हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 554 ⇒ मरने-जीने की शर्तें ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मरने-जीने की शर्तें ।)

?अभी अभी # 554 ⇒ मरने-जीने की शर्तें ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ ही लोग ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जी पाते हैं। अधिकांश बीमारियों का तो शर्तिया इलाज हो सकता है, कुछ बीमारियाँ फिर भी लाइलाज भी रह ही जाती हैं। ज़िंदा रहने की कोई शर्त नहीं होती, समयावधि नहीं होती। चलो मान लिया, हम अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी नहीं जी सकते, तो क्या अपनी शर्तों पर हमें मरने का भी अधिकार नहीं।

हम ज़िन्दगी जीना कब शुरू करते हैं, सिर्फ हमारे अलावा कौन जानता है। जब तक इंसान ज़िन्दगी का मतलब समझे, मौत का बुलावा आ जाता है। ढंग से जीना शुरू भी नहीं किया, और ऊपर से बुलावा आ गया। मरना कौन चाहता है ! कुछ की जिजीविषा और आत्म-विश्वास उन्हें सौ साल तक जिंदा रखता है, तो कुछ कम उम्र में ही टूट जाते हैं।।

बहुत दुख होता है, किसी को असमय ज़िन्दगी को अलविदा कहते देख ! ज़िन्दगी के बाद बहुत कुछ होगा, लेकिन ज़िन्दगी नहीं। जब हमें मौत को गले ही लगाना है, तो क्यों न पहले से ही खरी-पक्की कर ली जाए। ज़िन्दगी भर तो पछताते रहे, कम से कम मौत तो अपनी शर्तों के अनुसार मिले।

क्या मौत से पहले एक चार्टर ऑफ डिमांड्स नहीं दिया जा सकता ! जिस तरह इंसान की जीने की कुछ मूल-भूत आवश्यकताएं हैं, क्या मरने के बाद नहीं हो सकती। चलो ! मान लिया, हम मर गए, लेकिन हमारा रखवाला, वह ऊपर वाला भगवान तो अभी नहीं मरा। जीते जी चलो हमारी नहीं सुनी, अब मरने के बाद तो सुनवाई कर लो।।

हमारा सिर्फ़ शरीर ही मरता है, आत्मा तो अमर है ही ! हमारी इच्छाएँ कहाँ मरती है। आज, ठंड में एक प्याला जो चाय हमें नसीब होती है, क्या मरने के बाद उस पर हमारा कोई अधिकार नहीं ! मानवाधिकार जैसा, क्या मृतकों का कोई अधिकार नहीं ? ईश्वर का विधान तो भारत के संविधान से भी ज़्यादा कड़क दिखाई देता है। क्या राइट टू इनफार्मेशन (RTI) के तहत हमें ईश्वर से यह जानने का अधिकार नहीं, कि हमें कहाँ, कौन से लोक में, स्वर्ग अथवा नर्क में भेजा जा रहा है।

न्याय का सिद्धांत यह भी दलील दे सकता है कि एक मृत व्यक्ति पर इस लोक का क्षेत्राधिकार, jurisdiction, लागू नहीं होता। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि मरने के बाद हमारी कोई नहीं सुनने वाला। ( जीते जी किसने सुन ली थी ) जितनी भी खरी-पक्की करना है, शर्तें रखना है, अब ही रख सकते हैं। ताकि सनद रहे, मृत्यु पश्चात वक्त ज़रूरत काम आवे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 224 ☆ सुखद संदेश… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना सुखद संदेश। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 224 ☆ सुखद संदेश…

विनम्रता का भाव जीत का आधार बनता है। विकट समस्या भी एक समय के बाद स्वयं हल हो जाती है। जहाँ एक ओर लोग इसे सहजता से स्वीकार करते हैं तो वहीं दूसरी ओर लोग रो पीट कर, थक हार कर इसे ईश्वर की नियति मानकर अपनाते हैं। भाव कोई भी हो वक्त हर मरहम की दवा बन सबको जीने का पाठ पढ़ाता है। जिस वातावरण में हम रहते हैं वहाँ का असर पड़ना स्वाभाविक है, बुद्धिमानी तो इसमें है कि हमें अपनी संगति का सतत ध्यान रखना चाहिए, किसी कीमत पर इससे समझौता न हो। आध्यात्मिक शक्ति हमको जीवन मूल्यों के साथ अपने उद्देश्यों से भी परिचित कराती है इसलिए इसके साथ रहिए…अर्चना, वंदना, भक्ति की शक्ति को अपनी ताकत बना ब्रह्मांड से जुड़ें।

*

करें हम आराधना

नित्य सरस साधना

भेदभाव दूर होवे

प्रार्थना तो कीजिए।

*

वंदना करेंगे सभी

काज पूरे होंगे तभी

मिलजुल कर रहें

शुभाशीष लीजिए। ।

*

कोई न विश्वास दूजा

धर्म कर्म सत्य पूजा

आनन्द में डूबकर

भक्ति रस पीजिए।

*

धार के उम्मीद सारे

प्रेमभाव जो निहारे

ज्ञान भरी ज्योति जले

ये संदेश दीजिए। ।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 553 ⇒ लेखन और अवचेतन ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लेखन और अवचेतन।)

