हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 415 ⇒ साइकिल स्टैंड… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साइकिल स्टैंड।)

?अभी अभी # 415 ⇒ साइकिल स्टैंड? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब तक साइकिल चलती रहती है, उसे किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं रहती, केवल दो पहिये के सहारे वह खुद भी चलती है, और सवारी को भी ले जाती है। जैसे ही वह रुकती है, उसे खड़े रहने के लिए स्टैंड यानी सहारा लगता है। अगर साइकिल को स्टैंड न हो, तो या तो उसको किसी दीवार का सहारा लेना पड़ता है, या फिर वह लेट जाती है।

पहले जो साइकिल का स्टैंड होता था, वह पीछे के दोनों पहियों को कवर करता था, साइकिल को स्टैंड पर लगाना पड़ता था। बाद की साइकिलों में स्टैंड एक ही ओर होता था, जिसे आसानी से ऊपर नीचे किया जा सकता था। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि साइकिल भी लेडीज़ और जेंट्स होती थी। जेंट्स लोग लड़ीज साइकिल चला सकते थे, लडीज, जेंट्स साइकिल नहीं चलाती थी।।

आज जब शहर में जगह जगह कार पार्किंग होते हुए भी, पार्किंग की समस्या है, कारों और अन्य चार पहिए के वाहनों के कारण जगह जगह जाम लग जाया करता है, तब हींग फिटकरी रहित साइकिल की बहुत याद आती है। कहीं से भी निकाल ली, कहीं पर भी खड़ी कर ली।

आज कार पार्किंग की तरह कभी शहर में जगह जगह साइकिल स्टैंड भी हुआ करते थे। सभी मिल मज़दूर खाने का टिफिन बांधे जब हुकमचंद मिल अथवा अन्य मिलों में पहुंचते थे, तो उनकी गाड़ी, साइकिल स्टैंड पर रखी जाती थी, जिसका माहवारी पास बनता था। आज जिस तरह किसी भी मॉल में कार पार्किंग की व्यवस्था होते हुए, पार्किंग एक समस्या बनी हुई है, उसी तरह कभी सिनेमा घरों के बाहर साइकिलों के लिए साइकिल स्टैंड बने रहते थे। साइकिल स्टैंड वाला इज्जत से आपके पास आकर आपकी साइकिल थाम लेता था, इस जानकारी के साथ, अभी तो डॉक्यूमेंट्री चल रही है, टिकट भी मिल जाएंगे बाबूजी। एक पतरे का बिल्ला आपको पकड़ाकर, वह आपकी साइकिल स्टैंड पर ले जाकर, स्टैंड पर खड़ी कर देता था। आप चैन से पिक्चर देख सकते थे, और साइकिल भी अपनी सखी सहेलियों के साथ कुछ वक्त गुज़ार लेती थी।।

आज शहर में जितनी गौ शालाएं नहीं, कभी शहर में उतने साइकिल स्टैंड हुआ करते थे। हर स्कूल कॉलेज का अपना साइकिल स्टैंड हुआ करता था, जिसके ठेके हुआ करते थे। किसी कॉलेज अथवा सिनेमा घर के साइकिल स्टैंड का ठेका मिलना उतना ही मुश्किल था, जितना आज किसी शासकीय निर्माण का ठेका मिलना।

शहर का सरवटे बस स्टैंड हो, या रेलवे स्टेशन, जो लोग डेली अप-डाउन करते हैं, उनके वाहन आज भी साइकिल स्टैंड पर ही रखे जाते हैं। लेकिन विडम्बना देखिए, आजकल, साइकिल तो कम, स्कूटर ज़्यादा नजर आते हैं। कहीं कहीं तो साइकिल स्टैंड का नाम भी बदलकर स्कूटर स्टैंड कर दिया गया है।।

दुनिया कितनी भी आगे निकल जाए, साइकिल स्टैंड भले ही कार पार्किंग स्थल बनते चले जाएं, साइकिल कल भी अपने पांव (स्टैंड) पर खड़ी थी, और आज भी अपने पांव पर खड़ी है। अगर आप भी अपने पांव पर ठीक से खड़े होना चाहते हो, सदा स्वस्थ रहना चाहते हो, पेट्रोल की बढ़ती कीमत, ट्रैफिक जाम और ट्रैफिक के चालान से बचना चाहते हो, तो एक स्टैंड वाली साइकिल का हैंडल थाम लो।

जीरो मेंटेनेंस वाला, हर तरह के टैक्स से मुक्त, हेलमेट-फ्री कोई दोपहिया वाहन आज अगर है, तो वह साइकिल ही है। शहर को प्रदूषण मुक्त अगर रखना है, तो वाहनों की संख्या केवल साइकिल ही कम कर सकती है। कितना अच्छा हो, सिक्स लेन सड़कों पर एक लेन साइकिल की भी हो। आज के युग में साइकिल पर आना, गरीबी की नहीं, समझदारी की निशानी है। Who will understand?

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आदर्श ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आदर्श ? ?

