हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #31 – नदियो में धार्मिक स्नान ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “नदियो में धार्मिक स्नान”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 31 ☆

☆ नदियो में धार्मिक स्नान

 

स्नान का महत्व निर्विवाद हैशुद्धता और पवित्रता के लिये प्रतिदिन प्रातः काल हम नहाते हैं.हमारी शरीर से निकलते पसीने व वातावरण के सूक्ष्म कण धूल इत्यादि से त्वचा पर जो  मैल व गंध का जो आवरण बन जाता है वह साफ पानी से नहाने से निकल जाता है और त्वचा को स्निग्धता तथा स्फूर्ति मिलती है इस भौतिक स्चच्छता का हमारे मन पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, शरीर की थकान मिट जाती है . हमारे रोमकूप खुल जाते हैं जिससे त्वचा का सौंदर्य भी बढ़ता है आंतरिक स्फूर्ति का संचरण होता है.  इसीलिये ठंड के दिनो में सनबाथ, स्टीमबाथ, लिया जाता है तो गर्मियों में टब बाथ का महत्व है.आयुर्वेद में भोजन के तुरंत बाद स्नान वर्जित कहा गया है.  मकर संक्रांति पर पंचकर्म और मिट्टी, उबटन, तरह तरह के साबुन बाडी वाश आदि से जल स्नान का प्रचलन हमारी संस्कृति का हिस्सा है. योग में शरीर के आंतरिक अंगों को शुद्ध करने के लिए  शंख प्रक्षालन, नेती, नौलि, धौती, कुंजल, गजकरणी, गणेश क्रिया, अंग संचालन आदि अनेक विधियां बताई जाती हैं. गर्म पानी से नहाने पर रक्त-संचार पहले कुछ उतेजित होता है किन्तु बाद में मंद पड़ जाता है, लेकिन ठंडे पानी से नहाने पर रक्त-संचार पहले मंद पड़ता है और बाद में उतेजित होता है जो कि अधिक लाभदायक है।

आज देश में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन चलाया जा रहा है. ऐसे समय  में स्नान को केंद्र में रखकर ही  कुंभ जैसा महा पर्व मनाया गया है. जो हजारो वर्षो से हमारी संस्कृति का हिस्सा है. पीढ़ीयों से जनमानस की धार्मिक भावनायें और आस्था कुंभ स्नान से जुड़ी हुई हैं.  प्रश्न है कि क्या कुंभ स्नान को मेले का स्वरूप देने के पीछे केवल नदी में डुबकी लगाना ही हमारे मनीषियो का उद्देश्य रहा होगा ? इस तरह के आयोजनो को नियमित अंतराल पर निर्ंतर स्वस्फूर्त आयोजन करने की व्यवस्था बनाने का निहितार्थ समझने की आवश्यकता है. आज तो लोकतात्रिक शासन है हमारी ही चुनी हुई सरकारें हैं पर कुंभ के मेलो ने तो पराधीनता के युग भी देखे हैं आक्रांता बादशाहों के समय में भी कुंभ संपन्न हुये हैं और इतिहास गवाह है कि तब भी तत्कालीन प्रशासनिक तंत्र को इन भव्य आयोजनो का व्यवस्था पक्ष देखना ही पड़ा.

वास्तव में नदियो में धार्मिक भावना से कुंभ स्नान शुचिता का प्रतीक है शारीरिक और मानसिक शुचिता का. जो साधुसंतो के अखाड़े इन मेलो में एकत्रित होते हैं वहां सत्संग होता है गुरु दीक्षायें दी जाती हैं. इन मेलों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जनमानस तरह तरह के व्रत संकल्प और प्रयास करता है. धार्मिक यात्रायें की होती हैं. लोगों का मिलना जुलना वैचारिक आदान प्रदान हो पाता है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #29 ☆ पिंजरा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 29 ☆

☆ पिंजरा ☆

( कल  के अंक में इस कविता का कॅप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा अंग्रेजी अनुवाद अवश्य पढ़िए )

मानवीय मनोविज्ञान के अखंडित स्वाध्याय का शाश्वत गुरुकुल है सनातन अध्यात्मवाद।

भारतीय आध्यात्मिक दर्शन कहता है-गृहस्थ यदि सौ अंत्येष्टियों में जा आए तो संन्यासी हो जाता है और यदि संन्यासी सौ विवाह समारोहों में हो आए तो गृहस्थ हो जाता है।

वस्तुतः मनुष्य अपने परिवेश के अनुरूप शनैः-शनैः ढलता है। इर्द-गिर्द जो है, उसे देखने, फिर अनुभव करने, अंततः जीने लगता है मनुष्य।

जीने से आगे की कड़ी है दासता। आदमी अपने परिवेश का दास हो जाता है, ओढ़ी हुई स्थितियों को  सुख मानने लगता है।

परिवेश की इस दासता को आधुनिक यंत्रवत जीवन जीने की पद्धति से जोड़कर देखिए। विराट अस्तित्व के बोध से परे सांसारिकता के बेतहाशा दोहन में डूबा मनुष्य अपने चारों ओर खुद कंटीले तारों का घेरा लगाता दिखेगा।

उसकी स्थिति जन्म से पिंजरा भोगनेवाले सुग्गे या तोते-सी हो गई है।

सुग्गे के पंखों में अपरिमित सामर्थ्य, आकाश मापने की अनंत संभावनाएँ हैं किंतु निष्काम कर्म बिना आध्यात्मिक संभावना उर्वरा नहीं हो पाती।

निरंतर पिंजरे में रहते-रहते एक पिंजरा मनुष्य के भीतर भी बस जाता है। परिवेश का असर इस कदर कि पिंजरा खोल दीजिए, पंछी उड़ना नहीं चाहता।

वर्षों पूर्व लिखी अपनी एक कविता स्मरण हो आई है-

पिंजरे की चारदीवारियों में

फड़फड़ाते हैं मेरे पंख

खुला आकाश देखकर

आपस में टकराते हैं मेरे पंख,

मैं चोटिल हो उठता हूँ

अपने पंख खुद नोंच बैठता हूँ

अपनी असहायता को

आक्रोश में बदल देता हूँ,

चीखता हूँ, चिल्लाता हूँ

अपलक नीलाभ निहारता हूँ,

फिर थक जाता हूँ

टूट जाता हूँ

अपनी दिनचर्या के

समझौतों तले बैठ जाता हूँ,

दुःख कैद में रहने का नहीं

खुद से हारने का है

क्योंकि

पिंजरा मैंने ही चुना है

आकाश की ऊँचाइयों से डरकर

और आकाश छूना भी मैं ही चाहता हूँ

इस कैद से ऊबकर,

एक साथ, दोनों साथ

न मुमकिन था, न है

इसी ऊहापोह में रीत जाता हूँ

खुले बादलों का आमंत्रण देख

पिंजरे से लड़ने का प्रण लेता हूँ

फिर बिन उड़े

पिंजरे में मिली रोटी देख

पंख समेट लेता हूँ,

अनुत्तरित-सा प्रश्न है

कैद किसने, किसको कर रखा है?

वास्तविक प्रश्न यही है कि कैद किसने, किसको कर रखा है?

