हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 9 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 9 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

श्री रामचंद्रन ने गांधीजी से सरल भाव से पूंछा :  “ क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं?

गांधीजी ने मुस्कराते हुए कहा : ‘ वैसा मैं कैसे कह सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है? खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी दांत-कुरेदनी  भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं है, बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसके लिए है। आज तो जिन्हें मेहनत बचाने वाले यंत्र कहते हैं, उनके पीछे लोग पागल हो गए हैं। उनसे मेहनत जरूर बचती है, लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए रास्तों पर भटकते हैं। समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूँ, पर वह किसी ख़ास वर्ग की नहीं बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए। कुछ गिने गिनाये लोगों के पास सम्पत्ति जमा हो ऐसा नहीं, बल्कि सबके पास जमा हो ऐसा मैं चाहता हूँ। आज तो करोडो की गर्दन पर कुछ लोगों के सवार हो जाने में यंत्र मददगार हो रहे हैं। यंत्रो के उपयोग के पीछे जो प्रेरक कारण हैं वह श्रम की बचत नहीं है, बल्कि धन का लोभ है। आज की इस चालू अर्थ-व्यवस्था के खिलाफ मैं अपनी तमाम ताकत लगाकर युद्ध चला रहा हूँ।

श्री रामचंद्रन ने आतुरता से पूंछा : ‘तब तो बापूजी, आपका झगड़ा यंत्रों के खिलाफ नहीं, बल्कि आज यंत्रों का जो बुरा उपयोग हो रहा है उसके खिलाफ है?’

गांधीजी ने कहा : ‘ज़रा भी आनाकानी किये बिना मैं कहता हूँ कि ‘हाँ’। लेकिन मैं इतना जोड़ना चाहता हूँ कि सबसे पहले यंत्रों की खोज और विज्ञान लोभ के साधन नहीं रहने चाहिए। फिर मजदूरों से उनकी ताकत से ज्यादा काम नहीं लिया जायेगा, और यंत्र रुकावट बनने के बजाय मददगार हो जायेंगे। मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है, बल्कि उनकी हद बाँधने का है।

श्री रामचंद्रन ने कहा: ‘इस दलील को आगे बढ़ाएं तो उसका मतलब यह होता है कि भौतिक शक्ति से चलने वाले और भारी पेचीदा तमाम यंत्रों का त्याग करना चाहिए।‘

गांधीजी ने मंजूर करते हुए कहा: ‘त्याग करना भी पड़े। लेकिन एक बात मैं साफ़ करना चाहूँगा। हम जो कुछ करें उसमे मुख्य विचार इंसान के भले का होना चाहिए। ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए, जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें। इसलिए यंत्रों को मुझे परखना होगा। जैसे सिंगर की सीने की मशीन का मैं स्वागत करूँगा। आज की सब खोजों में जो बहुत काम की थोड़ी चीजें हैं, उनमे से एक यह सीने की मशीन है। उसकी खोज के पीछे अद्भुत इतिहास है। सिंगर ने अपनी पत्नी को सीने और बखिया लगाने का उकतानेवाला काम करते देखा। पत्नी के प्रति रहे उसके प्रेम ने गैर-जरूरी मेहनत से उसे बचाने के लिए सिंगर को ऐसी मशीन बनाने की प्रेरणा दी। ऐसी खोज करके उसने ना सिर्फ अपनी पत्नी का श्रम बचाया, बल्कि जो भी ऐसी सीने की मशीन खरीद सकते हैं, उन सबको हाथ से सीने के उबानेवाले श्रम से छुड़ाया है।‘

श्री रामचंद्रन ने कहा: ‘लेकिन सिंगर की सीने की मशीनें बनाने के लिए तो बड़ा कारखाना चाहिए और उसमे भौतिक शक्ति से चलने वाले यंत्रों का उपयोग करना पडेगा।‘

गांधीजी ने मुस्कराते हुए कहा : ‘हाँ, लेकिन मैं इतना कहने की हद तक समाजवादी तो हूँ ही कि ऐसे कारखानों का मालिक राष्ट्र हो या जनता की सरकार की ओर से ऐसे कारखाने चलाये जाएँ। उनकी हस्ती नफे के लिए नहीं, बल्कि लोगों के भले के लिए हो। लोभ की जगह प्रेम को कायम करने का उसका उद्देश्य हो। मैं तो चाहता हूँ कि मजदूरों की हालत में कुछ सुधार हो। धन के पीछे आज जो पागल दौड़ चल रही है वह रुकनी चाहिए। मजदूरों को सिर्फ अच्छी रोजी मिले, इतना ही बस नहीं है। उनसे हो सके ऐसा काम उन्हें रोज मिलना चाहिए। ऐसी हालत में यंत्र जितना सरकार को या उसके मालिक को लाभ पहुंचाएगा, उतना ही लाभ उसके चलाने वाले मजदूर को पहुंचाएगा। मेरी कल्पना में यंत्रों के बारे में जो कुछ अपवाद हैं,उनमे से एक यह है। सिंगर मशीन के पीछे प्रेम था,इसलिए मानव-सुख का विचार मुख्य था। उस यंत्र का उद्देश्य है कि मानव श्रम की बचत। उसका इस्तेमाल करने के पीछे मकसद धन के लोभ का नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रामाणिक रीति से दया का होना चाहिए। मसलन, टेढ़े तकुवे को सीधा बनाने वाले यंत्र का मैं बहुत स्वागत करूंगा। लेकिन लोहारों का तकुवे बनाने का काम ही ख़तम हो जाय, यह मेरा उद्देश्य नहीं हो सकता। जब तकुवा टेढा हो जाय तब हरेक कातने वाले के पास तकुवा सीधा कर लेने के लिए यंत्र हो, इतना ही मैं चाहता हूँ। इसलिए  लोभ की जगह हम प्रेम को दें। तब फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा।‘

महादेव हरी भाई देसाई इस चर्चा के समापन में लिखते हैं कि : ‘ मुझे नहीं लगता कि ऊपर के संवाद में गांधीजी ने जो कहा है, उसके बारे में इन आलोचनाओं में से किसी का सिद्धांत के दृष्टी में विरोध हो। देह की तरह यंत्र भी, अगर वह आत्मा के विकास में मदद करता हो तो, और जितनी हद तक मदद करता हो उतनी हद तक ही उपयोगी है।‘

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सच्चा फैसला ☆ – श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

 

( आज प्रस्तुत है  श्रीमती छाया सक्सेना जी का एक विचारणीय  व्यंग्यात्मक किन्तु सत्य के धरातल पर रचित विचारणीय आलेख “सच्चा फैसला”. हम भविष्य में भी उनकी चुनिंदा रचनाएँ अपने पाठकों से साझा करते रहेंगे.)

