हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ प्रो राजेन्द्र ऋषि के 75 वर्ष पूर्ण होने पर विशेष ☆ – पंडित मनीष तिवारी

पंडित मनीष तिवारी

 

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर के राष्ट्रीय  सुविख्यात साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी  का मूर्धन्य साहित्यकार एवं सुप्रसिद्ध शिक्षाविद प्रो राजेंद्र ऋषि जी  के ७५वें जन्म दिवस पर यह विशेष आलेख.

ई-अभिव्यक्ति की और से प्रो राजेंद्र ऋषि जी को उनके समर्पित साहित्यिक एवं स्वस्थ जीवन के लिए  हार्दिक शुभकामनाएं. )

 

☆ प्रो राजेन्द्र ऋषि के 75 वर्ष पूर्ण होने पर विशेष ☆

 

सरहद पर सैनिक चीन की फौज से जूझ रहे थे, विकट परिस्थियां सामने थीं देश के नागरिकों में भयंकर आक्रोश था, कैसे भी हो चीन को सबक सिखाना है अपने अपने ढंग से लोग सैनिकों का हौसला बढ़ा रहे थे ऐसी विकट परिस्थिति में संस्कारधानी से राष्ट्रवादी स्वर फूटा जिसकी कविताएं सैनिकों में जोश भर रही थीं वह नित नए प्रतीकों से सैनिकों में साहस भरता और मातृभूमि के लिए सर्वस्व निछावर करने की प्रेरणा देता वही स्वर आगे चलकर कवि सम्मेलन और कवि गोष्ठियों का सिरमौर हुआ। सामाजिक और राजनैतिक विचारधारा का स्वर बनकर मंचों से रात रात भर कविताओं को उलीचता, राष्ट्रभक्ति के साथ रसिकों की प्यास बुझाता। 1962 से जिन युवा गीतकारों ने मंचों पर धूम मचाई उनमें मेरे पूज्य पिता गीतकार स्व ओंकार तिवारी चाचा जनकवि स्व सुरेंद्र तिवारी के साथ प्रो राजेन्द्र ऋषि का नाम तात्कालिक  कवि सम्मेलनों की अनिवार्यता बन गए थे। अपने फक्कड़पन और औदार्य के कारण कवि राजेन्द्र तिवारी, अब राजेंद्र ऋषि हो गए। उन दिनों हिंदी कवि सम्मेलन  के सशक्त हस्ताक्षर संस्कारधानी के ख्यातिलब्ध कवि व्यंग्य शिल्पी स्व श्रीबाल पांडेय जी का तीनों पर वरद हस्त था 1961 में कमानिया गेट पर आयोजित कवि सम्मेलन में श्रीबाल जी ने इन तीनों युवा कवियों का प्रथम बार बड़े मंच से काव्यपाठ करवाया ये कवि उनकी कसौटी पर खरे उतरे और वर्षों बरस मंचों पर प्रतिष्ठित रहे।

सरकारी नीतियां हों समाज सेवा हो शिक्षा का दान हो या मित्रों की आवश्यकता ऋषि जी सदैव तत्पर रहे और संकट के क्षणों में कंधे से कंधा मिलाकर अपना मित्र धर्म निभाया। उन दिनों के कवि सम्मेलन आज की तरह ग्लैमरस नहीं थे मंच पर शुद्ध कविताएं होती थीं उस्ताद कवि बराबर काव्यपाठ पर अपनी प्रतिक्रियाएं देते थे। कवि सम्मेलन रोजगार नहीं था साहित्य सेवा ही उसके मूल में थी अतः ऋषि जी ने जीवकोपार्जन हेतु हितकारिणी बीएड कालेज को कर्मभूमि बनाया। कविता का धर्म और शिक्षा का कर्म जीवन पर्यन्त चलता रहा शैक्षणिक जगत में ऐसी धाक बनी की जबलपुर विश्व विद्यालय ने उन्हें ससम्मान डीन की कुर्सी लगातार 3 बार सौंपी उल्लेखनीय है कि यह पहला अवसर था जब अशासकीय शिक्षा महाविद्यालयों से कोई प्रोफेसर विश्व विद्यालय का डीन हुआ। ऋषि जी ने डीन की आसन्दी पर बैठकर शिक्षा को नए आयाम दिए इसका जीत जागता प्रमाण विश्व विद्यालय में बीएड विभाग की स्थापना है। इस स्थापना पीछे उनका उद्देश्य यह भी था कि महाकौशल क्षेत्र और शहर की प्रतिभाएं विश्व विद्यालय में अपनी सेवा दे सकें किन्तु उनका यह सपना आज भी अधूरा है। तथापि उनका  कार्यकाल विश्व विद्यालय के लिए बहुत प्रेरक और मार्गदर्शक रहा। शनैः शनैः सेवानिवृत्ति के समय आया मित्रों ने बड़ा जलसा कर उन्हें कार्यमुक्त किया।

नौकरी के दौरान ही उनका प्रथम काव्य संग्रह आपा सहित्याकाश में बहुत तेज़ी से चर्चित हुआ संग्रह की अनेक रचनाओं में रुपयों का झाड़, अंधेरे की आज़ादी और सब कुछ बदल गया है मगर कुछ नहीं बदला ने लोकप्रियता के कीर्तिमान गढ़े। द्वतीय काव्य संग्रह “इक्कीसवी सदी को चलें” का विमोचन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने किया था। तेजी से बदलते राजनैतिक परिदृश्य में आम आदमी की व्यथा कथा और देश की किस्मत में लिखे राजनैतिक छलावे को उन्होंने अपनी रचनाओं में खूब लताड़ा। यथा-

“दिल्ली बनी हैं झांसी झांसे नहीं बदले।

नटवर बदल गए हैं तमाशे नहीं बदले”।

अमीरी और गरीबी, फ़र्ज़ी जनसेवा के छलावे को भी उन्होंने आड़े हाथों लेकर लिखा

प्रगति पंथ के निर्माता हैं कड़ी धूप में,

रथ पर चलने वालों को रिमझिम बरसातें,

देश देखनेवाली आंखें धूल भरी हैं

स्वार्थ भारी आंखों को सपनों की सौगातें।

जब जब भी देश  जाती धर्म की आग में झुलसा तब तब ऋषि जी ने जनता के बीच सकारात्मक  पैगाम पहुंचाया-

इंसानी रिश्तों से बढ़कर मज़हब नहीं बड़े रहते हैं।

बढ़ जाता इंसान राह पर मज़हब वहीं खड़े रहते हैं।

ऋषि जी जब कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करते तो अपनी सशक्त प्रस्तुति और सम्प्रेषणीयता के कारण पूरे वातावरण को अपने पक्ष में कर लेते हैं लोग उनकी सम्मोहनी के कायल हो जाते हैं। उनकी कविताएं सहज सरल भाषा में बड़ा पैगाम देते हुए समाधान की यात्रा करती हैं।

चूंकि ऋषि जी जीवन भर अक्खड़ फक्कड़ निरदुंद रहे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समय के साक्षी रहकर काव्य लेखन में लगे रहे चुनौतियों को सदा स्वीकार किया सच को सच लिखा गलत को आड़े हाथों लिया इसलिए सरकारी सम्मानों से सदैव वंचित रहे, सरकार की जन विरोधी नीतियों पर हमेशा कटाक्ष करते रहे इसलिए सरकारी कार्यक्रम, वजनदार लिफाफा और सुविधाएं उनसे कोसो दूर रहीं। वे राज दरबारी न होकर जनपीड़ा के गायक हैं उनकी कविता आम आदमी और गांव चौपालों में जिंदा है और हमेशा रहेगी।

ऋषि जी अलमस्त फकीर और ठठ्ठा मारकर हंसने वाले जिंदादिल इंसान हैं उनके पास समय का पाबंद होकर नहीं बैठा जा सकता किसी भी विषय की तह तक जाने  की उनमें विलक्षण प्रतिभा है। किसी कार्य के दूरगामी परिणाम क्या होंगे वे पहले ही घोषणा कर देते हैं। साहित्य के गिरते स्तर और कवि सम्मेलन के दूषित माहौल से वे बहुत क्षुब्ध हैं और समय समय अपने शिष्यों को आगाह करते रहते हैं।