 

प्रश्न यद्यपि समष्टिगत है किंतु व्यक्तिगत उत्तर से ही समाधान की दिशा में यात्रा आरंभ हो सकती है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य – # 24 – इतिहास का सर्वोत्तम सच ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “इतिहास का सर्वोत्तम सच।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 24 ☆

☆ इतिहास का सर्वोत्तम सच

 

भगवान ब्रह्मा ने अपने मस्तिष्क की सिर्फ एक इच्छा से चार कुमार (‘कु’ का अर्थ है ‘कौन’ और ‘मार’ का अर्थ है ‘मृत्यु’, तो कुमार का अर्थ है कि उसे कौन मार सकता है ? अथार्त कोई नहीं । इसलिए कुमार का अर्थ है मृत्यु से परे) मानस  (मन की इच्छा से निर्मित)पुत्रों को पैदा किया।उनके नाम सनक (अर्थ : प्राचीन), सनन्दन (अर्थ : आनंदमय), सनातन (अर्थ : अनंत, जिसकी कोई शुरुवात या अंत ना हो) और सनत (भगवान ब्रह्मा, शाश्वत, एक संरक्षक) थे।जब चार कुमार अस्तित्व में आये, तो वे सभी शुद्ध थे। उनके पास गर्व, क्रोध, लगाव, वासना, भौतिक इच्छा (अहंकर, क्रोध, मोह, कार्य , लोभ) जैसे नकारात्मक गुणों का कोई संकेत तक नहीं था। भगवान ब्रह्मा ने इन चारों को ब्रह्मांड बनाने में सहायता करने के लिए बनाया था, लेकिन कुमारों को कुछ भी बनाना नहीं आता था और उन्होंने खुद को भगवान और ब्रह्मचर्य के प्रति समर्पित कर दिया। उन्होंने ब्रह्मा जी से हमेशा पाँच वर्षीय बच्चे बने रहने के वरदान के लिए अनुरोध किया, क्योंकि पाँच वर्षीय बच्चे के मन में कोई नकारात्मक विचार नहीं आ सकता है। तो वे हमेशा पाँच साल के बच्चे की तरह ही लगते थे ।

जय (अर्थ : जीत, आम तौर पर शारीरिक जीत लेकिन हमेशा नहीं) और विजय (अर्थ: जीत, आम तौर पर मस्तिष्क  की जीत, लेकिन हमेशा नहीं) वैकुंठ के द्वारपाल थे। एक बार उन्होंने वैकुंठ के द्वार पर कुमारों को बच्चे समझ कर रोक दिया। उन्होंने कुमारों को बताया कि श्री विष्णु इस समय आराम कर रहे हैं और वे अभी उनके दर्शन नहीं कर सकते हैं।

सनातन कुमार ने उत्तर दिया, “भगवान अपने भक्तों से प्यार करते हैं और हमेशा उनके लिए उपलब्ध रहते हैं। आपको हमे हमारे प्रिय भगवान के दर्शन करने से रोकने का कोई अधिकार नहीं है” लेकिन जय और विजय उनकी बातों को समझ नहीं पाए और लंबे समय तक कुमारों से बहस करते रहे। यद्यपि कुमार बहुत शुद्ध थे, लेकिन भगवान की योजना के अनुसार अपने द्वारपालों को एक सबक सिखाने और ब्रह्मांड के विकास के लिए, उन्होंने कुमारों के शुद्ध दिल में क्रोध उत्पन्न कर दिया। गुस्से में कुमारों ने दोनों द्वारपालों जय और विजय को शाप दिया, जिससे की वह अपनी दिव्यता को छोड़ सकें और पृथ्वी पर प्राणियों के रूप में पैदा हो सकें और वहाँ रह सकें।

जब जय और विजय को वैकुंठ के प्रवेश द्वार पर कुमारों ने शाप दिया, तो भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट हुए और द्वारपालों ने विष्णु से कुमारों द्वारा दिए गए अभिशाप को हटाने का अनुरोध किया। विष्णु जी ने कहा कि कुमारों के अभिशाप को वापस नहीं किया जा सकता है। इसके बजाय, वह जय और विजय को दो विकल्प देते हैं। पहला विकल्प पृथ्वी पर सात जन्म विष्णु के भक्त के रूप में लेना है, जबकि दूसरा तीन जन्म विष्णु के दुश्मनों के रूप में लेना है।

इन वाक्यों में से किसी एक पूर्ण करने के बाद ही वे वैकुंठ में अपने पद को पुनः प्राप्त कर सकते हैं और भगवान के साथ स्थायी रूप से रह सकते हैं। जय और विजय सात जन्मों के लिए भगवान विष्णु से दूर रहने का विचार सोच भी नहीं सकते थे तो वे तीन जन्मों तक भगवान विष्णु के दुश्मन बनने के दूसरे विकल्प के लिए सहमत हो गए।

भगवान विष्णु के दुश्मन के रूप में पहले जन्म में, जय और विजय सत्य युग में हिरण्याक्ष (अर्थ : स्वर्ण की आँखों वाला, सोने की धुरी) और हिरण्यकशिपु (अर्थ : सोने में पहने हुए) के रूप में पैदा हुए ।  दैत्यों के आदिपुरुष कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सकेगा न पशु द्वारा, न दिन में मारा जा सकेगा न रात्रि  में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार से उसके प्राणों को कोई डर रहेगा। इस वरदान ने उसे अहंकारी बना दिया और वह अपने को अमर समझने लगा। उसने इंद्र का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों को प्रताड़ित करने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान मानें और उसकी पूजा करें। उसने अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना एवं प्रताड़ना के बावजूद वह विष्णु की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में चली जाय क्योंकि होलिका को वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ पर होलिका जलकर राख हो गई। अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आये । वे खंभे से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेश द्वार की चौखट पर, जो न घर का बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात्रि, आधा मनुष्य, आधा पशु जो न नर था न पशु ऐसे नरसिंह के रूप में अपने लंबे तेज़ नाखूनों से जो न अस्त्र थे न शस्त्र, मार डाला। इस प्रकार हिरण्यकश्यप अनेक वरदानों के बावजूद अपने दुष्कर्मों के कारण भयानक अंत को प्राप्त हुआ। हिरण्याक्ष का वध वाराह अवतारी विष्णु ने किया था। वह हिरण्यकशिपु का छोटा भाई था। हिरण्याक्ष माता धरती को रसातल में ले गया था जिसकी रक्षा के लिए आदि नारायण भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लिया, कहते हैं वाराह अवतार का जन्म ब्रह्मा जी के नाक से हुआ था । कुछ मान्यताओं के अनुसार यह भी कहा जाता है कि हिरण्याक्ष और वाराह अवतार में कई वर्षों तक युद्ध चला । क्योंकि जो राक्षस स्वयं धरती को रसातल में ले जा सकता है आप सोचिए उसकी शक्ति कितनी होगी ? फिर वाराह अवतार के द्वारा मारे जाने वाले थप्पड़ की आवाज के द्वारा हिरण्याक्ष का वध हुआ ।

अगले त्रेता युग में, जय और विजय रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए, और भगवान विष्णु ने भगवान राम अवतार के रूप में उनका वध किया।

द्वापर युग के अंत में, जय और विजय शिशुपाल (अर्थ : बच्चे का संरक्षक) और दन्तवक्र (अर्थ : कुटिल दांत) के रूप में अपने तीसरे जन्म में उत्पन्न हुए। दन्तवक्र, शिशुपाल के मित्र जरासंध (अर्थ : थोड़ा सा संदेह) और भगवान कृष्ण के दुश्मन थे। जिनका वध भगवान विष्णु के कृष्ण अवतार ने किया ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 28 ☆ सोSहम् शिवोहं ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “सोSहम् शिवोहं”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख  हमें इस प्रश्न का उत्तर जानने  के लिए प्रेरित करता है कि “मैं  कौन हूँ ?”डॉ मुक्ता जी ने इस तथ्य के प्रत्येक पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की है।  डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 28☆

