल में स्थिति एक चक्राकार क्षेत्र है जो लगभग मंगल और बृहस्पति ग्रहों की कक्षाओं के बीच स्थित है । यह क्षेत्र क्षुद्रग्रहों या छोटे ग्रहों नामक कई अनियमित आकार वाले निकायों द्वारा भरा हुआ है। क्षुद्रग्रह पट्टी का आधा द्रव्यमान चार सबसे बड़े क्षुद्रग्रहों सेरेस, वेस्ता, पल्लस, और हाइजी में निहित है । असल में ये क्षुद्रग्रह एक आद्य ग्रह के अवशेष हैं जो बहुत पहले एक बड़े टकराव में नष्ट हो गया था; प्रचलित विचार यह है कि क्षुद्रग्रह बचे हुए चट्टानी पदार्थ हैं जो किसी ग्रह में सफलतापूर्वक सहवास नहीं करते हैं ।

© आशीष कुमार 

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हिन्दी साहित्य- संस्मरण ☆ संस्मरणात्मक आलेख – पूरा हिन्दुस्तान जगमगाया ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

डॉ कुंवर प्रेमिल

(डॉ कुंवर प्रेमिल जी  जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम नागरिकों ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक कई महामारियों से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है। आज प्रस्तुत है उनका संस्मरणात्मक आलेख  “पूरा हिन्दुस्तान जगमगाया ” जिसमें  उनके व्यक्तिगत विचार उनकी मनोभावनाओं के रूप में प्रदर्शित हो रहे हैं। यह आलेख समस्त देशवासियों की किसी भी आपदा के विरुद्ध  राष्ट्रीय एकता एवं  उनकी मनोभावनाओं को प्रकट करता है जो प्रधानमन्त्री जी के आह्वान पर एकजुट होकर खड़े हो गए थे। )

☆ संस्मरणात्मक आलेख  – पूरा हिन्दुस्तान जगमगाया   ☆  

श्रीराम जी जब लंका दहन कर लौटे तब पूरा अयोध्या जगमग जगमग कर रहा था. दीपोत्सव था वह. अयोध्या के अस्तित्व का सवाल था वह.

अभी अभी पांच अपरैल को पूरा हिन्दुस्तान जगमग जगमग हुआ था. महादीपोत्सव था यह. हमारे देश के अस्तित्व का सवाल था यह भी.

कोरोना अपने दहशत के भयंकर दाईने डैने फैलाकर  हमें डरा रहा था. विदेशों में इटली, जापान, अमेरिका, के इरादों को कुचलता हुआ आगे बढकर वह भारत में  भी  अपने भयंकर डैने फैलाना चाहता था.

कोरोना भूल गया था कि यहाँ सवा करोड़  जनता का राज है. ऐसॆ मौकों पर एकजुट होना इसकी आदत में शुमार है. अजीब दृश्य था. शहर-गावं सब मिलकर  दिये जला रहे थे. इन सांकेतिक दियों के पीछे देशवासी  कितना सुरक्षित महसूस कर रहे थे. यह जानने-समझने कि बात है. जैसे ये दिए, दिए न  होकर रक्षा करने वाले सिपाही हों, उन्हीं सिपाहियों के सम्मान में जो चौबीसों घंटे मानवता के लिए सतत सेवाएँ दे रहे हैं.

देशवासियों ने अपने अति उल्हास में फटाके भी फोड़े. दियों ने जनमानस को विश्ववास दिलाकर कहा – हमारा प्रकाश पुंज है न आप के साथ.

टीवी में से झांककर एक  अनुकरणीय चेहरा बार-बार भरोसा दे रहा था कि हम हैं न  आपके साथ. कही वह चेहरा हमारे दादा परदादा का तो नहीं जो प्रधानमंत्री का चेहरा लेकर आ खड़ा हुआ है. ये चेहरा अपने परिवार के मुखिया का सा क्यों लग रहा है भला?

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 42 ☆ सत्य और कानून ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का सत्य के धरातल पर लिखा गया  महत्वपूर्ण आलेख नारी आंदोलन पर आपके व्यक्तिगत विचारों से परिपूर्ण एक दस्तावेज है। नारी शक्ति विमर्श की प्रणेता डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 42 ☆

☆ सत्य और कानून 

‘फैसला जो भी सुनाया जाएगा / मुझको ही मुजरिम बताया जाएगा/ आजकल सच बोलता फिरता है वह/ देखना सूली पर चढ़ाया जाएगा’ अर्चना ठाकुर जी की यह पंक्तियां हांट करती हैं और वर्तमान परिस्थितियों पर बखूबी प्रहार करती हैं। यह शाश्वत सत्य है कि हर अपराध के लिए दोषी औरत को  ठहराया जाता है; भले वह अपराध उसने किया ही न हो। इतना ही नहीं, उसे तो अपना पक्ष रखने का अधिकार भी प्रदान नहीं किया जाता। सतयुग में अहिल्या त्रेता में सीता, द्वापर में द्रौपदी और कलयुग में निर्भया जैसी हज़ारों महिलाएं आपके समक्ष हैं। निर्भया के दुष्कर्मी, जिनहें सात वर्ष गुज़र जाने और बार-बार फांसी व डैथ-वारंट जारी होने का फरमॉन सुना देने के पश्चात् भी, बचाव के अवसर प्रदान किए जा रहे हैं, मनोमस्तिष्क  को आहत करते हैं और कानून-व्यवस्था की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं और सोचने को विवश करते हैं कि अपराधियों को बार-बार क्यूरेटिव-याचिका या गत वर्षों की मार-पीट के केस दर्ज  करवाने की अनुमति क्यों?