?अभी अभी # 553 ⇒ लेखन और अवचेतन ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

लेखन का संबंध सृजन से है, चेतना और विचार प्रक्रिया से है। पठन पाठन, अध्ययन, चिंतन मनन, अनुभव और अनुभूति के प्रकटीकरण का माध्यम है लेखन, जिसमें वास्तविक घटनाओं एवं कल्पनाशीलता का भी समावेश होता है। एक अच्छे लेखक के लिए, एक अच्छी याददाश्त और अनुभवों का खजाना बहुत जरूरी है। अगर चित्रण रुचिकर ना हुआ, तो लेखन नीरस भी हो सकता है।

जिन लोगों का चेतन अधिक सक्रिय होता है, वे अच्छे लेखक बन जाते हैं लेकिन जिनका अवचेतन अधिक प्रबल होता है, वे केवल सपने ही देखते रह जाते हैं।।

लेखन की ही तरह एक संसार सपनों का भी होता है, जहां कथ्य भी होता है, घटनाएं भी होती है, सस्पेंस, रोमांस और मर्डर मिस्ट्री, क्या नहीं होता अवचेतन के इस संसार में ! लेकिन अफसोस, यहां कर्ता केवल दृष्टा बनकर सोया होता है, मानो किसी ने उसके हाथ पांव बांधकर पटक दिए हों। जब इस लाइव टेलीकास्ट वाले एपिसोड का अंत आने वाला होता है, तब उसे सपने के अवचेतन के चंगुल से मुक्त कर होश में ला दिया जाता है। ना कोई डायरी ना कोई वीडियो शूटिंग, सब कुछ सपना सपना।

सपना मेरा टूट गया। जागने पर चेतन मन अवचेतन की कड़ियों को जोड़ने की कोशिश जरूर करता है, लेकिन कामयाब नहीं होता, क्योंकि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था। जागृत और सुषुप्तावस्था में यही तो अंतर है। सोते समय बहुत कुछ याद रहता है, जो अवचेतन को प्रभावित करता है, लेकिन जागने के बाद अवचेतन मन इतना प्रभावित नहीं करता। सपनों के सहारे कोई लेखक नहीं बना। केवल जाग्रत प्रयास से ही कई लेखकों के सपने सच हुए हैं और वे एक अच्छा लेखक बन पाए हैं।।

लेखन साहित्य का विषय है मनोविज्ञान का नहीं, सपने और अवचेतन, मनोविज्ञान का विषय है, लेखन का नहीं। लोग कभी सपनों को गंभीरता से नहीं लेते, उनकी अधिक रुचि सपनों को सच करने में होती है, जो जाहिर है, कभी कभी सपने में भी सच हो जाती है, जब वे कहते हैं, मैने तो सपने में भी नहीं सोचा था, मैं एक सफल लेखक बन पाऊंगा।

सपनों का एक लेखक के जीवन में कितना योगदान होता है, यह तो कोई लेखक ही बता सकता है। सुना है लेखन में एक लेखक को इतना आत्म केंद्रित होना पड़ता है कि भूख प्यास और नींद सब गायब हो जाती है। मुर्गी की तरह विचार अंडा देने को बेताब होते हैं और तब तक देते रहते हैं, जब तक सुबह मुर्गा बांग नहीं दे देता। उधर सूर्योदय और इधर हमारे सूर्यवंशी जी ऐसी तानकर सोते हैं कि आप चाहो तो घोड़े बिकवा लो।

सपना तो पास ही नहीं फटक सकता उनके और गहरी नींद के बीच।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 112 – देश-परदेश – मुंह धो कर आना ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 112 ☆ देश-परदेश – मुंह धो कर आना ☆ श्री राकेश कुमार ☆

सामान्य भाषा में मित्रों और परिचितों को हमने ये कहते हुए अनेक बार सुना है, “जाओ  मुंह धो कर आओ” जब कभी हमें ऐसा प्रतीत होता है, कि सामने वाला व्यक्ति किसी कार्य कर सकने के काबिल नहीं है, या उसमें इतनी क्षमता नहीं है, कि वो ये कार्य सम्पन्न कर सकें, उसको मज़ाक में कह दिया जाता है, जाओ पहले मुंह धो कर आओ।

हमारे चाचा जब कभी घर में कुछ खानें के लिए बात करते थे, तो पिताजी कहते थे। पहले हाथ मुंह धो लो, फिर भोजन ग्रहण करो। चाचा हाजिर जवाबी और अधिक भूख के कारण कह देते थे, “शेर कहां मुंह धोते हैं” ऐसा कहकर वो भोजन पर टूट पड़ते थे।

उपरोक्त फोटो में तो पुलिस वाले ही हाइवे पर ट्रक ड्राइवरों के मुंह धो रहे हैं, ताकि उनकी नींद खुल जाए, और सड़क दुर्घटनाओं में कमी की जा सके, नींद भगाने का पुराना फॉर्मूला है। वैसे, रात के समय भीषण ठंड के दिनों में, ये घोर जुल्म हो रहा है।

