(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “व्यवहार का केंद्रीकरण…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 232 ☆व्यवहार का केंद्रीकरण… ☆
समय के साथ व्यवहार का बदलना कोई नयी बात नहीं है। परिवर्तन तो प्रकृति भी करती है, तभी तो दिन रात होते हैं, पतझड़ से हरियाली, फिर अपने चरम उत्कर्ष पर बहारों का मौसम ये सब हमें सिखाते हैं समय के साथ बदलना सीखो, भागना और भगाना सीखो, सुधरना और सुधारना सीखो।
ये सारे ही शब्द अगर हम क्रोध के वशीभूत होकर सुनेंगे तो इनका अर्थ कुछ और ही होगा किंतु सकारात्मक विचारधारा से युक्त परिवेश में कोई इसे सुने तो उसे इसमें सुखद संदेश दिखाई देगा।
जैसे भागना का अर्थ केवल जिम्मेदारी से मुख मोड़ कर चले जाना नहीं होता अपितु समय के साथ तेज चलना, दौड़ना, भागना और औरों को भी भगाना।
सबको प्रेरित करें कि अभी समय है सुधरने का, जब जागो तभी सवेरा, इस मुहावरे को स्वीकार कर अपनी क्षमता अनुसार एक जगह केंद्रित हो कार्य करें तभी सफलता मिलेगी।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खेत और बागड़…“।)
अभी अभी # 605 ⇒ खेत और बागड़ श्री प्रदीप शर्मा
खेत अगर फसल है तो बागड़ उसकी हद और सुरक्षा। खेत बिना बागड़ के हो सकते हैं, घर बिना छत और दीवार के नहीं। ईश्वर की इस बेहद सुंदर वसुंधरा का कोई आदि नहीं, कोई अंत नहीं। ना कोई हद, ना कोई छत और ना कोई दरो दीवार। यह पृथ्वी स्वयं अपने आप में स्वर्ग का द्वार है। खुला आसमान ही इसकी छत है और सूरज, चांद सितारे, इसकी आंख के तारे।
हम बच्चे इसके आंगन में घर घर खेलते हैं। हम अपने घर, अपनी छत, अपनी दीवार, अपनी गृहस्थी अलग बना लेते हैं। जमीन को बांट लेते हैं, अपना देश, अपना संविधान और अपना झंडा बना लेते हैं और दुनिया में एकता, प्रेम, शांति और भाईचारे की बातें करते हैं। फिर भी भारत में महाभारत होता है और विश्व में विश्व युद्ध।।
जीवः जीवस्य भोजनं। इंसान जिंदा रहने के लिए कुछ तो खाएगा ही। कुछ खाने के लिए उसे कुछ बोना भी पड़ेगा। वनस्पति और प्राणी दोनों में जीव है, जिनके कारण ही यह सृष्टि सजीव है। यह सब इस पृथ्वी पर मौजूद पांच तत्वों का ही प्रताप है जिसे हम पंच तत्व कहते हैं।
आइए खेत पर चलें ! कृषि हमारा प्रमुख उद्योग रहा है। काम के बदले अनाज ही, कभी हमारी आर्थिक व्यवस्था थी। अनाज से आप कुछ भी खरीद सकते थे। हमने अन्न का अकाल भी देखा है और कृषि की क्रांति भी। आप जवाहर लाल को भले ही भूल जाएं, लाल बहादुर को नहीं भूल सकते। आज किसान के भले के लिए ही कानून बनाए और वापस लिए जा रहे हैं। खेत खामोश है, बागड़ परेशान।।
हमने भी एक खेत बोया है लोकतंत्र का, जहां संविधान के अनुसार ही फसल बोई और काटी जाती है। खेत का मालिक और किसान एक चुनी हुई सरकार होती है और उस खेत की सुरक्षा के लिए उसकी हद और बागड़ की भी संवैधानिक व्यवस्था है, जिसे आप चाहें तो विपक्ष कह सकते हैं।
जब तक खेत और बागड़ में आपसी समझदारी है, तालमेल है, खेत भी सुरक्षित है और फसल भी। बागड़ थोड़ी सूखी और कंटीली जरूर होती है, लेकिन जानवरों से खेत को दूर रखने में मदद करती है। कभी कभी जब बागड़ की नीयत हरी हो जाती है, यह फसल पर ही डोरे डालना शुरू कर देती है और खेत बागड़ एक हो जाते हैं।।
कोई बागड़, कोई दीवार, कोई सुरक्षा लोकतंत्र के इस खेत पर अगर मौजूद नहीं हुई तो फिर इसकी फसल का तो भगवान ही मालिक है। रासायनिक खाद का जहर वैसे ही लोगों की सेहत और खेत की मिट्टी खराब कर रहा है, बागड़ और खेत के बीच कोई नफरत के बीज ना फैलाए। खेत की फसल लोगों तक पहुंचे, किसान को उसका उचित मूल्य मिले, फिर से हो एक ही धरती और एक ही आसमां। कितना सुहाना हो वह समा।।
छायावाद के प्रमुख स्तम्भ महनीय कविराज सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का यह प्रसिद्ध काव्य उनकी चिरंतन प्रेरणास्त्रोत माँ सरस्वती को समर्पित है| शायद इसीलिए माघ शुक्ल ११, संवत् १९५५, अर्थात २१ फ़रवरी, सन् १८९९ को जन्मे ‘निराला जी’ का जन्मदिवस वसंत पंचमी के अवसर पर मनाना प्रारम्भ हुआ| इस ऊर्जावान रचना में कवि माँ शारदा से स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र अमृतमयी मंत्र का दान मांगता है! इसी स्वतंत्रता के वसन्तोत्सव की मनोकामना हर भारतीय के मन में नव आशा के दीप जला गई थी|