वैसे तो कहा जाता है ‘इग्नोरेंस ऑफ ला इज़ नो ऑफेंस’ अर्थात् कानून की अनभिज्ञता व अज्ञानता बेमानी है, अपराधी के बचने का विकल्प अथवा साधन नहीं है। क्या यह कानून सामान्यजनों के लिए है, दुष्कर्मियों व अपराधियों के लिए कारग़र नहीं;  शायद मानवाधिकार आयोग भी जघन्य अपराधियों की सुरक्षा के लिए बने हैं; उनके हितों की रक्षा करना उनका प्रथम व प्रमुख दायित्व है। जी हां! यही सब तो हो रहा है हमारे देश में। एक प्रश्न मन को बार-बार कचोटता है कि यदि बीजिंग में तीस मिनट में दुष्कर्मी को तलाश कर, जनता के हवाले करने के पश्चात् फांसी पर लटकाया जा सकता है, फिर हमारे देश में यह सब संभव क्यों नहीं है?

वास्तव में हमारा कानून अंधा और बहरा है। यहां निर्दोष व औरत को अपना पक्ष रखने व न्याय पाने का अधिकार कहां है? प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है? आपके समक्ष है… निर्भया व उन्नाव की पीड़िता व दुष्कर्म का शिकार होती महिलाओं के साथ होते संगीन अपराधों के रूप में… दुष्कर्म के पश्चात् उन्हें तेज़ाब डालकर ज़िंदा जला डालने, ईंटों से प्रहार कर सबूत मिटाने व शव को गंदे नाले में फेंक बहा देने के हादसे। सो! मस्तिष्क में यह प्रश्न बार-बार उठता है कि किस कसूर की सज़ा दी जाती है उन मासूम बालिकाओं-युवतियों; उनके माता-पिता व परिवारजनों को… जो वर्षों तक कचहरी में ज़लील होने के पश्चात् मन मसोस कर निराश लौट आते हैं, क्योंकि वहां अपराधियों को नहीं; शिकायत-कर्त्ताओं को कटघरे में खड़ा किया जाता है… हर बार नयी कहानी गढ़ी जाती है तथा अपराधियों को बचाव का हर अवसर प्रदान किया जाता है। क्यों..क्यों..आखिर  क्यों? ऐसे संगीन अपराधियों व दुष्कर्मियों को छोड़ दिया जाता है ज़मानत पर…शायद एक नया ज़ुर्म करने को… एक नया अपराध करने को… उदाहरण आपके समक्ष हैं; उन्नाव की पीड़िता का, जहां ऐसे अपराधी उसके प्रियजनों पर दबाव डालते हैं या उन्हें किसी हादसे में मार गिराते हैं अथवा पुन:उस पीड़िता को सामूहिक दुष्कर्म का शिकार बनाते हैं।

सो! अर्चना जी की यह पंक्तियां सत्य व सार्थक प्रतीत होती हैं। अपराधिनी तो हर स्थिति में महिला को ही ठहराया जाता है, क्योंकि वह हर जुल्म सहती है… ‘सहना और कुछ न कहना’ औरत की नियति है, जिसे वह युग-युगांतर से सहन करती आ रही है। हमारे शास्त्रों में संविधान रचयिता भी तो पुरुष ही थे। सो! सभी कायदे-कानून उनके पक्ष में बनाए गए हैं और औरत को सदा कटघरे में खड़ा कर, दोषारोपण नहीं किया गया, उसे प्रताड़ित व तिरस्कृत किया गया है। मुझे 2007 में स्व-प्रकाशित काव्य-संग्रह अस्मिता की ‘संस्कृति की धरोहर’ की पंक्तियां– ‘अधिकार हैं/ पुरुष के लिए/ नारी के लिए मात्र कर्त्तव्य/ इसमें आश्चर्य क्या है/ यह तो है युगों युगो की परंपरा/ संस्कृति की धरोहर।’ सतयुग में अहिल्या को शाप दिया गया था। अहिल्या कविता में ‘दोष पुरुष का/ सज़ा स्त्री को/ यही नियति है/ तुम्हारी युगों-युगों से।’ गांधारी कविता की– ‘गांधारी है/ आज की हर स्त्री/ खिलौना है पति के हाथों का/ कठपुतली है/ जो नाचती है इशारों पर/ घोंटती है गला/ अपनी इच्छाओं का/उसकी खुशी के लिए/ सामंजस्यता के लिए/ करती है होम/आकांक्षाओं का/ समरसता के लिए/ देती है बलि सपनों की/ करती है नष्ट अपना वजूद/ सब की इच्छाओं के प्रति सदैव समर्पित/—-और यदि ऐसा ना करे/ तो राह देख रहा होता है/ कोई तंदूर/ बिजली का नंगा तार/ मिट्टी के तेल का डिब्बा/ पंखे से झूलती रस्सी/ मन में भावनाओं ने/ अंगड़ाई ली नहीं/ तैयार हैं/ बंदूक की गोलियां/ या तेज़ाब की बोतल/ तेज़ाब… परिणाम उसके सपनों का/ जीवन के रूप में खौफ़नाक/ ऐसे ही भय या विवशता से/ मूंद लेती है/ वह निज आंखें/ और बन जाती है/गांधारी।’

