हिंदी साहित्य – आलेख ☆ भूत भभूत ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ भूत भभूत ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सियासत में “भूत” को “वर्तमान “नहीं बनाया जाता। भूत तो भूत है “अभूतपूर्व” नहीं होता। बहुत कम भूतों को वर्तमान बनने का सौभाग्य मिलता है। मिल भी गया तो उन्हें तोता बना दिया जाता है। कुछ को भेड़ में रूपान्तरित कर दिया जाता है।

 पांव छूकर नेतागण, विदेह भूत को “आदर की भभूत “मल देते हैं। भूत इसी में खुश कि चलो कुर्सी पर तो बैठेंगे भले ही किसी को दिखाई न दें। सदेह कुछ और मिलने से रहा। कुछ नहीं तो हैप्पीवाले बर्थ डे मतलब जन्म जयंती या पुण्यतिथि पर खुशबूदार फूलों का गुच्छा और एक दीया तो मिल ही जायेगा।

 वैसे भी भूत को “खंडहर “में रहना चाहिए। जिसके दरवाजे चरर मरर करते हों, खिड़कियों के पल्ले बंद होते खुलते हों, अंधेरे उजाले का तिलिस्म फैला हो, और जहां चमगादड़ों की फड़फड़, मकड़ियों के जाले और छिपकलियों की चिकचिक सुनाई देती हो। भूत, “काल” हो या “व्यक्ति” उन्हें एक जैसा “संवैधानिक उपहार” मिलता है।

 बात सियासत की हो तो “बिचौलिए “यहां हरे हरे नोटों की सूटकेस लेकर “गिरगिटिया जीवों” को पलक झपकते गाँठ लेते हैं। चीता भी फीका है उनके आगे।

आयरलैंड की “अमांडा” को भी बिचौलिए ने ही भूत से मिलवाया था। यहां तक कि शादी के वक्त” अँगूठी “भी भूत की तरफ से पहनाई। 5 बच्चों की माँ अमांडा और 300 साल की उम्र वाला “समुद्री लुटेरा जैक। ” ये अलग बात है कि अमांडा की ढेरों भूतों से दोस्ती थी पर कसम है है जो कभी उसने उनकी तरफ उस नजर से देखा हो। सारा खेल नज़र का है। क्या पता भूतों ने शादी का प्रस्ताव दिया हो और अमांडा ने बेदर्दी से ठुकरा दिया हो।

अमांडा ने प्राइवेट बोट पर शादी की। दिल लिया और दिया भी।

 आजकल “आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस “का जलवा है। हाल ही में लिसा नाम की चीनी व्लाॅगर, डैन नाम के चैटबाॅट से दीवानों की तरह प्यार कर बैठी। उसने लिसा का निक नेम” लिटिल किटन” रख दिया।

 लोग” रोबो “से शादी कर सकते हैं तो “भूत “ने क्या बिगाड़ा !यूं भी कुछ पति नामक जीवों के पुरुष मुक्ति आन्दोलन चलते रहते हैं। वे कहते हैं कि उनकी पत्नियां” वर्तमान” में भी “भूत” की तरह बर्ताव करती हैं। वे कुछ इस तरह से टॉर्चर करती हैं जैसे अशरीरी भूत। मजाल है जो किसी को प्रमाण मिल जाये। जेब से इतने रुपयों का गबन करती हैं कि त्रिकाल में कोई माई का लाल सबूत न जुटा सके।

 उन्हें “सियासी भूतों “को देखकर तसल्ली कर लेनी चाहिए। उनका भी अंदाज़ कातिलाना होता है। दिखाई देकर भी दिखाई नहीं देते। इसे कहते हैं भूतिया कलाकारी, साजिश, षडयंत्र। भूत एक ही तरह के नहीं न होते। नज़र न आने वाले सुरक्षित होते हैं पर चलते फिरते भूत ज्यादा खतरनाक होते हैं।

एक लतीफा वायरल हुआ था। बला का खूबसूरत।

“अच्छी पत्नी और भूत में क्या समानता है?”

“दोनों दिखाई नहीं देते”

“कल्पना कला “भी कोई चीज़ होती है कि नहीं !इसी के बूते बोतलबंद भूत का धंधा भी कर लिया किसी ने। काहे का स्टार्ट अप। न लोन की झंझट न सदेह भूतों का एहसान।

 एक उद्योग ऐसा भी—किसी को अगर शक हो कि वह जिस घर में रहने जा रहा है कहीं वहां भूत तो नहीं—भूत ढूंढने का व्यवसाय करनेवाले इसमें दक्ष होते हैं।

सबसे मुश्किल है यह दौर जहां अमूमन ये पता करना टेढ़ी खीर है कि जिन्दा दोपाया, भूत तो नहीं या जिसे हमने भूत समझा वह चलता फिरता धड़कते दिल का मालिक हो।

💧🐣💧

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 385 ⇒ असंग्रह (अपरिग्रह)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “असंग्रह (अपरिग्रह)।)

?अभी अभी # 385 ⇒ असंग्रह (अपरिग्रह)? श्री प्रदीप शर्मा  ?