☆ सोSहम् शिवोहं

 

सोSहम् शिवोहं…जिस दिन आप यह समझ जाएंगे  कि ‘मैं कौन हूं’  फिर जानने के लिए  कुछ शेष नहीं रहेगा। इस मिथ्या संसार में मृगतृष्णा से ग्रसित मानव दौड़ा चला जाता है और उन इच्छाओं को पूर्ण कर लेना चाहता है, जो उससे बहुत दूर हैं। इसलिए वे मात्र स्वप्न बन कर रह जाती हैं और उसकी दशा  तृषा से आकुल उस मृग के समान हो जाती है, जो   रेत पर पड़ी सूर्य की किरणों को जल समझ दौड़ा चला जाता है और  अंत में अपने प्राण त्याग देता है।  यही दशा मानव की है, जो अधिकाधिक ख-संपदा पाने के का हर संभव प्रयास करता है…  राह में आने वाली आपदाओं की परवाह नहीं करता और संबंधों को नकारता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है । उसे दिन-रात में कोई अंतर नहीं भासता। वह अह- र्निश कर्मशील रहता है और एक अंतराल के पश्चात् वह  बच्चों के मान-मनुहार, पत्नी व परिजनों के सान्निध्य  से  वंचित रह जाता है। वह उसी भ्रम में रहता है  कि सुख-सुविधाएं- स्नेह व प्रेम का विकल्प हैं। परंतु  बच्चों को आवश्यकता होती है…माता के स्नेह, प्यार-दुलार व साहचर्य की…और पिता के सुरक्षा-दायरे की, जिसमें बच्चे स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते हैं  और उनके सानिध्य में खुद को किसी बादशाह से कम नहीं आंकते। परंतु आजकल बच्चों  व बुज़ुर्गों को  एकांत की त्रासदी से जूझना पड़ता है, जिसके परिणाम-स्वरूप  बच्चे गलत राह पर अग्रसर हो जाते हैं  और मोबाइल व मीडिया की गिरफ़्त में रहते हुए कब अपराध-जगत् में प्रवेश कर जाते हैं,  जिसका ज्ञान उनके माता-पिता को बहुत देरी से होता है। घर के बड़े-बुज़ुर्ग भी स्वयं को असुरक्षित अनुभव करते हैं। वे आंख, कान व मुंह बंद कर के  जीने को विवश होते हैं,  क्योंकि कोई भी माता-पिता अपने व बच्चों के बारे में, एक वाक्य भी हज़म नहीं कर पाते।इतना ही नहीं,उन्हें उसी पल उनकी औक़ात का अहसास  दिला दिया जाता है। अपने अंतर्मन के उद्वेलन से जूझते हुए वे अवसाद के शिकार हो जाते हैं और बच्चों के माता-पिता भी  आत्मावलोकन करने को  विवश हो जाते हैं, जिसका ठीकरा वे एक-दूसरे पर फेंक कर अर्थात् दोषारोपण कर निज़ात पाना चाहते हैं। परंतु यह सिलसिला थमने का नाम ही नहीं लेता। अक्सर ऐसी स्थिति में वे अलगाव की राह तक पहुंच जाते हैं।

संसार में मानव के दु:खों का सबसे बड़ा कारण है… विश्व के बारे में पोथियों से ज्ञान प्राप्त करना, क्योंकि यह भौतिक ज्ञान हमें मशीन बना कर रख देता है और  हम अपनी हसरत को पूरा कर लेना चाहते हैं, चाहे हमें उसके लिए बड़े से बड़ी कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े…भले ही हमें उसके लिए बड़े से बड़ा त्याग देना पड़े। हम अंधाधुंध दौड़ते चले जाते हैं, जबकि हम अपने जीवन के लक्ष्य से भी अवगत नहीं होते। सो! यह तो अंधेरे में तीर चलाने जैसा होता है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि ‘मैं कौन हूं और मेरे जीवन का प्रयोजन क्या है?’

वास्तव में इस आपाधापी के युग में यह सब सोचने का समय ही कहां मिलता है… जब हम अपने बारे में ही नहीं जानते, तो जीव-जगत् को समझने का प्रश्न ही कहां उठता है? आदिगुरु शंकराचार्य पांच वर्ष की आयु में घर छोड़ कर चले गए थे… इस तलाश में कि ‘मैं कौन हूं’ और उन्होंने ही सबसे पहले अद्वैत दर्शन अर्थात् परमात्मा की सत्यता से अवगत कराया कि ‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ है।  संसार में जो कुछ भी है…माया के कारण सत्य भासता है और ब्रह्म सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है…वह सत्य है, निराकार है, सर्वव्यापक है, अनश्वर है। परंतु समय अबाध गति से निरंतर चलता रहता है, कभी रुकता नहीं। प्रकृति के विभिन्न उपादान सूर्य, चंद्रमा,तारे व पृथ्वी आदि सभी क्रियाशील हैं। इसलिए सब कुछ निश्चित समयानुसार घटित हो रहा है और वे सब नि:स्वार्थ भाव से दूसरों  के हित के लिए  काम कर रहे हैं। वृक्ष अपने फल नहीं खाते, जल व वायु अपने तत्वों का उपयोग- उपभोग नहीं करते। श्री परमहंस योगानंद जी का यह सारगर्भित वाक्य ‘खुद के लिए जीने वाले की ओर कोई ध्यान नहीं देता, पर जब आप दूसरों के लिए जीना सीख लेते हैं, तो वे आपके लिए जीते हैं’ बहुत सार्थक संदेश देता है। आप जैसा करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है। नि:स्वार्थ भाव से किया गया कर्म सर्वोत्तम होता है। गीता के  निष्काम कर्म का संदेश…फल की इच्छा न रखने व मानवता-  वादी भावों से आप्लावित है।

स्वामी विवेकानंद जी का यह वाक्य हमें ऊर्जस्वित करता है कि ‘किस्मत के भरोसे न बैठें बल्कि पुरुषार्थ यानि मेहनत के दम पर खुद की किस्मत बनाएं।’  परमात्मा में श्रद्धा, आस्था व विश्वास रखना तो ठीक है, परंतु हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाने का औचित्य नहीं। अब्दुल कलाम जी के विचार विवेकानंद जी के भाव  को पुष्ट करते हैं, कि जो लोग परिश्रम नहीं करते और भाग्य के सहारे प्रतीक्षा -रत रहते हैं,  तो उन्हें जीवन में उस बचे हुये फलों की प्राप्ति होती है, क्योंकि पुरूषार्थी व्यक्ति अपने अथक परिश्रम से यथासमय उत्तम फल प्राप्त कर ही लेता है। सो!आलसी लोगों को मनचाहा फल कभी भी प्राप्त नहीं होता।

