हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 3 ☆ कोरोना से संदर्भित : वह पीड़ा जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सकारात्मक आलेख  ‘कोरोना से संदर्भित : वह पीड़ा जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं’।)

☆ किसलय की कलम से # 3 ☆

☆ कोरोना से संदर्भित : वह पीड़ा जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं ☆

(यह आलेख लॉक डाउन के प्रथम चरण से संदर्भित है किन्तु, इसके तथ्य आज भी विचारणीय हैं जिन्हें आत्मसात करने की आवश्यकता है।) 

लगभग सौ वर्ष पूर्व का भारतीय सामाजिक परिवेश देखें तो हम पाएँगे कि समाज में वर्ण व्यवस्था जीवित तो थी लेकिन शिथिल भी होती जा रही थी। लोग वर्ण से इतर कामकाज और व्यवसाय-धंधे अपनाने लगे थे। धीरे-धीरे रूढ़िवादियाँ और असंगत प्रथाएँ समाप्त हो रहीं थी, वहीं पाश्चात्य की दस्तक से जीवनशैली बदलने लगी थी। जो समाज छुआछूत, ऊँच-नीच अथवा निम्न जातियों से परहेज करता था, उनके भी मायने बदलने लगे थे। लोगों में रहन-सहन, खान-पान और मेलजोल बढ़ने लगा था। यह कितना उचित था, कितना प्रासंगिक था? अथवा कितना आवश्यक था? ये सब वक्त और परिस्थितियों के साथ बदलता रहता है।

पहले स्नान-ध्यान, पूजा-भक्ति, नियम-संयम अथवा जाति-धर्म का बहुत महत्त्व होता था। जहाँ तक मैंने अध्ययन एवं चिंतन किया है, ये सब बातें कपोलकल्पित नहीं थीं। हर व्यवस्था अथवा कार्य के पृष्ठ में एक तर्क, सत्यता, व्यवस्था अथवा सुरक्षा का भाव निश्चित रूप से होता था। स्वस्थ जीवन के इस रहस्य को युगों-युगों से भारतीय जानते हैं। आज भी स्नान, स्वच्छता, शुद्धता, सद्भावना आदि का पहले जैसा ही महत्त्व है। आज बदलते परिवेश और प्रगति की अंधी दौड़ में हमारी दिनचर्या इतनी अनियमित व असुरक्षित हो गई है, जिस पर चिंतन किया जाए तो उसे कोई भी स्वीकार्य नहीं कर पायेगा।

घर में लाया गया खाद्यान्न हो अथवा कोई भी सीलबंद सामग्री, उसकी विश्वसनीयता हमेशा से संदेह के घेरे में रही है, आज के समय में क्या आप बाहर की किसी भी वस्तु या खाद्य पदार्थ घर में लाना चाहेंगे? शायद आज बिल्कुल नहीं, फिर भी हम विवश हैं। राम भरोसे सब कुछ ला रहे हैं और खा भी रहे हैं। वर्तमान में उत्पन्न हुईं ये परिस्थितियाँ हमारी महत्त्वाकांक्षाओं का ही कुपरिणाम है। आज आदमी आदमी के निकट आने से घबरा रहा है। हाथ मिलाने के स्थान पर दूर से नमस्ते करने लगा है। आज सुरक्षा की दृष्टि से दूसरे के हाथों बने भोजन से परहेज करने लगा है। कुछ ही महीने पहले ऐसा लगता था कि इन सबके बिना आदमी जिंदा नहीं रह पाएगा परन्तु अब ऐसा लगने लगा है जैसे नए रूप में ही सही कुछ पुरानी प्रथाएँ पुनर्जीवित हो उठीं हों।

आज ट्रेनें बंद हैं। बाजार बंद हैं। आवश्यक सेवाएँ तक न के बराबर हैं, फिर भी सभी जिंदा हैं। इसका मतलब यही हुआ कि आदमी चाह ले तो सब संभव है। इसी को वक्त का बदलना कहते हैं। आज हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर आदमी अपने घरों को लौट रहे हैं। घर से बाहर निकला मजदूर अपने शहर और गाँव की ओर भाग रहा है। उसके मन में बस एक ही बात है कि जो भी हो, जैसे भी रहेंगे, अपने घर और अपनों के बीच में रहेंगे। इसीलिए कहा गया है कि-

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’

सुख हो अथवा दुख अपनी माटी, अपने लोक और अपनी संस्कृति में आसानी से कट जाते हैं। आज जब आदमी अपने घरों की ओर भाग रहा है, तब उन उद्योगों-धंधों और व्यवसाय का क्या होगा? जहाँ बहुतायत में बाहरी मजदूर व कर्मचारी काम करते थे। उन मजदूरों, छोटे व्यापारियों और कुटीर उद्योगों का क्या होगा, जिनसे लोगों की रोजी-रोटी चलती थी। कुछ ही समय में ऐसे अनेक परिवर्तनों का खामियाजा हमारा समाज भुगतेगा,  जिन पर अभी तक किसी ने सोचा भी नहीं है। बड़े उत्पादों हेतु जब कर्मचारियों की कमी होगी तो उत्पादन और गुणवत्ता पर असर पड़ेगा ही। क्या उत्पाद महँगे नहीं होंगे? जब मजदूरों को मजदूरी नहीं मिलेगी तो क्या उनकी दिनचर्या में फर्क नहीं पड़ेगा? उनकी रोजी रोटी कैसे चलेगी? जब रोजी रोटी नहीं चलेगी तो बेरोजगारी, भूखमरी और अराजकता नहीं फैलेगी?  क्या निम्नवर्गीय बेरोजगार तबका न चाहते हुए भी अनैतिक और उल्टे-सीधे कार्य नहीं करेगा?

यदि समय रहते देश के जागरूक, बड़े उद्योगपति, देश के कर्णधार और प्रशासन देशहित में आगे नहीं आये, समृद्ध लोगों ने उदारता नहीं दिखलाई तो बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, चोरी-डकैती, लूटमार की घटनाएँ बढ़ने में देर नहीं लगेगी। आज कोरोना-कहर ने सारे विश्व को स्तब्ध कर दिया है। कुछ ही महीनों में इस बीमारी के दुष्परिणाम दिखाई देने लगे हैं। अभी पूरा का पूरा निम्न वर्ग अपनी जमापूँजी के सहारे अपनी रोजी-रोटी जैसे-तैसे चला रहा है। जब पूँजी समाप्त हो जाएगी और रोजगार भी नहीं रहेगा, फिर क्या होगा? इसकी कल्पना ही भयावह लगती है।

कुछ लोगों की नासमझी, कुछ विवशताएँ एवं कुछ असावधानियाँ भी कोविड-19 को विकराल बनाने में सहायक हो रही हैं। आज वह चाहे छोटा हो या बड़ा, अनपढ़ हो या पढ़ा-लिखा, धनवान हो या निर्धन, जिस तरह बिजली और आग किसी में फर्क नहीं करती ठीक उसी तरह यह कोरोना किसी के साथ भेदभाव नहीं करता, जो सामने पड़ा उस पर वार करेगा ही। गंभीरता से सोचने पर कहा जा सकता है कि यह वह पीड़ा है जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं।

अतः हमें स्वयं को, अपने परिवार को, अपने गाँव-शहर को या यूँ कहें कि अपने देश को इस संकट से उबारना है तो हमें प्रशासन व चिकित्सकों के सभी निर्देशों का स्वस्फूर्तभाव से पालन करना होगा। यदि हम सब कृतसंकल्पित होते हैं तो शीघ्र ही हमारी और हमारे देश की परिस्थितियाँ वापस सामान्य होने लगेंगी और एक बार पुनः निर्भय, स्वस्थ और सुखशांतिमय जीवन की शुरुआत हो सकेगी।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यावरण दिवस विशेष – आत्मकथा – समाधि का वटवृक्ष ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज आपके “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  पर्यावरण दिवस पर विशेष रचना – आत्मकथा – समाधि का वटवृक्ष।  

☆ पर्यावरण दिवस विशेष – आत्मकथा समाधि का वटवृक्ष ☆

एक बार मैं देशाटन के उद्देश्य से घर से निकला‌ था‌, और घने जंगलों के रास्ते गुजर रहा था, तभी सहसा उस नीरव वातावरण ‌ से एक तैरती आवाज कानों से टकराई,अरे ओ यायावर मानव !कुछ पल रूक मेरी राम कहानी सुनता जा,और अपने जीवन के कुछ कीमती पल मुझे देता जा, ताकि जब मैं ‌इस‌ जहां से जाऊं तो मेरी अंतरात्मा ‌पर पडा़ बोझ थोडा़ हल्का हो जाय ।

जब मैंने कूतूहल बस  अगल बगल देखा तो मुझे वहीं पास‌ में ही ‌जड़ से कटे पड़ें धरासाई वटवृक्ष से ये आवाज़ ‌फिजां में तैर रही थी,और दयनीय अवस्था में कटा‌ हुआ जमीन पर गिरा पड़ा‌ वटवृक्ष मुझसे आत्मिक संवाद कर अपनी राम कहानी कह उठा था, मैंने जब उसे ध्यान पूर्वक देखा तो पाया कि उसके तन पर मानवीय आत्याचारों‌ की अनेक अमानवीय कहानियां अंकित थी।उसका तना कट‌ कर अलग-अलग पड़ा था । शाखाएं अलग ही कटी पड़ी थी,वह धराशाई हो पड़ा था.