नैतिक नियमों को आप यम नियम कह सकते हैं। आवश्यकता से अधिक संग्रह की वृत्ति हमारी भौतिकता की देन है। अगर जीवन ही सादा होगा तो जीवन कितना फीका फीका होगा, हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

जब हमारा आचरण हमारे सिद्धांतों और आदर्श से मेल नहीं खाता, तो जीवन में कृत्रिमता और

बनावटीपन आ जाता है, सहजता कहीं गायब हो जाती है। कौन नहीं चाहता, अच्छा खाना और अच्छा पहनना। लेकिन जाने अनजाने सुविधाओं की आड़ में हमारे पास कई अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह होता चला जाता है, और हम उनसे बेखबर रहते हैं। ।

आवश्यकता आविष्कार की जननी है, हम आविष्कार किया करते हैं, और हमारी आवश्यकताओं को दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ाते रहते हैं। मूल भूत सुविधा भी आवश्यकता का ही अंग है, लेकिन संपन्नता के साथ सुविधा का ग्राफ भी बढ़ता ही रहता है। छोटे मकान से बड़ा मकान और छोटी गाड़ी से बड़ी गाड़ी समय की भी मांग है, और संपन्नता की निशानी भी। लेकिन जब हर अनावश्यक चीज भी आवश्यक लगने लगे, तब जीवन से यम नियम गायब हो जाता है।

आइना हम रोज देखते हैं, लेकिन हमें आइना दिखाने वाले लोग कम ही होते हैं। असंग्रह और अपरिग्रह की दुहाई देते हुए जब एक दिन अनायास मैने अपने कपड़ों की आलमारी खोली तो मुझे कई ऐसे पुराने कपड़े नजर आए, जो केवल अलमारी की शोभा बढ़ा रहे थे। पत्नी की अलमारी में तो मेरी नजर चली गई, कितनी अनावश्यक साड़ियां हैं, लेकिन अपनी अलमारी से मेरा साक्षात्कार मानो पहली बार हुआ हो। मुझे मेरा मुंह आईने में नजर आ गया, मुझे आज अपने गिरेबान में झांकना ही पड़ा, अपने हाथों से ही अपने कानों को उमेठना पड़ा। ।

एक पंछी को रोज अपने दाना पानी की व्यवस्था करनी होती है। रोजाना अपने बाल बच्चों का भी पेट भरना होता है। आप उसे अपरिग्रह का पाठ नहीं पढ़ा सकते, क्योंकि वह कल के लिए कुछ संग्रह कर ही नहीं सकता। इंसान की बात अलग है, उसे दो जून की रोटी की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। वह परिग्रह की श्रेणी में नहीं आता।

जो अपरिग्रह का पालन करते हैं, वे अनावश्यक वस्तुओं को नेकी के दरिए में बहा देते हैं। लेकिन संग्रह की प्रवृत्ति से छुटकारा पाना इतना आसान भी नहीं। अपने किताबों के संग्रह से कौन मुंह मोड़ सकता है, तिजोरी और लॉकर में रखे गहनों का भी खयाल रखना पड़ता है। ।

कई घरों में आपको संग्रहालय नजर आ जाएंगे। किसी को जूतों का शौक तो किसी को टाइयों का। वॉर्डरोब होता ही काहे के लिए है। शान शौकत पर खर्च और धूमधाम से शादियां, हमारे समाज का ही प्रचलन है। कोई किसी का हाथ नहीं रोकता लेकिन फिर भी इसी समाज में कुछ लोग हैं जो फिजूलखर्ची को अपराध मानते हैं, और संयम और सादगी का जीवन व्यतीत करते हैं।

कल कॉलर ट्यून पर एक गीत बज रहा था, ये मोह मोह के धागे …. आगे के शब्द बेमानी हैं। समाज के नियम अपनी जगह हैं, हमारे जीवन के नियम हमें ही बनाने पड़ते हैं, खुद को अपनी ही कसौटी पर कसना पड़ता है, संयम, संतुलन के साथ तितिक्षा का भी अभ्यास करना पड़ता है। वैराग्य ना सही, विवेक का दामन तो थामना ही पड़ता है ;

बहुत दिया देने वाले ने तुझको।

आंचल ही न समाए

तो क्या कीजे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #235 ☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ख्वाब : बहुत लाजवाब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 235 ☆

☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब… ☆

‘जो नहीं है हमारे पास/ वो ख्वाब है/ पर जो है हमारे पास/ वो लाजवाब है’ शाश्वत् सत्य है, परंतु मानव उसके पीछे भागता है, जो उसके पास नहीं है। वह उसके प्रति उपेक्षा भाव दर्शाता है, जो उसके पास है। यही है दु:खों का मूल कारण और यही त्रासदी है जीवन की। इंसान अपने दु:खों से नहीं, दूसरे के सुखों से अधिक दु:खी व परेशान रहता है।

