हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #23 – परिदृश्य ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 23☆

☆ परिदृश्य ☆

मुंबई में हूँ और सुबह का भ्रमण कर रहा हूँ। यह इलाका संभवत: ऊँचे पहाड़ को काटकर विकसित किया गया है। नीचे समतल से लेकर ऊपर तक अट्टालिकाओं का जाल। अच्छी बात यह है कि विशेषकर पुरानी सोसायटियों के चलते परिसर में हरियाली बची हुई है। जैसे-जैसे ऊँचाई की ओर चलते हैं, अधिकांश लोगों की गति धीमी हो जाती है, साँसें फूलने लगती हैं। लोगों के जोर से साँस भरने की आवाज़ें मेरे कानों तक आ रही हैं।

लम्बा चक्कर लगा चुका। उसी रास्ते से लौटता हूँ। चढ़ाव, ढलान में बदल चुका है। अब कदम ठहर नहीं रहे। लगभग दौड़ते हुए ढलान से उतरना पड़ता है।

दृश्य से उभरता है दर्शन, पार्थिव में दिखता है सनातन। मनुष्य द्वारा अपने उत्थान का प्रयास, स्वयं को निरंतर बेहतर करने का प्रवास लगभग ऐसा ही होता है। प्रयत्नपूर्वक, परिश्रमपूर्वक एक -एक कदम रखकर, व्यक्ति जीवन में ऊँचाई की ओर बढ़ता है। ऊँचाई की यात्रा श्रमसाध्य, समयसाध्य होती है, दम फुलाने वाली होती है। लुढ़कना या गिरना इसके ठीक विपरीत होता है।  व्यक्ति जब लुढ़कता या गिरता है तो गिरने की गति, चढ़ने के मुकाबले अनेक गुना अधिक होती है। इतनी अधिक कि अधिकांश मामलों में ठहर नहीं पाता मनुष्य।    मनुष्य जाति का अनुभव कहता है कि ऊँचाई की यात्रा से अधिक कठिन है ऊँचाई पर टिके रहना।

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, विषयभोगों के पीछे भागने की अति, धन-संपदा एकत्रित करने  की अति, नाम कमाने की अति। यद्यपि कहा गया है कि ‘अति सर्वत्र वर्ज्येत’, तथापि अति अनंत है। हर पार्थिव अति मनुष्य को ऊँचाई से नीचे की ओर धकेलती है और अपने आप को नियंत्रित करने में असमर्थ मनुज गिरता-गिरता पड़ता रसातल तक पहुँंच जाता है।

विशेष बात यह है कि ऊँचाई और ढलान एक ही विषय के दो रूप हैं। इसे संदर्भ के अनुसार समझा जा सकता है। आप कहाँ खड़े हैं, इस पर निर्भर करेगा कि आप ढलान देख रहे हैं या ऊँचाई। अपनी आँखों में संतुलन को बसा सकने वाला न तो ऊँचाई  से हर्षित होता है,  न ढलान से व्यथित। अलबत्ता ‘संतुलन’ लिखने में जितना सरल है, साधने में उतना ही कठिन। कई बार तो लख चौरासी भी इसके लिए कम पड़ जाते हैं..,इति।

संतुलन साधने की दिशा में हम अग्रसर हो सकें। 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

सोम. 18.11.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

(विनम्र सूचना- ‘संजय उवाच’ के व्याख्यानों के लिए 9890122603 पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 19 – अंहकार चूर ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अंहकार चूर।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 19 ☆

☆ अंहकार चूर 

 

रावण के लिए यह आखरी रात्रि बहुत परेशानी भरी थी। वह सीधे भगवान शिव के मंदिर गया, जहाँ रावण को छोड़कर किसी को भी अंदर जाने की अनुमति नहीं थी। उसने शिव ताण्डव स्तोत्र से शिव की प्रार्थना करनी शुरू कर दी। भगवान शिव रावण के सामने प्रकट हुए और कहा, “रावण, तुमने मुझे क्यों याद किया?”

रावण ने उत्तर दिया, “हे महादेव! मैं आपको प्रणाम करता हूँ, मुझे लगता है कि आप अपने सबसे बड़ा भक्त को भूल गए हैं। मैं वही रावण हूँ जिसने आपके चरणों में अपने कई सिर समर्पित किए हैं। आप जानते हैं कि कुछ वानारों के साथ राम ने लंका पर आक्रमण किया है और मेरे सबसे बड़े बेटे इंद्रजीत सहित लंका के लगभग सभी महान योद्धाओं को मार डाला है, और ऐसा लगता है कि आप भी उनकी सहायता कर रहे हैं। हे भगवान! अब लंका में केवल रावण ही जीवित बचा है जो युद्ध लड़ सके। मैं कल के युद्ध में आपसे लंका की ओर से लड़ने का अनुरोध करता हूँ”

भगवान शिव मुस्कुराये और कहा, “रावण आप जानते हैं कि मैं उच्च और निम्न के बीच पक्षपात नहीं करता हूँ, और मैंने आपको और मेघनाथ को सभी संभव अस्त्र, शस्त्र और शक्तियों दी थी, जो तीनों लोकों में किसी के भी पास नहीं है। मैंने आपको यह भी चेतावनी दी कि किसी भी परिस्थिति में दूसरों के नुकसान पहुँचने के लिए उनका उपयोग नहीं करंगे, लेकिन आपने मेरे शब्दों पर ध्यान नहीं दिया । आप और आपके बेटे ने प्रकृति के सभी नियमों को अपनी इच्छा और हवस पूर्ति की लिए बार बार तोड़ा आपलोगों ने बार-बार अपराध किया है। आपने ‘रत’, पृथ्वी के वैश्विक कानून को अस्तव्यस्त किया है, इसलिए विनाश की देवी-निऋती आपसे बहुत प्रसन्न है । लेकिन निऋती का अर्थ विनाश है। तो वह आपको और आपके राज्य को नष्ट किए बिना कैसे छोड़ सकती है? तो भगवान विष्णु ने आपको अन्य देवताओं और देवियों के सहयोग से दंडित करने का निर्णय किया है । अब तुम्हारा समय आ गया है। कोई भी जो पाँच तत्वों के इस शरीर में आता है उसे एक दिन जाना ही होगा और कल आपका दिन है इस पंच तत्वों से निर्मित देह को त्यागने का। ओह ताकतवर रावण, क्या आप मृत्यु से भयभीत हो?”

निऋतीमृ त्यु के छिपे हुए इलाकों और दुःखों की हिंदू देवी है, एक दिक्पाल (दिशाओं के अभिभावक) जो, दक्षिण पश्चिम दिशा का प्रतिनिधित्व करती है। निऋती का अर्थ है रत की अनुपस्थिति, रत अर्थात अधिभौतिक, आधिदैविक, आधियात्मिक नियम जिनका पालन करने से ही सृष्टि चल रही है और यदि कोई इन नियमों या ब्रम्हांडीय चक्रों को तोड़ दे तो संसार में प्रलय आ जाती है। तो निऋती ही ब्रम्हांड की अव्यवस्था, विकार, अशांति आदि की देवी हुई । निऋती वैदिक ज्योतिष में एक केतु शासक नक्षत्र है, जो कि माँ कली और माँ धूमावती के रूप में दृढ़ता से जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद के कुछ स्त्रोत में निऋती का उल्लेख किया गया है, अधिकांशतः संभावित प्रस्थान के दौरान उनसे सुरक्षा माँगना या उसके लिए निवेदन करना दर्शाया गया है। ऋग्वेद के उस लेख में उनसे बलिदान स्थल से प्रस्थान के लिए निवेदन किया गया है। अथर्व वेद में, उन्हें सुनहरे रूप में वर्णित किया गया है। तैत्तिरीया ब्राह्मण (I.6.1.4) में, निऋती को काले रंग के कपड़े पहने हुए अंधेरे के रूप में वर्णित किया गया है और उनके बलिदान के लिए उन्हें काली भूसी अर्पित की जाती हैं । वह अपने वाहन के रूप में एक बड़े कौवे का उपयोग करती हैं। वह अपने हाथ में एक कृपाण रखती हैं । पुराणिक कथा में निऋती को अलक्ष्मी के नाम से जाना जाता है। जब समुद्र मंथन किया गया था, तब उसमे से एक विष भी प्रकट हुआ था जिसे निऋती के रूप में जाना जाता था। उसके बाद देवी लक्ष्मी, धन की देवी प्रकट हुई। इसलिए निऋती को लक्ष्मी की बड़ी बहन माना जाता है। लक्ष्मी धन की अध्यक्षता करती हैं, और निऋती दुखों की अध्यक्षता करती है, यही कारण है कि उन्हें अलक्ष्मी कहा जाता है । इनके नाम का सही मूल उच्चारण तीन लघु स्वरों के साथ तीन अक्षर है: “नी-रत-ती”; पहला ‘र’ एक व्यंजन है, और दूसरा ‘र’ एक स्वर है ।
रावण ने उत्तर दिया, “मैं तीनों दुनिया का विजेता हूँ। मुझे मृत्यु का भय नहीं है, लेकिन यह मेरी ज़िंदगी में पहली बार है जब मैं हार देख रहा हूँ, तो ये भय हार का है, मृत्यु का नहीं”।