‘अपने सपनों को साकार करने का  सर्वश्रेष्ठ तरीका यही है कि आप जाग जाएं’— पाल वैलेरी का कथन बहुत सार्थक है और अब्दुल कलाम जी मानव को यह संदेश देते हैं कि ‘खुली आंखों से सपने देखो, अर्थात् यदि आप सोते रहोगे, तो परिश्रमी व पुरूषार्थी लोग आप से आगे बढ़कर वांछित फल प्राप्त कर लेंगे और आप हाथ मलते रह जायेंगे।’ समय बहुत अनमोल है, लौट कर कभी नहीं आता। सो!क्षहर पल की कीमत समझो।’स्वयं को जानो, पहचानो।’ जिस दिन आप समय की महत्ता को अनुभव कर स्वयं को पहचान जाओगे…अपनी बलवती इच्छा से आप वैसे ही बन जाओगे… आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित सुप्त शक्तियों को पहचानने की, क्योंकि पुरुषार्थी लोगों के सम्मुख तो बाधाएं भी खड़ा  रहने का साहस नहीं जुटा पातीं…इसलिए अच्छे लोगों की संगति करने का संदेश दिया गया है, क्योंकि उस स्थिति में बुरा वक्त आएगा ही नहीं। जब आपके विचार अच्छे होंगे, तो आपकी सोच भी  सकारात्मक होगी और आप सत्य के निकट होंगे और सत्य सदैव  कल्याणकारी होता है, शुभ होता है, सुंदर होता है और सबका प्रिय होता है। दूसरी ओर सकारात्मक सोच आपको निराशा रूपी गहन अंधकार में नहीं भटकने देती। आप सदैव प्रसन्न रहते हैं और खुश-मिजाज़ लोगों की संगति सबको प्रिय होती है। इसलिए  ही रॉय गुडमैन के शब्दों में ‘हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि खुशी जीवन की यात्रा का  एक तरीका है, न कि जीवन की मंज़िल’ अर्थात् खुशी जीने की राह है, अंदाज़ है, जिसके आधार पर आप अपनी मंज़िल पर पहुंच सकते हैं।

मानव व प्रकृति का निर्माण पंचतत्वों से हुआ है…  पृथ्वी, जल, आकाश, वायु व अग्नि और मानव भी अंत में इनमें ही विलीन हो जाता है। परंतु दुर्भाग्य- वश वह आजीवन काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार  के द्वंद्व से मुक्ति  नहीं प्राप्त कर सकता तथा इसी उहापोह में उलझा रहता है। हमारे वेद-शास्त्र,  तीर्थ- स्थल व अन्य धार्मिक-ग्रंथ हमें समय-समय पर जीवन के अंतिम लक्ष्य का ध्यान दिलाते हैं…जिसका प्रभाव स्थायी होता है। कुछ समय के लिए तो मानव निर्वेद भाव से इनकी ओर आकर्षित होता है, परंतु फिर माया के वशीभूत सब कुछ भुला बैठता है। जीवन के अंतिम पड़ाव में वह प्रभु से ग़ुहार लगाता है, उसका नाम-सिमरन व ध्यान करना चाहता है, परंतु उस स्थिति में पांचों कर्मेंद्रियां आंख, कान, नाक, मुंह, त्वचा उसके नियंत्रण में नहीं होतीं। उसका शरीर शिथिल हो जाता है, बुद्धि कमज़ोर हो जाती है तथा सबसे अलग-थलग पड़ जाता है, क्योंकि वह अहंनिष्ठ  स्वयं को आजीवन सर्वश्रेष्ठ समझता रहा। आत्म-चिंतन करने पर  ही उसे अपनी गल्तियों का ज्ञान होता है और वह प्रायश्चित करना चाहता है। परंतु उसके परिवारजन भी उससे कन्नी काटने लग जाते हैं। परंतु समय गुजरने के पश्चात् उन्हें उसकी आवश्यकता अनुभव नहीं होती। सो! अब उसे अपना बोझ स्वयं ढोना पड़ता है।

बेंजामिन फ्रैंकलिन का यह कथन ‘बुद्धिमान लोगों को सलाह की आवश्यकता नहीं होती और मूर्ख लोग इसे स्वीकार नहीं करते’ अत्यंत सार्थक है, जिसके माध्यम से मानव में आत्मविश्वास किया गया है। यदि वह बुद्धिमान है, तो शेष जीवन का एक-एक पल स्वयं को जानने-पहचानने में लगा देता है… और वह प्रभु का नाम-स्मरण करने में रत रहता है। ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ अर्थात् प्रभु की सत्ता व महिमा अपरंपार है। मानव चाह कर भी उसका पार नहीं पा सकता। उस स्थिति में उसे प्रभुकथा सत्य  और शेष सब जग-व्यथा प्रतीत होती है और मानव मौन रहना अधिक पसंद करता है।ऐसा व्यक्ति निंदा-स्तुति, स्व- पर व राग-द्वेष से बहुत ऊपर उठ जाता है। उसे  किसी से कोई शिक़वा-शिकायत नहीं रहती क्योंकि उसकी भौतिक इच्छाओं का तो पहले ही शमन हो चुका होता है। इसलिए वह सदैव संतुष्ट रहता है… स्वयं में स्थित रहता है और प्रभु को प्राप्त कर लेता है। वह कबीर की भांति संसार में उस नियंता के अतिरिक्त किसी को देखना नहीं चाहता…

नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहि लेहुं

न हौं देखूं और को, न तुझ  देखन देहुं

अर्थात् वह प्रभु को देखने के पश्चात् नेत्र बंद कर लेता है, ताकि वह उसके सानिध्य में रह सके। यह है, प्रेम की पराकाष्ठा व तादात्म्य की स्थिति… जहां आत्मा-परमात्मा में भेद नहीं रह जाता। सूरदास जी की गोपियों का कृष्ण को दिया गया उपालंभ भी इसी तथ्य को दर्शाता है कि ‘भले ही तुम नेत्रों से तो ओझल हो गए हो, गोकुल से मथुरा में जाकर बस गए हो, परंतु उनके हृदय से दूर जाकर दिखाओ, तो मानें’…उनके  प्रगाढ़ प्रेम को  दर्शाता है। ‘प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय’ अर्थात् प्रेम की तंग गली में उसी प्रकार दो नहीं समा सकते, जैसे एक म्यान में दो तलवार। अत: जब तक आत्मा-परमात्मा का मिलन नहीं हो जाता, तब तक कैवल्य की स्थिति नहीं आएगी क्योंकि जब तक मानव विषय- वासनाओ…काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार का त्याग कर, मैं और तुम की स्थिति से ऊपर  नहीं उठ जाता, वह लख चौरासी अर्थात् जन्म-जन्मांतर तक आवागमन के चक्कर में फंसा रहता है।

अंततः मैं यह कहना चाहूंगी कि सोSहम् शिवोहं  ही मानव जीवन का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए। मानव जब स्वयं को जान जाता है, सांसारिक बंधन व भौतिक सुख सुविधाएं उसे त्याज्य प्रतीत होती हैं।  वह पल भर भी उस प्रभु से अलग रहना नहीं चाहता। उसकी यही कामना होती है कि एक सांस भी बिना सिमरन के व्यर्थ न जाये और आत्मा- परमात्मा का भेद समाप्त हो जाये। यही है, मानव जीवन का प्रयोजन व अंतिम लक्ष्य…सोSहम् शिवोहं जिसे प्राप्त करने में मानव को जन्म जन्मांतरों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  भोर भई

मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बाईं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाईं ओर सड़क सरपट दौड़ रही है।  महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!

अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ  नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक  ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’

इहलोक के रेले में आत्मा और देह का सम्बंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।

अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का आज से आरम्भ हुआ यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।

संतन का साथ बना रहे, मंथन का भाव जगा रहे। वर्ष 2020 सार्थक हो।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(घटना 31 दिसम्बर 2019, लगभग 11 बजे, लेखन 1.1.2020, भोर 3.55 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #28 ☆ नव वर्ष विशेष – कालगणना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 28 ☆

☆ कालगणना ☆

वर्ष बीता, गणना की हुई निर्धारित तारीखें बीतीं।  पुराना कैलेंडर अवसान के मुहाने पर खड़े दीये की लौ-सा फड़फड़ाने लगा, उसकी जगह लेने नया कैलेंडर इठलाने लगा।

वर्ष के अंतिम दिन उन संकल्पों को याद करो जो वर्ष के पहले दिन लिए थे। याद आते हैं..? यदि हाँ तो उन संकल्पों की पूर्ति की दिशा में कितनी यात्रा हुई? यदि नहीं तो कैलेंडर तो बदलोगे पर बदल कर हासिल क्या कर लोगे?

मनुष्य का अधिकांश जीवन संकल्प लेने और उसे विस्मृत कर देने का श्वेतपत्र है।

वस्तुतः जीवन के लक्ष्यों को छोटे-छोटे उप-लक्ष्यों में बाँटना चाहिए। प्रतिदिन सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले उस दिन का उप-लक्ष्य याद करो, पूर्ति की प्रक्रिया निर्धारित करो। रात को बिस्तर पर जाने से पहले उप-लक्ष्य पूर्ति का उत्सव मना सको तो दिन सफल है।

पर्वतारोही इसी तरह चरणबद्ध यात्रा कर बेसकैम्प से एवरेस्ट तक पहुँचते हैं।

शायर लिखता है- ‘शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।’

मरने से पहले वास्तविक जीना शुरू करना चाहिए। जब ऐसा होता है तो तारीखें, महीने, साल, कुल मिलाकर कैलेंडर ही बौना लगने लगता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व सार्वकालिक होकर कालगणना से बड़ा हो जाता है।

उप-लक्ष्य के माध्यम से लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(30.12.16, प्रातः 8ः03)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

वर्ष बीता, गणना की हुई निर्धारित तारीखें बीतीं।  पुराना कैलेंडर अवसान के मुहाने पर खड़े दीये की लौ-सा फड़फड़ाने लगा, उसकी जगह लेने नया कैलेंडर इठलाने लगा।

वर्ष के अंतिम दिन उन संकल्पों को याद करो जो वर्ष के पहले दिन लिए थे। याद आते हैं..? यदि हाँ तो उन संकल्पों की पूर्ति की दिशा में कितनी यात्रा हुई? यदि नहीं तो कैलेंडर तो बदलोगे पर बदल कर हासिल क्या कर लोगे?

मनुष्य का अधिकांश जीवन संकल्प लेने और उसे विस्मृत कर देने का श्वेतपत्र है।

वस्तुतः जीवन के लक्ष्यों को छोटे-छोटे उप-लक्ष्यों में बाँटना चाहिए। प्रतिदिन सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले उस दिन का उप-लक्ष्य याद करो, पूर्ति की प्रक्रिया निर्धारित करो। रात को बिस्तर पर जाने से पहले उप-लक्ष्य पूर्ति का उत्सव मना सको तो दिन सफल है।

पर्वतारोही इसी तरह चरणबद्ध यात्रा कर बेसकैम्प से एवरेस्ट तक पहुँचते हैं।

शायर लिखता है- ‘शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।’

मरने से पहले वास्तविक जीना शुरू करना चाहिए। जब ऐसा होता है तो तारीखें, महीने, साल, कुल मिलाकर कैलेंडर ही बौना लगने लगता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व सार्वकालिक होकर कालगणना से बड़ा हो जाता है।

-संजय भारद्वाज
[email protected]

(30.12.16, प्रातः 8ः03)

उप-लक्ष्य के माध्यम से लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें।

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नव वर्ष विशेष – नव वर्ष पर ☆ श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

( नव वर्ष पर प्रस्तुत है श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव जी का विशेष आलेख “नव वर्ष पर”।)

☆ नव वर्ष पर ☆

नवल वर्ष का धवल दिवस यह,  राही तुमको मंगलमय हो

कीर्ति मान यश से परिपूरित, जीवन का आलोक अमर हो

नये साल के पहले दिन सूरज की पहली किरण हम सबके जीवन में, सारे विश्व के लिए शांति, सुरक्षा, प्रसन्नता, समृद्धि और उन्नति लेकर आये यही कामनायें हैं. यद्यपि चिंतन योग्य शाश्वत सच तो यह है कि सूरज तो हर दिन उसी ऊर्जा के साथ ऊगता है, दरअसल यह हम होते हैं जो किसी तारीख को अपने व्यवहार और कामो से स्वर्ण अक्षरो में अंकित कर देते हैं, या फिर उस पर कालिख पोत डालते हैं. ये स्वर्णाक्षरों में अंकित दिन या कालिमा लिये हुये तारीखें इतिहास के दस्तावेजी पृष्ठ बन कर रह जाते हैं.

नववर्ष का अर्थ होता है  कैलेंडर में साल का बदलाव. समय को हम सेकेण्डों, मिनटों, घंटों, दिनों, सप्ताहों, महीनों और सालों में गिनते हैं. वर्ष जिसकी तारीखो के साथ हमारी  जिंदगी चलती है.  जिसके हिसाब से हम त्यौहार मनाते हैं, कैलेण्डर उन तिथियो का हिसाब रखता है. प्रकृति और मौसम में बदलाव के साथ हमारा खान पान, पहनावा,रहन सहन  बदलता रहता है,प्रकृति सदा से बिना किसी कैलेण्डर के नियमित और व्यवस्थित परिवर्तन की अनुगामी रही है, वास्तविकता तो यह है कि प्रकृति स्वयं ही एक सुनिश्चित नैसर्गिक कैलेण्डर है.  प्रकृति और मौसम के इस बदलाव को कैलेंडर महीनो और तारीखो में  गिनता है.  बैंको में वित्तीय वर्ष अप्रैल से शुरू होता है, तो भारतीय पंचांग की अपनी तिथियां होती हैं. विश्व के अलग अलग हिस्सो में अलग अलग सभ्यताओ के अपने अपने कैलेंण्डर हैं पर ग्रेगेरियन कैलेण्डर को आज वैश्विक मान्यता मिल चुकी है,  और इसीलिये रात बारह बजते ही जैसे ही घड़ी की सुइयां नये साल की ओर आगे बढ़ती हैं दुनिया हर्ष और उल्लास से सराबोर हो जाती है, लोग खा पी कर, नाच गा कर अपनी खुशी को व्यक्त करते हैं . परस्पर शुभकामनाओ तथा उपहारो  का आदान प्रदान करके अपने मनोभावो को अभिव्यक्त करते हैं .  हर कोई अपने जानने वालों को बधाई देता है और आने वाले समय में उसके भले  और सफलता की कामना करता है, मैं भी आप सबके साथ पूरे विश्व के प्रत्येक प्राणी की भलाई की कामना में शामिल हूँ. ईश्वर करे कि हम सबकी शुभकामना पूरी हो और यह जो प्रकृति जिसे हम परमात्मा की छाया कहते हैं उसका स्वरूप और सुंदर बन पाए. सब प्राणी एक-दूसरे का भला मांगते हुए, भला करते हुए प्रगति पथ पर अग्रसर हों, यही  प्रार्थना है.