मानव की इच्छाएं अनंत है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती चली जाती हैं और सीमित साधनों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। इसलिए वह आजीवन इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और सुक़ून भरी ज़िंदगी नहीं जी पाता। सो! उन पर अंकुश लगाना अनिवार्य है। मानव ख्वाबों की दुनिया में जीता है अर्थात् सपनों को संजोए रहता है। सपने देखना तो अच्छा है, परंतु तनावग्रस्त  रहना जीने की ललक पर ग्रहण लगा देता है। खुली आंखों से देखे गए सपने मानव को प्रेरित करते हैं करते हैं, उल्लसित करते हैं और वह उन्हें साकार रूप प्रदान करने में अपना सर्वस्व झोंक देता है। उस स्थिति में वह आशान्वित रहता है और एक अंतराल के पश्चात् अपने लक्ष्य की पूर्ति कर लेता है।

परंतु चंद लोग ऐसी स्थिति में निराशा का दामन थाम लेते हैं और अपने भाग्य को कोसते हुए अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और उन्हें यह संसार दु:खालय प्रतीत होता है। दूसरों को देखकर वे उसके प्रति भी ईर्ष्या भाव दर्शाते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अभावों से नहीं; दूसरों के सुखों को देख कर दु:ख होता है–अंतत: यही उनकी नियति बन जाती है।

अक्सर मानव भूल जाता है कि वह खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। यह संसार मिथ्या और  मानव शरीर नश्वर है और सब कुछ यहीं रह जाना है। मानव को चौरासी लाख योनियों के पश्चात् यह अनमोल जीवन प्राप्त होता है, ताकि वह भजन सिमरन करके अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सके। परंतु वह राग-द्वेष व स्व-पर में अपना जीवन नष्ट कर देता है और अंतकाल खाली हाथ जहान से रुख़्सत हो जाता है। ‘यह किराये का मकान है/ कौन कब तक रह पाएगा’ और ‘यह दुनिया है एक मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला’ स्वरचित गीतों की ये पंक्तियाँ एकांत में रहने की सीख देती हैं। जो स्व में स्थित होकर जीना सीख जाता है, भवसागर से पार उतर जाता है, अन्यथा वह आवागमन के चक्कर में उलझा रहता है।

जो हमारे पास है; लाजवाब है, परंतु बावरा इंसान इस तथ्य से सदैव अनजान रहता है, क्योंकि उसमें आत्म-संतोष का अभाव रहता है। जो भी मिला है, हमें उसमें संतोष रखना चाहिए। संतोष सबसे बड़ा धन है और असंतोष सब रोगों  का मूल है। इसलिए संतजन यही कहते हैं कि जो आपको मिला है, उसकी सूची बनाएं और सोचें कि कितने लोग ऐसे हैं, जिनके पास उन वस्तुओं का भी अभाव है; तो आपको आभास होगा कि आप कितने समृद्ध हैं। आपके शब्द-कोश  में शिकायतें कम हो जाएंगी और उसके स्थान पर शुक्रिया का भाव उपजेगा। यह जीवन जीने की कला है। हमें शिकायत स्वयं से करनी चाहिए, ना कि दूसरों से, बल्कि जो मिला है उसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। जो मानव आत्मकेंद्रित होता है, उसमें आत्म-संतोष का भाव जन्म लेता है और वह विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँध देता है।

गुलज़ार के शब्दों में ‘हालात ही सिखा देते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह होता है।’

हमारी मन:स्थितियाँ परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। यदि समय अनुकूल होता है, तो पराए भी अपने और दुश्मन दोस्त बन जाते हैं और विपरीत परिस्थितियों में अपने भी शत्रु का क़िरदारर निभाते हैं। आज के दौर में तो अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, उन्हें तक़लीफ़ पहुंचाते हैं। इसलिए उनसे सावधान रहना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए जीवन में विवाद नहीं, संवाद में विश्वास रखिए; सब आपके प्रिय बने रहेंगे। जीवन में  इच्छाओं की पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म में सामंजस्य रखना आवश्यक है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा।

सो! हमें जीवन में स्नेह, प्यार, त्याग व समर्पण भाव को बनाए रखना आवश्यक है, ताकि जीवन में समन्वय बना रहे अर्थात् जहाँ समर्पण होता है, रामायण होती है और जहाल इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, महाभारत होता है। हमें जीवन में चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। स्व-पर, राग-द्वेष, अपेक्षा-उपेक्षा व सुख-दु:ख के भाव से ऊपर उठना चाहिए; सबकी भावनाओं को सम्मान देना चाहिए और उस मालिक का शुक्रिया अदा करना चाहिए। उसने हमें इतनी नेमतें दी हैं। ऑक्सीजन हमें मुफ्त में मिलती है, इसकी अनुपलब्धता का मूल्य तो हमें कोरोना काल में ज्ञात हो गया था। हमारी आवश्यकताएं तो पूरी हो सकती हैं, परंतु इच्छाएं नहीं। इसलिए हमें स्वार्थ को तजकर,जो हमें मिला है, उसमें संतोष रखना चाहिए और निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। हमें फल की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो हमारे प्रारब्ध में है, अवश्य मिलकर रहता है। अंत में अपने स्वरचित गा त की पंक्तियों से समय पल-पल रंग बदलता/ सुख-दु:ख आते-जाते रहते है/ भरोसा रख अपनी ख़ुदी पर/ यह सफलता का मूलमंत्र रे। जो इंसान स्वयं पर भरोसा रखता है, वह सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। इसलिए इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि जो नहीं है, वह ख़्वाब है;  जो मिला है, लाजवाब है। परंतु जो नहीं मिला, उस सपने को साकार करने में जी-जान से जुट जाएं, निरंतर कर्मरत रहें, कभी पराजय स्वीकार न करें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 384 ⇒ घर से काम (Work from home) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घर से काम (Work from home)।)