शायद उपरोक्त पंक्तियां समर्थन करती हैं कि मुज़रिम सदैव औरत ही होती है। मुझे याद आ रही हैं, इसी पुस्तक की यशोधरा की ये पंक्तियां–’शायद भगवान भी क्रूर है/ कानून की तरह/ जो अंधा है, बहरा है/ जो जानता है/ केवल कष्ट देना/ ज़ुल्म करना/ उसके शब्दकोश में/ समस्या शब्द तो है/ परंतु निदान नहीं।’ रावण कविता की ये पंक्तियां आज भी समसामयिक हैं, सार्थक हैं। ‘सीता/ सुरक्षित थी/ राक्षसों की नगरी में/ उनके मध्य भी/ नारी सुरक्षित नहीं/ आज परिजनों के मध्य भी/ परिजन/ जिनके हृदय में बैठा है शैतान/ वे हैं नर पिशाच।’ क्या यह सत्य नहीं कि कानून और सृष्टि-नियंता ने भी दुष्टों के सम्मुख घुटने टेक दिए हैं।

औरत को हर पल अग्नि-परीक्षा से गुज़रना पड़ता है और सज़ा सदैव औरत को ही दी जाती है… दोषी भी वही ठहराई जाती है– ‘है यहां अंधा कानून/ चाहता है ग़वाह/ चश्मदीद ग़वाह/ जो बयां कर सके आंखों-देखी/ वह ग़वाह तो/-अस्मत लूटने वाला/

दरिंदा है/ जो कटघरे में खड़ा है/ कह रहा है निर्दोष स्वयं को/ और लगा रहा है तोहमत/ उस मासूम पर/ जिसकी अस्मत का/ सौदा हो रहा है/ कटघरे से बाहर/ कानून की/ बंद आंखों की/ पहुंच से परे/और परिणाम/ सब ग़वाहों और बयानों को/ मद्देनज़र रखते हुए/ अपराधी को बेग़ुनाह/ साबित करते हुए/ बा-इज़्ज़त/ बरी किया जाता है/ हंस रही है/ व्यंग्य से / वह फर्श पर/ टूटी हुई चूड़ियां/ यह अनकही /दास्तान हैं/ दर्द का बयान हैं।’

‘सच बोलता फिरता है वह/ देखना सूली पर चढ़ाया जाएगा’ कोटिश: सत्य कथन है। अनेक प्रश्न उठते हैं मन में– ‘कानून!/ रक्षक समाज का/ मनुष्य-मात्र का/ कर लेता नेत्र बंद/ बलात्कार का इल्ज़ाम/ सिद्ध होने पर/ क्यों नहीं चढ़ा दिया जाता/ उसे फांसी पर/ या बना दिया जाता है/ नपुंसक/ एहसास दिलाने को/ वह घिनौना कृत्य/ जिसे अंजाम दे/ कर दिया नष्ट/ जीवन उस मासूम का/ नोच डाला/ अधखिली कली को/ और  छीन लिया/ उसका बचपन।’