जहां उसके चेहरे पर चिंता एवम् विषाद की लकीरें खिंची पड़ी थी वहीं पर और लोक उपकार न कर पाने की  पीड़ा भी उसके हृदय से झांक रही थी, उसका मन मानवीय अत्याचारों से बोझिल था। उसने अपने जीवन के बीते पलों को अपनी स्मृतियों में सहेजते हुए मुझसे कहा। प्राकृतिक प्रकीर्णन द्वारा पक्षियों के उदरस्थ भोजन से बीज रूप में मेंरा  जन्म एक महात्मा की कुटिया के सामने धरती की कोख से हुआ। धरती की कोख में पड़ा गर्मी सर्दी  सहता पड़ा हुआ था,कि सहसा एक दिन काले काले मेघों से पड़ती ठंडी फुहारों से तृप्त हो मेरे उस बीज से नवांकुर निकल पड़े,इस प्रकार मेरा जन्म हुआ, मेरी कोमल लाल लाल नवजात पत्तियों पर महात्मा जी की नजरें पड़ी तो वे मेरे रूप सौन्दर्य पर रीझ उठे, उन्होंने लोककल्याण की भावना से अभिभूत हो अपनी कुटिया के बाहर सामने ‌ही रोप दिया था मेरे बिरवे को  । वे रोज शाम को पूजन वंदन के लिए अमृतमयी गंगाजल लाते, और पूजन के बाद शेष बचे जल से मेरी जड़ों को सींचते तो उस जल की शीतलता से मेरी आत्मा खिलखिला उठती ।

इस तरह मंथर गति से समय चक्र चलता रहा,उसी के साथ मेरी आकृति तथा छाया विस्तार होता रहा,इसी बीच ना जाने कब और कैसे महात्मा जी को मुझसे पुत्रवत स्नेह हो गया, मुझे पता भी न चला,वे कभी मेरी  जड़ों में खाद पानी डाला करते कभी‌ मिट्टी पाट चबूतरा बनाया करते,जब वे परिश्रम करते करते थक कर निढाल हो मेरी छाया के नीचे बैठ विश्राम करते तो मेरी शीतल छांव‌ से उनके मन को अपार शांति मिलती,और मेरी छाया उनकी सारी पीड़ा  सारा थकान ‌हर लेती, उनके चेहरे पर उपजे आत्मसंतुष्टि के भाव देख मैं भी अपने सत्कर्मो के आत्मगौरव के दर्प से भर उठता,मेरा‌ चेहरा चमक उठता, मेरी शाखाएं झुक झुक अपने धर्म पिता के गले में गलबहियां डालने को व्याकुल हो उठती।

गुजरते वक्त के साथ मेरे विकास का क्षेत्र फल बढ़ता गया, मैं जवान  हो गया था, मैंने हरियाली की चादर तान दी थी अपने धर्मपिता की कुटिया के उपर, तथा पूरे प्रांगण को ढक लिया था अपनी शीतल छांव से,मेरी शीतल‌ छाया का आभास धूप में जलते पथिक को होता तथा पके फल खाते पंछियों के कलरव से गूंज उठता कुटिया प्रांगण, उसे सुनकर मेरा चेहरा अपने सत्कर्मो के आत्मगौरव से भर उठता,और उनके चेहरे काआभामंडल देख मेरा मन मयूर नाच उठता।अब उनकी प्रेरणा से मैं भी लोकोपकार की आत्मानुभूति से संतुष्ट था,उन संत के सानिध्य का मेरी मनोवृत्ति पर बड़ा‌ ही गहरा प्रभाव पड़ा था, मेरी जीवन वृत्ति भी लोकोपकारी हो गई थी.

अब औरों के लिए दुख पीड़ा झेलने में ही मुझे सुखानुभूति होने लगी थी । महात्मा जी ने मेरी छाया के नीचे चबूतरे को ही अपनी साधना स्थली बना लिया था, लोगों का आना जाना तथा सत्संग करना महात्मा जी के दैनिक दिनचर्या का अंग बन गया था । मैंने अपने जीवन काल में महात्मा जी की वाणी तथा सत्संग के प्रभाव से अनेकों लोगों की जीवन वृत्ति बदलते हुए देखा,और एक दिन महात्मा जी को जीवन की पूर्णता प्राप्त कर इस नश्वर संसार से  विदा होते देखा,अब मेरी छाया के नीचे बने  चबूतरे को ही महात्मा जी का समाधि स्थल बना दिया गया, तब से अब तक महात्मा जी के साथ बिताए पलों ‌को अपने स्मृतिकोश में सहेजे लोक कल्याण की आश का दीप जलाये धूप जाड़े तथा बर्षा सहते उस समाधि को घनी छाया से आच्छादित किये बरसों से खड़ा था। मैंने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा,मैं कभी पक्षियों का आश्रयस्थल बना तो कभी किसी थके हारे पथिक की शरणस्थली। पर हाय ये मेरी तकदीर!ना जाने क्यूं ये मानव  मूझसे रूठा। मुझे नहीं पता, वो तेजधार कुल्हाड़ी से मेरी शाखाएं काटता रहा था,अपना स्वार्थ सिद्ध करता रहा, मैंने उसे कुछ नहीं कहा,बल्कि मौन हो उस दर्द पीड़ा को सहता रहा हूं, परंतु आज इन बेदर्द इंसानों ने सारी हदें पार कर मेरी जड़े काट मुझे मरने पर बिबस कर दिया,क्यो कि उन्होंने ने वहां मंदिर बनाने का निर्णय लिया है,इस क्रम में उन्होंने पहली बलि मेरी ही ली है।

मैंने सोचा कि जब मैं इस दुनिया से दूर जा ही रहा हूं तो क्यो न अपनी राम कहानी तुम्हें सुनाता चलूं,ताकि मेरे मन का मलाल घुटन पीड़ा कम हो जाय तथा सीने पर पड़ा बोझ हल्का हो जाय।मेरा निवेदन है कि मेरी पीड़ा व्यथा तथा दर्द से समाज को अवगत करा देना ताकि यह मानव समाज और बृक्ष न काटे,इस प्रकार प्रकृति पर्यावरण का संरक्षण का संदेश देते हुए उसकी आंखें छलछला उठी,उसकी जुबां खामोश हो गयी, वह मर चुका था,उस वटवृक्ष  की दशा देख मेरा हृदय चीत्कार कर उठा,और मैं उस धराशाही वटवृक्ष  को निहार रहा था अपलक किंकर्तव्यविमूढ़ असहाय होकर।

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 31 – बापू के संस्मरण-5 मैं तुझसे डर जाता हूं ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मैं तुझसे डर जाता हूं”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 30 – बापू के संस्मरण – 5- मैं तुझसे डर जाता हूं☆ 

 

साबरमती-आश्रम में रसोईघर का दायित्व श्रीमती कस्तुरबा गांधी के ऊपर था । प्रतिदिन अनेक अतिथि गांधीजी सें मिलने के लिए आते थे बा बड़ी प्रसन्नता से सबका स्वागत-सत्कार करती थीं । त्रावनकोर का रहने वाला एक लड़का उनकी सहायता करता था एक दिन दोपहर का सारा काम निपटाने के बाद रसोईघर बन्द करके बा थोड़ा आराम करने के लिये अपने कमरे में चली गईं । गांधीजी मानो इसी क्षण की राह देख रहे थे बा के जाने के बाद उन्होंने उस लड़के को अपने पास बुलाया और बहुत धीमे स्वर में कहा, “अभी कुछ मेहमान आनेवाले हैं उनमें पंड़ित मोतीलाल नेहरु भी हैं उन सब के लिए खाना तैयार करना है बा सुबह से काम करते-करते थक गई हैं उन्हें आराम करने दे और अपनी मदद के लिए कुसुम को बुला ले और देख, जो चीज जहां से निकाले, उसे वहीं रख देना” ।

लड़का कुसुम बहन को बुला लाया और दोनो चुपचाप अतिथियों के लिए खाना बनाने की तैयारी करने लगे । काम करते-करते अचानक एक थाली लड़के के हाथ से नीचे गिर गई । उसकी आवाज से बा की आंख खुल गई सोचा रसोईघर में बिल्ली घुस आई है वह तुरन्त उठकर वहां पहुंची, लेकिन वहां तो और कुछ ही दृश्य था बड़े जोरों से खाना बनाने की तैयारियां चल रही थीं वह चकित भी हुईं और गुस्सा भी आया ऊंची आवाज में उन्होंने पूछा, “तुम दोनों ने यहां यह सब क्या धांधली मचा रखी हैं?”

लड़के ने बा को सब कहानी कह सुनाई इसपर वह बोलीं, “तुमने मुझे क्यों नहीं जगाया?” लड़के ने तुरन्त उत्तर दिया, “तैयारी करने के बाद आपको जगानेवाले थे आप थक गई थीं, इसलिए शुरु में नहीं जगाया” । बा बोलीं, “पर तू भी तो थक गया था क्या तू सोचता है, तू ही काम कर सकता हैं,मैं नहीं कर सकती ?” और बा भी उनके साथ काम करने लगीं ।

शाम को जब सब अतिथि चले गये तब वह गांधीजी के पास गईं और उलाहना देते हुए बोलीं, “मुझे न जगाकर आपने इन बच्चों को यह काम क्यों सौंपा?” गांधीजी जानते थे कि बा को क्रोध आ रहा है इसलिए हंसते-हंसते उन्होंने उत्तर दिया, “क्या तू नहीं जानती कि तू गुस्सा होती है, तब मैं तुझसे ड़र जाता हूं?” बा बड़े जोर से हंस पड़ीं, मानो कहती हों –“आप और मुझसे डरते हैं!”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – विशेष आलेख ☆ “व्यंग्यम स्मृतियाँ” – व्यंग्य विधा : एक ऐतिहासिक सन्दर्भ ☆ प्रस्तुति – हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर 

☆ ई- अभिव्यक्ति का विशेष आलेख  ☆ “व्यंग्यम स्मृतियाँ” – व्यंग्य विधा :  एक ऐतिहासिक सन्दर्भ ☆

(यह बात सन 2011 की है जब आदरणीय एवं अग्रज सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री श्रीराम अयंगार जी ने अपने ब्लॉग को अपनी प्रिय पत्रिका “व्यंग्यम” के नाम से शीर्षक दिया।  मैं कल्पना करता हूँ कि यदि यह पत्रिका जीवित रहती तो हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा की दिशा कुछ और ही होती। यह हमारा दुर्भाग्य है कि जिन पुरोधाओं ने 70 के दशक में अपने श्रम, परिकल्पना और स्वप्नों की आहुती दी उन्हें हिन्दी साहित्य में उचित स्थान सम्मान देना तो दूर, अपितु, इस तिकड़ी के दो जीवित पुरोधाओं को भी हमने भुला दिया। उनके कार्य को उन्हें जानने वाली समवयस्क और वरिष्ठ पीढ़ियों के अतिरिक्त शायद ही कोई जानता है। इस शोधपरक आलेख के लिए अग्रज आदरणीय श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सहयोग के लिए आभार । इस आलेख के माध्यम से मैं आपको व्यंग्य विधा के लिए समर्पित उन तीन नवयुवकों द्वारा रचे इतिहास से अवगत कराने का प्रयास कर रहा हूँ।  )

संस्कारधानी जबलपुर के तीन नवयुवक श्री महेश शुक्ल, स्व रमेश शर्मा ‘निशिकर’ एवं श्री श्रीराम आयंगर ने जनवरी 1977 में संभवतः मध्य प्रदेश की प्रथम व्यंग्य पत्रिका ‘व्यंग्यम’ का प्रथम अंक प्रकाशित किया होगा तब वे नहीं जानते थे कि वे इतिहास रच रहे  हैं।

आज श्री महेश शुक्ल जी सेंट्रल बैंक से सेवानिवृत होकर बिलासपुर में बस गए एवं श्री श्रीराम आयंगर जी इलाहाबाद बैंक से सेवानिवृत होकर बेंगलुरु में बस गए हैं। स्व निशिकर जी का देहांत लगभग 20-25 वर्ष पूर्व हो चुका है।

श्री महेश शुक्ल जी उस समय की याद करते हुए पुराने दिनों में खो जाते हैं। वे गर्व से बताते हैं कि उन्हें जी एस कॉलेज जबलपुर में डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी ने अङ्ग्रेज़ी और श्री ज्ञानरंजन जी ने हिन्दी की शिक्षा दी थी। आज डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी एवं श्री ज्ञानरंजन जी आज भी साहित्य सेवा में रत हैं। डॉ परिहार जी बाद में जी एस कॉलेज से प्राचार्य हो कर सेवानिवृत्त हुए एवं उम्र के इस पड़ाव में आज भी लघुकथा तथा व्यंग्य विधा में सतत लेखन जारी है। मैं स्वयं को भाग्यशाली समझता हूँ जो ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से मुझे भी उनका आशीर्वाद प्राप्त है।  श्री ज्ञानरंजन जी अपनी पत्रिका ‘पहल’ का सतत सफल सम्पादन कर रहे हैं।

