हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ वसंत पंचमी विशेष – वसंत पंचमी के पांच रहस्य ☆ – डॉ उमेश चंद्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

(डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी की  वसंत पंचमी पर विशेष प्रस्तुति  वसंत पंचमी के पांच रहस्य।) 

☆ वसंत पंचमी विशेष – वसंत पंचमी के पांच रहस्य ☆ 

बसंत ऋतु में होली, धुलेंडी, रंगपंचमी, बसंत पंचमी, नवरात्रि, रामनवमी, नव-संवत्सर, हनुमान जयंती और गुरु पूर्णिमा उत्सव मनाए जाते हैं। इनमें से रंगपंचमी और बसंत पंचमी जहां मौसम परिवर्तन की सूचना देते हैं वहीं नव-संवत्सर से नए वर्ष की शुरुआत होती है। इसके अलावा होली-धुलेंडी जहां भक्त प्रहलाद की याद में मनाई जाती हैं वहीं नवरात्रि मां दुर्गा का उत्सव है तो दूसरी ओर रामनवमी, हनुमान जयंती और बुद्ध पूर्णिमा के दिन दोनों ही महापुरुषों का जन्म हुआ था।

श्रीकृष्ण ने कहा था ऋ‍तुतों में मैं वसंत हूं :

क्यों कहा ऐसा कृष्ण ने? क्योंकि प्रकृति का कण-कण वसंत ऋतु के आगमन में आनंद और उल्लास से गा उठता है। मौसम भी अंगड़ाई लेता हुआ अपनी चाल बदलकर मद-मस्त हो जाता है। प्रेमी-प्रेमिकाओं के दिल भी धड़कने लगते हैं। जो लोग ‘जागरण’ का अभ्यास कर रहे हैं उनके लिए वसंत ऋतु उत्तम है।

प्रेम दिवस :

वसंत पंचमी को मदनोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। कामदेव का ही दूसरा नाम है मदन। इस अवसर पर ब्रजभूमि में भगवान श्रीकृष्ण और राधा के रास उत्सव को मुख्य रूप से मनाया जाता है। औषध ग्रंथ चरक संहिता में उल्लेखित है कि इस दिन कामिनी और कानन में अपने आप यौवन फूट पड़ता है। ऐसे में कहना होगा कि यह प्रेमी-प्रेमिकाओं के लिए इजहारे इश्क दिवस भी होता है।

प्रकृति का परिवर्तन :

इस दिन से जो-जो पुराना है सब झड़ जाता है। प्रकृति फिर से नया श्रृंगार करती है। टेसू के दिलों में फिर से अंगारे दहक उठते हैं। सरसों के फूल फिर से झूमकर किसान का गीत गाने लगते हैं। कोयल की कुहू-कुहू की आवाज भंवरों के प्राणों को उद्वेलित करने लगती है। गूंज उठता मादकता से युक्त वातावरण विशेष स्फूर्ति से और प्रकृति लेती हैं फिर से अंगड़ाइयां।

देवी सरस्वती का जन्मदिन :

मूलत: यह पर्व ज्ञान की देवी सरस्वती के जन्मदिन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। कवि, कथाकार, चित्रकार, गायक, संगीतकार और विचारकों के लिए इस दिन का महत्व है। सरस्वती देवी का ध्यान और पूजन ज्ञान और कला की शक्ति को बढ़ाता है।

प्राणायाम और ध्यान :

जिन्हें प्राणायाम का ज्ञान है वे जानते हैं कि इस मौसम में प्राणायाम करने का महत्व क्या है। इस मौसम में शुद्ध और ताजा वायु हमारे रक्त संचार को सुचारु रूप से चलाने में सहायक सिद्ध होती है। मन के परिवर्तन को समझते हुए ध्यान करने के लिए सबसे उपयोगी ऋतु सिद्ध हो सकती है।?

 

प्रस्तुति – डॉ.उमेश चन्द्र शुक्ल

अध्यक्ष हिन्दी-विभाग परेल, मुंबई-12

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 13 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और शिक्षा) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से  (गांधी जी और शिक्षा)”.)

☆ गांधी चर्चा # 13 – हिन्द स्वराज से  (गांधी जी और शिक्षा) ☆

अंग्रेजी  के शिक्षण पर : करोड़ो लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। उसने इसी इरादे से अपनी योजना बनाई थी, ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता। लेकिन उसके काम का नतीजा यही निकला। हम जब एक दुसरे को पत्र लिखते हैं तब गलत अंग्रेजी में लिखते हैं। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरा बढे हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ उठा नहीं रखा। यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में अगर मुझे इन्साफ पाना हो तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना चाहिए। यह कुछ कम दंभ है? यह गुलामी की हद नहीं तो और क्या है? हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं।

लेकिन अंग्रेजी शिक्षा जरूरी भी है इसे सिद्ध करने के लिए गांधीजी कहते हैं कि : हम सभ्यता के रोग में ऐसे फंस गए हैं कि अंग्रेजी शिक्षा बिलकुल लिए बिना अपना काम चला सकें ऐसा समय अब नहीं रहा। जिसने वह शिक्षा पायी है,वह उसका अच्छा उपयोग करे। जो लोग अंग्रेजी पढ़े हुए हैं उनकी संतानों को पहले तो नीति सिखानी चाहिए,उनकी मातृभाषा सिखानी चाहिए। बालक जब पुख्ता (पक्की) उम्र के हो जाएँ तब भले ही वे अंग्रेजी शिक्षा पायें, और वह भी उसे मिटाने के इरादे से, न कि उसके जरिये पैसे कमाने के इरादे से। ऐसा करते हुए हमें यह भी सोचना होगा कि हमें अंग्रेजी में क्या सीखना चाहिए और क्या नहीं सीखना चाहिए। कौन से शास्त्र पढने चाहिए, यह भी हमें सोचना होगा।