?अभी अभी # 384 ⇒ घर से काम (Work from home) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिन्हें दुनिया से कोई काम नहीं, उन्हें भी घर से काम होता है। एक हाउसवाइफ की तो पूरी दुनिया ही उसका घर होता है। हां, लेकिन एक योगी, संन्यासी और फकीर को क्या घर से काम।

हमने घर में तो बहुत काम किया है, लेकिन कभी घर से काम नहीं किया। कामकाज के लिए नौकरी धंधा करना पड़ता है, दफ्तर, दुकान, बाजार जाना पड़ता है। एड़ियां रगड़ने, और चप्पलें घिसने के बाद बड़ी मुश्किल से नौकरी मिलती है, एक आम इंसान को।।

हम जिस घर से काम की बात कर रहे हैं, उसे मराठी में घर बसून काम और अंग्रेजी में work from home कहते हैं। दूरस्थ कार्य किसी कार्यालय के बजाय अपने घर या किसी अन्य स्थान से काम करने की यह प्रथा है। भारत में कोरोना काल इसका जनक है। नई पीढ़ी के प्रतिभाशाली आईटी सेक्टर के इंजीनियर्स और अन्य कर्मचारी बड़ी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों में, पुणे, मुंबई, हैदराबाद और बेंगलुरू जैसे बड़े शहरों में, अपने घर से बहुत दूर कार्यरत थे। अच्छा पैकेज, और सभी सुविधाएं।

अचानक कोरोना ने, जो जहां था, उसे वहीं, ठहरने के लिए मजबूर कर दिया। लॉकडाउन की त्रासदी और कोरोना वायरस का हमला दिल दहला देने वाला था। जहां जान के लाले पड़ रहे हों, वहां कैसी नौकरी और कैसा रोजगार। कई परेशान युवा भागकर अपने घर आ गए, जान है तो जहान है, परदेस में ना खाने का ठिकाना और ना जान की गारंटी।।

कई उद्योग धंधे बर्बाद हो गए, कई कंपनियां डूब गई। केवल एक ही विकल्प बचा था, जो जहां है, वहीं से काम करता रहे, दफ्तर अथवा ऑफिस आने की जोखिम ना उठाए। आईटी सेक्टर का पूरा काम वैसे भी कंप्यूटराइज्ड होता है, आपको निर्देश ऑनलाइन मिल जाया करते हैं।

उधर वर्क फ्रॉम होम में कंपनी का भी ऑफिस एस्टाब्लिशमैंट का खर्चा बचा। सर्वसुविधायुक्त ऑफिस होते हैं इन कंपनियों के ऑफिस। अच्छी सुविधा, कसकर काम। खूब खाओ, मन लगाकर काम करो।

आज स्थिति यह है कि हर घर में वर्क फ्रॉम होम चल रहा है। सामान्य हालात के पश्चात् जो कर्मचारी वापस ऑफिस चले भी गए हैं, वे भी अगर छुट्टियों में घर आते हैं, तो उन्हें काम से छुट्टी नहीं मिल सकती। जहां हो, वहीं दफ्तर समझ, ऑफिस टाइम में काम करते रहो। यह कोई

सरकारी दफ्तर नहीं, और जॉब की भी कोई गारंटी नहीं।।

वर्क इज वर्शिप, काम ही पूजा है, का जमाना है। पूजा के लिए जिस तरह मंदिर जाना जरूरी नहीं, घर पर भी की जा सकती है, ठीक उसी तरह काम करने वाला कहीं भी काम कर सकता है, पूजा की तरह, बस उसके काम का सम्मान हो, उसे संतुष्टि के साथ, समुचित पारिश्रमिक भी मिले।

वर्क फ्रॉम होम का दायरा आजकल बहुत बढ़ गया है। आज की पीढ़ी सुशिक्षित और जागरूक है, केवल एक कंप्यूटर के जरिये आप पूरी दुनिया पर नजर रख सकते हैं। संभावनाओं का अंत नहीं,

अवसर अनंत हैं।।

आज हंसी आती है, हमारी पीढ़ी पर। हम अपने समय में कितने निश्चिंत और अनजान थे। उधर गर्मी की छुट्टियां आई, और बस एक ही काम ;