अग्रज श्री श्रीराम आयंगार जी के शब्दों में “कुछ करने की जिजीविषा झलकती है और साथ ही असफलता हमें निराश करती है।” वे आज भी उसी ऊर्जा के साथ साहित्य एवं समाज सेवा में लिप्त हैं। जब मैंने उनसे इस बारे में चर्चा करनी चाही तो उन्होने अपने ब्लॉग का एक लिंक प्रेषित किया जो उनके पत्रिका के प्रति आत्मीय जुड़ाव एवं उन मित्रों के संघर्ष की कहानी बयां करती है।

श्री श्रीराम आयंगर जी अपने ब्लॉग के 6 जनवरी 2011 के अंक में लिखते हैं –

“31 वर्षों के बाद मैं अपने इस ब्लॉग को ’व्यंग्यम’ के लिए पुनः समर्पित कर रहा हूँ।  आपने मेरे ब्लॉग के टेम्प्लेट और शीर्षक में बदलाव देखा होगा। अब एक शब्द “वयंग्यम” प्रत्यय दिया है। 2011 की यह पहली पोस्ट हिंदी में एक त्रैमासिक लघु  पत्रिका “व्यंग्यम” को समर्पित है, जो पूरी तरह से व्यंग्य लेखन के लिए ही समर्पित थी। इस पत्रिका का सम्पादन मैं और मेरे जैसी मानसिकता वाले दो लेखक मित्र रमेश शर्मा ‘निशिकर’ और श्री महेश शुक्ला मिलकर करते थे। निशिकार जी का घर ही उनका कार्यालय हुआ करता था।

हिंदी में ‘व्यंग्य’ मेरे दिल के बहुत करीब है, जैसा कि मैं अपने कॉलेज के दिनों से पहले और बाद में अंग्रेजी में व्यंग्य लिख रहा हूं। अक्सर पाठक हास्य विधा को व्यंग्य विधा समझने की गलती करते हैं, लेकिन हम व्यंग्यकार के रूप में दोनों के बीच एक रेखा खींचते हैं। जबकि हास्य विशुद्ध रूप से हंसी और मनोरंजन के लिए है, व्यंग्य हास्य के स्पर्श के साथ गंभीर विचार प्रक्रिया है जो पाठक को सामाजिक और राजनीतिक रूप से और आसपास के समाज में विसंगतियों से अवगत कराता है।

यदि हम 70 या 80 का दशक देखें तो पाएंगे कि व्यंग्य को किसी भी हिन्दी पत्र पत्रिका में अनियमित रूप से फिलर की तरह उपयोग में लाया जाता था। उस दौरान मुंबई से  राम अवतार चेतन द्वारा प्रकाशित ‘रंग चकल्लस’ के अतिरिक्त हिन्दी की कोई भी पत्रिका नहीं थी जो व्यंग्य विधा में कार्य कर रही हो। यह पत्रिका भी हास्य और व्यंग्य का मिला जुला स्वरूप थी। मध्य प्रदेश उन दिनों देश के दो शीर्ष व्यंग्यकारों के लिए एक घर था, जैसे श्री हरि शंकर परसाई, जबलपुर में और भोपाल में श्री शरद जोशी। वे मेरे जैसे अन्य कई युवा लेखकों के प्रेरणा स्तम्भ थे।

हम तीन मित्रों ने व्यंग्य पर एक पत्रिका प्रारम्भ कर इस अंतर को भरने का विचार और फैसला किया। हम तीनों उस समय लिपिकीय ग्रेड में थे।  बिना किसी वित्तीय सहायता और कैनवसिंग या मार्केटिंग के अनुभव के केवल दृढ़ निश्चय और जुनून के बल पर अपनी योजना को आगे बढ़ाने का फैसला किया। यह वह समय था जब हमारा देश 1976 में ‘आपातकाल’ नामक इतिहास के एक काले दौर से गुजर रहा था। मीडिया पर पूर्ण सेंसरशिप थी; ‘अभिव्यक्ति का अधिकार’ दमनकारी था, विपक्षी नेता या तो जेल में थे या भूमिगत थे और सत्ता में मौजूद लोग रेंग रहे थे। व्यंग्य और हास्य पहली बार आपातकाल में हताहत हुआ था। ‘Shankar’s Weekly’ जैसी हास्य व विनोदी अंग्रेजी पत्रिका को बंद करने के लिए मजबूर किया गया क्योंकि इसने घुटने टेकने से इनकार कर दिया था। ऐसे आपातकाल के घने बादलों के साये में हमारी पत्रिका की परिकल्पना की गई थी और हमने जनवरी 1977 में ‘व्यंग्यम’ नाम से 500 प्रतियों प्रकाशित की जिनका मूल्य दो रुपये रखा।

 प्रकाशन की अपनी पूरी अवधि में हम तीनों मित्रों ने संपादक, प्रूफ रीडर, लेआउट डिजाइनर, ऑफिस बॉय, चाय वाले, डिस्पैचर और फेरीवाले, सभी रोल अदा किए। वर्ष 77-78 के दौरान, त्रैमासिक पत्रिका के आठ अंकों का नियमित रूप से प्रकाशन किया गया था। पत्रिका को लेखकों के मुफ्त योगदान के माध्यम से सभी प्रसिद्ध और नवोदित लेखकों से पूर्ण समर्थन मिला किन्तु निरंतर वित्तीय सहायता के अभाव में 10वें अंक के प्रकाशित होते तक  पत्रिका ने थकान और बीमारी का संकेत देना शुरू कर दिया।  इसकी कम लागत के बावजूद, दुर्भाग्य से पत्रिका अपेक्षित बिक्री या सदस्यता प्राप्त नहीं कर सकी ।”

महेश शुक्ला जी बताते हैं कि “यह उन सबके लिए सदैव अविस्मरणीय रहेगा कि प्रिंटिंग प्रैस के मालिक श्री नटवर जोशी जी जिनकी प्रेस हनुमानताल में हुआ करती थी, ने हमें भरपूर सहयोग दिया। जब हमारे पास प्रकाशनार्थ पैसे नहीं होते थे तो भी वे हम पर विश्वास कर पत्रिकाएँ विक्रय के लिए सौंप देते थे और कहते थे – “जब भी बिक्री से पैसे आ जाएँ तो दे देना।”

श्री आयंगर जी बताते हैं कि “धन जुटाने के उद्देश्य से हमने दो पुस्तकें और श्री राम ठाकुर दादा का एक उपन्यास ’24 घंटे ‘ शीर्षक से  भी प्रकाशित किया, लेकिन सारे प्रयास व्यर्थ हो गए ।”

वे आगे बताते हैं कि – “जल्द ही हम 1979 में पत्रिका को बंद करने के लिए मजबूर हो गए। “व्यंग्यम” को फिर से पुनर्जीवित नहीं किया जा सका। पत्रिका के बंद होने से हमारे कई मित्र लेखकों और शुभचिंतकों ने भी अपने असली रंग दिखाये और चुपचाप किनारा कर लिया।”

ये उस भाग्यशाली व्यंग्यकर पीढ़ी के सदस्य हैं, जिन्हें स्व हरीशंकर परसाईं जैसी विशिष्ट विभूति का सानिध्य एवं मार्गदर्शन मिला। इन्होने उस समय अपनी पत्रिका में श्री आयंगार जी द्वारा लिया गया परसाईं जी का साक्षात्कार भी प्रकाशित किया था । बाद में श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी ने परसाईं जी का सबसे लंबा एवं अतिम साक्षात्कार लिया था जो काफी चर्चित रहा और अब भी बतौर ऐतिहासिक सन्दर्भ स्मरण किया जाता है ।

श्री महेश शुक्ला जी बताते हैं कि – उस दौरान नवभारत टाइम्स ने पत्रिका कि समीक्षा प्रकाशित की थी जिसका शीर्षक “आपातकाल में मुरझाया व्यंग्यम” था।

मुझे इन दोनों विभूतियों से मिलाने का अब तक सौभाग्य तो नहीं मिला किन्तु फोन पर बातचीत करते हुए ऐसा लगता ही नहीं कि मैं इनसे अनजान हूँ । दोनों ने बड़ी संजीदगी से मुझसे संवाद किया और प्रेरित किया। दोनों बेहद जिंदादिल इंसान हैं । मुझे इन दोनों में एक अंतरंग समानता दिखाई दी जो साझा करना चाहता हूँ । दोनों को ही संगीत से प्रेम है। अग्रज श्री श्रीराम जी बेहद सुरीले स्वर में गाते हैं और श्री महेश शुक्ल जी संगीत की धुन पर थिरकने से स्वयं को रोक नहीं पाते। 

व्यंग्यम” के दुखद अध्याय पर आज भी चर्चा करते हुए इनके नेत्र नम हो जाते हैं।

हम अपने पाठकों के लिए तीनों वरिष्ठतम व्यंग्यकारों के सस्वर व्यंग्यपाठ आप तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं।  आशा है आपका स्नेह मिलेगा।

आप सम्मानित व्यंग्यकारों के चित्र अथवा नाम (अंग्रेजी  वर्णमाला के क्रम में) पर क्लिक कर उनकी रचना आत्मसात कर सकते हैं ।
☆ व्यंग्यम स्मृतियाँ ☆ व्यंग्य रचना : किचन में मेरे कदम ☆ व्यंग्यकार एवं स्वर : श्री महेश शुक्ला ☆

श्री महेश शुक्ला 

जन्म – 15 नवंबर 1946 रायपुर
प्रकाशन –  250 व्यंग्य प्रमुख पत्रों में प्रकाशित
सम्प्रति – बैंक से सेवानिवृत्त के बाद बिलासपुर में निवास

 

☆ व्यंग्यम स्मृतियाँ ☆ व्यंग्य रचना : सुदामा कृष्ण और महंगाई ☆ व्यंग्यकार : स्व. रमेश शर्मा ‘निशिकर’☆ स्वर : श्री श्रीराम आयंगर☆

स्व रमेश शर्मा ‘निशिकर’ 

जन्म – 13 सितंबर 1942 जबलपुर (म प्र )
भूतपूर्व कर्मी मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल जबलपुर, मध्यप्रदेश
प्रकाशन – साप्ताहिक हिंदुस्तान / कंचन प्रभा / माधुरी / मायापुरी / राष्ट्रधर्म / हास्यम आदि प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में .