प्रश्न: तब कैसी शिक्षा दी जाए

उत्तर: मुझे तो लगता है कि हमें अपनी सभी भाषाओं को उज्जवल शानदार बनाना चाहिए। हमें अपनी भाषा में ही शिक्षा लेनी चाहिए – इसके क्या मानी हैं, इसे ज्यादा समझाने का यह स्थान नहीं है। जो अंग्रेजी पुस्तकें काम की हैं उनका हमें अपनी भाषाओं में अनुवाद करना होगा। बहुत से शास्त्र सीखने का दंभ और वहम हमें छोड़ना होगा। सबसे पहले तो धर्म की शिक्षा या नीति की शिक्षा दी जानी चाहिए। हरेक पढ़े लिखे हिन्दुस्तानी को अपनी भाषा का, हिन्दू को संस्कृत का, मुसलमान को अरबी का और पारसियों को फारसी का और सबको हिन्दी का ज्ञान होना चाहिए। कुछ हिन्दुओं को अरबी और कुछ मुसलमानों और पारसियों को संस्कृत सीखनी चाहिए। उत्तरी और पश्चिमी हिन्दुस्तान के लोगों को तमिल सीखनी चाहिए। सारे हिन्दुस्तान के लिए जो भाषा होनी चाहिए, वह तो हिन्दी ही होनी चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए। हिन्दू-मुसलमान के सम्बन्ध ठीक रहें, इसलिये बहुत से हिन्दुस्तानियों का इन दोनों लिपियों को जाँ लेना जरूरी है। ऐसा होने से हम आपस के व्यवहार में अंग्रेजी निकाल सकेंगे।

प्रश्न: जो धर्म की शिक्षा की बात कही वह बड़ी कठिन है।

उत्तर : फिर भी उसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता। हिन्दुस्तान कभी नास्तिक नहीं बनेगा। हिन्दुस्तान की भूमि में नास्तिक फल फूल नहीं सकते। बेशक, यह काम मुश्किल है। धर्म की शिक्षा का ख्याल करते ही सिर चकराने लगता है। धर्म के आचार्य दम्भी और स्वार्थी मालूम होते हैं। उनके पास पहुँचकर हमें नम्र भाव से समझाना होगा। उसकी कुंजी मुल्लों, दस्तूरों और ब्राह्मणों के हाथ है। लेकिन अगर उसमे सद्बुद्धि पैदा न हो, तो अंग्रेजी शिक्षा के कारण हममें जो जोश पैदा हुआ है, उसका उपयोग करके हम लोगों  को नीति की शिक्षा दे सकते हैं। यह कोई मुश्किल बात नहीं है। हिन्दुस्तानी सागर के किनारे ही मैल जमा है । उस मैल से जो गंदे हो गए हैं उन्हें साफ़ होना है। हम लोग ऐसे ही हैं और खुद ही बहुत कुछ साफ हो सकते हैं। मेरी यह टीका करोड़ों लोगों के बारे में नहीं है। हिन्दुस्तान को असली रास्ते पर लाने के लिए हमें ही असली रास्ते पर आना होगा। बाकी करोड़ों लोग तो असली रास्ते पर ही हैं। उसमे सुधार, बिगाड़, उन्नति, अवनति समय के अनुसार होते रहेंगे। पश्चिम की सभ्यता को निकाल बाहर करने की हमें कोशिश करनी चाहिए। दूसरा सब अपने आप ठीक हो जाएगा।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – साथी हाथ बढ़ाना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – साथी हाथ बढ़ाना

( श्री संजय भारद्वाज जी  द्वारा तीन वर्ष पूर्व गणतंत्र दिवस पर लिखी इस पोस्ट को आज साझा कर रहा हूँ। इसका विषय सदैव सामयिक ही रहेगा, ऐसा प्रतीत होता है।
फिर पहला पग तो कभी भी उठाया जा सकता है। )

विगत दिवस गण की रक्षा के लिए  गांदरबल में भारी हिमपात के बीच आतंकियों से जूझते सैनिकों के चित्र  देखे।

चौबीस घंटे पल-पल चौकन्ना सुरक्षातंत्र और उनकी कीमत पर राष्ट्रीय पर्व की छुट्टी मनाता गण अर्थात आप और हम।

विचार उठा क्यों न राष्ट्रीय पर्वो की छुट्टी रद्द कर उन्हें सामूहिक योगदान से जोड़ें!

बुजुर्गों तथा बच्चों को छोड़कर देश की आधी जनसंख्या लगभग पैंसठ करोड़ लोगों के एक सौ तीस करोड़ हाथ एक ही समय एक साथ आएँ तो कायाकल्प हो सकता है।

देश की सामूहिकता केवल डेढ़ घंटे में एक सौ तीस करोड़ पौधे लगा सकती है, लाखों टन कचरा हटा सकती है, कृषकों के साथ मिलकर अन्न उगाने में हाथ बँटा सकती है।

हो तो बहुत कुछ सकता है।’या क्रियावान स पंडितः’..। पूरे मन से साथी साथ आएँ तो ‘असंभव’ से ‘अ’ भी हटाया जा सकता है।

इन पंक्तियों को लिखनेवाला यानी मैं एवं पढ़नेवाले यानी आप, हम अपने स्तर पर ही पहला पग उठा लें तो यह शुभारंभ होगा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

26 जनवरी 2017

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #34 – उम्मीदें ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “उम्मीदें”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 34 ☆

☆ उम्मीदें

लोकतंत्र का पंचवर्षीय महोत्सव पूरा हुआ. करोड़ो का सरकारी खर्च हुआ जिसके आंकड़े शायद सूचना के अधिकार के जरिये कोई भी कभी भी निकलवा सकता है, पर कई करोड़ो का खर्च पार्टियो और उम्मीदवारो ने ऐसा भी किया है जो कुछ वैसा ही है कि “घी कहां गया खिचड़ी में..” व्यय के इस सर्वमान्य सत्य को जानते हुये भी हम अनजान बने रहना चाहते है. शायद यही “हिडन एक्सपेंडीचर”  राजनीति की लोकप्रियता का कारण भी है. सैक्स के बाद यदि कुछ सबसे अधिक लोकप्रिय है तो संभवतः वह राजनीति ही है. अधिकांश उम्मीदवार अपने नामांकन पत्र में अपनी जो आय घोषित कर चुके हैं, वह हमसे छिपी नही है. एक सांसद को जो कुछ आर्थिक सुविधायें हमारा संविधान सुलभ करवाता है, वह इन उम्मीदवारो के लिये ऊँट के मुह में जीरा है. प्रश्न है कि- आखिर क्या है जो लोगो को राजनीति की ओर आकर्षित करता है? क्या सचमुच जनसेवा और देशभक्ति ? क्या सत्ता सुख, अधिकार संपन्नता इसका कारण है? मेरे तो बच्चे और पत्नी तक मेरे ऐसे ब्लाइंड फालोअर नही है, कि कड़ी धूप में वे मेरा घंटों इंतजार करते रहें, पर ऐसा क्या चुंबकीय व्यक्तित्व है, राजनेताओ का कि हमने देखा लोग कड़ी गर्मी के बाद भी लाखो की तादाद में हेलीकाप्टर से उतरने वाले नेताओ के इंतजार में घंटो खड़े रहे, देश भर में. इसका अर्थ तो यही है कि अवश्य कुछ ऐसा है राजनीति में कि हारने वाले या जीतने वाले या केवल नाम के लिये चुनाव लड़ने वाले सभी किसी ऐसी ताकत के लिये राजनीति में आते हैं, जिसे मेरे जैसी मूढ़ बुद्धि समझ नही पा रहे.

