हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – रजत जयंती वर्ष विशेष – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(आज हम संजय दृष्टि के अंतर्गत श्री संजय भारद्वाज जी का  हिंदी आंदोलन परिवार की रजत जयंती पर विशेष आलेख प्रस्तुत करना चाहेंगे.  आखिर संजय दृष्टि ने कभी तो इस पर्व की कल्पना की होगी. अतः आप सबको समर्पित श्री संजय भारद्वाज जी का यह विशेष आलेख .)   

 

☆ संजय दृष्टि  – रजत जयंती वर्ष विशेष ☆

स्मृतिपटल पर है एक तारीख़, 30 सितम्बर 1995.., हिंदी आंदोलन परिवार की पहली गोष्ठी। पच्चीस वर्ष बाद आज 30 सितम्बर 2019..। कब सोचा था कि इतनी महत्वपूर्ण तारीख़ बन जायेगी 30 सितम्बर!
हर वर्ष 30 सितम्बर को स्मृतिमंजुषा एक नवीन स्मृति सम्मुख रख देती है। आज किसी स्मृति विशेष की चर्चा नहीं करूँगा।..हाँ इतना अवश्य है कि जब संस्था जन्म ले रही थी और सपने धरती पर उतरना चाह रहे थे तो राय मिलती थी कि अहिंदीभाषी क्षेत्र में हिंदी आंदोलन, रेगिस्तान में मृगतृष्णा सिद्ध होगा। आँख को सपनों की सृष्टि पर भरोसा था और सपनों को आँख की दृष्टि पर। आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो अमृता प्रीतम याद आती हैं। अमृता ने लिखा था, ‘रेगिस्तान में लोग धूप से चमकती रेत को पानी समझकर दौड़ते हैं। भुलावा खाते हैं, तड़पते हैं। लोग कहते हैं, रेत रेत है, पानी नहीं बन सकती और कुछ सयाने लोग उस रेत को पानी समझने की गलती नहीं करती। वे लोग सयाने होंगे पर मेरा कहना है, जो लोग रेत को पानी समझने की गलती नहीं करते, उनकी प्यास में ज़रूर कोई कसर होगी।’
हिंआप की प्यास सच्ची थी, इतनी सच्ची कि जहाँ कहीं हिंआप ने कदम बढ़ाए, पानी के सोते फूट पड़े।
हिंआप की यह यात्रा समर्पित है प्रत्यक्ष, परोक्ष कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों विशेषकर कार्यकारिणी के सदस्यों और हितैषियों को। हर उस व्यक्ति को जो चाहे एक इंच ही साथ चला पर यात्रा की अनवरतता बनाए रखी। यह आप मित्रों की ही शक्ति और विश्वास था कि हिंआप इस क्षेत्र में कार्यरत सर्वाधिक सक्रिय संस्था के रूप में उभर सका।
हिंदी आंदोलन परिवार के रजतजयंती प्रवेश के इस अवसर पर वरिष्ठ लेखिका वीनु जमुआर जी ने एक साक्षात्कार लिया है। आज के महापर्व को मान देकर ‘ई-अभिव्यक्ति’ ने भी इसे सचित्र प्रकाशित किया है। इसका लिंक संलग्न है। गत सप्ताह ‘आसरा मुक्तांगन’ के नवीन अंक में भी यह साक्षात्कार छपा था। सुविधा के लिए प्लेन टेक्स्ट प्रारूप में भी इसे संलग्न किया जा रहा है। इसे पढ़ियेगा, पहली से 238वीं गोष्ठी की हिंआप की यात्रा को संक्षेप में जानियेगा और संभव हो तो अपनी बात भी अवश्य कहियेगा।
अंत में एक बात और, दुष्यंत कुमार का एक कालजयी शेर है-
कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो…!
सिर झुकाकर कहना चाहता हूँ कि-  पच्चीस वर्ष पहले तबीयत से उछाला गया एक पत्थर, आसमान में छोटा-सा ही सही , छेद तो कर चुका।..
 *उबूंटू!* 
संजय भारद्वाज
संस्थापक-अध्यक्ष, 
हिंदी आंदोलन परिवार

 

☆ संस्थापक-अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – नवरात्रि विशेष – ☆ नवरात्रि – एक तथ्यात्मक विवेचना ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “नवरात्रि  – एक तथ्यात्मक विवेचना”।  यह आलेख उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक  का एक महत्वपूर्ण  अंश है। इस आलेख में आप  नवरात्रि के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।  आप पाएंगे  कि  कई जानकारियां ऐसी भी हैं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं।  श्री आशीष कुमार जी ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक रूप से शोध कर इस आलेख एवं पुस्तक की रचना की है तथा हमारे पाठको से  जानकारी साझा  जिसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। )

 

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☆ नवरात्रि – एक तथ्यात्मक विवेचना

 

हम दिव्य शक्ति को कई संभावित तरीके से प्रस्तुत कर सकते हैं जितनी भी हमारी चेतना हमें अनुमति देगी। मैंने आपको कुछ विशेष दिनों और रातों के विषय में पहले ही बताया है। उसी क्रम में एक वर्ष में चार बार हमारी पृथ्वी पर ऊर्जा का अनुक्रम आता है, यह लगातार नौ दिनों तक इतना खास समय होता है कि उन विशेष दिनों में किए गए हर कार्य के अच्छे परिणाम मिलते हैं।आपको अवश्य ही दो सामान्य नवरात्रि के विषय में एक वसंत नवरात्रि, जिसे चैत्र के चंद्र महीने (सर्दियों के बाद, मार्च-अप्रैल) में मनाया जाता है। भारत के कई क्षेत्रों में यह त्यौहार वसंत की फसल काटने के बाद और अन्यो में फसल के दौरान ही पड़ता है। वसंत नवरात्रि के नौवें दिन भगवान राम के जन्म के रूप में मनाया जाता है और उसे राम नवमी कहा जाता है।

