हिन्दी साहित्य – अटल स्मृति – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि –  ‘अ’ से अटल ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

? संजय दृष्टि  – ‘अ’ से अटल ?

(अटल जी की प्रथम पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि। गतवर्ष उनके महाप्रयाण पर उद्भूत भावनाएँ साझा कर रहा हूँ।)

 

अंततः अटल जी महाप्रयाण पर निकल गये। अटल व्यक्तित्व, अमोघ वाणी, कलम और कर्म से मिला अमरत्व!

लगभग 15 वर्षों से सार्वजनिक जीवन से दूर, अनेक वर्षों से वाणी की अवरुद्धता, 93 वर्ष की आयु में देहावसान और  तब भी अंतिम दर्शन के लिए जुटा विशेषकर युवा जनसागर। ऋषि व्यक्तित्व का प्रभाव पीढ़ियों की सीमाओं से परे होता है।

हमारी पीढ़ी गांधीजी को देखने से वंचित रही पर हमें अटल जी का विराट व्यक्तित्व  अनुभव करने  का सौभाग्य मिला। इस विराटता के कुछ निजी अनुभव मस्तिष्क में घुमड़ रहे हैं।

संभवतः 1983 या 84 की बात है। पुणे में अटल जी की सभा थी। राष्ट्रीय परिदृश्य में रुचि के चलते इससे पूर्व विपक्ष के तत्कालीन नेताओं की एक संयुक्त सभा सुन चुका था पर उसमें अटल जी नहीं आए थे।

अटल जी को सुनने पहुँचा तो सभा का वातावरण देखकर आश्चर्यचकित रह गया। पिछली सभा में आया वर्ग और आज का वर्ग बिल्कुल अलग था। पिछली सभा में उपस्थित जनसमूह में मेरी याद में एक भी स्त्री नहीं थी। आज लोग अटल जी को सुनने सपरिवार आए थे। हर परिवार ज़मीन पर दरी बिछाकर बैठा था। अधिकांश परिवारों में माता,पिता, युवा बच्चे और बुजुर्ग माँ-बाप को मिलाकर दो पीढ़ियाँ  अपने प्रिय वक्ता  को सुनने आई थीं। हर दरी के बीच थोड़ी दूरी थी। उन दिनों पानी की बोतलों का प्रचलन नहीं था। अतः जार या स्टील की टीप में लोग पानी भी भरकर लाए थे। कुल जमा दृश्य ऐसा था मानो परिवार बगीचे में सैर करने आया हो। विशेष बात यह कि भीड़, पिछली सभा के मुकाबले डेढ़ गुना अधिक थी। कुछ देर में मैदान खचाखच भर चुका था। सुखद विरोधाभास यह भी  कि पिछली सभा में भाषण देने वाले नेताओं की लंबी सूची थी जबकि आज केवल अटल जी का मुख्य वक्तव्य था। अटल जी के विचार और वाणी से आम आदमी पर होने वाले सम्मोहन का यह मेरा पहला प्रत्यक्ष अनुभव था।

उनकी उदारता और अनुशासन का दूसरा अनुभव जल्दी ही मिला। महाविद्यालयीन जीवन के जोश में किसी विषय पर उन्हें एक पत्र लिखा। लिफाफे में भेजे गये पत्र का उत्तर पोस्टकार्ड पर उनके निजी सहायक से मिला। उत्तर में लिखा गया था कि पत्र अटल जी ने पढ़ा है। आपकी भावनाओं का संज्ञान लिया गया है। मेरे लिए पत्र का उत्तर पाना ही अचरज की बात थी। यह अचरज समय के साथ गहरी श्रद्धा में बदलता गया।

तीसरा प्रसंग उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद का है। बस से की गई उनकी पाकिस्तान यात्रा के बाद वहाँ की एक लेखिका अतिया शमशाद  ने प्रचार पाने की दृष्टि से कश्मीर की ऐवज़ में उनसे विवाह का एक भौंडा प्रस्ताव किया था। उपरोक्त घटना के संदर्भ में तब एक कविता लिखी थी। अटल जी के अटल  व्यक्तित्व के संदर्भ में उसकी कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं-

मोहतरमा!

इस शख्सियत को समझी नहीं

चकरा गई हैं आप,

कौवों की राजनीति में

राजहंस से टकरा गई हैं आप..।

कविता का समापन कुछ इस तरह था-

वाजपेयी जी!

सौगंध है आपको

हमें छोड़ मत जाना,

अगर आप चले जायेंगे

तो वेश्या-सी राजनीति

गिद्धों से राजनेताओं

और अमावस सी व्यवस्था में

दीप जलाने

दूसरा अटल कहाँ से लाएँगे..!

राजनीति के राजहंस, अंधेरी व्यवस्था में दीप के समान प्रज्ज्वलित रहे भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी जी अजर रहेंगे, अमर रहेंगे! 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 5 – शक्ति का मद ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “शक्ति का मद।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 5 ☆

 

☆ शक्ति का मद 

 

राम, नाम अग्नि बीज मंत्र (रा) और अमृत बीज मंत्र (मा) के साथ संयुक्त है, अग्नि बीज आत्मा, मन और शरीर को ऊर्जा देता है एवं अमृत बीज पूरे शरीर में प्राण शक्ति (जीवन शक्ति) को पुन: उत्पन्न करता है । राम दुनिया का सबसे सरल, और अभी तक का सबसे शक्तिशाली नाम है । भगवान राम कोसला साम्राज्य (अब उत्तर प्रदेश में) के शासक दशरथ और कौशल्या के यहाँ सबसे बड़े पुत्र के रूप में पैदा हुए, भगवान राम को हिंदू धर्म के ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘पूर्ण पुरुष’ या ‘स्व-नियंत्रण भगवान’ या ‘पुण्य के भगवान’ । उनकी पत्नी देवी सीता को पृथ्वी पर अवतारित एक महान स्त्री माना जाता हैं जो वास्तव में किसी के लिए भी आदर्श की परिभाषा है उन्हें हिंदु देवी लक्ष्मी का अवतार मानते हैं ।

भगवान राम अपने पिता दशरथ द्वारा अपनी सौतेली माँ कैकेयी (अर्थ : भाग्य, स्वास्थ्य और आध्यात्मिकता की चरम सीमा) को दिए वचनों के पालन हेतु 14 सालोंतक के लिए वन  में रहने आये थे ।

दशरथ – दश का अर्थ नंबर दस तक की गिनती है और रथ का अर्थ युद्ध में प्रयोग करने वाला वहान, इसलिए दशरथ का शाब्दिक अर्थ है दस रथ। दशरथ को यह नाम मिला क्योंकि उनके पास दस दिशाओं में रथ चलाने की अनूठी क्षमता थी। परंपरागत रूप से हम केवल आठ दिशाओं को जानते हैं- उत्तर (उत्तर), दक्षिणी (दक्षिण), पूरव (पूर्व), पश्चिम (पश्चिम), ईशान (उत्तर पूर्व), आग्नेय (दक्षिण पूर्व), नैऋत्य (दक्षिण पश्चिम), वायव्य (उत्तर पश्चिम), और इन पारंपरिक आठ दिशाओं के अतिरिक्त, दशरथ ऊर्ध्व (आकाश की ओर ऊपर को) और अदास्था(पाताल की ओर नीचे को) में रथ चला सकते थे ।