तमाम राजनैतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार देश के “रामभरोसे” मतदाता की तारीफ करते नही अघाते.  देश ही नही दुनिया भर में हमारे ‘रामभरोसे’ की प्रशंसा होती है, उसकी शक्ति के सम्मुख लोकतंत्र नतमस्तक है. ‘रामभरोसे’ के फैसले के पूर्वानुमान की रनिंग कमेंट्री कई कई चैनल कई कई तरह से कर रहे हैं. मैं भी अपनी मूढ़ मति से नई सरकार का हृदय से स्वागत करता हूं. हर बार बेचारा ‘रामभरोसे’ ठगा गया है, कभी गरीबी हटाने के नाम पर तो कभी धार्मिकता के नाम पर, कभी देश की सुरक्षा के नाम पर तो कभी रोजगार के सपनो की खातिर. एक बार और सही. हर बार परिवर्तन को वोट करता है ‘रामभरोसे’, कभी यह चुना जाता है कभी वह. पर ‘रामभरोसे’ का सपना हर बार टूट जाता है, वह फिर से राम के भरोसे ही रह जाता है. नेता जी कुछ और मोटे हो जाते हैं. नेता जी के निर्णयो पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं, जाँच कमीशन व न्यायालय के फैसलो में वे प्रश्न चिन्ह गुम जाते हैं. रामभरोसे किसी नये को नई उम्मीद से चुन लेता है. चुने जाने वाला ‘रामभरोसे’ पर राज करता है, वह उसके भाग्य के घोटाले भरे फैसले करता है. मेरी पीढ़ी ने तो कम से कम यही होते देखा है. प्याज के छिलको की परतो की तरह नेताजी की कई छवियाँ होती हैं. कभी वे  जनता के लिये श्रमदान करते नजर आते हैं, शासन के प्रकाशन में छपते हैं. कभी पांच सितारा होटल में रात की रंगीनियो में ‘रामभरोसे’ के भरोसे तोड़ते हुये उन्हें कोई स्पाई कैमरा कैद कर लेता है. कभी वे संसद में संसदीय मर्यादायें तोड़ डालते हैं, पर उन्हें सारा गुस्सा केवल ‘रामभरोसे’ के हित चिंतन के कारण ही आता है. कभी कोई तहलका मचा देता है स्कूप स्टोरी करके कि नेता जी का स्विस एकाउंट भी है. कभी नेता जी विदेश यात्रा पर निकल जाते हैं ‘रामभरोसे’ के खर्चे पर. वे जन प्रतिनिधि जो ठहरे. जो भी हो शायद यही लोकतंत्र है. तभी तो सारी दुनिया इसकी इतनी तारीफ करती है. नई सरकार से मेरी यही उम्मीद है कि, और शायद यही ‘रामभरोसे’ की भी उम्मीद होगी कि पिछली सरकारो के गड़े मुर्दे उखाड़ने में अपना श्रम, समय और शक्ति व्यर्थ करने के बजाय सरकार कुछ रचनात्मक करे. कागजो पर कानूनी परिवर्तन ही नही समाज में और लोगो के जन जीवन में वास्तविक परिवर्तन लाने के प्रयास हों.

केवल घोषणायें और शिलान्यास नहीं कुछ सचमुच ठोस हो. सरकार से हमें केवल देश की सीमाओ की सुरक्षा, भय मुक्त नागरिक जीवन, भारतवासी होने का गर्व, और नैसर्गिक न्याय जैसी छोटी छोटी उम्मीदें ही तो हैं, और क्या?

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #32 ☆ भवसागर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 32 ☆

☆ भवसागर  ☆

स्थानीय बस अड्डे के पास सड़क पार करने के लिए खड़ा हूँ। भीड़-भाड़ है। शेअर ऑटो रिक्शावाले पास के उपनगरों, कस्बों, बस्तियों, सोसायटियों के नाम लेकर आवाज़ें लगा रहे हैं, अलां स्थान, फलां स्थान, यह नगर, वह नगर। हाइवे या सर्विस रोड, टूटा फुटपाथ या जॉगर्स पार्क। हर आते-जाते से पूछते हैं, हर ठहरे हुए से भी पूछते हैं।  जो आगंतुक जहाँ जाना चाहता  है, उस स्थान का नाम सुनकर स्वीकारोक्ति में सिर हिलाता हुआ शेअर ऑटो में स्थान पा जाता है। सवारियाँ भरने के बाद रिक्शा छूट निकलता है।

छूट निकले रिक्शा के साथ चिंतन भी दस्तक देने लगता है। सोचता हूँ कैसे भाग्यवान, कितने दिशावान हैं ये लोग! कोई आवाज़ देकर पूछता है कि कहाँ उतरना है और सामनेवाला अपना गंतव्य बता देता है। जीवन से मृत्यु और मृत्यु उपरांत  की यात्रा में भी जिसने गंतव्य को जान लिया, गंतव्य को पहचान लिया, समझ लिया कि उसे कहाँ उतरना है, उससे बड़ा द्रष्टा और कौन होगा?

एक मैं हूँ जो इसी सड़क के इर्द-गिर्द, इसी भीड़-भड़क्के में रोजाना अविराम भटकता हूँ। न यह पता कि आया कहाँ से हूँ, न यह पता कि जाना कहाँ है। अपनी पहचान पर मौन हूँ, पता ही नहीं कि मैं कौन हूँ।

सृष्टि में हरेक की भूमिका है। मनुष्य देह पाये जीव की गति मनुष्य के संग से ही सम्भव है। यह संग ही सत्संग कहलाता है।

दिव्य सत्संग है पथिक और नाविक का। आवागमन से मुक्ति दिलानेवाले साक्षात प्रभु श्रीराम, नदी पार उतरने के लिए केवट का निहोरा कर रहे हैं। अनन्य दृश्यावली है त्रिलोकी के स्वामी की, अद्भुत शब्दावली है गोस्वामी जी की।

जासु नाम सुमरित एक बारा
उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा
जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा।।

केवट का अड़ जाना, पार कराने के लिए शर्त रखने का  आनंद भी अपार है।

मागी नाव न केवटु आना
कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई
मानुष करनि मूरि कुछ अहई।

सोचता हूँ, केवट को श्रीराम मिले जिनकी चरणरज में जीव को मनुष्य करने की जड़ी-बूटी थी। मुझ अकिंचन को कोई केवट मिले जो श्वास भरती इस देह को मानुष कर सके।

तभी एक स्वर टोकता है, “उस पार जाना है?” कहना चाहता हूँ, “हाँ, भवसागर पार करना है। करा दे भैया…!”