दूसरे, शरद नवरात्रि है।आपको ज्ञात नहीं होगा की एक जीव अपने एक जीवन काल में दस महाविद्याओं में से केवल एक को ही सिद्ध करके उस एक देवी की सारी शक्तियाँ प्राप्त कर सकता है। परन्तु केवल रावण ही एक ऐसा जीवनधारी हुआ है जिसने अपने दस मुखों से एक साथ दस महाविद्याओं के मंत्रो का जाप करके उन्हें सिद्ध किया था। इसलिए रावण के पास दस की दस महाविद्याओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ थी। भगवान राम इससे अवगत थे इसलिए युद्ध के समय भगवान राम ने देवी का नौ दिन रातों तक व्रत किया था। व्रत की पहली रात्रि ही देवी माँ ने स्वयँ प्रकट होकर भगवान राम को आशीर्वाद दिया की इसी पल से उनकी दस महाविद्याओं की शक्तियाँ रावण उपयोग नहीं कर पायेगा। और हुआ भी वो ही। अगर रावण के पास से दस महाविद्याओं की शक्तियाँ विलुप्त ना होती तो उसे हराना असंभव था। तभी से भगवान राम द्वारा ही शरद नवरात्रि का व्रत आरम्भ हुआ।

ये दो नवरात्रि वसंत और शरद ऋतु के मौसम में पड़ते हैं जिसमें वर्ष के बाकी दिनों की तुलना में बीमारियां अधिक होती हैं। धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व के अतिरिक्त, लोग इन दो नवरात्रियों के दौरान शरीर और मस्तिष्क को साफ करने और देवी की कृपा से रोगों को रोकने के लिए नौ दिन उपवास रखते हैं।

लेकिन तीन और ना कि केवल दो और नवरात्रि भी होते हैं। कुछ लोगों को वर्ष में देवी पूजा के दो और नौ दिनों के विषय में ज्ञात है जिन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं। इन दो गुप्त नवरात्रियों में आम तौर पर आम गृहस्थ आश्रम के सदस्यों के द्वारा पूजा की अनुमति नहीं होती है, लेकिन इन दिनों तांत्रिकों द्वारा गुप्त रूप से दस महाविद्याओं की पूजा की जाती है। इन दो गुप्त नवरात्रियों में से एक माघ माह (जनवरी – फरवरी) में आती हैं सर्दी के मौसम में। इस गुप्त नवरात्री के नौ दिनों में से उत्सव का पाँचवा दिन अक्सर स्वतंत्र रूप से वसंत पंचमी या बसंत पंचमी के रूप में मनाया जाता है, जो हिन्दू परंपरा में वसंत की आधिकारिक शुरुआत है, जिसमें देवी सरस्वती जो की कला, संगीत, लेखन अदि की देवी है का स्वागत पतंग उड़ाने के माध्यम से किया जाता है। कुछ क्षेत्रों में, वसंत पंचमी को प्यार के हिंदू देवता, ‘कामदेव’ के दिन के रूप में भी मनाते हैं। दूसरी गुप्त नवरात्री मानसून के मौसम की शुरुआत में आषाढ़ माह (जून-जुलाई) में आती है।

लेकिन दुनिया में बहुत कम लोग ही पाँचवीं नवरात्रि ‘महा गुप्त नवरात्रि’ के नौ दिनों के विषय में अवगत हैं, जिनके आने के समय की गणना महान ज्योतिषियों द्वारा करना भी बहुत कठिन है। उस ‘महा गुप्त नवरात्रि’ के समय हमारे सौरमंडल से और अस्तित्व के अन्य क्षेत्र से पृथ्वी पर सचमुच में बहुत ज्यादा सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। यह ‘महा गुप्त नवरात्रि’ के नौ दिन असल में एक साथ आने की जगह खंडों या भागों में आते हैं। आप समझ सकते हैं कि यह ‘महा गुप्त नवरात्रि’ वह समय है जब हमारे ब्रह्मांड में दैवीय इच्छा के साथ कुछ बड़ा परिवर्तन होने जा रहा होता है। यह भी जरूरी नहीं है एक ये ‘महा गुप्त नवरात्रि’ हमारे वर्षों के मानकों के अनुसार प्रत्येक वर्ष आये। यह वह समय है जब अनंत शक्ति का दिव्य पुरुष (पुरुष देवताएवं भगवान) रूप भी ब्रह्मांड के स्त्री पहलू की पूजा करता है।

आशीष ने कहा, “क्या बात है सर, मैंने इस पाँचवें नवरात्रि के विषय में कभी नहीं सुना है। महोदय, कृपया मुझे यह भी बताएं कि लोग देवताओं और देवियों के स्वरूप के विषय में जो बताते हैं क्या वे सही हैं? अर्थात स्वर्ग में रहने रहने वाले बहुत सारे देवता और देवी हैं, जिनमे से कुछ के चार सिर हैं, कुछ के बहुत सारे हाथ हैं आदि?”

