हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #247 ☆ शिकायतें नहीं वाज़िब… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख शिकायतें नहीं वाज़िब… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 247 ☆

☆ शिकायतें नहीं वाज़िब… ☆

न जाने कौन सी शिकायतों का हम शिकार हो गये/ जितना दिल साफ रखा, उतने हम गुनहग़ार हो गये–गुलज़ार जी की यह पंक्तियाँ हमें जीवन के कटु सत्य से अवगत कराती हैं। मानव जितना छल-कपट, राग-द्वेष व स्व-पर से दूर रहेगा, लोग उसे मूर्ख समझेंगे; अकारण दोषारोपण करेंगे और उसका उपहास करेंगे–जिसका मूल कारण है आत्मकेंद्रिता का भाव अर्थात् स्व में स्थित रहना और बाह्याडंबरों में लीन न होना तथा अपने से इतर व्यर्थ की बातों का चिंतन-मनन न करना। ऐसा इंसान दुनियादारी से दूर रहता है, मानव निर्मित कायदे-कानूनों की परवाह नहीं करता तथा प्रचलित परंपराओं, मान्यताओं व अंधविश्वासों में लिप्त नहीं होता। ऐसे व्यक्ति से लोगों को बहुत-सी शिकायतें रहती हैं, जिससे उसका दूर का नाता भी नहीं होता।

वैसे भी आजकल लोग शुक्रिया कम, शिकायतें अधिक करते हैं। वैसे तो यही दुनिया का दस्तूर है। शिकायत करने से अहम् का पोषण होता है और शुक्रिया करते हुए अहम् का विगलन व विसर्जन होता है और दूसरे को महत्ता देने का भाव रहता है, जो उन्हें स्वीकार्य नहीं होता। शिकायतें न करने से दोनों पक्षों का हित होता है।

शिकायत व निंदा का निकट का संबंध है। शिकायतें आप व्यक्ति के मुख पर करते हैं और निंदा उसके पीछे करते हैं। यदि हम दोनों में भेद करना चाहें, तो शिकायतें निंदा से बेहतर हैं और उनका समाधान भी लभ्य होता है। शायद! इसलिए ही कबीर ने निंदक को अपने समीप  रखने का संदेश दिया है, क्योंकि वह आपको आपकी कमियों, दोषों व सीमाओं से अवगत कराता है तथा स्वयं से अधिक अहमियत देता है; अपना अमूल्य समय आपके हित नष्ट करता है। है ना वह आपका सबसे बड़ा हितैषी? चलिए, उसके द्वारा निर्दिष्ट सुझावों पर ध्यान दें।

शिकायतें यदि स्वार्थ हित की जाती है तो उन पर ध्यान ना देना उचित है। यदि वे वाज़िब हैं, तो उसे दूर करने का प्रयास करें। इससे आत्मविश्वास ही नहीं, परहित भी होगा। परंतु यह तभी संभव है, जब आपके हृदय में किसी के प्रति मलिनता का भाव ना हो। उसके लिए आवश्यक है, अपने हृदय को गंगा जल की भांति पावन व निर्मल रखने की। जैसे गंगाजल बरसों तक पवित्र रहता है, उसमें कोई दोष उत्पन्न नहीं होता, हमें भी स्वयं को माया-मोह के बंधनों से मुक्त रखना चाहिए। ‘ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या’ को स्वीकारते हुए मानव शरीर को पानी के बुलबुले की भांति नश्वर, क्षणिक व अस्तित्वहीन स्वीकारना चाहिए और संसार को दो दिन का मेला, जहां मानव को दिव्य खुशी पाने के लिए एकांत में रहना अपेक्षित है, क्योंकि मौन हमें ऊर्जस्वित करता है।

समय नदी की भांति निरंतर गतिशील है तथा प्रकृति पल-पल रंग बदलती है। मौसम भी आते- जाते रहते हैं। इस संसार में जो भी मिला है, प्रभु का कृपा प्रसाद समझ कर स्वीकारें, क्योंकि सब यहीं छूट जाना है। ‘यह किराए का मकाँ है/  कौन तब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे! खाली हाथ तू जायेगा।’  वैसे शिकायत अपनों से होती है, गैरों से नहीं, क्योंकि शिकायत का सीधा संबंध निजी स्वार्थ से होता है; दूसरों के हृदय में आपके प्रति ईर्ष्या भाव नहीं होता– क्योंकि उनका आपके साथ गहन संबंध नहीं होता। अपनों की भीड़ में अपनों को तलाशना दुनिया का सबसे कठिनतम कार्य है। अक्सर अपने ही आप पर पीछे से वार करते हैं। इसलिए मानव को यह सीख दी गई है कि ‘पीठ हमेशा पीछे से मज़बूत रखें, क्योंकि शाबाशी और धोखा दोनों पीछे से मिलते हैं।’ जो इंसान दूसरों पर अधिक विश्वास करता है, सबसे अधिक धोखे खाता है।

बहुत कमियाँ निकालते हैं हम, दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात हम उस आईने से भी कर लें’ अर्थात् दूसरों से शिकायतें व दोषारोपण करने से पूर्व आत्मावलोकन करना अत्यंत आवश्यक है। आईना हमें हक़ीक़त से परिचित कराता है, अपने पराये का भेद बताता है/  ज़िंदगी कहाँ रुलाती है हमें/ रुलाते तो वे लोग हैं/  जिन्हें हम अपनी/ ज़िंदगी समझ बैठते हैं। वैसे भी सुक़ून बाहर से नहीं मिलता, इंसान के अंतर्मन में बसता है। बाहर ढूंढने पर तो उलझनें ही मिलेंगी। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/  बेवजह न किसी से ग़िला कीजिए।’ जी हाँ! मेरे गीत की पंक्तियाँ इसी कटु यथार्थ से परिचित कराती हैं कि जीवन में उलझनें बहुत है। परंतु हमें उनका समाधान अपने अंतर्मन में ढूँढना चाहिए, क्योंकि जब समस्या हमारे मन में है तो समाधान दूसरों के पास कैसे संभव है?