सत्य भले ही लंबे समय के पश्चात् उजागर होता है, परंतु उससे पहले ही आजकल उसे सूली पर चढ़ा दिया जाता है। यही है आज के युग का सत्य… झूठ उजागर होना चाहता है, क्योंकि अपराधियों को किसी का भय नहीं,  जिसका प्रमाण है—देश में बढ़ती दुष्कर्म की घटनाएं, मानव अंगों की तस्करी के लिए अपहरण की घटनाएं, सरे-आम भीड़ में तलवार लहराते और हवा में गोलियां चलाते दहशतगर्दों के  बुलंद हौसले, जिन्हें देखकर हर इंसान भयभीत व  आक्रोशित है, क्योंकि वह स्वयं को असुरक्षित  अनुभव करता है। काश! हमारे संविधान में संशोधन हो पाता; कानून की लचर धाराओं को बदला जाता और अपराधियों के लिए कड़ी से कड़ी सज़ा का प्रावधान होता। ‘जैसा जुर्म, वैसी सज़ा दी जाती, तो दरिंदों के हौसले पस्त रहते और वे उसे अंजाम देने से पहले लाख बार विचार करते। परंतु जब तक हमारा ज़मीर नहीं जागेगा, सब ऐसे ही चलता रहेगा। इसके लिए औरत को इंसान समझने की दरक़ार है। जब तक उसे दलित, दोयम दर्जे की प्राणी व उपभोग की वस्तु-मात्र समझा जाएगा, तब तक यह भीषण हादसे घटित होते रहेंगे…देह-व्यापार पर अंकुश नहीं लग पायेगा…दुष्कर्म होते रहेंगे और हर अपराध के लिए औरत को ही मुज़रिम करार किया जायेगा। लोग मुखौटा धारण कर, औरत की अस्मत से खिलवाड़ करते रहेंगे और वह महफ़िलों की शोभा बन उन्हें रोशन करती रहेगी। आवश्यकता है– सामंजस्य की, जिसका सिंचन संस्कारों द्वारा ही संभव है। हमें जन्म से ही लड़के-लड़की को समान समझ उन्हें संस्कारित करना होगा… मर्यादा व संयम का पाठ पढ़ाना होगा। बेटियों को आत्मरक्षा हित जूडो-कराटे सिखाना होगा; आत्मनिर्भर बनाना होगा, ताकि उसे कभी भी दूसरों के सामने हाथ न पसारने पड़ें। इतना ही नहीं, हमें उन्हें यह एहसास दिलाना होगा कि विवाहोपरांत भी इस घर के द्वार उसके लिए खुले हैं। वह उस घर का हिस्सा थीं और सदैव रहेंगी।

वैसे तो दुष्कर्म के हादसों के संदर्भ में चश्मदीद गवाह की मांग करना हास्यास्पद है। इस स्थिति में साक्ष्यों के आधार पर तुरंत निर्णय लेना ही कारग़र है ताकि अपराधियों को सबूत मिटाने, परिवारजनों को धमकी देने व उस दुष्कर्म-पीड़िता को ज़िंदा जलाने जैसे अपराधों की पुनरावृत्ति न हो। आज कल के युवा बहुत सचेत व इस तथ्य से अवगत हैं कि ‘एक व दस अपराधों की सज़ा समान होती है।’ सो! वे दुष्कर्म के करने के पश्चात् पीड़िता की हत्या कर निश्चिंत हो जाते है, क्योंकि ‘न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी’ अर्थात्  पीड़िता के ज़िंदा न बचने पर, उन्हें साक्ष्य जुटाने में वर्षों गुज़र जायेंगे।

आधुनिक युग में हर इंसान बिकता है। हमारे नुमाइंदे भी सत्ता का दुरुपयोग कर आरोपियों को संरक्षण प्रदान कर, अपनी पीठ थपथपाते हैं और पीड़िता के परिजन दहशत के साये में जीने को विवश होते हैं। अक्सर तो वे मौन धारण कर लेते हैं, क्योंकि उनके कारनामों की रिपोर्ट दर्ज कराना तो उनसे पंगा लेने के समान है–’आ! बैल, मुझे मार’ की स्थिति को आमंत्रण देने, मुसीबतों व दुश्वारियों को आमंत्रण देने जैसा है।

आश्चर्य होता है, अपने देश की कानून-व्यवस्था को देख कर–यदि वे शिकायत दर्ज कराने कि साहस जुटाते हैं, तो कोई साक्ष्यकर्त्ता ग़वाही देने की जुर्रत नहीं करता क्योंकि कोई भी अपनी हंसती-खेलती गृहस्थी की खुशियों में सेंध नहीं लगाना चाहता। ‘भय बिनु होत न प्रीति’ बहुत सार्थक उक्ति है। सो! हमें कानून को सख्त बनाना होगा, ताकि समाज में अव्यवस्था व जंगल-राज न फैले। वास्तव में त्वरित न्याय-व्यवस्था वह रामबाण औषधि है, जो कोढ़ जैसी इस लाइलाज बीमारी पर भी विजय प्राप्त कर सकती है।