भगवान शिव ने उत्तर दिया, “सब कुछ शाश्वत है, इस दुनिया में कुछ भी नष्ट नहीं हो सकता है, केवल रूप बदलते हैं, आप नहीं जानते कि आप अपने पूर्व जन्मों में क्या थे? अपने आप को यहाँ या वहाँ संलग्न न करें, फिर सब कुछ आपका है । रावण, सब कुछ सापेक्ष है सफलता, हार, यहाँ तक कि आपका अहंकार भी, और जो पूर्ण है वह ब्रह्मांड में प्रकट ही नहीं होता है। तो आप अपनी जीत या हार की तुलना करके पूर्ण नहीं हो सकते हैं। अमरत्व इस ज्ञात संसार में उपस्थित ही नहीं है । जिसकी भी शुरुआत हुई है एक दिन वो खत्म होनी चाहिए। सृजन के पदानुक्रम के भीतर, संगठित परिसरों के चेतना, पदार्थों के रूप उपस्थित हैं, जिनकी अवधि समय की हमारी धारणा के संबंध में बहुत अधिक दिखाई देती है। इनमें से कुछ रूप हैं जिन्हें हम अमर कहते हैं। हमारी इंद्रियों, आत्माओं और देवताओं द्वारा किए गए लोगों की तुलना में अधिक सूक्ष्म संयोजनों के स्तर पर प्रपत्र फिर भी बहुतायत के क्षेत्र में हैं- प्रकृति का ज्ञानक्षेत्र । इस प्रकार देवता भी जन्म और मृत्यु के चक्र से बाहरनहीं होते हैं, हालकि मनुष्य के समय के मानदंडों में उनका जीवन बहुत ही लंबी अवधि का प्रतीत हो सकता है । रावण के रूप में आपकी भूमिका समाप्त हो गई है, लेकिन अगली भूमिका आपके लिए तैयार है। आपने रावण की अपनी भूमिका का आनंद लिया है, अब अगली भूमिका के लिए तैयार रहें, और इस तरह से युद्ध लड़े की आपका नाम तब तक लिया जाये जब तक की भगवान राम का”।

रावण ने कहा, “महानतम भगवान, मुझे जीवन के रहस्यों को समझने और मेरे हार के भय को दूर करने के लिए धन्यवाद। अब मैं कल अपनी अंतिम लड़ाई करने के लिए पूरी तरह से तैयार हूँ”।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 26 ☆ ज़िन्दगी : एक हादसा ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “ज़िन्दगी : एक हादसा ”.   यह सच है कि स्त्री – पुरुष  जीवन के दो पहिये हैं। किन्तु, अक्सर जीवन में यह हादसा किसी एक पहिये के ही साथ क्यों ? इस संवेदनशील  एवं विचारणीय विषय पर सतत लेखनी चलाने के लिए डॉ मुक्त जी की लेखनी को  सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 26 ☆

☆ ज़िन्दगी : एक हादसा

 

अखबार की सुर्खियों या टी•वी• पर प्रतिदिन दिखाए जाने वाले हादसों को देख अंतर्मन उद्वेलित हो उठता है…आखिर कब बदलेगी इंसान की सोच? कब हम हर लड़की में बहन-बेटी का अक्स देखेंगे? कब इस समाज में सामंजस्य स्थापित होगा? कब दिल दहला देने वाली घटनाएं, हमारे मनोमस्तिष्क पर प्रहार नहीं करेंगी… हमें झिंझोड़ कर नहीं रख देंगी?

स्त्री-पुरुष सृजन-कर्त्ता हैं…एक-दूसरे के पूरक हैं… गाड़ी के दो पहियों के समान हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है, अस्तित्वहीन है। नियंता की अर्धनारीश्वर की कल्पना इसी का प्रमाण है। परन्तु पुरुष निरंकुश शासक की भांति सदैव सत्ता पर काबिज़ रहना  चाहता है। उसने औरत का हर रूप में शोषण किया है। जन्म से मृत्यु-पर्यन्त वह जुल्मों का शिकार होती है। आजकल तो मानव सृष्टि-नियंता की प्रकृति में भी हस्तक्षेप करने लगा है। सोनोग्राफी द्वारा लिंग की जांच करवा कर, कन्या-भ्रूण को  मिटा डालना सामान्य सी बात हो गई है। लड़कियों की घटती संख्या इसी का दुष्परिणाम है।

लड़की के जन्म होने पर सबके चेहरे लटक जाते हैं, घर में मातम-सा पसर जाता है… जिसका सबसे अधिक हर्ज़ाना प्रसूता को भुगतना पड़ता है। उस निर्दोष पर हर पल व्यंग्य-बाणों की बौछार की जाती है।वैसे भी उपेक्षा,अवमानना,प्रताड़ना और तिरस्कार तो औरत को धरोहर रूप में प्रदत्त हैं…जो उसे जन्म से ही सहन करने पड़ते हैं और अंतिम सांस तक वह सब स्वीकारना उसकी नियति बन जाती है। उसे तो केवल सहना है, कहना नहीं।

जन्म लेते ही उस बच्ची के साथ सौतेला व्यवहार प्रारम्भ हो जाता है। लड़के के जन्म पर हमारे यहां ताली बजाने की प्रथा है। गांव भर में मिठाई बांटी जाती है और घर-परिवार के लोगों का सीना फूल कर चौड़ा हो जाता है। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता और उनका मस्तक गर्व से ऊंचा हो जाता है। बच्ची के पिता के साथ-साथ उसकी माता को भी घर-परिवार में सम्मान मिलता है क्योंकि उन्होंने उस परिवार को वारिस दिया है… वंश बढ़ाने वाले को जन्म देकर, उन पर अहसान किया है। वे भूल जाते हैं कि मां को उस अवसर पर समान प्रसव पीड़ा होती है, चाहे वह लड़का हो या लड़की। परन्तु उसके दर्द का अहसास किसे होता है? लड़की की मां को न तो आराम मिलता है, न ही अच्छा भोजन। उसे तो दी जाती हैं…सूखी रोटियां और कहा जाता है कि इसने तो पत्थर पैदा किया है… हमारे हाथ में भीख का कटोरा थमा कर रख दिया है और हमारा मस्तक सब के समक्ष झुका दिया है।

ऐसे कटु वचन उसे हरदम सहन करने पड़ते हैं। आप  ज़रा उस प्रसूता की मन: स्थिति का अनुमान लगाइए क्या गुज़रती होगी उस निरीह पर…जो उनकी बातों का उत्तर भी नहीं दे पाती। सो! उसे घुट- घुट कर मरना पड़ता है। तस्वीर का दूसरा पक्ष भी किसी से छिपा नहीं है।उस मासूम बच्ची की परवरिश मजबूरी समझ कर की जाती है।रूखा-सूखा उसकी परवरिश के लिए काफी समझा जाता है। वहीं फटे-पुराने वस्त्र उसके अलंकार होते हैं। अक्सर तो वह भाइयों की उतरन से ही गुज़ारा कर लेती है।घर-परिवार के लोगों की आंखें सदैव उस पर लगी रहती हैं। छोटे से छोटे काम के लिए भी उसकी सेवाएं ली जाती हैं। रसोई के काम से लेकर छोटे भाई-बहिन को संभालने तक का दारोमदार उसके कंधों पर होता है।