 

☆ व्यंग्यम स्मृतियाँ ☆ व्यंग्य रचना : जागरूक पीढ़ी ☆  व्यंग्यकार एवं स्वर : श्री श्रीराम आयंगर ☆

 

श्री श्रीराम आयंगर 

जन्म –  27 अप्रैल 1950 दुर्ग म प्र
प्रकाशन – सारिका, हास्यम, रंग, नवभारत टाइम्स। कहानीकार, कंचनप्रभा, मुक्ता, मायापुरी, यूथ टाइम्स, सन, अरुण, नवभारत एवं अनेक लघु पत्रिकाएं । आकाशवाणी से रचनाएँ प्रसारित। समांतर लघु कथाएं  / काफिला / पाँच व्यंग्यकार / श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ संकलनों  में रचना प्रकाशित। व्यंगयम पत्रिका का जबलपुर से संयुक्त संपादन ( वर्तमान में स्थगित)।  पुस्तक एक बीमार सौ अनार १९८५। व्यंगयम शीर्षक से ब्लॉग 2011 से ।

लिम्का बुक ऑफ रेकॉर्ड 2009 में उन सभी स्थानों पर विजिट करने के लिए जहां 50 वर्ष पूर्व रहे थे

एन जी ओ श्री मिशन के लिए ई पत्रिका मास्टर का सम्पादन

☆ व्यंग्यम स्मृतियाँ ☆ चलते चलते – श्री महेश शुक्ला जी  एवं श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का एक महत्वपूर्ण संवाद ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

आदरणीय श्री महेश शुक्ल जी के विगत जबलपुर यात्रा के समय श्री महेश शुक्ल जी को व्यंग्यम गोष्ठी में सम्मानित किया गया एवं श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी ने उनसे संक्षिप्त संवाद को अपने मोबाईल में कैद कर लिया जिसे हम आपसे साझा कर रहे हैं  –

कृपया इस वीडियो लिंक पर क्लिक करें  >>>>>  चलते चलते – श्री महेश शुक्ला जी  एवं श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का एक महत्वपूर्ण संवाद

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“व्यंग्यम” पत्रिका की स्मृति में विगत 34 माह से जबलपुर में  मासिक व्यंग्यम गोष्ठी का आयोजन होता रहा है । व्यंग्यम को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से “व्यंग्यम गोष्ठी”  की श्रृंखला का आयोजन सतत जारी है और भविष्य में व्यंग्यम पत्रिका की योजना भी विचाराधीन है।

विगत 34 माह पूर्व जबलपुर में मासिक व्यंग्यम गोष्ठी की श्रंखला चल रही है जिसमें व्यंग्यकार हर माह अपनी ताजी रचनाओं का पाठ करते हैं।  34 महीने पहले इस आयोजन  को प्रारम्भ करने का श्रेय जबलपुर के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डाॅ कुंदन सिंह परिहार, श्री रमेश सैनी, श्री जय प्रकाश पाण्डेय, श्री द्वारका गुप्त आदि व्यंग्यकारों को जाता है। इस गोष्ठी की विशेषता यह है अपने नए व्यंग्य का पाठ इस गोष्टी में करते हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक तीसरे माह किसी प्रतिष्ठित अथवा मित्र व्यंग्यकारों के व्यंग्य संग्रह की समीक्षा भी की जाती है।

कोरोना समय और लाॅक डाऊन के नियमों के तहत सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए और घर की देहरी के अंदर रहते हुए अप्रैल माह की व्यंग्यम गोष्ठी इंटरनेट पर  सोशल मीडिया के माध्यम से सूचना एवं संचार तकनीक का प्रयोग करते हुए आयोजित करने का यह एक छोटा सा प्रयास किया गया था ।इस गोष्ठी के लिए सूचना तकनीक के कई प्रयोगों के बारे में विचार किया गया जैसे कि व्हाट्सएप्प और वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग। किन्तु, प्रत्येक की अपनी सीमायें हैं साथ ही हमारे वरिष्ठतम एवं कई  साहित्यकार इन तकनीक के प्रयोग सहजतापूर्वक नहीं कर पाते।  इस सन्दर्भ में ई- अभिव्यक्ति ने एक अभिनव प्रयोग किया था । इस प्रयास को आप निम्न लिंक पर देख सुन सकते हैं –

☆ ई- अभिव्यक्ति का अभिनव प्रयोग – प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था “व्यंग्यम” की प्रथम ऑनलाइन गोष्ठी ☆

इस ऐतिहासिक प्रयोग के पश्चात मई 2020 माह की “व्यंग्यम गोष्ठी” को  गूगल मीट तकनीक से  कल 30  मई 2020 को आयोजित की गई। सभी प्रतिभागी व्यंग्यकारों को उनके उत्साह के लिए अभिनंदन ।

ई–अभिव्यक्ति की ओर से तीनों मित्रों को व्यंग्य विधा में उनके अभूतपूर्व ऐतिहासिक कार्यों के लिए साधुवाद।

वर्तमान में हमारे बीच उपस्थित श्री महेश शुक्ला जी एवं श्री श्रीराम आयंगर जी का हम पुनः हार्दिक अभिनंदन करते हैं । 

हमें पूर्ण आशा एवं विश्वास है कि  इस शोधपरक आलेख को आप सबका स्नेह एवं प्रतिसाद मिलेगा। आदरणीय अग्रज श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का आभार एवं आप सब का पुनः हृदय से आभार।  नमस्कार ।

अपने घरों में रहें, स्वस्थ रहें। आज का दिन शुभ हो।   

– हेमन्त बावनकर,  सम्पादक ई-अभिव्यक्ति, पुणे

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पत्रकारिता दिवस विशेष ☆ पत्रिका समूह के संस्थापक कर्तव्य परायण पत्रकार….श्री कर्पूर चंद्र कुलिश ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  रचित एक समसामयिक विशेष रचना “पत्रिका समूह के संस्थापक कर्तव्य परायण पत्रकार….श्री कर्पूर चंद्र कुलिश। ) 

 

☆ पत्रिका समूह के संस्थापक कर्तव्य परायण पत्रकार….श्री कर्पूर चंद्र कुलिश ☆

 

जनतांत्रिक शासन के पोषक जनहित के निर्भय सूत्रधार

शासन समाज की गतिविधि के विश्लेषक जागृत पत्रकार

 

लाते है खोज खबर जग की देते नित ताजे समाचार

जिनके सब से, सबके जिनसे रहते हैं गहरे सरोकार

जो धड़कन हैं अखबारो की जिनसे चर्चायें प्राणवान

जो निगहवान है जन जन के सब सुखदुख से रह निर्विकार

कर्तव्य परायण पत्रकार….

 

आये दिन बढते जाते है उनके नये नये कर्तव्य भार

जब जग सोता ये जगते हैं कर्मठ रह तत्पर निराहार

औरो को देते ख्याति सदा खुद को पर रखते हैं अनाम

सुलझाने कोई नई उलझन को प्रस्तुत करते नये सद्विचार

कर्तव्य परायण पत्रकार…

पत्रिका समाचार पत्र समूह के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश ऐसे ही कर्तव्य परायण, स्वतंत्र, निष्पक्ष व जुझारू पत्रकार हैं. कलम के धनी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सास्कृतिक मूल्यों के संरक्षक,वेद विज्ञान के अध्येता श्रद्धेय कुलिश जी के अप्रतिम सामाजिक योगदान के चलते ही भारत सरकार ने उनकी स्मृति को अक्षुण्य बनाने के लिये ५ रुपये का डाकटिकिट भी जारी किया है.

पत्रकारिता के संदर्भ में पौराणिक संदर्भो का स्मरण करें तो नारद मुनि संभवतः पहले पत्रकार कहे जा सकते हैं, इसी तरह  युद्ध भूमि से लाइव रिपोर्टिंग का पहला संदर्भ संजय द्वारा धृतराष्ट्र को महाभारत के युद्ध का हाल सुनाने का है. माना गया है कि  “पत्रकारिता पांचवां वेद है, जिसके द्वारा हम ज्ञान-विज्ञान संबंधी बातों को जानकर अपना बंद मस्तिष्क खोलते हैं ।”

वर्तमान युग में  विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन् 131 ईसा पूर्व रोम में माना जाता है. तब  वहाँ “Acta Diurna” (दिन की घटनाएं) किसी बड़े प्रस्तर पट  या धातु की पट्टी  पर वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं व  समाचार अंकित करके रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं.मध्यकाल में यूरोप के व्यापारिक केंद्रों में ‘सूचना-पत्र ‘ निकाले जाने लगे जिनमें कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे.  ये सारे ‘सूचना-पत्र ‘ हाथ से ही लिखे जाते थे. 15वीं शताब्दी के मध्य में योहन गूटनबर्ग ने छापने की मशीन का आविष्कार किया. असल में उन्होंने धातु के अक्षरों का आविष्कार किया. फिर समाचार पत्रो का मुद्रण शुरू हुआ.   दुनिया के पहले मुद्रित समाचार-पत्र का नाम था ‘रिलेशन’ ऐसा माना जाता है.

हिंदी पत्रकारिता का उद्भव सन् 1826 से 1867 माना जाता है. 1867 से 1900 के समय को हिंदी पत्रकारिता के विकास का प्रारंभिक समय कहा गया है. 1900 से 1947 के समय को हिंदी पत्रकारिता के उत्थान का समय निरूपित किया गया है. 1947 से अब तक के समय को स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता कहा जाता है. स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता में अखबार, पत्रिकायें, रेडियो तथा २० वीं सदी के अंतिम दो दशको में टी वी पत्रकारिता का उद्भव हुआ. २१वी सदी के आरंभ के साथ इंटरनेट तथा सोशल मीडीया का विस्तार हुआ. पत्रिका समूह को गौरव प्राप्त है कि प्रौद्योगिकी के इन परिवर्तनो के साथ वह अपने पाठको से कदम से कदम मिलाकर बढ़ रहा है, पत्रिका की वेबसाइट, ईपेपर इसके सजीव उदाहरण हैं.

देश की आजादी में पत्रकारो एवं समाचार पत्रो का अद्वितीय स्थान रहा है. स्वयं तिलक जी, महात्मा गांधी, व क्रांतिकारियो ने भी समय समय पर अनेक समाचार पत्र प्रकाशित किये, व उनके माध्यम से जन जागरण तथा सूचना का प्रसार किया. सूचना और साहित्य किसी भी सभ्य समाज की बौद्धिक भूख मिटाने के लिये अनिवार्य जरूरत है.  सामाजिक बदलाव में सर्वाधिक महत्व विचारों का ही होता है.लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के तीन संवैधानिक स्तंभो के बाद पत्रकारिता को  चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता दी गई क्योकि पत्रकारिता वैचारिक अभिव्यक्ति का माध्यम होता है, आम आदमी की नई प्रौद्योगिकी तक  पहुंच और इसकी  त्वरित स्वसंपादित प्रसारण क्षमता के चलते सोशल मीडिया व ब्लाग जगत को लोकतंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में देखा जा रहा है.