☆ सच्चा फैसला☆

जब भी सम्मान पत्र बँटते हैं, उथल -पुथल, गुट बाजी,  किसी भी संस्था का दो खेमों में बँट जाना स्वाभाविक होता है ।  कई घोषणाएँ सबको विचलित करने हेतु ही की जाती हैं  जिससे जो जाना चाहे चला जाए क्योंकि ये दुनिया तो  कर्मशील व्यक्तियों से भरी है ऐसा कहते हुए संस्था के एक प्रतिनिधि  उदास होते हुए माथे पर हाथ रखकर बैठ गए।

इस समूह में कुछ विशिष्ट जनों पर ही टिप्पणी दी जाती है, वही लोग आगे- आगे  बढ़कर  सहयोग करते दिखते हैं या नाटक करते हैं पता नहीं ।

क्या मेरा यह अवलोकन ग़लत है …?  मुस्कुराते हुए एक सामान्य सदस्य ने पूछा ।

वर्षो से संस्था के शुभचिन्तक रहे विशिष्ट सदस्य ने गंभीर मुद्रा अपनाते हुए, आँखों का चश्मा ठीक करते हुए कहा बहुत ही अच्छा प्रश्न है ।

सामान्य से विशिष्ट बनने हेतु सभी कार्यों में तन मन धन से सहभागी बनें, सबकी सराहना करें, उन्हें सकारात्मक वचनों से प्रोत्साहित  करें, ऐसा करते ही सभी उत्तर मिल जाएंगे ।

सामान्य सदस्य ने कहा मेरा कोई प्रश्न ही नहीं, आप जानते हैं, मैं तो ….

अपना काम और जिम्मेदारी पूरी तरह से निभाता हूँ । आगे जो समीक्षा कर रहा है कामों की वो जाने।

एक अन्य  विशिष्ट  सदस्य  ने कहा आप भी  कहाँ की  बात ले बैठे  ये तो सब खेल है कभी भाग्य, कभी कर्म का, बधाई पुरस्कृत होने के लिये आपका भी तो नाम है ।

आप हमेशा ही सार्थक कार्य करते हैं, आपके कार्यों का सदैव मैं प्रशंसक हूँ ।

तभी एक अन्य सदस्य  खास बनने की कोशिश करते हुए कहने लगा,  कुछ लोगों को गलतफहमी है मेरे बारे में, शायद पसंद नहीं करते ……मुँह बिचकाते हुए बोले,  मैं तो उनकी सोच बदलने में असमर्थ हूँ और समय भी नहीं  ये सब सोचने का….।

पर कभी कभी लगता है  चलिए  कोई बात नहीं ।

जहाँ लोग नहीं चाहते मैं रहूँ सक्रियता कम कर देता हूँ । जोश उमंग कम हुआ बस..।

सचिव महोदय जो बड़ी देर से सबकी बात सुन रहे थे  कहने लगे #इंसान की कर्तव्यनिष्ठा उसके कर्म सबको आकर्षित करते हैं। समयानुसार  सोच परिवर्तित  हो जाती है।

मुझे ही देखिये  कितने लोग पसंद करते हैं.. …. हहहहहह ।

अब भला संस्था के दार्शनिक महोदय भी  कब तक चुप रहते  कह उठे #जो_व्यक्ति_स्वयं_को_पसंद_करता_है उसे ही सब पसंद करते हैं ।

सामान्य सदस्य जिसने शुरुआत की थी बात काटते हुए कहने लगा शायद यहाँ वैचारिक भिन्नता हो ।

जब सब सराहते हैं  तो किये गए कार्य की समीक्षा और सही मूल्यांकन होता है तब खुद के लिये भी अक्सर पाजिटिव राय बनती है और बेहतर करने की कोशिश भी ।

दार्शनिक महोदय ने कहा दूसरे के अनुसार चलने से हमेशा दुःखी रहेंगे अतः जो उचित हो उसी अनुसार चलना चाहिए जिससे कोई खुश रहे न रहे कम से कम हम स्वयं तो खुश होंगे।

#सत्य_वचन, आज से आप हम सबके गुरुदेव हैं, सामान्य सदस्य ने कहा  ।

सभी ने #हाँ_में_हाँ मिलाते हुए फीकी  सी मुस्कान  बिखेर दी और अपने-अपने गंतव्य की ओर चल  दिए ।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘ प्रभु 

जबलपुर (म.प्र.)
मो.- 7024285788

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #29 – संचार क्रांति ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “संचार क्रांति”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 29 ☆

☆ संचार क्रांति

 

विगत वर्षो में संपूर्ण विश्व में संचार क्रांति हुई है. हर हाथ में मोबाइल एक आवश्यकता बन गया है, सरकार ने इसकी जरूरत को समझते हुये ही मोबाइल, टैब व पर्सनल कम्प्यूटर मुफ्त बांटने की योजनाये प्रस्तुत की हैं. मल्टी मीडिया मोबाइल पर  कैमरे की सुविधा तथा किसी भी भाषा में टिप्पणी लिखकर उसे सार्वजनिक या किसी को व्यक्तिगत संदेश के रूप में भेजने की व्यवस्था के चलते मोबाइल बहुआयामी बहुउपयोगी उपकरण बन चुका है.

इन नवीनतम संचार उपकरणो के द्वारा इंटरनेट के माध्यम से लगभग नगण्य व्यय पर सोशल मीडिया के माध्यम से लोग परस्पर संपर्क में रह सकते हैं. सोशल मीडिया के अनेकानेक साफ्टवेयर विकसित हुये हैं. २०० से अधिक सोशल साइटस् प्रचलन में हैं, किन्तु लोकप्रिय साइट्स फेसबुक, ट्विटर, माई स्पेस, आरकुट, हाई फाइव, फ्लिकर, गूगल प्लस, ड्यूओ, स्कैप। लिंकेड इन  आदि ही हैं. इन  के द्वारा लोग परस्पर संवाद करते रहते हैं. व्यक्तिगत या सामाजिक विषयो पर इन साइट्स पर बड़े बड़े लेखो की जगह छोटी टिप्पणियो या फोटो के माध्यम से लोग परस्पर वैचारिक आदान प्रदान करते रहते हैं. संपादन की बंदिशें नही होती. इधर लिखो और क्लिक करते ही समूचे विश्व में कहीं भी तुरंत संदेश प्रेषित हो जाता है. युवा पीढ़ी जो इन संसाधनो से यूज टू है, बहुतायत में इनका प्रयोग कर रही है. एक ही शहर में होते हुये भी परिचितो से मिलने जाना समय साध्य होता है, किन्तु इन सोशल साइट्स के द्वारा लाइव चैट के जरिये एक दूसरे को देखते हुये सीधा संवाद कभी भी किया जा सकता है, मैसेज छोड़ा जा सकता है, जिसे पाने वाला व्यक्ति अपनी सुविधा से तब पढ़ सकता है, जब उसके पास समय हो. इस तरह संचार के इन नवीनतम संसाधनो की उपयोगिता निर्विवाद है.