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #17 – कोशिश करने वालों की हार नहीं ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “कोशिश करने वालों की हार नहीं ” ।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 18 ☆

 

☆ कोशिश करने वालों की हार नहीं ☆

 

व्यक्ति द्वारा जीवन मे प्रतिपादित कर्म ही उसकी पहचान बनते हैं. अपना जीवन लक्ष्य निर्धारित कर उस दिशा में बढ़ना आवश्यक है,अंततोगत्वा सफलता मिलना सुनिश्चित है. असफलता केवल इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि प्रयत्न पूरे मनोयोग से सही दिशा में नहीं किया गया है.प्रयासों में असफलता, सफलता के मार्ग का एक पड़ाव मात्र है. जो मार्ग में ही थककर, लौट जाते हैँ या राह बदल लेते है, व जीवन के संघर्ष में असफल होते हैं. उनका व्यक्तित्व पलायनवादी बन जाता है.प्रत्येक कार्य में उनकी असफलता दृष्टिगत होती है.सफल व्यक्ति सेवा करता है असफल व्यक्ति सेवा करवाता है। सफल व्यक्ति के पास समाधान होता है असफल व्यक्ति के पास समस्या। सफल व्यक्ति के पास एक कार्यक्रम होता है असफल व्यक्ति के पास एक बहाना। सफल व्यक्ति कहता है यह काम मैं करुँगा असफल व्यक्ति कहता है यह काम मेरा नहीं है।

सफल व्यक्ति समस्या में समाधान देखता है असफल व्यक्ति समाधान में समस्या ढ़ूँढ़ निकालता  है। सफल व्यक्ति कहता है यह काम कठिन है लेकिन संभव है असफल व्यक्ति कहता है यह काम असंभव है। सफल व्यक्ति समय का पूर्ण सदुपयोग करता है असफल व्यक्ति समय का व्यर्थ कामों में दुरुपयोग करता है। सफल व्यक्ति हर वस्तु सही स्थान पर रखता है असफल व्यक्ति हर वस्तु बेतरतीब रखता है। सफल व्यक्ति परिवार और समाज को धर्म एवं सेवा के कार्यो से जोड़ता है असफल व्यक्ति धर्म एवं सेवा कार्यो से स्वयं भी भागता है और परिवार, समाज को तोड़ता है । सफल व्यक्ति अपने परिवेश में सफाई रखता है असफल व्यक्ति अपने घर का कचरा भी दूसरों के घर के आगे फेंकता हैं। सफल व्यक्ति भोजन जूठा नहीं छोड़कर अन्नउपजाने वाले किसान के श्रम  का सम्मान करता है असफल व्यक्ति जूठा छोड़कर अन्न देवता का अपमान करने में शर्म अनुभव भी नहीं करता.

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करना आवश्यक है. सफलता के लिये क्या कमी रह गई, इसका आकलन कर  और सुधार कर जब तक  सफल न हो, नींद चैन को त्याग संघर्ष में निरत रहना पड़ता है, तब हम सफलता की जय जय कार के अधिकारी बन पाते हैं.मन का विश्वास रगों में साहस भरता है. कोशिश करने वालों की मेहनत कभी बेकार नहीं होती,  हार हो भी पर अंतिम परिणिति उनकी जीत ही होती है. सफलता संघर्ष से प्राप्त होती है इसीलिये उसे उपलब्धि माना जाता है और सफलता पर बधाई दी जाती है.

किसी कवि की ये पंक्तियां एक गोताखोर पर लिखी गई हैं,जो हमें प्रेरणा देती हैं कि यदि हम उत्साह पूर्वक जीवन मंथन करते हुये, दुनिया के अथाह सागर में गोते लगाते रहें तो एक दिन हमारे हाथो में भी सफलता के मोती अवश्य होंगे.

 

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,

जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है.

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,

बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में.

मुट्ठी उसकी खाली पर हर बार नहीं होती,

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #14 – आइये पर्यावरण बचाएं ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली   कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

यह आलेख आदरणीय श्री संजय भारद्वाज जी ने पर्यावरण दिवस की दस्तक पर लिखा था किन्तु, यह आलेख उस पल तक सार्थक एवं सामायिक दर्ज होना चाहिए जब तक हम पर्यावरण को बचाने में सफल नहीं हो जाते.  अब तो यह आलेख प्रासंगिक भी है. अभी हाल ही में 16 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता सुश्री ग्रेटा थनबर्ग जी  ने  संयुक्त राष्ट्र के उच्चस्तरीय जलवायु सम्मेलन के दौरान अपने भाषण से संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस सहित विश्व के बड़े नेताओं को झकझोर दिया.यदि अभी भी हम सचेत नहीं हुए और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के प्रयास नहीं किए गए तो पृथ्वी के सभी जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा.

 – हेमन्त बावनकर 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 14☆

 

☆ आइए पर्यावरण बचाएं ☆

 

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोज़र और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।

माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।

कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 10 – अहंकार दहन ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   अहंकार दहन।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 9 ☆

 

☆ अहंकार दहन 

 

राहु और केतु राहु हिन्दू ज्योतिष के अनुसार असुर स्वरभानु का कटा हुआ सिर है, जो ग्रहण के समय सूर्य और चंद्रमा का ग्रहण करता है । इसे कलात्मक रूप में बिना धड़ वाले सर्प के रूप में दिखाया जाता है, जो रथ पर आरूढ़ है और रथ आठ श्याम वर्णी घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा है । वैदिक ज्योतिष के अनुसार राहु को नवग्रह में एक स्थान दिया गया है । दिन में राहुकाल नामक मुहूर्त (24 मिनट) की अवधि होती है जो अशुभ मानी जाती है । समुद्र मंथन के समय स्वरभानु नामक एक असुर ने धोखे से दिव्य अमृत की कुछ बूंदें पी ली थीं । सूर्य और चंद्र ने उसे पहचान लिया और मोहिनी अवतार में भगवान विष्णु को बता दिया । इससे पहले कि अमृत उसके गले से नीचे उतरता, विष्णु जी ने उसका गला सुदर्शन चक्र से काट कर अलग कर दिया । परंतु तब तक उसका सिर अमर हो चुका था । यही सिर राहु और धड़ केतु ग्रह बना और सूर्य- चंद्रमा से इसी कारण द्वेष रखता है । इसी द्वेष के चलते वह सूर्य और चंद्र को ग्रहण करने का प्रयास करता है । ग्रहण करने के पश्चात सूर्य राहु से और चंद्र केतु से, उसके कटे गले से निकल आते हैं और मुक्त हो जाते हैं ।