बैठे बैठे क्या करें

करते हैं कुछ काम।

अंताक्षरी शुरू करते हैं

लेकर प्रभु का नाम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 199 ☆ वन तपोवन सा प्रभु ने किया… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “वन तपोवन सा प्रभु ने किया…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 199 ☆ वन तपोवन सा प्रभु ने किया

भगवान जो करते हैं अच्छे के लिए करते हैं। कठोर निर्णय भले ही हृदय विदारक  हों किंतु न जाने कितनों को शिक्षित करते जाते हैं।

जब सब कुछ सहजता से मिलने लगे तो व्यक्ति उसका महत्व नहीं समझता ,मजाक बनाकर रख देता है। सम्मानित लोगों को अपमानित करना उसके बाएँ हाथ का खेल होता है। इस हार ने न जाने कितनों को आत्म मूल्यांकन हेतु विवश किया है। जो इस क्षेत्र के नहीं हैं वे भी कहीं न कहीं मानसिक रूप से इससे जुड़ाव कर रहे थे। एक साथ इतनी उम्मीदों का टूटना जिसकी आवाज सदियों तक ब्रह्मांड में गूंजती रहेगी।

कोई एक तत्व इसके लिए जिम्मेदार हो तो कहें पूरा का पूरा कुनबा वैचारिक रूप से अहंकारी हो गया था। बड़ बोलापन, शक्ति का केंद्रीकरण, एकव्यक्ति पूरी दुनिया बदल देगा ये भ्रम टूटना आवश्यक है। लोकतंत्र में हर व्यक्ति एक बराबर मूल्यवान है। संख्या बल योग्यता को नहीं परखता। ये सही है कि एक तराजू में सबको तौलने से योग्यता की उपेक्षा होती है जिसका दुष्परिणाम कार्यों  में झलकता है।

जब भी अयोग्य लोगों ने चालबाजियों का सहारा लिया है तो उन्हें हारे का सहारा भी नहीं मिलता है क्योंकि सत्य और ईमानदारी की ताकत के आगे कोई नहीं टिक सकता। सत्य भले ही कुछ समय के लिए बेबस दिखे किंतु सत्य अड़िग और चमकदार होता है तभी तो सत्यम शिवम सुंदरम से आगे कुछ भी नहीं होता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 287 ☆ आलेख – राष्ट्रीय एकता के प्रवर्तक “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” उर्फ शहीद उधमसिंह ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – राष्ट्रीय एकता के प्रवर्तक “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” उर्फ शहीद उधमसिंह। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 287 ☆

? आलेख – राष्ट्रीय एकता के प्रवर्तक “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” उर्फ शहीद उधमसिंह ?

सरदार उधमसिंह की फिलासफी सदैव सर्वधर्म समभाव और राष्ट्रीय एकता की रही।

उन्होने आत्मनिर्भर होते ही अमृतसर में पेंटर केरूप में एक दूकान शुरू की थी, जिस पर अपना नाम “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” लिखा था, तब उनकी आयु मात्र २० बरस रही होगी । डायर की हत्या के बाद भी जब उनकी उम्र ४० बरस थी उन्होंने पोलिस को अपना यही स्वयं से स्वयं को दिया गया नाम “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” ही बताया था। वे इस नाम को हिन्दू, मुस्लिम, सिख एकता के प्रतीक केरूप में देखते थे। जीवन पर्यंत सरदार उधमसिंह राष्ट्रीय एकता के प्रबल समर्थक रहे, वे दुनियां भर में हर भारतवंशी को अपने भाई की तरह भारतीय ही देखते रहे।

आज जब देश में धर्म और जातिगत ध्रुवीकरण, आरक्षण की राजनीति हो रही है तो यदि वे होते तो उन्हें कितना दुख होता, कल्पनातित है। आज जब सरदार उधमसिंह की जाति कम्बोज, अर्थात पंजाब के चर्मकार ढ़ूढ़ ली गई है, और देश की आजादी में दलित जातियों का योगदान जैसे विषयों पर दिल्ली के विश्वविद्यालय में संगोष्ठी के आयोजन हो रहे हैं, या ऐसे राष्ट्रीय एकता के विघटनकारी विषयों पर पी एच डी के शोध कार्य किये जा रहे हैं, तो भले ही सामाजिक अध्ययन की दृष्टि से यह सब कितना ही उचित क्यों न हो किन्तु यह उस शहीद उधमसिंह की आत्मा को शांति देने वाला नहीं हो सकता जिसने अपना नाम ही “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” रख लिया था  ।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 383 ⇒ प्यार की भूख… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ककहरा।)

?अभी अभी # 383 ⇒ प्यार की भूख? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भूख प्यास का आपस में वही संबंध है, जो दुःख दर्द का है, धूप छांव का है, दिन रात का है, जमीन आसमान का है, शरीर और आत्मा का है। हमें भूख भी लगती है और प्यास भी। भूख भोजन से ही मिटती है, और प्यास सिर्फ पानी से ही। कभी हम प्यासे मरते हैं, तो कभी भूखे। प्यासे को पानी, और भूखे को रोटी ही चाहिए।