एक समय आया जब पारम्परिक कविता को साहित्य न मानकर उल जुलूल बेतुकी कविता और कवियों की विरुदावली गायी जाने लगी तब उन्होनें सजग रचनाकार की भूमिका का निर्वहन करते हुए आंचलिक साहित्यकार परिषद का गठन कर पूरे मध्यप्रदेश में कविता की प्रतिष्ठा हेतु वृहद  अभियान चलाकर अनेक रचनाकार खड़े करते हुए बहुत मजबूत सारगर्भित सारस्वत अभियान का श्रीगणेश किया।मुझे गर्व है में भी आंचलिक  साहित्यकार परिषद का सिपाही रहकर अभियान में शामिल हुआ।

यहां यह जिक्र करना बहुत आवश्यक है कि 90 के दशक में सरकारी मंच पूर्णतः वामपंथियो की गिरफ्त में आ चुके थे दूरदर्शन और आकाशवाणी से वही रचनाएँ प्रसारित होती जिनके सिर पैर, ओर छोर नहीं होता ऐसी विकट स्थिति में सरकार से लड़ाई लड़कर पारम्परिक यथार्थ कविताओं का आकशवाणी से प्रसारण करवाने का श्रेय सिर्फ राजेन्द्र ऋषि को जाता है। इस दौर में आंचलिक  साहित्यकार परिषद के नीचे प्रदेश के समर्थ और सच्चे रचनाकार स्वाभिमान से काव्यपाठ कर सके। यह लिखते हुए मुझे गर्व हो रहा है कि इस दौर में गुमनामी के अंधेरे में खोए रचनाकारों की सुषुप्त चेतना जागृत हुई और आंचलिक साहित्यकार परिषद के अधिवेशनों से उन्हें देश व्यापी पहिचान मिली।

ऋषि जी का व्यक्तित्व सर्वग्राही और सर्व स्वीकार है जिस तरह उनकी लेखनी को सार्वभौम सर्वस्वीकृति है उसी तरह उनका निश्छल व्यवहार मौलिक रचनाकारों के प्रति सदैव प्रेरक रहा। अध्यक्षीय और मुख्यातिथ्य की मंचीय लिप्सा से दूर कविता के प्रति प्रतिबध्दता प्रणम्य है। अनेको बार मैंने ऋषि जी को श्रोता समुदाय में बैठकर मौलिक रचनाकारों की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते देखा है।

परमप्रभु परमात्मा श्रीकृष्ण जी और राधा रानी ने ऋषि जी पर अनुपम कृपा बरसायी उनकी कलम से प्रस्फुटित कृष्ण काव्य के छंदों को श्रखला बढ़ते बढ़ते 1000 हो गई अब वे कृष्ण काव्य के ऋषि हैं वे कृष्ण भक्ति में इस कदरलीन हैं कि उन्होंने कृष्ण के साथ खुद को एकाकार कर लिया है। प्रत्येक छंद में नए प्रतीक नए सम्बोधन नया भाव नया द्रष्टिकोण दृष्टिगोचर होता है। हिंदी साहित्य के लिए कृष्ण काव्य वरदान है। ऋषि जी जब डूबकर सुनाते हैं तो लगता है एक छंद और सुन लेते अद्भुत अद्वतीय कृति का शब्द शब्द अनमोल है। छंदों का लालित्य सहज भाषा मन में भक्ति का बीजारोपण करती है बानगी के 2 छंदों का आप आनन्द लीजिये-

प्रेम के मीठे दो बोल कहो, बढ़ के सत्कार करो न करो,

दधि गागर को कम भार करो, दूजो उपकार करो न करो,

ये जन्म में प्रीति प्रगाढ़ रखो ओ जन्म में प्यार करो ने करो

अब पार कराओ हमें जमुना भव सागर पार करो न करो।

और

नज़रों पे चढ़ी ज्यों नटखट की खटकी खटकी फिरती ललिता,

कछु जादूगरी श्यामल लट की लटकी लटकी फिरती ललिता,

भई कुंजन में झुमा झटकी ,झटकी झटकी फिरती ललिता,

सिर पे धर के दधि की मटकी मटकी मटकी फिरती ललिता।

आज ऋषि जी ने अपने यशस्वी जीवन के 75 वर्ष पूर्ण किये गत वर्ष राष्ट्रीय कवि सङ्गम, मप्र आंचलिक साहित्यकार परिषद, जानकीरमण महाविद्यालय ने ऋषिजी का अमृत महोत्सव बहुत धूमधाम से द्विपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपनन्द जी सरस्वती महाराज के निज सचिव ब्रह्मचारी सुबुध्दानन्द जी के पावन सानिध्य में मनाया था जिसमें नगर के कवि पत्रकार, लेखक, नेता, समाजसेवी, शिक्षाविद, किसानों ने बड़ी संख्या में उपस्थित होकर ऋषि जी को अपना शुभाशीष दिया । रसखान, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध , जगन्नाथ दास रतनाकर की परंपरा के संवाहक ऋषि जी अपने ढंग से अपनी शैली अपनी भावाभिव्यक्ति से जनमानस तक पहुंचने का महनीय कार्य कर रहे हैं । ऋषि जी के सृजन में जिन तीन भाषाओं का समन्वय मिलता है उनमें बुंदेली भाषा, ब्रजभाषा और खड़ी बोली प्रमुख हैं।एक महाकवि, भक्त कवि और पथ प्रदर्शक के 75 वर्ष पूर्ण होने पर उनके स्वस्थ, दीर्घायु जीवन की कामना के साथ बहुत बहुत बधाई।

साहित्य के ऋषिराज को नमन।

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर ,मध्य प्रदेश 

प्रान्तीय महामंत्री, राष्ट्रीय कवि संगम – मध्य प्रदेश

मो न ९४२४६०८०४० / 9826188236

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #15 – धार्मिक पर्यटन की विरासत ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “धार्मिक पर्यटन की विरासत”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 15 ☆

 

☆ धार्मिक पर्यटन की विरासत ☆

 

भारतीय संस्कृति वैज्ञानिक दृष्टि तथा एक विचार के साथ विकसित हुई है. भगवान शंकर के उपासक शैव भक्तो के देशाटन का एक प्रयोजन  देश भर में यत्र तत्र स्थापित द्वादश ज्योतिर्लिंग  हैं. प्रत्येक  हिंदू जीवन में कम से कम एक बार इन ज्योतिर्लिंगो के दर्शन को  लालायित रहता है. और इस तरह वह शुद्ध धार्मिक मनो भाव से जीवन काल में कभी न कभी इन तीर्थ स्थलो का पर्यटन करता है.द्वादश ज्योतिर्लिंगो के अतिरिक्त भी मानसरोवर यात्रा, नेपाल में पशुपतिनाथ, व अन्य स्वप्रस्फुटित शिवलिंगो की श्रंखला देश व्यापी है.

इसी तरह शक्ति के उपासक देवी भक्तो सहित सभी हिन्दुओ के लिये ५१ शक्तिपीठ भारत भूमि पर यत्र तत्र फैले हुये हैं.मान्यता है कि जब भगवान शंकर को यज्ञ में निमंत्रित न करने के कारण सती देवी माँ ने यज्ञ अग्नि में स्वयं की आहुति दे दी थी तो क्रुद्ध भगवान शंकर उनके शरीर को लेकर घूमने लगे और सती माँ के शरीर के विभिन्न हिस्से भारतीय उपमहाद्वीप पर जिन  विभिन्न स्थानो पर गिरे वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई. प्रत्येक स्थान पर भगवान शंकर के भैरव स्वरूप की भी स्थापना है.शक्ति का अर्थ माता का वह रूप है जिसकी पूजा की जाती है तथा भैरव का मतलब है शिवजी का वह अवतार जो माता के इस रूप के स्वांगी है.

भारत की चारों दिशाओ के चार महत्वपूर्ण मंदिर, पूर्व में सागर तट पर  भगवान जगन्नाथ का मंदिर पुरी, दक्षिण में रामेश्‍वरम, पश्चिम में भगवान कृष्ण की द्वारिका और उत्तर में बद्रीनाथ की चारधाम यात्रा भी धार्मिक पर्यटन का अनोखा उदाहरण है.जो देश को  सांस्कृतिक धरातल पर एक सूत्र में पिरोती है.  इन मंदिरों को 8 वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने चारधाम यात्रा के रूप में महिमामण्डित किया था। इसके अतिरिक्त हिमालय पर स्थित छोटा चार धाम  में बद्रीनाथ के अलावा केदारनाथ शिव मंदिर, यमुनोत्री एवं गंगोत्री देवी मंदिर शामिल हैं। ये चारों धाम हिंदू धर्म में अपना अलग और महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखते हैं। राम कथा व कृष्ण कथा के आधार पर सारे भारत भूभाग में जगह जगह भगवान राम की वन गमन यात्रा व पाण्डवों के अज्ञात वास की यात्रा पर आधारित अनेक धार्मिक स्थल आम जन को पर्यटन के लिये आमंत्रित करते हैं.