हम अपने मन के मालिक हैं और उस पर अंकुश लगा दिशा परिवर्तन कर सकते हैं। परंतु है तो यह अत्यंत कठिन, क्योंकि वह तो पल भर में तीन लोगों की यात्रा कर लौट आता है। ‘मन को मंदिर हो जाने दो/ देह को चंदन हो जाने दो/ मन में उठ रहे संशय को/ उमड़-घुमड़ कर बरस जाने दो’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ इसी भाव को प्रकट करती हैं। यदि मन मंदिर होगा, तो देह चंदन की भांति पावन रहेगी और मन प्रभु चरणों में समर्पित होगा। ऐसी स्थिति में संदेह, संशय व शंका के बादल बरस जाएंगे और मन उस दिशा  की ओर चल निकलेगा। ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ यदि आपका हृदय पवित्र है, तो आपको गंगा स्नान की आवश्यकता नहीं है। इसलिए इसमें दुष्भावनाओं का वास नहीं होना चाहिए। परंतु 21वीं सदी इसका अपवाद है। आजकल वही व्यक्ति दोषी ठहराया जाता है, जिसका हृदय निर्मल, निश्छल व पवित्र होता है तथा उसमें कलुषता नहीं होती। ‘शक्तिशाली विजय भव’ आज का नारा है। निर्बल पर प्रहार किए जाते हैं। वैसे तो यह युगों-युगों की परंपरा है। आइए! स्वयं को इस जंजाल से मुक्त रखें। सरल, सहज व सामान्य जीवन जीएँ। अपेक्षा व उपेक्षा से दूर रहें, क्योंकि यह संसार दु:खालय है। जीवन अनमोल है और हर पल को अंतिम जानकर जीएँ। पता नहीं, यह हंसा तब उड़ जाएगा। खाली हाथ तू आया है/ खाली हाथ तू जाएगा। ‘जितना दिल साफ रखा/ उतना हम गुनहगार हो गए।’ परंतु हमें यही सोचना है कि जीवन यात्रा बहुत छोटी है। हमें तेरी-मेरी अर्थात् निंदा-स्तुति के जाल में नहीं फँसना है ।भले ही हम पर कितने ही इल्ज़ाम लगाए जाएं। झूठ के पाँव नहीं होते और सत्य सात परर्दों के पीछे से भी उजागर हो जाता है। संघर्ष अखरता ज़रूर है, लेकिन बाहर से सुंदर व भीतर से मज़बूत बनाता है।

समय और समझ दोनों को दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलते हैं, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल चुका होता है। सो! दस्तूर-ए- दुनिया को समझिए, पर अपने मन को मालिन मत होने दें। ‘ज़िंदगी में समझ में आ गई तो अकेले में मेला/ समझ में नहीं आई तो मेले में अकेला।’ सो! चिंतन-मनन कीजिए और प्रसन्नता के भाव से ज़िंदगी बसर कीजिए। शिकायतें तज, शुक्रिया करें और जो मिला है, उसी में संतोष से रहें। यह जीवन व समय बहुत अनमोल है, लौट कर आने वाला नहीं। हर लम्हे को अंतिम साँस तक खुशी से जी लें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 459 ⇒ एक दिन की दास्तान ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक दिन की दास्तान।)

?अभी अभी # 459 ⇒ एक दिन की दास्तान? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हर दिन एक नया दिन होता है। अपने साथ एक नई दास्तान लेकर आता है। दुनिया भविष्य के गर्त में छुपी होती है, घटनाएँ अंजाम लेती रहती हैं। दिन परवान चढ़ता रहता है।

अभी सुबह नहीं हुई ! सूरज नहीं उगा। तारीख़ ने दस्तक देना शुरू कर दिया। कैलेंडर ने एक दिन आगे खसका दिया। आज किसी की शादी है, किसी की शादी की वर्षगाँठ है और किसी का जन्मदिन है। सबके लिए यह आज का दिन खुशियाँ लाया है। कितना अच्छा दिन है। ।

अभी आज का अखबार आपके हाथों में नहीं आया। फिर भी आप निश्चिंत हैं। सोशल मीडिया पर आज के शुभ संदेश प्रसारित होने शुरू हो गए हैं। सुविचार और मंगलकामनाएं दिन को शुभ ही बनाए रखेंगी।

आज किसी के घर शहनाई बजेगी। किसी के घर किसी बच्चे ने जन्म लिया होगा। किसी के मन की मुराद पूरी हुई होगी। किसी की नौकरी का शायद आज पहला दिन हो, कोई शायद आज अपना सेवाकाल समाप्त कर रहा हो। यह सब आज के दिन ही तो होना है। रोज यही तो होता है। यही तो इस एक दिन की दास्तान है। ।