हां! आजकल अनिवार्य शिक्षा योजना के अंतर्गत लड़कियों को स्कूल में दाखिल कराना, माता-पिता की मजबूरी बन गया है, परन्तु उसके हाथ में किताब देखते ही सबको आवश्यक काम याद आ जाते हैं और एक लम्बी फेहरिस्त उसके हाथों में थमा दी जाती है। वह बेचारी दिन भर सबका हुक्म बजाती रहती है। यदि वह मासूम किसी पल, किसी तरह का प्रतिरोध करती है या भाई से कोई काम न करवाने की शिकायत करती है, तो उसे डांट-फटकार कर या पीटकर चुप करा दिया जाता है।

‘तुम भाई से मुकाबला करती हो…अरे! वह तो घर का चिराग है। परिवार का नाम रोशन करेगा वह और तू तो थोड़े दिन की मेहमान है यहां, दूसरे घर चले जाना है तुझे। जानती है…तू पराई अमानत है।’ बचपन से ही उसे यह सब उसे समझा दिया जाता है कि इस घर से उसका स्थाई संबंध नहीं है। थोड़े दिनों के पश्चात् वह मासूम वहां से रुख्सत हो जाती है, यह सोच कर कि पति का घर अब उसका अपना घर होगा। विवाह संपन्न होने के पश्चात्, विदाई के समय यह शब्द उसके हृदय पर कुठाराघात करते हैं कि ‘जिस घर से डोली उठती है, अर्थी वहां से नहीं उठती। सो! अब उसे उस घर की चौखट से बाहर कदम नहीं रखना है… अपनी सीमाओं में रहकर उस दहलीज़ को कभी नहीं लांघना है। वह उस घर में मेहमान की तरह आ सकती है, अपने पति के साथ …अन्यथा उसके लिए घर के द्वार खुले नहीं हैं।

वह मासूम एक नए माहौल में अजनबियों के मध्य, अपने अस्तित्व को नकार, सबकी इच्छाओं पर खरा उतरने में आजीवन प्रयासरत रहती है।वह कठपुतली की भांति सब के आदेशों की अनुपालना करती है, परन्तु फिर भी पराई समझी जाती है। उसका पति, जिसके साथ वह सात फेरों के बंधन में बंध कर आयी थी, वह उसे समझने का तनिक भी प्रयास नहीं करता। वह हर समय उसका तिरस्कार करता है क्योंकि पहले दिन ही उस अबला को स्पष्ट शब्दों में बतला दिया जाता है कि ‘वह अपने माता-पिता को भगवान से बढ़कर मानता है, उनकी पूजा-आराधना करता है और उससे भी यही अपेक्षित है।’

वह उसके परिजनों को एक भी ऐसा अवसर प्रदान नहीं करना चाहती, जिसके कारण उसे या उसके घर वालों को नीचा देखना पड़े। परन्तु उस घर में तो सी•सी•,टी•वी• कैमरे लगे होते हैं, परिवारजनों के रूप में…जिनकी आंखें हर पल उस पर लगी होती हैं…दोषारोपण करने में प्रतीक्षारत रहती हैं। उसकी हर क्रिया-प्रतिक्रिया व गतिविधि उन में कैद हो जाती है और अवसर मिलते ही अनेक उदाहरण देकर, उस पर असंख्य आक्षेप लगा दिए जाते हैं। यदि वह किसी अवसर पर अपना पक्ष रखना या प्रत्युत्तर देना चाहती है तो उसे एक भी शब्द न बोलने की हिदायत जारी कर दी जाती है। कई बार तो ऐसे अवसर पर पति लात-घूंसों का प्रयोग कर, अपने पुरुषत्व का प्रदर्शन करने में तनिक भी संकोच नहीं करता। धीरे- धीरे वह उसकी आदत बन जाती है और चुप रहकर सब कुछ सहना, उस मासूम की नियति।

वह समझ जाती है कि औरत को बचपन से लेकर अंतिम सांस तक, पहले पिता, फिर पति और जीवन के अंतिम पड़ाव में पुत्र के अंकुश में रहना है। वह अतीत में झांकती है, जहां अनगिनत हादसे उसके मनोमस्तिष्क को झिंझोड़ कर रख देते हैं और वह निष्कर्ष निकालती है कि सल्तनतें बदल जाती हैं, परंतु हालात वही रहते हैं। पिता,पति और पुत्र उसे अपनी बपौती समझ, क्रमानुसार मनमाना व्यवहार करते हैं। इन तीनों का प्रारम्भ ‘प’ से होता है। सो! उनकी  विचारधारा एक-दूसरे से अलग कैसे हो  सकती है?उनके व्यवहार को देखकर तो ऐसा लगता    है कि वे सब एक ही सांचे में निकाले गये हैं।इसलिये उनकी सोच व नज़रिया एक-सा होना स्वाभाविक है …वह भिन्न कैसे हो सकती है?

ज़रा ग़ौर कीजिए गोपियों की उन पंक्तियों पर, जो उन्होंने कृष्ण के मित्र उद्धव से कही थीं ‘यह मथुरा काजर की कोठरी, जे आवहिं ते कारे।’ परन्तु सतयुग से लेकर इक्कीसवीं सदी तक पुरुष की सोच में तनिक भी अंतर नहीं आया। सतयुग में इन्द्र का अप्सराओं संग काम-क्रीड़ा करना, गौतम ऋषि का अहिल्या को श्राप देना, त्रेता युग में भगवान राम का सीता को, एक धोबी के कहने पर राजमहल से निष्कासित करना, द्वापर युग में दुर्योधन और दु:शासन द्वारा द्रौपदी को भरी सभा में बालों से खींच कर लाना व उसका चीरहरण करना और कलयुग में तो औरत की अस्मत चौराहे पर ही नहीं, घर-घर में लूटा जाना… पुरुष समाज को कटघरे में खड़ा करता है। वास्तव में यह उसकी दूषित मानसिकता का परिणाम है।

इस तथ्य से तो सामान्यजन परिचित ही होंगे कि हमारे संविधान के कानून-निर्माता, वेदों-शास्त्रों के रचयिता पुरुष ही थे। सो! पुरुष के हितों को नज़र- अंदाज़ होने की कल्पना करना दूर की बात थी। सभी कायदे-कानून पुरुष की सुख-सुविधा के लिए बनाए गए थे। पुरुष को श्रेष्ठ व सामान्य औरत को दोयम दर्जे का समझा गया था। आधुनिक युग में भी औरत पुरुष के शिकंजे से मुक्त कहां हो पाई है? उसे तो आजीवन पुरुष के ज़ुल्मों का शिकार बनना पड़ता है और ओंठ सीकर सब कुछ चुपचाप सहना, उसकी नियति बन गई है। वह पुरुष द्वारा रचित चक्रव्यूह से लाख प्रयास करने पर भी आज तक मुक्त नहीं हो पाई है।

समय परिवर्तनशील है और ‘मौसम भी बदलते हैं/ /दिन रात बदलते हैं /यह समां बदलता है /ज़ज़्बात बदलते हैं / यादों से महज़ / दिल को मिलता नहीं सुक़ून /ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात बदलते हैं / हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं।’ मुझे तो इन पंक्तियों में तनिक भी सच्चाई का आभास नहीं होता।अपनी सोच व अपनी काव्य पंक्तियों में तनिक भी सच्चाई का आभास नहीं होता, बल्कि काल्पनिकता का आभास होता है। जहां तक औरत के अस्तित्व और अस्मिता का प्रश्न है, वह-कल भी गुलाम थी, अस्तित्वहीन थी और आज भी उपेक्षित ही नहीं, प्रताड़ित व तिरस्कृत है।

अक्सर विचार-गोष्ठियों में चर्चा होती है, नारी सशक्तीकरण की… उसकी दशा के विषय में मैं तो यही कहना चाहूंगी कि विश्व की 90% औरतों की आज भी वही स्थिति है, जो हज़ारों वर्ष पहले थी। हां! उस पर आकर्षक आवरण चढ़ा दिया गया है,

उसे समानाधिकार का लॉलीपॉप थमा दिया गया है। परन्तु औरत के जीवन का कटु यथार्थ, उसकी परिस्थितियां, पुरुष के मन में उसके प्रति सोच, भावनाएं व अपेक्षाएं वही हैं…उनमें लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं आया है।