इन देव स्थलो के अतिरिक्त हमारी संस्कृति में नदियो के संगम स्थलो पर मकर संक्रांति पर, चंद्र ग्रहण व सूर्यग्रहण के अवसरो पर व कार्तिक मास में नदियो में पवित्र स्नान की भी परम्परायें हैं.चित्रकूट व गिरिराज पर्वतों की परिक्रमा, नर्मदा नदी की परिक्रमा, जैसे अद्भुत उदाहरण हमारी धार्मिक आस्था की विविधता के साथ पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रामाणिक द्योतक हैं. हरिद्वार, प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन में १२ वर्षो के अंतराल पर आयोजित होते कुंभ के मेले तो मूलतः स्नान से मिलने वाली शारीरिक तथा मानसिक  शुचिता को ही केंद्र में रखकर निर्धारित किये गये हैं,एवं पर्यटन को धार्मिकता से जोड़े जाने के विलक्षण उदाहरण हैं. आज देश में राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन चलाया जा रहा है, स्वयं प्रधानमंत्री जी बार बार नागरिको में स्वच्छता के संस्कार, जीवन शैली में जोड़ने का कार्य, विशाल स्तर पर करते दिख रहे हैं. ऐसे समय  में स्नान को केंद्र में रखकर ही  सिंहस्थ कुंभ जैसा महा पर्व मनाया जा रहा है, जो हजारो वर्षो से हमारी संस्कृति का हिस्सा है. पीढ़ीयों से जनमानस की धार्मिक भावनायें और आस्था कुंभ स्नान से जुड़ी हुई हैं. सिंहस्थ उज्जैन में संपन्न होता है.  उज्जैन का खगोलीय महत्व, महाकाल शिवलिंग, हरसिद्धि की देवी पीठ तथा कालभैरव के मंदिर के कारण उज्जैन कुंभ सदैव विशिष्ट ही रहा है.

प्रश्न है कि क्या कुंभ स्नान को मेले का स्वरूप देने के पीछे केवल नदी में डुबकी लगाना ही हमारे मनीषियो का उद्देश्य रहा होगा ? इस तरह के आयोजनो को नियमित अंतराल पर निर्ंतर स्वस्फूर्त आयोजन करने की व्यवस्था बनाने का निहितार्थ समझने की आवश्यकता है. आज तो लोकतांत्रिक शासन है हमारी ही चुनी हुई सरकारें हैं जो जनहितकारी व्यवस्था सिंहस्थ हेतु कर रही है पर कुंभ के मेलो ने तो पराधीनता के युग भी देखे हैं, आक्रांता बादशाहों के समय में भी कुंभ संपन्न हुये हैं और इतिहास गवाह है कि तब भी तत्कालीन प्रशासनिक तंत्र को इन भव्य आयोजनो का व्यवस्था पक्ष देखना ही पड़ा.समाज और शासन को जोड़ने का यह उदाहरण शोधार्थियो की रुचि का विषय हो सकता है. वास्तव में कुंभ स्नान शुचिता का प्रतीक है, शारीरिक और मानसिक शुचिता का. जो साधु संतो के अखाड़े इन मेलो में एकत्रित होते हैं वहां सत्संग होता है, गुरु दीक्षायें दी जाती हैं. इन मेलों के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जनमानस तरह तरह के व्रत, संकल्प और प्रयास करता है. धार्मिक यात्रायें होती हैं. लोगों का मिलना जुलना, वैचारिक आदान प्रदान हो पाता है. धार्मिक पर्यटन हमारी संस्कृति की विशिष्टता है. पर्यटन  नये अनुभव देता है साहित्य तथा नव विचारो को जन्म देता है,  हजारो वर्षो से अनेक आक्रांताओ के हस्तक्षेप के बाद भी भारतीय संस्कृति अपने मूल्यो के साथ इन्ही मेलों समागमो से उत्पन्न अमृत उर्जा से ही अक्षुण्य बनी हुई है.

जब ऐसे विशाल, महीने भर से अधिक अवधि तक चलने वाले भव्य आयोजन संपन्न होते हैं तो जन सैलाब जुटता है स्वाभाविक रूप से वहां धार्मिक सांस्कृतिक नृत्य,  नाटक मण्डलियो के आयोजन भी होते हैं,कला  विकसित होती है.  प्रिंट मीडिया, व आभासी दुनिया के संचार संसाधनो में आज  इस आयोज की  व्यापक चर्चा हो रही  है. लगभग हर अखबार प्रतिदिन सिंहस्थ की खबरो तथा संबंधित साहित्य के परिशिष्ट से भरा दिखता है. अनेक पत्रिकाओ ने तो सिंहस्थ के विशेषांक ही निकाले हैं. सिंहस्थ पर केंद्रित वैचारिक संगोष्ठियां हुई हैं, जिनमें साधु संतो, मनीषियो और जन सामान्य की, साहित्यकारो, लेखको तथा कवियो की भागीदारी से विकीपीडिया और साहित्य संसार लाभांवित हुआ है. सिंहस्थ के बहाने साहित्यकारो, चिंतको को  पिछले १२ वर्षो में आंचलिक सामाजिक परिवर्तनो की समीक्षा का अवसर मिलता है. विगत के अच्छे बुरे के आकलन के साथ साथ भविष्य की योजनायें प्रस्तुत करने तथा देश व समाज के विकास की रणनीति तय करने, समय के साक्षी विद्वानो साधु संतो मठाधीशो के परस्पर शास्त्रार्थो के निचोड़ से समाज को लाभांवित करने का मौका यह आयोजन सुलभ करवाता है. क्षेत्र का विकास होता है, व्यापार के अवसर बढ़ते हैं. जैसे इस बार ही सिंहस्थ में क्षिप्रा नदी में नर्मदा के पानी को छोड़ने की तकनीकी व्यवस्था ने सिंहस्थ स्नान को नव चेतना दी है.

हिंदी के साहित्य संसार को समृद्ध करने के हमारे मनीषियो और चिंतको के उस अव्यक्त उद्देश्य की पूर्ति में अपना योगदान हमें अवश्य योगदान करना चाहिये जिसको लेकर ही कुंभ जैसे महा पर्व की संरचना की गई है, क्योकि मेरे अभिमत में कुंभ धार्मिक ही नहीं एक साहित्यिक और पर्यटन का सांस्कृतिक आयोजन रहा है, और भविष्य में तकनीक के विकास के साथ और भी बृहद बनता जायेगा.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #11 – नया पर्व ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली    । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 11 ☆

 

☆ नया पर्व ☆

दृश्य और अदृश्य की बात अध्यात्म और मनोविज्ञान, दोनों करते हैं। यों देखा जाये तो मनोविज्ञान, अध्यात्म को समझने की भावभूमि तैयार करता है जबकि अध्यात्म, उदात्त मनोविज्ञान का विस्तार है। अदृश्य को देखने के लिए दर्शन, अध्यात्म और मनोविज्ञान को छोड़कर सीधे-सीधे आँखों से दिखते विज्ञान पर आते हैं।

जब कभी घर पर होते हैं या कहीं से थक कर घर पहुँचते हैं तो घर की स्त्री प्रायः सब्जी छील रही होती है। पति से बातें करते हुए कपड़ों की कॉलर या कफ पर जमे मैल को हटाने के लिए उस पर क्लिनर लगा रही होती है। टीवी देखते हुए वह खाना बनाती है। पति काम पर जा रहा हो या शहर से बाहर, उसके लिए टिफिन, पानी की बोतल, दवा, कपड़े सजा रही होती है। उसकी फुरसत का अर्थ हरी सब्जियाँ ठीक करना या कपड़े तह करना होता है।

पुरुष की थकावट का दृश्य, स्त्री के निरंतर श्रम को अदृश्य कर देता है। अदृश्य को देखने के लिए मनोभाव की पृष्ठभूमि तैयार करनी चाहिए। मनोभाव की भूमि के लिए अध्यात्म का आह्वान करना होगा। परम आत्मा के अंश आत्मा की प्रचिति जब अपनी देह के साथ हर देह में होगी तो ‘माताभूमि पुत्रोऽहम् पृथ्विया’  की अनुभूति होगी।