दसवीं की बोर्ड परीक्षा के समय माता जी ठंड के दिनों में प्रातः चार बजे जगा दिया करती थी। हम भी चटाई/ कुर्सी पर कंबल में बैठे बैठे सो जाते थे। पिता जी की दृष्टि जब भी हम पर पड़ती, वो शब्दों के बाण छोड़ दिया करते थे। हम भी जिद्दी और ढीठ प्रवृति के थे, पिताजी के शब्द बाण को अनसुना कर निद्रा में खो जाते थे।

बाप तो बाप ही होता है, कड़कती ठंड में खुले हौद से लौटा भर कर पानी के छींटे हमारे मुंह पर डाल कर नींद भगाने का फार्मूला, पिता जी ने भी अपने बाप से ही सीखा था। हमारी पीढ़ी ने इस प्रथा को लुप्त प्रायः सा कर दिया है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 551 ⇒ हृदय परिवर्तन ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हृदय परिवर्तन ।)

?अभी अभी # 551 ⇒ हृदय परिवर्तन ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज हम हृदय प्रत्यारोपण की नहीं, हृदय परिवर्तन की बात करेंगे। इसमें केवल ट्रांसफॉर्मेशन होता है, ट्रांसप्लांटेशन नहीं। इसमें कोई मरीज नहीं होता, कोई चिकित्सक नहीं होता। कोई सर्जरी, दिल की अदला बदली नहीं होती, कुछ नहीं होता, बस कुछ कुछ होता है।

अगर किसी का हृदय परिवर्तन इतना आसान होता, तो दुनिया में युद्ध न होते, दुराचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार न होता। न रावण मरता, न कंस का वध होता।।

ईश्वर के इतने अवतार हुए, कभी मानवता के आदर्श के रूप में हुए तो कभी दुष्टों के संहार और अधर्म के नाश और धर्म की स्थापना के लिए। कभी हमने रामराज्य का विहंगावलोकन किया तो कभी कृष्ण ने प्रेम की बंसी बजाई। विश्व के कल्याण के लिए इन अवतारों को कितने पापड़ बेलने पड़े, समय साक्षी है।

ह्रदय परिवर्तन ज़ोर ज़बरदस्ती से, चाकू या तलवार की नोंक पर नहीं किया जा सकता !इसके लिए दोनों तरफ एक सी आग का होना जरूरी है। यह हृदय परिवर्तन है, धर्म परिवर्तन नहीं। जब कोई आदर्श हमारे हृदय में प्रवेश कर जाता है, तो हमारा हृदय परिवर्तन हो जाता है।।

आत्मा के सुधार के लिए किया गया परिवर्तन ही हृदय परिवर्तन है। अंगुलिमाल और वाल्मीकि के उदाहरण हृदय परिवर्तन के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। किसी आदर्श का हमारे मन में बस जाना ही हृदय परिवर्तन है। कभी इसके लिए माध्यम कोई मार्गदर्शक भी हो सकता है, अथवा कभी कभी कोई परिस्थिति।

समर्पण ही हृदय परिवर्तन है। बुरे का अच्छे के प्रति समर्पण श्रेष्ठ समर्पण है। जयप्रकाश नारायण ने डाकुओं के आत्म-समर्पण जैसा अनूठा कदम उठाया। ऐसे सत्प्रयास भले ही शत प्रतिशत सफल न हों, लेकिन ये समाज को एक नई दिशा देते हैं, एक संदेश देते हैं।।

हमारी विधा में अपराध के बाद दंड का प्रावधान है। जेल सजा भुगतने के लिए तो होता ही है, लेकिन कैदी को वहां भी सुधरने के अवसर दिए जाते हैं। उनकी प्रवृत्ति के अनुसार उन्हें उत्तरदायित्व सौंपे जाते हैं। किरण बेदी ने कैदियों को सुधरने के कई अवसर दिए और उन्हें आशातीत सफलता भी मिली। महर्षि अरविंद स्वतंत्रता की खातिर कई वर्षों तक अंग्रेजों की जेल में रहे, जहां उन्होंने सावित्री जैसे महाकाव्य की रचना कर डाली। आपातकाल में मीसा में बंद अटल जी की कविताएं यह साबित करती हैं, कि शरीर को कैद किया जा सकता है, किसी की आत्मा को नहीं।

अच्छे और बुरे का संग्राम ही देवासुर संग्राम है। बुरे पर अच्छे की विजय सदा से होती आई है। खेत में से खरपतवार का निकालना आवश्यक होता है। कुछ पौधों की छंटनी से वे और अधिक पनपते हैं, पल्लवित होते हैं। अगर अपने अवगुणों की छंटनी कर दी जाए, तो अच्छाई उभर कर ऊपर आ सकती है। हमारे अंदर की गाजर घास का खात्मा भी उतना ही जरूरी है।।

एक प्रार्थना ही हृदय परिवर्तन के लिए काफी है ;

हम को मन की शक्ति देना

मन विजय करें

दूसरों की जय से पहले

खुद को जय करें।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 269 – मढ़ी न होती चामड़ी…! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 269 मढ़ी न होती चामड़ी…! ?