मनभावन माघ महीने के प्रारम्भ से नवोल्लास, नवोन्मेष एवं नवचेतना का उदयकाल प्रारम्भ होता है| जब पौधों पर नवीन गुलाबी कोंपल फूटने लगे, अम्बुवा की हर डाली नौबहार से बौराई जाये, जब मंद मंद सुरभि से निहाल हो समीर यत्र तत्र सर्वत्र संचारित होने लगे, जब इस नवयौवना प्रकृति को देख मन में प्रेम का ज्वार उफान पर हों, तो प्रकृति तथा ईश्वर के परिणय पर्व का स्वागत करने को सज्ज हो जाएं क्योंकि ऋतुराज वसंत का आगमन हुआ है| शिशिर ऋतु की ग्लानि और अवसाद को पीछे छोड़ अब हम उमंग से भरे पलों को जीने के लिए अति उत्सुक हैं|
प्रकृति की इस मनमोहनी सूरत और सीरत पर हर कोई मोहित है, क्योंकि इस मौसम में गुलाबी हल्कीसी ठण्ड है और मनचाही सुनहरी धूप भी, शीतल मंद-मंद पवन है, फूलों पर नवरंग और नवरस की कुसुमकोमल नवबहार छा जाती है| खेत खलिहानों में सरसों के पीत सुमन मानों स्वर्ण जैसे चमकने लगते हैं, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलखिलाकर हंसने लगती हैं, आमों के पेड़ों पर मांजर आ जाता है एवं हर तरफ मधु से आकर्षित हो रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं हैं| तभी भँवरे की गुंजन और कोयल की कूक का पंचम स्वर समग्र वातावरण को संगीत के सप्तसुरों में ढाल देता है| इस सुरभित रंग और स्वर से सुसज्जित वसंत बहार से हमारे तनमन पुलकित होते हैं| यहीं तो कारण है कि, हमने वसंत ऋतु को राज सिंहासन पर आसीन करते हुए उसे ‘ऋतुओं का राजा’ कहा है| इस ऋतु से प्रफुल्लित मन से चौंसठ कलाओं का चरमाविष्कार होना तो अति स्वाभाविक है| नृत्य, संगीत, नाट्य, लेखन, शिल्प, आप जो भी कला का स्मरण करें, वे इसी समय सतरंगी प्रकृति से कल्पना के राजसी पंख लेकर नवनिर्मिति के अनुपम आकाश में उड़ान भरने लगतीं हैं| हमारी कला एवं संस्कृति का उच्चतम उत्कर्ष इसी ऋतु में होता दिखाई देता है, क्योंकि मन प्रसन्न हो तो आविष्कार के अंकुरों का सृजन तभी होता है|
माघी शुक्ल चतुर्थी को विद्या-बुद्धि दाता गणेश का पूजन कर इस आनंदमय पर्व का शुभारम्भ करते हुए अगले ही दिन शुक्ल पंचमी यानि वसंत पंचमी या श्री पंचमी का दिन है विद्या की देवी माँ सरस्वती की उपासना का| वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ मास की पंचमी के दिन प्राचीन भारत में बड़ा उत्सव मनाया जाता था| इसी वसंत पंचमी के त्यौहार में विद्या की देवी सरस्वती के साथ साथ प्रेम के अधिष्ठाता कामदेव और ब्रह्माण्ड के संरक्षक विष्णु की भी पूजा की जाती थी|
उपनिषदों की कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभिक काल में ब्रह्मा ने कई जीवों की, यहाँ तक कि मनुष्य योनि की भी रचना की। लेकिन अपनी सर्जनशीलता से वे संतुष्ट नहीं थे| उन्हें लगता था कि कुछ कसर अभी भी बाकि है| ब्रह्मा जी ने भगवान श्री विष्णु की स्तुति करनी आरम्भ की। तब भगवान विष्णु उनके सम्मुख प्रकट हो गए और उनकी समस्या जानकर भगवान विष्णु ने आदिशक्ति दुर्गा माता का आवाहन किया| अब भगवती दुर्गा वहां तुरंत ही प्रकट हो गयीं तब ब्रम्हा एवं विष्णु जी ने उन्हें इस संकट को दूर करने का निवेदन किया।
ब्रम्हा जी तथा विष्णु जी बातों को सुनने के बाद उसी क्षण आदिशक्ति दुर्गा माता के शरीर से स्वेत रंग का एक भारी तेज उत्पन्न हुआ जो एक दिव्य नारी के रूप में बदल गया। यह स्वरूप एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था| तेज से प्रकट होते ही उस सुन्दर देवी के द्वारा वीणा का मधुर नाद करते ही संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी का वरदान प्राप्त हुआ| जलधारा की कलकल और पवन की सरसराहट से ब्रह्माण्ड में स्वर अधिष्ठित होने लगे| तब सभी देवताओं ने शब्द और रस का संचार कर देने वाली उन देवी को वाणी की अधिष्ठात्री देवी “सरस्वती” कहा| फिर आदिशक्ति भगवती दुर्गा ने ब्रम्हा जी से कहा कि मेरे तेज से उत्पन्न हुई ये देवी सरस्वती ही आपकी शक्ति होंगी।
त्रिदेवियोंकी द्वितीय देवी- सरस्वती