तकनीक के विकास के साथ इस आवश्यकता को पूरा करने के संसाधन बदलते जा रहे हैं.हस्त लिखित अखबार और पत्रिकायें, फिर टंकित तथा साइक्लोस्टायल्ड अथवा फोटोस्टेट पत्रिकायें, न्यूज लैटर या पत्रक, एक एक अक्षर को फर्मे पर कम्पोज करके तथा फोटो सामग्री के ब्लाक बनाकर मुद्रित अखबार की तकनीक, विगत कुछ दशको में तेजी से बदली है और अब बड़े तेज आफसेट मुद्रण की मशीने सुलभ हैं, जिनमें ज्यादातर  कार्य वर्चुएल साफ्ट कापी में कम्प्यूटर पर होता है. समाचार संग्रहण व उसके अनुप्रसारण के लिये  टेलीप्रिंटर की पट्टियो को अभी हमारी पीढ़ी भूली नही है. आज हम इंटरनेट से  ईमेल पर पूरे के पूरे कम्पोज अखबारी पन्ने ही यहाँ से वहाँ ट्रांस्फर कर लेते हैं. कर्पूर चंद्र कुलिश जी ने पत्रिका समूह में सदैव नये परिवर्तनो को सहज भाव से स्वीकार करने का जो व्यवसायिक वातावरण बनाया तथा युवा पत्रकारो को जो काम करने की स्वतंत्रता तथा छत्रछाया दी उसका ही परिणाम है कि आज पत्रिका समूह के देश के विभिन्न भागो से ढ़ेरो संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं और एक विशाल टीम समूह इससे जुड़ी हुई है.

वास्तव में पत्रकारिता भी साहित्य की भाँति समाज में चलने वाली गतिविधियों एवं हलचलों की डायरी  है । वह हमारे परिवेश में घट रही प्रत्येक सूचना को हम तक पहुंचाती है । देश-दुनिया में हो रहे नए प्रयोगों और कार्यों को हमें बताती है । इसी कारण विद्वानों ने पत्रकारिता को प्रतिदिन लिखा जाने वाला  इतिहास भी कहा है । वस्तुतः आज की पत्रकारिता सूचनाओं और समाचारों का संकलन मात्र न होकर मानव जीवन के व्यापक परिदृश्य को अपने आप में समाहित किए हुए है । यह शाश्वत नैतिक मूल्यों, सांस्कृतिक मूल्यों को समसामयिक घटनाचक्र की कसौटी पर कसने का साधन बन गई है । पत्रकारिता जन-भावना की अभिव्यक्ति, सद्भावों की अनुभूति और नैतिकता की पीठिका है । संस्कृति, सभ्यता और स्वतंत्रता की वाणी होने के साथ ही यह पत्रकारिता क्रांति की अग्रदूतिका है । ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-संस्कृति, आशा-निराशा, संघर्ष-क्रांति, जय-पराजय, उत्थान-पतन आदि जीवन की विविध भावभूमियों की मनोहारी एवं यथार्थ छवि के दर्शन हम युगीन पत्रकारिता के दर्पण में कर सकते हैं । पत्रिका समूह के समाचार पत्र व पत्रिकायें इन मूल्यो के प्रहरी हैं. इसकी नींव के पत्थर संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश जी ही हैं.

कर्पूरचंद्र कुलिश (केसीके) की स्मृति में  11 हजार डॉलर का अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार स्थापित किया गया है, यह पत्रिका समूह की पत्रकारिता के पुरोधा को विनम्र श्रद्धांजली है यह प्रतिष्ठित  अवॉर्ड खोजी पत्रकारिता के लिए देश-दुनिया के श्रेष्ठ पत्रकारों को दिया जाता है।.  कर्पूरचंद्र कुलिश जी ने जाने कितनो की जीवनियां पत्रिका के माध्यम से प्रकाशित की पर स्वयं उनकी जीवनी और उन पर विस्तृत सामग्री  कम ही है. यह उनकी आत्म श्लाघा से दूर समर्पित भाव से कार्य करने की प्रवृति दर्शाती है. जरूरत है कि उन पर विशद विवेचनायें हो, उनके पत्रकार स्वरूप, साहित्यिक पक्ष , जैन संस्कृति को वेद विज्ञान से जोड़ते आध्यात्मिक पक्ष, समाज सेवी भाव , राजनैतिक पक्ष, स्वतंत्रता सेनानी स्वरुप तथा सफल व्यवसायिक पक्ष पर शोध कार्य किये जावें जिससे उनके अनुकरणीय जीवन से नई पीढ़ी के युवा पत्रकार  प्रेरणा पा सकें.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #50 ☆ सन्मति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # सन्मति ☆

यात्रा पर हूँ। एक भिक्षुक भजन गा रहा है, ‘रघुपति राघव राजाराम…..सबको सम्पत्ति दे भगवान।’

संभवतः यह उसका भाषाई अज्ञान है। अज्ञान से विज्ञान पर चलें। विज्ञान कहता है कि सजीवों में वातावरण के साथ अनुकूलन या तालमेल बिठाने की स्वाभाविक क्षमता होती है।

इस क्षमता के चलते स्थूल शरीर का भाव सूक्ष्म तक पहुँचता है। जो वाह्यजगत में उपजता है, उसका प्रतिबिंब अंतर्जगत में दिखता है।

आज वाह्यजगत भौतिकता को ‘त्वमेव माता, च पिता त्वमेव’ मानने की मुनादी कर चुका। संभव है कि इसके साथ मानसिक अनुकूलन बिठाने की जुगत में अंतर्जगत ने ‘सन्मति’ को ‘सम्पत्ति’ कर दिया हो।

क्या हम सब भी ‘सन्मति’ से ‘सम्पत्ति’ की यात्रा पर नहीं हैं? सन्मति के लोप और सम्पत्ति के लोभ का क्या कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्बंध है? इनके अंतर्सम्बंधों की  पड़ताल शोधार्थियों को संभावनाओं के अगणित आयाम दे सकती हैं।

 

#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज

मंगलवार 30 मई 2017, प्रात: 8:35 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पत्रकारिता दिवस विशेष ☆ जबलपुर की वेब पत्रकारिता और साहित्य तथा समाज में उसका योगदान ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  इंटरनेट की  दुनिया में वेब  / ई -पत्रिकाओं  की भूमिका पर एक शोधपरक आलेख  “जबलपुर की वेब पत्रकारिता और साहित्य तथा समाज में उसका योगदान ।   30 मई को पत्रकारिता दिवस पर इस आलेख के माध्यम से ई -पत्रिकाओं के योगदान को जन जन तक पहुंचने के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार । श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर आलेख के  लिए नमन । )

☆ पत्रकारिता दिवस विशेष ☆ 

☆ जबलपुर की वेब पत्रकारिता और साहित्य तथा समाज में उसका योगदान ☆

पौराणिक संदर्भो का स्मरण करें तो नारद मुनि संभवतः पहले पत्रकार कहे जा सकते हैं, इसी तरह  युद्ध भूमि से लाइव रिपोर्टिंग का पहला संदर्भ संजय द्वारा धृतराष्ट्र को महाभारत के युद्ध का हाल सुनाने का है.

वर्तमान युग में  विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन् 131 ईसा पूर्व रोम में माना जाता है. तब  वहाँ “Acta Diurna” (दिन की घटनाएं) किसी बड़े प्रस्तर पट  या धातु की पट्टी  पर वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं समाचार अंकित करके रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं.मध्यकाल में यूरोप के व्यापारिक केंद्रों में ‘सूचना-पत्र ‘ निकाले जाने लगे जिनमें कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे.  ये सारे ‘सूचना-पत्र ‘ हाथ से ही लिखे जाते थे. 15वीं शताब्दी के मध्य में योहन गूटनबर्ग ने छापने की मशीन का आविष्कार किया. असल में उन्होंने धातु के अक्षरों का आविष्कार किया.   फलस्वरूप किताबों का ही नहीं, अखबारों का भी प्रकाशन संभव हो सका. 16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, योहन कारोलूस नाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर वितरित करता था,  पर हाथ से बहुत सी प्रतियों की नक़ल करने का काम महंगा  और धीमा था. अतः वह छापे की मशीन ख़रीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापने लगा.  समाचार-पत्र का नाम था ‘रिलेशन’,  यह विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है.

हिंदी पत्रकारिता का तार्किक और वैज्ञानिक आधार पर काल विभाजन करना कुछ कठिन कार्य है. हिंदी पत्रकारिता का उद्भव सन् 1826 से 1867 माना जाता है. 1867 से 1900 के समय को हिंदी पत्रकारिता के विकास का समय कहा गया है. 1900 से 1947 के समय को हिंदी पत्रकारिता के उत्थान का समय निरूपित किया गया है. जबलपुर में इसी अवधि में पत्रकारिता विकसित हुई. 1947 से अब तक के समय को स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता कहा जाता है. स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता में अखबार, पत्रिकायें, रेडियो तथा २० वीं सदी के अंतिम दो दशको में टी वी पत्रकारिता का उद्भव हुआ. २१वी सदी के आरंभ के साथ इंटरनेट तथा सोशल मीडीया का विस्तार हुआ और जब हम हिन्दी के  परिदृश्य में इस प्रौद्योगिकी परिवर्तन को देखते हैं तो हिंदी  पर इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखते हैं. 21 अप्रैल, 2003 की तारीख वह स्वर्णिम तिथि है जब  रात्रि  22:21 बजे हिन्दी के प्रथम ब्लॉगर, मोहाली, पंजाब निवासी आलोक ने अपने ब्लॉग ‘9 2 11’ पर अपना पहला ब्लॉग-आलेख हिन्दी वर्णाक्षरों में इंटरनेट पर पोस्ट किया था. इस तारीख को हिन्दी वेब पत्रकारिता का प्रारंभ कहा जाना चाहिये.

पत्रकारिता  आधुनिक सभ्यता का एक प्रमुख व्यवसाय है जिसमें समाचारों का एकत्रीकरण, समाचार लिखना, रिपोर्ट करना, सम्पादित करना और समाचार तथा साहित्य का सम्यक चित्रांकन व प्रस्तुतीकरण आदि सम्मिलित हैं.

सूचना और साहित्य किसी भी सभ्य समाज की बौद्धिक भूख मिटाने के लिये अनिवार्य जरूरत है. तकनीक के विकास के साथ इस आवश्यकता को पूरा करने के संसाधन बदलते जा रहे हैं.हस्त लिखित अखबार और पत्रिकायें, फिर टंकित तथा साइक्लोस्टायल्ड अथवा फोटोस्टेट पत्रिकायें, न्यूज लैटर या पत्रक, एक एक अक्षर को फर्मे पर कम्पोज करके तथा फोटो सामग्री के ब्लाक बनाकर मुद्रित अखबार की तकनीक, विगत कुछ दशको में तेजी से बदली है और अब बड़े तेज आफसेट मुद्रण की मशीने सुलभ हैं, जिनमें ज्यादातर  कार्य वर्चुएल साफ्ट कापी में कम्प्यूटर पर होता है. समाचार संग्रहण व उसके अनुप्रसारण के लिये  टेलीप्रिंटर की पट्टियो को अभी हमारी पीढ़ी भूली नही है. आज हम इंटरनेट से  ईमेल पर पूरे के पूरे कम्पोज अखबारी पन्ने ही यहाँ से वहाँ ट्रांस्फर कर लेते हैं.