संध्या भ्रमण के लिए मुझे सूनी सड़क के सूने फुटपाथ पसंद हैं। यद्यपि महानगर में यह पसंद स्वप्न से अधिक कुछ नहीं होती। तथापि भाग्यवश कैंटोन्मेंट प्रभाग में निवास होने के कारण ऐसी एकाध सड़कें बची हुई हैं। ऐसी ही तुलनात्मक रूप से सूनी एक सड़क के कम भीड़भाड़ वाले फुटपाथ पर भ्रमण कर रहा हूँ।

सूर्यास्त का समय है। डूबते सूरज के धुँधलके में  मनुष्य साये में बदलता दिखता है। साँझ और साया..! जीवन की साँझ और साया रह जाना! यूँ दिन भर साथ चलती परछाई भी साया होने के सत्य को इंगित कर रही होती है। सूर्योदय से सूर्यास्त की परिक्रमा दैनिक रूप से मनुष्य को नश्वरता का शाश्वत स्मरण कराती है।

अस्तु! भ्रमण जारी है। भ्रमण के साथ अवलोकन भी जारी है। मुझसे कुछ आगे एक युवक चल रहा है। वह सिगरेट का कश लेकर धुआँ आसमान की ओर छोड़ रहा है। देखता हूँ कि यह धुआँ एक आकार लेकर धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा है। धुएँ का  आकार देखकर अवाक हूँ। यह कंकाल का आकार है। मनुष्य द्वारा फूँका जाता धुआँ, मनुष्य को फूँकता धुआँ। कंकाल पर देह ओढ़ता मनुष्य, देह का ओढ़ना खींचकर मनुष्य को कंकाल करता धुआँ।

यूँ देखें तो देह का भौतिक अस्तित्व कंकाल पर ही टिका है। कंकाल आधार है, माँस-मज्जा  आधार पर चढ़ी सज्जा है। चमड़ी की सज्जा न होती तो क्या मनुष्य दैहिक आकर्षण में बंध पाता?

दृष्टांत  है कि एक गाँव में एक रूपसी अकेली रहती थी। गाँव के जमींदार का उसके रूप पर मन डोल गया। वासना से पीड़ित जमींदार उस स्त्री के घर पहुँचा। महिला ने प्राकृतिक चक्र की दुहाई देकर चार दिन बाद आने के लिए कहा। जमींदार के लौट जाने के बाद उस रूपसी ने  रेचक का बड़ी मात्रा में सेवन कर लिया। रेचक के प्रभाव के चलते उसे पुन:- पुन: शौच के लिए जाना पड़ा। स्थिति यह हुई कि सारा का सारा माँस शरीर से उतर गया और वह कंकाल मात्र रह गई। चार दिन बाद आया जमींदार उल्टे पैर लौट गया।

लोकोक्ति है,

सुंदर देह देखकर उपजत मन अनुराग।

मढ़ी न होती चामड़ी तो जीवित खाते काग।

प्रकृति सुंदर है। दैहिक सौंदर्य का आकर्षण भी स्वाभाविक है। तथापि आत्मिक सौंदर्य न हो तो दैहिक सौंदर्य व्यर्थ हो जाता है। सहज रूप से उगे गुलाब पुष्प की सुगंध नथुनों में गहरे तक समाती है। वहीं बड़े करीने से तैयार किए हाईब्रीड गुलाब दिखते तो सुंदर हैं पर सुगंध के नाम पर शून्य। सुगंध आत्मिकता है, शेष सब धुआँ है।

दूर श्मशान से धुआँ उठता देख रहा हूँ। किसी देह का ओढ़ना धुआँ-धुआँ हो रहा है। सबके लिए समान रूप से लागू इस नियम में बिरले ही होते हैं जो धुआँ होने के बाद भी अपनी आत्मिकता के कारण चिर स्मरणीय हो जाते हैं। दैहिक सौंदर्य के साथ मनुष्य आत्मिक सौंदर्य के प्रति भी सजग हो जाए तो धुआँ होने से पहले जग को सुवासित करेगा और आगे धुआँ इस सुवास को अनंत में प्रसरित करेगा।

हर मनुष्य आत्मिक सौंदर्य का धनी हो।…  तथास्तु!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना 16 नवम्बर से 15 दिसम्बर तक चलेगी। साथ ही आत्म-परिष्कार एवं ध्यान-साधना भी चलेंगी💥

 🕉️ इस माह के संदर्भ में गीता में स्वयं भगवान ने कहा है, मासानां मार्गशीर्षो अहम्! अर्थात मासों में मैं मार्गशीर्ष हूँ। इस साधना के लिए मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

  इस माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। मार्गशीर्ष पूर्णिमा को दत्त जयंती मनाई जाती है। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 550 ⇒ एक जिंदगी स्मार्ट सी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक जिंदगी स्मार्ट सी।)