त्रिगुणी त्रिदेवियाँ स्त्री शक्ति की प्रतीक, माँ दुर्गा शक्ति, विद्यादात्री माँ सरस्वती एवं वैभव का रूप माँ महालक्ष्मी, इन तीन रूपों के समक्ष अखिल मानव जाति नतमस्तक होती है| माता सरस्वती को शारदा, वीणावादिनी, वाग्देवी, वागीश्वरी, बुद्धि धात्री, विदुषी, अक्षरा जैसे नामों से भी जाना जाता है। माँ सरस्वती के वीणा का नाम ‘कच्छपि’ है| उनकी पूजा मुख्य रूप से बसंत पंचमी (माघ शुक्ल पंचमी) पर होती है, जो उनके प्राकट्य का दिवस भी माना जाता है। वे विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके प्रकटोत्सव के रूप में भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
अर्थात, ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। उनके स्वरूप का वर्णन देखिये कितना लुभावना है: जो शुभ्र वस्त्र धारण किये हुए है, जिनके एक मुख, चार हाथ हैं, मुस्कान से उल्लास बिखरता है एवं दो हाथों में वीणा है जो भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है। पुस्तक से ज्ञान और माला से ईशनिष्ठा-सात्त्विकता का बोध होता है। मां सरस्वती का वाहन राजहंस माना जाता है और इनके हाथों में वीणा, वेदग्रंथ और स्फटिकमाला होती है। माँ सरस्वती के वीणा का नाम ‘कच्छपि’ है| मान्यता यह है कि इस वीणा के गर्दन भाग में भगवान शिव, तार में माता पार्वती, पुल में माता लक्ष्मी, सिरे पर भगवान नारायण और बाकी हिस्से में माता शारदा का वास होता है| सरस्वतीवंदना का निम्नलिखित श्लोक अत्यधिक प्रचलित है| साहित्य, संगीत, कला की देवी की पूजा में इस वंदना को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाता है। कई स्कूलों और विद्यालयों में इसका पाठ प्रातःप्रार्थना के रूप में किया जाता है|
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता,
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता,
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥१॥
अर्थात, जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली मां सरस्वती हमारी रक्षा करें|
शिक्षाविद वसंत पंचमी के दिन माँ शारदा की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं। यदि हम वसंत पंचमी के पौराणिक महत्व को देखें तो हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं का स्मरण होता है| त्रेता युग में रामकथा के अंतर्गत सीता हरण के पश्चात् जब श्रीराम उनकी खोज में दक्षिण की ओर जाते हैं तो दण्डकारण्य में उनकी भेंट शबरी नामक भीलनी से होती है| भक्तिभाव के चरम आदर्श के रूप में शबरी द्वारा चखे जूठे बेर राम ने विनसंकोच खाए थे| ऐसा माना जाता है कि वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी शबरी के आश्रम में पधारे थे| उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रध्दा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है।
एक ऐतिहासिक महत्व बताया जाता है कि, राजा भोज का जन्मदिवस वसंत पंचमी को था। वे इस दिन एक बड़ा उत्सव करवाते थे जिसमें पूरी प्रजा के लिए एक बड़ा प्रीतिभोज रखा जाता था, जो चालीस दिन तक चलता था। महान स्वतंत्रता सेनानी गुरू रामसिंह कूका का जन्म १८१६ में वसंत पंचमी पर लुधियाना में हुआ था। उनके द्वारा किया गया ‘कूका विद्रोह’ स्वतंत्रता संग्राम का स्वर्णिम पन्ना है|
प्रिय मित्रों, हमें इस वासंतिक पर्व के चलते पीत सुरभित आम्रमंजिरि और सरसों के पीले लहलहाते खेतों को देख यह प्रतीत होता है मानों प्रकृति ने पीली चुनरिया ओढ़ ली है| इसी पीली चुनरिया पर लुब्ध हो इस दिन पवित्र पीले वस्त्र परिधान करने का औचित्त्य है| इसमें हमें प्रकृति सन्देश अवश्य देती है कि, हे मानव, मेरे रंग में रंगना तो तुम्हारे लिए आनंद की अपार अनुभूति अवश्य है, परन्तु यह सदैव स्मरण रहे कि मेरे इस स्वर्ण वैभव को जतन करना भी तुम्हारा परम कर्त्तव्य है|
टिपण्णी– दो गानों की लिंक जोड़ रही हूँ|
‘वर दे वीणावादिनि वर दे।’ – गीतकार-सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, गायिका और संगीतकार-प्रियंका चित्रिव
‘या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता’ – गायिका और संगीतकार- श्रेया घोषाल
☆ आलेख ☆ संत रविदास जयन्ती विशेष – महान संत गुरु रविदास ☆ श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ ☆
(भारतीय संत परम्परा के महान संत गुरु रविदास की जन्म जयंती पर विशेष.)