दिन किसी के अच्छे लिए अच्छे होते हैं, तो किसी के लिए बुरे भी। बुरे दिन इतिहास में काले दिन के रूप में दर्ज़ किये जाते हैं।

9/11, 26/11 अभी गुज़रे ही हैं। दिन को सब बर्दाश्त करना पड़ता है। दिन कभी अपना चेहरा नहीं छुपाता। वह जानता है स्वर्णिम इतिहास भी वही दिन बनाता है।

आज के दिन की दास्तान अभी लिखी जाना बाकी है। हमारे चेहरे की खुशी, हमारी आशा और विश्वास आज के दिन को एक विश्वसनीय दिन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। आज के दिन की दास्तान यादगार हो। एक अच्छे दिन की शुभकामना।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 211 ☆ देखो दो दो मेघ बरसते… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना विस्तार है गगन में। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 211 ☆ देखो दो दो मेघ बरसते…

दोस्ती, रिश्ता, व्यवहार बराबरी में ही करना चाहिए। जब तक एक स्तर नहीं होगा तो विवाद खड़े होंगे। हमारे बोलचाल में अंतर होने से समझने की क्षमता भी अलग होगी। जब भी सच्चे व्यक्ति को जान बूझकर नीचे गिराने का प्रयास होगा तो दोषी व्यक्ति को ब्रह्मांडअवश्य ही दण्ड देता है।

तकदीर बदल परिदृश्य तभी

बदलेंगे क़िस्मत के लेखे।

श्रम करना होगा मनुज सभी

जब स्वप्न विजय श्री के देखे।।

पत्थरों के जुड़ने से पहाड़ बन सकता है, बूंदो के जुड़ने से समुद्र बन सकता है तो यदि हम नियमित थोड़ा – थोड़ा भी परिश्रम करें तो क्या अपनी तकदीर नहीं बदल सकते हैं। अब चींटी को लीजिए किस तरह अनुशासन के साथ क्रमबद्ध होकर असंभव को भी संभव कर देती है।

जहाँ चार बर्तन होते हैं वहाँ नोक – झोक कोई बड़ी बात नहीं। कुछ लोगों को आधी रोटी पर दाल लेने में आनंद आता है ऐसा एक सदस्य ने विवाद को बढ़ाने की दृष्टि से कहा।

तो दूसरे ने मामले को शान्त करवाने हेतु कहा – जिंदगी के हर रंगों का आनन्द लेना भी एक कला है जिसे सभी को आना चाहिए तभी जीवन की सार्थकता है।

सबसे समझदार व अनुभवी सदस्य ने कहा क्या हुआ आप प्रेम का घी और डाल दिया करिये दाल व रोटी दोनों का स्वाद कई गुना बढ़ जायेगा।

ये तो समझदारी की बातें हैं जिनको जीवन में उपयोग में लाएँ, लड़ें – झगड़े खूब परन्तु शीघ्र ही बच्चों की तरह मनभेद मिटा कर एक हो जाएँ तभी तो हम अपने भारतीय होने पर गौरवान्वित हो सकेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 298☆ बुंदेली बारता – हमाओ दिमाक तन्निक कुंद है बुंदेली में… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 299 ☆

? बुंदेली बारता – हमाओ दिमाक तन्निक कुंद है बुंदेली में? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

हमसै कभौं कोई कुछ कयें और हम न करें ऐसो होई न सकत. संपादक जी ने भाट्सऐप पे कई कि हमें बुंदेली में कछु लिखने ही है. काऐ से कि अभिनंदन ग्रंथ की किताब बन रई हैं बुंदेली की. अच्छो काम है, अपनी जड़ों को सींचने भोतई जरूरी और अच्छो काम है.

सो हम बुंदेली में लिखने को मन बना के बैठ तो गये, पर सच्ची कै रये, हमाओ दिमाक थोड़ो कुंद है बुंदेली में. पहले कभौं कुछ लिखोई नई हतो हमने बुंदेली में. और एक बात बतायें भले हमाई अम्मा बरी, बिजौरा, बुकनू, कचरियां बनात हैं मगर हमाए घर में हम औरें खड़ी हिन्दी में बतकई करत हैं, सो बुंदेली में लिखबे को तै करके हम बुरे फंसे. हमाओ फील्ड नई है ऐ. फिर हमने सोची कि ऐसो कौन सों अंग्रेजी में हम बड़े एक्सपर्ट हैं, पर बड़े बड़े पेपर लिखत हैं न, बोलत भी हैं, अरे दुनियां घूम आये अंग्रेजी बोल बोल के. फिर आज को जमानो तो ए आई को है, जो अगर कहीं फंसे तो इंटरनेट को आसरो है ना. तो हम कम्प्यूटर खोल के बैठ गये लिखबे को. कौनो मुस्किल नई, हम लिखहैं, आखिर हमो नरो गड़ो है न मण्डला के महलात में.

अब अगलो पाइंट जे आऔ कि आखिर लिखें तो का लिखें ? सोचे कि सबसे अच्छो ये है बुंदेली के बारे में लिख डारें. तो ऐसो है कि देस के बीचोंबीच को क्षेत्र है बुन्देलखण्ड. इते जौन लोकभाषा बोलचाल में घरबार में लोग बोलत हैं, ओही है बुंदेली. कोई लिखो भओ इतिहास नई होने से तै नई है कि बुंदेली कित्ती पुरानी बोली है. पर जे तो सौ फीसद तै है कि बुंदेली बहुतै मीठी बोली है, अरे ईमें तो गारी भी ऐसीं लगें जैसे कान में सीरा पड़ रओ. भरोसा नई हो तो कोनो सादी में बरात हो आओ. घरे पंगत में बिठाके, प्रेम से पुरी सब्जी और गुलगुले खिला खिला के ऐसी ऐसी गाली देंवे हैं लुगाईयां लम्बे लम्बे घूंघट मे कि सुन के तुम सर्मा जाओ. मगर मजाल है कि तुमे बुरो लगे. अरे ऐसी मिठास भरी संस्कृति है बुंदेली की.