भगवान राम अपनी पत्नी देवी सीताऔर छोटे भाई लक्ष्मण (अर्थ : भाग्यशाली अंग, अन्य अर्थ ‘लक्ष’ का अर्थ है लक्ष्य और ‘मन’ का अर्थ ‘मन’ है, इसलिए लक्ष्मणअर्थात जिसका मस्तिष्क हमेशा लक्ष्य पर रहता है) के साथ वन में रह रहे थे ।

सीता – जनकपुर के राजा जनक ( अर्थ : निर्माता) और उनकी पत्नी रानी सुनैना (अर्थ : सुंदर आँखें) की पुत्री, एवं उर्मिला (अर्थ : मोहिनी) और चचेरी बहन मंडवी (अर्थ : पारदर्शी ह्रदय वाली) और श्रुतकीर्ति (अर्थ : चरम प्रसिद्धि) की बड़ी बहन थीं। वह देवी लक्ष्मी (भगवान विष्णु की आदिशक्ति), धन की देवी और विष्णु की पत्नी का अवतार थीं। उन्हें सभी हिंदू स्त्रियों के लिए पारिवारिक और स्त्री गुणों के एक आदर्श स्त्री माना जाता है ।

 

© आशीष कुमार  

 

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – आलेख ☆ रक्षा बंधन ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

रक्षा बंधन विशेष 

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा  रक्षा बंधन पर्व पर रचित  विशेष आलेख “रक्षा बंधन”।)

 

? रक्षा बंधन ?

रक्षा बंधन का त्यौहार युगों पुराना है। जिसके स्वरूप का वर्णन  पौराणिक कथाओं एवं घटनाओं के रुप में यत्र तत्र मिलता है। यह त्यौहार श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि के दिन मनाया जाता है। इसीलिए इसे रक्षा बंधन श्रावणी आदि नामों से जाना जाता है। इसके मूल में रिश्तों की मधुर मिठास घुली हुई है। इस दिन बहनें अपने हृदय में भाई के लम्बी उम्र एवं दीर्घायु जीवन की मंगल कामना ले व्रत रखती है, तथा भाई कलाई में  रक्षा सूत्र बांधती है।

इतिहास की गहराई में जाये तो रानी कर्मावती ने रक्षासूत्र  भेज कर ही चित्तौड़ गढ़ की रक्षा की गुहार लगाई थी, और जौहर कर लिया था, तथा हुमायूँ ने चित्तौड़ की रक्षा की थी। इस प्रकार यह त्यौहार जाति धर्म से परे भावुक रिश्तों पर आधारित है।

यह भी ऐतिहासिक उल्लेख है कि पहले राजा महाराजा ब्राह्मणों द्वारा रक्षासूत्र बंधवाकर रक्षा का दायित्व निभाते थे। पौराणिक घटनाओं में  भी रक्षा सूत्रात्मक बंधन का उल्लेख मिलता है। जब इंद्र की पत्नी शची ने अपने तपोबल से रक्षा सूत्र उत्पन्न कर देव गुरु वृहस्पति से इंद्र के हाथों पर बंधवाया था।

शिशुपाल वध के पश्चात सुदर्शन चक्र द्वारा श्रीकृष्ण की उंगली कटने पर द्रौपदी ने अपने आँचल का पल्लू फाड़ कर कृष्ण की उँगली में बाँधा था और कृष्ण ने चीरहरण के समय साड़ी का विस्तार कर द्रौपदी की मर्यादा की रक्षा की। आजकल रक्षा बंधन का त्यौहार प्रतीकात्मक हो गया है। धागों के त्यौहार पर आधुनिकता  हावी हो गई है जिससे उसका मूल स्वरूप नष्ट हो रहा है और दिखावा  प्रधान हो रहा है।

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

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हिन्दी साहित्य – रक्षा बंधन विशेष – आलेख ☆ मध्यभारत  बुंदेलखंड का आंचलिक पर्व कजलियाँ ☆ – सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

रक्षा बंधन विशेष 

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(आज प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  द्वारा रचित  एक ज्ञानवर्धक आलेख जिसके माध्यम से आप मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड के त्यौहार “कजलियाँ” से अवगत होंगे जो रक्षाबंधन के आसपास मनाया जाता है। इस ज्ञानवर्धक जानकारी के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की  लघुकथाएं  का विशेष आभार।)

 

?  मध्यभारत  बुंदेलखंड का आंचलिक पर्व कजलियाँ ?

 

भारतवर्ष त्योहारों का देश है। सभी जगह अलग-अलग प्रकार से त्यौहार मनाया जाता है। भारत का हृदय स्थल कहने पर मध्य प्रदेश आता है और मध्य प्रदेश में सभी त्यौहार बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है चैत्र माह की रामनवमी से लेकर फागुन की होली तक अनेक त्यौहार हैं। वैसे ही बुंदेलखंड के मुख्य त्योहारों में से एक कजलियां हैं।  कजलियां सदियों से चली आ रही है वर्षा ऋतु के आगमन और सावन की हरी-भरी वादियों के बीच इस त्यौहार का आना होता है।

जहां पर आगे पीछे रक्षाबंधन राष्ट्रीय पर्व 15 अगस्त भी साथ साथ होता है। सावन में ही भगवान शिव की आराधना भी की जाती है। इस प्रकार सावन का महीना भक्ति, शक्ति और उल्लास से भरा होता है और  हो भी क्यों ना प्रकृति की सुंदरता मानव की सुंदरता से अधिक होती है। यह त्योहार विशेष रूप से खेती किसानी से भी जुड़ा हुआ है। सावन में कृष्ण पक्ष के बाद शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पंचमी मनाया जाता है। उसके दूसरे दिन षष्ठी को गेहूं के दानों को मिट्टी के बर्तनों सकोरे या फिर बड़े किसी चौड़े मुंह वाले बर्तनों पर मिट्टी डालकर गेहूं के बीज बो दिए जाते हैं। और ढक कर रख दिया जाता है रोज शाम संध्या आरती के साथ गाना बजाना होता है। महिलाएं बड़े उत्साह के साथ इसे पूजन करती हैं। धीरे-धीरे कजलियां अपने आप बढ़ने लग जाती हैं जिसे समृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है और रक्षाबंधन के दूसरे दिन टोली बना बना कर जिसमें बाजे गाजे के साथ सभी महिलाएं बालिकाएं सिर पर कजलियां लिए झूमती गाती नदियों की ओर जाती हैं नदी या तालाब में कजलियां को साफ धोकर मिट्टी बहा दी जाती है। और ऊपर से कजलियां तोड़ कर ले आती हैं। सभी बड़े बुजुर्गों को कजलियां भेंटकर आशीर्वाद लिया जाता है महिलाएं आपस में पक्की दोस्ती का वादा भी करती हैं जिसे आपस में एक दूसरे को हमेशा भोजली कहना पड़ता है।

” भोजली गंगा भोजली गंगा लहर तुरंगा

हमरो भोजली रानी के बाढे आठो अंगा

ह. ओ देवी गंगा ह. ओ देवी गंगा”

गांव में किसान आज भी एक दूसरे की कजलीयां देखने जाते हैं। और अपने अपने पैदावार खेतों का पता लगा लेते हैं। नदी से आने के बाद  कजलीयां कान में लगाया जाता हैं और मीठा खिलाया जाता है।