लेकिन इस सबके साथ ही नये साल का मौका  वह वक्त भी होता है जब हमें अपने आप  से एक साक्षात्कार करना चाहिये. अपने पिछले सालो के कामो का हिसाब खुद अपने आप से मांगना चाहिये.अपने जीवन के उद्देश्य तय करने चाहिये. क्या हम केवल खाने पीने के लिये जी रहे हैं या जीने के लिये खा पी रहे हैं ? हमें अपने लिये  नये लक्ष्य निर्धारित करना चाहिये और उन पर अमल करने के लिये निश्चित कार्यक्रम बनाना चाहिये. स्व के साथ साथ  समाज के लिये सोचने और कुछ करने के संकल्प लेने चाहिये. अपना, और अपने बच्चो का हित चिंतन तो जानवर भी कर लेते हैं, यदि हम जानवरो से भिन्न सोचने समझने वाले  सामाजिक प्राणी हैं तो हमें अपने परिवेश के हित चिंतन के लिये भी कुछ करना ही चाहिये, अपने सुखद वर्तमान के लिये हम अपने पूर्वजो के अन्वेषणो और आविष्कारो के लिये  समाज के ॠणी हैं, अतः  समाज के प्रति हमारी भी जबाबदारी बनती है और नये साल पर जब हम आत्म चिंतन करें तो हमें सोचना  चाहिये  कि अपने क्रिया कलापों से किस तरह हम समाज के इस ॠण से मुक्त हो सकते हैं. हमें समझना चाहिये कि पाने के सुख से देने का सुख कहीं अधिक महत्वपूर्ण और दीर्घजीवी होता है.

आइये नये साल के इस पहले दिन हम ढ़ृड़ संकल्प करें कि हम आगामी समय में अपने बुरे व्यसन छोड़ेंगे. महिलाओ का सम्मान करेंगे. अपने कार्य व्यवहार से देश भक्ति का परिचय देंगे. अपने परिवेश में सवच्छता रखेंगे और आत्म उन्नति के साथ साथ अपने परिवेश की प्रगति में मददगार बनेंगे. भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनाने में स्वयं का हर संभव योगदान देंगे. निहित स्वार्थों के लिये नियमो से समझौते नही करेंगे. मेरा विश्वास है कि यदि हम इन बिंदुओ पर मनन चिंतन कर इन्हें कार्य रूप में परिणित करेंगे तो अगले बरस जब हम नया साल मना रहे होंगे तब हमें अपनी आंखों में आँखें डालकर स्वयं से बातें करने में गर्व ही होगा. पुनः पुनः इन संकल्पों के सक्षम क्रियांवयन के लिये अशेष मंगलकामनायें.

 

श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 10 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 10 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

गांधीजी दो बातें कहते हैं .हिन्दुस्तान से कारीगरी जो करीब-करीब ख़तम हो गयी, वह मैनचेस्टर का ही काम है और मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं। निश्चय ही  गांधीजी के मन में यह विचार युरोप की औद्योगिक क्रांति के, जो अठारहवीं सदी के अंत व उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में हुई थी और इसने सारे यूरोप को प्रभावित किया था, दुष्परिणामों को देखते हुए आया होगा। आरंभ में यह क्रान्ति वस्त्र उद्योग के मशीनीकरण से हुई,  और फिर तरह तरह की मशीनों की खोज हुई। इसके साथ ही लोहा बनाने की तकनीकें आयीं और शोधित कोयले का अधिकाधिक उपयोग होने लगा। कोयले को जलाकर बने भाप  की शक्ति का उपयोग होने लगा। शक्ति-चालित मशीनों (विशेषकर वस्त्र उद्योग में) के आने से उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई। उन्नीसवी सदी के प्रथम् दो दशकों में पूरी तरह से धातु  से बने औजारों का विकास हुआ। इसके परिणामस्वरूप दूसरे उद्योगों में काम आने वाली मशीनों के निर्माण को गति मिली। उन्नीसवी शताब्दी में यह पूरे पश्चिमी युरोप तथा उत्तरी अमेरिका में फैल गयी।कच्चे माल को पाने के लिए यूरोप ने सारे विश्व में अपने उपनिवेश बनाए जो इन देशों की गुलामी का कारण बने। मशीनों ने उत्पादन बढ़ाया तो माल की खपत इन्ही उपनिवेश देशों में हुई फलत वहाँ के लघु उद्योग चौपट हो गये, माल बेचने से प्राप्त धन यूरोप मे अमीरी और औपनवेशिक देशों में गरीबी का कारण बना।औद्योगिक क्रान्ति के कारण आपसी मानवीय सम्बन्ध खराब हुए और नैतिक मूल्यों में गिरावट आई। गांधीजी जब यंत्रों का विरोध करते हैं तो वे तत्कालीन भारत की इन्ही कठनाइयों के परिप्रेक्ष्य में यह बात करते हैं।  जब गांधीजी कहते हैं कि गरीब हिन्दुस्तान तो गुलामी से छूट सकेगा, लेकिन अनीति से पैसेवाला बना हुआ हिन्दुस्तान गुलामी से कभी नहीं छूटेगा तो मुझे देश के वर्तमान हालात दीखते हैं। भारत के औद्योगिक व व्यवसायिक घरानों ने, राजनीतिज्ञों व सरकारी अफसरों से गठजोड़ कर अनीतिपूर्वक जो धन कमाया है अंतत: उसकी परिणीती कालेधन में हुई है। इस काले धन ने सारे सिस्टम को तहस नहस कर दिया है, भ्रष्टाचार के फलने फूलने में इसी औद्योगिकरण का हाँथ है,    नोटबंदी जैसे प्रयास भी हमें इसके दुष्चक्र से मुक्ति नहीं दिला पाए हैं, आयकर विभाग, ईडी आदि लाख छापे मारें पर कभी कभार ही सफल होते दिखाई पढ़ते हैं। यही नैतिक पतन है जिसे गांधीजी ने एक सौ दस वर्ष पूर्व ही महसूस कर लिया था, और हमें चेताने की कोशिश की थी। उनकी चेतावनी का यह अर्थ कदापि न था कि हम यंत्रीकरण न करे उद्योगों की स्थापना न करे। वे तो बस इसके उचित बढ़ावे के पक्षधर थे। मशीनीकरण के अन्धानुकरण ने हमारे स्वास्थ को प्रभावित किया है। इससे भला कौन इनकार कर सकता है। हमने पैदल चलना और श्रम करना तो लगभग छोड़ ही दिया है। हमारे बच्चे इतने आलसी हो गए हैं कि वे सौ कदम भी नहीं चलना चाहते। उन्हें नजदीक के स्थान जाने के लिए भी वाहन चाहिए।  यही हमारे गिरते हुए स्वास्थ का कारण है।जब गान्धीजी यह कहते हैं कि  मैनचेस्टर के कपडे के बजाय हिन्दुस्तान की मिलों को प्रोत्साहन देकर भी हम अपनी जरूरत का कपड़ा हमें अपने देश में ही पैदा कर लेना चाहिए तब वे स्वदेश में मशीनों व यंत्रो के उपयोग के पक्षधर दिखाई देते हैं। वे चाहते हैं कि हम बजाय विदेशी माल खरीदने के देश में ही यंत्रो का प्रयोग कर अपनी जरूरतों के मुताबिक़ उत्पादन करें।गांधीजी जब कहते हैं कि  समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, पर वह किसी ख़ास वर्ग की नहीं बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए तो वे मशीनों व यंत्रों के उपयोग के समर्थन की बात करते हैं व उसका उपयोग मानव कल्याण के लिए करना चाहते हैं। गांधीजी बार बार कहते हैं कि  यंत्रों की खोज और विज्ञान लोभ के साधन नहीं रहने चाहिए, मजदूरों से उनकी ताकत से ज्यादा काम नहीं लिया जाना चाहिए और यंत्र रुकावट बनने के बजाय मददगार होने चाहिए। जब वे कहते हैं कि  ‘मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है, बल्कि उनकी हद बाँधने का है‘। वे तो कहते हैं कि ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए, जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें।इन बातों को अगर हम ध्यान से सोचे तो पायेंगे कि  वे यंत्रों के विरोधी नहीं हैं ।