जगत में जो अदृश्य है, उसे देखने की प्रक्रिया शुरू हो गई तो भूत और भविष्य के रहस्य भी खुलने लगेंगे। मृत्यु और उसके दूत भी बालसखा-से प्रिय लगेंगे। आँख से  विभाजन की रेखा मिट जायेगी और समानता तथा ‘लव बियाँड बॉर्डर्स’ का आनंद हिलोरे लेने लगेगा।

जिनके जीवन में यह आनंद है, वे ही सच्चे भाग्यवान हैं। जो इससे वंचित हैं, वे आज जब घर पहुँचें तो इस अदृश्य को देखने से आरंभ करें। यकीन मानिये, जीवन का दैदीप्यमान नया पर्व आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – आईना ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ आईना ☆

आईना कभी झूठ नहीं बोलता, उसने सुन रखा था। दिन में कई बार आईना देखता। हर बार खुद को लम्बा-चौड़ा, बलिष्ठ, सिक्स पैक, स्मार्ट और हैंडसम पाता। हर बार खुश हो उठता।

आज उसने एक प्रयोग करने की ठानी। आईने की जगह, अपनी गवाही में अपने मन का आईना रख दिया। इस बार उसने खुद को  वीभत्स, विकृत, स्वार्थी, लोलुप और घृणित पाया। उसे यकीन हो गया कि आईना कभी झूठ नहीं बोलता।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 7 – मिलन आत्मा और प्राण का ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “मिलन आत्मा और प्राण का।)

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 7 ☆

 

☆ मिलन आत्मा और प्राण का 

 

असल में जब भगवान राम और भगवान हनुमान आमने सामने आये , तो वे दोनों एक दूसरे को पहचान गए । तो दोनों जानते थे कि कौन कौन है? अथार्त भगवान राम जानते थे कि उनके सामने हनुमान या भगवान शिव के अवतार स्वयं खड़े हैं और भगवान हनुमान को पता था कि वह भगवान राम के सामने खड़े हैं, लेकिन दोनों ऐसा दिखा रहे थे कि वो एक दूसरे को नहीं पहचानते हैं । असल में वे दोनों एक दुसरे की जाँच  कर रहे थे कि मेरे भगवान मुझे पहचानेंगे या नहीं? भगवान राम इंतजार कर रहे थे की कब उनके भगवान शिव, हनुमान के रूप में उनकी पहचान करेंगे । दूसरी ओर, भगवान हनुमान इंतज़ार कर रहे थे की कब उनके भगवान राम, भगवान विष्णु के अवतार उन्हें पहचानेंगे । तो इस समय दोनों के बीच बहुत ही अद्भुत वार्तालाप शुरू हो गया ।

भगवान हनुमान ने कहा, “यह हमारा निवास स्थान है और आप यहाँ  अतिथि हैं, इसलिए कृपया पहले आप मुझे बताइये कि आप कौन हैं?”

उत्तर  में भगवान राम ने मुस्कुराते हुए कहा, “तो आप आतिथेय हैं और हम अतिथि हैं, अच्छी बात है । पर यह अद्भुत बात है कि हम नहीं जानते कि हम किसके घर आये हैं या हम किसके अतिथि हैं”

तब लक्ष्मण ने कहा, “भाईया यह समय की बर्बादी है हम इनसे इनका परिचय पूछ रहे हैं और उत्तर  में वह हमारी पहचान पूछ रहे है । मेरे पास एक विचार है चलो प्रतिस्पर्धा करें, प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से पाँच प्रश्न पूछेगा । जो भी अधिक प्रश्नो के ज्यादा सटीक उत्तर देगा उसे दूसरे की पहचान पूछने का प्रथम अधिकार होगा । चलो इन ज्ञानी ब्राह्मण से शुरू करते हैं”

भगवान राम और भगवान हनुमान दोनों सहमत हो गए, एक-दूसरे के साथ वार्तालाप के खेल का आनंद लेने के लिए । तो पहले भगवान हनुमान ने भगवान राम से पाँच प्रश्न पूछे ।

भगवान हनुमान का प्रथम प्रश्न था, “सर्वोच्च ध्यान क्या है?”

भगवान राम ने उत्तर दिया, “सर्वोच्च ध्यान मन का खालीपन है । अगर हम किसी वस्तु पर ध्यान लगाते हैं तो हमारा उस वस्तु के प्रति आकर्षण उत्पन्न होता हैं, और आकर्षण वासना को उत्पन्न करता है जिसने हम इस दुनिया में फिर से बंध जाते है । बेशक शुरुआती चरणों में जब हमारा मस्तिष्क  बाह्य मुखी (बाहरी संसार की ओर  आकर्षित) होता है, तो हम बाहरी वस्तुओ पर ध्यान लगा सकते हैं और भगवन की प्रतिमाओं की ओर ध्यान लगा सकते हैं  पर हमें आगे बढ़ना होगा, अथार्त बाह्य वस्तु पर लगे ध्यान से आगे के चरणों में आंतरिक ध्यान पर या सगुण पर ध्यान की अवस्था से निर्गुण पर ध्यान तक ।

भगवान हनुमान ने कहा, “अति उत्तम ! एकदम सही उत्तर , मेरा दूसरा प्रश्न  है “कि किस धर्म या जात के मनुष्य ज़िंदगी ज्ञान प्राप्ति में आगे बढ़ने के लिए बेहतर है?”

भगवान राम ने उत्तर दिया, “यह इस बात पर निर्भर नहीं करता है की आपका जन्म धनवान परिवार में हुआ है या निर्धन परिवार में, आप गृहस्थ आश्रम में रहते है  या सन्यासी  हैं, और तो और इस बात पर भी नहीं की आप मानव योनि में जन्मे है या पशु के रूप में पैदा हुए है । बल्कि यह तो व्यक्ति की असीम ईश्वर की ओर बढ़ने की अपनी निजी इच्छा पर निर्भर करता है, और वह इच्छा और कुछ भी नहीं है, बल्कि आपके पिछले जन्मो और इस जन्म के कर्मों का कुल परिणाम है । कर्म कुछ और नहीं है, बल्कि किसी मनुष्य के जन्म, जाति, स्थान, पृष्ठभूमि, संस्कृति और पर्यावरण के अनुसार सही धर्म का पालन करना ही कर्म है”

भगवान हनुमान ने कहा, “फिर से बिलकुल सही उत्तर, मैं संतुष्ट हूँ । मेरा तीसरा प्रश्न यह है कि एक व्यक्ति का लिए धर्म क्या है इसे विस्तार से समझाए?”

भगवान राम ने कहा, “जैसा कि मैंने आपको बताया था कि धर्म हमारे अस्तित्व पर निर्भर करता है की हमारा जन्म ब्रह्मांड में किस स्थान और किस समय में हुआ है । उदाहरण के लिए मान लीजिए कि दो हिंदू ब्राह्मण हैं जो वेदों में वर्णित कर्मकांड (वेदों के अनुसार हिंदू धार्मिक अनुष्ठान) के पूर्णतय अनुयायी हैं । अब मान लीजिए कि ऐसी स्थिति है कि ये दो ब्राह्मण एक ऐसे स्थान पर फंस गए हैं जहाँ  माँस को छोड़कर खाने के लिए कुछ नहीं बचा है । अब, यदि इनमें से एक भूख से मरने वाला है, और यदि वह केवल माँस खता है , तो ही जीवित रह सकता है लेकिन वह नहीं खाएगा,और दूसरा ब्राह्मण उसे खाने की अनुमति नहीं देगा । यहाँ  तक ​​कि अगर उनकी मृत्यु हो जायगी तब भी वह दोनों संतुष्ट रहेंगे कि वे जीवन की कीमत पर भी अपने धर्म का पालन करते रहे । अब एक और लगभग समान स्थिति ले लो लेकिन इस बार दो राक्षस हैं- एक भूख से मरने वाला है और केवल माँस ही खाने का विकल्प है । तो दूसरा राक्षस उसे माँस खाने को देगा और संतुष्ट होगा कि उसने अपने साथी को खाने की लिए माँस दिया और उसका जीवन बचा लिया । वह यही सोचेगा की उसने अपने राक्षस धर्म का पालन करके अपने साथी के प्राण बचा लिए । तो आपने देखा है कि एक स्थिति में जब कोई व्यक्ति दूसरे को माँस खाने की अनुमति दे रहा है तो वह अपने धर्म का पालन कर रहा है और दूसरी  स्थिति में एक व्यक्ति दूसरे को माँस खाने नहीं देने की स्थिति में अपने धर्म का पालन कर रहा है । तो धर्म इस तथ्य पर निर्भर करता है कि किस जाति, देश, पृष्ठभूमि या पर्यावरण में हम पैदा हुए थे और जुड़े हुए हैं । उपर्युक्त उदाहरण में एक ब्राह्मण मर जाता है, लेकिन माँस नहीं खाता, जिसका अर्थ है कि उसने अपने धर्म का पालन करने के लिए अपना जीवन त्याग दिया है । इसलिए वास्तविकता में भी बलिदान ही ब्राह्मण का मुख्य धर्म है”