प्यास कई तरह की होती है। हम यहां प्यार की प्यास की बात कर रहे हैं।

प्यार की प्यास किसे नहीं होती। क्या धरती और क्या आकाश, सबको प्यार की प्यास। प्यास और प्यार की कोई परिभाषा नहीं। संसार में इन दोनों का कोई विकल्प नहीं।।

क्या प्यार की भूख भी होती है। क्या भूख और प्यास की तरह हमें प्यार की प्यास और प्यार की भूख का भी अहसास होता है। शायद होता हो, लेकिन हमने कभी इस पर ध्यान ही नहीं दिया। प्यार की भूख प्यास क्या अलग अलग होती है।

कहीं कहीं, केवल प्यार से बोले दो मीठे शब्द ही यह काम कर जाते हैं, तो कहीं कहीं स्पर्श की भी आवश्यकता होती है। गर्मजोशी से हाथ मिलाना, गले मिलना, मां को बच्चे को बेतहाशा चूमना चाटना यह प्यार की प्यास है या प्यार की भूख, कहना आसान नहीं। बच्चे को भी प्यार की भूख होती है, हम उसके गाल पर पप्पी देते हैं, उसकी भूख शांत हो जाती है। आवेश, आलिंगन भी प्यार की भूख प्यास के ही संकेत हैं। अगर आप इसे अलग कर सकें तो करें।।

प्यार के मनोविज्ञान में हम नहीं चाहते, महात्मा फ्रायड दखलंदाजी करें। क्योंकि यही प्यार की भूख प्यास जब मीरा की राह पकड़ लेती है, तो मामला जिस्मानी से रूहानी हो जाता है। शायर इसे अपनी जबान में इस तरह बयां करता है ;

ये मेरा दीवानापन है

या मोहब्बत का सुरूर।

तू ना समझे तो है ये

तेरी नजरों का कुसूर।।

इंसान के पास तो जुबान है, वह अपनी बात कह सकता है, लेकिन जो पशु पक्षी बेजुबान हैं, क्या उनको भी प्यार की भूख प्यास का अहसास होता है। बिना प्रेम के कोई पशु पक्षी आपके पास नहीं फटकने वाला। जो सभी बेजुबान पशु पक्षियों को एक ही लठ से हांकते हैं, उन्हें जल्लाद कहा जाता है, इंसान नहीं।

गाय कुत्तों से हमारा बचपन से साथ रहा है। हमने इन्हें कभी पाला नहीं, बस जब कभी सामने आए, एक रोटी डाल दी और उन्हें पुचकार लिया, गाय की पीठ पर हाथ फेर दिया। गाय का शरीर प्रेम का स्पर्श पा सिहर उठता है, और कुछ ही देर में वह मुंह ऊंचा कर देती है, इस अपेक्षा के साथ कि आप उसकी गर्दन पर भी हाथ फेर देंगे। चौपायों के कहां हाथ होते हैं। इस वक्त हमें हमारी पीठ याद आ जाती है, जहां तक हमारे पूरे हाथ नहीं पहुंच पाते।।

पालतू पशु पक्षियों की अच्छी देखभाल होती है, अतः सावधानीपूर्वक उन्हें स्पर्श किया जा सकता है।

कुत्ता तो वैसे ही स्वामिभक्ति के लिए बदनाम है। स्वामी के लिए भक्ति का भाव कहें, अथवा कृतज्ञता का भाव, वह उसके चेहरे पर साफ झलकता है। इन प्राणियों का भाव इनकी आंखों में आसानी से पढ़ा जा सकता है। इनकी आंखें प्यार के लिए तरसती हैं, ये हमेशा प्यार के भूखे होते हैं।

उम्र और समझ में छोटे, लेकिन आकार में बड़े, इनके साथ बच्चे भी खेलते हैं, और बड़े भी।

बच्चों को इनके पिल्लों के साथ खेलने में बड़ा मजा आता है। आखिर उस उम्र में उनमें कहां भेद बुद्धि। फिर भी बड़ों की डांट तो खानी ही पड़ती है, छि: चलो घर, चलो हाथ पैर धोओ।

अगर इन पालतू कुत्तों को अनुशासित नहीं किया जाए, तो कभी कभी इनका प्यार महंगा भी पड़ सकता है। वह नासमझ प्राणी चाहता है, आप उसके साथ बच्चों की तरह खेलो। इस लाड़ प्यार में कभी उसके नाखून तो कभी उसके दांत आपको नुकसान पहुंचा सकते हैं। आखिर है तो वह जानवर ही।।

पक्षियों को पिंजरे में रखना अपराध है, फिर भी तोता पालना हमारी पुरानी परम्परा है। भागवत कथाओं में तो आपको, कहीं ना कहीं, एक शुकदेव जी पिंजरे में नजर आ ही जाएंगे। प्यार तो प्यार है, घरों में मछलियां भी पाली जाती हैं और कछुआ और खरगोश भी।

अजीब है यह, प्यार की भूख प्यास, कभी लौकिक, कभी अलौकिक ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 382 ⇒ विषय… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विषय…।)