फिल्म सत्याग्रह कुछ समय पूर्व प्रदर्शित हुई, जिसमें नायक ने फेस बुक के माध्यम से जन आंदोलन खड़ा करने में सफलता पाई, इसी तरह चिल्हर पार्टी नामक फिल्म में भी बच्चो ने फेसबुक के द्वारा परस्पर संवाद करके एक मकसद के लिये आंदोलन खड़ा कर दिया था. फिल्मो की कपोल कल्पना में ही नही वास्तविक जीवन में भी विगत वर्ष मिस्र की क्राति तथा हमारे देश में ही अन्ना के जन आंदोलन तथा निर्भया प्रकरण में सोशल नेटवर्किंग साइटस का योगदान महत्वपूर्ण रहा है. गलत इरादो से इन साइट्स के दुरुपयोग के उदाहरण भी सामने आये है, उदाहरण के तौर पर दक्षिण भारत से उत्तर पूर्व के लोगो के सामूहिक पलायन की घटना फेसबुक के द्वारा फैलाई गई भ्राति के चलते ही हुई थी.

कारपोरेट जगत ने मल्टी मीडिया की इस ताकत को पहचाना है. ग्राहको से सहज संपर्क बनाने के लिये फेसबुक व ट्विटर जैसे सोशल पोर्टल का इस्तेमाल तेजी से बढ़ रहा है. विभिन्न कंपनियो ने अपने उत्पादो के लिये फेसबुक पर पेज बनाये हैं, जिन्हें लाइक करके कोई भी उन पृष्ठो पर प्रस्तुत सामग्री देख सकता है तथा अपना फीड बैक भी दे सकता है. इन कंपनियो ने बड़े वेतन पर प्राडक्ट की जानकारी रखने वाले, उपभोक्ता मनोविज्ञान को समझने वाले तथा कम्प्यूटर विशेषज्ञ रखे हैं जो इन सोशल साइट्स के जरिये अपने ग्राहको से जुड़े रहते हैं व उनकी कठिनाईयो को हल करते हैं. तरह तरह की प्रतियोगिताओ के माध्यम से ये पेज मैनेजर अपने ग्राहको को लुभाने में लगे रहते हैं.

सरकारी संस्थानो में व्यापक रूप से इस तरह की उच्च स्तरीय पहल मोदी सरकार ने की है.  अनेक मंत्रियो व अधिकारियो ने अपने कार्य क्षेत्र में उत्साह से सोशल मीडिया के महत्व को समझते हुये इसके जन हित में उपयोग करने के प्रयास किये हैं. अनेक ऐसी परियोजनाये पुरस्कृत भी हुई हैं. फेसबुक की पारदर्शिता के कारण समस्यायें तथा निदान संबंधित अधिकारियो व उपभोक्ताओ के बीच साझा रहती हैं. फेस बुक पर प्राप्त सुझावो व समस्याओ के विश्लेषण से  क्षेत्र की समान समस्याओ की ओर सभी संबंधित अधिकारियो को सरलता से जानकारी मिल सकती है व उनका तुरंत निदान हो सकता है. फेसबुक की सदैव व सभी जगह उपलब्धता के कारण उपभोक्ता व नागरिको को सहज ही अपनी बात कहने का अधिकार मिल गया है. इस तरह सोशल मीडिया के उपयोग की अभिनव पहल से उपभोक्ता संतुष्टि का लक्ष्य कम से कम समय में ज्यादा पारदर्शिता तथा बेहतर तरीके से पाया जा सकेगा. फेसबुक के साथ ही चौबीस घंटे सुलभ टेलीफोन लाइनें एवं ईमेल के द्वारा भी  संपर्क करने की सुविधा भी शासन ने सुलभ की  है, अब गेद जनता की पाली में है. देखें कितना सार्थक होता है यह प्रयास.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #26 – प्रतिरूप ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 26☆

☆ प्रतिरूप ☆

‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’ दो शताब्दी पहले विल्यम वर्ड्सवर्थ की कविता में सहजता से आया था यह उद्गार। यह सहज उद्गार कालांतर में मनोविज्ञान का सिद्धांत बन जाएगा, यह विल्यम वर्ड्सवर्थ ने भी कहाँ सोचा होगा।

‘चाइल्ड’ के ‘फादर’ होने की शुरूआत होती है, अभिभावकों द्वारा दिये जाते निर्देशों से। विवाह या अन्य समारोहों में माँ-बाप द्वारा अपने बच्चों को दिये जाते ये निर्देश सार्वजनिक रूप से सुनने को मिलते हैं। कुछ बानगियाँ देखिए, ‘दौड़कर लाइन में लगो अन्यथा जलपान समाप्त हो जायेगा।’… ‘पहले भोजन करो, बाद में शायद न बचे।’..’गिफ्ट देते समय फोटो ज़रूर खिंचवाना।’…’बरात में बैंड-बाजेवालों को पैसे तभी देना जब वीडियो शूटिंग चल रही हो।’ बचपन से येन केन प्रकारेण हासिल करना सिखाते हैं, तजना सिखाते ही नहीं। बटोरने का अभ्यास करवाते हैं, बाँटने की विधि बताते ही नहीं। बच्चे में आशंका, भय, आत्मकेंद्रित रहने का भाव बोते हैं। पहले स्वार्थ देखो बाकी सब बाद में।

‘मैं’ के अभ्यास से तैयार हुआ बच्चा बड़ा होकर रेल स्टेशन या बस अड्डे पर टिकट के लिए लगी लाइन में बीच में घुसने का प्रयास करता है। झुग्गी-झोपड़ियों में सार्वजनिक नल से पानी भरना हो, सरकारी अस्पताल में दवाइयाँ लेनी हों, भंडारे में प्रसाद पाना हो या लक्ज़री गाड़ी  में बैठकर सबसे पहले सिग्नल का उल्लंघन करना हो, ‘मैं’ की संकीर्णता व्यक्ति को निर्लज्जता के पथ पर ढकेलती है। इस पथ के व्यक्ति की मति हरेक से लेने के तरीके ढूँढ़ती है। चरम तब आता है जब जिनसे यह वृत्ति सीखी, उन बूढ़े माँ-बाप से भी लेने की प्रवृत्ति जगती  है। माँ-बाप को अब भान होता है कि बबूल बोकर, आम खाने की आशा रखना व्यर्थ है। कैसे संभव है कि सिखाएँ स्वार्थ और पाएँ परमार्थ!