केतु भारतीय ज्योतिष में उतरती लूनर नोड को दिया गया नाम है । केतु एक रूप में स्वरभानु नामक असुर के सिर का धड़ है । यह सिर समुद्र मन्थन के समय मोहिनी अवतार रूपी भगवान विष्णु ने काट दिया था । यह एक छाया ग्रह है । माना जाता है कि इसका मानव जीवन एवं पूरी सृष्टि पर अत्यधिक प्रभाव रहता है । कुछ मनुष्यों के लिये यह ग्रह ख्याति दिलाने में अत्यंत सहायक रहता है । केतु को प्रायः सिर पर कोई रत्न या तारा लिये हुए दिखाया जाता है, जिससे रहस्यमयी प्रकाश निकल रहा होता है । भारतीय ज्योतिष के अनुसार राहु और केतु, सूर्य एवं चंद्र के परिक्रमा पथों के आपस में काटने के दो बिन्दुओं के द्योतक हैं जो पृथ्वी के सापेक्ष एक दुसरे के उलटी दिशा में (180 डिग्री पर) स्थित रहते हैं । चुकी ये ग्रह कोई खगोलीय पिंड नहीं हैं, इन्हें छाया ग्रह कहा जाता है । सूर्य और चंद्र के ब्रह्मांड में अपने-अपने पथ पर चलने के कारण ही राहु और केतु की स्थिति भी साथ-साथ बदलती रहती है । तभी, पूर्णिमा के समय यदि चाँद केतु (अथवा राहू) बिंदु पर भी रहे तो पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्र ग्रहण लगता है, क्योंकि पूर्णिमा के समय चंद्रमा और सूर्य एक दुसरे के उलटी दिशा में होते हैं । ये तथ्य इस कथा का जन्मदाता बना कि “वक्र चंद्रमा ग्रसे ना राहू”। अंग्रेज़ी या यूरोपीय विज्ञान में राहू एवं केतु को क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी लूनर नोड कहते हैं । तथ्य यह है कि ग्रहण तब होता है जब सूर्य और चंद्रमा इन बिंदुओं में से एक पर सांप द्वारा सूर्य और चंद्रमा की निगलने की समझ को जन्म देता है । प्राचीन तमिल ज्योतिषीय लिपियों में, केतु को इंद्र के अवतार के रूप में माना जाता था । असुरो के साथ युद्ध के दौरान, इंद्र पराजित हो गया और एक निष्क्रिय रूप और एक सूक्ष्म राज्य केतु के रूप में ले लिया । केतु के रूप में इंद्र अपनी पिछली गलतियों, और असफलताओं को अनुभव करने के बाद भगवान शिव की आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हो गया ।

दरअसल रावण ने सभी नौ ग्रहों के देवताओं का अपहरण कर लिया था और उन्हें लंका में ले आया था, लेकिन जल्द ही भगवान ब्रह्मा लंका आये और रावण से सभी ग्रहों को मुक्त करने का अनुरोध किया ताकि ब्रह्मांड में जीवन का चक्र प्रभावित न हो । रावण ने उन्हें एक शर्त पर मुक्त किया कि रावण प्रत्येक ग्रह की एक प्रतिलिपि बनायीं, और उन्हें बनाने के बाद उसने सभी ग्रहों के देवताओं को अपने ग्रहों की शक्तियो के सार को प्रत्येक प्रतिलिपि में प्रविष्ट करने का आदेश दिया,एक-एक करके मुख्य ग्रह के अनुसार । इसलिए सूर्य ने रावण द्वारा बनाए गए सूर्य की प्रतिलिपि में अपनी शक्तियों के सार को डाला, चंद्रमा ने रावण द्वारा बनाए गए चंद्रमा की प्रतिलिपि में अपनी शक्तियों को सम्मिलित किया आदि आदि अन्य ग्रहो ने भी किया । इसके बाद रावण ने सभी नौ ग्रहो को मुक्त कर दिया ।

तब रावण ने लंका का अपना निजी राशि चक्र बनाया जिससे लंका के प्रत्येक हिस्से पर एक ही तरह का प्रभाव पड़े और सभी प्रतिलिपि ग्रहों को रावण द्वारा परिभाषित गति के साथ आगे बढ़ने का आदेश दिया गया, इसका अर्थ है कि लंका में कभी भी कोई नुकसान या खतरा नहीं होगा किसी भी परिस्थिति में । भगवान हनुमान, रावण की शक्ति और बुद्धि से आश्चर्यचकित थे । फिर उन्होंने अपने मस्तिष्क में सोचा कि लंका को यदि कोई नुकसान पहुँचाना है, तो इन प्रतिलिपि ग्रहों को किसी भी तरह से मुक्त करना होगा । रावण भी भगवान हनुमान को लगभग एक मिनट तक देखता रहा, आखिर में उन्होंने भगवान हनुमान से कहा, “तो तुम हो वो शरारती वानर जिसने मेरे सबसे खूबसूरत बगीचे को नष्ट कर दिया और मेरे बेटे अक्षय कुमार को भी मार डाला, क्या तुम सजा के लिए तैयार हो?”