आइए! गूंगी-बहरी व्यवस्था को बदल डालें। लोगों में आधी आबादी में विश्वास जाग्रत करें ताकि उनमें सुरक्षा का भाव जाग्रत हो व भ्रूण-हत्या जैसे अपराध समाज में न हों और लिंगानुपात बना रहे। समन्वय, सामंजस्य व समरसता हमारी संस्कृति की अवधारणा है, जो समाज में सत्यम् शिवम् व सुंदरम् की स्थापना करती है। सज़ा अपराधी को ही मिले और सत्यवादी को न्याय प्राप्त हो…उसे सूली पर न चढ़ाया जाए…यही अपेक्षा है कानून-व्यवस्था से। सत्य का पक्षधर को सदैव यथासमय, शीघ्र न्याय प्राप्त होना चाहिए। सो! समाज में राग-द्वेष, स्व-पर आदि का स्थान न हो और संसार का हर बाशिंदा स्नेह, प्रेम, सौहार्द, करुणा, त्याग आदि की भावनाओं से आप्लावित हो, सकारात्मक सोच का धनी हो। ‘जो हुआ,अच्छा हुआ/ जो होगा,अच्छा होगा…यह नियम सच्चा है।’ सो! जो अच्छा व शुभ नहीं, त्याज्य है; उसका विरोध करना अपेक्षित है। द्वंद्व संघर्ष का परिणाम है और संघर्ष ही जीवन है। जब तक मानव में सत्य को स्वीकारने का साहस नहीं होगा, ज़ुल्म होते ही रहेंगे। सो! धैर्य वह संजीवनी है, जो वर्तमान व भविष्य को सुखद बनाने में समर्थ है…आनंद-प्रदाता है। आइए! विश्व-कल्याण हेतु इस यज्ञ में समिधा डालें ताकि वायु प्रदूषण ही नहीं; मानसिक व सांस्कृतिक प्रदूषण का अस्तित्व भी न रहे और प्राणी-मात्र सुक़ून की सांस ले सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 42 ☆ मेरी रचना प्रक्रिया☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक आलेख  “ मेरी  रचना प्रक्रिया।  श्री विवेक जी ने  इस आलेख में अपनी रचना प्रक्रिया पर विस्तृत विमर्श किया है। आपकी रचना प्रक्रिया वास्तव में व्यावहारिक एवं अनुकरणीय है जो  एक सफल लेखक के लिए वर्तमान समय के मांग के अनुरूप भी है।  उनका यह लेख शिक्षाप्रद ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है। उन्हें इस  अतिसुन्दर आलेख के लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 42 ☆ 

मेरी रचना प्रक्रिया

मूलतः व्यंग्य, लेख, विज्ञान, बाल नाटक,विज्ञान कथा, कविता आदि मेरी अभिव्यक्ति की विधायें हैं.

मेरे प्रिय व्यंग्य, रामभरोसे, कौआ कान ले गया, धन्नो बसंती और बसंत, खटर पटर, मिलीभगत, आदि मेरे लोकप्रिय व्यंग्य संग्रह हैं. जल जंगल और जमीन बाल विज्ञान की पुस्तक है जो प्रदेश स्तर पर प्राथमिक शालाओ में खूब खरीदी व सराही गई, हिंदोस्तां हमारा, जादू शिक्षा का, नाटक की पुस्तकें हैं.आक्रोश १९९२ में विमोचित पहला कविता संग्रह है.

मैं रचना को मन में परिपक्व होने देता हूं, सामान्यतः अकेले घूमते हुये, अधनींद में, सुबह बिस्तर पर, वैचारिक स्तर पर सारी रचना का ताना बाना बन जाता है फिर जब मूड बनता है तो सीधे कम्प्यूटर पर लिख डालता हूं. मेरा मानना है कि किसी भी विधा का अंतिम ध्येय उसकी उपयोगिता होनी चाहिये. समाज की कुरीतियो, विसंगतियो पर प्रहार करने तथा पाठको का ज्ञान वर्धन व उन्हें सोचने के लिये ही वैचारिक सामग्री देना मेरी रचनाओ का लक्ष्य होता है.

मेरी रचना का विस्तार कई बार अमिधा में सीधे सीधे जानकारी देकर होता है, तो कई बार प्रतीक रूप से पात्रो का चयन करता हूं. कुछ बाल नाटको में मैने नदी,पहाड़,वृक्षो को बोलता हुआ भी रचा है. अभिव्यक्ति की विधा तथा विषय के अनुरूप इस तरह का चयन आवश्यक होता है, जब जड़ पात्रो को चेतन स्वरूप में वर्णित करना पड़ता है.  रचना की संप्रेषणीयता संवाद शैली से बेहतर बन जाती है इसलिये यह प्रक्रिया भी अनेक बार अपनानी पड़ती है.

कोई भी रचना जितनी छोटी हो उतनी बेहतर होती है,न्यूनतम शब्दों में अधिकतम वैचारिक विस्तार दे सकना रचना की सफलता माना जा सकता है.  विषय का परिचय, विस्तार और उपसंहार ऐसा किया जाना चाहिये कि प्रवाहमान भाषा में सरल शब्दो में पाठक उसे समझ सकें.नन्हें पायको के लिये लघु रचना, किशोर और युवा पाठको के लिये किंचित विस्तार पूर्वक तथ्यात्मक तर्को के माध्यम से रचना जरूरी होती है. मैं बाल कथा ५०० शब्दों तक समेट लेता हूं, वही आम पाठको के लिये विस्तार से २५०० शब्दों में भी लिखता हूं. अनेक बार संपादक की मांग के अनुरूप भी रचना का विस्तार जरूरी होता है. व्यंग्य की शब्द सीमा १००० से १५००शब्द पर्याप्त लगती है. कई बार तो पाठको की या संपादक की मांग पर वांछित विषय पर लिखना पड़ा है. जब स्वतंत्र रूप से लिखा है तो मैंने पाया है कि अनेक बार अखबार की खबरों को पढ़ते हुये या रेडियो सुनते हुये कथानक का मूल विचार मन में कौंधता है.