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 11.05 बजे, 22.01.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ  समय समय पर उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।  कुछ दिन पूर्व, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) के तत्वावधान में, न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम और कोलंबिया विश्वविद्यालय के सहयोग से दिल्ली विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित किया गया । इस सन्दर्भ में प्रस्तुत है उनका विशेष आलेख ‘अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन’. )

☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन

कुछ दिन पूर्व, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) के तत्वावधान में, न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम और कोलंबिया विश्वविद्यालय के सहयोग से दिल्ली विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित किया गया था।  सम्मेलन का उद्देश्य हिंदी अध्ययन की वैश्विक दृष्टि और इसके साहित्य को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखने, पढ़ने और समझने के तरीके पर ध्यान केंद्रित करना था।  इस आयोजन ने विश्व साहित्य और हिंदी साहित्य के बीच की खाई को पाटने में अनुवाद और अनुवाद अध्ययन की भूमिका को भी संबोधित किया।

अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन एक बड़ी सफलता था। एक उत्सवपूर्ण माहौल में, जहां दुनिया भर के शिक्षाविदों, साहित्यकारों और भाषाविदों को एक मंच पर एकत्रित होने का अवसर मिला। जहाँ उन्होंने अपने शोध कार्यों, बुद्धिशीलता, ज्ञान, नवीनतम विचारोँ और घटनाओं को साझा किया।

 

मुझे यह सूचित करने में सम्मान महसूस हो रहा है कि मुझे ‘भाषा और अनुवाद’  सत्र की अध्यक्षता करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसके साथ ही  मुझे एक शोध पत्र प्रस्तुत करने के लिए भी आमंत्रित किया गया, विषय: “हिंदी-उर्दू अनुवादों के माध्यम से अंतर सांस्कृतिक संवाद”, जिसे मंच द्वारा सराहा गया।

इस “ट्रांसलेशन सेंटर” ने दुनिया भर के कई विद्वानों की मेजबानी की है, जैसे कि गैब्रिएला निक इलीवा (न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय), एडविन जेंट्ज़लर (यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट, यूएसए), जूडी वाकबायशी (केंट स्टेट यूनिवर्सिटी, यूएसए), सिरी नेरगार्ड (फ्लोरेंस विश्वविद्यालय, इटली), मिलिना ब्रेटोवा (सोफिया यूनिवर्सिटी, बुल्गारिया), तोमोको किकुची, अजमल कमल के अलावा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतीय विद्वानों में हरीश त्रिवेदी, सुकृता पॉल कुमार, इंद्र नाथ चौधरी, गीता धरमराजन, रक्षंदा जलील, अशोक वाजपेयी, लीला  धर मंडलोई, अजय नावरिया, गगन गिल और अशोक चक्रधर अन्य।

 क्या कहूँ इस सम्मेलन के विषय में? विद्वानों का जमावड़ा वो भी पारिवारिक उत्सव के माहौल में… कितना प्रेम, कितना अपनत्व… शब्द कम पड़ रहे हैं आभार व्यक्त करने को… यूँ ही कुछ उद्गार  हैं आप सब के लिए… समय इंद्रप्रस्थ महाविद्यालय में थम सा गया है…

यादों का कारवाँ, यूँही थक कर

गुज़िश्ता पलों में थम सा गया है

न जाने क्यों, वक्त की दीवार में इक

ज़िंदा बुत की मानिंद चुन सा गया है…

इस सम्मेलन ने यह सिद्ध कर दिया कि सही चुने गए विषयों पर केंद्रित, सुरूचिपूर्ण और गरिमामय आयोजन के लिए   ईमानदारी, कर्मठता, सोच और दूरदृष्टता से हिंदी को विश्व पटल पर बहुत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है। बीज वक्तव्यों का चयन बहुत बुद्धिमत्ता और सावधानी से किया गया था और वो विषय ऐसे थे जिन में सभी की रुचि हो। समान्तर सत्रों को भी इस तरह से रखा गया था कि हर  प्रतिभागी को अपनी रुचि के अनुसार विषय मिल सकें। कई बार समान्तर सत्रों में से किसी एक को चुनना मुश्किल हो रहा था लेकिन उस से बचा नहीं जा सकता था।

सम्मेलन में समस्थ व्यवस्थाएँ पर्याप्त थीं। लेकिन भौतिक व्यवस्थाओं से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, उस के पिछी  छुपी भावनाएँ। आयोजन समिति के हर एक सदस्य और विद्यालय की हर एक छात्रा और स्वयंसेवक ने वह सब कुछ किया जो वह कर सकने में सक्षम थे और कई बार उस से कहीं अधिक भी किया।

विशेष रूप से ‘कविता फ़िल्मों का प्रदर्शन और परिचर्चा’ और अकादमिक सत्रों में संतोष चौबे जी की अध्यक्षता में ‘हिंदी और राजभाषा” पर आधारित सत्र बहुत ही अच्छे रहे।

सभी विदेशी प्रतिभागियों ने अपने उत्कृष्ट हिंदी ज्ञान से अत्यंत प्रभावित किया। सांस्कृतिक प्रोग्राम भी अत्यंत मनोरंजक और मनोहारी थे।

आयोजनकर्ताओं और संयोजकों ने एक बेहद सफल और सार्थक सम्मेलन आयोजित किया, जिसके दूरगामी और प्रभावशाली परिणाम होंगे।

 

प्रस्तुति –  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी (नौसेना मेडल) , पुणे

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – तेज धूप ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – तेज धूप

 

एसी कमरे में अंगुलियों के

इशारे पर नाचते तापमान में

चेहरे पर लगा लो कितनी ही परतें,

पिघलने लगती है सारी कृत्रिमता

चमकती धूप के साये में,

मैं सूरज की प्रतीक्षा करता हूँ

जिससे भी मिलता हूँ

चौखट के भीतर नहीं

तेज़ धूप में मिलता हूँ।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

7:22 बजे, 25.1.2020

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 27 – अश्वत्थामा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “ अश्वत्थामा ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 27 ☆