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 17 ☆ औरत धूर्त और खतरनाक नहीं – एंजेलीना ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का  आलेख “औरत धूर्त और खतरनाक नहीं – एंजेलीना”.  डॉ . मुक्ता जी ने इस आलेख के माध्यम से  यू• एन• एच• सी• आर• की गुडविल एंबेसेडर हॉलीवुड अभिनेत्री  एंजेलीना के कथन को व्यापक विस्तार दिया है और नारी के सम्मान एवं अधिकारों के प्रति समाज में सजगता का सन्देश दिया है. साथ ही वे कदापि नहीं मानती  कि पुरुषों एवं बच्चों  के खिलाफ अपराध को किसी भी तौर से कमतर आँका जाये. उन्होंने  इस विषय पर अपनी बेबाक राय रखी है। अब आप स्वयं पढ़ कर आत्म मंथन करें  कि – हम इस दिशा में क्या कर सकते हैं?  आदरणीया डॉ मुक्ता जी  का आभार एवं उनकी कलम को इस पहल के लिए नमन।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 17 ☆

 

☆ औरत धूर्त और खतरनाक नहीं – एंजेलीना ☆

 

हॉलीवुड की अभिनेत्री एंजेलीना का यह कथन समाज के तथाकथित सफेदपोश लोगों को कटघरे में खड़ा कर देता है, जो अपने अधिकार छीने जाने पर आवाज़ दबाने को तैयार नहीं. वे ऐसी महिलाओं के पक्षधर नहीं हैं। परंतु एंजेलिना उस अवधारणा को बदलने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहती हैं, “जो अन्याय से थक चुकी महिलाओं को ‘अस्वाभाविक और खतरनाक’ बताते हैं… समाज में निर्मित नियमों के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाली महिलाओं को असामान्य करार देते हुए, उनके लिए ‘अजीब, चरित्रहीन और खतरनाक’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।”

आधुनिक युग में ऐसी सोच पर कायम रहना लज्जा-स्पद है। यू• एन• एच• सी• आर• की गुडविल एंबेसेडर अभिनेत्री ने कहा कि – “उनके इस आलेख का मतलब पुरुषों व बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराध को कमतर आंकना नहीं है।”

आश्चर्य होता है यह देख कर कि 21वीं सदी में भी ऐसी मानसिकता हावी है। समान अधिकारों व अन्याय के विरुद्ध मांग उठाने वाली महिलाओं को अस्वाभाविक व असामान्य करार करना,उन्हें विचित्र, चरित्रहीन, धूर्त व खतरनाक कहना…क्या यह महिलाओं के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं है? क्या गीता का संदेश त्याज्य है ‘यदि अधिकार मांगने से न मिले तो उसे छीन लेना श्रेयस्कर है’…अपराध नहीं है? क्या ऐसी नकारात्मक पुरुष मानसिकता को स्वीकारना अनिवार्य है?

शायद नहीं…संसार के प्रत्येक जीव को अपने ढंग से जीने का अधिकार है। यदि परिस्थितियां उसके प्रतिकूल हैं, तो उनका विरोध न करने वाले मनुष्य को आप क्या कहेंगे… शायद ज़िन्दा लाश…क्योंकि जिस इंसान में आत्मसम्मान,स्वाभिमान व अधिकारों के प्रति सजगता नहीं है, वह अस्तित्वहीन है,त्याज्य है।

हाँ !अधिकार व कर्त्तव्य अन्योन्याश्रित हैं। एक का अधिकार दूसरे का कर्त्तव्य है। सो! आवश्यकता है दायित्व-वहन की, एक-दूसरे के प्रति प्यार,सम्मान व समर्पण की… जिसकी अनुपालना दोनों के लिए आवश्यक है।

स्त्री व पुरुष गाड़ी के दो पहिए हैं। यदि एक कमज़ोर होगा, तो दूसरे की गति स्वतः धीमी पड़ जाएगी।

दूसरे शब्दों में समाज की उन्नति के लिए तालमेल व सामंजस्य आवश्यक है अन्यथा समाज में मासूमों की भावनाओं पर कुठाराघात होता रहेगा और लूट- खसोट, दुष्कर्म व हत्या के मामले बढ़ते रहेंगे, इनकी संख्या में निरंतर इज़ाफा होता रहेगा…चहुं ओर अव्यवस्था का साम्राज्य बना रहेगा।

सो!इसके लिये आवश्यकता है…नारी की भावनाओं, सोच व दृष्टिकोण को अहमियत देने की, उसके द्वारा समाज हित में किए गए योगदान व उसकी प्रति- भागिता अंकित करने की… यह तभी संभव हो पायेगा, जब वर्षों से प्रचलित रूढ़ियों, अंधविश्वासों व दकियानूसी मान्यताओं द्वारा दासता की ज़ंजीरों से मुक्त करवा पाना संभव होगा…उसे दोयम दर्जे का न स्वीकार कर, मात्र कठपुतली नहीं, संवेदनशील समाज के विशिष्ट अंग के रूप में स्वीकारेगा। यदि हम समाज को उन्नत करना चाहते हैं, तो हमें नारी को मात्र भोग्या व उपयोगिता की वस्तु नहीं, समाज के अभिन्न अंग के रूप में  स्वीकारना होगा। जैसाकि सर्वविदित है कि एक सुशिक्षित बालिका दो घरों को सुव्यवस्थित करती है, आगामी पीढ़ी को सुसंस्कृत करने में संस्कारित करती है और समाज को एक नई दिशा प्रदान करती है।

बच्चे,सुखद परिवार की सुदृढ़ नींव होते हैं और माता -पिता की अनमोल विरासत व अभिन्न दौलत।अर्थात् जिनके बच्चे शिक्षित ही नहीं, सुसंस्कारित व शालीन होते हैं, मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते…वे माता-  पिता संसार में सबसे अधिक सौभाग्यशाली व निर्धन हो कर भी सबसे अधिक धनी होते हैं।