मेरी अधिकांश रचनाओ के शीर्षक रचना पूरी हो जाने के बाद ही चुने गये हैं. एक ही रचना के कई शीर्षक अच्छे लगते हैं. कभी  रचना के ही किसी वाक्य के हिस्से को शीर्षक बना देता हूं. शीर्षक ऐसा होना जरूरी लगता है जिसमें रचना की पूरी ध्वनि आती हो.

मैंने  नाटक संवाद शैली में ही लिखे हैं. विज्ञान कथायें वर्णनात्मक शैली की हैं. व्यंग्य की कुछ रचनायें मिश्रित तरीके से अभिव्यक्त हुई हैं. व्यंग्य रचनायें प्रतीको और संकेतो की मांग करती हैं. मैं सरलतम भाषा, छोटे वाक्य विन्यास, का प्रयोग करता हूं. उद्देश्य यह होता है कि बात पाठक तक आसानी से पहुंच सके. जिस विषय पर लिखने का मेरा मन बनता है, उसे मन में वैचारिक स्तर पर खूब गूंथता हूं, यह भी पूर्वानुमान लगाता हूं कि वह रचना कितनी पसंद की जावेगी.

मेरी रचनायें कविता या कहानी भी नितांत कपोल कल्पना नही होती.मेरा मानना है कि कल्पना की कोई प्रासंगिकता वर्तमान के संदर्भ में अवश्य ही होनी चाहिये. मेरी अनेक रचनाओ में धार्मिक पौराणिक प्रसंगो का चित्रण मैंने वर्तमान संदर्भो में किया है.

मेरी पहचान एक व्यंग्यकार के रूप में शायद ज्यादा बन चुकी है. इसका कारण यह भी है कि सामाजिक राजनैतिक विसंगतियो पर प्रतिक्रिया स्वरूप समसामयिक व्यंग्य  लिख कर मुझे अच्छा लगता है, जो फटाफट प्रकाशित भी होते हैं.नियमित पठन पाठन करता हूं, हर सप्ताह किसी पढ़ी गई किताब की परिचयात्मक संक्षिप्त समीक्षा भी करता हूं. नाटक के लिये मुझे साहित्य अकादमी से पुरस्कार मिल चुका है. बाल नाटको की पुस्तके आ गई हैं. इस सबके साथ ही बाल विज्ञान कथायें लिखी हैं . कविता तो एक प्रिय विधा है ही.

पुस्तक मेलो में शायद अधिकाधिक बिकने वाला साहित्य आज बाल साहित्य ही है. बच्चो में अच्छे संस्कार देना हर माता पिता की इच्छा होती है, जो भी माता पिता समर्थ होते हैं, वे सहज ही बाल साहित्य की किताबें बच्चो के लिये खरीद देते हैं. यह और बात है कि बच्चे अपने पाठ्यक्रम की पुस्तको में इतना अधिक व्यस्त हैं कि उन्हें इतर साहित्य के लिये समय ही नही मिल पा रहा.

आज अखबारो के साहित्य परिशिष्ट ही आम पाठक की साहित्य की भूख मिटा रहे हैं.पत्रिकाओ की प्रसार संख्या बहुत कम हुई है. वेब पोर्टल नई पीढ़ी को साहित्य सुलभ कर रहे हैं. किन्तु मोबाईल पर पढ़ना सीमित होता है, हार्ड कापी में किताब पढ़ने का आनन्द ही अलग होता है.  शासन को साहित्य की खरीदी करके पुस्तकालयो को समृद्ध करने की जरूरत है.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 23 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। डॉ भीमराव  आम्बेडकर जी के जन्म दिवस के अवसर पर  हम  आपसे इस माह महात्मा गाँधी जी एवं  डॉ भीमराव आंबेडकर जी पर  आधारित आलेख की श्रंखला प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का  प्रथम आलेख  “महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर। )

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 23 – महात्मा गांधी और डाक्टर भीमराव आम्बेडकर  – 1