?अभी अभी # 550 ⇒ एक जिंदगी स्मार्ट सी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सादा जीवन उच्च विचार, क्या कहीं सुना सुना सा नहीं लगता ! दिमाग पर बहुत जोर डालना पड़ता है, तब अनायास लालबहादुर शास्त्री का ख्याल आता है। तब हमारे जीवन में भी कहां तड़क भड़क थी। आज की पीढ़ी भले ही कह ले, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी, लेकिन इसमें हमारा भी कोई दोष नहीं। दिलीप कुमार खुद २२ इंच की मोरी की पैंट पहनता था, लड़के लोग देवानंद जैसे फुग्गे वाले बाल रखते थे और लड़कियां साधना कट बाल। तब बस यही फैशन और स्मार्टनेस की परिभाषा थी।

पहले बच्चों के कपड़े घर में मां ही सीती थी। इतने भाई बहन होते थे कि कपड़े, बस्ते और किताबें आपस में शेयर की जाती थी। वही कोर्स की पुरानी किताबें, नया कवर चढ़ाकर छोटे भाई बहन के काम आती थी। नये कपड़े वार त्योहार और शादी ब्याह के मौके पर।।

परिवार का एक ही दर्जी होता था, भीखाभाई टेलर मास्टर। हेयर कटिंग भी अगर करवानी है तो आपले केश कर्तनालय में।

अपनी कोई पसंद ही नहीं होती थी। रेडियो तक को सिर्फ पिताजी हाथ लगाते थे। बाल कभी बढ़ते ही नहीं थे। शरीफ बच्चे जो होते थे हम।

पहला फोटो कृष्णपुरा के गोपाल स्टूडियो में खिंचवाया, क्योंकि कॉलेज में आइडेंटिटी कार्ड बनवाना था। पहली बार खुद की साइकिल हाथ लगी और खुद का अलग कॉलेज। साला मैं तो स्मार्ट बन गया। अब हाफ पैंट पहनने में शर्म आने लगी थी।।

अच्छी तरह याद है, एवर स्मार्ट टेलर ने हमारा पहला पैंट सीया था। अब मुंह से अंग्रेजी निकलने लगी थी। स्टार लिट टॉकीज में अंग्रेजी फिल्में और अंग्रेजी उपन्यास भी पढ़ने शुरू कर दिए थे। कम सेप्टेंबर की धुन और टकीला ने हमें पूरा अंग्रेज बना दिया था।

अंग्रेजी फिल्म समझे ना समझे, डॉक्टर जिवागो, गन्स ऑफ नेवरोन, साइको (psycho) जिसे कुछ लोग पिस्को भी कहते थे, और ड्रेकुला देखना और रात में बिस्तर में डरना किसे याद नहीं।

तब तक इतने स्मार्ट तो हम भी हो गए थे, कि कॉलेज को बंक मार फिल्में देखना शुरू कर दिया था। अगर आए दिन कॉलेज में जी टी (जनरल तड़ी) और स्ट्राइक होगी तो रोज रोज सीधे घर तो नहीं जाया जा सकता ना। यहां हमारा कोई भाई बहन नहीं होता था, जो घर जाकर मां से चुगली कर दे। सभी जानते थे, कॉलेज लाइफ कैसी होती है।।

आज स्मार्ट टीवी के सामने बैठकर, स्मार्ट फोन पर जब पिछली जिंदगी का सिंहावलोकन करने बैठते हैं, तो बड़ी हंसी आती है। उंगलियों और कागजों पर गुणा भाग करना पड़ता था। तब कहां कैलकुलेटर नसीब होता था। एक चल मेरी लूना हमें कहां कहां ले जाती थी। अलका और प्रकाश सिनेमाघर हमेशा हाउसफुल रहते थे। लाइन में लगे, लेकिन कभी ब्लैक में टिकट नहीं लिया। लेकिन बाद में कई चीजों पर ऑन देना पड़ा।

कभी पूरा शहर पैदल और आसपास के पर्यटन स्थल साइकिल से आराम से नाप लिए जाते थे, लेकिन स्मार्ट सिटी बनता जा रहा हमारा शहर, अब हमसे नहीं नापा जाता। फेसबुक की पोस्ट पर रीच की तरह शहर में भी हमारी रीच बहुत कम हो गई है। या तो हम कम रिच (rich) हो गए हैं, या फिर मेरा शहर बहुत अमीर हो गया है।।

जिस शहर में लोग साइकिल छोड़ बाइक और कार में आ जाते हैं, वहां फिर पैदल कोई नहीं चलता। मोहल्ले कॉलोनियों में, और कॉलोनियां बहुमंजिला इमारतों में तब्दील होती चली जाती है। लोग अब शहर छोड़ गांव में नहीं जाते, गांव खुद ही शहर में शामिल होते चले जाते हैं।

मेरे आसपास आजकल सब्जियां और किराना बिग बास्केट से , और खाना जोमैटो से आता है। महीने का किराना आजकल बनिया नहीं लाता, लोग डी मार्ट चले जाते हैं। सभी कुछ ऑनलाइन होने से , भले ही आपकी जेब में फूटी कौड़ी ना हो, आप दुनिया भर की सैर आराम से कर सकते हैं। जब दुनिया भर का समय भी आजकल स्मार्ट वॉच ही बताती है, तो हमारी जिंदगी भी स्मार्ट ही हो गई है। कितना सुख चैन है इस स्मार्ट लाइफ में। आज अगर शैलेंद्र होते तो मजबूरी में वे भी शायद यही कहते ;