मध्य प्रदेश में आज भी यह त्यौहार जीवित है। कलियों की एक पुरानी कथा है महोबा के सिंह राजपूतों आल्हा- ऊदल को कौन नहीं जानता इनके वीरता की बखान को आल्हा – ऊदल के दोहे के रूप में गाया जाता है। दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबा के राजा की सुपुत्री राजकुमारी चंद्रावलि का अपहरण करना चाहा, और चढ़ाई कर दिया उस समय चंद्रावलि तालाब में कजलीयां सिराने  गई थी। आल्हा उदल, मलखान और चेहरे भाइयों के कारण सभी सेना को खदेड़ दिया गया और तभी से कलियों का त्योहार विजय उत्सव के रुप में मनाया जाने लगा।

एक अन्य कथा है आल्हा – ऊदल दो भाई मां शारदा जो कि सतना के पास ऊंची पहाड़ी पर विराजी है, परम भक्त थे।  कहते हैं, वह कब पूजा करते थे आज तक किसी ने नहीं देखा परंतु मंदिर का पट जब भी खुलता है। मां शारदा के चरणों पर कमल का पुष्प और पूजा का सामान मिलता है। कहते हैं दोनों भाइयों में बहुत गहरा प्यार था एक दिन माता राणी प्रसन्न हो गयी और साक्षात दर्शन देने आ गई। आल्हा उस समय पूजा कर रहा था और ऊदल कुछ सामान लेने गया था मां आल्हा से कहा बोलो तुम्हें क्या चाहिए। आल्हा ने बिना देर किए भाई के प्यार से बंधा कहा हम दोनों हमेशा जीवित रहे, परंतु विधि का विधान तो देखिए हम दोनों का मतलब उस समय उनकी धर्मपत्नी से माना गया क्योंकि धर्म है। भाई ऊदल की मोक्ष की कामना लिए आल्हा बहुत उदास हो गया परंतु मां ने वरदान दे चुकी थी। आज भी गांव में  आल्हा देव की पूजा की जाती है। जब बारिश नहीं होती तो आल्हा- ऊदल पढा जाता है। और कहते हैं इसको गाने से बारिश का होना अनिवार्य है। आज भी शारदा मंदिर में पूजन होता है पट खुलता है। पूजा में कमल के पुष्प चढ़े हुए मिलते हैं। गांव वाले बताते हैं, आज भी आल्हा देव जीवित है। मध्यप्रदेश में कजलियाँ का त्योहार रक्षा बंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆☆ छीजते मूल्य समय में विनम्र भावबोध की मनुहारवादी कविताएँ ☆☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं।

आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नया  शोधपूर्ण आलेख  “छीजते मूल्य समय में विनम्र भावबोध की मनुहारवादी कविताएँ”। मैं श्री शांतिलाल जैन जी का आभारी हूँ  जिन्होने हिन्दी साहित्य के उस पक्ष को पाठकों के सामने रखने का प्रयास किया जिसे हिन्दी साहित्य के आलोचकों ने अपने परिवार की विवाह /आमंत्रण पत्रिकाओं  में तो किया होगा किन्तु, उसका मूल्यांकन करने से कतराते रहे हैं।  आदरणीय श्री शांतिलाल जैन जी ने  इस आलेख के माध्यम से “मनुहारवादी कविताओं “को साहित्य में यथेष्ट स्थान दिलाने का सार्थक प्रयास किया है। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ छीजते मूल्य समय में विनम्र भावबोध की मनुहारवादी कविताएँ ☆☆

 

सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह ‘हल्दी है चन्दन है रिश्तों का बंधन है’ हिन्दी के वरेण्य कवि श्री ज्वालाप्रसाद ‘आँसू’ का पाँचवाँ काव्य संग्रह है. हिन्दी कविताओं में मनुहारवादी कविताओं के युग का प्रारम्भ श्री ‘आँसू’ की कविताओं से ही माना जाता हैं. समीक्षित संग्रह की कविताएँ समय समय पर विवाह पत्रिकाओं पर प्रकाशित हुई हैं और अब वे काव्य संग्रह के रूप में संकलित की गईं हैं.  श्री ‘आँसू’ जब राजा की मंडी, आगरा के छापाखानों में कम्पोजीटर थे तभी से विवाह पत्रिकाओं पर प्रकाशन के निमित्त कविताएँ रचते रहे हैं. काव्य लोक में श्री आँसू का पदार्पण अकस्मात ही हुआ. संग्रह की भूमिका में वे लिखते हैं कि एक बार एक ग्राहक, श्री रजत श्रीवास्तव, की विवाह पत्रिका की सामग्री कम्पोज़ करते हुये उनके मन में एक पंक्ति ने जन्म लिया, फिर उन्होनें दूसरी रची और ग्राहक के ऑर्डर के बगैर ही प्रूफ में डाल दी.

करबद्ध भाव विभोर कर रहे मनुहार!

रजत यामिनी की शादी में आना सपरिवार!!

उनका यह प्रयोग सफल रहा, ग्राहक ने पंक्तियाँ बेहद पसंद कीं. बस, उसके बाद से श्री आँसू ने काव्य पथ पर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. प्रारम्भिक दौर में उनकी लिखी गई ये पंक्तियाँ सार्वकालिक रचना मानी जाती है –

भेज रहे है स्नेह निमत्रण प्रियवर तुम्हे बुलाने को!

हे मानस के राजहंस तुम भूल ना जाने आने को!!

आपकी कविताओं में,भारतीय पुरुषों के जीवन की सबसे बड़ी मनोकामना, विवाह का शुभअवसर उपस्थित होने पर अतिथियों को आमंत्रित किये जाने की उद्दाम भावनाओं की झलक मिलती हैं.

नये बंधन हैं, पावन संगम है!

हम प्रतीक्षा में हैं, आपका अभिनंदन है!!

दिनोंदिन छीजते मूल्यों के समय में विनम्र भावबोध की ये कवितायें हमें आश्वस्त करती चलती है कि अभी सब खत्म नहीं हुआ है. श्री आँसू अपनी कविताओं में मेटाफर सहजता से रचते चलते हैं. एक कविता में वे कहते हैं –

फलक से चांद उतरेगा तारे मुस्कुराएंगे!

हमें खुशी तब होगी जब आप हमारी शादी में आएंगे!!

श्री आँसू खूबसूरती से कविता में चाँद को उतारते चलते हैं. माना कि विवाह अगहन मास में कृष्ण पक्ष की तेरस को तय हुआ है, मगर मेजबान कान्फिडेंट है कि उस दिन आसमान से चाँद उतरेगा. उतरेगा क्या श्रीमान, चंद्रयान-2 की वापसी में उसे साथ में लेता आयेगा.  ये तारे जो आकाश में सूमड़े जैसे विचरते रहते हैं, उन्होनें भी प्रोमिस किया है कि वे उस दिन जरूर मुस्कराएँगे. खास कर शाम सात बजे से आपके आगमन तक तो मुस्कराएंगे ही. लेकिन, मेजबान इतने भर से संतुष्ट नहीं है – वो आपके आने पर ही खुश होगा. इस तरह का  मेटाफर श्री आँसू ही रच सकते हैं. श्री आँसू की कविताओं में सबसे सशक्त स्वर की अभिव्यक्ति बच्चों से मुखरित होती है.

नन्हे नन्हे पांव हमारे कैसे आयेँ बुलाने को!

मेरे चाचा की शादी में भूल न जाना आने को!!