सामाजिक बदलाव में सर्वाधिक महत्व विचारों का ही होता है.लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के तीन संवैधानिक स्तंभो के बाद पत्रकारिता को  चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता दी गई क्योकि पत्रकारिता वैचारिक अभिव्यक्ति का माध्यम होता है, आम आदमी की नई प्रौद्योगिकी तक  पहुंच और इसकी  त्वरित स्वसंपादित प्रसारण क्षमता के चलते सोशल मीडिया व ब्लाग जगत को लोकतंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में देखा जा रहा है. वैश्विक स्तर पर पिछले कुछ समय में कई सफल जन आंदोलन इसी सोशल मीडिया के माध्यम से खड़े हुये हैं. हमारे देश में भी बाबा रामदेव, अन्ना हजारे के द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध  तथा दिल्ली के नृशंस सामूहिक बलात्कार के विरुद्ध बिना बंद, तोड़फोड़ या आगजनी के चलाया गया जन आंदोलन, और उसे मिले जन समर्थन के कारण सरकार को विवश होकर उसके सम्मुख किसी हद तक झुकना पड़ा. इन  आंदोलनो में विशेष रुप से नई पीढ़ी ने इंटरनेट, मोबाइल एस एम एस और मिस्डकाल के द्वारा अपना समर्थन व्यक्त किया.तब से होते निरंतर प्रौद्योगिकी विकास के साथ हिन्दी के महत्व को स्वीकार करते हुये ही बी बी सी, स्क्रेचमाईसोल, रेडियो जर्मनी,टी वी चैनल्स, तथा देश के विभिन्न अखबारो तथा न्यूज चैनल्स ने भी अपनी वेबसाइट्स पर पाठको के ब्लाग के पन्ने बना रखे हैं.बदलते तकनीकी परिवेश के चलते अब हर हाथ में एंड्रायड मोबाइल आता जा  रहा है, समाचार के लिये एप्प उपलब्ध करवाये जा रहे हैं.

ब्लागर्स पार्क दुनिया की पहली ब्लागजीन के रूप में नियमित रूप से मासिक प्रकाशित हो रही है. यह पत्रिका ब्लाग पर प्रकाशित सामग्री को पत्रिका के रूप में संयोजित  करने का अनोखा कार्य कर रही है.मुझे गर्व है कि मैं इसके मानसेवी संपादन मण्डल का सदस्य हूं.  अपने नियमित स्तंभो में  प्रायः समाचार पत्र ब्लाग से सामग्री उधृत करते हैं. हिन्दी ब्लाग के द्वारा जो लेखन हो रहा है उसके माध्यम से साहित्य, कला समीक्षा, फोटो, डायरी लेखन आदि आदि विधाओ में विशेष रूप से युवा रचनाकार अपनी नियमित अभिव्यक्ति कर रहे हैं. वेब दुनिया, जागरण जंकशन, नवभारत टाइम्स  जैसे अनेक हिन्दी पोर्टल ब्लागर्स को बना बनाया मंच व विशाल पाठक परिवार सुगमता से उपलब्ध करवा रहे हैं.और उनके लेखन के माध्यम से अपने पोर्टल पर विज्ञापनो के माध्यम से धनार्जन भी करने में सफल हैं. हिन्दी और कम्प्यूटर मीडिया के महत्व को स्वीकार करते हुये ही अपने वोटरो को लुभाने के लिये राजनैतिक दल भी इसे प्रयोग करने को विवश हैं. हिन्दी न जानने वाले राजनेताओ को हमने रोमन हिन्दी में अपने भाषण लिखकर पढ़ते हुये देखा ही है.

‘महर्षि जाबालि की तपोभूमि,  नर्मदांचल,  संस्कारधानी जबलपुर  सारस्वत संपदा से सदैव सम्पन्न रही है. वसुधैव कुटुम्बकम् की वैचारिक उद्घोषणा वैदिक भारतीय संस्कृति की ही देन है. वैज्ञानिक अनुसंधानो, विशेष रूप से संचार क्रांति  तथा आवागमन के संसाधनो के विकास ने तथा विभिन्न देशो की अर्थव्यवस्था की परस्पर प्रत्यक्ष व परोक्ष निर्भरता ने इस सूत्र वाक्य को आज मूर्त स्वरूप दे दिया है. हम भूमण्डलीकरण के युग में जी रहे हैं. सारा विश्व कम्प्यूटर चिप और बिट में सिमटकर एक गांव बन गया है. लेखन, प्रकाशन, पठन पाठन में नई प्रौद्योगिकी की दस्तक से आमूल परिवर्तन होते जा रहे हैं. नई पीढ़ी अब बिना कलम कागज के कम्प्यूटर पर ही  लिख रही है,प्रकाशित हो रही है, और पढ़ी जा रही है. ब्लाग तथा सोशल मीडीया वैश्विक पहुंच के साथ वैचारिक अभिव्यक्ति के सहज, सस्ते, सर्वसुलभ, त्वरित साधन बन चुके हैं. वेब-मीडिया सर्वव्यापकता को चरितार्थ करता है जिसमें ख़बरें दिन के चौबीसों घंटे और हफ़्ते के सातों दिन उपलब्ध रहती हैं.

लिखते हुए गर्व होता है कि श्री हेमन्त बावनकर जी ने अकेले दम पर सीनियर सिटीजन होते हुए भी स्वयं के दम पर अपने ही व्यक्तिगत संसाधनों से न्यूनतम समय मे 2 लाख से अधिक हिट्स पाने वाली हिंदी, मराठी व अंग्रेजी साहित्य की अत्यंत उच्च स्तरीय वेबसाइट   www.e-abhivyakti.com बनाकर प्रतिदिन सुबह नियमित प्रकाशन का बीड़ा उठाया हुआ है । दुनियाभर के पाठकों को हर सुबह इसके नए अंक की उत्सुकता से प्रतीक्षा रहती है ।

इंडिया बुक्स आफ रिकॉर्डस ने उनके इस महत्वपूर्ण कार्य को रिकार्ड में लेकर उन्हें सम्मानित भी किया है ।

जबलपुर वेब मीडीया की पत्रकारिता में पीछे नहीं है, श्री चैतन्य भट्ट समाचार विचार नामक पोर्टल चला रहे हैं जिसमें साहित्य, सामयिक आलेख कवितायें तथा समाचार नियमित रूप से अपडेट किये जाते हैं. इसकी हिट १००० से उपर प्रतिदिन है. वेब पता है http://samachar-vichar.com/. इसी तरह http://www.palpalindia.com के वेब पते से पलपलइंडिया नामक पोर्टल जबलपुर से चलाया जा रहा है जिसमें आशुतोष असर व अन्य मित्र बढ़िया वेब पत्रकारिता कर रहे हैं. जबलपुर पर वेब साइट्स में http://www.jabalpur.astha.net/ जबलपुर आस्थानेट का भी जिक्र जरूरी है. “दिव्य नर्मदा” जिसके मुद्रित अंक भी पहले प्रकाशित होते रहे हैं, तथा उसके नियमित प्रकाशन में आरही आर्थिक कठिनाईयो के चलते, जिसे वेब पत्रिका बनाने में मेरा विचार, तकनीकी सहयोग व योगदान ही मूल में रहा है. इसके संपादक मण्डल में भी मुझे ड़खा गया है, भाई संजीव सलिल इसे बेहद गंभीरता से चला रहे हैं और इस साहित्यिक वेब पत्रिका के हिट सारी दुनिया से मिल रहे हैं इसका वेब पता divyanarmada.blogspot.com है. प्रतिवाद डाट काम, वेबदुनिया, जागरण जंक्शन, नवभारत टाइम्स ब्लाग, रेडियो मिर्ची ब्लाग्स, स्क्रेच माई सोल ब्लागर्स पार्क, दैनिक भास्कर, आदि सामूहिक ब्लाग्स पर भी जबलपुर से प्रतिदिन विविध सामग्री पोस्ट की जा रही है. हिन्दी साहित्य संगम नाम से वेब डोमेन पर विजय तिवारी किसलय नियमित लिख रहे हैं तथा जबलपुर के साहित्य जगत की विविध हलचलें वेब पर एक सर्च में सुलभ हैं. फेसबुक इन दिनो सबसे लोकप्रिय सोशल मीडिया है. हिन्दी एक्सप्रेस का पेज https://www.facebook.com/pages/Madhya-Pradesh-Hindi-Express एवं जबलपुर न्यूज का पन्ना https://www.facebook.com/Jabalpur.News समाचारो का लोकप्रिय पेज है. इसके सिवा अनेक युवा समूहो ने जबलपुर, पर केंद्रित ग्रुप बना रखे हैं. जबलपुर विभिन्न शासकीय व गैर शासकीय संस्थानो की वेब साइटें, फेसबुक पेज आदि भी सूचना  प्रसारण का महत्वपूर्ण योगदान समाज को दे रहे हैं. मेरे फेसबुक पेज पर जिन भी आयोजनो में मैं उपस्थित हो पाता हूं उनका संक्षिप्त विवरण तथा चित्र कार्यक्रम स्थल से ही पोस्ट करना मेरी आदत में है, जिसके परिणाम यह होते हैं कि मुझसे फेसबुक पर जुड़े तथा मेरे फालोअर लगभग ५००० लोगो तक वह आयोजन तुरंत पहुंच जाता है और उसकी त्वरित प्रतिक्रिया भी मिलती है. यही त्वरित स्वसंपादित प्रकाशन वेब की सबसे बड़ी विशेषता है. यूं तो जबलपुर से ज्योतिष, कुकरी, टूरिज्म, नौकरी, फाइनेस आदि विषयो पर अनेक लोग वेब पर अपने व्यवसायिक हितो के लिये लिख रहे हैं पर जो सार्वजनिक हित के लिये सक्रिय हैं उनमें http://mahendra-mishra1.blogspot.in/ महेंद्र मिश्र, समय चक्र http://sanskaardhani.blogspot.in/ गिरीश बिल्लौरे मिस फिट, http://nomorepowertheft.blogspot.in/ विवेक रंजन श्रीवास्तव “बिजली चोरी के विरुद्ध जन जागरण”, “संस्कृत का मजा हिन्दी में”, मेरी कवितायें, तथा नमस्कार ब्लाग के साथ चर्चा योग्य हैं.

http://hindisahityasangam.blogspot.in/http://mymaahi.blogspot.in/ महेश ब्रम्हेते “माही “, http://apnajabalpur.blogspot.in/ नितिन पटेल “शेष अशेष”, http://chakreshsurya.blogspot.in/ चक्रेश सूर्या “सूर्या “, http://www.janbharat.blogspot.in/ अजय गुप्ता जनभारत, http://swapniljain1975.blogspot.in सवप्निल जैन हमारा जबलपुर एवं अंग्रेजी में जबलपुर डायरी http://www.jabalpurdiary.com/blogs.php आदि भी प्रमुख ब्लाग हैं.