यंत्रों का उपयोग मानव कल्याण के लिए हो ऐसी गान्धीजी  की भावना का पता हमें उनके इस कथन  से चलता है: “हाँ, लेकिन मैं इतना कहने की हद तक समाजवादी तो हूँ ही कि ऐसे कारखानों का मालिक राष्ट्र हो या जनता की सरकार की ओर से ऐसे कारखाने चलाये जाएँ। उनकी हस्ती नफे के लिए नहीं, बल्कि लोगों के भले के लिए हो। लोभ की जगह प्रेम को कायम करने का उसका उद्देश्य हो। मैं तो चाहता हूँ कि मजदूरों की हालत में कुछ सुधार हो। धन के पीछे आज जो पागल दौड़ चल रही है वह रुकनी चाहिए। मजदूरों को सिर्फ अच्छी रोजी मिले, इतना ही बस नहीं है। उनसे हो सके ऐसा काम उन्हें रोज मिलना चाहिए। ऐसी हालत में यंत्र जितना सरकार को या उसके मालिक को लाभ पहुंचाएगा, उतना ही लाभ उसके चलाने वाले मजदूर को पहुंचाएगा। मेरी कल्पना में यंत्रों के बारे में जो कुछ अपवाद हैं,उनमे से एक यह है। सिंगर मशीन के पीछे प्रेम था,इसलिए मानव-सुख का विचार मुख्य था। उस यंत्र का उद्देश्य है कि मानव श्रम की बचत। उसका इस्तेमाल करने के पीछे मकसद धन के लोभ का नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रामाणिक रीति से दया का होना चाहिए। मसलन, टेढ़े तकुवे को सीधा बनाने वाले यंत्र का मैं बहुत स्वागत करूंगा। लेकिन लोहारों का तकुवे बनाने का काम ही ख़तम हो जाय, यह मेरा उद्देश्य नहीं हो सकता। जब तकुवा टेढा हो जाय तब हरेक कातने वाले के पास तकुवा सीधा कर लेने के लिए यंत्र हो, इतना ही मैं चाहता हूँ। इसलिए  लोभ की जगह हम प्रेम को दें। तब फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #30 – भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलूर☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलूर”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 30 ☆

☆ भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलूर

हाल ही वर्ष २०११ के लिये क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रेंकिंग की घोषणा की गई है.क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रेंकिंग शैक्षणिक शोध,नवाचार,  छात्र अध्यापक अनुपात, क्वालिटी एजूकेशन, शैक्षिक सुविधायें आदि विभिन्न मापदण्डो के आधार पर प्रतिवर्ष दुनिया की श्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थाओ की वरीयता सूची जारी करता है. देश के ख्याति लब्ध संस्थान आई आई एम या आई आई टी का भी  इस सूची में चयन न हो पाना हमारी शैक्षिक गुणवत्ता पर सवालिया निशान बनाता है, शायद यही कारण है कि इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति सहित अनेक विद्वानो ने  भारत के शैक्षिक वातावरण, छात्रो के चयन की गुणवत्ता  आदि पर प्रश्न चिन्ह लगाये हैं . दरअसल पिछले दशको में शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति से अधिक धन प्राप्ति के लिये बड़े पैकेज पर कैंपस सेलेक्शन हो चला है, इससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हुई है. ऐसे समय में देश की एक मात्र विज्ञान को समर्पित संस्था भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलूर (आईआईएससी) का विश्वस्तरीय भारतीय विज्ञान शिक्षण संस्थानो में नाम होना देश के लिये गौरव का विषय है.

भारतीय विज्ञान संस्थान की स्थापना २७ मई सन् १९०९ मे स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से महान उद्योगपति जमशेदजी नुसरवानजी टाटा के दूरदृष्टि के परिणामस्वरूप हुई। सन १८९८ मे संस्थान की रूपरेखा व निर्माण के लिये एक तात्कालिक समिति बनायी गयी थी। नोबेल पुरस्कार  विजेता सर विलियम राम्से ने इस संस्थान की स्थापना हेतु बंगलोर का नाम सुझाया और मॉरीस ट्रॅवर्स इसके पहले निदेशक बने।1956 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना के साथ, संस्थान डीम्ड विश्वविद्यालय के रूप में अपने वर्तमान स्वरूप में सक्रिय है.

विज्ञान शिक्षा में दक्ष संस्थान के अब तक के  निदेशकों की सूची में ये महान नाम हैं मॉरीस ट्रेवर्स, FRS, वर्ष 1909-1914 , सर ए जी बॉर्न, FRS, सन् 1915-1921, सर एम ओ फोरस्टर, FRS, 1922-1933,  सर सी.वी. रमन, FRS, वर्ष 1933-1937, सर जे.सी. घोष, [6] 1939-1948, एम एस ठेकर, 1949-1955 , एस भगवन्तम्, 1957-1962,  सतीश धवन, 1962-1981,  डी के बनर्जी, 1971-1972,  एस रामशेषन , [7] 1981-1984,    सी एन आर  राव, FRS, 1984-1994, जी पद्मनाभन, 1994-1998, जी मेहता, 1998-2005,      वर्तमान में वर्ष २००५ से पी. बलराम संस्थान के निदेशक हैं.

होमी भाभा, सतीश धवन, जी. एन. रामचंद्रन,सर सी. वी. रमण,राजा रामन्ना,सी. एन. आर. राव,विक्रम साराभाई, जमशेदजी टाटा, मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया, ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जेसे महान विज्ञान से जुड़े व्यक्तित्व इस संस्थान के विद्यार्थी रह चुके हैं या किसी न किसी रूप में भारतीय विज्ञान संस्थान से जुड़े रहे हैं. आज भी जब नये छात्र यहां अध्ययन के लिये आते हैं तो होस्टल के जिन कमरो में कभी ये महान वैज्ञानिक रहे थे उन कमरो में रहने के लिये छात्रो में एक अलग ही उत्साह होता है.