राम शब्द की महिमा जिस किसी भी अर्थ में कही जाए, राम नाम को जिस भी रूप में स्मरण किया जाये सर्वथा पुण्य फलदायी है, क्योंकि राम शब्द स्वयं साकार स्वरूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम एवं निराकार स्वरूप में परम ब्रह्म है l
इस शब्द विशेष को कोई भी संत अलग होना नहीं चाहता , चाहे वह अध्यात्म के किसी भी मत या परम्परा से सम्बन्ध रखता हो, क्योंकि राम शब्द समाज में प्रेम, भाई चारा, अनुराग पैदा करने वाला एवं एक दूसरे को जोड़ने वाला महामंत्र है l
सगुन उपासक तुलसी के राम, निर्गुण उपासक कबीर के राम रामानंद के शिष्य रविदास के राम, भारतीय जनमानस श्वासो में रमने वाले राम के नाम की ही महिमा अपरंपार है l यानी राम नाम निराकार – साकार, ब्रह्म के दोनों स्वरूपों में रमण करने वाला सद्मार्ग प्रदान करने वाला महा मन्त्र है l
आज माघ माह की पूर्णिमा तिथि है l भारतीय सनातन संस्कृति में इस तिथि का बहुत बड़ा महत्व है l माघ मास की पूर्णिमा को मां गंगा की गोद में डुबकी लगाने यानि गंगा स्नान करने का विशेष महत्त्व है l आस्थावान संत, महात्मा, ऋषि, गृहस्थ, सबके सब इस पूर्ण को प्राप्त करना चाहते हैं l
दूसरी ओर इसी पावन तिथि को ज्ञान गंगा की पावन नगरी काशी में संत रविदास का जन्म होता है जो अपनी निर्मल भक्ति के दम पर माँ गंगा को अपनी कठोता में लाने का सामर्थ्य रखते हैं (मन चंगा तो कठोती में गंगा)l
गंगा और राम किसी न किसी रूप में इन संतो के पास सदैव ही विद्यमान रहती हैं l
भारत की सांस्कृतिक राजधानी, एक से एक विद्वान् एवं महान संतों को जन्म देने वाली काशी ने हर एक कालखंड में न सिर्फ एक से एक महान संतों का जन्म दिया है, बल्कि अनेकों विचारों को भी जन्म दिया है l लेकिन विशेष बात यह है कि ये सारे विचार राम नाम महामंत्र का आश्रय पाकर स्वयं को धन्य करते हैं l
इन्हीं काशी के संतो में संत रविदास का जन्म भी माघ मास की पूर्णिमा को काशी की पावन भूमि में होता है l इस महान संत के जन्म से काशी एक बार पुनः धन्य होती है l
जिस तिथि को लाखों लाखों लोग गंगा के पावन जल में डुबकी लगा रहे होते हैं, परम पुण्य को प्राप्त कर रहे होते हैं, काशी इसी तिथि को एक और संत को जन्म देकर पुनः अपने वैभव के एक और पायदान को प्राप्त कर आगे बढ़ रही होती है l
काशी के संत रामानंद के बारह शिष्यों की कड़ी में संत रविदास का नाम भी शुमार होता है l इसके साथ ही काशी की गुरु -शिष्य परंपरा और अधिक पुष्ट होती है l
बौद्धिक, वैदिक, आध्यात्मिक ज्ञान का अर्जन करना और अपने ज्ञान को अपने शिष्यों तक पहुंचाना, गुरु -शिष्य परंपरा की सर्वोच्च सिद्धि और उपलब्धि है l
मेवाड़ की महारानी एवं श्री कृष्ण की भक्तिन मीरा बाई को भी गुरु की तलाश है l काशी जो स्वयं आदि योगी गुरु श्रेष्ठ शिव की स्वयं की नगरी है l इस पावन ज्ञान नगरी में अपने गुरु की तलाश करती हुई मेवाड की रानी कृष्ण के प्रेम की दीवानी मीरा का आगमन होता है l
फिर क्या कृष्ण भक्त मीरा को गुरु रूप में संत रविदास का आशीर्वाद प्राप्त होता है l जीवन भर कृष्ण की उपासना करने वाली मीरा को गुरु मंत्र के रूप में वही रा – म युगल अक्षर की सन्धि निकला हुआ नाम राम अपने गुरु से प्राप्त होता है l
फिर मीरा के मुख से एक पद गुरु के मुख से निकली हुई ब्रह्म वाणी कुछ इस रूप में स्फूटित होती है –
“पायोजीमैंनेरामरतनधनपायो l
वस्तुअमोलिकदीमेरेसतगुरु
किरपाकरिअपनायो।|
पायोजीमैंने…
भारतीय संत परंपरा के ऐसे महान संत गुरु रविदास जी की जन्म जयंती के पावन अवसर पर आप सभी को हार्दिक बधाई देता हूँ l
बाबा भोले की काशी को नमन करता हूँ l गंगा मैया का वंदन करता हूँ l
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अस्मिता…“।)