बहुत जरुरी है कि कम से कम जबलपुर के सभी निजी ब्लाग व वेब पन्ने एक दूसरे को ब्लागरोल पर जोड़ें जिससे उनका व जबलपुर का व्यपक हित ही होगा.

यह सही है कि अभी ब्लाग लेखन नया है, पर जैसे जैसे नई कम्प्यूटर साक्षर पीढ़ी बड़ी होगी, इंटरनेट और सस्ता होगा तथा आम लोगो तक इसकी पहुंच बढ़ेगी यह वर्चुएल लेखन  और भी ज्यादा सशक्त होता जायेगा, एवं  भविष्य में  लेखन क्रांति का सूत्रधार बनेगा. जैसे जैसे वेब की पठनीयता बढ़ेगी वेब पत्रकारो को विज्ञापन मिलेंगे और वेब पत्रकारिता कोरी लफ्फाजी या हाई प्रोफाइल बनने के स्वांग से बढ़कर आजीविका का संसाधन भी बन सकेगी. फिलहाल जबलपुर की वेब पत्रकारिता विकास के युग में है और नियमित रूप से समाज और साहित्य को अपना सामग्री योगदान तथा इससे जुड़े लोगो को एक सशक्त मंच दे रही है.

 

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ अहं ब्रह्मास्मि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  अहं ब्रह्मास्मि

 

अहं ब्रह्मास्मि।…सुनकर अच्छा लगता है न!…मैं ब्रह्म हूँ।….ब्रह्म मुझमें ही अंतर्भूत है।

ब्रह्म सब देखता है, ब्रह्म सब जानता है।

अपने आचरण को देख रहे हो न!…अपने आचरण को जान रहे हो न!

बस इतना ही कहना था।

थोड़े लिखे को अधिक बाँचना, सर्वाधिक आत्मसात करना।

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

28.5.2020, प्रात: 10 बजे

# निठल्ला चिंतन

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 45 – तंत्र, शिव और शक्ति ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “तंत्र, शिव और शक्ति । )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 45 ☆

☆ तंत्र, शिव और शक्ति 

जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि तंत्रवाद में सभी दृश्य वस्तुएँ या रूप या अवधारणाएँ भगवान शिव और शक्ति के संयोजन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। हमारा जीवन शिव और शक्ति के बीच अलगाव के कारण ही है । शक्ति हमेशा व्यक्तिगत और ब्रह्मांड के विकास को पूरा करने के लिए शिव के साथ एकजुट होने का प्रयत्न करती है । जब शक्ति भगवान शिव के साथ मिलती है तो वैश्विक खेल समाप्त होता है और विश्राम का समय आ जाता है । आप इससे ऐसे सोच सकते हैं कि शिव एक अपरिवर्तिनीय चेतना या स्थितिज ऊर्जा है और शक्ति सक्रिय चेतना या गतिज ऊर्जा है ।

चेतना के गुणों की अंतः क्रिया से सीमित आयाम प्रकट होते हैं, और यह सीमित अभिव्यक्ति आयाम उन गुणों को प्राप्त करते हैं जिन्हें यह नाद, बिंदू और कला से ग्रहण करते हैं। शुद्ध अव्यक्त ऊर्जा के तीन गुण नाद, कला और बिंदू हैं । जबकि प्रकट ऊर्जा के तीन गुण सत्त्व, राजास और तामस हैं, स्पष्ट रूप से नाद कंपन है, बिंदू एक नाभि या केंद्र है और कला एक किरण या बल है जो नाभिक या बिंदू से उत्पन्न होता है ।

प्रत्येक नाद या कंपन में चार आवृत्तियाँ हैं जिनके विषय में मैंने कई बार बताया है, वे परा या ब्रह्मांडीय, पश्यन्ती या आकाशीय, मध्यमा या सूक्ष्म और विखारी या सकल या स्थूल हैं । क्या आप जानते हैं कि हमारे शरीर की हर कोशिका का नाभिक वही बिंदू है । इसमें गुणसूत्र होते हैं जो पूरी स्मृति और प्रजातियों की विकासवादी क्षमता को सांकेतिक शब्दों में बदलते (encode) हैं । यह बिंदू वास्तव में पदार्थ, ऊर्जा और चेतना के बीच एक कड़ी है ।

मनुष्य का वीर्य, जो सृजन के लिए ज़िम्मेदार है वास्तव में इस बिंदू और शुक्राणुजनों का संयोजन है। निषेचित अंडा एक सचेत जीवित ऊतक है । जब शुक्राणु अंडाशय में प्रवेश करता है, तो यह चेतना की एक सूक्ष्म गतिशील जगह बनाता है। उस जगह को आकश रहित आकाश कहा जाता है, जो चेतना का बिंदू है और बिना साँस के हिलता और धड़कता रहता है। उर्वरित अंडाशय में, जीव-व्यक्तिगत चेतना, ब्रह्म-सार्वभौमिक चेतना से अलग होती है। नाद-ध्वनिहीन ध्वनि, बिंदू-स्पंदनात्मक चेतना, और कला-झिल्लीदार संरचना, सभी युग्मनज (zygote) में उपस्थित होते हैं । यह गर्भ में बढ़ने वाला एक मृत ऊतक नहीं होता । एक कोशिका का दो, चार, और सोलह कोशिकाओं में विभाजन प्राण वायु द्वारा पूर्ण किया जाता है । इस प्रकार, शरीर का आकार प्राण वायु द्वारा ही निर्धारित होता है । कफ प्रत्येक कोशिका को पोषित करने में सहायता करता है और पित्त युग्मनज के मूल में अपरिपक्व कोशिका को परिपक्व कोशिका में परिवर्तित करता है । उर्वरित अंडाशय का यह कोश विभाजन भ्रूण को विकास की ओर ले जाता है ।

शक्ति त्रिगुणात्मक होती है, और ये इच्छा शक्ति – इच्छा की शक्ति, क्रिया शक्ति – कार्य की शक्ति, और ज्ञान शक्ति – ज्ञान की शक्ति है । ज्ञान शक्ति सात्विक होती है, क्रिया राजस्विक एवं इच्छा शक्ति तामसिक होती है । ज्ञान शक्ति शरीर का वात दोष, क्रिया पित्त दोष और इच्छा कफ दोष का सूक्ष्म रूप है । सामान्य मनुष्यों के लिए सरल शब्दों में ज्ञान शक्ति स्वयं या आत्मा और बुद्धि का मिश्रित रूप है, क्रिया शक्ति आत्मा और चित्त का मिश्रित रूप है और इच्छा शक्ति आत्मा और मन का मिश्रित रूप है ।

तंत्रवाद के शब्दों में बिंदू शिव है, कला शक्ति है (तीन मुख्य कला : क्रिया, ज्ञान और इच्छा) और नाद शिव और शक्ति का युग्मन है ।

सृजन के तीन बिन्दु सूर्य बिंदू, चंद्र बिंदू और अग्नि बिंदू हैं । अगर हम सूर्य बिंदू से अग्नि बिंदू को मिलाते हैं, तो मिलाने वाली रेखा को क्रिया शक्ति, जो की तीनों शक्तियों में सबसे बड़ी है कहा जायेगा । चंद्र बिंदु और अग्नि बिंदु को मिलाने वाली रेखा तामस प्रकृति की इच्छा शक्ति है और सूर्य बिंदु और चंद्र बिंदु को मिलाने वाली रेखा में ज्ञान शक्ति है जिसकी सात्विक प्रकृति है ।

क्रिया शक्ति रेखा वर्णमाला के साथ शुरू होने वाले संस्कृत के 16 स्वर हैं । यह भी स्पष्ट है कि क्रिया शक्ति का अर्थ भौतिक कार्यों से है जिसे संस्कृत के स्वरों द्वारा प्रकृति में नामित किया गया है जैसा कि चक्रों के विषय में बताते समय मैंने पहले ही बताया था । इच्छा शक्ति रेखा के 16 व्यंजन हैं जो ‘थ’ से शुरू होते हैं एवं ज्ञान शक्ति के 16 व्यंजन हैं जो ‘क’ से शुरू होते हैं ।  संस्कृत वर्णमाला के शेष तीन अक्षर ‘ह’, ‘ल’ और ‘क्ष’ इस त्रिभुज के शिखर हैं । अब इन तीन शक्तियों से उत्पन्न ध्वनि को समझें ।

आत्मा के प्राण वायु के माध्यम से कार्य करते हुए इच्छा शक्ति के आवेग से मूलाधार चक्र में परा नामक ध्वनि शक्ति उत्पन्न होती है, जो अन्य चक्रों के माध्यम से अपने आरोही आंदोलन में अन्य विशेषताओं और नामों (पश्यन्ती और मध्यमा) से जाती है, और जब मुँह से प्रकट होती है तो बोलने वाले अक्षरों के रूप में विखारी का रूप ले लेती है जो चक्रों में ध्वनि के सकल या स्थूल पहलू हैं । जब तीन गुण सत्त्व, राजस और तामस संतुलन (साम्य) की स्थिति में होते हैं, तो उस अवस्था को परा कहा जाता है । पश्यन्ती वह अवस्था है जब तीनों गुण असमान हो जाते हैं । अब कुछ और अवधारणाएं स्पष्ट हुई?”

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 48 ☆ ज़िंदगी…लम्हों की किताब ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी…लम्हों की किताब।  वास्तव में  ज़िन्दगी लम्हों की किताब ही है। एक एक लम्हा किताब के पन्नों की तरह गुज़रता है, फर्क सिर्फ इतना कि आप उसे पलट कर पढ़ नहीं सकते। आपके हाथों में सिर्फ अगले अगले लम्हे ही हैं। हाँ मन के पन्नों को पलटा कर कभी भी  खुद को पढ़ा जा सकता है। इस आलेख के कई महत्वपूर्ण कथन हमें विचार करने के लिए उद्वेलित करते हैं। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 48 ☆

☆ ज़िंदगी…लम्हों की किताब

लम्हों की किताब है जिंदगी/ सांसों व ख्यालों का हिसाब है ज़िंदगी/ कुछ ज़रुरतें पूरी, कुछ ख्वाहिशें अधूरी/ बस इन्हीं सवालों का/ जवाब है जिंदगी।’ प्रश्न उठता है–ज़िंदगी क्या है? ज़िंदगी एक सवाल है; लम्हों की किताब है; सांसों व ख्यालों का हिसाब है; कुछ अधूरी व कुछ पूरी ख्वाहिशों का सवाल है। सच ही तो है, स्वयं को पढ़ना सबसे अधिक कठिन कार्य है। जब हम खुद के बारे में नहीं जानते; अनजान हैं खुद से… फिर ज़िंदगी को समझना कैसे संभव है? ‘जिंदगी लम्हों की सौग़ात है/ अनबूझ पहेली है/ किसी को बहुत लंबी लगती/ किसी को लगती सहेली है।’ ज़िंदगी सांसों का एक सिलसिला है। जब कुछ ख्वाहिशें पूरी हो जाती हैं, तो इंसान प्रसन्न हो जाता है; फूला नहीं समाता है– मानो उसकी ज़िंदगी में चिर-बसंत का आगमन हो जाता है और जो ख्वाहिशें अधूरी रह जाती हैं; टीस बन जाती हैं; नासूर बन हर पल सालती हैं, तो ज़िंदगी अज़ाब बन जाती है। इस स्थिति के लिए दोषी कौन? शायद! हम…क्योंकि ख्वाहिशें हम ही मन में पालते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। एक के बाद दूसरी प्रकट हो जाती है और ये हमें चैन से नहीं बैठने देतीं। अक्सर हमारी जीवन-नौका भंवर में इस क़दर फंस जाती है कि हम चाह कर उस चक्रवात से बाहर नहीं निकल पाते। परंतु इसके लिए दोषी हम स्वयं हैं, इसीलिए उस ओर हमारी दृष्टि जाती ही नहीं और न ही हम यह जानते हैं कि हम कौन हैं? कहां से आए हैं और इस संसार में आने का हमारा प्रयोजन क्या है? संसार व समस्त प्राणी-जगत् नश्वर है और माया के कारण सत्य भासता है। यह सब जानते हुए भी हम आजीवन इस मायाजाल से मुक्त नहीं हो पाते।