संस्थान के वेब पते इस तरह हैं. http://www.iisc.ernet.in , http://www.iisc.ernet.in/ug , http://www.iisc.ernet.in/scouncil , http://admissions.iisc.ernet.in/

इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साईंस बेंगलोर का विकिपीडिया के अनुसार विश्व स्तर पर रैंकिग आफ वर्ल्ड यूनिवर्सिटिज में प्रथम १०० में स्थान है,विज्ञान शिक्षा प्राप्त करने हेतु यह देश का एक मात्र इंडियन इंस्टीट्यूट है, जिसे डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा प्राप्त है.अब तक संस्थान से स्नातक या शोध के एम.एससी.  (Engg), एम.टेक., एम.बी.ए. व पीएच.डी.  पाठ्यक्रम ही संचालित थे पर इसी वर्ष २०११ जुलाई से अपने पहले बैच के प्रवेश के १००वें वर्ष से संस्थान ने विश्व स्तरीय ४ वर्षीय बी.एस. पाठ्यक्रम प्रारंभ भी किया है, जिसमें अधिकतम कुल ११० सीटें  हैं. प्रवेश के लिये किशोर वैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना को प्रमुख मापदण्ड बनाया गया है, कुछ सीटें आई आई टी जे ई ई, तथा ए आई ई ई ई तथा ए आई पी एम टी के उच्च स्थान प्राप्त बच्चो को भी दी जाती हैं .हायर सेकेण्डरी की शिक्षा के बाद कालेज एजूकेशन में  जो छात्र केवल  नम्बर मात्र लाने के उद्देश्य से पढ़ाई नही करना चाहते  , और न ही फार्मूले रटते हैं वरन्  जो पढ़ने को इंजाय करते हैं अर्थात जिनमें विज्ञान के प्रति नैसर्गिक अनुराग है, जो जीवन यापन के लिये केवल धनार्जन के लिये नौकरी ही नही करना चाहते बल्कि कुछ नया सीखकर कुछ नया  करना चाहते हैं, समाज को कुछ देना चाहते हैं, उनके लिये ज्ञानार्जन का यह भारत में सर्वश्रेष्ठ विज्ञान शिक्षण संस्थान है.

संस्थान का  कैम्पस 400 एकड़ हरे भरे १०० से अधिक प्रजातियो के सघन वृक्षो से सजी जमीन पर फैला हुआ है,मैसूर के महाराजा कृष्णराजा वोडयार चतुर्थ के समय में इस संस्थान का निर्माण किया गया था.  आईआईएससी परिसर उत्तर बंगलौर में स्थित है जो शहर के मुख्य रेलवे स्टेशन से ६ कि मी,  बस स्टैंड से 4 किलोमीटर की दूरी पर है. यशवंतपुर निकटतम रेल्वे हेड है जो लगभग २.५ कि मी पर है. संस्थान बहुत पुराना है और टाटा इंस्टीट्यूट के नाम से आटो रिक्शा चालक सहज ही इसे पहचानते हैं.परिसर में 40 से अधिक विज्ञान शिक्षण के विभागो के भवन हैं, छह कैंटीन (कैफेटेरिया), एक जिमखाना (व्यायामशाला और खेल परिसर),  फुटबॉल और  क्रिकेट मैदान, नौ पुरुषों के और पाँच महिलाओं के हॉस्टल हैं, एक हवाई पट्टी, “जेआरडी टाटा मेमोरियल लाइब्रेरी,एक भव्य कंप्यूटर केंद्र भी है जो  भारत के सबसे तेज सुपर कंप्यूटर्स में  है. नेनो टैक्नालाजी की नई प्रयोगशाला विश्वस्तरीय आकर्षण है. खरीदारी केन्द्रों,  मसाज पार्लर, ब्यूटी पार्लर और  स्टाफ के सदस्यों के लिए निवास भी परिसर में है. यह पूर्णतः आवासीय शिक्षण संस्थान है. मुख्य भवन के बाहर  संस्थापक जे.एन. टाटा की स्मृति में उनकी आदमकद मूर्ति स्थापित की गई है.

डीआरडीओ, इसरो, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड, वैमानिकी विकास एजेंसी, नेशनल एयरोस्पेस लेबोरेटरीज, सीएसआईआर, सूचना प्रौद्योगिकी विभाग (भारत सरकार) इत्यादि वैज्ञानिक संगठनो से  आईआईएससी अनेक परियोजनाओ में निरंतर सहयोग कर रहा है.कार्पोरेट जगत के साथ तादात्म्य बनाने के लिये भी संस्थान सक्रिय है और अनेक निजी क्षेत्र की कंपनियां कैम्पस सेलेक्शन तथा प्रोडक्ट रिसर्च में सहयोग हेतु यहां पहुंचती हैं.  विदेशी शिक्षण संस्थानो से भी आईआईएससी अनेक एम ओ यू हस्ताक्षरित कर रहा है.

संस्थान के एक शतक की उपलब्धियो की कहानी बहुत लंबी है, देश विदेश में विज्ञान शिक्षण व शोध से जुड़े अनेकानेक महान वैज्ञानिक भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलूर की ही देन हैं. आने वाले समय में जब नई पीढ़ी के युवा वैज्ञानिक इस वर्ष प्रारंभ किये गये ४ वर्षीय बी एस पाठ्यक्रम को पूरा कर इस संस्थान से निकलेंगे तो निश्चित है कि उनके माध्यम से यह संस्थान देश में अनुसंधान और नवाचार की बढ़ती जरूरतो को पूरा करने में एक नई इबारत लिखेगा.

 

© अनुभा श्रीवास्तव्

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #27 – निष्कर्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 27 ☆

☆ निष्कर्ष ☆

 

दूसरे के जागने-सोने, खाने-पीने, उठने-बैठने, हँसने-बोलने, यहाँ तक की चुप रहने में भी मीन-मेख निकालना, आदमी को एक तरह का विकृत सुख देता है। तुलनात्मक रूप से एक भयंकर प्रयोग बता रहा हूँ, विचार करना।

रात को बिस्तर पर हो, आँखों में नींद गहराने लगे तो कल्पना करना कि इस लोक की यह अंतिम नींद है। सुबह नींद नहीं खुलने वाली। …यह विचार मत करना कि तुम्हारे कंधे क्या-क्या काम हैं। तुम नहीं उठोगे तो जगत का क्रियाकलाप कैसे बाधित होगा। जगत के दृश्य-अदृश्य असंख्य सजीवों में से एक हो तुम। तुम्हारा होना, तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण हो सकता है पर जगत में तुम्हारी हैसियत दही में न दिखाई देनेवाले बैक्टीरिया से अधिक नहीं है। तुम नहीं उठोगे तो तुम्हारे सिवा किसी पर कोई दीर्घकालिक असर नहीं पड़ेगा।

तुम तो यह विचार करना कि क्या तुम्हारे होने से तुम्हारे सगे-सम्बंधी, तुम्हारे परिजन-कुटुंबीय, मित्र-परिचित, लेनदार-देनदार आनंदी और संतुष्ट हैं या नहीं। बिस्तर पर आने तक के समय का मन-ही-मन हिसाब करना। अपने शब्दों से किसी का मन दुखाया क्या, आचरण में सम्यकता का पालन हुआ क्या, लोभवश दूसरे के अधिकार का अतिक्रमण हुआ क्या, अहंकारवश ऊँच-नीच का भाव पनपा क्या..?… आदि-आदि..। हाँ आत्मा के आगे मन और आचरण को अनावृत्त कर अपने प्रश्नों की सूची तुम स्वयं तैयार कर सकते हो।

प्रश्नों की सूची टास्क नहीं है। प्रश्न तुम्हारे, उत्तर भी तुम्हारे। असली टास्क तो निष्कर्ष है। अपने उत्तर अपने ढंग व अपनी सुविधा से प्राप्त कर क्या तुम मुदित भाव से शांत और गहरी नींद लेने के लिए प्रस्तुत हो?

यदि हाँ तो यकीन मानना कि तुम इहलोक को पार कर गए हो।

सच बताना उठकर बैठ गए हो या निद्रा माई के आँचल में बेखटके सो रहे हो?

निष्कर्ष से अपनी स्थिति की मीमांसा स्वयं ही करना।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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