☆ अश्वत्थामा 

महाभारत के युद्ध में अश्वत्थामा ने सक्रिय भाग लिया था। महाभारत युद्ध में वह कौरव-पक्ष का एक सेनापति था। उसने भीम-पुत्र घटोत्कच (अर्थ : गंजा व्यक्ति,उसका नाम उसके सिर की वजह से मिला था, जो केशो से वहींन था और एक घट, मिट्टी का एक पात्र की तरह के आकार का था, घटोत्कच भीम और हिडिंबा पुत्र था और बहुत बलशाली था) को परास्त किया तथा घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा(अर्थ : अज्ञात त्यौहार, उसे यह नाम मिला क्योंकि उसके जन्म के समय आस पास का वातावरण बिना किसी त्यौहार के ही त्यौहार जैसा हो गया था) का वध किया। उसके अतिरिक्त द्रुपदकुमार (अर्थ : दोषपूर्ण), शत्रुंजय (अर्थ : दुश्मन पर विजय), बलानीक (अर्थ : बच्चे की तरह निर्दोष), जयानीक (अर्थ : सत्य की जीत), जयाश्व (अर्थ : एक विशेष उद्देश्य में जीत)तथा राजा श्रुताहु (अर्थ : स्मृति का  प्रवाह)को भी मार डाला था। उन्होंने कुंतीभोज(अर्थ : ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा) के दस पुत्रों का वध किया। द्रोण और अश्वत्थामा पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत युद्ध के समय पाण्डव सेना को तितर-बितर कर दिया।

पांडवों की सेना की हार देख़कर भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर (अर्थ : “वह जो युद्ध में स्थिर है”, युधिष्ठिर पाँच पाण्डवों में सबसे बड़े भाई थे। वह पांडु और कुंती के पहले पुत्र थे। युधिष्ठिर को धर्मराज (यमराज) पुत्र भी कहा जाता है। वो भाला चलाने में निपुण थे और वे कभी झूठ नहीं बोलते थे) से कूटनीति सहारा लेने को कहा। इस योजना के तहत यह बात फैला दी गई कि “अश्वत्थामा मारा गया” जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो उन्होने उत्तर दिया”अश्वत्थामा मारा गया परन्तु हाथी”, परन्तु उन्होंने बड़े धीरे स्वर में “परन्तु हाथी” कहा, और झूट बोलने से बच गए। इस घटना से पूर्व पांडवों और उनके पक्ष के लोगों की भगवान श्री कृष्ण के साथ विस्तृत मंथना हुई कि ये सत्य होगा कि नहीं “परन्तु हाथी” को इतने स्वर में बोला जाए। श्रीकृष्ण ने उसी समय शन्खनाद किया, जिसके शोर से गुरु द्रोणाचार्य आखरी शब्द नहीं सुन पाए। अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर आपने शस्त्र त्याग दिये और युद्ध भूमि में आखें बन्द कर शोक अवस्था में बैठ गये। गुरु द्रोणाचार्य जी को निहत्ता जानकर द्रोपदी के भाई द्युष्टद्युम्न (अर्थ : “कार्रवाई में तेज”,पांचालराज द्रुपद का अग्नि तुल्य तेजस्वी पुत्र। यह पृषत अथवा जंतु राजा का नाती, एवं द्रुपद राजा का पुत्र था) ने तलवार से उनका सिर काट डाला। अश्वत्थामा ने द्रोणाचार्य वध के पश्चात अपने पिता की निर्मम हत्या का बदला लेने के लिए पांडवों पर नारायण अस्त्र का प्रयोग किया । जिसके आगे सारी पाण्डव सेना ने हथियार डाल दिए ।

युद्ध के 18 वें दिन केवल तीन कौरव योद्धा जीवित बचे थे अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा (अर्थ : आत्मविश्वास के लिए प्रसिद्ध)। उसी दिन अश्वत्थामा ने सभी पांडवों को मारने के लिए एक शपथ ली। रात्रि में अश्वत्थामा ने एक उल्लू देखा जो कौवे के परिवार पर आक्रमण करता था और सभी कौवों को मार देता था। इसे देखने के बाद, अश्वत्थामा भी ऐसा करने का निर्णय करता है।

उसने अपनी योजना को निष्पादित करने के लिए अपने साथी योद्धा कृपा और कृतवर्मा की सहायता ली। अश्वत्थामा ने इसी तरह की स्थिति में अपने पिता की मृत्यु का हवाला देते हुए अपने नियोजित हमले को न्यायसंगत ठहराया, और वचन दिया कि वह पांडवों को उसी तरह उत्तर देगा, क्योंकि उन्होंने युद्ध के नियमों का उल्लंघन करके उसके पिता की हत्या की थी।

जब तीनों ने पांडवों के शिविर पर हमला किया, तो उन्हें द्वारपर एक बड़े राक्षस का सामना करना पड़ा। उस राक्षस ने आसानी से अश्वत्थामा, कृपा और कृतवर्मा के हमले को निष्फल कर दिया। यह समझाते हुए कि भाग्य उनके पक्ष में नहीं है, अश्वत्थामा ने महादेव से आशीर्वाद लेने का निर्णय किया। रेवती नक्षत्र के सितारों की ऊर्जा (वह ऊर्जा अभी भी रेवती नक्षत्र के तारा समूह से गायब है) का बलिदान देने के साथ ही भगवान महाकाल की प्रार्थना करने के बाद, अश्वत्थामा अपने शरीर का अग्नि में बलिदान देने के लिए तैयार हो गया।उस पल में, महादेव उसे आशीर्वाद देने के लिए अपने भयानक गणों के साथ प्रकट हुए।

महादेव शिव ने कहा, “कृष्ण से ज्यादा मुझे कोई भी प्रेय नहीं है, उन्हें सम्मानित करने के लिए और उनके वचन पर मैंने  पांचालों (पांडवों के पुत्रों) की रक्षा की है। लेकिन तुम्हारी तपस्या बर्बाद नहीं हो सकती है” यह कहकर उन्होंने एक उत्कृष्ट, चमकती तलवार के साथ अश्वत्थामा के शरीर में प्रवेश किया। विनाशक दिव्यता से भरा, द्रोण का पुत्र ऊर्जा से चमकता हुआ पांडवों के शिविर में प्रवेश करता है। उसके बाद उन्होंने उसने द्युष्टद्युम्न को मार डाला। इसके बाद उसने युधामन्यु (अर्थ : युद्ध की भावना), उत्तमानुज (अर्थ : सबसे अच्छा छोटा भाई), द्रौपदी का पुत्र और शिखंडी (अर्थ : सिर के मुकुट या माला पर लगा ताला) सहित कई और लोगों की हत्या कर दी।कृपा और कृतवर्मा ने द्वार पर ही अश्वत्थामा का इंतजार किया और उन सभी को मार डाला जिन्होंने भागने की कोशिश की। फिर अश्वत्थामा ने  शिविर को भी अग्नि लगा दी, और अपना क्रोध जारी रखा।