एक बालमन की उद्दात्त भावना में कवि ने बालक की चलकर न आ पाने की विवशता को गूँथकर रूपक रचा है. वे अपनी कविताओं में पाठकों के लिये स्पेस छोडते चलते हैं,उक्त दो पंक्तियों में अंतर्निहित है कि रिसेप्शन के दिन तक सारस्वतारिष्ट का नियमित सेवन करें,मगर भूलें नहीं. यहाँ उनके उकेरे बगैर भी डाबर की सारस्वतारिष्ट का बिम्ब उभरता है. एक विपरीत समय में जब आरएसी भी अवेलेबल नहीं हो, मोबाइल ऐप कनफर्म होने की संभावना फॉर्टी टू परसेंट बता रहा हो, तब श्री आँसू अबोध शिशु के माध्यम से कहलाते हैं-

हल्दी है चन्दन है रिश्तों का बंधन है!

हमारे मामा की शादी में आपका अभिनन्दन है!!

इतनी मनुहार के बाद तो मेहमान को जनरल डिब्बे में बैठकर भी आना ही पड़ेगा. वे कहते हैं –

क्या करिश्मा है कुदरत का कि कौन किसके करीब होता है!

शादी उसी से होती है जो जिसका नसीब होता है!!

इन कविताओं का स्वर भाग्यवादी नहीं है लेकिन ये नियति के निर्णय के सर्वोपरि होने का एहसास कराती हैं. कुछ लोगों के केस में शादी का नसीब एक से अधिक बार जागता है, श्री आँसू की कविताएँ यहाँ किसी तरह का डिसक्रिमिनेशन नहीं करती, वे दूसरी, तीसरी या चौथी शादी में भी इसी शिद्दत से आमंत्रित करती हैं। श्री आँसू का कविकर्म पाठक को सोचने पर विवश करता है कि अगले की जन्मपत्रिका में विवाह का जोग बना है और आप हैं कि दफ्तर से छुट्टी का जुगाड़ नहीं कर पा रहे.

ना ड्यूटी ना दफ्तर ना ही कोई बहाना होगा !

हमारे चाचू की शादी में जलूल जलूल आना होगा !!

सशक्त बुलावे की एक कविता में श्री आँसू लिखते हैं –

आते हैं जिस भाव से भक्तों के भगवान !

उसी भाव से आप भी दर्शन दें श्रीमान !!

और इससे अधिक कह पाने का सामर्थ्य अन्य किसी मनुहारवादी कवि के यहाँ दिखाई नहीं पड़ता. इन कविताओं में समकालीन समय में आ रहे बदलावों की झलक भी मिलती है, एक अंश देखिये –

ढोल ताशे हुए पुराने डीजे का ज़माना है !

चाचू की शादी में जलूल जलूल आना है !!

श्री आँसू अपनी कविताओं में भाषा की शुद्धता के आग्रही नहीं रहे हैं. ये कवितायें  मानस के राजहंस में जहाँ हिन्दी के शुद्ध रूप का दर्शन होता है वहीं बाद की कविताओं में अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग समय के अनुरूप किया गया है, ये पंक्तियाँ देखिये –

कोल्डड्रिंक पियेंगे पॉपकोर्न खायेंगे!

बुआ की मैरिज़ में धूम मचाएंगे!!

श्री आँसू की कविताओं के मर्म तक पहुँचने के लिए पाठक को हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी होना जरूरी नहीं है. उनकी कविता का स्वर पाठक को सीधे कनेक्ट करनेवाला स्वर है, जैसे  –

ख्वाब में आयेंगे मैसिज़ की तरह दिल में बस जायेंगे रिंगटोन की तरह !

खुशियाँ कम ना होगी बेलेंस की तरह,

हमारी मौसी की शादी में बिजी ना होना नेटवर्क की तरह!!

और इन कविताओं में मेहमान के लिए हिदायतें भी हैं –

लिफाफे में पुराने नोट ना फ़साना!

हमारी मौसी की शादी में जलूल जलूल आना!!

श्री आँसू की कविताओं के शिल्प में पर्याप्त लोच दिखाई पड़ता है. प्रसंगवश उनमें मौसी, चाचा, बुआ किसी का भी प्रयोग किया जा सकता है. इससे न तो कविता के सौंदर्य पर न ही भावबोध में कोई अन्तर आता है. संग्रह की कविताओं में प्रत्येक पंक्ति की पीछे विस्मयादिबोधक चिन्ह लगाये गये हैं. पहली पंक्ति रच लिये जाने पर कवि को एक बार और दूसरी पंक्ति रच लिये जाने पर दो बार विस्मय होता है. कवि का स्वयं पर विस्मित होना उचित ही जान पड़ता है. बहरहाल, हिन्दी साहित्य के उत्तर आधुनिक समय में विवाह पत्रिकाओं में सिरजता काव्य आलोचकों की दृष्टि में अब भी अनदेखा ही है जबकि कितना कुछ विस्मयादिबोधक रचा जा रहा है. श्री आँसू हिन्दी साहित्य की स्वातंत्र्योत्तर मनुहारशील काव्यधारा के शीर्ष व्यक्तित्व हैं, उनकी अनदेखी अफसोसजनक है. आज हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य आलोचक स्वयं ही आलोचना के केंद्र में हैं तो उसकी वजहें जेनुईन हैं. उन्होनें अपने पसंदीदावाद को प्रोत्साहित करने के फेर में मनुहारवादी उम्दा कविताओं और उनके कवियों की उपेक्षा की है. आलोचक भय, भूख, अधिकारों की कविताओं पर वक्त जाया कर रहे हैं जबकि श्री आँसू की कविताएँ भूख के खिलाफ आश्वस्ति पैदा करती हैं कि –

पूडी खा के रसगुल्ले खा के कॉफ़ी पी के जाना जी!

मामा जी की शादी में पक्का पक्का आना जी!!

हिन्दी कविता संसार को आगे भी श्री आँसू से विवाह पत्रिकाओं में नव-सृजन की प्रतीक्षा रहेगी,भले वे व्हाट्सअप पर घूमनेवाली डिजिटल पत्रिकाओं पर ही प्रकाशित क्यों न की जाएँ.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य- आलेख – ✉ चिट्ठियाँ ✉ – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

 

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी  का आलेख चिट्ठियाँ हमें एक बीते युग का स्मरण कराती है जिसका महत्व वर्तमान पीढ़ी को नहीं है।  वे उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते कि एक पीढ़ी ने अपने जीवन के वे क्षण कैसे चिट्ठियों की प्रतीक्षा और लेंडलाइन पर कॉल की प्रतीक्षा में व्यतीत किए थे।  सुश्री ऋतु जी का पुनः आभार।)

 

✉ चिट्ठियाँ  ✉

 

जब मैं सोचती हूँ कि मुझे लिखने की आदत कैसे पड़ी तब जेहन में एक ही ख्याल आता है चिट्ठियां लिखने की वजह से। हाँ, यह सच है जब हम स्कूल मैं पढ़ते थे तब चिट्ठी ही तो इक जरिया थी दूर संदेश भेजने का। लैंडलाइन फोन होते थे लेकिन एसटीडी सुविधा हर जगह उपलब्ध नहीं होती थी। हर गाँव में तो लैंडलाइन फोन उपलब्ध भी नहीं होता था। मेरे कॉलेज से निकलने के भी बहुत दिन बाद मोबाइल आया है। उस वक्त पेजर चला था मैसेंजर के तौर पर।