हम इत्तो कै सकत हैं कि भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र में सोई बुंदेली बोली का उल्लेख मिलत है, मने भौतई पुरानी है अपनी बुंदेली. कहो जा सकत है कि बुंदेली की अम्मा प्राकृत शौरसेनी भाषा रई है और संस्कृत को बुंदेली के पिता कै सकत हैं. जगनिक आल्हाखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचना कही जात हैं. जगनिक और विष्णुदास को बुंदेली के पहले कवि माने जात हैं. भारतेन्दु के टैम के लोककवि ईसुरी के रचे भये फाग गीत आज भी बुंदेलखंड में मन्डली वालों के रटे भए हैं. ईसुरी के गीतन में बुन्देली लोक जीवन की मिठास, अल्हड़ प्रेम की मादकता और रसीली रागिनी है. जे गीत तबियत तर करके मदमस्त कर देत हैं. पढ़बे बारों ने ईसुरी पर डाक्टरेट कर डारी हैं. उनके गीतन में जीवन को मनो बिग्यान, श्रंगार, समाज, राजनीति, भक्ति, योग, संयोग, वियोग, लौकिक शिक्षा, काया, माया सबै कुछ है. गांवन को बर्णन ईसुरी के फागों में कियो गओ है. मजे की बात जे है कि इत्ते पर भी बुंदेली को लिखो भओ बहुत कम है, सब याददास्त के जरिये सुनत कहत सासों से बहुओ और दादा से पोतों तक चल रओ है. बुंदेली में काम करबों को बहुत गुंजाइस है. बुंदेली में बारता मने गद्य में कम लिखो गओ है. गीत जादा हैं. फाग, गारी, बिबाह गीत, खेतन में काम करबे बकत गाने वाले गीत बगैरा बहुत हैं. जा भाषा सारे बुंदेलखंड में एकई रूप में मिलत आय. मगर बोली के कई रूप में बोलबे को लहजा जगा के हिसाब से बदलत जात है. जई से कही गई है कि कोस-कोस पे बदले पानी, गांव-गांव में बानी. जा हिसाब से बुंदेलखंड में बहुतई बोली चलन में हैं जैसे डंघाई, चौरासी पवारी, विदीशयीया( विदिशा जिला में बोली जाने वाली) बगैरा.

तो हमाओ आप सबन से हाथ जोड़ के बिनती है कि बुंदेली कि डिक्सनरी बनाई जाये, जो कहाबतें और मुहाबरे अपनी नानी दादी बोलत हैं उन्हें लिख के किताब बनाई जाए. बुंदेली गीतों को गाकर यू ट्यूब पर लोड करो जाये. जेमें अपने नाती नतरन को हम कभौं बता सकें कि हाउ स्वीट इज बुंदेली.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 458 ⇒ प्रार्थना और निवेदन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रार्थना और निवेदन।)

?अभी अभी # 458 ⇒ प्रार्थना और निवेदन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 Prayer & request

प्रार्थना समर्पण और शरणागति की वह सर्वोच्च अवस्था है, जहां अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर स्वयं के कल्याण और पूरे जगत के कल्याण के लिए उस सर्वशक्तिमान घट घट व्यापक, अंतर्यामी परम पिता परमेश्वर से याचक बन कुछ मांगा जाए। जप, तप, ध्यान धारणा और समाधि से जो हासिल नहीं होता, वह केवल सच्चे मन से की गई प्रार्थना से अत्यंत सरलता से प्राप्त हो सकता है। कठिन परिस्थितियों में जब डॉक्टर भी घुटने टेक देते हैं, तो जीव के पास केवल प्रार्थना का ही सहारा होता है।

क्या प्रार्थना इतनी आसान है, कि आंख मूंदी और ॐ जय जगदीश हरे गा लिया। भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करें, ओम् जय जगदीश हरे। पूरा चार्टर ऑफ़ डिमांड्स है इस जगदीश जी की आरती में। आरती भी तो सामूहिक प्रार्थना का ही परिष्कृत स्वरूप है।।

ईश्वर की इस सृष्टि में एक संसार हमारा भी है। हमारे परिवार के हम कर्ता हैं, हमारा घर परिवार और संसार केवल आपसी प्रेम, अपेक्षा, आग्रह, अनुनय विनय, और निवेदन से ही तो चलता है। स्कूल कॉलेज में भर्ती और रोजगार के लिए आवेदन अथवा प्रार्थना पत्र के बिना कहां काम चलता है। समय आने पर गधे को बाप भी बनाना पड़ता है, और टेढ़ी उंगली से घी भी निकालना पड़ता है।

हम पर कब किसी आदेश, निवेदन अथवा प्रार्थना का असर पड़ा है। इधर हम अपनी मनमानी कर रहे हैं और उधर भी केवल ईश्वर की ही मर्जी चल रही है। जब संसार में स्वार्थ और खुदगर्जी बढ़ जाती है तो संकट के समय में सबको खुदा याद आ जाता है। कोरोना काल में पूरा संसार ईश्वर के आगे नतमस्तक था। वही तार रहा था, और वही पार लगा रहा था।।