सो! आइए, खुद को पढ़ें और ज़िंदगी के मक़सद को जानें; अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखें और बेवजह ख्वाहिशों को मन में विकसित न होने दे। ख्वाहिशों अथवा आकांक्षाओं को आवश्यकताओं तक सीमित कर दें, क्योंकि आवश्यकताओं की पूर्ति तो सहज रूप में संभव है; इच्छाओं की नहीं, क्योंकि वे तो सुरसा के मुख की भांति बढ़ती चली जाती हैं और उनका अंत कभी नहीं होता। जिस दिन हम इच्छा व आवश्यकता के गणित को समझ जाएंगे; ज़िंदगी आसान हो जाएगी। आवश्यकता के बिना तो ज़िंदगी की कल्पना ही बेमानी है, असंभव है। परमात्मा ने प्रचुर मात्रा में वायु, जल आदि प्राकृतिक संसाधन जुटाए हैं… भले ही मानव के बढ़ते लालच के कारण  हम इनका मूल्य चुकाने को विवश हैं। सो! इसमें दोष हमारी बढ़ती इच्छाओं का है। इसलिए इच्छाओं पर अंकुश लगाकर उन्हें सीमित कर; तनाव-रहित जीवन जीना श्रेयस्कर है।

ख्वाहिशें कभी पूरी नहीं होती और कई बार हम पहले ही घुटने टेक कर पराजय स्वीकार लेते हैं; उन्हें पूरा करने के निमित्त जी-जान से प्रयत्न भी नहीं करते और स्वयं को झोंक देते हैं– चिंता, तनाव, निराशा व अवसाद के गहन सागर में; जिसके चंगुल से बच निकलना असंभव होता है। वास्तव में ज़िंदगी सांसों का सिलसिला है। वैसे भी ‘जब तक सांस, तब तक आस’ रहती है और जिस दिन सांस थम जाती है, धरा का, सब धरा पर, धरा ही रह जाता है। मानव शरीर पंच-तत्वों से निर्मित है…सो! मानव अंत में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश में विलीन हो जाता है।

‘आदमी की औक़ात, बस! एक मुट्ठी भर राख’ यही जीवन का शाश्वत सत्य है। मृत्यु अवश्यंभावी है; भले ही समय व स्थान निर्धारित नहीं है। इंसान इस जहान में खाली हाथ आया था और उसे सब कुछ यहीं छोड़, खाली हाथ लौट जाना है। परंतु फिर भी वह आखिरी सांस तक इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और अपनों की चिंता में लिप्त रहता है। वह अपने आत्मजों व प्रियजनों के लिए आजीवन उचित- अनुचित कार्यों को अंजाम देता है…उनकी खुशी के लिए, जबकि पापों का फल उसे अकेले ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि ‘सुख के सब साथी, दु:ख में न कोय’ अर्थात् सुख-सुविधाओं का आनंद तो सभी लेते हैं, परंतु वे पाप के प्रतिभागी नहीं होते। आइए! हम इससे निजात पाने की चेष्टा करें और हर पल को अंतिम पल मानकर निष्काम कर्म करें। ‘पल में प्रलय हो जाएगी, मूरख करेगा कब?’ जी हां! कल अर्थात् भविष्य अनिश्चित है; केवल वर्तमान ही सत्य है। इसलिए जो भी करना है; आज ही नहीं, अभी करना बेहतर है। कबीर जी का यह संदेश उक्त भाव को अभिव्यक्त करता है। क़ुदरत ने तो हमें आनंद ही आनंद दिया है, दु:ख तो हमारी स्वयं की खोज है। इससे तात्पर्य है कि प्रकृति दयालु है; मां की भांति  हर आवश्यकता की पूर्ति करती है। परंतु मानव स्वार्थी है; उसका अनावश्यक दोहन करता है;

जिसके कारण अपेक्षित संतुलन व सामाजिक- व्यवस्था बिगड़ जाती है तथा उसके कार्य-व्यवहार में अनावश्यक हस्तक्षेप करने का परिणाम है… सुनामी, अत्यधिक वर्षा, दुर्भिक्ष, अकाल, महामारी आदि… जिनका सामना आज पूरा विश्व कर रहा है। मुझे स्मरण हो रही हो रहा है… भगवान महाबीर द्वारा निर्दिष्ट–’जियो और जीने दो’ का सिद्धांत, जो अधिकार को त्याग कर्तव्य-पालन व संचय की प्रवृत्ति का त्याग करने का संदेश देता है। सृष्टि का नियम है कि ‘एक सांस लेने के लिए मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है।’ सो! जीवन में ज़रूरतों की पूर्ति करो; व्यर्थ की ख्वाहिशें मत पनपने दो, क्योंकि वे कभी पूरी नहीं होतीं और उनके जंज़ाल में फंसा मानव कभी भी मुक्त नहीं हो पाताता। इसलिए सदैव अपनी चादर देख कर पांव पसारने अर्थात् संतोष से जीने की सीख दी गयी है… यही अनमोल धन है अर्थात् जो मिला है, उसी में संतोष कीजिए, क्योंकि परमात्मा वही देता है, जो हमारे लिए आवश्यक व शुभ होता है। सो! ‘सपने देखिए! मगर खुली आंख से’…और उन्हें साकार करने की पूर्ण चेष्टा कीजिए; परंतु अपनी सीमाओं में रहते हुए, ताकि उससे दूसरों के अधिकारों का हनन न हो।

संसार अद्भुत स्थान है। आप दूसरे के दिल में, विचारों में, दुआओं में रहिए। परंतु यह तभी संभव है, जब आप किसी के लिए अच्छा करते हैं; उसका मंगल चाहते हैं; उसके प्रति मनोमालिन्य का दूषित भाव नहीं रखते। सो! ‘सब हमारे, हम सभी के’ –इस सिद्धांत को जीवन में अपना लीजिए…यही आत्मोन्नति का सोपान है। ‘कर भला, हो भला’ तथा ‘सबका मंगल होय’ अर्थात् इस संसार में हम जैसा करते हैं; वही लौटकर हमारे पास आता है। इसीलिए कहा गया है कि रूठे हुए को हंसाना; असहाय की सहायता करना; सुपात्र को दान देना आदि सब आपके पास ही प्रतिदान रूप में लौट कर आता है। वक्त सदा एक-सा नहीं रहता। ‘कौन जाने, किस घड़ी, वक्त का बदले मिज़ाज’ तथा ‘कल चमन था, आज एक सह़रा हुआ/ देखते ही देखते यह क्या हुआ’– यह हक़ीक़त है। पल-भर में रंक राजा व राजा रंक बन सकता है। क़ुदरत के खेल अजब हैं; न्यारे हैं; विचित्र हैं। सुनामी के सम्मुख बड़ी-बड़ी इमारतें ढह जाती हैं और वह सब बहा कर ले जाता है। उसी प्रकार घर में आग लगने पर कुछ भी शेष नहीं बचता। कोरोना जैसी महामारी का उदाहरण आप सबके समक्ष है। आप घर की चारदीवारी में क़ैद हैं… आपके पास धन-दौलत है; आप उसे खर्च नहीं कर सकते; अपनों की खोज-खबर नहीं ले सकते। कोरोना से पीड़ित व्यक्ति राजकीय संपत्ति बन जाता है। यदि बच गया, तो लौट आएगा,अन्यथा उसका विद्युत्-दाह भी सरकार द्वारा किया जाएगा। हां! आपको सूचना अवश्य दे दी जाएगी।

लॉक-डाउन में सब बंद है। जीवन थम-सा गया है। सब कुछ मालिक के हाथ है; उसकी रज़ा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल पाता…फिर यह भागदौड़ क्यों? अधिकाधिक धन कमाने के लिए अपनों से छल क्यों? दूसरों की भावनाओं को रौंद कर महल बनाने की इच्छा क्यों? सो! सदा प्रसन्न रहिए। ‘कुछ परेशानियों को हंस कर टाल दो, कुछ को वक्त पर टाल दो।’ समय सबसे बलवान् है; सबसे बड़ी शक्ति है; सबसे बड़ी नियामत है। जो ठीक होगा, वह तुम्हें अवश्य मिल जाएगा। चिंता मत करो। जिसे तुम अपना कहते हो; तुम्हें यहीं से मिला है और तुम्हें यहीं सब छोड़ कर जाना है। फिर चिंता और शोक क्यों?

रोते हुए को हंसाना सबसे बड़ी इबादत है; पूजा है; भक्ति है; जिससे प्रभु प्रसन्न होते हैं। सो! मुट्ठी खुली रखना सीखें, क्योंकि तुम्हें इस संसार से खाली हाथ लौटना है। अपने हाथों से गरीबों की मदद करें; उनके सुख में अपना सुख स्वीकारें, क्योंकि ‘क़द बढ़ा नहीं करते, एड़ियां उठाने से/ ऊंचाइयां तो मिलती है, सर को झुकाने से।’ विनम्रता मानव का सबसे बड़ा गुण है। इससे बाह्य धन-संपदा ही नहीं मिलती; आंतरिक सुख, शांति व आत्म-संतोष भी प्राप्त होता है और मानव की दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: अंत हो जाता है। वह संसार उसे अपनाव खुशहाल नज़र आता है। सो! ज़िंदगी उसे दु:खालय नहीं भासती; उत्सव प्रतीत होती है, जिस में रंजोग़म का स्थान नहीं; खुशियां ही खुशियां हैं; जो देने से, बांटने से विद्या रूपी दान की भांति बढ़ती चली जाती हैं। इसलिए कहा जाता है–’जिसे इस जहान में आंसुओं को पीना आ गया/ समझो! उसे जीना आ गया।’ सो! जो मिला है, उसे प्रभु-कृपा समझ कर प्रसन्नता से स्वीकार करें, ग़िला-शिक़वा कभी मत करें। कल, भविष्य जो अनिश्चित है; कभी आएगा नहीं…उसकी चिंता में वर्तमान को नष्ट मत करें… यही ज़िंदगी है और लम्हों की सौग़ात है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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