अपनी कविता ‘प्रतिरूप’ स्मरण हो आई।

मेरा बेटा

सारा कुछ खींच कर ले गया,

लोग उसे कोस रहे हैं,

मैं आत्मविश्लेषण में मग्न हूंँ,

बचपन में घोड़ा बनकर

मैं ही उसे ऊपर बिठाता था,

दूसरे को सीढ़ी बनाकर

ऊँचाई हासिल करने के

गुरु से सिखलाता था,

परायों के हिस्से पर

अपना हक जताने की

बाल-सुलभता पर

मुस्कराता था,

सारा कुछ बटोर कर

अपनी जेब में रखने की

उसकी अदा पर इठलाता था,

जो बोया मेरी राह में अड़ा है

मेरा बीज

अब वृक्ष बनकर खड़ा है,

बीज पर तो नियंत्रण कर लेता

वृक्ष का बल प्रचंड है,

अपने विशाल प्रतिरूप से

नित लज्जित होना

मेरा समुचित दंड है।

 

(कविता संग्रह ‘योंही।’)

साहित्य मौन क्रांति करता है। बेहतर व्यक्ति और बेहतर समाज के निर्माण के लिए बच्चे में बचपन से बड़प्पन भरना होगा। आखिर जो भरेगा वही तो झरेगा। इसीलिए तो कहा गया था, ‘द चाइल्ड इज द फादर ऑफ मेन।’

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य – # 22 – वरदान और अभिशाप ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “वरदान और अभिशाप।)

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 22 ☆

☆ वरदान और अभिशाप

भगवान राम भी कर्म के कानून से नहीं बच पाए। उन्होंने एक वृक्ष के पीछे से बाली को मार डाला था, न कि लड़ाई की खुली चुनौती से। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाली को वरदान था कि अगर कोई उससे लड़ने के लिए उसके सामने आ जाए तो बाली को उसकी आधी शक्ति मिल जाएगी।

इसलिए भगवान विष्णु के अगले अवतार, भगवान कृष्ण के रूप में इस कार्य के लिए, उन्हें जरा (अर्थ : माँ) नामक एक शिकारी के हाथों वृक्ष के पीछे से छिप कर चलाये गए तीर से मृत्यु मिली। जानते हैं वो जरा कौन था? वह बाली का अगला जीवन था, जिसने अपने पिछले जन्म में भगवान राम द्वारा छिप कर चलाये हुए तीर से मृत्यु प्राप्त की थी जिसका परिणाम स्वरूप भगवान कृष्ण की मृत्यु भी समान रूप से हुई वो भी उसी केहाथोंजिसे उन्होंने पिछले जन्म में मारा था। इसी को कर्मोंका क़ानून कहते हैं।

क्या आप जानते हैं कि कर्म का अभिशाप और कानून इतना प्रभावी है कि उसने भगवान कृष्ण के सभी राज्यों को बर्बाद कर दिया था । बेशक अगर भगवान कृष्ण चाहते, तो वे उनसे बच सकते थे, क्योंकि यह सब स्वयं उनकी अपनी माया के तहत ही रचा गया था, लेकिन यदि वह ऐसा करते, तो ऐसा लगता कि भगवान अपने द्वारा बनाये गए नियम स्वयं ही तोड़ रहे हैं, तो आम लोग उनका अनुसरण क्यों करेंगे?

भगवान कृष्ण से अधिक बुद्धिमान कौन है? कोई नहीं।

वह कुरुक्षेत्र की लड़ाई में पांडवों के साथ थे क्योंकि उन्हें पता था कि यदि पांडव उस युद्ध को हार जायँगे, तो धर्म का नुकसान होगा और कौरव कभी भी आदर्श राजा नहीं बन पायेंगे जिससे कि कौरवों के शासन में, सभी आम लोगों को भारी मुसीबतों और परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। इसलिए धार्मिक कानून स्थापित करने के लिए, भगवान कृष्ण को पता था कि पांडवों की जीत आवश्यक है। सभी जानते हैं कि कौरव सेना के पास पांडव सेना से ज्यादा कई और शक्तिशाली योद्धा थे।

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 27 ☆ शब्द शब्द साधना ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “शब्द शब्द साधना”डॉ मुक्ता जी का यह प्रेरणास्पद आलेख किसी भी पीढ़ी के लिए वरदान है। अक्सर हम क्षणिक भावावेश में कुछ ऐसे शब्दों का उपयोग कर लेते हैं जिसके लिए आजीवन पछताते हैं किन्तु एक बार मुंह से निकले शब्द वापिस नहीं हो सकते। हम जानते हैं कि हमारी असंयमित भाषा हमारे व्यक्तित्व को दर्शाती है किन्तु हम फिर भी स्वयं को संयमित नहीं कर पाते हैं।  डॉ मुक्ता जी ने इस तथ्य के प्रत्येक पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की है।  डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 26 ☆

 

☆ शब्द शब्द साधना

 

‘शब्द शब्द में ब्रह्म है, शब्द शब्द में सार।

शब्द सदा ऐसे कहो, जिन से उपजे प्यार।’

वास्तव में शब्द ही ब्रह्म है और शब्द में ही निहित है, जीवन का संदेश…  सदा ऐसे शब्दों का प्रयोग कीजिए, जिससे प्रेमभाव प्रकट हो। कबीर जी का यह दोहा ‘ऐसी वाणी बोलिए/ मनवा शीतल होय। औरहुं को शीतल करे/ खुद भी शीतल होय…उपरोक्त भावों की पुष्टि करता है। हमारे कटु वचन दिलों की दूरियों को इतना बढ़ा देते हैं, जिसे पाटना कठिन हो जाता है। इसलिए सदैव मधुर शब्दों का प्रयोग कीजिए, क्योंकि शब्द से खुशी/ शब्द से ग़म/ शब्द से पीड़ा/ शब्द ही मरहम। शब्द में नियत हैं खुशी व ग़म के भाव। परंतु उनका चुनाव आपकी सोच पर निर्भर करता है। शब्दों में इतना सामर्थ्य है कि जहां वे मानव को असीम आनंद व अलौकिक प्रसन्नता प्रदान कर सकते हैं, वहीं ग़मों के सागर में डुबो भी सकते हैं। दूसरे शब्दों में शब्द पीड़ा है, शब्द ही मरहम है।  शब्द मानव के रिसते ज़ख्मों पर मरहम का काम भी करते हैं। यह आप पर निर्भर करता है, कि आप किन शब्दों का चुनाव करते हैं।

‘हीरा परखे जौहरी, शब्द ही परखे साध।

कबीर परखे साध को, ताको मता अगाध।’