परतंत्र भारत में समाज सुधार के लिए स्वयं को समर्पित करने वाले महापुरुषों  में डाक्टर भीमराव आम्बेडकर और मोहनदास करमचंद गांधी का नाम अग्रिम पंक्ति में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। डाक्टर भीम राव आम्बेडकर को स्वतन्त्रता के पूर्व से ही दलित वर्ग के नेतृत्वकर्ता के रूप में पहचान मिली और वे वंचित शोषित समाज के प्रतिनिधि के रूप में पहले साइमन कमीशन के सामने मुंबई में  और फिर तीनों  गोलमेज कांफ्रेंस, लन्दन में न केवल सम्मिलित हुए वरन उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज में दलितों की समस्या पुरजोर ढंग से अंग्रेज सरकार के सामने रखी। इसके पूर्व भी डाक्टर आम्बेडकर विभिन्न मंचों पर दलित समुदाय की समस्याएं उठाते रहे और अस्पृश्यता के खिलाफ आन्दोलन व जनजागरण की मुहीम चलाते रहे। इस दिशा में महाड़ के चवदार तालाब में अपने अनुयायियों के साथ प्रवेश कर अंजुली भर जल पीने और नाशिक के कालाराम मंदिर तथा अन्य हिन्दू धार्मिक स्थलों  में दलितों के प्रवेश को लेकर किये गए आन्दोलनों, अछूतों के उपनयन संस्कार आदि के आयोजनों ने उन्हें पर्याप्त ख्याति दी।  दूसरी ओर गांधीजी ने भी दलित समाज की पीड़ा को समझा और उनको मुख्य धारा में शामिल करने, छुआछूत का भेद मिटाने, मंदिरों में प्रवेश, दलित वर्ग के शैक्षणिक, आर्थिक व सामाजिक विकास  आदि को लेकर सामाजिक आंदोलन किये, उन्हें ‘हरिजन’ नाम दिया और ‘हरिजन’ नाम से एक समाचार पत्र का सम्पादन भी किया। गांधीजी ने कांग्रेस के कार्यों के लिए लगभग एक  करोड़ रूपये का चन्दा सन 1921 में एकत्रित किया था, इसमें से बड़ी रकम उन्होंने अछूतपन मिटाने जैसे  रचनात्मक कार्यों के लिये आवंटित की थी। गांधीजी ने 1933 में भारत का व्यापक दौरा किया जिसे इतिहास में हरिजन दौरे का नाम मिला।  दोनों नेताओं के बीच दलितों के उत्थान को लेकर इस सामाजिक बुराई को लेकर गहरे मतभेद थे। आज भी यदा कदा इन मतभेदों को लेकर चर्चाएँ होती रहती हैं और दोनों को एक दूसरे के कट्टर विरोधी और कटु आलोचक के रूप में दिखाया जाता है। वस्तुतः ऐसा है नहीं। इन दोनों नेताओं के बीच दलित समाज के उत्थान को लेकर चिंता थी, दोनों इस सामाजिक बुराई को दूर करना चाहते थे लेकिन जहाँ एक ओर कानूनविद आम्बेडकर इस बुराई को दूर करने के लिए कठोर कारवाई और  क़ानून का सहारा लेना चाहते थे तो दूसरी ओर गांधीजी इसे सौम्यता के साथ सामाजिक बदलाव व ह्रदय परिवर्तन के माध्यम से दूर करना चाहते थे।

इन्दौर के निकट महू छावनी में  (जिसका नामकरण अब डाक्टर आम्बेडकर नगर हो गया है)  14 अप्रैल 1891 को जन्मे भीमराव आम्बेडकर, सेना में सूबेदार रामजी राव के चौदहवें पुत्र थे और वे महात्मा गांधी से लगभग बाईस वर्ष छोटे थे। उम्र के इतने अंतर के बाद भी गांधीजी डाक्टर आम्बेडकर से अपने मतभेदों के बावजूद  संवाद करते रहते थे। पंडित जवाहर लाल नेहरु ने डाक्टर आम्बेडकर को अपनी मंत्रीपरिषद में क़ानून मंत्री बनाया, संविधान सभा का सदस्य बनाया और उनकी इच्छा के अनुरूप दलितों को आरक्षण का संवैधानिक अधिकार दिलाया यह सब कुछ निश्चय ही महात्मा गांधी की प्रेरणा से ही संभव हुआ।

गांधीजी और डाक्टर आम्बेडकर के मध्य अस्पृश्यता को लेकर बड़े गहरे मतभेद थे। जहाँ गांधीजी वर्ण व्यवस्था को हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग मानते थे और उनके मतानुसार अस्पृश्यता वर्ण व्यवस्था की देन  न होकर ऊँच-नीच की भावना का परिणाम है जो हिन्दुओं में फैल गई है व समाज को खाए जा रही है। डाक्टर आम्बेडकर का मानना था कि  अस्पृश्यता मनुवादी वर्ण व्यवस्था के कारण है और जब तक वर्णाश्रम को ख़त्म नहीं किया जाता तब तक अन्त्ज्य रहेंगे और उनकी मुक्ति संभव नहीं है। जाति प्रथा को भी गांधीजी अनिवार्य मानते थे और इसे वे रोजगार से जोड़कर देखते थे। डाक्टर आम्बेडकर के विचारों में स्वराज से पहले अछूत समस्या का निदान जरूरी था और वे दलित वर्ग के लिए समता के अधिकारों की गारंटी स्वराज हासिल करने के पहले चाहते थे। उनकी मान्यता थी कि अगर अंग्रेजों के रहते अछूतों को उनके अधिकार नहीं मिले तो स्वराज प्राप्ति के बाद भारत की राजनीति में सवर्णों का एकाधिपत्य बना रहेगा और वे दलितों के साथ सदियों पुरानी परम्परा के अनुसार दुर्व्यवहार व भेदभाव करते रहेंगे। गांधीजी सोचते थे कि एक बार स्वराज मिल जाय तो फिर इस समस्या का निदान खोजा जाकर  अंत कर दिया जाएगा। गांधीजी ने दलितों को हिन्दू समाज में सम्मानजनक स्थान देने के लिए ‘हरिजन’ नाम दिया। डाक्टर आम्बेडकर और उनके अनुयायियों ने ‘हरिजन’ शब्द को कानूनी मान्यता देने संबंधी प्रस्ताव का डटकर विरोध किया। उनके मतानुसार यदि दलित ‘हरिजन’ यानी ईश्वर की संतान हैं तो क्या शेष लोग शैतान की संतान हैं?