अरे मैं तो बात कर रही थी चिट्ठियों की। दरअसल मेरा परिवार बहुत बड़ा है। मेरी दादी जी के नौ बच्चे और फिर उनके बच्चे देश विदेशों में हर जगह फैले हुए हैं। मेरी दादी जी हमारे पास गाँव में ही रहती थीं। सब जगह घूम फिर तो आती पर मन वापिस आकर गाँव में ही लगता। हम चार बहन-भाइयों में से अकेली मैं अपने माँ-बाप के साथ रह गई और बाकी सब हॉस्टल में चले गए। पापा व्यापार के चक्कर में बाहर रहते। माँ गृहकार्य में व्यस्त रहती। दादी जी को मैं मिलती सब जगह चिट्ठी लिखवाने के लिए, कभी किसी ताऊजी, चाचाजी, बुआजी, मामाजी या किसी अन्य रिश्तेदार को । मैं पारांगत हो गई थी लिखने में। सब कहते बिट्टू (निक नेम) से चिट्ठी लिखवाया करो, सारे समाचार लिखती है। मैं इतना सुनकर ही बस फूली न समाती।

अब जब मेरे खुद के भाई-बहन हॉस्टल में थे तो रूटिन और बढ़ गई। मेरा उनसे इस तरह बात कर एकाकीपन दूर हो जाता। मेरे दोनों भाई अब विदेश में सैटल हो गये हैं, उनको राखी भेजने लगी तो मेरे छोटा भाई जो अमेरिका में है उसकी बात याद आ गई “पहले भी तो इतनी चिट्ठियां लिखती थी, और तू तो वैसे भी लिखती है, कम से कम चार लाइन तो राखी के साथ लिख कर भेज दिया कर”। जो मुझे हर बार ऐसे ही भावुक कर चिट्ठी लिखने को मजबूर कर देता है, मैंने उन दोनों को अपने हाथ से लिख राखी के साथ पोस्ट किया। आँखें भर आई उनको याद कर, सोच रही थी कि क्यों भगवान ने मुझे इतना अंतर्मुखी बना दिया जो उनसे खुल कर फोन पर बात भी नहीं कर सकती। जब चिट्ठी लिखती थी उनको तो हर बात कर लिया करती। फिर मुझे कहीं न कहीं चिट्ठियों के लगभग विलुप्त होते अस्तित्व पर अफसोस सा होता है। मेरी जिंदगी में अब चिट्ठियों की जगह डायरी ने लेना शुरु कर दिया था, लेकिन वह तो सिर्फ अपना दिल हल्का करने का माध्यम भर है। कई दफा वे दिन याद कर व जब बतौर याद रखी कुछ चिट्ठियां उठा पढ़ने लगती हूँ, तब लगता है काश! वह दौर फिर लौट आये।

 

© ऋतु गुप्ता, दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #12 – नैतिकता से स्थाई चरित्र निर्माण ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज   बरहवीं कड़ी में प्रस्तुत है “नैतिकता से स्थाई चरित्र निर्माण”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 12 ☆

 

☆ नैतिकता से स्थाई चरित्र निर्माण ☆

 

सदा से कोई भी गलत काम करने से समाज को कौन रोकता रहा है ? या तो राज सत्ता का डर या फिर मरने के बाद ऊपर वाले को मुंह दिखाने की धार्मिकता, या आत्म नियंत्रण अर्थात स्वयं अपना डर ! सही गलत की पहचान ! अर्थात नैतिकता.

वर्तमान में भले ही कानून बहुत बन गये हों किन्तु वर्दी वालों को खरीद सकने की हकीकत तथा विभिन्न श्रेणी की अदालतों की अति लम्बी प्रक्रियाओं के चलते कड़े से कड़े कानून नाकारा साबित हो रहे हैं. राजनैतिक या आर्थिक रूप से सुसंपन्न लोग कानून को जेब में रखते हैं. फिर बलात्कार जैसे अपराध जो स्त्री पुरुष के द्विपक्षीय संबंध हैं, उनके लिये गवाह जुटाना कठिन होता है और अपराधी बच निकलते हैं. इससे अन्य अपराधी वृत्ति के लोग प्रेरित भी होते हैं.

धर्म निरपेक्षता के नाम पर हमने विभिन्न धर्मों की जो अवमानना की है, उसका दुष्परिणाम भी समाज पर पड़ा है. अब लोग भगवान से नहीं डरते. धर्म को हमने व्यक्तिगत उत्थान के साधन की जगह सामूहिक शक्ति प्रदर्शन का साधन बनाकर छोड़ दिया है. धर्म वोट बैंक बनकर रह गया है. अतः आम लोगों में बुरे काम करने से रोकने का धार्मिक डर नहीं रहा. एक बड़ी आबादी जो तमाम अनैतिक प्रलोभनों के बाद भी अपने काम आत्म नियंत्रण से करती थी अब मर्यादाहीन हो चली है.

पाश्चात्य संस्कृति के खुलेपन की सीमाओं व उसके लाभ को समझे बिना नारी मुक्ति आंदोलनो की आड़ में स्त्रियां स्वयं ही स्वेच्छा से फिल्मो व इंटरनेट पर बंधन की सारी सीमायें लांघ रही हैं. पैसे कमाने की चाह में इसे व्यवसाय बनाकर नारी देह को वस्तु बना दिया गया है.

ऐसे विषम समय में नारी शोषण की जो घटनाएँ रिपोर्ट हो रही हैं, उसके लिये मीडिया मात्र धन्यवाद का पात्र है. अभी भी ऐसे ढ़ेरों प्रकरण दबा दिये जाते हैं.

आज समाज नारी सम्मान हेतु जागृत हुआ है. जरूरी है कि आम लोगों का स्थाई चरित्र निर्माण हो. इसके लिये समवेत प्रयास किये जावें. धार्मिक भावना का विकास किया जाए. चरित्र निर्माण में तो एक पीढ़ी के विकास का समय लगेगा तब तक आवश्यक है कि कानूनी प्रक्रिया में असाधारण सुधार किया जाये. त्वरित न्याय हो. तुलसीदास जी ने लिखा है “भय बिन होय न प्रीत”..ऐसी सजा जरूरी लगती है जिससे दुराचार की भावना पर सजा का डर बलवती हो.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #9 – क्या चल रहा है? ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  नौवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 9 ☆

 

☆ क्या चल रहा है? ☆

 

इन दिनों एक विज्ञापन जोरों पर है-‘क्या चल रहा है?’ उत्तर मिलता है-‘फलां-फलां बॉडी स्प्रे चल रहा है।’ इसी तर्ज़ पर एक मित्र से पूछा,‘क्या चल रहा है?’ उत्तर मिला,‘यही सोच रहा हूँ कि इतना जीवन बीत गया, क्या किया और क्या कर रहा हूँ? जीवन में क्या चल रहा है?’ उत्तर चिंतन को दिशा दे गया।