हर व्यक्ति अपनी आवश्यकता व उपयोगिता के अनुसार इनका प्रयोग करता है। जौहरी हीरे को परख कर संतोष पाता है, तो साधु शब्दों व सत् वचनों को ही महत्व प्रदान करता है। वह उसके संदेशों को जीवन में उतार कर सुख प्राप्त करता है और कबीर उस साधु को परखता है कि उसके विचारों में कितनी गहनता व सार्थकता है, उसकी सोच कैसी है…और वह जिस राह पर लोगों को चलने का संदेश देता है, उचित है या नहीं। वास्तव में संत वह है जिसकी इच्छाओं का अंत हो गया है और जिसकी श्रद्धा को आप विभक्त नहीं कर सकते, उसे सत् मार्ग पर चलने से नहीं रोक सकते, वही संत है। वास्तव में साधना करने व ब्रह्म चर्य को पालन करने वाला ही साधु है, जो सीधे व  स्पष्ट मार्ग का अनुसरण करता है। इसके लिए आवश्यकता है कि जब हम अकेले हों, अपने विचारों को संभालें अर्थात् कुत्सित भावों व विचारों को अपने मनो-मस्तिष्क में दस्तक न देने दें। अहं व क्रोध पर नियंत्रण रखें क्योंकि यह दोनों मानव केअजात शत्रु हैं, जिसके लिए अपनी कामनाओं-तृष्णाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है।

अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को सबसे दूर कर देता है, तो क्रोध सामने वाले को हानि पहुंचाता है, वहीं अपने लिए भी अनिष्टकारी सिद्ध होता है। अहंनिष्ठ व क्रोधी व्यक्ति आवेश में जाने क्या-क्या कह जाते हैं, जिसके लिए उन्हें बाद में पछताना पड़ता है। परंतु ‘ फिर पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् समय गुज़र जाने के पश्चात् हाथ मलने अर्थात् पछताने का कोई औचित्य अथवा सार्थकता नहीं रहती। प्रायश्चित करना… हमें सुख व संतोष प्रदान करने की सामर्थ्य तो रखता है, ‘परंतु गया वक्त कभी लौटकर नहीं आता।’ शारीरिक घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु शब्दों के घाव कभी नहीं भरते, वे तो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। परंतु कटु वचन जहां मानव को पीड़ा प्रदान करते हैं, वहीं सहानुभूति व क्षमा-याचना के दो शब्द बोलकर आप उन पर मरहम भी लगा सकते हैं।

शायद! इसीलिए कहा गया है गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपनी मधुर वाणी द्वारा दूसरे के दु:खों को दूर करने का सामर्थ्य रखता है। आपदाग्रस्त व्यक्ति को ‘मैं हूं ना’ कह देना ही उसमें आत्मविश्वास जाग्रत करता है और उसे विश्वास हो जाता है कि वह अकेला नहीं है… आप सदैव उसकी ढाल बनकर उसके साथ खड़े हैं।

एकांत में व्यक्ति को अपने दूषित मनोभावों पर नियंत्रण करना आवश्यक है तथा सबके बीच अर्थात् समाज में रहते हुए शब्दों की साधना अनिवार्य है… सोच समझकर बोलने की सार्थकता से आप मुख नहीं मोड़ सकते। इसलिए कहा जा सकता है कि यदि आपको दूसरे व्यक्ति को उसकी गलती का अहसास दिलाना है तो उससे एकांत में बात करो… क्योंकि सबके बीच में कही गई बात बवाल खड़ा कर देती है, क्योंकि उस स्थिति में दोनों के अहं टकराते हैं अहं से संघर्ष का जन्म होता है और इस स्थिति में वह एक-दूसरे के प्राण लेने पर उतारू हो जाता है। गुस्सा चांडाल होता है… बड़े-बड़े ऋषि मुनियों के उदाहरण आपके समक्ष हैं… परशुराम का अपनी माता का वध करना व ऋषि गौतम का क्रोध में अहिल्या का श्राप दे देना हमें संदेश देता है कि व्यक्ति को बोलने से पहले सोचना चाहिए तथा उस विषम परिस्थिति में कटु शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए अथवा दूसरों से वैसा व्यवहार करना चाहिए, जिसे आप सहन कर सकते हैं। इसके लिए आवश्यकता है, हृदय की शुद्धता व मन की स्पष्टता की अर्थात् आप अपने मन में किसी के प्रति दुष्भावनाएं मत रखिए… उसके औचित्य-अनौचित्य का भी चिंतन-मनन कीजिए। दूसरे शब्दों में किसी के कहने पर, किसी के प्रति अपनी धारणा मत बनाइए अर्थात् कानों सुनी बात पर विश्वास मत कीजिए क्योंकि विवाह के सारे गीत सत्य नहीं होते। कानों-सुनी बात पर विश्वास करने वाले लोग सदैव धोखा खाते हैं…उनका पतन अवश्यंभावी होता है। कोई भी उनके साथ रहना पसंद नहीं करता. बिना सोचे-विचारे किए गए कर्म केवल आपको हानि ही नहीं पहुंचाते, परिवार, समाज व देश के लिए भी विध्वंसकारी होते हैं।

सो! दोस्त, रास्ता, किताब व सोच यदि गलत हों, तो गुमराह कर देते हैं, यदि ठीक हों, तो जीवन सफल हो जाता है। उपरोक्त कथन हमें आग़ाह करता है कि सदैव अच्छे लोगों की संगति करो, क्योंकि सच्चा मित्र आपका सहायक, निदेशक व गुरू होता है, जो आपको कभी पथ-विचलित नहीं होने देता। वह आपको गलत मार्ग व दिशा में जाने से रोकता है तथा आपकी उन्नति को देख प्रसन्न होता है, आपको उत्साहित करता है। पुस्तकें भी सबसे अच्छी मित्र होती हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘बुरी संगति से इंसान अकेला भला’और एकांत में अच्छा मित्र न  होने की स्थिति में सद्ग्रथों व अच्छी पुस्तकों का सान्निध्य हमारा यथोचित मार्गदर्शन करता है। हां!

सबसे बड़ी है, मानव की सोच अर्थात् जो मानव सोचता है, वही उसके चेहरे से परिलक्षित होता है और व्यवहार आपके कार्यों में झलकता है। इसलिए अपने हृदय में दैवीय गुणों स्नेह, सौहार्द, त्याग, करूणा, सहानुभूति आदि भावों को पल्लवित होने दीजिए… ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर की भावना से दूर से सलाम कीजिए क्योंकि सत्य की राह का अनुसरण करने वाले की राह में अनगिनत बाधाएं आती हैं। परंतु वह उस स्थिति में अपना धैर्य नहीं खोता, दु:खी नहीं होता, बल्कि उनसे सीख लेता है तथा अपने भविष्य को सुखमय बनाता है। वह सदैव शांत भाव में रहता है, क्योंकि सुख-दु:ख तो अतिथि हैं… जो आया है, अवश्य जाएगा। सो! आने वाले की खुशी व जाने वाले का ग़म क्यों? इंसान को हर स्थिति में सम रहना चाहिए अर्थात् दु:ख आपको विचलित न करें और सुख आपको सत्मार्ग पर चलने में बाधा न बनें तथा अब गलत राह का अनुसरण न करने दे। क्योंकि पैसा व पद-प्रतिष्ठा मानव को अहंवादी बना देता है और उसमें उपजा सर्वश्रेष्ठता का भाव उसे अमानुष बना देता है। वह निपट स्वार्थी हो जाता है और केवल अपनी सुख-सुविधा के बारे में सोचता है। इसलिए वहां यश व लक्ष्मी का निवास स्वतःहो जाता है। जहां सत्य है, वहां धर्म है, यश है और वहां लक्ष्मी निवास करती है। जहां शांति है, सौहार्द व सद्भाव है, वहां मधुर व्यवहार व समर्पण भाव है। इसलिए मानव को कभी भी झूठ का आश्रय नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह सब बुराइयों की जड़ है। मधुर व्यवहार द्वारा आप करोड़ों दिलों पर राज्य कर सकते हैं…सबके प्रिय बन सकते हैं। लोग आपके साथ रहने व आपका अनुसरण करने में स्वयं को गौरवशाली व भाग्यशाली समझते हैं। सो! शब्द ब्रह्म है…उसकी सार्थकता को स्वीकार कर जीवन में धारण करें और सबके प्रिय व सहोदर बनें। निष्कर्षत: हमारी सोच, हमारे बोल व हमारे कर्म ही हमारे भाग्य-निर्माता हैं और हमारी  ज़िंदगी के प्रणेता हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 8 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ”.)