अभी अभी # 604 ⇒ अस्मिता श्री प्रदीप शर्मा
अहंकार, आसक्ति और अस्मिता तीनों एक ही परिवार के सदस्य हैं। वे हमेशा आपस में मिल जुलकर रहते हैं। अस्मिता सबसे बड़ी है, और अहंकार और आसक्ति जुड़वा भाई बहन हैं। वैसे तो जुड़वा में कोई बड़ा छोटा नहीं होता, फिर भी अहंकार अपने आपको आसक्ति से बड़ा ही मानता है। अहंकार को अपने भाई होने का घमंड है, जब कि आसक्ति अहंकार से बहुत प्रेम करती है, और उसके बिना रह नहीं सकती।
अहंकार आसक्ति को अकेले कहीं नहीं जाने देता। अहंकार जहां जाता है, हमेशा आसक्ति को अपने साथ ही रखता है।
अहंकार की बिना इजाजत के आसक्ति कहीं आ जा भी नहीं सकती।
अस्मिता को याद नहीं उसका जन्म कब हुआ।
कहते हैं अस्मिता की मां उसे जन्म देते समय ही गुजर गई थी। अस्मिता के पिता यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सके और तीनों बच्चों यानी अस्मिता, अहंकार और आसक्ति को अकेला छोड़ कहीं चले गए। बड़ी बहन होने के नाते, अस्मिता ने ही अहंकार और आसक्ति का पालन पोषण किया।।
अब अस्मिता ही दोनों जुड़वा भाई बहनों की माता भी है और पिता भी। अहंकार स्वभाव का बहुत घमंडी भी है और क्रोधी भी। जब भी लोग उसे अनाथ कहते हैं उसकी अस्मिता और स्वाभिमान को चोट पहुंचती है और वह और अधिक उग्र और क्रोधित हो जाता है, जब कि आसक्ति स्वभाव से बहुत ही विनम्र और मिलनसार है। वह सबसे प्रेम करती है और अस्मिता और अहंकार के बिना नहीं रह सकती।
कभी कभी अहंकार छोटा होते हुए भी अस्मिता पर हावी हो जाता है। उसे अपने पुरुष होने पर भी गर्व होता है। रोज सुबह होते ही वह अस्मिता और आसक्ति को घर में अकेला छोड़ काम पर निकल जाता है। एक तरह से देखा जाए तो अहंकार ही अस्मिता और आसक्ति का पालन पोषण कर रहा है।।
अहंकार को अपनी बड़ी बहन अस्मिता और जुड़वा बहन आसक्ति की बहुत चिंता है। बड़ी बहन होने के नाते अस्मिता चाहती है अहंकार शादी कर ले और अपनी गृहस्थी बना ले, लेकिन अस्मिता और आसक्ति दोनों अहंकार की जिम्मेदारी है, वह इतना स्वार्थी और खुदगर्ज भी नहीं। वह चाहता है अस्मिता और आसक्ति के एक बार हाथ पीले कर दे, तो बाद में वह अपने बारे में भी कुछ सोचे।
लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर होता है। अचानक अस्मिता के जीवन में विवेक नामक व्यक्ति का प्रवेश होता है, और वह बिना किसी को बताए, चुपचाप, अहंकार और आसक्ति को छोड़कर विवेक का हाथ थाम लेती है। एक रात अस्मिता विवेक के साथ ऐसी गायब हुई, कि उसका आज तक पता नहीं चला।।
बस तब से ही आज तक अहंकार और आसक्ति अपनी अस्मिता को तलाश रहे हैं, लेकिन ना तो अस्मिता ही का पता चला है और ना ही विवेक का।
अस्मिता का बहुत मन है कि विवेक के साथ वापस अहंकार और आसक्ति के पास चलकर रहा जाए। लेकिन विवेक अस्मिता को अहंकार और आसक्ति से दूर ही रखना चाहता है। बेचारी अस्मिता भी मजबूर है।
उधर अस्मिता के वियोग में अहंकार बुरी तरह टूट गया और बेचारी आसक्ति ने तो रो रोकर मानो वैराग्य ही धारण कर लिया है।
अगर किसी को अस्मिता और विवेक का पता चले, तो कृपया सूचित करें।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “छिलके वाली दाल …“।)
अभी अभी # 603 ⇒ छिलके वाली दाल श्री प्रदीप शर्मा
यह कथा द्वापर के कृष्ण सुदामा की नहीं, कलयुग के ऐसे दो दोस्तों की है, जहां मुट्ठी भर चावल नहीं, कटोरी भर मूंग की छिलके वाली काली दाल अपना कमाल बताती है।
यहां सांदीपनी आश्रम की जगह इंदौर का तब का शासकीय माध्यमिक क्रमांक १ है, जब मैं और मेरा दोस्त उसमें पढ़ते थे।
हम में से कोई कृष्ण नहीं, कोई सुदामा नहीं, लेकिन मित्रता उतनी ही गहरी।।