?अभी अभी # 382 ⇒ विषय ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर विचार ही शून्य हों, तो विषय कहां से सूझे। सुबह परीक्षा तो देने जा रहे हैं, लेकिन पेपर किस विषय का है, यह ही पता नहीं, तो परीक्षा क्या खाक देंगे। बिना तैयारी परीक्षा नहीं दी जाती। लेकिन जहां जीवन में रोज परीक्षा चल रही हो, वहां बिना प्रश्न पत्र और बिना विषय के ही परीक्षा देनी पड़ती है।

अभी अभी मेरी रोज परीक्षा लेता है, आज भी ले रहा है। जब तक विषय वस्तु समझ नहीं पाता, विषय प्रवेश कैसे करूं। मुझे तो लगता है, यह विषय शब्द ही विष से बना है, क्योंकि जहां विषय है वहां विकार अवश्य ही होगा। जितना संबंध विषय का विकार से है, उतना ही वासना से भी है।।

अगर इस दृष्टिकोण से विषय सूची बनाई जाए तो उसमें विषधर और विषकन्या भी शामिल हो जाएंगे। विषपान तो केवल विश्वेश्वर नीलकंठ महादेव ही कर सकते हैं, हां विष वमन के लिए राजनीति के विषधर अवश्य मौजूद हैं।

तो क्या विषयांतर नहीं किया जा सकता। विषय में रहते हुए विषयांतर इतना आसान नहीं होता।

ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त रस, पदार्थ या तत्त्व (जैसे—गंध और स्वाद का विषय)।

आधारिक कल्पना (जैसे अभी अभी का विषय क्या होगा)

अध्ययन की सामग्री, सब्जेक्ट आदि।

विवेचन, विचार, मैटर ..

वैसे विषय का शाब्दिक अर्थ, ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त रस, पदार्थ या तत्त्व (जैसे—गंध और स्वाद का विषय) है। विषय का एक और व्यावहारिक अर्थ

आधारिक कल्पना अर्थात् theme और सब्जेक्ट है।।

संसार के सभी विषयों में तो सुख दुख हैं। जीव दुख से भागना चाहता है, उसे सिर्फ सुख की चाह है। सुख के विषय उसे प्रिय हैं,

अनंत सुख वह जानता नहीं, इसलिए विषय भोग में उलझा रहता है। नीरस जीवन किसे अच्छा लगता है, रसना बिना जीवन में रस ना। विषयासक्त और अनुरक्त से बेहतर स्थिति होती है, एक विरक्त की। विषय में विकार है, विरक्त में कोई विकार नहीं। सूरदास हमारी स्थिति बेहतर जानते हैं, शायद इसीलिए इस विषय को एक खूबसूरत मोड़ देकर कहते हैं ;

मेरो मन अनत कहां सुख पावै।

जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै॥

कमलनैन कौ छांड़ि महातम और देव को ध्यावै।

परमगंग कों छांड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै॥

जिन मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील-फल खावै।

सूरदास, प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै॥

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 286 ☆ आलेख – उधमसिंह भारत पाकिस्तान में बराबरी से चाहे जाते हैं ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – उधमसिंह भारत पाकिस्तान में बराबरी से चाहे जाते हैं। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 286 ☆

? आलेख – उधमसिंह भारत पाकिस्तान में बराबरी से चाहे जाते हैं ?

स्वतंत्रता संग्राम में प्राणों को न्यौछावर करने वाले देश के महान सपूतों को डाक विभाग उन पर टिकिट जारी कर सम्मान देता है। भारतीय डाक विभाग ने ३१ जुलाई १९९२ को शहीद ऊधम सिंह की फोटो की एक रुपए की डाक टिकट जारी की थी। इस की दस लाख टिकिटें जारी कि गईं थी। इस टिकिट का डिजाइन श्री शंख सामंत द्वारा किया गया है। जिससे देश की युवा एवं भावी पीढ़ी को शहीदों के बलिदानों के प्रति जागरूक किया जा सके। टिकिट जारी करते हुये प्रथम दिवस आवरण भी जारी होता है जिस पर उधमसिंह के संदर्भ में प्रामाणिक जानकारियां संजोई गई हैं। किन्तु उसका दोबारा कोई रिप्रिंट नही किया गया इसलिये ऐसा लगता है कि डाक विभाग केवल एक बार ही शहीदों को याद कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है। इस समय देश के किसी भी डाकघर में शहीद ऊधम सिंह से सम्बन्धित डाक टिकट प्रचलन में नहीं है। फिलाटेली में रुचि रखने वाले संग्रह कर्ताओ के पास अवश्य वह टिकट संग्रहित हैं। डाक टिकट पुनः जारी नहीं करने का कारण जानने के बारे में आरटीआई से प्राप्त जानकारी के अनुसार किसी विशेष विषय पर विभाग केवल एक बार डाक टिकट इश्यू करता है, जबकि वाइल्ड लाइफ, एन्वॉयरमेंट, ट्रांसपोर्ट, नेचर, चिल्ड्रन डे, फिलाटैलि डे, सीजनल ग्रीटिंग्स इत्यादि विषयों पर रेगुलर डाक टिकट फिर फिर जारी होते रहते हैं।