☆ गांधी चर्चा # 8 – हिन्द स्वराज से (गांधी जी और मशीनें) ☆ 

 

मशीनों को लेकर गांधीजी के विचारों पर लोगों ने समय समय पर प्रतिक्रियाएं दीं। इसका संकलन महादेव हरी भाई देसाई ने हिन्द स्वराज के अंग्रेजी अनुवाद की प्रस्तावना में इस प्रकार लिखा है:

‘हिन्द स्वराज’ की प्रसंशाभरी समालोचना में सब लेखकों ने एक बात का जिक्र किया है : वह है गांधीजी का यंत्रों के बारे में विरोध। समालोचक इस विरोध को नामुनासिब और अकारण मानते हैं। मिडलटन मारी कहते हैं : ‘ गांधीजी अपने विचारों के जोश में भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं, लेकिन इंसान की बनायी हुई एक अकुदरती- कृत्रिम चीज है। उनके उसूल के मुताबिक़ तो उसका भी नाश करना होगा।‘ डिलाइल बंर्स कहते हैं : ‘यह तो बुनियादी विचार-दोष है। उसमे छिपे रूप से यह बात सूचित की गयी है कि जिस किसी चीज का बुरा उपयोग हो सकता है, उसे हमें नैतिक दृष्टी से हीन मानना चाहिए। लेकिन चरखा भी तो एक यंत्र ही है। और नाक

पर लगाया गया चश्मा भी  आँख की मदद करने को लगाया गया यंत्र ही है। हल भी यंत्र है। और पानी खींचने के पुराने से पुराने यंत्र भी शायद मानव जीवन को सुधारने के मनुष्य की हज़ारों बरस की लगातार कोशिश के आख़िरी फल होंगे। किसी भी यंत्र का बुरा उपयोग होने की संभावना रहती है। लेकिन अगर ऐसा हो तो उसमे रही हुई नैतिक हीनता यंत्र की नहीं, लेकिन उसका उपयोग करने वाले मनुष्य की है।‘

इन आलोचनाओं का सन्दर्भ लेते हुए महादेव हरी भाई देसाई लिखते हैं कि मुझे इतना तो कबूल करना चाहिए कि गांधीजी ने  अपने विचारों के जोश में’ यंत्रो के बारे में अनगढ़ भाषा इस्तेमाल की है और आज अगर वे इस पुस्तक को फिर से सुधारने बैठे तो उस भाषा को खुद बदल देंगे।  क्योंकि मुझे यकीन है कि मैंने ऊपर समालोचकों के जो कथन दिए हैं उनको गांधीजी स्वीकार करेंगे; और जो नैतिक गुण यंत्र का इस्तेमाल करनेवाले रहें हैं, उन गुणों को उन्होंने यंत्र के गुण कभी नहीं माना। मिसाल के तौर पर १९२४  में उन्होंने जो भाषा इस्तेमाल की थी वह ऊपर दिए हुए दो कथनों की याद दिलाती है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने आगे उसी साल दिल्ली में गांधीजी का रामचंद्रन के साथ जो संवाद हुआ उसका पूरा ब्योरा  अपनी इस प्रस्तावना में लिखा है।

स्वयं गांधीजी ने १९२१ में कहा कि ‘ मिलों के सम्बन्ध में मेरे विचारों में इतना परिवर्तन हुआ है कि हिन्दुस्तान की आज की हालत में मैनचेस्टर के कपडे के बजाय हिन्दुस्तान की मिलों को प्रोत्साहन देकर भी हम अपनी जरूरत का कपड़ा हमें अपने देश में ही पैदा कर लेना चाहिए । (गांधीजी के यह विचार हिन्द स्वराज के परिशिष्ट -1 में लिखे हैं)।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने – #28 – संवेदना ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “संवेदना”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 28 ☆

☆ संवेदना

संवेदना एक ऐसी भावना है जो मनुष्य मे ही प्रगट रूप से विद्यमान होती है. मनुष्य प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है क्योंकि उसमें संवेदना है. संवेदनाओं का संवहन, निर्वहन और प्रतिपादन मनुष्य द्वारा सम्भव है, क्योंकि मनुष्य के पास मन है. अन्य किसी प्राणी में संवेदना का यह स्तर दुर्लभ है. संवेदना मनुष्य मे प्रकृति प्रद्दत्त गुण है. पर वर्तमान मे   भौतिकता का महत्व दिन दूने रात चौगुने वेग से विस्तार पा रहा है और तेजी से मानव मूल्यों, संस्कारों के साथ साथ संवेदनशीलता भी त्याज्य होती जा रही है. मनुष्य संवेदनहीन होता जा रहा है, बहुधा संवेदनशील मनुष्य समाज में  बेवकूफ माना जाने लगा है. संवेदनशीलता का दायरा बड़ा तंग होता जा रहा है. स्व का घेरा दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा है. अपने सुख दुःख, इच्छा अनिच्छा के प्रति मनुष्य सतत सजग और सचेष्ट रहने लगा है. अपने क्षुद्र, त्वरित सुख के लिए किसी को भी कष्ट देने में हमारी झिझक तेजी से समाप्त हो रही है. प्रतिफल मे जो व्यवस्था सामने है वह परिवार समाज तथा देश को विघटन की ओर अग्रसर कर रही है.