भगवान हनुमान इस उत्तर  से खुश थे और कहा, “मेरे भगवान आप वास्तव में एक ज्ञानी व्यक्ति हैं। मेरा चौथा प्रश्न यह है कि यदि आप युद्ध में सब कुछ खो देते हैं और कुछ भी नहीं बचता है तो भी वो आखिरी हथियार क्या है जो आपको जीत दिला सकता है ?”

भगवान राम ने उत्तर  दिया, “वह ‘आशा या उम्मीद है’ क्योंकि यदि आपके दिल में आशा है तो आप हारे हुए  युद्ध का परिणाम भी अपने पक्ष में बदल सकते हैं ।

भगवान हनुमान ने कहा, “मेरा आखिरी प्रसन्न यह है कि एक शब्द में प्रेम की परिभाषा क्या है?”

भगवान राम ने कहा, “वह ‘बलिदान’ है । बलिदान के बिना दिल में कोई प्रेम नहीं हो सकता है । सच्चा प्यार अपनी इच्छाओ का त्याग है ताकि वह अपने प्रेमी के चेहरे पर एक पल की मुस्कान ला सके ”

भगवान हनुमान, भगवान राम के चरणों की ओर झुकते हुए कहते है, “भगवान! कृपया मुझे बताइये कि आप मुझे पहचान क्यों नहीं रहे है?”

भगवान राम ने मुस्कुराते हुए भगवान हनुमान के कंधो को पकड़ा और कहा, “मित्र अब पाँच प्रश्न पूछने की मेरी बारी है । क्या आप तैयार है?”

भगवान हनुमान ने कहा, “मेरे भगवान आप पहले से ही विजेता हैं, लेकिन ठीक है, मैं आपके प्रश्नो का उत्तर देने का प्रयत्न करूँगा । कृपया पूछें”

भगवान राम ने कहा, “मेरा पहला प्रश्न यह है कि सबसे बड़ा त्याग क्या है?”

भगवान हनुमान ने कहा, “अहंकार का त्याग ही सबसे बड़ा त्याग है और करने में सबसे कठिन  है”

भगवान राम ने कहा, “ठीक है, मेरा दूसरा प्रश्न  है सफलता क्या है?”

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “जिस दिन आप संतुष्ट हैं, वह आपकी सफलता को परिभाषित करता है । यदि आप हर रात्रि संतुष्टि के साथ सोते हैं तो आप सफल हैं, लेकिन यदि किसी रात्रि आपके कारण अधिक से अधिक लोग संतुष्ट सोते हैं, तो आप जीवन में और भी ज्यादा सफल हैं”

भगवान राम ने उत्तर दिया, “हाँ बहुत अच्छा उत्तर , मेरा तीसरा प्रश्न, सच्चाई क्या है?

भगवान हनुमान ने कहा, “जो कुछ भी आपको किसी भी परिस्थिति में अपना धर्म करने के करीब ले जाता है वह ही सच है”

भगवान राम ने कहा, “ठीक है, मैं आपके उत्तर से संतुष्ट हूँ, अब मेरा चौथा प्रन्न यह है कि वास्तविक धन क्या है?”

भगवान हनुमान ने उत्तर दिया, “परिवार और मित्र ही मनुष्य की असली संपत्ति हैं”

भगवान राम ने कहा, “ठीक है, फिर से सही उत्तर, तो मेरा आखिरी प्रश्न है जिसका उत्तर आप सही नहीं दे पाओगे, और वह प्रश्न है कौन बड़े  भगवान है, भगवान विष्णु या भगवान शिव?”

भगवान राम ने वार्तालाप समाप्त करने और जल्द सुग्रीव से मिलने के लिए इस प्रश्न को पूछा, क्योंकि उन्हें पता था कि हनुमान भगवान शिव के अवतार है, इसलिए उनका उत्तर भगवान विष्णु होगा और दूसरी ओर भगवान राम का मानना ​​है कि शिव महानतम हैं । असल में यह भगवान या किसी अन्य महान व्यक्ति का एक महान गुण है कि वह कभी नहीं कहता कि वह खुद सबसे अच्छा या महान है । भगवान राम जो भगवान विष्णु के अवतार हैं, विष्णु को महानतम नहीं बता सकते, और इसी प्रकार भगवान हनुमान जो भगवान शिव के अवतार है, वो शिव को कभी भी महानतम नहीं बतायंगे ।

भगवान हनुमान जानते थे कि भगवान राम उनके साथ चाल चल रहे है । वह आँखों में आँसूो के साथ मुस्कुराते हुए कहते है, “मुझे नहीं पता कि कौन सबसे महान है, लेकिन मेरे लिए सबसे बड़े भगवान मेरा श्री राम है”

भगवान हनुमान भगवान राम के चरणों में गिर जाते हैं । लक्ष्मण भी भगवान और उनके भक्त के इस महान मिलन को देख रहे थे ।

इस प्रतिस्पर्धा में भगवान राम जीत गए थे पर वो भगवन हनुमान की भक्ति से हार गए थे । भगवान राम भगवान हनुमान की बाहों को पकड़ते हैं और उन्हें गले लगा लेते हैं ।

 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – गुरुजनों को नमन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

शिक्षक दिवस विशेष

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ गुरुजनों को नमन ☆

प्रेरकः सूचकश्चैव वाचको दर्शकस्तथा

शिक्षको बोधकोश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः।

प्रेरणा देनेवाले, सूचना या जानकारी देनेवाले, सत्य का भान करानेवाले, मार्गदर्शन करनेवाले, शिक्षा देनेवाले, बोध करानेवाले- ये सभी गुरु समान हैं।

मेरे माता-पिता, सहोदर, शिक्षक, संतान, साथी, पाठक, दर्शक, शत्रु, मित्र, आलोचक, प्रशंसक हर व्यक्ति मेरा शिक्षक है। जीवन के विभिन्न पड़ावों पर विभिन्न पहलुओं का ज्ञान देनेवाले सभी गुरुजनों को नमन।

शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य ☆ शिक्षक दिवस विशेष ☆ विमर्श – शिक्षक कल आज और कल ☆ ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’, श्रीमति समीक्षा तैलंग,  श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे एवं सुश्री स्मिता रविशंकर

शिक्षक दिवस विशेष 

विमर्श – शिक्षक कल आज और कल

मैं इस विमर्श में भाग लेने के लिए सभी सम्माननीय लेखकों का आभारी हूँ जिन्होंने मात्र एक दिवस के समय में अपना बहुमूल्य समय देकर हमारे पाठकों को एक विचारणीय विषय शिक्षक कल आज और कल पर अपने अनुभव,  संस्मरण और बेबाक राय रखी.  जब मैंने  अपने व्हाट्सएप्प ग्रुप पर यह सन्देश डाला -” शिक्षक आज और कल (गुजरा और आने वाला),  कृपया अपने विचार (हिंदी/मराठी/अंग्रेजी में ) भेजें, शब्द सीमा 200,  समय सीमा – 4  सितम्बर 2019  दोपहर 12  बजे” तो अचानक सन्देश एवं फोन कॉल आने लगे कि – “समय सीमा तो ठीक है किन्तु शब्द सीमा अत्यंत सीमित है. ”

मैं आपसे करबद्ध क्षमा चाहूंगा – किन्तु, सत्य मानिये यह एक प्रयोग था और वास्तव में कम से कम हम अपने शिक्षक और शिक्षा जैसे  शब्दों / विषयों को शब्द सीमा में बाँध ही नहीं सकते. इस विमर्श के माध्यम से मैंने प्रयास किया है साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र से वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे, वरिष्ठ शिक्षक श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’, सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारा श्रीमती समीक्षा तैलंग एवं एक युवा लेखिका सुश्री स्मिता रविशंकर के विचार आप तक पहुंचाऊं. 