अपने सांसारिक स्वार्थ से ऊपर उठकर सबके कल्याण के लिए उसके दरबार में अरज लगाना ही सच्ची प्रार्थना है, अजान, अरदास है, और चित्त शुद्धि का एकमात्र उपाय है ;

गोविन्द हे गोपाल

हे गोविन्द हे गोपाल

हे दयानिधान

प्राणनाथ अनाथ सखे

दीन दर्द निवार

हे समरथ अगम्य पूरण

मोह माया धार

अंध कूप महा भयानक

नानक पार उतार।।

हे गोविन्द हे गोपाल

है गोविन्द हे गोपाल।

अब तो जीवन हारे,

प्रभु शरण हैं तिहारे ॥

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 457 ⇒ डिनर के पहले… डिनर, के बाद ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डिनर के पहले… डिनर, के बाद।)

?अभी अभी # 457 ⇒ डिनर के पहले… डिनर, के बाद ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Startar & dessert

जिसे हम साधारण भाषा में खाना अथवा भोजन कहते हैं, अंग्रेजों ने उसका समयबद्ध तरीके से नामकरण किया है, ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर, जिसे हम साधारण भाषा में सुबह का चाय नाश्ता, दोपहर का भोजन और रात का खाना कहते हैं। आकर्षक भाषा में इसे ही अल्पाहार, स्वल्पाहार एवं रात्रिभोज कहते हैं।

रात भर भूखे रहे, सुबह जाकर उपवास तोड़ा, इसलिए वह अंग्रेजों का ब्रेकफास्ट हुआ। देहात में तो कुल्ला, दातून के बाद ही कुछ कलेवा कर आदमी खेत खलिहान अथवा काम धंधे रोजगार पर निकल जाता था। हां एक शहरी जरूर ब्रेड बटर, पोहे, इडली, अथवा बाजार से लाए जलेबी, समोसा अथवा कचोरी खाकर स्कूल, दफ्तर अथवा कामकाज पर निकल जाता था।।

अंग्रेज जितने समय के पाबंद होते थे उतने ही खाने के भी। उनके हाथ में ही नहीं, दिमाग में भी घड़ी लगी रहती थी। ब्रेकफास्ट टाइम, लंच टाइम, टी टाइम और रात का डिनर भी घड़ी से ही होता था।

समय के साथ घर घर में डाइनिंग टेबल भी पसर गई। उसी पर सुबह का नाश्ता, बच्चों का होमवर्क, और सब्जी सुधारना भी हो जाता था। अब दिन भर डाइनिंग टेबल का अचार डालने से तो रहे, बहू के दहेज में अलमारी और ड्रेसिंग टेबल के साथ घर में डाइनिंग टेबल भी चली आई। रात को सब मिल जुलकर इसी पर डिनर भी कर लेते हैं।।

जो दिन में संभव नहीं हो, उसे रात का डिनर कहते हैं। पूरे सप्ताह काम ही काम, बस वीकेंड में ही थोड़ा आराम मिलता है। टीवी, मोबाइल और सोशल मीडिया ने पुराने सिनेमाघरों का सत्यानाश कर दिया है। सब फिल्में हॉट स्टार और नेट फ्लिक्स पर देख लो।

इसके बजाय क्यों ना रात का खाना बाहर ही खाया जाए।

पुराने जमाने के सिनेमाघरों की तरह आजकल खाने पीने की होटलें भी हाउसफुल रहने लग गई हैं, घंटों इंतजार करने के बाद अपना नंबर आता है।

अच्छी होटलों में तो दरवाजे पर सजा धजा दरबान सलाम भी करता है।।

होटलों का डिनर तो स्टार्ट ही स्टार्टर से होता है। पापड़, सलाद और सूप के अलावा चिली पनीर के कुछ टुकड़े आपकी भूख को बढ़ाने का काम करते हैं। स्प्राउट्स यानी अंकुरित अनाज भला क्यों पीछे रहे। यह अलग बात है कि हमारे जैसे लोगों का तो स्टार्टर से ही पेट भर जाता है। फिर मुख्य भोजन, जिसे मेन कोर्स कहते हैं, वह सर्व होता है।

बच्चों की दुनिया अलग ही होती है। उनको तो सिर्फ सिजलर, पास्ता, पिज्जा मंचूरियन से मतलब होता है। वैसे भी भारतीय भोजन में चाइनीज फूड का अतिक्रमण हो ही चुका है।।

कोई भी डिनर तब तक पूरा नहीं होता, जब तक कुछ डेजर्ट ना मंगवा लिए जाएं। जो मीठे के शौकीन नहीं हैं, वे आइसक्रीम, कोल्डड्रिंक अथवा फ्रूट कस्टर्ड से डिनर का समापन करते हैं। भरपेट भोजन और वह भी पूरी तरह से कैशलैस।

हुआ ना यह भी एक तरह का मुफ्त डिनर ही न..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही कृष्ण भक्ति ☆ डॉ. विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ. विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक आलेख इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही कृष्ण भक्ति।)

इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही कृष्ण भक्ति ☆ डॉ. विजय तिवारी ‘किसलय’ ☆