आज जन्म  के साथ ही बच्चे को एक ऐसी  व्यवस्था के साथ दो चार होना पड़ता है जिसमे बिना धन के जन्म तक ले पाना सम्भव नही. आज शिक्षा,चिकित्सा, सुरक्षा, सारी की सारी सामाजिक व्यवस्था  पैसे की नींव पर ही रखी हुई दिखती है.हमारे परिवेश में प्रत्येक चीज की गुणवत्ता  धन की मात्रा पर ही निर्भर करती है.  इसलिये सबकी  सारी दौड़, सारा प्रयास ही एक मार्गी,धनोन्मुखी हो गया है. सामाजिक व्यवस्था बचपन से ही हमें भौतिक वस्तुओं की महत्ता समझाने और उसे प्राप्त कर पाने के क्रम मे, श्रेष्ठतम योग्यता पाने की दौड़ मे झोंक देती है. हम भूल गये हैं कि धन  केवल जीवन जीने का माध्यम है. आज  मानव मूल्यों का वरण कर, उन्हें जीवन मे सर्वोच्च स्थान दे चारित्रिक निर्माण के सद्प्रयास की कमी है. किसी भी क्षेत्र मे शिखर पर पहुँच कर, अपने उस गुण से  धनोपार्जन करना ही एकमात्र जीवन उद्देश्य रह गया प्रतीत होता है. आज हर कोई एक दूसरे से भाईचारे के संवेदनशील भाव से नही अपितु एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी के रूप मे खड़ा दिखता है. हमें अपने आस पास सबको पछाड़ कर सबसे आगे निकल जाने की जल्दी है. इस अंधी दौड़ में आगे निकलने के लिये साम दाम दंड भेद, प्रत्येक उपक्रम अपनाने हेतु हम तत्पर हैं. संवेदनशील होना दुर्बलता और कामयाबी के मार्ग का बाधक माना जाने लगा है.सफलता का मानक ही अधिक से अधिक भौतिक साधन संपन्न होना बन गया हैं. संवेदनशीलता, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की बातें कोरी किताबी बातें बन कर रह गई हैं.

पहले हमारे आस पास घटित दुर्घटना ही हम भौतिक रूप से देख पाते थे और उससे हम व्यथित हो जाते थे, संवेदना से प्रेरित, तुरंत मदद हेतु हम क्रियाशील हो उठते थे. पर अब टी वी समाचारों के जरिये हर पल कहीं न कहीं घटित होते अपराध, व हादसों के सतत प्रसारण से हमारी  संवेदनशीलता पर कुठाराघात हुआ है.. टी वी पर हम दुर्घटना देख तो सकते हैं किन्तु चाह कर भी कुछ मदद नही कर सकते. शनैः शनैः इसका यह प्रभाव हुआ कि बड़ी से बड़ी घटना को भी अब अपेक्षाकृत सामान्य भाव से लिया जाने लगा है. अपनी ही आपाधापी में व्यस्त हम अब अपने आसपास घटित हादसे को भी अनदेखा कर बढ़ जाते हैं.

ऐसे संवेदना ह्रास के समय में जरूरी हो गया है कि हम शाश्वत मूल्यों को पुनर्स्थापित करें, समझें कि सच्चरित्रता, मानवीय मूल्य, त्याग, दया, क्षमा, अहिंसा, कर्मठता, संतोष, संवेदनशीलता यदि व्यक्तिव का अंग न हो तो मात्र धन, कभी भी सही मायने मे सुखी और संतुष्ट नही कर सकता.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #25 – क्रिकेट दर्शन-जीवन दर्शन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 25☆

☆ क्रिकेट दर्शन-जीवन दर्शन ☆

(हाल  ही में भारत ने वेस्टइंडीज से टी-20 क्रिकेट शृंखला जीती है। इसी परिप्रेक्ष्य में टी-20 और जीवन के अंतर्सम्बंध पर टिप्पणी करती *संजय उवाच* की इस कड़ी का पुनर्स्मरण हो आया। मित्रों के साथ साझा कर रहा हूँ।)

जीवन एक अर्थ में टी-20 क्रिकेट ही है। इच्छाओं की गेंदबाजी पर दायित्व बल्ला चला रहा है। अंपायरिंग करता काल सनद्ध है कि जरा-सी गलती हो और मर्त्यलोक का एक और विकेट लपका जाए। दुर्घटना, निराशा, अवसाद, आत्महत्या, हत्या आदि क्षेत्ररक्षण कर रहे हैं। मारकेश की वक्र-दृष्टि-सी विकेटकीपिंग, बोल्ड, कैच, रन आउट, स्टम्पिंग, एल.बी.डब्ल्यू., हिट-विकेट…,अकेला जीव, सब तरफ से घिरा हुआ जीवन के संग्राम में!

महाभारत में उतरना हरेक के बस का नहीं होता। तुम अभिमन्यु हो अपने समय के। जन्म और मरण के चक्रव्यूह को बेध भी सकते हो, छेद भी सकते हो। अपने लक्ष्य को समझो, निर्धारित करो। उसके अनुरूप नीति बनाओ और क्रियान्वित करो। कई बार ‘इतनी जल्दी क्या पड़ी, अभी तो खेलेंगे बरसों’ के चक्कर में 15वें-16वें ओवर तक अपेक्षित रन-रेट इतनी अधिक हो जाती है कि अकाल विकेट देने के सिवा कोई चारा नहीं बचता।

परिवार, मित्र, हितैषियों के साथ सच्ची और लक्ष्यबेधी साझेदारी करना सीखो। लक्ष्य तक पहुँचे या नहीं, यह स्कोरबोर्डरूपी समय तय करेगा। तुम रिस्क लो, रन बटोरो, रन-रेट अपने नियंत्रण में रखो। आवश्यक नहीं कि पूरे 20 ओवर खेल सको पर अंतिम गेंद तक खेलने का यत्न तो कर ही सकते हो न!

यह जो कुछ कहा गया, स्ट्रैटेजिक टाइम आऊट’ में किया गया दिशा-निर्देश भर है। चाहे तो विचार करो और तदनुरूप व्यवहार करो अन्यथा गेंदबाज, क्षेत्ररक्षक और अंपायर तो तैयार हैं ही!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य ☆ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ श्रीमती संगीता भिसे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।

हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ  डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो  निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे  हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी, डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’  जी  एवं प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध  वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम  पीढ़ी के मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।

☆ मराठी साहित्य – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी  के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श  उनकी सुपुत्री श्रीमती संगीता भिसे जी की कलम से। मैं  श्रीमती संगीता जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। श्रीमती संगीता जी की निम्नलिखित आत्मीय पंक्तियाँ उनका उनकी आदरणीय और प्रिय माँ के प्रति स्नेह को दर्शाती हैं जो उन्होंने उनके जन्मदिवस पर लिखी थी।

आई घराला येते प्रसन्नता तुझ्या स्पर्शाने,
आयुष्याला आहे अर्थ तुझ्या अस्तित्वाने..
तुझा प्रत्येक शब्द जणू अमृताचा,
प्रत्येक क्षणी आधार मायेच्या पदराचा..
माझी प्रत्येक चूक मनात ठेवतेस,
माझ्यावर खूप प्रेम करतेस..