अन्तत: मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि वास्तव में ज़िन्दगी एक हादसा है। कौन,कब, कहां, किस मोड़ पर मिल जाये… मानव इस तथ्य से अनभिज्ञ है…भविष्य में क्या होने वाला है…वह किस जन्म के कर्मों का फल, इस जन्म में भुगत रहा है, यह भी कोई नहीं जानता। परंतु जन्म-जन्मांतर का यह सिलसिला निरंतर चला आ रहा है। लाख प्रयास करने पर भी वह इन बंधनों से मुक्ति नहीं पा सकता क्योंकि’समय से पहले व भाग्य से अधिक किसी को कुछ नहीं मिलता’ यह सृष्टि का अटल नियम है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(आज का दैनिक स्तम्भ ☆ संजय दृष्टि  –  शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध ☆  अपने आप में विशिष्ट है। ई- अभिव्यक्ति परिवार के सभी सम्माननीय लेखकगण / पाठकगण श्री संजय भारद्वाज जी एवं श्रीमती सुधा भारद्वाज जी के इस महायज्ञ में अपने आप को समर्पित पाते हैं। मेरा आप सबसे करबद्ध निवेदन है कि इस महायज्ञ में सब अपनी सार्थक भूमिका निभाएं और यही हमारा दायित्व भी है।)

☆ संजय दृष्टि  –  शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध

नागरिकों की रक्षा के लिए आतंकियों से लोहा लेते हुए शहीद हुए सशस्त्र बलों के सैनिकों और आतंकी वारदातों में प्राण गंवाने वाले  नागरिकों को श्रद्धांजलि।

मित्रो!

26/11/2008 से शुरू हुई अगली तीन भयावह रातें शायद ही कोई भारतीय भूला होगा। भारत की औद्योगिक राजधानी मुम्बई विदेशी खूनियों के मानो कब्जे में थी। भारतीय होने के नाते मैं और सुधा जी भी करोड़ों देशवासियों की तरह व्यथा और आक्रोश में थे। निरंतर विचार चल रहा था कि एक आम नागरिक की हैसियत से आतंक के विरुद्ध इस लड़ाई में हम सहयोग कैसे कर सकते हैं? लेखक होने के नाते मुझे शस्त्र के रूप में कलम दिखी। डिजाइनर सुधा जी ने ग्राफिक्स को चुना। शब्द और चित्र के इस संगम ने जन्म दिया संभवतः एक अनन्य प्रदर्शनी-‘शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध’ को।

*’शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध’* में लगभग 150 पोस्टर हैं। इनमें मुम्बई हमले के बाद भारतीय और अप्रवासी भारतीयों की कविताओं पर आधारित पोस्टर, आतंक को लेकर नागरिक द्वारा अपेक्षित सतर्कता, आतंक से लड़ने में  आम आदमी की भूमिका, आतंकी हमलों के चित्र, आतंकवाद के दूरगामी परिणाम जैसे अनेक विषय शब्द और चित्र के माध्यम से दर्शाये गए हैं।    

मित्रो! 26 जनवरी 2009 को पुणे के यशवंतराव आर्ट गैलरी से आरम्भ यह यात्रा मुम्बई के रवीन्द्र नाट्य मंदिर होते हुए अब तक हजारों नागरिकों तक पहुँच चुकी है।  पिछले कुछ वर्षों से इसे सीधे महाविद्यालयीन छात्र- छात्राओं तक पहुँचाने के लिए हमने इसका एक लघु संस्करण तैयार किया है। अनेक महाविद्यालयों में इसे प्रदर्शित किया जा चुका है।

यदि आप किसी महाविद्यालय/ कार्यालय/ सोसायटी/ क्लब/ बड़े समूह के लिए इसे आयोजित करना चाहें तो आतंक के विरुद्ध  जन -जागरण के इस अभियान में आपका स्वागत है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

: 5.04 बजे, 23.11.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 5 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 5 – हिन्द स्वराज से  ☆ 

( गौ रक्षा)

प्रश्न:- अब गौरक्षा के बारे में अपने विचार बताइये।

उत्तर :- मैं खुद गाय को पूजता हूँ यानी मान देता हूँ । गाय हिन्दुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिन्दुस्तान का, जो खेती प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी जानवर है यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगे।

लेकिन जैसे मैं गाय को पूजता हूँ वैसे मैं मनुष्य को भी पूजता हूँ। जैसे गाय उपयोगी है वैसे मनुष्य भी- फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिन्दू- उपयोगी है।तब क्या गाय को बचाने के लिये मैं मुसलमान से लडूंगा? क्या उसे मैं मारूंगा? ऐसा करने से मैं मुसलमान का और गाय का भी दुश्मन बनुंगा। इसलिए मैं कहूंगा कि गाय की रक्षा करने का एक यही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश की खातिर गाय को बचाने के लिये समझाना चाहिए। अगर वह न समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए, क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं है । अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती हो तो अपनी जान दे देनी चाहिए, लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए। यही धार्मिक क़ानून है, ऐसा मैं तो मानता हूँ।

हाँ और नहीं के बीच हमेश वैर रहता है। अगर मैं वाद-विवाद करूँगा, तो मुसलमान भी वाद-विवाद करेगा। अगर मैं टेढ़ा बनूँगा तो वह भी टेढ़ा बनेगा। अगर मैं बालिश्त भर नमुंगा तो वह हाथ भर नमेगा; और अगर वह न भी नमे तो मेरा नमना गलत नहीं कहलायेगा। जब हमने जिद्द की तब गोकुशी बढी। मेरी राय है कि गोरक्षा प्रचारिणी सभा गौ वध प्रचारिणी सभा मानी जानी चाहिए। ऐसी सभा का होना हमारे लिए बदनामी की बात है। जब गाय की रक्षा करना हम भूल गए तब ऐसी सभा की जरूरत पडी होगी।

मेरा भाई गाय को मारने दौड़े, तो मैं उसके साथ कैसा बर्ताव करूँगा? उसे मारूँगा या उसके पैरों में पडूँगा? अगर आप कहें कि मुझे उसके पाँव पड़ना चाहिए तो मुझे मुसलमान भाई के भी पाँव पड़ना चाहिए।

गाय को दुःख देकर हिन्दू गाय का वध करता है; इससे गाय को कौन छुडाता है? जो हिन्दू गाय की औलाद को पैना (आर) भोंकता है, उस हिन्दू को कौन समझाता है? इससे हमारे एक राष्ट्र होने में कोई रुकावट नहीं आई है।

मेरी टिप्पणी :- गांधीजी की बात गौ रक्षा को लेकर सत्य ही है। हमारे शहर भोपाल में नवाबों का शासन रहा, तब आयोजनों में गौ मांस का प्रयोग खूब होता था, पर अब जब देश के विभिन्न शहरों से गौ तस्करों के पकडे जाने और उनपर प्राणघातक हमले की खबरें प्राय: सुनने में आती है तब भोपाल जो चारों ओर से कृषि आधारित गाँवों, कस्बों से घिरा है और मुस्लिम बहुल है वहाँ गौकुशी की खबर सुनाई नहीं देती, अखबारों में नहीं छपती। यह परिवर्तन आपसी समझ बूझ बढ़ने का ही परिणाम है।मुझे ऐसे दो अवसर याद हैं जब मैं मुसलमानों द्वारा ही गौ या भैंस का मांस खाने से बचाया गया। 1985  की घटना है मैं माँसाहार के लिए एक मुस्लिम होटल में गया, उसके संचालक ने मुझे माँस खिलाने से मना कर दिया। मेरे पूछने पर बोला आज भैस के पड़े का मटन है आप हिन्दू हैं आपको मैं यह कैसे खिला सकता हूँ ।दूसरी घटना दुबई की है, होटल में हम नाश्ता करने गए, मैंने चूकवश बीफ का टुकडा उठाया ही था कि वेटर जो कि पाकिस्तानी था उसने मुझे उसे लेने से रोका बताया यह बीफ है और आप हिन्दू है। इस प्रकार मैं दो बार धर्म च्युत होने से विधर्मियों द्वारा ही बचाया गया। जब हम गौ ह्त्या को रोकने की बात करते है तब हमें इसके आर्थिक पहलु की ओर भी ध्यान देना होगा। गरीब किसान बूढ़े मवेशी जो ना तो दूध देने की क्षमता रखता है और ना मेहनत की, उसको पालने का बोझ नहीं उठा सकता। गौशालाएं भी ऐसे जानवरों की उचित देखभाल नहीं करती और यह पशु आवारा हो सड़कों पर घूमते रहते हैं। आखिर इस समस्या का हल क्या है।  गाय को दुःख देकर हिन्दू गाय का वध करता है; इससे गाय को कौन छुडाता है?महात्मा गांधी की इसी बात में इस समस्या का हल है शायद।