वस्तुतः यह प्रश्न हरेक ने अपने आपसे अवश्य करना चाहिए-‘क्या चल रहा है?’ दिन में जितनी बार आईना देखते हो, उतनी बार पूछो खुद से-‘क्या चल रहा है?’ बकौल डॉ. हरिवंशराय बच्चन-‘जीवन सब बीत गया, जीने की तैयारी में।’ चौबीस घंटे भौतिकता के संचय में डूबा मनुष्य जीवन में भौतिकता का भी उपभोग नहीं कर पाता। संचित धन को निहारने, हसरतें पालने और सब कुछ धरा पर धरा छोड़कर चले जानेवाले से बड़ा बावरा भिखारी और कौन होगा? पीछे दुनिया हँसती है-‘संपदा तो थी पर ज़िंदगी भर ‘मंगता’ ही रहा।’…बड़ा प्रश्न है कि क्या साँसें भी विधाता द्वारा प्रदत्त संपदा नहीं हैं? प्राणवायु अवशोषित करना-कार्बन डाय ऑक्साइड उत्सर्जित करना, इतना भर नहीं होता साँस लेना। मरीज़ ‘कोमा’ में हो तो रिश्तेदार कहते हैं-‘ कुछ बचा नहीं है, बस किसी तरह साँसें भर रहा है।’ हम में से अधिकांश लोग एक मानसिक ‘कोमा’ में हैं। साँसें भर रहे हैं, समय स्वतः जीवन में कालावधि जोड़ रहा है। काल के आने से पूर्व मिलनेवाली अवधि-कालावधि। हम अपनी सुविधा से ‘काल’ का लोप कर ‘अवधि’ के मोह में पड़े बस साँसें भर रहे हैं। फिर एक दिन एकाएक प्रकट होगा काल और पूछेगा-‘क्या चल रहा है?’ जीवन भर सटीक उत्तर देनेवाला भी काल के आगे हकलाने लगता है, बौरा जाता है, सूझता कुछ भी नहीं।

एक साधु से शिष्य ने पूछा कि क्या कोई ऐसी व्यवस्था की जा सकती है जिसमें मनुष्य की मृत्यु का समय उसे पहले से पता चला जाए। ऐसा हो सके तो हर मनुष्य अपने जीवन में किए जा सकनेवाले कार्यों की सूची बनाकर निश्चित समय में उन्हें पूरा कर सकेगा, मृत्यु के समय किसी तरह का पश्चाताप नहीं रहेगा। साधु ने कहा, ‘जगत का तो मुझे पता नहीं पर तेरी मृत्यु आठ दिन बाद हो जाएगी। सारे काम उससे पहले कर लेना।’ कहकर साधु आठ दिन की यात्रा पर चले गए।  इधर गुरु का वाक्य सुनना भर था कि शिष्य का चेहरा पीला पड़ गया। वह थरथर काँपने लगा। खड़े-खड़े उसे चक्कर आने लगा। कुछ ही मिनटों में उसने खटिया पकड़ ली। खाना-पीना छूट गया, हर क्षण उसे काल सिर पर खड़ा दिखने लगा। आठ दिन में तो वह सूख कर काँटा हो चला। यात्रा से लौटकर गुरु जी ने पूछा, ‘क्यों पुत्र, सब काम पूरे कर लिए न?’ शिष्य सुबकने लगा। आँखों में बहने के लिए जल भी नहीं बचा था। कहा, ‘गुरु जी, कैसे काम और कैसी पूर्ति? मृत्यु के भय से मैं तो अपनी सुध-बुध भी भूल गया हूँ। कुछ ही क्षण बचे हैं, काल बस अब प्राण हरण कर ही लेगा।’ गुरु जी मुस्कराए और बोले, ‘ यदि मृत्यु की पूर्व जानकारी देने की व्यवस्था हो जाए तो जगत की वही स्थिति होगी जो तुम्हारी हुई है।…और हाँ सुनो, तुमसे असत्य बोलने का प्रायश्चित करने मैं आठ दिन की साधना पर गया था। तुम्हें आज कुछ नहीं होगा। तुम्हारी और मेरी भी मृत्यु कब होगी, मैं नहीं जानता।’

काल आया भी नहीं था, उसकी काल्पनिक छवि से यह हाल हुआ। वह जब साक्षात सम्मुख होगा तब क्या स्थिति होगी? जीवन ऐसा जीओ कि काल के आगे भी स्मित रूप से जा सको, उसके आगमन का भी आनंद मना सको। जैसा पहले कहा गया-साँस लेना भर नहीं होता जीवन। शब्द है-‘श्वासोच्छवास।’ प्रकृति में कोई भी प्रक्रिया एकांगी नहीं है। लेने के साथ देना भी जुड़ा है। जीवन भर लेने में, बटोरने में लगे रहे, भिखारी बने रहे। संचय होते हुए भी देने का मन बना ही नहीं, दाता कभी बन ही नहीं सके।

जीवन सरकती बालू वाले टाइमर की तरह है। रेत गति से सरक रही है, अवधि रीत रही है। काल निकट और निकट, सन्निकट है। कोई पूछे, न पूछे, बार-बार पूछो अपने आप से- ‘क्या चल रहा है?’ अपने उत्तर आप जानो पर हरेक पर अनिवार्य रूप से लागू होनेवाला मास्टर उत्तर स्मरण रहे-काल चल रहा है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 4 – इंद्रजीत ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “इंद्रजीत।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 4 ☆

 

☆  इंद्रजीत 

 

अब तक रावण ज्ञान की कई शाखाओं का मालिक हो गया था । वह आयुर्वेदिक चिकित्सक और औषधि विज्ञान को बहुत अच्छी तरह समझ गया था। अर्क (किसी का सार या रस) निकालने की कला, और असव, आयुर्वेद के ये दो रूप रावण ने ही विकसित किये थे । अर्क का सत्त निकलने के उद्देश्य से, रावण ने अमर वरुनी (अमर का अर्थ जिसकी कभी मृत्यु ना हो या जो कभी बूढ़ा ना हो, और वरुनी का अर्थ है तरल, इसलिए अमर वरुनी एक ऐसा तरल पदार्थ बनाने की प्रक्रिया है जिसके सेवन से मानव सदैव जवान बना रह सकता है) नामक एक यंत्र (मशीन) तैयार की थी ।

असव आयुर्वेद में असव बहुत महत्वपूर्ण खुराक है। इसमें स्वाभाविक रूप से उत्पन्न शराब शामिल है। यह शराब जड़ी बूटियों के सक्रिय अवयवों के लिए एक माध्यम के रूप में कार्य करता है। सभी असवो में 5-10% तक मद्य (अल्कोहल) होता है। हालांकि असव में मद्य होता है, किन्तु इसका सही मात्रा में उपभोग करना शरीर के लिए फायदेमंद होता है ।

रावण एक महान आर्युवेदिक चिकित्सक और वैद्य शिरोमणि (डॉक्टरों के बीच सर्वश्रेष्ठ) बन गया था। उसने बहुमूल्य पुस्तकें नाड़ी परीक्षा (पल्स-परीक्षा), कुमार तंत्र (स्त्री रोग और बाल चिकित्सा से सम्बंधित), उडिसा चिकित्सा और वतीना प्रकारणाय का विवरण भी लिखा। रावण सिंधुरम दवा का संस्थापक भी था। ये दवा घावों को तुरंत ठीक कर देती थी । रावण ने रावण संहिता नामक ज्योतिष की शाखा का आविष्कार भी किया।

रावण ने राशि चक्र के सभी ग्रहों के देवताओं को भी बंधी बना लिया था और उन्हें सूर्य के चारों ओर करने वाली अपनी वास्तविक गति को बदलने के लिए मजबूर कर दिया क्योंकि वह चाहता था कि उसका पहला बच्चा अमर (अर्थात जो कभी मरे ना) के रूप में पैदा होना चाहिए, क्योंकि अगर बच्चे के जन्म के समय राशि चक्र और उसके प्रभाव से बनायीं हुई कुंडली में सभी ग्रह 11 वें घर में हो तो बच्चा अमर रहता है ।इसलिए रावण ने सभी ग्रहों को महान गणना के बाद अपनी गति में हेरफेर करने का आदेश दिया, ताकि जब उसका पहला बच्चा पैदा हो, तो सभी ग्रह आकाश में एक ही स्थिति पर स्थिर रहे ।