एक सफल एवं आदर्श माँ , गृहणी, शिक्षिका एवं साहित्यकार के रूप में हमारी आदर्श हैं । उनका साहित्य हमें  हमारा सामजिक एवं पर्यावरण संरक्षण के दायित्व का एहसास दिलाती  हैं । उनका अधिकतम साहित्य  ईश्वर एवं धार्मिक आस्था से परिपूर्ण है। मैं स्वयं उन्हें उम्र के इस पड़ाव पर भी समय के साथ कुछ नया सीखने की ललक के गुण को अपना आदर्श मानता हूँ। इतना अथाह ज्ञान का भण्डार होते हुए भी इतनी सहज व्यक्तित्व की धनी श्रीमती उर्मिला जी को सादर नमन। उनकी जीवन यात्रा  एवं कृतियों/उपलब्धियों की जानकारी  आप इस  लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं   >>>>  श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे  )

Life began with waking up and having my mother’s face… George Eliot

जॉर्ज इलियट की उपरोक्त पंक्तियाँ प्रत्येक प्रातः मुझे मेरी माँ के स्नेहमय चहरे का स्मरण कराती है।  मेरी माँ.. मेरे जीवन का विश्वास,  मेरे जीवन का सार…। उनके बारे में लिखना मेरे लिए सबसे कठिन कार्य है। मेरे जीवन में उनके महत्व का वर्णन मैं शब्दों में बयान नही कर सकती। यह मुझे असंभव प्रतीत होता है।

आदर्श कवियत्री श्रीमती उर्मिला इंगळे जी की बेटी कहलाते हुये मुझे अत्यंत गर्व का अनुभव होता है।

हम दो बहने है और हमारे दो भाई है…। हम सबको हमारे माँ और पिताजी ने बिना किसी भेद भाव के बराबरी से बड़ा किया है। माँ ने हम सबको जीवन ही नहीं दिया, अपितु, जीवन जीने का तरीका भी सिखाया है। माँ ने हमें हर वो चीज सिखाई है, जो जीवन में जीने के लिए जरूरी है। हमारी माँ, हमारी जननी होने के साथ-साथ हमारी प्रारंभिक शिक्षक और मार्गदर्शक भी है। उन्होनें हम सबको हमारे जीवन में ऐसी छोटी-छोटी बातें बताई हैं जिनका जीवन में काफी महत्व है। उन्होंने हम सबको शारीरिक तथा मानसिक दोनों ही रूप से मजबूत बनाया है। समाज में किस प्रकार से आचरण और व्यवहार करना चाहिये सिखाया है।  उन्होंने हमें व्यवहारिक और सामाजिक ज्ञान भी दिया है।  कोई भी माँ नही चाहती कि- उसके बच्चे गलत रास्ते पर चलें।  इसी कारण से हमारी गलती होने पर उन्होंने फटकार भी लगायी है, ताकि हम अपने जीवन में सही मार्ग का अवलंबन करें और अपने जीवन में सफलता पाएं।

इसके साथ-साथ वे एक अच्छी एवं आदर्श गृहिणी भी हैं। अच्छा खाना बनाना, घर की साफ सफाई करना ऐसे सभी काम भी वो अच्छी तरह से करती थी। उन्होंने अपने जीवन में परिवार के हर व्यक्ति के लिए हर तरह की जिम्मेदारी संभाली है। अपने सभी दायित्व एवं कर्तव्य निभाये हैं। वे एक अच्छी बेटी, बहू, बहन, भाभी, माँ, सासु माँ, नानी और दादी हैं।

हमने बचपन से माँ को पढाई करते हुऐ देखा है। जब हम सब छोटे थे, उस वक्त जब हम लोग उठते थे तो माँ को कॉलेज से वापस आते देखते थे। वे हमे खिलाकर खुद तैयार होकर ऑफिस जाती थी। शाम को हम घर के बाहर खडे होकर माँ की राह देखते थे। माँ आते वक्त बाजार से सब्जियां और कुछ जरूरी चीज़ें लेकर आती थीं। हम लोग थकी हारी माँ से लिपट जाते थे। घर मे आते ही माँ तैयार हो कर अपना पल्लू संभालते हुये किचन में काम करने लगती थी। हमारे घर में रात का खाना खाते वक़्त सामाजिक विषय पर चर्चा होती थी।  जिससे हम सब भाई बहन को समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का एहसास हो गया। इसके साथ-साथ ही वे रचनाएँ (लेख तथा कवितायें) लिखती थी।

वर्ष 2004 में उनको ज्ञान विकास मंडळ, सातारा ने “सुमाता  से सम्मानित किया. समर्थ विद्यापीठ, शिवथरघळ की सभी परीक्षाओं की वो समीक्षक है और 1989 से लेकर आज तक उनकी ये समर्थ सेवा निर्बाध रूप से शुरू है। हमारी माँ सदैव प्रसन्न और हंसमुख रहती हैं। ईश्वर के प्रति भक्ति और निसर्ग के प्रति निष्ठा उनके काव्य में साफ साफ दिखाई देती है।

हमारे पिताजी अपने अंतिम दिनों गंभीर बीमारी के कारण बिस्तर में ही थे। माँने पूरी जिम्मेदारी के साथ दिन रात उनकी सेवा की है। साथ-साथ वे कविताएं भी लिखती रहीं और उस काव्यसंग्रह “काव्यपुष्प” के प्रकाशन के दूसरे दिन ही हमारे पिताजी ने संतोष के साथ अपनी अंतिम सांस ली। पिताजी के अंतिम समय में माँ उनके सिर पर हाथ रख कर विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ बोलती रही ताकि पिताजी को कुछ तकलीफ ना होते हुये उनको मोक्ष मिले.

हाल ही में माँ के चिरंजीवी चारोळी, चैतन्य चारोळी, चिंतामणी चारोळी, चामुंडेश्वरी चारोळी संग्रह पूरे हो गये हैं। माँ ने पूरी ज्ञानेश्वरी स्वहस्ताक्षर मे लिखकर श्रीमाऊली के समाधि को अर्पण की है।

ईश्वर की कृपा से माँ को ऐसा ही चैतन्य मिलता रहे और माँ जैसे अभी अपने पोते के साथ उसके स्टडी टेबल पर बैठ कर लिखती रहती हैं, वैसे ही अपने परपोते के साथ भी बैठ कर  लिखती हैं।

बहू के लिए उनकी सासु माँ एक सहेली के जैसी हैं।

वे बताती हैं कि जब उन्होंने पहली बार माँ को देखा तो उस प्यारे, आकर्षक सुंदर व्यक्तित्व से उनको प्यार हो गया और शादी के बाद माँ ने अपने समझदार  स्वभाव से बहू को अपनी बेटी बना दिया।

 

संप्रति..

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

२३६, यादोगोपाळपेठ, सातारा.

ता. जि.सातारा.

पिन.४१५००२

भ्रमणध्वनी क्र.९०२८८१५५८५

Please share your Post !

Shares