अरुण कुमार डनायक , भोपाल

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #25 – नये चेहरे ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “नये चेहरे”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 25 ☆

☆ नये चेहरे

 लाये हैं  हम तूफान से कस्ती निकाल के

 इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के

पिछली पीढ़ी ने उनके समय में जो श्रेष्ठ हो सकता था किया, किन्तु वर्तमान में देश की राजनीति का नैतिक अधोपतन हुआ है, सारे घपले घोटाले दुनिया में हमें नीचा देखने पर मजबूर कर रहे हैं, हमारी युवा पीढ़ी ने कारपोरेट जगत में, संचार जगत में क्रांति की है, अमेरिका की सिलिकान वैली की प्रत्येक कंपनी भारतीयो के प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान के बिना सफलता पूर्वक नही चलती. बहुराष्ट्रीय कंपनियो में युवाओ ने लाभ के कीर्तिमान स्थापित कर दिखायें हैं. अब बारी राजनीति की है. नये चेहरे ही बदल सकते हैं देश की राजनीति की दिशा ! राजनैतिक निर्णयो का कारपोरेट जगत पर गहरा प्रभाव पड़ता है, न केवल व्यवसायिक लाभ हानि वरन कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व और देश की प्रगति भी इससे प्रभावित होती है अतः सही सोच से टैक्स, निवेश नीतियो आदि को लेकर दूरगामी राजनैतिक निर्णय जरूरी हैं.

किसी धर्म ग्रंथ में कही भी कोई गलत शिक्षा नही दी गई है, किन्तु धार्मिक अंधानुकरण व गलत विवेचना तथा अपने धर्म को दूसरे से श्रेष्ठ बताने की प्रतिस्पर्धा में भारत ही नही सारी दुनिया में सदा से झगड़े फसाद होते रहे हैं, ठीक इसी तरह प्रत्येक राजनैतिक दल का लिखित उद्देश्य आम आदमी के हितकारी कार्य करने का ही होता है, पर उसी पावन उद्देशय की आड़ में जो स्वार्थ की गंदी राजनीति खेली जाती है उससे टेलीकाम घोटाले जैसे विवादास्पद निर्णय लिये जाते हैं, खनन माफिया या भूमि माफिया सरकारी संपत्ति को कौड़ियो में हथिया लेता है.  वोट देने वाले हर बार ठगे जाते हैं. अगले चुनावो में वे चार चेहरो में से फिर किसी दूसरे चेहरे को चुनकर परिवर्तन की उम्मीद करते रह जाते हैं…. लेकिन यदि कार ही खराब हो तो ड्राइवर कोई भी बैठा दिया जावे, कार कमोबेश वैसे ही चलती है. यह हमारे लोकतंत्र की एक कड़वी सचाई है. हमें इन्ही सीमाओ के भीतर व्यवस्था में सुधार करने हैं. अन्ना जैसे नेता जब आमूल चूल संवैधानिक व्यवस्था में परिवर्तन की पहल करते हैं तो, राजनेता तक बाबा आंबेडकर की सोच से उपजी संवैधानिक व्यवस्था में रत्ती भर भी सामयिक परिवर्तन स्वीकार नही कर पाते और येन केन प्रकारेण ऐसे आंदोलन ठप्प कर दिये जाते हैं, क्योकि इस व्यवस्था में राजनेताओ के पास प्याज के छिलकों की तरह चेहरे बदलने की क्षमता है.

ऐसी स्थितियो में भी इतिहास गवाह है कि जब जब युवा, नये नेतृत्व ने झंडा संभाला है, कुछ न कुछ सकारात्मक कार्य हुये हैं. चाहे वह राजीव गांधी द्वारा की गई संचार क्रांति रही हो या क्षेत्रीय दलो के नेतृत्व में हुये राज्य स्तरीय परिवर्तन हो. गुजरात का नाम यदि आज देश के विकसित राज्यो में लिया जाता है तो इसमें नरेंद्र मोदी की नेतृत्व क्षमता का बड़ा हाथ है. हमने अपने नेता में जो अनेक शक्तियां केंद्रित कर रखी हैं उसी का परिणाम है कि राजनीति आज सबसे लोकलुभावन व्यवसाय बन गया है.राजनेताओ के गिर्द जो स्वार्थी उद्योगपतियो, और बाहुबलियो की भीड़ जमा रहती है उसका बड़ा कारण यही सत्ता है. आज शुद्ध सेवा भाव से राजनीति कर रहे नेता अंगुलियो पर गिने जा सकते हैं.

हर सरकार किसानो के नाम पर बजट बनाती है पर जमीनी सच यह है कि आज भी वास्तविक किसान आत्म हत्या करने पर मजबूर हो जाता है.  सरकारी सुविधाओ को लेने के लिये जो मशक्कत करनी पड़ती है उसे देखते हुये लगता है कि यदि किसान स्वयं समर्थ हो तो शायद वह ये सब्सिडी लेना भी पसंद न करे. यही कारण है कि आज सरकारी स्कूलो की अपेक्षा लोग बच्चो को निजी कांवेंट स्कूलो में पढ़ा रहे हैं, सरकारी अस्पतालो की अपेक्षा निजी अस्पतालो में भीड़ है. सरकारें आरक्षण के नाम पर वोटो का ध्रुवीकरण करने और वर्ग विशेष को अपना पिछलग्गू बनाने का प्रयास करती नही थकती पर क्या आरक्षण की ऐसी विवेचना संविधान निर्माताओ की भावना के अनुरूप है ? क्या इससे नये वर्ग संघर्ष को जन्म नही दिया जा रहा ?

मंहगाई सुरसा के मुख की तरह बढ़ रही है, आम आदमी फिर फिर से अपनी बढ़ी हुई चादर में भी अपने पैर सिकोड़ने को मजबूर हो रहा है ! व्यापक दृष्टिकोण से यह हमारे राजनैतिक नेतृत्व की असफलता का द्योतक ही है. राजनेताओ की नैतिकता का स्तर यह है कि बड़े से बड़े आरोप के बाद भी बेशर्मी से पहले तो उसे नकारना, फिर अंतिम संभव क्षण तक कुर्सी से चिपके रहना और अंत में हाइकमान के दबाव में मजबूरी में नैतिकता का आवरण ओढ़कर इस्तीफा देना प्रत्येक राजनैतिक दल में बहुत आम व्यवहार बन चुका है. राजनेताओ के एक गलत निर्णय से पीढ़ीयां तक प्रभावित होती है. मुफ्त बिजली, कब्जाधारी को जमीन का पट्टा, अस्थाई सेवाकर्मियो को नियमित किया जाना आदि ऐसे ही कुछ विवादस्पद निर्णय थे जो ९० के दशक में लिये गए थे, उन्होने जनता की तात्कालिक वाहवाही लूटी, चुनाव भी जीते उनकी देखादेखी अन्य राज्यो में भी यही सब दोहराया गया. इसकी अंतिम परिणिति क्या है ? देश में अराजकता का माहौल विकसित हुआ. आज बिजली क्षेत्र की कमर टूटी हुई है जिसे पटरी में लाने के लिये देश को विदेशी बैंको से अरबो का कर्जा लेना पड़ रहा है.