पाकिस्तान में भी शहीद उधम सिंह पर डाक टिकट जारी करने की मांग की गई है।

शहीद भगत सिंह, शहीद उधम सिंह, लाला लाजपत राय जैसे स्वातंत्रय वीर संयुक्त भारत में आजादी से पहले आज के पाकिस्तान से थे। कुछ वर्ष पहले लाहौर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के लॉन में उधम सिंह का ८०वां शहीदी दिवस मनाया गया था। शहीद उधम सिंह क्रांतिकारी के साथ एडवोकेट भी थे। उन्होंने विदेश में रह कर ही वकालत की थी। पाकिस्तान ने शहीद भगत सिंह के बाद उधम सिंह को भी अपना शहीद मान लिया है। पाकिस्तान में उधमसिंह के शहीदी दिवस की बरसी पर कैंडल मार्च निकाला गया था और उनकी शहादत को नमन किया गया। इस मौके पर वक्ताओं ने उधम सिंह की देश की आजादी के लिए दी गई कुर्बानी को याद किया गया। भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन पाकिस्तान के चेयरमैन एडवोकेट इम्तियाज कुरैशी और अब्दुल रशीद ने पाकिस्तान सरकार से अपील की कि शहीद उधम सिंह के नाम पर डाक टिकट जारी किया जाए और पाकिस्तान में किसी एक सड़क का नाम उनके नाम पर रखा जाए।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 86 – देश-परदेश – उधो का लेना ना माधो का देना ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 86 ☆ देश-परदेश – उधो का लेना ना माधो का देना ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त चित्र में कुतुर हमारे देश की बहुत बड़ी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व का प्रतीक हैं। चित्र में कुतुर गांव में हो रहे किसी कार्यक्रम की जानकारी बहुत दूर से ले रहा हैं।

ये ही हाल, हमारे जैसे फुरसतिये जो दिन भर सोशल मीडिया के व्हाट्स ऐप, यू ट्यूब, एक्स, फेस बुक पर तैयार शुदा मैसेज को तेज़ी से आदान प्रदान करते रहते हैं, जिनको राजनीति से कुछ भी लेना देना नहीं है। आज सुबह से घर के टीवी पर चैनल बदल बदल कर परिणामों की बाट जोह रहे हैं।

अधिकतर सेवानिवृत है, कोई भी सरकार बने इन पर कोई सीधा प्रभाव नहीं पड़ता हैं। लेकिन सोशल मीडिया के मंच से इतनी चिंता व्यक्त करते है, मानो इनका कोई सगा वाला चुनाव में प्रत्याशी हो। गडरिया की बैलगाड़ी  के नीचे छाया में चलने वाले कुतुर की गलतफहमी की कहानी याद आ गई।

ये लोग अपनी नौकरी के समय में भी काम की चिंता का जिक्र करने में अग्रणी रहा करते थे। कार्यालय में कहां/ क्या चल रहा है, इसकी पूरी जानकारी इन्हें कंठहस्त रहती थी, सिवाय इनकी सीट के कार्य को छोड़कर।

अधिकतर व्हाट्स एपिया साथी क्षेत्र के एमएलए छोड़ कॉरपोरेटर तक को कभी ना मिले होंगे। कभी किसी नेता की सभा या रोड़ शो में भी नहीं गए होंगे, लेकिन राजनीति के सैंकड़ो मैसेज प्रतिदिन कॉपी/ पेस्ट करने में इनका कोई सानी नहीं।

टीवी पर महीनों से हो रही स्तरहीन बहस को इतने गौर से  सुन कर अपनी तत्काल टिपण्णी करने में ये लोग अव्वल रहते हैं। कभी भी किसी दल को या सामाजिक संस्थाओं को सामाजिक/ आर्थिक सहयोग भी नहीं किया होगा, ऐसे लोगों द्वारा, लेकिन जन सहयोग के ज्ञान की गंगा बहाने में सबसे आगे रहते हैं।

नई सरकार के गठन में एक सप्ताह तक लग सकता है, तब तक ये टीवी चैनल चोबीस घंटे चुनाव विश्लेषण कर घिसी पिटी दलीलें परोसते रह जायेंगे।

“जो जीता वो सिकंदर” जैसे गीत सुनाए जायेंगें। पुराना गीत ” आज किसी की हार हुई है, और किसी की जीत रे” भी इन समय खूब मांग में रहता हैं।

चुनाव में पराजित उम्मीदवारों के लिए उर्दू जुबां के जानकार कहने लगेंगे ” गिरते है शहसवार ही मैदाने जंग में….” चुनाव पर टीका टिप्पणियां करने वालों का मुंह बंद करवाने के लिए कहा जाएगा” every thing is fair in love, war and elections.

हम टीवी और समाचार पत्र प्रेमियों का कुछ नहीं हो सकता है। चुनाव परिणाम से अति उत्साहित या निरुत्तर मत हों। ऐसे ही जीवन चलता रहेगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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