पुत्रों के हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगी। उसके विलाप को सुन कर अर्जुन ने उस नीच कर्म हत्यारे ब्राह्मण के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा की। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकला। भगवान श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव धनुष लेकर अर्जुन ने उसका पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र को चलाना तो जानता था पर उसे लौटाना नहीं जानता था। उस अति प्रचण्ड तेजोमय अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की, “हे जनार्दन! आप ही इस त्रिगुणमयी श्रृष्टि को रचने वाले परमेश्वर हैं। श्रृष्टि के आदि और अंत में आप ही शेष रहते हैं। आप ही अपने भक्तजनों की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करते हैं। आप ही ब्रह्मास्वरूप हो रचना करते हैं, आप ही विष्णु स्वरूप हो पालन करते हैं और आप ही रुद्रस्वरूप हो संहार करते हैं। आप ही बताइये कि यह प्रचण्ड अग्नि मेरी ओर कहाँ से आ रही है और इससे मेरी रक्षा कैसे होगी?”

भगवान श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! तुम्हारे भय से व्याकुल होकर अश्वत्थामा ने यह ब्रह्मास्त्र तुम पर चलाया है, ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे प्राण घोर संकट में हैं। वह अश्वत्थामा इसका प्रयोग तो जानता है किन्तु इसके निवारण से अनभिज्ञ है। इससे बचने के लिये तुम्हें भी अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना होगा क्यों कि अन्य किसी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता”

भगवान श्रीकृष्ण की इस मन्त्रणा को सुनकर महारथी अर्जुन ने भी तत्काल आचमन करके अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। दोनों ब्रह्मास्त्र परस्पर भिड़ गये और प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न होकर तीनों लोकों को तप्त करने लगी। उनकी लपटों से सारी प्रजा दग्ध होने लगी। इस विनाश को देखकर अर्जुन ने संतों के अनुरोध पर अपने ब्रह्मास्त्र को वापस ले लिया, लेकिन अश्वत्थामा ने अपने ब्रह्मास्त्र की दिशा बदल कर अर्जुन के बेटे अभिमन्यु की विधवा के गर्भ की ओर कर दी।ब्रह्मास्त्र द्वारा अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा (अर्थ : पार होना) के गर्भ पर हुए हमले से भगवान कृष्ण ने उत्तरा के भ्रूण को बचा लिया।

अभिमन्युका अर्थ अत्यधिक क्रोध है। अभिमन्यु चंद्रमा-देवता (चंद्र) के पुत्र वर्चस (अर्थ :प्रसिद्धि)का पुनर्जन्म था। जब चाँद-देवता से पूछा गया कि वह अपने पुत्र को धरती पर अवतरित कर दे, तो उसने एक समझौता किया कि उसका पुत्र सोलह वर्षों तक ही धरती पर रहेगा क्योंकि वह उससे ज्यादा समय तक अलग नहीं रह सकता है।

भगवान श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोये हुये, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोये हुये निरापराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा। अतः तत्काल इसका वध कर दो। लेकिन मैंने तुमको भगवद् गीता में यह भी सिखाया है कि किसी भी परिस्थिति में गुरु (शिक्षक) और ब्राह्मण के पुत्र को कभी नहीं मारा जाना चाहिए। तो अब यह तुम पर निर्भर है कि तुम अश्वत्थामा के साथ क्या करेंगे। क्या तुम उसे एक धर्म के अनुसार दंडित करोगे या दूसरे के अनुसार उसे जीवन दान दोगे।

अर्जुन ने उत्तर दिया, “मेरे लिए आपका कथन हर परिस्थिति में अंतिम है। आपने मुझे गीता के व्याख्यान में बताया है कि किसी भी स्थिति में गुरु के पुत्र को नहीं मारना चाहिए, और भगवान मैं आपके उन्हीं वचनों का पालन करते हुए अश्वत्थामा को जीवन दान देता हूँ”

तब अर्जुन ने अश्वत्थामा को जीवित छोड़ दिया, लेकिन कृष्ण तो भगवान हैं वह अश्वत्थामा को ऐसे शर्मनाक कृत्य के लिए दंडित किए बिना कैसे छोड़ सकते थे।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के माथे से अमूल्य मणि को नोंच कर निकाल दिया। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तिष्क में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी। जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी।

भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया कि तुम हजारोंवर्षों तक इस पृथ्वी पर भटकते रहोगे और किसी भी जगह, कोई भी तुम्हें समझ नहीं पायेगा। तुम्हारे शरीर से पीब और लहू की गंध निकलेगी। इसलिए तुम मनुष्यों के बीच नहीं रह सकोगे। दुर्गम वन में ही पड़े रहोगे।

तो जब ऐसी स्थिति जीवन में आ जाये कि यदि आप कुछ करने के लिए अपने धर्म का पालन कर रहे हैं, और साथ ही साथ अपना धर्म तोड़ना भी पड़ रहा है, तो उस वर्तमान स्थिति में जो आपको सर्वप्रथम अपना उपयुक्त धर्म लगे वही करना चाहिए या जो आपकी आत्मा की पहली आवाज़ हो या अपने आंतरिक विवेक का पालन करना चाहिए जैसा की अर्जुन ने किया। बाकि धर्म भगवान स्वयं संभाल लेंगे जैसा की इस परिस्थिति में भगवान कृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप देकर किया।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 31 ☆ खामोशी और आबरू ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “खामोशी और आबरू”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख  हमें  साधारण मानवीय  व्यवहार से रूबरू कराता है।  इस आलेख का कथन “परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए खामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं” ही इस आलेख का सार है। डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 31☆

☆ खामोशी और आबरू

‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते, कभी समझा नहीं पाते।’ शब्द ब्रह्म है, शब्द सर्व-व्यापक है, सृष्टि का मूलाधार व नियंता है और समस्त संसार का दारोमदार उस पर है। सृष्टि में ओंम शब्द सर्वव्याप्त है, जो अजर, अमर व अविनाशी है तथा कष्ट में व्यक्ति के मुख में दो ही शब्द निकलते हैं… ओंम तथा मां।