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में युवा चेहरो की जीत से आशा है कि राजनीति की दिशा बदलेगी. क्या होगा यह तो समय ही बतायेगा, पर आशा से संसार टिका है, और मै सदा से युवाओ के आक्रोश का पक्षधर रही हूँ.  नई कोंपलें फूट चुकी हैं, देखे कि कितनी हरियाली आती है.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 18 – पंचमुखी हनुमान ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “पंचमुखी हनुमान ।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 18 ☆

☆ पंचमुखी हनुमान

 

मकरध्वज ने भगवान हनुमान से कहा कि महल में प्रवेश करने से पहले उन्हें उससे लड़ना होगा। क्योंकि वह अपने स्वामी अहिरावण के साथ छल नहीं कर सकता है, और सेवक धर्म का पालन करने के लिए अपने पिता का सामना करने के लिए भी तैयार है। मकरध्वज की भक्ति और वचनबद्धता को देखकर, भगवान हनुमान खुश हुए और उसे आशीर्वाद दिया । उसके बाद भगवान हुनमान और मकरध्वज के बीच संग्राम हुआ जिसमे भगवान हनुमान विजयी हुए । उसके बाद उन्होंने मकरध्वज को बंदी बना दिया और भगवान राम और लक्ष्मण की खोज में महल में प्रवेश किया ।

वहाँ पर भगवान हनुमान चन्द्रसेना (अर्थ : चंद्रमा की सेना) से मिले, जिन्होंने उन्हें बताया कि अहिरावण को मारने का एकमात्र तरीका पाँच अलग-अलग दिशाओं में जलते दीपकों को एक ही फूँक से बुझाना है । ऐसा करने के लिए भगवान हनुमान ने पाँच चेहरों के साथ पंचमुखी हनुमान का रूप धारण किया, जो घरेलू प्रार्थनाओं के लिए बहुत शुभ है ।

भगवान हनुमान ने अपने मूल चेहरे के अतरिक्त वरहा, गरुड़, नृसिंह और हयग्रीव चेहरे चार दिशाओं में निकाले और इस प्रकार उनके पाँच दीपक एक साथ बुझाने के लिए पाँच चेहरे दिखाई देने लगे। भगवान हनुमान का मूल चेहरा पूर्व दिशा में था, वरहा उत्तर दिशा, गरुड़ पश्चिम दिशा नृसिंह दक्षिण दिशा में, और हयग्रीव वाला चेहरा ऊपर की ओर को था ।

इन पाँच चेहरों का बहुत महत्व है। भगवान हनुमान का मूल चेहरा जो पूर्वी दिशा में है, पाप के सभी दोषों को दूर करता है और मन की शुद्धता प्रदान करता है। नृसिंह का चेहरा दुश्मनों के डर को दूर करता है और जीत प्रदान करता है। गरुड़ का चेहरा बुराई के मंत्र, काले जादू प्रभाव, और नकारात्मक आत्माओं को दूर करता है; और किसी के शरीर में उपस्थित सभी जहरीले प्रभावों को हटा देता है। वरहा का चेहरा ग्रहों के बुरे प्रभावों के कारण परेशानियों से गुजरते व्यक्तियों को आराम प्रदान करता है, और सभी आठ प्रकार की समृद्धि (अष्ट ऐश्वर्य) प्रदान करता है। ऊपर की ओर हयग्रीव का चेहरा ज्ञान, विजय, अच्छी पत्नी और संतान को प्रदान करता है ।

भगवान हनुमान के इस रूप (पाँच मुखों वाले हनुमान) का वर्णन पराशर संहिता (ऋषि पराशर द्वारा लिखित एक अगामा पाठ) में भी किया गया है। भगवान हनुमान का यह रूप बहुत लोकप्रिय है और पंचमुखी मुखा अंजनेय (पाँच चेहरों के साथ अंजना का पुत्र) भी कहा जाता है । इन चेहरों से पता चलता है कि दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जो इन पाँच में से किसी ना किसी चेहरे के प्रभाव के तहत नहीं आता है, और जो सभी भक्तों के लिए सुरक्षा प्रदान करता है । ये पाँच चेहरे उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और ऊपर की दिशा पर सतर्कता और नियंत्रण का प्रतीक है ।

प्रार्थना के पाँच रूप, नमन, स्मरण,कीर्तन, यचनाम और अर्पण के पाँच तरीके हैं। पाँच चेहरे इन पाँच रूपों को दर्शाते हैं ।

पाँच चेहरे प्रकृति के निर्माण के पाँच तत्वों के अनुसार भी हैं। गरुड़ अंतरिक्ष को दर्शाता है, भगवान हनुमान ने वायु को इंगित किया है, नृसिंह अग्नि को दर्शाता है, हयग्रीव पानी को दर्शाता है, और वरहा पृथ्वी तत्व को दर्शाता है ।

इसी तरह पाँच चेहरे मानव शरीर के पाँच महत्वपूर्ण वायु या प्राणों को भी दर्शाते हैं। गरुड़ उदान के रूप में, भगवान हनुमान प्राण के रूप में, नृसिंह समान के रूप में, हयग्रीव व्यान और वरहा अपान के रूप में ।

तो इस पंचमुखी रूप में, भगवान हनुमान एक ही समय में सभी पाँच दीपक बुझाने में सक्षम हुए। उसके बाद उन्होंने चाकू के एक तेज झटके के साथ अहिरावण को मार दिया। भगवान हनुमान अंततः भगवान राम और लक्ष्मण को बचाकर, अहिरावण को मारने और विभीषण को दिए गए वचन को पूरा करने में सफल हुए ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 25 ☆ स्मित रेखा और संधि पत्र ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “स्मित रेखा और संधि पत्र ”.   जयशंकर प्रसाद जी की कालजयी रचना  ‘कामायनी ‘ की  चार पंक्तियों को सुप्रसिद्ध कवि कुमार  विश्वास जी के विडिओ पर सुनकर  डॉ मुक्त जी द्वारा इस सम्पूर्ण आलेख की रचना कर  दी गई ।  कामायनी की चार पंक्तियों पर नारी  की संवेदनाओं पर संवेदनशील रचना डॉ मुक्त जैसी संवेदनशील रचनाकार ही ऐसा आलेख रच सकती हैं।  मैं निःशब्द हूँ और इस ‘निःशब्द ‘ शब्द की पृष्ठभूमि को संवेदनशील और प्रबुद्ध पाठक निश्चय ही पढ़ सकते हैं. डॉ मुक्त जी की कलम को सदर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 25 ☆

☆ स्मित रेखा और संधि पत्र 

‘आंसू से भीगे अंचल पर

मन का सब कुछ रखना होगा

तुझको अपनी स्मित रेखा से

यह संधि पत्र लिखना होगा’

कामायनी की इन चार पंक्तियों में नारी जीवन की दशा-दिशा और उसके जीवन का यथार्थ परिलक्षित है। प्रसाद जी ने नारी के दु:खों की अनुभूति की तथा उसे,अपने दु:ख,पीड़ा व कष्टों को आंसुओं रूपी आंचल में समेट कर, मुस्कुराते हुए संधि-पत्र लिखने का संदेश दिया। यह संधि-पत्र एक-तरफ़ा समझौता है अर्थात् विषम परिस्थितियों का मुस्कराते हुए सामना करना… इस ओर संकेत करता है, क्योंकि उसे सहना है, कहना नहीं। यह सीख दी है, बरसों पहले प्रसाद जी ने, कामायनी की नायिका श्रद्धा को…कि उसे मन में उठ रहे ज्वार को आंसुओं के जल से प्रक्षालित करना होगा और अपनी पीड़ा को आंचल में समेट कर समझौता करना होगा।

आज कामायनी के चार पद, जिन्हें कुमार विश्वास ने वाणी दी है, उस वीडियो को देख-सुनकर हृदय विकल-उद्वेलित हो उठा। मैं अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पायी और मेरी लेखनी, नारी जीवन की त्रासदी को शब्दों में उकेरने को विवश हो गई। एक प्रश्न मन में कुनमुनाता है कि जब से सृष्टि का निर्माण हुआ है, उसे मौन रहने का संदेश दिया गया है…दर्द को आंसुओं के भीगे आंचल में छुपा कर, मुस्कराते हुए जीने की प्रेरणा दी गई है…क्या यह उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं है?शायद! यह कुठाराघात है उसकी संवेदनाओं पर… समझ नहीं पाता मन… आखिर हर कसूर के लिए वह ही क्यों प्रताड़ित होती है और अपराधिनी समझी जाती है…हर उस अपराध के लिए, जो उसने किया ही नहीं। प्रश्न उठता है, जब कोर्ट-कचहरी में हर मुजरिम को अपना पक्ष रखने का अवसर-अधिकार प्रदान किया जाता है, तो नारी इस अधिकार से वंचित क्यों?