गुरुकुल के ज्ञानार्जन के पश्चात् हम कहां और हमारा मित्र कहां। कई बरसों बाद वापस महात्मा गांधी मार्ग पर दोनों का पुनर्मिलन हुआ, और दोस्ती रंग लाई। तब तक वह मुंबई से आय आय टी भी कर चुका था, और अच्छी भली नौकरी को लात मार, यहीं इंदौर में अपने परिवार के व्यवसाय में हाथ बंटाने लगा था। फिर भी उसकी हैसियत कृष्ण जितनी नहीं थी और ना ही मेरी परिस्थिति सुदामा के समान, जो सदा कृष्ण भक्ति में ही डूबा रहता था।
कलयुग की मित्रता कृष्ण सुदामा जैसी हो ही नहीं सकती। कहां वह दोनों का भव्य स्वरूप और दिव्य भक्ति भाव और कहां आज की औपचारिक और व्यवहार कुशल मित्रता।।
हमें गर्व है कि इस कलयुग में भी हमारी मित्रता पिछले ६० वर्षों से यथावत चली आ रही है। इसी तारतम्य में एक बार हमारे मित्र ने हमें भोजन पर आमंत्रित किया। यह पहली बार नहीं था। हम चूंकि सुदामा नहीं और वह कृष्ण नहीं, इसलिए वह भी कई बार हमारी कुटिया पर पधार चुका था। (आजकल अच्छे भले घर को भी कुटिया कहने का प्रचलन जो है)।
नियत दिन, शाम के समय में हम उनके घर पर दावत के लिए उपस्थित हो चुके थे। हम दोनों स्वास्थ्य के प्रति पूरी तरह जागरूक हैं और आहार में वह भी सात्विक है और मैं भी।
थाली में छप्पन व्यंजन तो थे नहीं, एक सूखी सब्जी और गर्म रोटी के अलावा एक कटोरी में स्वास्थ्य वर्धक काले मूंग की छिलके वाली जीरा फ्राई दाल, और पापड़, सलाद, चटनी भी थी।।
दाल तो मैने बहुत खाई थी, लेकिन इस दाल में कुछ विशेषता ऐसी थी, जिसके कारण इसकी तुलना सुदामा के चावल से की जा सकती है। इसकी सबसे बड़ी खूबी थी, कि यह दाल सिर्फ छिलके वाली थी, यानी उसमें दाल मौजूद ही नहीं थी।
ऐसी पतली दाल हमने बहुत खाई होगी, जहां डुबकी मारने पर भी दाल ढूंढने को नहीं मिले, पर हमारी दाल में तो सिर्फ छिलके ही छिलके थे, दाल थी ही नहीं। वैसे भी देखा जाए तो सब कुछ छिलके में ही तो है। यह होती है भाव की पराकाष्ठा।।
शबरी के झूठे बेर हमें याद है, खुद केला खाकर अपने आराध्य को छिलका खिलाना भी दिव्य भक्ति का ही द्योतक है, लेकिन दाल की जगह सिर्फ छिलके की मिसाल ही हमारी मित्रता की असली पहचान है।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 118 ☆ देश-परदेश – मत चूको चौहान ☆ श्री राकेश कुमार ☆
मौके पर चौका लगाना चाहिए। ये सब दशकों से सुनते आ रहे हैं। विगत वर्ष ” राष्ट्रीय आडंबर विवाह ” सम्पन्न हुआ था। हमने उक्त परिवार के एक खास से पूछा, हमें बुलाना भूल गए थे। उसने तत्परता से बताया यदि हम उसको अपनी दिल की बात पहले बता देते तो इटली से लेकर जामनगर सभी कार्यक्रम में शिरकत कर चुके होते। दिल की बात बताने में हम हमेशा लेट लतीफ़ ही रहते हैं। युवा अवस्था में अपने पहले प्यार का इज़हार करने में भी चूक गए थे। खैर छोड़िए “अब पछताए होत क्या जब चिड़िया ही दूसरे के साथ उड़ गई”
उक्त विवाह में भाग ना ले सकने का दुःख के लिए बस इतना ही कह सकते हैं, कि ” जिस तन लागे, वो तन जाने”
इस बार हमने मत चूको चौहान को अपना अड़ियल मानते हुए, दूसरे घराने के परिवार के विवाह के निमंत्रण प्राप्त करने के लिए ” सारे घोड़े खोल दिए” थे। अपने मुम्बई की पोस्टिंग्स के कॉन्टैक्ट्स हो या, दिल्ली की सत्ता के गलियारे वाले संबंध हो। यहां ये स्पष्ट कर देवे, इसी मौके के लिए विगत वर्ष हमने दस दिन का गुजरात दौरा भी किया था।
लाखों जतन कर लो पर होता वही है, जो लिखा होता है। दूसरे परिवार ने तो इतनी सादगी से विवाह किया, कि पड़ोसियों को भी नहीं बुलाया हैं, फिर हम किस खेत की मूली हैं।
इस सादगी पूर्ण विवाह के लिए दूसरे परिवार का साधुवाद।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पेन पेंसिल…“।)
अभी अभी # 602 ⇒ पेन पेंसिल श्री प्रदीप शर्मा
जीवन, पढ़ने लिखने का नाम, पढ़ते रहो सुबहो शाम ! हमारे जमाने में ऐसी कोई नर्सरी राइम नहीं थी।