चलिए!विचार करते हैं इसके मुख्य उपादान पर। ..यदि आप अपनी पत्नी की भावनाओं का सम्मान कर, उसे बराबर का दर्जा देते हैं, उसका तिरस्कार नहीं करते, उसके त्याग व योगदान की सराहना करते हैं… सामाजिक विषमता, विश्रृंखलता व विसंगतियों का विरोध करने पर, दाहिने हाथ की भांति उसके साथ खड़े रहते हैं…उसकी भावनाओं का तिरस्कार कर, उसे अपमानित नहीं करते तो आप एक-दूसरे के प्रतिपूरक हैं, एक महत्वपूर्ण कड़ी है तथा आप परिवार व समाज को उन्नत व समृद्ध  बना सकते हैं।

स्मरण होंगे.. आपको अंग्रेज़ी के यह मुहावरे ‘चैरिटी बिगिंस एट होम और ‘निप दी इविल इन दी बड ‘ अर्थात् घर से ही प्रारंभ होती, बुराई को प्रारंभ में ही दबा देना चाहिए अन्यथा वह कुत्तों की तरह समाज को दूषित कर देगी स्वस्थ समाज की शांति को लील जाएगी। महिलाओं को सम्मान व समान दर्जा देना, उसकी सद्भावनाओं व सत्कर्मों का बखान करना… आगामी पीढ़ी को सुसंस्कारों से सिंचित कर सकता है। हां! आवश्यकता है उसके बढ़ते कदमों को व यथोचित योगदान को देख सराहना करना। यदि वह उसे अपनी जीवनसंगिनी, हमसफ़र व शरीक़ेहयात समझ उससे शालीनता से व्यवहार करेगा तो वह यह सबके हित में होगा अन्यथा समाज से आतंक व अराजकता का शमन कभी नहीं होगा…समाज में सदैव भय, डर व आशंका का माहौल बना रहेगा… समाज में फैली कुरीतियों-दुष्प्रवृत्तियों का अंत नहीं कभी सम्भव नहीं होगा। राम राज्य की स्थापना का स्वप्न व समन्वय-सामंजस्य का स्वप्न कभी साकार नहीं होगा। शायद यह  कपोल-कल्पना बनकर रह जाएगी। आइए! हम सब इस यज्ञ में अहम् की समिधा डालें क्योंकि अहम द्वंद्व व संघर्ष का जनक है, जिसका परिणाम हम परिवारों में माता-पिता के अलगाव के रूप में तथा बच्चों को एकांत की त्रासदी से जूझते हुए एकाकीपन के रूप में देखते हैं। संयुक्त परिवार व्यवस्था के टूटने पर वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या, महिलाओं की असामाजिक कृत्यों में प्रतिभागिता, फ़िरौती, हत्या आदि संगीन जुर्मों में लिप्तता हमारी नकारात्मक सोच को उजागर करती है। आइए!हम सब स्वस्थ समाज की संरचना में  योगदान दें,जहां सब को यथोचित सम्मान मिल पाये। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि अधिकारों की मांग करना, न मिलने पर प्रतिरोध कर बग़ावत का झंडा उठाना,अन्याय को सहन करने की प्रतिबद्धता को नकारना, महिलाओं के चरित्र का प्रमाण-पत्र नहीं है और न ही ऐसी महिलाओं का,जो समाज में व्याप्त अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाती हैं…उन्हें अस्वाभाविक व  खतरनाक समझने का कोई औचित्य है। इस लाइलाज रोग से निज़ात पाने का एकमात्र उपाय है…समाज की सोच को परिवर्तित कर, नारी को दोयम दर्जे का न समझ, समानता का दर्जा प्रदान किया जाये। शायद!इसके परिणाम- स्वरूप लोगों की दूषित मानसिकता में परिवर्तन हो जाये।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – पितृ पक्ष विशेष – ☆ श्राद्ध – एक तथ्यात्मक विवेचना ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “श्राद्ध – एक तथ्यात्मक विवेचना”।  यह आलेख उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक  का एक महत्वपूर्ण  अंश है। इस आलेख में आप  श्राद्ध के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ।  आप पाएंगे  कि  कई जानकारियां ऐसी भी हैं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं।  श्री आशीष कुमार जी ने धार्मिक एवं वैज्ञानिक रूप से शोध कर इस आलेख एवं पुस्तक की रचना की है तथा हमारे पाठको से  जानकारी साझा  जिसके लिए हम उनके ह्रदय से आभारी हैं। )

 

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☆ श्राद्ध – श्राद्ध – एक तथ्यात्मक विवेचना

 

यहाँ तक कि एक वशिष्ठ कार्य के लिए चन्द्रमा का पूरा पक्ष निर्धारित है  जिसे पितृ पक्ष कहा जाता है । जिसे पितृ पक्ष (पश्चिम और दक्षिण में) या पितृ रक्षा (उत्तर और पूर्व में) के रूप में भी लिखा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है “पूर्वजों के पखवाड़े” हिन्दू कैलेंडर में 15-चंद्र दिन की अवधि है जब हिंदू अपने पूर्वजों (पितरों) को श्रद्धांजलि देते हैं, खासकर खाद्य प्रसाद के माध्यम से । अश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक पंद्रह दिन लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं । पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं । इस अवधि को पितृ पक्ष, पितरी पोखो, सोला श्रद्धा (सोलह शरद), कनागत, जितिया, महालय पक्ष और अपारा पक्ष भी कहा जाता है । पितृ पक्ष को हिंदुओं द्वारा अशुभ माना जाता है, समारोह के दौरान किए गए मृत्यु के संस्कार को देखते हुए, श्रद्धा या तरण (मुक्ति) के रूप में जाना जाता है । दक्षिणी और पश्चिमी भारत में, यह हिंदू चंद्र महीने ‘भाद्रपद’ (सितंबर) के दूसरे पक्ष (पखवाड़े) में आता है और यह गणेश उत्सव के तुरंत बाद आता है । अधिकांश वर्षों में, शरद ऋतु विषुव इस अवधि के भीतर आता है, यानी इस अवधि के दौरान उत्तरी से दक्षिणी गोलार्ध में सूर्य का संक्रमण होता है ।