जन्म शब्द मानव जाति के लिए कभी न भूलने वाला वह क्षण है, जब इस जग में हमारा आगमन होता है। जन्मदिन किसी का भी हो महत्त्वपूर्ण होता है। यदि हम अपनों का जन्म दिवस बड़ी धूमधाम से मना रहे हैं तब हमारे भगवान कृष्ण का जन्मदिन हो तो कहने ही क्या। कान्हा का जन्मदिन मनाने के लिए मन में कितनी श्रद्धा, भक्ति, आस्था, समर्पण और उत्साह होता है, इसे स्वयं आप हम सभी जानते हैं। भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी अर्थात कृष्ण जन्माष्टमी की प्रतीक्षा सभी हिंदुओं को पूरे वर्ष रहती है। हरित वसुंधरा, पानी से लबालब झील, बावली, सरोवर और नदियों में उछलती मचलती व्यापक जलराशि के दृश्य देखकर प्रतीत होता है जैसे वसुधा का सौंदर्य चरम पर हो। ऐसे आनंदमय वातावरण में अपने कान्हा का जन्मदिन मनाना हर सनातनी के लिए गर्व की बात है। श्री कृष्ण ने अपने अवतारी जीवनकाल में जितने चमत्कार, लीलाएँ और धर्मसंस्थापनार्थाय कार्य किए हैं, शायद भगवान विष्णु के किसी अन्य अवतारी ने नहीं किये।

हम प्रतिवर्ष भगवान कृष्ण का जन्मदिन धार्मिक परंपराओं, आचार्य के निर्देशानुसार विधि विधान से मनाते हैं। झाँकियाँ सजाते हैं। भक्तिभाव से ओतप्रोत भजन गाते-सुनते हैं व्रत-उपवास रखते हैं। कृष्ण भक्ति में लीन रहते हैं। समाप्ति पर प्रभु से आशीष व प्रसाद लेते हैं। तदुपरांत कृष्ण जन्मोत्सव संपन्नम् कहकर स्वयं को धन्य मान लेते हैं।

ईश्वर की इस आस्था और भक्ति पर कोई भी टिप्पणी करना ईश निंदा जैसा होगा। टिप्पणी करना भी नहीं चाहिए लेकिन हमें यह तो पता होना ही चाहिए कि हम यह जन्मदिन क्यों मनाते हैं। इससे हमें वास्तव में कुछ अर्जित हो भी रहा है अथवा नहीं। यदि हम भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन मना रहे हैं तो कम से कम हमें उनके इहलौकिक व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होना ही चाहिए। यहाँ मेरा आशय यह है कि भले ही हमें उनसे संबंधित व्यापक जानकारी न हो परंतु हम भगवान श्री कृष्ण से इतने भी अनभिज्ञ न हों कि दूसरों के समक्ष हमें लज्जित होना पड़े। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी लिखा है कि “हरि अनंत हरि कथा अनंता”. अर्थात अनंत श्रीहरि की कथायें भी अनंत हैं। इसलिए अनंत नहीं तो उनकी मूलभूत जानकारी होना ही चाहिए। साथ ही यह भी सुनिश्चित करें कि हम उनके बताये मार्ग का कितना अनुकरण कर पा रहे हैं, क्योंकि ऐसे में श्री कृष्ण के प्रति आस्था और विश्वास रखना आपका धार्मिक कर्तव्य होगा। मानव जाति को समाज में अपने हिसाब से रहने की स्वतंत्रता तो होना चाहिए लेकिन स्वेच्छाचारिता नहीं। हमारे ये पर्व और जन्मदिन हमें यही सीख देते हैं और यही उद्देश्य भी होता है। जब कृष्ण जन्माष्टमी हम सभी मनाते हैं तब आईये, उनसे संबंधित कुछ तथ्यों को जानते हैं।

भगवान श्री कृष्ण का जन्म वर्ष, गोकुल-वृंदावन और मथुरा की निवास अवधि। द्वारकाधीश बनने के समय में  मतैक्य नहीं है, फिर भी अंतरिम रूप से  स्वीकारते हुए उनके बारे में कुछ बातें जानते हैं। कुछ वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि भगवान श्री कृष्ण का जन्म ईसा पूर्व लगभग 3100 ईस्वी में हुआ था। भगवान विष्णु के आठवें अवतारी पुरुष भगवान श्रीकृष्ण हैं। श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा के कारावास में देवकी और वसुदेव के पुत्र के रूप में हुआ था। वध के डर से पिता वसुदेव जी कृष्ण के पैदा होते ही उन्हें गोकुल में यशोदा-नंद के घर छोड़ आए थे। पूरे बाल्यकाल में इन्होंने अपनी बाल लीलाओं और चमत्कारों से सारे गोकुल और वृंदावन वासियों को चमत्कृत तथा सम्मोहित- सा कर रखा था। अनेक राक्षसों का वध तथा गोवर्धन पर्वत को अपनी उँगली पर उठाकर स्वयं को अलौकिक बना दिया था। इनके बचपन से ही लोग इन्हें माखनचोर, मुरारि, गिरधारी, रासबिहारी के नाम से पुकारने लगए थे। गोप-गोपियों से प्रेम, रासलीला तथा राधा से पारलौकिक प्रेम मानव लोक में अद्वितीय कहा जा सकता है। इस अवतार में लक्ष्मी स्वरूपा राधारानी का विरह भी अकल्पनीय है। अपने जीवन के बारहवें वर्ष में श्रीकृष्ण ने वृंदावन छोड़ा और मथुरा जाकर अपने मामा कंस का वध किया। पुनः राजा अग्रसेन का राजतिलक कराया। जरासंध द्वारा अपने दामाद कंस का बदला लेने के उद्देश्य से मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया, लेकिन कृष्ण जी उसे हर बार जीवित छोड़ते रहे। कृष्ण जी अंतिम बार युद्ध छोड़कर भाग गए जिस कारण उन्हें भगवान रणछोड़ भी कहा जाता है। तभी परिवार और प्रजा सहित वे मथुरा छोड़कर द्वारका में जा बसे। करीब 36 वर्ष तक द्वारकाधीश बने रहे। इसी अवधि में महाभारत सहित धर्म की स्थापना हेतु अनेक कार्य करते हुए अपने अवतार को सार्थक किया।