चौंकिए नहीं! यह तो हमारे पूर्वजों की धरोहर है, जिसे आज तक प्रतिपक्ष ने संभाल कर रखा हुआ है और उसकी अनुपालना भी आज तक बखूबी की जा रही है। ‘क्या कहती हो ठहरो! नारी/संकल्प अश्रुजल से अपने/तुम दान कर चुकी पहले ही/ जीवन के सोने से सपने’ द्वारा नारी को आग़ाह किया गया है कि वह तो अपने स्वर्णिम सपनों को पहले ही दान कर चुकी है अर्थात् होम कर चुकी है। अब उसका अपना कुछ है ही नहीं,क्योंकि दान की गयी वस्तु पर प्रदाता का अधिकार उसी पल समाप्त हो जाता है। स्मरण रहे, उसने तो अपने आंसुओं रूपी जल को अंजलि में भर कर संकल्प लिया था और अपना सर्वस्व उसके हित समर्पित कर दिया था।

सो! नारी, तुम केवल श्रद्धा व विश्वास की प्रतिमूर्ति हो और तुम्हें जीवन को समतल रूप प्रदान करने हेतु  पीयूष-स्त्रोत अर्थात् अमृत धारा सम बहना  होगा। युद्ध देवों का हो या दानवों का, उसके अंतर्मन में सदैव संघर्ष बना रहता है…परिस्थितियां कभी भी उसके अनुकूल नहीं रहतीं और पराजित भी सदैव नारी ही होती है। युद्ध का परिणाम भी कभी नारी के पक्ष में नहीं रहता। इसलिए नारी को अपने अंतर्मन के भावों पर अंकुश रख, आंसुओं रूपी रूपी जल से उस धधकती ज्वाला को शांत करना होगा तथा उसे अपनी मुस्कान से जीवन में समझौता करना होगा। यही है नारी जीवन का कटु यथार्थ है…कि उसे नील- कंठ की भांति हंसते-हंसते विष का अआचमन करना ही होगा… यही है उसकी नियति। सतयुग से लेकर आज तक इस परंपरा को बखूबी सहेज-संजो- कर रखा गया है, इसमें तनिक भी बदलाव नहीं आ पाया। नारी कल भी पीड़ित थी, आज भी है और कल भी रहेगी। जन्म लेने के पश्चात् वह पिता व भाई के सुरक्षा-घेरे में रहती है और विवाहोपरांत पति व उसके परिवारजनों के अंकुश में, जहां असंख्य नेत्र सी•सी•टी•वी• कैमरे की भांति उसके इर्दगिर्द घूमते रहते हैं और उसकी हर गतिविधि उन में कैद होती रहती है।

दुर्भाग्यवश न तो पिता का घर उसका अपना होता है, न ही पति का घर… वह तो सदैव पराई समझी जाती है। इतना ही नहीं, कभी वह कम दहेज लाने के लिए प्रताड़ित की जाती है, तो कभी वंश चलाने के लिए, पुत्र न दे पाने के कारण उस पर बांझ होने का लांछन लगा कर, उसे घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है।जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचने पर, केवल चेहरा बदल जाता है, नियति नहीं। हां! पिता और पति का स्थान पुत्र संभाल लेता है और उसका भाग्य-विधाता बन बैठता है। उस स्थिति में उसे केवल पुत्र का नहीं, पुत्रवधु का भी मुख देखना पड़ता है, क्योंकि अब उसकी ज़िन्दगी की डोर दो-दो मालिकों के हाथ में आ जाती है।

आश्चर्य होता है, यह देख कर कि मृत्योपरांत उसे पति के घर का दो गज़ कफ़न भी नसीब नहीं होता, वह भी उसके मायके से आता है और भोज का प्रबंध भी उनके द्वारा ही किया जाता है। अजीब दास्तान है… उसकी ज़िन्दगी की, जिस घर से उसकी डोली उठती है, वहां लौटने का हक़ उससे उसी पल छिन जाता है, और जिस घर से अर्थी उठती है, उस घर के लिए वह सदा ही पराई समझी जाती थी। उसका तो घर होता ही कहां है…इसी उधेड़बुन व असमंजस में वह पूरी उम्र गुज़ार देती है। प्रश्न उठता है,आखिर संविधान द्वारा उसे समानता का दर्जा क्यों प्रदत नहीं? अधिकार तो पुरूष के भाग्य में लिखे गये हैं और स्त्री को मात्र कर्त्तव्यों  की फेहरिस्त थमा दी जाती है…आखिर क्यों? जब परमात्मा ने सबको समान बनाया है तो उससे दोयम दर्जे का व्यवहार क्यों? यह प्रश्न बार-बार अंतर्मन को कचोटते हैं… हां!यदि अधिकार मांगने से न मिलें,तो उन्हें छीन लेने में कोई बुराई नहीं।श्रीमद्भगवत् गीता में भी अन्याय करने वाले से अन्याय सहन करने वाले को अधिक दोषी ठहराया गया है।

शायद! नारी की सुप्त चेतना जाग्रत हुई होगी और उसने समानाधिकर की मांग करने का साहस जुटाया होगा। सो!कानून द्वारा उसे अधिकार प्राप्त भी हुए, परंतु वे सब कागज़ की फाइलों तले दब कर रह गये। नारी शिक्षित हो या अशिक्षित, उसकी धुरी सदैव घर- गृहस्थी के चारों ओर घूमती रहती है।दोनों की नियति एक समान होती है। उनकी तक़दीर में तनिक भी अंतर नहीं होता। वे सदैव प्रश्नों के घेरे में रहती हैं। पुरूष का व्यवहार औरत के प्रति सदैव कठोर ही रहा है, भले ही वह नौकरी द्वारा उसके बराबर वेतन क्यों न प्राप्त करती हो? परंतु परिवार के प्रति समस्त दायित्वों के वहन की अपेक्षा उससे ही की जाती है। यदि वह किसी कारणवश उनकी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती, तो उस पर आक्षेप लगाकर, असंख्य ज़ुल्म ढाये जाते हैं। सो!उसे पति व परिजनों के आदेशों की अनुपालना सहर्ष करनी पड़ती है।

हां!वर्षों तक पति के अंकुश व उसके न खुश रहने के पश्चात् उसके हृदय का आक्रोश फूट निकलता है और वह प्रतिकार व प्रतिशोध की राह पर पर चल पड़ती है। उसने लड़कों की भांति जींस कल्चर को अपना कर, क्लबों में नाचना गाना, हेलो हाय करना, सिगरेट व मदिरापान करना, ससुराल-जनों को अकारण जेल के पीछे पहुंचाना, उसके शौक बन कर रह गए हैं। विवाह के बंधनों को नकार, वह लिव-इन की राह पर चल पड़ी है, जिसके भयंकर परिणाम उसे आजीवन झेलने पड़ते हैं।

‘तुमको अपनी स्मित-रेखा से/ यह संधि पत्र लिखना होगा।’ यह पंक्तियां समसामयिक व सामाजिक हैं, जो कल भी सार्थक थीं,आज भी हैं और कल भी रहेंगी। परंतु नारी को पूर्ण समर्पण करना होगा, प्रतिपक्ष की बातों को हंसते-हंसते स्वीकारना होगा…यही ज़िन्दगी की शर्त है। वैसे भी अक्सर महिलाएं,बच्चों की खुशी व परिवार की मान-मर्यादा के लिए अपने सुखों को तिलांजलि दे देती हैं… अपने मान-सम्मान व प्रतिष्ठा के लिए अपने सुखों को तिलांजलि दे देती हैं। अपनी अस्मिता व प्रतिष्ठा को दांव पर लगाकर, शतरंज का मोहरा बन जाती हैं। कई बार अपने परिवार की खुशियों व सलामती के लिए अपनी अस्मत का सौदा तक करने को विवश हो जाती हैं, ताकि उनके परिवार पर कोई आंच ना आ पाए। इतना ही नहीं, वे  बंधुआ मज़दूर तक बनना स्वीकार लेती हैं, परंतु उफ़् तक नहीं करतीं। आजकल अपहरण व दुष्कर्म के किस्से आम हो गए हैं…दोष चाहे किसी का हो, अपराधिनी तो वह ही कहलाती है।

‘ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है

इच्छा क्यों पूरी हो मन की

एक दूसरे से मिल ना सके

यह विडंबना है जीवन की।’