यह एक शाश्वत सत्य है कि सर्वप्रथम हम जीवन में छात्र ही होते हैं फिर जीवन के विभिन्न पड़ावों पर शिक्षक की भूमिका भी यथावत निभाते रहते हैं.  हमारे खट्टे-मीठे अनुभव हमें अपने छात्र मित्रों और शिक्षकों की छवि को लेकर जीवन पर्यन्त हमारे साथ अपनी  जीवन यात्रा में चलते रहते हैं और समय समय पर उन्हें स्मरण कर कदाचित मुस्कराते अथवा विस्मित होते रहते हैं.

इस विमर्श में एक विशेष बात यह है कि वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी ने ई-अभिव्यक्ति के साहित्य से प्रेरित होकर पहली बार हिंदी में अपने विचार प्रकट करने का प्रयास किया है जो वास्तव में राज भाषा मास पर हमारी एक बड़ी उपलब्धि है.

मेरे जीवन में ई-अभिव्यक्ति की इस यात्रा में मेरे गुरुजनों का आशीर्वाद सदा बना रहा और बना रहे ऐसी अपेक्षा करता हूँ .  मेरे प्रथम प्राचार्य प्रोफेसर श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव और डॉ राज कुमार  ‘सुमित्र’ जी का वरदहस्त तो आज भी मुझ पर बना हुआ है. ईश्वर उन्हें शतायु दे एवं वे सदैव स्वस्थ रहें और ऐसे ही मार्गदर्शन देते रहें. ई-अभिव्यक्ति में सतत रूप से जुड़े हुए वरिष्ठ साहित्यकार और पूर्व प्राचार्य   / प्राध्यापक / शिक्षाविद डॉ मुक्ता (राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित), आचार्य भगवद दुबे, सुप्रसिद्ध मराठी साहित्यकार सुश्री प्रभा सोनवणे , मराठी साहित्यकार श्री अशोक भाम्भुरे, मराठी साहित्यकार कविराज विजय सातपुते,  पूर्व प्राचार्य एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ कुंदन सिंह परिहार, सुश्री नीलम सक्सेना चंद्र (अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित एवं  लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में दर्ज), एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर, महा मेट्रो, पुणे, सुश्री निशा नंदिनी भारतीय (सुदूर उत्तर पूर्व से अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध शिक्षाविद एवं साहित्यकार), डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’, डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ श्री जय प्रकाश पाण्डेय और एक लम्बी फेहरिस्त है( जिनका नाम छूट रहा है उनसे क्षमा याचना सहित)  जिनका मार्गदर्शन समय समय पर मिलता रहता है.  सबको सादर प्रणाम एवं अभिवादन.  सबका आशीर्वाद स्नेह बना रहे.

इसी अभिलाषा के साथ ….

हेमन्त बावनकर, पुणे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

* मेरे गुरुजन * 

मैं प्रायमरी स्कूल की दूसरी कक्षा में पढ़ती थी। तब पूज्यनीय एम. एम. कुरेशी नामक अध्यापक हार्मोनियम बजाकर हमे रोज की प्रार्थना सिखाते थे।

वह पान खाने के बहुत शौकीन थे। उसकी वजह से उनका मुँह हमेशा लाल रंग का दिखायी देता था। उनके बालों का रंग मी शायद मेहंदी की वजह से लाल था। इसलिये सब उन्हें लालमिया पुकारते थे। साल पूरा होने के बाद उनका तबादला कर दिया गया। हम सब बहुत रोये। फिर कभी हमें हार्मोनियम वाले अध्यापक नहीं मिले।

माध्यमिक विद्यालय में हमें अंग्रेजी विषय पढ़ाने के लिये पूज्यनीय शेंडे सर थे। उनकी वेषभूषा धोती, काला कोट और टोपी थी! वह बहुत ही अनुशासनप्रिय थे।

उनके सामने से जाने से ही हम घबराते थे। उन्होंने मनसे हमें पढाया उसकी वजहसे हमें अंग्रेजी सीखने में रुचि पैदा हो गयी।

मेरा प्यारा विषय संस्कृत सिखाने के लिए  पूज्यनीय म. स. आपटीकर नाम के  अध्यापक थे।  उन्होंने हमें संस्कृत भाषा का अति उत्तम ज्ञान दिया। उनकी अच्छी पढाई की वजहसे मुझे हमेशा अच्छे अंक मिले ! महाविद्यालयीन परीक्षाओं में भी मैं उच्चतम अंकों से पास हुई।

उनकी कृपा से वेदपाठन वर्ग में मुझे बहुत अच्छा ज्ञान मिला। उनकी खुद की लिखी हुई कई पुस्तकों में से “शिवस्तोत्रावली” में से कुछ स्तोत्र हमारे वेदपाठन मे समाविष्ट किये गये हैं।  आज भी मैं उन्हें रोज पढ़ती हूँ।

अच्छे गुरुजन सबको मिले यही शुभकामना करती हूँ।

“शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!”

 

©®उर्मिला इंगळे

दिनांक ५ सितंबर २०१९

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

 

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

*शिक्षक कल आज और कल*

 

पहले शिक्षक निडरता से बच्चों को पढ़ाते थे । बच्चों को केवल पढ़ना और खेलना होता था । समय के साथ सब कुछ बदलता रहा हैं ।

शिक्षक और बच्चों का बदलना प्रकृति का नियम है । इसे झुठलाया नहीं जा सकता है। शिक्षक से पहले बच्चे बहुत डरते थे । इस के विपरित, अब बच्चों से शिक्षक डरने लगे हैं । कहीं बच्चा कुछ कह न दें । अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाएगा।

इसी अनर्थ ने बच्चों को अर्थयुक्त युक्ति और शिक्षा से दूर कर दिया है । बच्चों ने भी अब निडर रहना सीख लिया है । इससे उनमें अनुशासनहीनता घर कर गई है । यानि जिसे वे पसंद नहीं करते उस की बात मानना छोड़ दिया हैं । यह धारणा उनमें फलीभूत हो गई है। जिसे उन के मित्र, पत्रकार साथी और पालक हवा दे रहे हैं। इसी बहती हवा से उन में अनुशासनहीनता की प्रवृति बढ़ रही हैं ।

बचीकुची कसर राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने पूरी कर दी । जब से आरटीई आया है तब से बच्चे ने पढ़ना बंद कर दिया हैं। उसे पता है कि वह पढ़े या न पढ़े, उसे कोई अनुतीर्ण नहीं कर सकता हैं । इस से वे आलसी हो गए हैं । इसी वजह से उन्होंने पढ़ना बंद कर दिया है। डरे हुए शिक्षकों ने पढ़ाना छोड़ दिया है।

बच्चा पढ़ाई से दूर होता चला गया है। संस्कार की जगह उद्दंडता में उत्तीर्ण होने की कोशिश लगा हैं।  डर की जगह दूसाहस ने ले ली और वह उस में पास होने लगा ।

पढ़ने की जगह देखने ने ले ली है। यानी हर चीज उसे देखना पसंद आने लगी है। पुस्तक देखने और कहानी सुनने की जगह देखने में उस की रुचि बढने लगी।  शिक्षक ने कुछ कहा तो वह उसे भी ‘देख’ लेने की कोशिश करने लगा है । वह यह नहीं ‘देख’ पाता है तो उसके माता-पिता और पत्रकार ‘देख’ लेने की धमकी दे देते हैं ।

यही वजह है कि बच्चा अपने माता-पिता को दूसरे के पास ‘देख’ कर खुश होता रहता है । उसे सरकार से मिली सुविधा की कारस्तानी की कार चाहिए । वह संस्कार से मिली कार से दूर होने लगा है ।

बस यही फर्क रह गया है शिक्षक के कल, आज और कल की भूमिका में ।  उस की गरिमा और गौरव अब घट गया हैं । उस की पहले जो पूछपरख थी वह अब कम हो गई । इस वजह से उसकी गरिमा में से गुरुता चली गई है।

अब शिक्षा का मंत्र उस के गुण में समा गया है । संस्कार चले गए हैं। काम चोरी की निडरता आ गई है। छात्रों में शिक्षकों को सम्मान करने की परंपरा नहीं रही है । इस के विपरित उनका पुतला जलाने की विचारधारा हावी होने लगी है।