हम जब पैदा हुए थे, तब सुना था, हमारी मुट्ठी बंद थी, और हमसे यह पूछा जाता था, नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, तब तो हम जवाब नहीं दे पाए, क्योंकि उनके पास अपना खुद का जवाब मौजूद था, मुट्ठी में है, तकदीर हमारी। लेकिन हमने तो जब हमारी मुट्ठी खोली तो उसमें हमने पेन – पेंसिल को ही पाया।
न जाने क्यों इंसान को अक्षर ज्ञान की बहुत पड़ी रहती है। जिन बच्चों के हाथों में झुनझुना और गुड्डे गुड़िया होना चाहिए, उन्हें अनार आम, और एबीसीडी भी आनी ही चाहिए। सबसे पहले एक गिनती वाली पट्टी आती थी, जिसमें गोल गोल प्लास्टिक की रंग बिरंगी गोलियां दस तार वाले खानों में जुड़ी रहती थी। एक से सौ तक की गिनती उन प्लास्टिक की गोलियों से सीखी जाती थी और पट्टी, जिसे स्लेट कहते थे, पर चार उंगलियों और एक अंगूठे के बीच मिट्टी की कलम, जिसे हम पेम कहते थे, पकड़ा दी जाती थी। जब तक आप ढंग से पेम पकड़ना नहीं सीख लेते, आपकी अक्षर यात्रा शुरू ही नहीं हो सकती।।
ढाई अक्षर तो बहुत दूर की बात है, जिन हाथों में हमारी तकदीर बंद है, वह जिन्दगी की स्लेट पर एक लकीर ढंग से नहीं खींच पा रहा है। आज जिसे इमोजी कहा जा रहा है, ऐसे कई इमोजी बन जाने के बाद, जब तक, अ अनार का, A, एबीसीडी का, और चार अंक, १, २, ३, ४ के नहीं लिख लिए जाते, भैया होशियार नहीं कहलाए जाते थे। एक, दो, तीन, चार, लो भैया बन गया होशियार।
तुमने कितनी पेम तोड़ी है, और कितनी पेम खाई है, आज हमसे कोई हिसाब भले ही ना मांगे, लेकिन हमने पेम भी खाई है, और मार भी खाई है। मिट्टी में पैदा हुए, अपने देश की मिट्टी ही खाई है, कोई रिश्वत नहीं खाई।।
लेकिन हम पेम वालों को समय रंग बिरंगे पेन और पेंसिलों से ज्यादा दूर नहीं रख पाया। हमारे हाथ में स्लेट और पेम पकड़ाकर जब बड़ा भैया कागज पर पेन पेंसिल से लिखता था, तो हम सोचते थे, कल हम भी बड़े होंगे, शान से पट्टी पेम की जगह, कॉपी में पेंसिल पेन से लिखेंगे। लेकिन हमारे भैया ने कभी हमें कभी पेन पेंसिल को हाथ नहीं लगाने दिया। गर्व से डांटकर कहता, तुम अभी बच्चे हो, तोड़ डालोगे। और हमारा दिल टूट जाता।
पेम से ढाई आखर सीखने के बाद, हमारी नर्सरी में कागज और पेंसिल का प्रवेश होता था। बहुत टूटती थी, पेंसिल की नोक, तब हम शार्पनर नहीं समझते थे। नादान थे, ब्लेड से पेंसिल छीलने पर उंगली भी कटती थी, और मार भी खाते थे।
तकदीर का लिखा तो खैर, कौन मिटा सकता है, लेकिन पेंसिल का लिखा, जरूर इरेज़र से मिटाया जा सकता है।।
हम तब तक पेन के बहुत करीब आ गए थे। कलम दवात, पेन का ही अतीत है। पुरातन और सनातन तक हम नहीं जाएंगे, बस सरकंडे की कलम थी, जो बाद में होल्डर बन गई और स्याही दवात में बंद हो गई।
पेन, पेंसिल और होल्डर में एक समानता है, इनमें नोक होती है। बस यही नोक ही लेखन की नाक है। पेंसिल की नोक की तरह पेन देखो, पेन की धार देखो।
Pen is mightier than sword. किसी ने लिख मारा। और पढ़े लिखे लोगों में आपस में तलवारबाजी चलने लगी।।
आज के इस हथियार को जब हम कल देखते, तो बड़ा आश्चर्य होता था, ढक्कन वाला पेन, जिसमें एक स्टैंड भी होता था, खीसे में लगाने के लिए। पीतल की, स्टील की अथवा धारदार निब,
जिसके नीचे एक सहारा और बाद में आंटे वाला हिस्सा, जिसे खोलकर पेन में ड्रॉपर से स्याही, यानी camel ink, भरी जाती थी। गर्मियों में कितने हाथ खराब हुए, कितने कंपास, बस्ते और कपड़े इस पेन के चूने से खराब हुए, मत पूछिए। आज कोई यकीन नहीं करेगा।
पेन पेंसिल का साथ जितना हमें मिला, उतना आज की पीढ़ी को नहीं मिल रहा। सुंदर लेखन, स्वच्छ लेखन और शुद्ध लेखन, मन और विचार दोनों को बड़ा सुकून देता है। बिना पढ़े लिखे, कोई हस्ताक्षर कभी बड़ा नहीं बनता। समय का खेल है।
Only Signatories become Dignitaries.