कामायनी की अंतिम पंक्तियां मन की इच्छा-पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म के समन्वय को दर्शाती हैं। इनका विपरीत दिशा की ओर अग्रसर होना, जीवन की विडम्बना है… दु:ख व अशांति का कारण है। सो! समन्वय व सामंजस्यता से समरसता आती है, जो अलौकिक आनंद-प्रदाता है।इसके लिए निजी स्वार्थों के त्याग करने की दरक़ार है, इसके द्वारा ही हम परहितार्थ हंसते-हंसते समझौता करने की स्थिति में होंगे और पारिवारिक व सामाजिक सौहार्द बना रहेगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सत्कर्म ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  सत्कर्म

 

कई वर्ष पहले की बात है। इंटरनेट सर्चिंग या अंतरजाल खोज के क्षेत्र में नया था। रक्षाबंधन पर एक प्रोजेक्ट कर रहा था। राखी की विभिन्न डिज़ाइनों की कुछ तस्वीरों के लिए इंटरनेट पर ‘राखी’ शब्द डाला और परिणाम देखकर अवाक हो गया। उन दिनों फिल्मों में आइटम साँग करने वाली इसी नाम की एक अभिनेत्री की तस्वीरें धड़ाधड़ स्क्रिन पर आने लगी थीं। इच्छित की समुचित खोज के लिए सही शब्दों के प्रयोग और तरीके से मैं तब तक अनजान था। एक बात और जानी कि सर्वाधिक सर्च किये शब्द या चित्र उसी अनुक्रम में इंटरनेट दिखाता है।

‘राखी’ का प्रकरण मज़ाक में ही आया-गया हुआ। इस मज़ाक को भीतर तक चीर  देनेवाला चाकू कल उस समय लगा,  जब ऑनलाइन कुछ टाइप कर रहा था। अपने कथ्य में किसी संदर्भ में ‘सामूहिक’ शब्द टाइप किया। सामूहिक के साथ ही स्क्रिन पर ‘दुष्कर्म’ शब्द झलकने लगा। ‘सर्वाधिक सर्च किये शब्द उसी अनुक्रम में इंटरनेट दिखाता है’, का नियम याद आया और सिर पर मानो हथौड़ा चल पड़ा। अंगुलियाँ रुक गईं, टाइपिंग थम गई पर सर्वाधिक सर्च हुआ शब्द निरंतर, अबाध  मेरा पीछा करता रहा।

क्या हो गया है हमारी सामुदायिक और सामूहिक चेतना को? मनुष्य का चोला पहने  रंगे सियारों ने मनुष्यता को कलंकित करने की मुहिम छेड़ रखी है। इस मुहिम के विरुद्ध लम्बी सकारात्मक रेखा हम कब खींच पाएँगे? क्या सामुदायिक बोध से उपजा हमारा सामूहिक प्रयास क्या इस ‘दुष्कर्म’ को पीछे ठेलकर ‘सत्कर्म’ को सर्वाधिक सर्च किया जानेवाला शब्द बना पाएगा?

आज ‘सत्कर्म’ सर्च करें।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

17 नवम्बर 2019, रात्रि 3.40 बजे।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 4 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 4 – हिन्द स्वराज से  ☆ 

 

हिन्दू अहिंसक है मुसलमान हिंसक है। इस प्रश्न का उत्तर महात्मा गांधी देते हुए हिन्द स्वराज में लिखते हैं कि हिन्दू अहिंसक और मुसलमान हिंसक है, यह बात अगर सही हो तो अहिंसक का धर्म क्या है? अहिंसक को आदमी की हिंसा करनी चाहिए, ऐसा कहीं लिखा नहीं है। अहिंसक के लिए तो राह सीधी है। उसे एक को बचाने के लिए दूसरे की हिंसा करनी ही नहीं चाहिए। उसे तो मात्र चरण वंदना करनी चाहिए, सिर्फ समझाने का काम करना चाहिए। इसी में उसका पुरुषार्थ है।

लेकिन क्या तमाम हिन्दू अहिंसक हैं? सवाल की जड़ में जाकर मालुम होता है कि कोई भी अहिंसक नहीं है, क्योंकि जीवों को तो हम मारते ही हैं। लेकिन इस हिंसा से हम छूटना चाहते हैं, इसलिए अहिंसक (कहलाते) हैं। साधारण विचार करने से मालुम होता है कि बहुत से हिन्दू मांस खाने वाले हैं, इसलिए वे अहिंसक नहीं माने जा सकते। खींच-तानकर दूसरा अर्थ कहना हो तो मुझे कुछ कहना नहीं है जब ऐसी हालत है तो मुसलमान हिंसक और हिन्दू अहिंसक है इसलिये दोनों की नहीं बनेगी यह सोचना बिलकुल गलत है।

ऐसे विचार स्वार्थी धर्म शिक्षकों, शास्त्रियों और मुल्लाओं ने हमें दिए हैं और इसमें जो कमी रह गई थी उसे अंग्रेजों ने पूरा किया है। उन्हें इतिहास लिखने की आदत है; हरेक जाति के रीति रिवाज जानने का वे दम्भ करते हैं। ईश्वर ने हमारा मन तो छोटा बनाया है फिर भी वे ईश्वरी दावा करते आये हैं और तरह तरह के प्रयोग करते हैं। वे अपने बाजे खुद बजाते हैं और हमारे मन में अपनी बात सही होने का विश्वास जमाते हैं। हम भोलेपन में उस सबपर भरोसा कर लेते हैं।

जो टेढा नहीं देखना चाहते वे देख सकेंगे कि कुरआन शरीफ में ऐसे सैकड़ो वचन हैं, जो हिन्दुओं को मान्य हों;भगवद्गीता में ऐसी बातें लिखी हैं कि जिनके खिलाफ मुसलमान को कोई भी ऐतराज नहीं हो सकता। कुरआन शरीफ का कुछ भाग मैं न समझ पाऊं या कुछ भाग मुझे पसंद न आये, इस वजह से क्या मैं उसे माननेवाले से नफरत करूँ? झगडा दो से ही हो सकता है। मुझे झगडा नहीं करना हो, तो मुसलमान क्या करेगा? हवा में हाथ उठानेवाले का हाथ उखड जाता है। सब अपने-अपने धर्म का स्वरुप समझकर उससे चिपके रहें और  शास्त्रियों व मुल्लाओं को बीच में न आने दें, तो झगडे का मुह हमेशा के लिए काला ही रहेगा।

मेरी टिप्पणी :-  महात्मा जी की हिंसा को लेकर कही गई उपरोक्त बातें आज भी कितनी सार्थक है।  अभी जब आये दिन माब लीचिंग की घटनाएं बढ़ रही हैं, प्रेमी युगलों की आनर किलिंग के नाम पर हत्याएं हो रही हैं, स्त्रियों पर बलातकार हो रहे हैं,  तब अँधेरे में रोशनी की किरण के रूप में गांधीजी द्वारा १९०९ में लन्दन से वापिस दक्षिण अफ्रीका जाते हुए जहाज में लिखी गई यह पुस्तक है। गांधीजी द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म की बात करते हैं वे हिंसा की जगह आत्मबलिदान को प्रमुखता देते हैं। अहिंसा को लेकर वे दुराग्रही भी नहीं है। हमारे देश में अहिंसा का सर्वाधिक दृढ़ स्वरुप जैन धर्म में दिखाई देता है।गांधीजी की अहिंसा वैसी न थी।बालिका इंदिरा ने एक बार उनसे पूंछा के क्या मैं अंडे खा सकती हूँ गांधीजी ने जबाब दिया हाँ अगर तुम्हारे घर में लोग खाते हैं तो तुम भी खा सकती हो। जीव ह्त्या को लेकर वे हिन्दुओं पर जितने सख्त थे व बलि प्रथा का जितना विरोध वे करते थे उतना उन्होंने शायद मुसलामानों में कुर्बानी प्रथा का नहीं किया। शायद वे मानते होंगे कि पहले हिन्दुओं में सुधार हो फिर मुसलमान सुधर जायेंगे। वे धार्मिक कट्टरता और वैर भाव जगाने का  दोषी शास्त्री और मौलवी को मानते हैं, आज के परिप्रेक्ष्य में उनकी यह बात कितनी सही है हम सब महसूस करते हैं।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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