गुरु का दूर नियंत्रक मंत्र अब दूसरे के हाथ में चला गया हैं ।  पहले गुरु को देखकर बच्चा हाथ में पकड़ी सिगरेटबीड़ी छूपा लेता था अब वह गुरु को बीड़ी सिगरेट हाथ में देने लगा है । पहले विद्या सीखी जाती थी  जाती थी। अब केवल उत्तीर्ण होने के लिए पढ़ी जाती है ।

बस यही अंतर रह गया है कल, आज और कल के गुरु और उस की शिक्षा में ।

ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

 

श्रीमति समीक्षा तैलंग 

* वो शिक्षक कम, पालक ज़्यादा थे *

 

मेरे करकरे सर। प्यार से उन्हें सभी बापू कहते। अंग्रेज़ी पढ़ाते थे। वो भी बग़ैर मानदेय। सरकारी कॉलेज से रिटायर्ड थे। दोनों बेटियों की शादी हो चुकी थी। घर में बस पति पत्नि। मुझसे उनका बहुत लगाव रहा। अंग्रेज़ी में एक बार मैंने निबंध लिखा, वो भी चार धाम यात्रा पर। उन्हें इतना पसंद आया कि कभी तारीफ़ न करने वाले, उन्होंने जमकर तारीफ़ की। बड़ा अच्छा लगा। तब शिक्षक काफ़ी स्ट्रिक्ट हुआ करते थे। बच्चों को सुधरने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते थे। बीमार होने पर वे होम्योपैथी की दवा बनाकर कई बार घर भी पहुँचा जाते। और उनकी दवा से मैं ठीक भी हो जाती। ये हुआ करता था आपसी रिश्ता, एक शिक्षक और छात्रों के बीच। मुझे अच्छे से याद है कि जब मेरे पिताजी का ट्रांसफर हुआ तो उन्होंने कहा था, पापा का नाम लेकर कि बेटा इसे मेरे पास छोड़ जाओ। बिलकुल चिंता मत करना। मैं इसे अपनी बेटी ही मानता हूँ। बड़ी हो गई है, मेरी गाड़ी दे दूँगा। कहीं भी अकेले नहीं जाना पड़ेगा। मेरे पापा भी बहुत भावुक हो गए थे उनकी बातें सुनकर। लेकिन वो भी अपनी बेटी को किसी को सौंपना नहीं चाहते थे। हम लोग ग्वालियर शिफ़्ट हो गए। सर ने “पेड़” पर एक लेख लिखा था और कहा था कि बेटा तुम अब पत्रकार हो। अच्छा लगे तो कहीं छपवा देना। मैंने उसे अभी तक बहुत सम्भालकर रखा था। लेकिन अबकि ट्रांसफर में कहीं दाएँ बाएँ हो गया। उसका मुझे बहुत दुःख होता है। लेकिन मैं अपने सर को हमेशा याद करती हूँ। उनकी छवि मेरे दिमाग़ में अंकित है, जिसे कोई मिटा नहीं सकता। उनके जैसे कर्तव्यनिष्ठ, सही मायने में समाजसेवी, परोपकारी, ज्ञानी, सभी छात्रों को अपना बच्चा मानने वाले और घर में भी मुफ़्त शिक्षा बाँटने वाले मेरे शिक्षक को मेरा हमेशा ही प्रणाम और नमन रहेगा। शायद इस पीढ़ी में ये सम्बंध और गहरा विश्वास डोल चुका है।

समीक्षा तैलंग, पुणे (महाराष्ट्र)

 

स्मिता रविशंकर

शिक्षा और शिक्षक – आज और कल 

शिक्षक आज नये विचारो के होगें ऐसा हमें लगता है, पर शिक्षा के कई क्षेत्रों में पुरानी घिसी-पिटी परंपरा कहकर पुरानी विचारधारा ही दिखाई देती है।

आदि काल मे सीमित लोगों को ही पढ़ने का हक था। हम बरसों गुलाम रहे। हम सभी को पढ़ने का हक तो मिला किन्तु, ऐसा लगता है कि हमें मैं, मेरा और अहंकार आदि से आज घमंड ही ले डूब रहा है।

शायद मेरा अनुभव अच्छा न रहा हो। कहीं-कहीं पर आज भी कुछ शिक्षक भेदभाव कर शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। आज हर गाँव में शालाएँ हैं किन्तु शिक्षा देने वाले अच्छे शिक्षकों का अभाव है। मेरे विचार से आदर्श शिक्षकों को बिना किसी जाति, धर्म आदि भेदभाव से अलग होकर छात्रों में बिना कोई खामियाँ निकाले शिक्षा देना चाहिए। भेदभाव की भावना वाले शिक्षक से दी गई शिक्षा से तो …..

कभी कभी लगता है कि आज अगर पुस्तकें और इंटरनेट ना होता तो क्या होता? शायद समाज पिछड़ा होता या…. आत्मविश्वास मेहनत और गरीबी के साथ ही आगे जा रहा होता….

ऐसे शिक्षक और शिक्षा का क्या फायदा …..

जिन्होने खुद की सोच और विचारधारा में कोई प्रगति नहीं की….

जो समाज को बड़ी बड़ी बातें बताकर खुद को नहीं बदल नहीं सके….

प्रकृति ने सबको समान बनाया है, समान बुद्धि दी है, उसका आप कैसे उपयोग करते हैं वह आप पर छोड़ दिया है। अच्छी पुस्तकें ही आपकी अच्छी शिक्षक हैं।

स्मिता रविशंकर 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – ☆ वर्तमान शिक्षा का आधार प्राचीन शिक्षा व्यवस्था हो ☆ – डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

शिक्षक दिवस विशेष

डॉ ज्योत्सना सिंह राजावत

 

(शिक्षक दिवस के अवसर पर आज प्रस्तुत है डॉ. ज्योत्सना सिंह रजावत जी का विशेष आलेख “वर्तमान शिक्षा का आधार प्राचीन शिक्षा व्यवस्था हो”.)

 

☆ वर्तमान शिक्षा का आधार प्राचीन शिक्षा व्यवस्था हो ☆

 

विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन ।

स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥

प्राचीन काल में शिक्षा की महत्ता को यहाँ तक स्वीकार किया गया है कि विद्वान और राजा की कोई तुलना नहीं हो सकती है. क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, जबकि विद्वान सर्वत्र, यानि जहाँ-जहाँ जाता है हर जगह सम्मान पाता है।भारत की प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिकता पर आधारित थी। शिक्षा का प्रारंभिक स्वरूप ऋग्वेद था। वेद और वेदागों में शिक्षा का उद्देश्य, ब्रह्मचर्य, तप और योगाभ्यास से तत्वों का समन्वित सार, उपनिषद, आरण्यक, वैदिक संहिताओं में, स्वाध्याय, सांगोपांग अध्ययन, श्रवण, मनन की शिक्षा दी जाती थी।विद्यार्थी जीवन का सबसे पहला और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम था जहाँ बालक की पाँच वर्ष की अवस्था से शिक्षा आरंभ कर दी जाती थी। गुरुगृह में रहकर गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता  उपनयन संस्कार से प्राप्त होती थी। धर्म ग्रन्थों में चारो वर्णों के बालकों के अध्ययन की अवस्था का अलग- अलग विधान था। गुरु के उपदेश पर चलते हुए वेदग्रहण करनेवाले व्रतचारी श्रुतर्षि जो सुनकर वेदमंत्रों को कंठस्थ कर लेते थे। आचार्य स्वर के साथ वेदमंत्रों का परायण करते और  ब्रह्मचारी छात्र उन उसी प्रकार दोहराते चले जाते थे।  ब्रह्मचर्य का पालन सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था। प्रातः वन्दन संध्या वन्दन,होम अनुष्ठान करते थे। विद्यार्थियों के लिए भिक्षाटन अनिवार्य था। भिक्षा से प्राप्त अन्न गुरु को समर्पित कर देते थे। समावर्तन के अवसर पर गुरुदक्षिणा देने की प्रथा थी। समावर्तन के पश्चात्‌ भी स्नातक स्वाध्याय करते, नैष्ठिक ब्रह्मचारी आजीवन अध्ययन करते, समावर्तन के ब्रह्मचारी दंड, कमंडल, मेखला, आदि को त्याग देते थे। ब्रह्मचर्य व्रत में जिन-जिन वस्तुओं का निषेध था उन सबका उपयोग कर सकते थे।ब्रह्मचारी अध्ययन और अनुसंधान में सदा लगे रहते थे ,वाद विवाद और शास्त्रार्थ में संम्मिलित होकर अपनी योग्यता का प्रमाण देते थे।