परन्तु रावण के पहले बच्चे के जन्म के समय शनि ग्रह के देवता ने अन्य देवताओं की सहायता से,सूर्य के चारों और चक्कर काटने की अपनी गति बढ़ा दी। तो जब रावण के पहले बच्चे मेघनाथ का जन्म हुआ तो सभी ग्रह उसकी जन्म कुंडली में 11 वें घर में थे, शनि को छोड़कर जो 12 वें घर की ओर बढ़ गया था। इस कारण मेघनाथ जन्म से अमर तो नहीं पैदा हुआ, पर फिर भी सभी राक्षसों में सबसे शक्तिशाली था ।

मेघनाथ ‘मेघ’ का अर्थ है बादल और ‘नाथ’ का अर्थ भगवान है, इसलिए मेघनाथ का अर्थ हुआ बादलों का स्वामी । रावण ने अपने पहले बच्चे को ये नाम इस आशा से दिया था कि एक दिन वह स्वर्ग या बारिश के राजा इंद्र को पराजित करेगा और मेघनाथ या बारिश का भगवान बुलाया जायेगा। बाद में मेघनाथ ने ऐसा किया भी और इंद्र को पराजित करने के बाद इंद्रजीत का नाम भी हासिल किया। कुछ लोग रावण के बड़े बेटे का नाम मेघनाद कहते हैं। फिर से ‘मेघ’ का अर्थ है बादल और ‘नाद’ का अर्थ ध्वनि है, इसलिए मेघनाद वह है जिसकी वाणी में आसमान में गरजते बादलों की तरह ध्वनि है ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 11 ☆ अपने अपने खेमें ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की प्रस्तुति “अपने अपने खेमे ” ।उनकी यह बेबाक रचना आपको साहित्य जगत के कई पक्षों से रूबरू कराती है। साथ ही आपके समक्ष साहित्य जगत के सकारात्मक पक्ष को भी उजागर करती है जो किसी भी पीढ़ी के साहित्यकार को सकारात्मक रूप से साहित्य सेवा करते रहने के लिए प्रेरित करती है। ऐसे निष्पक्ष आलेख के लिए डॉ मुक्ता जी का अभिनंदन एवं आभार।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 11 ☆

 

☆ अपने अपने खेमे ☆

 

चार-पाँच वर्ष पहले एक आलेख पढ़ा था, अपने- अपने खेमों के बारे में… जिसे पढ़कर मैं अचंभित- अवाक् रह गई कि साहित्य भी अब राजनीति से अछूता नहीं रहा। यह रोग सुरसा के मुख की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है… थमने का नाम ही नहीं लेता। लगता है यह सुनामी की भांति सब कुछ निगल जाएगा। हाँ! दीमक की भांति इसने साहित्य की जड़े तो खोखली कर दी हैं, रही-सही कसर व्हाट्स ऐप व फेसबुक आदि ने पूरी कर दी है। हाँ! मीडिया का भी इसमें कम योगदान नहीं है। वह तो चौथा स्तंभ है न, अलौकिक शक्ति से भरपूर, जो पल भर में किसी को अर्श से फर्श पर लाकर पटक सकता है और फर्श से आकाश पर पहुँचा सकता है.. जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण आप सबके समक्ष है।

हाँ! चलो, हम बात करते हैं — देश की एक प्रसिद्ध पत्रिका की, जिसमें साहित्य के विभिन्न खेमों का परिचय दिया गया था…विशेष रूप से चार खेमों के ख्याति-प्राप्त, दबंग संचालकों के आचार व्यवहार, दबदबे व कारस्तानियों को भी उजागर किया गया था, जिसका सार था ‘आपको किसी न किसी खेमे के तथाकथित गुरू की शरणागति अवश्य स्वीकारनी होगी, अन्यथा आपका लेखन कितना भी अच्छा, सुंदर, सटीक, सार्थक, मनोरंजक व समाजोपयोगी हो, आपको मान्यता कदापि नहीं प्राप्त हो सकेगी। इतना ही नहीं, उसका यथोचित मूल्यांकन भी सर्वथा असम्भव है।

इसके लिये आवश्यकता है… साष्टांग दण्डवत् प्रणाम व नतमस्तक होने की, सम्पूर्ण समर्पण की..तन-मन-धन से उनकी सेवा करने की तत्परता दिखलाने की, यह इसमें प्रमुख भूमिका का निर्वहन करती है। दूसरे शब्दों में यह है, सामाजिक मान्यता प्राप्त करने की, सफलता पाने की एकमात्र कुंजी..आप सब इस तथ्य से तो अवगत हैं कि ‘जैसा बोओगे,वैसा काटोगे’ अर्थात् उनकी करुणा, कृपा व निकटता पाने के लिए आपको संबंधों की गरिमा को त्याग, मर्यादा को दरक़िनार कर, आत्म-सम्मान को दाँव पर लगाना होगा, तभी आप उनके कृपा-पात्र बनने में सक्षम हो पायेंगे। इस उपलब्धि के पश्चात् एक पुस्तक के प्रकाशित होने पर भी आप विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो सकते हैं क्योंकि इस संदर्भ में पुस्तक-प्रकाशन की अहम् भूमिका नहीं होती। आपको प्रिंट मीडिया में अच्छी कवरेज मिलेगी तथा विभिन्न काव्य गोष्ठियों व विचार गोष्ठियों में आपको सुना व सराहा जाएगा। आपकी चर्चा समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में ही नहीं होगी, टी•वी•और दूरदर्शन भी आप की राह में पलक-पांवड़े बिछाए प्रतीक्षारत रहेंगे। देश-प्रदेश में आपका गुणगान होगा।

इतना ही नहीं, आप पर एम•फिल• व पीएच•डी• करने वालों की लाइन लगी रहेगी। देश के सर्वोच्च सम्मान आपकी झोली में स्वत: आन पड़ेंगे। हाँ! आपको पी•एच•डी• ही नहीं, डी•लिट• तक की मानद उपाधि प्रदान कर विश्वविद्यालय स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करेंगे। आपकी कृति पर टेलीफिल्म आदि बनना तो सामान्य-सी बात है, बड़े-बड़े संस्थानों के संयोजक व सरकारी नुमाइंदे आप पर संगोष्ठियां करवा कर, स्वयं को धन्य समझेंगे। आश्चर्य की बात यह है कि वे लोग अपने आला साहित्यकारों को प्रसन्न करने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते।

इन विषम परिस्थितियों में आप भी मंचासीन होकर विद्वत्तजनों को धूल चटा कर, सातवें आसमान पर होते हैं और फूले नहीं समाते। आप सिद्ध कर देते हैं कि प्रतिभा साम, दाम,  दंड, भेद के सामने पानी भरती है, उनकी दासी है। बस! दरक़ार है…आत्मसम्मान को खूँटी पर टाँग, दूसरों के बारे में कसीदे गढ़ने की, अपने अहं को मार, ज़िंदा दफ़न करने की, उनकी अंगुलियों पर कठपुतली की भांति नाचने की, उनके संकेत-मात्र पर उनकी इच्छानुसार कुछ भी कर गुज़रने की, उनके कदमों में बिछ जाने की, उनके हर आदेश को शिरोधार्य करने की….यदि आप इनमें से चंद योग्यताएं भी रखते हैं, तो आप रातों-रात महान् बन जाते हैं और आप की तूती दसों दिशाओं में मूर्धन्य स्वर में गूँजने लगती है।

अपने-अपने खेमों के संयोजक, संचालक व सूत्रधार आप से वफ़ादारी की अपेक्षा रखते हैं और उनके शिष्य एक-दूसरे पर नज़र भी रखते हैं कि अमुक प्राणी कहीं, किसी दूसरे खेमें के बाशिंदों से मिलता तो नहीं? वह कहाँ जाता है, क्या करता है, उनके प्रति वफ़ादार है या नहीं?