आज हो गए हम डिजिटल, पढ़ लिख लिए, ईको फ्रेंडली हो गए, कागज़ बचाने लग गए, घर में ही एंड्रॉयड प्रिंटिंग स्टूडियो और फोटो स्टूडियो खोलकर बैठ गए। आप चाहो तो घर में ही एकता कपूर बन, एक फिल्म प्रोड्यूस कर नेटफ्लिक्स पर डाल दो।
अपने अतीत को ना भूलें। बच्चों को पट्टी पेम, काग़ज़, किताबें और पैन पेंसिल से भी जोड़े रखें। स्कूल भी ब्लैक बोर्ड और चॉक खड़ू (crayon) से जुड़े रहें। ऑनलाइन से कभी कभी ऑफलाइन भी हो जाएं।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– आत्मकथ्य –” ।)
मैं अपनी इस उम्र तक विद्वानों की अपेक्षा अशिक्षितों के बीच अधिक रहा हूँ। उनसे मिली हुई भाषा मेरे लेखन की आत्मा है। अपनी ओर से मैं ऐसा करता हूँ उसमें कुछ तर्क और व्याकरण का मुलम्मा चढ़ा देता हूँ। बात ऐसी है मेरे ध्यान में विद्वान रहते हैं। मेरे लेखन का वास्तविक परीक्षण यहीं होता है। विद्वानों में मेरा लेखन मान्य हो जाए तो स्वयं विद्वान हो जाऊँ, अन्यथा मेरे अपने परिवेश के अशिक्षित तो मेरे अपने हैं ही।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 277 ☆ बिखराव…
आगे दुकान, पीछे मकान वाली शैली की एक फुटकर दुकान से सामान खरीद रहा हूँ। दुकानदार सामूहिक परिवार में रहते हैं। पीछे उनके मकान से कुछ आवाज़ें आ रही हैं। कोई युवा परिचित या रिश्तेदार परिवार आया हुआ है। आगे के घटनाक्रम से स्पष्ट हुआ कि आगंतुक एकल परिवार है।
आगंतुक परिवार की किसी बच्ची का प्रश्न कानों में पिघले सीसे की तरह पड़ा, ‘दादी मीन्स?’ इस परिवार की बच्ची बता रही है कि दादी मीन्स मेरे पप्पा की मॉम। मेरे पप्पा की मॉम मेरी दादी है।… ‘शी इज वेरी नाइस।’
कानों में अविराम गूँजता रहा प्रश्न ‘दादी मीन्स?’ ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की संस्कृति में कुटुम्ब कितना सिमट गया है! बच्चों के सबसे निकट का दादी- नानी जैसा रिश्ता समझाना पड़ रहा है।
सामूहिक परिवार व्यवस्था के ढहने के कारणों में ‘पर्सनल स्पेस’ की चाहत के साथ-साथ ‘एक्चुअल स्पेस’ का कम होता जाना भी है। ‘वन या टू बीएचके फ्लैट, पति-पत्नी, बड़े होते बच्चे, ऐसे में अपने ही माँ-बाप अप्रासंगिक दिखने लगें तो क्या किया जाए? यूँ देखें तो जगह छोटी-बड़ी नहीं होती, भावना संकीर्ण या उदार होती है। मेरे ससुर जी बताते थे कि उनके गाँव जाते समय दिल्ली होकर जाना पड़ता था। दिल्ली में जो रिश्तेदार थे, रात को उनके घर पर रुकते। घर के नाम पर कमरा भर था पर कमरे में भरा-पूरा घर था। सारे सदस्य रात को उसी कमरे में सोते तो करवट लेने की गुंज़ाइश भी नहीं रहती तथापि आपसी बातचीत और ठहाकों से असीम आनंद उसी कमरे में हिलोरे लेता।
कालांतर में समय ने करवट ली। पैसों की गुंज़ाइश बनी पर मन संकीर्ण हुए। संकीर्णता ने दादा-दादी के लिए घर के बाहर ‘नो एंट्री’ का बोर्ड टांक दिया। दादी-नानी की कहानियों का स्थान वीडियो गेम्स ने ले लिया। हाथ में बंदूक लिए शत्रु को शूट करने के ‘गेम’, कारों के टकराने के गेम, किसी नीति,.नियम के बिना सबसे आगे निकलने की मनोवृत्ति सिखाते गेम। दादी- नानी की लोककथाओं में परिवार था, प्रकृति थी, वन्यजीव थे, पंछी थे, सबका मानवीकरण था। बच्चा तुरंत उनके साथ जुड़ जाता। प्रसिद्ध साहित्यकार निर्मल वर्मा ने कहा था, “बचपन में मैं जब पढ़ता था ‘एक शेर था’, सबकुछ छोड़कर मैं शेर के पीछे चल देता।”
शेर के बहाने जंगल की सैर करने के बजाय हमने इर्द-गिर्द और मन के भीतर काँक्रीट के जंगल उगा लिए हैं। प्राकृतिक जंगल हरियाली फैलाता है, काँक्रीट का जंगल रिश्ते खाता है। बुआ, मौसी, के विस्थापन से शुरू हुआ संकट दादी-नानी को भी निगलने लगा है।
मनुष्य के भविष्य को अतीत से जोड़ने का सेतु हैं दादी, नानी। अतीत अर्थात अपनी जड़। ‘हरा वही रहा जो जड़ से जुड़ा रहा।’ जड़ से कटे समाज के सामने ‘दादी मीन्स’ जैसे प्रश्न आना स्वाभाविक हैं।
अपनी कविता स्मरण आ रही है,
मेरा विस्तार तुम नहीं देख पाए,
अब बिखराव भी हाथ नहीं लगेगा,
मैं बिखरा ज़रूर हूँ, सिमटा अब भी नहीं…!
प्रयास किया जाए कि बिखरे हुए को समय रहते फिर से जोड़ लिया जाए। रक्त संबंध, संजीवनी की प्रतीक्षा में हैं। बजरंग बली को नमन कर क्या हम संजीवनी उपलब्ध कराने का बीड़ा उठा सकेंगे?
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