जीना यहां मरना यहां

इसके सिवा जाना कहां।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #259 ☆ दर्द और समस्या… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख दर्द और समस्या। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 259 ☆

☆ दर्द और समस्या… ☆

“दर्द एक ऐसा संकेत है कि तुम ज़िंदा हो; समस्या एक संकेत है कि तुम मज़बूत हो;- परिवार, मित्र और संगठन एक संकेत हैं कि तुम अकेले नहीं हो’ में जीवन जीने की कला का संदेश निहित है। दु:ख हमारे जीवन का अभिन्न अंग है जो हमें अपने-परायों से अवगत कराता है। यह जीवन की कसौटी है जो मित्र-शत्रु, उचित-अनुचित, भाव-सद्भाव व मानव में निहित दैवीय गुणों प्रेम, स्नेह, करुणा, सहानुभूति व संवेदनशीलता का परिचायक है।

दर्द हमारी सहनशीलता की परीक्षा लेता है और मूल्यांकन करता है कि हम कितने संवेदनशील है तथा हमारी सोच कैसी है? छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान से अवगत कराती है। यदि सुनना सीख लिया तो सहना सीख जाओगे और सहना सीख लिया तो रहना सीख जाओगे। सो! दर्द हमारे जीवित होने का प्रमाण है और समस्या हमारी दृढ़ता की परिचायक है। समस्याएं हमारी परीक्षा लेती हैं। यह हमें अपनी आंतरिक शक्तियों से अवगत कराती हैं तथा उनसे हमारा साक्षात्कार कराती हैं कि हममें कितना धैर्य, साहस व दृढ़ता कायम है? हम विषम परिस्थितियों का सामना करने में कितने सक्षम है? समस्याएं हमारी प्रेरक हैं, जीवन का आधार व पथप्रदर्शक हैं। यदि राहों में अवरोध ना हो तो जीने का आनंद ही नहीं आता। हम अपनी जीवनी शक्ति अर्थात् ऊर्जा को पहचान नहीं पाते। सो! यदि जीवन समतल धरातल पर चलता रहता है तो हम अंतर्मन में निहित शक्तियों से अवगत नहीं हो पाते तथा जीने का वास्तविक आनंद प्राप्त नहीं कर सकते।

समय व प्रकृति परिवर्तनशील हैं और समय अविराम चलता रहता है। जीवन में सुख-दु:ख, हानि-लाभ, खुशी-ग़म, हँसी-रूदन समयानुसार  आते-जाते रहते हैं। संसार मिथ्या है तथा सृष्टि-नियंता के अतिरिक्त सब नश्वर है। सो! कभी मानव चाँदनी में अवगाहन कर प्रसन्न होता है तो कभी अमावस के घने अंधकार में जुगनूँ का प्रकाश पाकर कृतज्ञता ज्ञापित करता है। कभी भोर होते सूर्य की रश्मियाँ धरा पर कुँकुम बिखेर देती हैं और मलय वायु के झोंके मानव को मदमस्त बना देते हैं। मानव उन पलों में सुधबुध खो बैठता है। कभी सागर में उठती लहरें साहिल से टकराकर लौट जाती है, मानो कोई भक्त अपने प्रभु के चरण स्पर्श कर लौट जाता है और सागर अनमोल मोती, रत्न आदि साहिल पर दुआओं के रूप में छोड़ देता है। परंतु कभी-कभी सागर सुनामी के रूप में हृदय के क्रोध को भी प्रदर्शित करता है और सागर की आकाश को छूती लहरें अपनी राह में आने वाले समस्त पदार्थों को तहस-नहस कर बहा ले जाती हैं। चहुँओर उजाड़-सा भासता है, मानो मातम पसरा हो।

कभी-कभी भगवान भी हमें दु:खों के भँवर में फंसा कर हमारे धैर्य की परीक्षा लेते हैं। इससे ज्ञात होता है कि हम कितने अडिग, अचल, दृढ़  व मज़बूत हैं। यदि हम उस स्थिति में विचलित हो जाते हैं तो हम सामान्य मानव हैं और हममें साहस की कमी है; सहनशीलता हमसे कोसों दूर है। उस स्थिति में हमारी नौका सागर में डूबती-उतराती है और उसमें विलीन हो जाती है। दूसरे शब्दों में हम लहरों के थपेड़ों को सहन नहीं कर पाते और अंतत: डूब के सागर बन जाते हैं।

परिवार, मित्र व संगठन एक संकेत हैं कि तुम अकेले नहीं हो। वे सुख-दुःख व सम-विषम परिस्थितियों में आपके साथ खड़े रहते हैं। परिवार का हर सदस्य व सच्चे मित्र आपके हितैषी होते हैं। वे आपको मँझधार में छोड़कर कहीं नहीं जाते। वैसे भी मानव अपनी स्वार्थ वृत्ति व संकुचित दृष्टिकोण के कारण दु:ख बाँटने पर सुक़ून पाता है और सुख को एकांत में भोगना चाहता है। परंतु ‘हमारे मित्र हमें हर पल एहसास दिलाते हैं कि हम तुम्हारे साथ हैं। आगे बढ़ो, बीता हुआ कल तुम्हारे मन में है और आने वाला कल तुम्हारे हाथ में है।’ अतीत लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित् है। परंतु आप वर्तमान में अथक परिश्रम द्वारा आगामी कल को सुंदर बना सकते हैं।