यही से उनकी द्वारकाधीश कृष्ण की यात्रा शुरू होती है महायोगेश्वर, सुदर्शन चक्रधारी, विराट रूप धारी, सारथी और धर्म संस्थापक कृष्ण जैसी भूमिकाओं का उद्देश्यपूर्ण निर्वहन करते हैं। भगवान कृष्ण लगभग 36 वर्ष तक द्वारकाधीश के रूप में रहते हैं। 125 वर्ष की आयु में श्री कृष्ण जी वापस निजलोक गमन कर जाते हैं।

आज से लगभग 5230 वर्ष से हम निरंतर भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन मनाते चले आ रहे हैं। यही हमारे सनातन संस्कार हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हुए आज भी जीवित हैं। इनसे भी हमें सीख मिलती है कि जब हम अपने आराध्य भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन मना कर उनके बताए आदर्श मार्ग व उनके व्यक्तित्व-कृतित्व का विधिवत स्मरण करते हैं, तब हम अपने बुजुर्गों, पूर्वजों, पारिवारिक सदस्यों के भी जन्मदिन को हर्षोल्लास से मनायें। हम अपने महापुरुषों, मार्गदर्शकों, देशभक्तों के जन्मदिवस पर उन्हें स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञता निवेदित करना अपना नैतिक धर्म मानें।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 456 ⇒ रिश्तों की धूप छांव… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रिश्तों की धूप छांव।)

?अभी अभी # 456 ⇒ रिश्तों की धूप छांव? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यहां कौन है तेरा,

मुसाफिर जायेगा कहां

दम ले ले घड़ी भर,

ये छैयाँ पायेगा कहां ..

हमें छाँव की आवश्यकता तब ही होती है, जब सर पर तपती धूप होती है, और पांव के नीचे पिघलता पत्थर, लेकिन अगर रास्ता ही बर्फीला हो, और कहीं सूरज का नामो निशान ही ना हो, तो हमारी गर्म सांसें भी जवाब दे जाती है, और बस बाकी रह जाती है, एक उम्मीद की किरण।

रिश्ते हमारी जिंदगी की धूप छांव हैं, रिश्ता उम्मीद का एक ऐसा छाता है, जो बारिश में भी हमारे सर को भीगने से बचाता है, और धूप में भी सूरज की तपती धूप में हमें छांव प्रदान करता है। लेकिन जब समय की आंधी चलती है, तो ना तो सर के ऊपर का छाता साथ देता है और ना ही अपना खुद का साया। ।

पैदा होते ही, हम रिश्तों में ही तो सांस लेते हैं, और पल बढ़कर बड़े होते हैं।

लेकिन बदलते वक्त के साथ अगर इन रिश्तों से आती खुशबू गायब हो जाए, रंग बिरंगे फूल अगर कागज के फूल निकल जाएं, तो एक प्यार के रिश्तों का प्यासा, इन कागज़ के फूलों को देखकर सिर्फ यही तो कह सकता है ;

देखी जमाने की यारी

बिछड़े सभी बारी बारी

क्या ले के मिलें

अब दुनिया से,

आँसू के सिवा

कुछ पास नहीं।

या फूल ही फूल थे दामन में,

या काँटों की भी आस नहीं।

मतलब की दुनिया है सारी

बिछड़े सभी, बिछड़े सभी बारी बारी

वक़्त है महरबां, आरज़ू है जवां

फ़िक्र कल की करें, इतनी फ़ुर्सत कहाँ…

मरने जीने से रिश्ता नहीं मर जाता, लेकिन जब इंसानियत मर जाती है, तो सारे रिश्ते भी दफ़्न हो जाते हैं। ।

साहिर एक तल्ख़ शायर था। शौखियों में फूलों के शबाब को घोलने का हुनर उसके पास नहीं था। उसकी तो ज़ुबां भी कड़वी थी और शराब भी और शायद इसीलिए गुरुदत्त जैसा संजीदा कलाकार हमारी इस नकली दुनिया में ज्यादा सांस नहीं ले सका।

होते हैं कुछ लोग, जो अकेले ही खुली सड़क पर सीना ताने निकल पड़ते हैं, फिर चाहे साथी और मंजिल का कोई ठिकाना ना हो। जो मिल गया उसे मुकद्दर बना लिया और जो खो गया, मैं उसको भुलाता चला गया। ।