भारतीय शिक्षा में आचार्य का स्थान बड़ा ही गौरव स्थान था। उनका बड़ा आदर और सम्मान होता था। आचार्य पारंगत विद्वान्‌, सदाचारी, क्रियावान्‌, विद्यार्थियों के कल्याण के लिए सदा कटिबद्ध रहते उनके चरित्र निर्माण,के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते थे।

धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।

तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥

धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं ।

आजकल गुरु शिष्य परम्परा मिट गई है। प्राचीन शिक्षा प्रणाली एवं वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बहुत अंतर आ गया है।अब शिक्षकों का मुख्य उद्देश्य अर्थ कमाना है। अब न गुरुओं में समर्पण है एवं चरित्र निर्माण की बात है ,और न ही छात्रों में सम्मान की भावना। अब इन दोनों के मध्य सिर्फ औपचारिकता मात्र रह गई है। पहले जहाँ बच्चे शिक्षा प्राप्त करने के लिए,घर परिवार से दूर गुरुकुल में रहते थे। गुरु मातृ पितृ से बढ़कर होते थे , गुरु छात्रों को अन्तः ज्ञान और वाह्य ज्ञान की शिक्षा के लिए सदैव समर्पित रहते थे। आज मशीनीकरण के युग में शिक्षा देने के उपकरण भी उपलब्ध हो गए हैं, बच्चों में नैतिक मूल्यों काआभाव हो गया है।वर्तमान शिक्षा का आधार प्राचीन शिक्षा व्यवस्था हो । प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित हो।

 

डॉ ज्योत्स्ना सिंह

सहायक प्राध्यापक, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – ☆ इससे श्रेष्ठ शिक्षक नहीं देखे ☆ श्रीमति समीक्षा तैलंग

श्रीमति समीक्षा तैलंग 

 

(शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है श्रीमति समीक्षा तैलंग जी  का विशेष आलेख  इससे श्रेष्ठ शिक्षक नहीं देखे. )

 

☆ इससे श्रेष्ठ शिक्षक नहीं देखे ☆

 

वैसे तो मेरी स्कूली पढाई किसी घुमक्कड़ की तरह ही 6 स्कूलों से हुई। मतलब किंडरगार्टन से लेकर बारहवीं। ऊपर से ये कि एक बीएससी ही किया उस पर भी दो विश्वविद्यालयों का ठप्पा। न जाने कितने तरह के टीचरों से पाला पडा़। कभी पीटने वालों से भी पडा़। और कभी प्यार से समझाकर सिखाने वालों से भी।

सोने पे सुहागा ऐसा कि पढाई भी दो माध्यमों से पूरी हुई। पहले अंग्रेजी फिर हिंदी माध्यम वो भी आठवीं में बदला गया। भैया ट्रांसफर के यही हाल होते हैं। सरकार तो बस ऑर्डर देना जानती है। शहरों से लेकर घरों की अदला बदली और फिर स्कूलों की अदला बदली से लेकर टीचरों और दोस्तों की। सब कुछ गड्डमड्ड।

पर आखिरी स्कूल की बात ही कुछ अलग थी। जितने भी टीचर थे वे खुद इतने अनुशासन में रहते कि बच्चों को अनुशासन में होना आवश्यक ही था। उन्हें जरा भी अनुशासनहीनता नहीं चलती। छोटी छोटी बातों पर कडी निगाह रहती। ब्लैकबोर्ड पर समझाते वक्त पूरा ध्यान रहता कि बैकबैंच पर कुछ खिचड़ी तो नहीं पक रही।

चॉक का निशाना भी बडा़ सटीक बैठता। क्लास में लडके लडकियां सब साथ पढते। पर पीटते वक्त टीचर कोई भेदभाव न करते। गलती की सजा दोनों को बराबर। आज के समय में शिक्षक भी सहमा हुआ और बच्चा भी। उस समय पढाई ऐसी कि कभी ट्यूशन पढने की जरूरत महसूस नहीं हुई। और यदि कोई अनुपस्थित हुआ बिना कारण तो समझो फिर उसकी शामत।

अरे भाई, घर धमक जाते सीधे। और यदि कोई वाजिब कारण मिलता तब उनकी पूरी कोशिश रहती कि बच्चे को कोई दिक्कत न हो। या पढाई में पीछे न छूट जाए। जिसके लिए प्राचार्य से निर्देश रहते कि स्कूल के बाद उनके घर जाकर पढाया जाए। और वे जाते भी।

उस स्कूल का एक और अलग रिवाज था। वहां किसी अभिवावक को स्कूल में टिचरों से मिलने नहीं आना पडता। बल्कि क्लास टीचर निश्चित दिन प्रत्येक छात्र के घर जाया करते। बाकायदा डायरी में पूरी रिपोर्ट तैयार करते। घर में सबसे मिलकर जाते।

एक बार की बात है। एक महीना तेज बुखार के कारण स्कूल नहीं जा पायी। तब हम लोग छतरपुर में रहते थे। वहां उस समय उतना अच्छा इलाज नहीं था। ग्यारहवीं क्लास में थी। वो भी साइंस सब्जेक्ट के साथ। कार से ग्वालियर ले जाया गया। ठीक होने में लगभग बीस पच्चीस दिन और लगे।

वापसी हुई तो ढेर सारी पढाई छूट चुकी थी। परीक्षाएं नजदीक थी। कोर्स को अपनी गति से बढना ही था। स्कूल में टीचरों ने एक्स्ट्रा क्लासेस लेकर पढाया। अब क्लास के संग पढाई का मिलना बहुत मुश्किल होता जा रहा था। हमारे स्कूल के प्राचार्य ने तभी निर्देश दिए कि उसकी पढाई काफी पिछड़ गई है। आप लोग हफ्ते में एक दिन जब तक कोर्स क्लास से नहीं मिल जाता और उसे जब तक समझ में नहीं आ जाता तब तक घर जाकर पढाना होगा। ट्यूशन पर पूरी पाबंदी थी। और शिक्षक भी अपने काम में ईमानदार। बचपन में देखा हुआ आगे के लिए सीख होती है।

सच में आज भी याद है, उन टीचरों ने इतनी मेहनत से पढाया कि उस समय भी उन्होंने मुझसे 75% प्रतिशत के ऊपर लाकर ही दम लिया। वो भी साइंस स्ट्रीम में।

वाकई तब हमारे शिक्षक सख्त जरूर हुआ करते थे। पर उन्हीं की बदौलत तब जो भी कुछ सीख पाए, आज तक याद है। उन सभी गुरुजनों को मेरा हृदय से नमन।

उस स्कूल के मेरे कुछ दोस्त फेसबुक पर हैं जो शायद इस पोस्ट को पढकर उन्हें भी अपने स्कूल के लिए गर्व महसूस होगा।

 

© श्रीमति समीक्षा तैलंग, पुणे 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – बचपना – सेल्फमेड ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ बचपना – सेल्फमेड  ☆

 

बच्चों को उठाने के लिए माँ-बाप अलार्म लगाकर सोते हैं। जल्दी उठकर बच्चों को उठाते हैं। किसीको स्कूल जाना है, किसीको कॉलेज, किसीको नौकरी पर। किसी दिन दो-चार मिनट पहले उठा दिया तो बच्चे चिड़चिड़ाते हैं।  माँ-बाप मुस्कराते हैं, बचपना है, धीरे-धीरे समझेंगे।…धीरे-धीरे बच्चे ऊँचे उठते जाते हैं और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।

सोचता हूँ कि माँ-बाप और परमात्मा में कितना साम्य है! जीवन में हर चुनौती से दो-दो हाथ करने के लिए जागृत और प्रवृत्त करता है ईश्वर। माँ-बाप की तरह हर बार जगाता, चाय पिलाता, नाश्ता कराता, टिफिन देता, चुनौती फ़तह कर लौटने की राह देखता है। हम फ़तह करते हैं चुनौतियाँ और खुद को ‘सेल्फमेड’ घोषित कर देते हैं।

कब समझेंगे हम? अनादिकाल से चला आ रहा बचपना आख़िर कब समाप्त होगा?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares
image_print