सत्य की नौका डगमगाती अवश्य है, परंतु डूबती नहीं। सत्य कटु होता है, परंतु शाश्वत् होता है। यह शिवम् व सुंदरम् भी होता। इसे सामने आने में समय तो लग सकता है, परंतु यह असंभव नहीं है। भले ही सत्य सात परदों के पीछे छिपा होता है, परंतु यह हकीक़त को सामने ला देता है। यह कल्याणकारी होता है तथा किसी का अहित नहीं करता। सबका मंगल भव की भावना  इसमें निहित रहती है। परिणामत: जीवन में कोई समस्या नहीं रहती।

वैसे भी हर प्रश्न का उत्तर व समस्या का समाधान होता है। आवश्यकता होती है– हमारी लग्न की, प्रयास की, परीक्षा की, अथक परिश्रम, धैर्य व साहस की। ‘संसार में असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है।’ तुम सब कर सकते हो, जीवन का मूलमंत्र होना अपेक्षित है। मानव में असीम शक्तियां व्याप्त हैं, जिनके बल पर वह आगामी आपदाओं का सामना कर सकता है। इसलिए आत्मविश्वास की, सत्य का मूल्यांकन करने की, अपनी सुप्त अथवा विस्मृत शक्तियों को पहचानने की ज़रूरत है।

मानव का दर्द से अटूट रिश्ता है। हमें खुशियों को तलाशना है; खुद से मुलाक़ात करनी है। जब हम ख़ुद में ख़ुद को तलाशते हैं तो हमारे अंतर्मन में दिव्य शक्तियां संचरित हो जाती हैं। हम ‘शक्तिशाली  विजयी भव’ को स्वीकार जीवन- पथ पर अग्रसर होते हैं, क्योंकि ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’ तथा ‘आप जो चाहोगे वही अवश्य पाओगे।’

काँच की तरह होता है मन/ इसे जितना साफ रखोगे/ दुनिया उतनी आपको साफ दिखाई देगी’ के माध्यम से हम समझ सकते हैं कि ‘तोरा मन दर्पण कहलाए/ भले-बुरे सब कर्मन को/ देखे और दिखाए।’ सो। सत्कर्म कीजिए, सदैव अच्छा सोचिए, अच्छा कीजिए। दुनिया रूपी रंगमंच पर मानव को अपना क़िरदार अवश्य निभाना पड़ता है, जो हमारे पूर्वजन्म के कर्मों पर आधारित होते हैं।

अपनापन, परवाह, आदर व व्यवहार वक्त की वह दौलत है, जिससे बड़ा किसी को देने के लिए कोई उपहार नहीं हो सकता है। सो! यह वे दैवीय गुण हैं, जिन्हें आप दूसरों को दे सकते हैं। यह अनमोल हैं और वक्त से बड़ी तो कोई दौलत हो ही नहीं सकती है। यदि आप किसी को चंद लम्हें देते हैं तो वे उसके हृदय की ऊहापोह को समाप्त करने में सक्षम होते हैं। उस स्थिति में आप अपनी अनमोल पूंजी अर्थात् उपहार उसे दे रहे हैं। किसी के हृदय की पीड़ा, दुख-दर्द को दूर करना सर्वोत्तम उपाय है। दुनिया में सुख बाँटिए व दु:खों का हरण कीजिए। आपदाओं व विषम परिस्थितियों में आप पर्वत की भांति अचल, अडिग व डटकर खड़े रहिए।

परिवार, मित्र व संगठन को महत्व दीजिए। सदैव मिलजुल कर अहं का त्याग कर जीवन-यापन कीजिए। अहं दिलों में दरारें उत्पन्न करता है। ‘फ़ासले दिलों के मिटा दीजिए। बेवजह न किसी से ग़िला कीजिए/ यह समाँ तो गुज़र जाएगा किसी ढब/ सबसे मिलजुल कर रहा कीजिए।’ दर्द, आपदाएं व समस्याएं स्वत: मिट जाएंगी और चहुँओर उल्लास व प्रसन्नता का साम्राज्य होगा।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 223 ☆ मौन भला सबको लगे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “मौन भला सबको लगे। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 223 ☆ मौन भला सबको लगे

संस्कार, आचार, प्रचार, विकार, विचार, साकार, सदाचार ये सब मिलकर भावनाओं का प्रदर्शन करते हैं । मन के मनके जब शब्दों की माला पहन बाहर आते हैं,तो बोलने वाले की भावाव्यक्ति अपने आप प्रदर्शित हो जाती है । जैसी सोच होगी वैसा ही स्वतः दिखायी देने लगता है । संगति का असर किसी को नहीं छोड़ता सो सोच समझ कर दोस्ती करें । आजकल डिजिटल दोस्त ऑन लाइन फ्रॉड करके बुद्धू बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। समझदार और सचेत रहने में भलाई है । परिवार से बड़ा कोई संकटमोचक नहीं हो सकता है, इसलिए इसकी कीमत समझें और जीवन मूल्यों को पहचानकर ऑफलाइन रिश्तों का सम्मान करें ।