यह समाज का कटु यथार्थ है कि हर बेईमान व्यक्ति वफ़ादार सेवक चाहता है, जो दिन-रात उसके आस-पास मंडराता रहे, उसकी चरण-वंदना करे, उसकी कीर्ति व यश को दसों दिशाओं में प्रसारित करे। जैसे मलय वायु का झोंका समस्त दूषित वातावरण को आंदोलित कर सुवासित कर देता है।

विभिन्न कार्यक्रमों में भीड़ जुटाना, वाहवाही करना, वन्स मोर के नारे लगाना….यह तो उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है। इतना ही नहीं उसके घर का पूरा दारोमदार, तथाकथित शिष्य-अनुयायी के कंधों पर रहता है। पत्नी से लेकर बच्चों की हर इच्छा को तरज़ीह देना, पत्नी से लेकर बच्चों को पिकनिक पर ले जाना, उस घर का पूरा साज़ो-सामान जुटाना, उन्हें सिनेमा दिखलाना आदि उनका नैतिक दायित्व समझा जाता है। यदि वह बाशिंदा बिना परिश्रम के, पूर्ण निष्ठा से वह सब पा लेता है, तो उसे आकाश की बुलंदियां छूने से कोई नहीं रोक सकता।

चलिए! इन ख़ेमों की कारगुज़ारियों से तो आप अवगत हो ही गए हैं, अब पुरस्कारों के बारे में विवेचन-विश्लेषण कर लेते हैं। बहुत से बड़े-बड़े प्रतिष्ठान व सरकारी संस्थानों में तो फिफ्टी-फिफ्टी की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। यदि आप इस समझौते के लिए तैयार हैं, तो सम्मान आपके आँचल में आश्रय पाने को बेक़रार मिलेगा।

वैसे भी इसका एक और उम्दा विकल्प है…आप नई संस्था बनाइए, हज़ारों साहित्यकार मधुमक्खियों की भांति आसपास मंडराने लगेंगे। रजिस्ट्रेशन के नाम पर संस्थापक बंधु आजकल सम्मान-राशि व आयोजन के खर्च से भी कहीं अधिक बटोर लेते हैं। आजकल उनका यह गोरख-धंधा पूरे यौवन पर है…फल-फूल रहा है। संस्थापक होने के नाते वे हर कार्यक्रम में केवल आमंत्रित ही नहीं किये जाते, मंचासीन भी रहते हैं। बड़े-बड़े साहित्यकार अनुनय-विनय कर प्रार्थना करते देखे जाते हैं कि वे अपनी संस्था के बैनर तले, उनकी पुस्तक का विमोचन करवा दें या उन्हें किसी संगोष्ठी में भावाभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करें। चलिए यह भी आधुनिक ढंग है… साहित्य-सेवा का।

मुझे इस तथ्य को उजागर करने में तनिक भी संकोच नहीं है कि आज भी राष्ट्रीय सम्मान इससे अछूते हैं, जिनमें राष्ट्रपति सम्मान शीर्ष स्थान पर हैं। वास्तव में यह आपकी साहित्य-साधना, कर्मशीलता व विद्वत्ता का वास्तविक मूल्यांकन है। यह अँधेरी रात में घने काले बादलों में, बिजली की कौंध की मानिंद है। जब आपको सहसा यह सूचना मिलती है, तो आप चौंक जाते हैं… विश्वास नहीं कर पाते और कह उठते हैं, ऐसा कैसे संभव है? और इसे क़ुदरत का करिश्मा बतलाते हैं।

आजकल अक्सर सम्मानों के लिए आवेदन करना होता है। हाँ! राज्य-स्तरीय व राष्ट्रीय पुरस्कारों के अंतर्गत कई बार किसी संस्था का अध्यक्ष या शीर्ष कोटि का साहित्यकार आपके नाम की संस्तुति कर देता है, जिससे आप बेखबर होते हैं…वास्तव में यह पुरस्कार आपके जीवन की सच्ची धरोहर के रूप में सुक़ून देते हैं।

हां! इसके एक पक्ष पर प्रकाश डालना अभी भी शेष है कि इन सम्मानों की चयन-प्रक्रिया में अफसरशाही या राजनीति या कोई योगदान है या नहीं?

मैं अपने अनुभव से नि:संकोच कह सकती हूं कि यदि आप निष्काम भाव से, तल्लीनता-पूर्वक, पूर्ण समर्पण भाव से अपने दायित्व का वहन करते हैं तो आप स्वतंत्र होते हैं, हर निर्णय स्वेच्छा से ले सकते हैं और निरंकुश होकर अपना कार्य कर सकते हैं। हां! इसके लिये अपेक्षा रहती है… प्रबल इच्छाशक्ति की, सकारात्मक सोच की, पूर्ण समर्पण की, कर्तव्यनिष्ठता की। यदि आप निस्वार्थ व निष्काम कर्म करने का माद्दा रखते हैं, तो आप हर विषम परिस्थिति का सामना करने में सक्षम हैं। आपको कोई भी कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं कर सकता, यदि आप स्वार्थ का त्याग कर, संघर्षशील बने रहते हैं तो आपको उसका अप्रत्याशित फल अवश्य प्राप्त होगा क्योंकि परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता। हाँ आवश्यकता है…यदि हमारे कदम धरती पर और नज़रें आकाश की ओर स्थिर रहती हैं और हम अपनों से, अपनी जड़ों से सदैव जुड़े  रहते हैं, तो हम हर प्रकार की आबोहवा में पनप सकेंगे…हमें अपने लक्ष्य से कोई डिगा नहीं सकता। विपरीत हवाएं व आंधी-तूफ़ान भी हमारा रास्ता नहीं रोक पाएंगे और न ही खेमों के मालिक हमें नतमस्तक होने को विवश कर पाएंगे।

समय के साथ परिवर्तित होती है सत्ता, बदलते हैं अहसास व जज़्बात और कायम रहता है विश्वास,तो आप निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होते रहते हैं क्योंकि आत्मविश्वास संतोष व संतुष्टि का संवाहक होता है और इसकी रीढ़ व धुरी होता है। इसके साथ ही मैं अपनी लेखनी को विराम देती हूँ …इसी आशा के साथ कि हमारे साहस, उत्साह, धैर्य व आत्म- विश्वास के सम्मुख विसंगतियां व विषम परिस्थितियां स्वतः ध्वस्त हो जाएंगी, अस्तित्वहीन हो जायेंगी और सब को विकास के समान अवसर प्राप्त होंगे।

इसी आशा और विश्वास के साथ…उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न संजोए…

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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