गांधीजी और आम्बेडकर में मतभेद  अस्पृश्यता की उत्पत्ति को लेकर भी थे। गांधीजी का मानना था कि वेदों में चार वर्ण की तुलना शरीर के चार हिस्सों से की गई है। चूँकि चारों वर्ण शरीर का अंग हैं अत: उनमें ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं हो सकता। वे मानते थे कि पुर्नजन्म के सिद्धांत के अनुसार अच्छे कार्य करने से शूद्र भी अगले जन्म में ब्राह्मण वर्ण में पैदा हो सकता है। वे वर्ण व्यवस्था को सोपान क्रम जैसा नहीं मानते वरन उनके अनुसार अलग-अलग जातियों का होना हिन्दू धर्म में सामाजिक समन्वय व आर्थिक स्थिरता बनाए रखता है। हिन्दू समाज के एक समन्वित इकाई के रूप में कार्य करने का श्रेय वे वर्ण व्यवस्था को देते हैं। वे विभिन्न वर्णों व जातियों के मध्य विवाह व खान पान का निषेध नहीं करते हैं, लेकिन इस हेतु किसी भी जोर जबरदस्ती के वे खिलाफ हैं। गांधीजी के विपरीत आम्बेडकर ने वेदों में वर्णित वर्ण व्यवस्था की अलग ढंग से व्याख्या की। वे मानते हैं कि वर्ण व्यवस्था में विभिन्न वर्गों का शरीर के अंगों के समतुल्य मानना सोची समझी योजना है। मानव शरीर में पैर ही सबसे हेय अंग हैं और इसलिए शूद्र को सामाजिक व्यवस्था में सबसे निचली पायदान प्राप्त है। सामाजिक अपमान की यह धारणा उनके मतानुसार परतबद्ध असमानता के दम पर टिकी है। वे जाति प्रथा का कारण आर्थिक नहीं वरन एक ही जाति के भीतर विवाह की व्यवस्था को मानते हैं। उनके मतानुसार रोटी-बेटी का सम्बन्ध बनाए बिना जाति व्यवस्था ख़त्म नहीं होगी और जब तक जातियाँ अस्तित्व में अस्पृश्यता बनी रहेगी।

……….क्रमशः  – 2

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य- संस्मरण ☆ संस्मरणात्मक आलेख  – भाग रहा कोरोना ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

डॉ कुंवर प्रेमिल

(डॉ कुंवर प्रेमिल जी  जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम नागरिकों ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक कई महामारियों से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है। आज प्रस्तुत है  उनके संस्मरण पर आधारित रचना “भाग रहा कोरोना”. उनके दीर्घ जीवन के एक संस्मरण  की स्मृतियाँ जो हमें याद दिलाती है  कि हम जीवन में कैसे-कैसे अनुभवों से गुजरते हैं।)

☆ संस्मरणात्मक आलेख  – भाग रहा कोरोना ☆  

सत्तर के दशक में ओडीसा राज्य में सरवे हेतु गया था. वहां का घना जंगल देख कर भय लगता था, बड़े बड़े अजगर, शेर, भालू, कदम-कदम पर मिलते थे, जान जोखिम में रहती थी,

हम लोग दिन भर जंगलों में काम करते थे, थक हार कर कैंप में लौटते तो हाथी दल से सामना हो जाता,  गाँव वालों के साथ टीन टप्पर बजाकर हाथियों को भगाया जाता,  भागते हाथियों को देख कर तालियां बजाते,

वैसा का वैसा दृश्य बाइस मार्च को देखने मिला, पूरा शहर घंटा-घडियाल, शंख बजा रहा था ऐसा लगता था जैसे हम लोग कोरोना को भगा रहे थे, और कोरोना सिर पर पैर रख कर भाग रहा था,

भागते हाथियों का संस्मरण भागते कोरोना से जोड़ कर मैं आशान्वित हो रहा था. आप भी हों. आशा से आसमान जो टंगा है.

यह संस्मरण सांकेतिक है किन्तु, इस आशा के पीछे छुपा है स्वास्थ्य कर्मियों, पुलिस एवं प्रशासनिक कार्य में जुटे हुए उन लाखों भारतीय नागरिकों का सतत निःस्वार्थ भाव से किया जा रहा कार्य जो हमें इस अदृश्य शत्रु से लड़ने में सहयोग दे रहे हैं।  घंटे घड़ियाल, शंख, थाली और तालियों से उन सबको नमन।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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