हमारे पूर्वजों की तीन पिछली पीढ़ियों की आत्माएँ  पितृ-लोक में रहती हैं, जो स्वर्ग और पृथ्वी के बीच एक क्षेत्र है । यह क्षेत्र यम, मृत्यु के देवता द्वारा शासित है, जो पृथ्वी से मरने वाले व्यक्ति की आत्मा को पितृ-लोक में ले जाते है । जब अगली पीढ़ी के व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो पहली पीढ़ी स्वर्ग में चली जाती है और भगवान के साथ मिल जाती है, इसलिए उनके श्राद्ध करने बंद कर दिए जाते हैं । इस प्रकार, पितृ-लोक में केवल तीन पीढ़ियों को श्राद्ध संस्कार दिया जाता है, जिसमें यम एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है) भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है ।

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है । पितृ पक्ष की शुरुआत में, सूर्य राशि चक्र की तुला राशि में प्रवेश करता है । इस पल के साथ मिलकर, ऐसा माना जाता है कि आत्माएँ  पितृ-लोक छोड़ती हैं और एक महीने तक अपने वंशज घरों में रहती हैं जब तक कि सूर्य अगले राशि चक्र की अगली राशि वृश्चिक में प्रवेश नहीं करता है, पूर्णिमा तक । धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है । मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है । पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है । प्रिय के अतिरेक की अवस्था “प्रेत” है क्योंकि आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है । सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है । पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है । पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है । ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है । 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं । इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से वह पित्तरों को प्राप्त होता है । भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण । इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है । पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया ।

त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं । यमस्मृति में पाँच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है । जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है ।

नित्य श्राद्ध– प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं । इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता । केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है ।

नैमित्तिक श्राद्ध– किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं । इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है । एकोद्दिष्ट का अर्थ किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है । इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।

काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है । वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है ।

वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाह आदि प्रत्येक माँगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं । इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पितृ तर्पण भी किया जाता है ।

पार्वण श्राद्ध– पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है । किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है । यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है ।

सपिण्डनश्राद्ध– सपिण्डन शब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना । पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डन है । प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है । इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।

गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है । जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं । उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं ।

शुद्धयर्थ श्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं । उसे शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं । जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए ।

कर्माग श्राद्ध– कर्माग का सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं । उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं ।

यात्रार्थ श्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थ श्राद्ध कहलाता है । जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है । इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है ।

पुष्ट्यर्थ श्राद्ध– पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है ।

धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के 96 अवसर बतलाए गए हैं । एक वर्ष की अमावास्याएं (12) पुणादितिथियां (4),मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह 96 अवसर प्राप्त होते हैं । पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पितृ-कर्म का विधान है ।

जब महाभारत युद्ध में दानवीर कर्ण की मृत्यु हो गई, तो उनकी आत्मा स्वर्ग में चली गई, जहाँ उन्हें भोजन के रूप में सोने और गहने की पेशकश की गई । कर्ण को खाने के लिए असली खाना चाहिए था तो कर्ण ने स्वर्ग के राजा इंद्र देव से पूछा, की उन्हें सोना खाने के तौर पर क्यों दिया जा रहा है उन्हें असली खाना चाहिए तब  इंद्र ने कर्ण को बताया कि उन्होंने अपना पूरा जीवन स्वर्ण दान किया था, लेकिन उन्होंने श्राद्ध में कभी भी अपने पूर्वजों को भोजन दान नहीं किया । इसलिए जो वस्तु जीवित अवस्था में पितरो को दान की जाती है मृत्य के बाद वो ही वस्तु मिलती है ।  इस पर कर्ण ने कहा कि चूंकि वह अपने पूर्वजों से अनजान था, इसलिए उन्होंने कभी भी अपनी स्मृति में कुछ दान नहीं किया । संशोधन करने के लिए, कर्ण को 15 दिनों की अवधि के लिए पृथ्वी पर लौटने की इजाजत दी गयी, ताकि वह श्राद्ध कर सके और अपनी याद में अपने पूर्वजो को भोजन और पानी दान कर सके । तब से इस अवधि के 15 दिनों को पितृ पक्ष के रूप में जाना जाता है । कुछ किंवदंतियों में इंद्र के स्थान पर यम ने कर्ण को 15 दिन पृथ्वी पर रह कर श्राद्ध करने की अनुमति दी थी ।

क्या आपने कभी ध्यान दिया है की पितृ पक्ष वास्तव में वह समय है जब पृथ्वी पर दिन और रात्रि लगभग बराबर अवधि के होते है । जैसे की मैंने पहले भी बताया है की आमतौर पर पितृ पक्ष के दौरान ही शरद ऋतु विषुव आता है । यह तब आता है जब सूर्य राशि चक्र के तुला चिन्ह में प्रवेश करता है । तुला का अर्थ बराबर या संतुलन है । अच्छे और बुरे का संतुलन, या प्रकाश और अंधेरे का संतुलन, शारीरिक और मानसिक संतुलन, भौतिकवाद और आध्यात्मिकता का संतुलन, और इसी तरह । तुला खुद भी राशि चक्र की 12 राशियों में से 7 वा चिन्ह है अथार्त राशि चक्र के लगभग मध्य । उपर्युक्त संतुलन के अतरिक्त, इस पितृ पक्ष के दौरान होने वाली एक और आध्यात्मिक संतुलन भी है । यह जीवन और मृत्यु का संतुलन है । इसके अतिरिक्त इस पितृ पक्ष के दौरान कुछ लोगों को ऊर्जा की कमी, थकान अनुभव होती है और उन्हें अधिक नींद भी आती है, वर्ष के बाकी दिनों के मुकाबले । क्या आपको जानना है क्यों?