*

नेक कर्म के साथ, सत्य राह चलते हुए ।

हाथों में ले हाथ, नहीं किसी को ताड़ना ।।

*

जीवन है अनमोल, इसे व्यर्थ मत कीजिए ।

तोल मोल कर बोल, मौन भला सबको लगे ।।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 548 ⇒ पुस्तक यात्रा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पुस्तक यात्रा।)

?अभी अभी # 548 ⇒ पुस्तक यात्रा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक पुस्तक की यात्रा तब शुरू होती है, जब कोई पाठक उसको पढ़ना शुरू करता है। यह यात्रा कहीं से भी शुरू हो सकती है, घर में ही स्टडी रूम से, बैडरूम से, लाइब्रेरी से, दफ्तर अथवा कॉलेज में चुराए हुए पल से या फिर लंबे ट्रेन के सफर के साथ साथ।

कुछ लोग पुस्तक चखते हैं, कुछ सरसरी निगाह से देखकर रख देते हैं, कुछ पूरी पढ़ते हैं और बहुत कम ऐसे होते हैं, जो पुस्तक को चबा चबा कर हजम कर जाते हैं।।

पुस्तक चाटने का मज़ा कोई दीमक से सीखे। सभी जानते हैं, कुछ पाठक किताबी कीड़े होते हैं तो कुछ पुस्तक प्रेमी भी होते हैं। उन्हें पुस्तक से बहुत प्रेम होता है। हर पराई पुस्तक उन्हें अपनी लगती है। अपने घर की पुस्तक उन्हें अखबार बराबर लगती है और पराई पुस्तकों पर वे डोरे डाला करते हैं।

उन्हें पुस्तक हथियाने का बड़ा शौक होता है। एक पुस्तक प्रेमी को पुस्तक मांगने में शर्म नहीं करनी चाहिए। पुस्तकों का हरम ही तो पर्सनल लाइब्रेरी कहलाता है। पुस्तक पढ़े कोई भी, अथवा न भी पढ़े, लेकिन अच्छी से अच्छी और महंगी से महंगी पुस्तक रखना हर पढ़े लिखे, बुद्धिजीवी इंसान की पहचान है।।

पुस्तक कभी नहीं कहती, वह खरीदी हुई है अथवा किसी से मांगी गई है। वह तो बेचारी कभी यह भी रहस्य उद्घाटित नहीं करती कि वह अपने स्वामी द्वारा छुई भी गई है अथवा नहीं। कुछ बेचारी अभागी पुस्तकों के तो पन्ने ही चिपके रहते हैं। जब ऐसी कुंवारी किताब जब किसी सच्चे पुस्तक प्रेमी के हाथ लगती है, तब उसके बंद पन्ने फड़फड़ा उठते हैं। पुस्तक के भाग जाग जाते हैं।

कोई पुस्तक आसमान से नहीं टपकती, इतनी आसानी से उसका जन्म नहीं होता। उसके जन्म की भी अजीब दास्तान है।

हर पुस्तक किसी की कृति है, रचना है, उसका भी कोई सरजनहार है। किसी लेखक द्वारा पहले उसे शब्दों में उतारा जाता है, इसे भी सृजन की ही प्रक्रिया कहते हैं। एक लेखक के कई वर्षों की तपस्या का फल होता है जब उसकी रचना पुस्तक रूप में प्रकाशित होकर पाठकों तक पहुंचती है।।

लेखक ही उसे एक नाम देता है। किसका बच्चा है, की तरह उसकी पहचान भी लेखक से ही होती है। अच्छी किताब है, इसका लेखक कौन है। किताब प्रकाशक की नहीं होती, खरीददार की नहीं होती, किसी पाठक की बपौती नहीं होती, किताब सिर्फ और सिर्फ एक लेखक की मेहनत होती है। उसके बरसों का सपना होती है एक किताब।

हर पुस्तक एक सुधी पाठक तक पहुंचे, यही उसका गंतव्य है। धन्ना सेठों की तरह, महंगे महंगे वार्डरोब की तरह, वह पुस्तकालय और व्यक्तिगत बुक शेल्फ की शोभा न बढ़ाए। सब जानते हैं, लक्ष्मी कहां कैद है।

सरस्वती का वाहन हंस है, जो नीर, क्षीर और विवेक का प्रतीक है। पुस्तक ज्ञान का भंडार भी है और स्वाध्याय का सर्वश्रेष्ठ विकल्प। कहीं सरस्वती कैद ना हो। पुस्तकों की यात्रा अनवरत चलती रहे।

एक प्रबुद्ध पाठक ही एक अच्छी पुस्तक का वाहक हो सकता है। वर दे, वर दे, वर दे, वीणा वादिनी वर दे।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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