काश सब कुछ भुलाना इतना आसान हो। काश हमारे रिश्ते किसी ऐसे फूलों के गुलदस्ते के समान हो, जो कभी मुरझाए ना। काश पुराने रिश्तों का भी नवीनीकरण हो पाता, कुछ निष्क्रिय रिश्तों में फिर से जान आ जाती, तो यह जिंदगी जीने लायक रह जाती। रिश्तों को ढोया नहीं, लादा नहीं जाए, उनको प्रेम की चाशनी में भिगोया जाए, धो पोंछकर चमकाया जाए। मतलब और स्वार्थ के नये रिश्तों में वह चमक, दमक कहां।

Old is gold…..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 98 – देश-परदेश – राजनीति निषेध ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 98 ☆ देश-परदेश – राजनीति निषेध ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मीडिया और सोशल ने राजनीति को इस कदर हवा दी है, कि अब वो काबू में नहीं हो पा रहा हैं। सोते जागते, खाते पीते और ये चोबीस घंटे समाचारों को सुनाने वाले चैनल, हमारे जीवन में राजनीति का विष घोल चुके हैं।

बाप बेटा, पति पत्नी सभी संबंधों की दूरियां बढ़ाने के लिए अब और कुछ भी नहीं चाहिए। यादि आप अपने किसी के रिश्तों में दरार डालना चाहते है, तो उस व्यक्ति की राजनैतिक सोच के विरुद्ध चले जाएं। संबंधों में वैमनस्यता स्वाभाविक रूप से आ जायेगी।

राजनीति, अब क्या, हमेशा से ही घृणित और नीच प्रवृत्ति की होती है। आज के इस दौर में जब सामाजिक सोच और मानवीय मूल्य पातललोक से भी नीचे जा चुके है, तब राजनीति की स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

समाचार पत्र में उपरोक्त पंक्तियां पढ़ कर बहुत सुकून मिला, चलो अमेरिका जैसे देश में भी हमारे जैसी मानसिकता वाले लोग ही रहते हैं, और घटिया राजनीति में ही जीवन यापन करते हैं।

हम भी जब तीन चार मित्र मिलते हैं, तो ना चाहते हुए भी कब राजनीति वाली लाइन पकड़ लेते है, ज्ञात ही नहीं होता है। वो तो जब आवाज़ में गति और बुलंदी आ जाती है, तो समझ आता है कि राजनीति की तलवारें म्यान से बाहर आ चुकी हैं। ये ही हाल परिवार मिलन के समय होता है।

व्हाट्स ऐप के समूहों पर ये ही लागू होता हैं। एडमिन के समझाने पर भी सदस्य राजनीति के घिसे पिटे मैसेज साझा करने से बाज़ नहीं आते हैं। कुछ सदस्य तो नाराजगी में समूह तक त्याग देते हैं। तैयार (बने बनाए) राजनीति और धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाले मैसेज प्रेषित कर अपने आप को धर्म और राष्ट्र के प्रति बहुत बड़ा और महान समझने लगते हैं।

हमें भी इंतजार है, हमारे देश में भी कब विवाह, भंडारे, जन्मदिन आदि में राजनीति करने वालों को ‘भोजन निषेध है’, कह कर रवाना कर दिया जायेगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कृष्णनीति ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कृष्णनीति ? ?

जरासंध ने कृष्ण के वध के लिए कालयवन को भेजा। विशिष्ट वरदान के चलते कालयवन को परास्त करना सहज संभव न था। शूर द्वारकाधीश युद्ध के क्षेत्र से कुछ यों निकले कि कालयवन को लगा, वे पलायन कर रहे हैं। उसने भगवान का पीछा करना शुरू किया।

कालयवन को दौड़ाते-छकाते कृष्ण उसे उस गुफा तक ले गए जिसमें ऋषि मुचुकुंद तपस्या कर रहे थे। अपनी पीताम्बरी ऋषि पर डाल दी। उन्माद में कालयवन ने ऋषिवर को ही लात मार दी। ऋषि को विवश हो चक्षु खोलने पड़े और कालयवन भस्म हो गया। ज्ञान के सम्मुख योगेश्वर की साक्षी में अहंकार को भस्म तो होना ही था।

कृष्ण स्वार्थ के लिए नहीं सर्वार्थ के लिए लड़ रहे थे। यह ‘सर्व’ समष्टि से तात्पर्य रखता है। यही कारण था कि रणकर्कश ने समष्टि के हित में रणछोड़ होना स्वीकार किया।

भगवान भलीभाँति जानते थे कि आज तो येन केन प्रकारेण वे असुरी शक्ति से लोहा ले लेंगे पर कालांतर में जब वे नहीं होंगे और प्रजा पर इस तरह के आक्रमण होंगे तब क्या होगा? ऋषि मुचुकुंद को जगाकर कृष्ण आमजन में अंतर्निहित सद्प्रवृत्तियों को जगा रहे थे, किसी कृष्ण की प्रतीक्षा की अपेक्षा सद्प्रवृत्तियों की असीम शक्ति का दर्शन उसे करवा रहे थे।

स्मरण रहे, दुर्जनों की सक्रियता नहीं अपितु सज्जनों की निष्क्रियता समाज के लिए अधिक घातक सिद्ध होती है। कृष्ण ने सद्शक्ति की लौ समाज में जागृत की।

प्रश्न है कि कृष्णनीति की इस लौ को अखंड रखनेवाले के लिए हम क्या कर रहे हैं? हमारी आहुति स्वार्थ के लिए है या सर्वार्थ के लिए? विवेचन अपना-अपना है, निष्कर्ष भी अपना-अपना ही होगा।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जाएगी 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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