असल में श्राद्ध के दिनों में कई व्यक्ति अपने मृत्यु रिश्तेदारों को विशेष अनुष्ठानों के साथ आमंत्रित करते है । इसलिए कुछ आत्माएँ जिनके पास नया शरीर है, लेकिन फिर भी वह अपने पूर्व जन्म के रिश्तेदारों से भावनाओ से जुड़े हुए हैं, वो अपने अंतिम जीवन के रिश्तेदारों के आह्वान पर अपने नए शरीर से बाहर जाने का प्रयास करते है उनके पास जो उन्हें आमंत्रित कर रहे है । क्योकि उनसे उनकी भावनाएँ मृत्यु के बाद एवं नया शरीर मिलने के बाद भी जुड़ी हुई है । तो वो आत्माएँ अपने नए शरीर से बाहर जाने की कोशिश करती हैं, लेकिन नई शरीर की इच्छाएँ और कर्म इस आत्मा को इस नए शरीर के अंदर पकड़ने की कोशिश करते हैं । और उस नए शरीर में एक तरह का द्वन्द चलता है । इसलिए आत्मा को नए शरीर में पकड़ने के लिए शरीर और मस्तिष्क की ऊर्जा का अधिक उपयोग होता है, जिसके कारण हमारे शरीर और मस्तिष्क ऊर्जा की कमी अनुभव करते है”

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – पराकाष्ठा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – पराकाष्ठा  ☆

 

अच्छा हुआ

नहीं रची गई

और छूट गई

एक कविता,

कविता होती है

आदमी का अपना आप

छूटी रचना के विरह में

आदमी करने लगता है

खुद से संवाद,

सारी प्रक्रिया में

महत्त्वपूर्ण है

मुखौटों का गलन

कविता से मिलन

और उत्कर्ष है

आदमी का

शनैः-शनैः

खुद कविता होते जाना,

मुझे लगता है

आदमी का कविता हो जाना

आदमियत की पराकाष्ठा है!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – यह पल ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – यह पल ☆

 

सामान्य निरीक्षण है कि हम में से अधिकांश की मोबाइल गैलरी एक बड़ा भंडारघर है। पोस्ट पर पोस्ट, ढेर सारी पोस्ट मनुष्य इकट्ठा करता रहता है, डिलीट नहीं करता। फिर एक दिन सिस्टम एकाएक सब कुछ डिलीट कर देता है।

गड्डियाँ बाँधे निरर्थक संचित धन हो या थप्पियाँ लगाकर संजोये रखे सपने, चलायमान न हों तो सब व्यर्थ है। जीवन न बीता कल है, जीवन न आता कल है। जीवन बस इस पल है।

पल, पल रहा है, इसके साथ पलो।  पल चल रहा है, इसके साथ चलो। पल तो रुकने से रहा, नहीं चले तो तुम रुके रह जाओगे।

जो रुका रह गया, वह जड़ हो गया। चलायमान का ठहर जाना, चेतन का जड़ हो जाना, जीवन की इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – कृतिका ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – कृतिका ☆

 

(“जीवन में अद्भुत होते हैं वे क्षण जब आगे चलनेवाला पिता अपनी संतान के पीछे चलने लगे।”  कल्पना मात्र से ह्रदय गौरवान्वित हो जाता है, जब हम किसी पिता की लेखनी से ऐसे वाक्यों को पढ़ते हैं.  यह अपने आप में एक आत्मसंतुष्टि की भावना को जन्म देती है. ऐसा लगता है जीवन सार्थक हो गया.  भावनाओं को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता.  मैंने सुश्री कृतिका (श्री संजय भारद्वाज जी की बिटिया) का ब्लॉग पढ़ा.  अब सुश्री कृतिका ने अपना एक स्थान अर्जित कर लिया है. सुश्री कृतिका के ब्लॉग को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें >>  Glazedshine.

अनायास ही लगा सब कुछ विरासत में नहीं मिला उसने विरासत को आगे बढ़ाने  के लिए कठोर परिश्रम किया है. साथ ही मुझे  पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता स्व. केविन कार्टर के पुरस्कार जीतने के बाद आत्मग्लानि में आत्महत्या की घटना याद आ गई जिसे आप गूगल में सर्च कर सकते हैं. (लिंक को कॉपी राइट के कारण यहाँ नहीं दे सकता).   मैं श्री संजय भरद्वाज जी की भावनाओं को आपसे साझा करने से नहीं रोक सका.)

  – हेमन्त बावनकर

 

जीवन में अद्भुत होते हैं वे क्षण जब आगे चलनेवाला पिता अपनी संतान के पीछे चलने लगे। अनन्य विजय के क्षण होते हैं यह। बिटिया कृतिका ने यह अनन्यता जीवन में  अनेक बार दी है।
कुछ ऐसा ही आज भी हुआ। दो दिन से पशुओं के साथ मनुष्य के व्यवहार को लेकर भीतर एक मंथन चल रहा था। बस कलम उठानी शेष थी कि बिटिया ने अपने ब्लॉग का एक लिंक पढ़ने के लिए भेजा। लेख पढ़ा और रक्त सम्बंध कैसे अदृश्य काम करता है, यह भी जाना। गदगद हो गया उसकी भावनाएँ और उसकी कलम की संभावनाएँ पढ़कर।
यह कृतिका का चौथा ब्लॉग है। पढ़ियेगा और अंकुरित हो रही एक लेखिका को उसके ब्लॉग के कमेंट बॉक्स में आशीर्वाद अवश्य दीजियेगा।
कृतिका के ब्लॉग का लिंक है-  Glazedshine.

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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