परमात्मा ने शिशु की उत्पत्ति व संरक्षण का दायित्व मां को सौंपा है। वह नौ माह तक भ्रूण रूप में गर्भ में पल रहे शिशु का अपने लहू से उसका सिंचन व भरण-पोषण करती है और यह करिश्मा प्रभु का है। जन्म के पश्चात् उसके हृदय से पहला शब्द ओंम व मां ही प्रस्फुटित होता है। मां के संरक्षण में वह पलता- बढ़ता है और युवा होने पर वह उसके लिए पुत्रवधू ले आती है, ताकि वे भी सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान दे सकें। घर में गूंजती बच्चों की किलकारियां सुनने को आतुर मां… उसका बचपन देखने की बलवती लालसा.. उसे हर हाल में, अपने आत्मजों के साथ रहने को विवश करती है और वह खामोश रहकर सब कुछ सहन करती रहती है ताकि हृदय में खटास उत्पन्न न हो…दिलों में कटुता के कारण दूरियां न बढ़ जाएं। वह माला के सभी मनकों को डोरी में पिरो कर रखना चाहती है, ताकि घर में सामंजस्य बना रहे। परंतु कई बार उसकी खामोशी उसके अंतर्मन को सालने लगती है।

वैसे यह समय की ज़बरदस्त मांग है। रिश्ते खामोशी का आभूषण धारण कर न केवल जीवित रहते हैं, बल्कि पनपते भी हैं। वे केवल उसकी शोभा ही नहीं बढ़ाते…उसके जीवनाधार हैं। लड़की जन्मोपरांत पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे में, विवाह के पश्चात् पति के घर की चारदीवारी में और पति के देहांत के बाद पुत्र के आशियाने में सुरक्षित समझी जाती है। परंतु आजकल ज़माने की हवा बदल गई है और वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। सो! समय की नज़ाकत को देखते हुए बचपन से ही उसे खामोश रहने का पाठ पढ़ाया जाता है और हर बात पर टोका जाता है और प्रतिबंध लगाए जाते हैं…हिदायतें दी जाती हैं। अक्सर भाई के साथ प्रिय व्यवहार देख उसका हृदय क्रंदन कर उठता है और वह समानाधिकारों की मांग करती है… तो उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि वह कुल दीपक है और वह हमें मोक्ष द्वार पर ले जाएगा। तुझे तो यह घर छोड़ कर जाना है… सलीके से मर्यादा में रहना सीख। खामोशी तेरा श्रृंगार है और तुझे ससुराल में जाकर सबकी आशाओं पर खरा उतरने के लिए खामोश रहना है… नज़रें झुका कर आज्ञा व आदेशों को वेद-वाक्य समझ उनकी अनुपालना करनी है।

इतनी हिदायतों के नीचे दबी वह नव-यौवना, पति के घर की चौखट लांघ, उस घर को अपना समझ, सजाने-संवारने में लग जाती है और सब की खुशियों के लिए, अपनी ख्वाहिशों को दफ़न कर, अपने मन को मार, पल-पल जीती, पल-पल मरती है, परंतु उफ़् नहीं करती है। परंतु जब परिवारजनों की नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरों की भांति उसकी पल-पल की गतिविधि को कैद करती हैं और उसे प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देती हैं, तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है। परंतु फिर भी वह खामोश अर्थात् मौन रहती है, प्रतिकार नहीं करती तथा उचित-अनुचित व्यवहार, अवमानना व प्रताड़ना को सहन करती है। परंतु एक दिन उसके धैर्य का बांध टूट जाता है और उसका  मन विद्रोह कर उठता है… उसे अपने अस्तित्व का भान होता है। वह अपने अधिकारों की मांग करती है, परंतु कहां मिलते हैं उसे समानाधिकार …और वह असहाय दशा में तिलमिला कर रह जाती है। वह स्वयं को भंवर में फंसा हुआ पाती है, क्योंकि जिस घर को वह अपना समझती है, वह उसका होता ही नहीं। उसे किसी भी पल उस घर को त्यागने का फरमॉन सुनाया जा सकता है। अक्सर महिलाएं परिवार की आबरू बचाने के लिए खामोशी का बुरका अर्थात् आवरण ओढ़े रहती है, घुटती रहती हैं, क्योंकि विवाहोपरांत माता-पिता के घर के द्वार उनके लिए बंद हो जाते हैं। पति के घर में भी वह सदा पराई अथवा अजनबी समझी जाती है। अपने अस्तित्व को तलाशती, ओंठ बंद कर अमानवीय व्यवहार सहन करती, इस संसार को अलविदा कह चल देती है।

परंतु इक्कीसवीं सदी में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं। वे बचपन से लड़कों की तरह मौज- मस्ती करना, वैसी वेशभूषा धारण कर क्लबों व पार्टियों से देर रात लौटना व अपने हर शौक़ को पूरा करना… उनके जीवन का मक़सद बन गया है और वे अपने ढंग से अपनी ज़िंदगी जीने लगी हैं। प्रतिबंधों में जीना उन्हें स्वीकार नहीं, क्योंकि वे पुरुष की भांति  हर क्षेत्र में दखलांदाज़ी कर सफलता प्रात कर रही हैं। अब वे सीता की भांति पति की अनुगामिनी बनकर जीना नहीं चाहतीं, न ही अग्नि-परीक्षा देना उन्हें मंज़ूर है। वे पति की जीवन-संगिनी बनने की हामी भरती हैं, क्योंकि कठपुतली की भांति नाचना उन्हें अभीष्ठ नहीं। वे अपने ढंग से जीना चाहती हैं।   मर्यादा के सीमाओं व दायरे में बंधना उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके भयावह परिणाम हमारे समक्ष हैं। वे रिश्तों की अहमियत वे नहीं स्वीकारतीं, न ही घर- परिवार के कायदे-कानून उनके पांवों में बेड़ियां डाल कर रख सकते हैं। वे तो सभी बंधनों को तोड़ अपने ढंग से स्वतंत्रता-पूर्वक जीना चाहती हैं। सो! बात- बात पर पति व परिवारजनों से उलझना, उन्हें व्यर्थ भला-बुरा कहना, प्रताड़ित व तिरस्कृत करना… उनके स्वभाव में शामिल हो जाता है, जिसके भयावह-भीषण परिणाम हम तलाक़ के रूप में देख रहे हैं।

संयुक्त परिवारों का प्रचलन तो गुज़रे ज़माने की बात हो गयी है। एकल परिवार व्यवस्था के चलते पति-पत्नी भी एक छत के नीचे भी अजनबी-सम रहते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख व संबंधों-सरोकारों से बेखबर… अपने-अपने द्वीप में कैद। वैसे हम दो, हमारे हम दो का प्रचलन ‘हमारा एक’ तक आकर सिमट गया। परंतु अब तो बच्चों को जन्म देकर युवा पीढ़ी अपने दायित्वों का वहन करना नहीं चाहती, क्योंकि आजकल सब ‘तू नहीं, और सही’ में विश्वास करने लगे हैं और लिव-इन व मी-टू ने तो संस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ा कर रख दी हैं। इसलिए हर तीसरे घर की लड़की तलाक़शुदा दिखलाई पड़ती है। लड़के भी अब इसी सोच में विश्वास रखने लगे हैं और यही चाहते हैं। परंतु उन्हें न चाहते हुए भी घर की सुख-शांति व संतुलन बनाए रखने के लिए उसी ढर्रे पर चलना पड़ता है। अक्सर अंत में वे उसी कग़ार पर आकर खड़े हो जाते हैं, जिसका हर रास्ता विनाश की ओर जाता है। सो! वे उस जीवन-संगिनी से निज़ात पाना बेहतर समझते हैं। अक्सर लड़के तो आजकल विवाह करना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे अपने माता-पिता को सीखचों के पीछे देखने की कल्पना-मात्र से कांप उठते हैं। शायद! यह विद्रोह है, प्रतिक्रिया है उन ज़ुल्मों के विरुद्ध, जो महिलाएं वर्षों से सहन करती आ रही हैं।

शब्द व सोच दूरियां बढ़ा देते हैं। कई बार दूसरा व्यक्ति उसके मन के भावों को समझना ही नहीं चाहता और कई बार वह उसे समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है…दोनों स्थितियां भयावह हैं। इसलिए वह अपनी सोच, अपेक्षाओं व भावों को भी दरशा नहीं पाता। मन की दरारें इस क़दर बढ़ती चली जाती हैं और खाई के रूप में समक्ष आन खड़ी होती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा’ अर्थात् अजनबी बनकर जीने से बेहतर है, संबंध-विच्छेद कर, स्वतंत्रता व सुक़ून से अपनी ज़़िंदगी जीना। जब खामोशियां डसने लगें और हर पल प्रहार करने लगें, तो अवसाद की स्थिति में जीने से बेहतर है… उससे मुक्ति पा लेना।

जीवन की केवल समस्याएं नहीं, संभावनाओं को तलाशिये, क्योंकि हर समस्या का समाधान उपलब्ध होता है…उसके केवल दो विकल्प ही नहीं होते हैं। आवश्यकता है, शांत मन से उसे खोजने की… उन्हें अपनाने की और विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करने की। इसलिए ‘व्यक्ति जितना डरेगा, लोग उतना डरायेंगे’…सो! हिम्मत करो, सब सिर झुकायेंगे। ‘लोग क्या कहेंगे’ इस धारणा-भावना को हृदय से निकाल बाहर फेंक देना चाहिए, क्योंकि आपाधापी के युग में किसी के पास किसी के लिए समय है ही कहां… सब अपने-अपने द्वीप में कैद हैं। सो! व्यर्थ की बातों में मत उलझें, क्योंकि दु:ख में व्यक्ति अकेला होता है और सुख में तो सब साथ खड़े दिखाई देते हैं। इसलिए दु:ख आपका सच्चा मित्र है, सदा साथ रहता है… सबक सिखलाता है और जब छोड़कर जाता है, तो सुख देकर जाता है। वास्तव में दोनों का एक स्थान पर इकट्ठे रहना असंभव है। इसलिए संसार में रहते हुए स्वयं को आत्म-सीमित अर्थात् आत्म-केंद्रित मत कीजिए, क्योंकि यहां अनंत संभावनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह मत सोचिए कि ‘मैं नहीं कर सकता।’ इसलिए उसे छोड़िये मत, पूर्ण प्रयास कीजिए और सभी विकल्प आज़माइए। परंतु यदि फिर भी सफलता न प्राप्त हो, तो उस असामान्य परिस्थिति मेंअपना रास्ता बदल लेना श्रयेस्कर है… ताकि आबरू सुरक्षित रह सके।

खामोशी मौन का दूसरा रूप है। मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया न देने से समस्याएं, बाधाओं के रूप में आपका रास्ता नहीं रोक सकतीं…स्वत: समाधान निकल आता है। सो! समस्या के उपस्थित होने पर, क्रोधित होकर त्वरित निर्णय मत लीजिए… चिंतन- मनन कीजिए… सभी पहलुओं पर सोच-विचार कीजिए, समाधान आपके सम्मुख होगा। यही है सर्वश्रेष्ठ जीने की कला।

परिवार, दोस्त व रिश्ते अनमोल होते हैं। उनके न रहने पर उनकी कीमत समझ आती है और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए खामोशी के आवरण की दरक़ार है, क्योंकि वे प्रेम व त्याग की बलि चाहते हैं। खामोशी अथवा मौन रहना उर्वरक है, जो परिवार में प्रेम व रिश्तों को गहनता प्रदान करता है। दोनों स्थितियों में प्रतिदान का भाव नहीं आना चाहिए, क्योंकि यह तो हमें स्वार्थी बनाता है। सो! किसी से आशा व अपेक्षा मत रखिए क्योंकि अपेक्षा ही दु:खों का कारण है और मांगना मरने के समान है। देने में सुख व संतोष का भाव निहित है। इसलिए सहन- शक्ति बढ़ाइए। यह सर्वश्रेष्ठ दवा है और खामोशी की पक्षधर है, जिसके संरक्षण में संबंध फलते-फूलते व पूर्ण रूप से विकसित होते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मनुष्य देह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – मनुष्य देह  

(श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा नव वर्ष पर निमंत्रण (प्रबोधन और सत्संग) से साभार।)

(संजय उवाच की प्रस्तुति – तुम्हारे भीतर एक संत बसा है की निम्न पंक्तियाँ अपने आप में ही अद्भुत एवं सशक्त रचना है। )

 

तुम्हारे भीतर बसा है एक सज्जन और एक दुर्जन।

 84 लाख योनियों के बाद मिली मनुष्य देह में दुर्जन को मनमानी करते रहने दोगे या सज्जन को सक्रिय करोगे?

स्मरण रहे, दुर्जन की सक्रियता नहीं अपितु सज्जन की निष्क्रियता घातक होती है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

17 जनवरी 2020, दोपहर 3:52 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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