संघर्ष निरंतर जारी है। हर वर्ग का हुजूम मिलकर उस एक शब्द को शब्दकोश से बहिष्कृत करने में जुटा है। मुट्ठी भर हाथ हैं जो प्रतिकूल स्थितियों में भी अपना सर्वस्व दांव पर लगाकर हुजूम से लोहा ले रहे हैं। इन मुट्ठी भर लोगों की अडिगता से ही शब्दकोश में ‘आदर्श’ अब भी साँसे भर रहा है।

© संजय भारद्वाज  

रात्रि 12:10 बजे, 4 जून 2024

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 414 ⇒ पौधारोपण (Plantation)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पौधारोपण (Plantation)।)

?अभी अभी # 414 ⇒ पौधारोपण (Plantation)? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आइए, पॉपुलेशन की चिंता छोड़ प्लान्टेशन करें। बच्चों की ही तरह पेड़ पौधे भी हमें उतने ही प्रिय हैं।

एक बीज ही वृक्ष बनता है, जंगल कोई नहीं बनाता, जंगलों में पौधारोपण और वृक्षारोपण जैसे आयोजन नहीं होते, क्योंकि वहां इंसान का दखल नहीं होता। जंगल का अपना कानून होता है, वहां हर चीज रिसाइकल होती है। बंदर और हर पशु पक्षी का भोजन जंगल में उपलब्ध है, शाकाहार और मांसाहार। जीवः जीवस्य भोजनं।

मनुष्य सभ्य होता चला गया। मानव सभ्यता ने जंगल में मंगल किया, गांव, कस्बे और बड़े बड़े शहर बसाए। एक जंगली इंसान को पढ़ना लिखना सिखाया, और चांद तक उड़ने के काबिल बनाया। साहिर बहुत जल्दी कर जाते हैं बोलने में ;

कुदरत ने हमें बख्शी थी

एक ही धरती।

हमने कहीं भारत कहीं

ईरान बनाया।।

इस दुनिया को खूबसूरत बनाने के लिए इंसान ने क्या नहीं किया, जंगल काटे, पहाड़ काटे, नदियों पर बांध बनाए, बिजली पैदा की। जंगल की लकड़ी से घर के दरवाजे, खिड़की, पलंग और सोफे बनवाए, अन्न, कपास के खेत और फल, फूल, सब्जियों के बाग बगीचे लगाए। सड़क, पूल, गाड़ी, घोड़े और हवाई जहाज बनाए। महल, अटारी कहां आज के हैं। सदियों से हम प्रकृति का दोहन करते चले आ रहे हैं, लेकिन प्रकृति ने सभी उफ नहीं की, क्योंकि वह धरती मां है, धरा है, वसुन्धरा है। उसके गर्भ में हीरे, मोती, सोना, चांदी, खनिज और कौन सी औषधि नहीं।

अचानक हमारे कामकाज ने प्रकृति का संतुलन बिगाड़ना चालू कर दिया।

अत्यधिक प्रदूषण से प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा, और बिगड़े पर्यावरण का असर इंसान पर भी पड़ने लगा। जहरीली हवा और जहरीला भोजन इंसान को बीमार और कमजोर करने लगा। इंसान परेशान हो, फिर प्रकृति की गोद में जाने लगा। ।

हमें ही हमारी प्रकृति और पर्यावरण को सुधारना होगा। ओजोन लेयर की चिंता अब वैज्ञानिकों की नहीं, आम आदमी की चिंता बन चुकी है। कहीं बेमौसम आंधी तूफान और बारिश और कहीं भयंकर सूखा, सब कुछ हमारा ही तो करा कराया है।

पौधारोपण और वृक्षारोपण तो एक व्यक्तिगत और सामूहिक शुभ संकल्प है, सद्प्रयास है, अपने अपने स्तर पर इसे जारी रखना चाहिए, लेकिन बढ़ती जनसंख्या के प्रति हमारी उपेक्षा और लापरवाही नाकाबिले बर्दाश्त है। सरकार की अपनी मजबूरियां है, पौधारोपण जैसा ही जन जागरण ही इसका एकमात्र विकल्प है। एक तरफ टूटते परिवार,

पारिवारिक मतभेद, सिंगल चाइल्ड और असुरक्षा और दूसरी ओर औलाद और भरे पूरे परिवार के सुख की चाह, गरीबी, अशिक्षा, धार्मिक मान्यता और नैतिक पतन, और इनके बीच त्रिशंकु, बेचारा आम इंसान। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 413 ⇒ || रबड़ी प्लेट || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| रबड़ी प्लेट ||।)

?अभी अभी # 413 ⇒ || रबड़ी प्लेट ||? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आप भले ही लड्डू को मिठाइयों का राजा मान लें,लेकिन जलेबी, इमरती और रबड़ी का नाम सुनकर ज़रूर आपके मन में लड्डू फूट पड़े होंगे । जिन्हें गुलाब जामुन पसंद है,उन्हें मावा बाटी की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। होते हैं कुछ लोग, जो चाशनी से परहेज करते हैं,लेकिन रसगुल्ला देख,उनके मुंह से भी पानी टपकने लगता है।

हम तो शुगर को शक्कर ही समझते थे,लेकिन जब से सुना है, शुगर एक बीमारी भी है, हमने भी मीठे से परहेज करना शुरू कर दिया है । लेकिन चोर चोरी से जाए, हेरा फेरी से ना जाए, रबड़ी तब भी हमारी कमजोरी थी,और आज भी है ।।

कुछ समय के लिए शुगर को भूल जाइए,आइए रबड़ी की बात करें । ठंडी रातों में दूध के कढ़ाव और केसरिया,मलाईदार दूध,रबड़ी मार के ,मानो चाय मलाई मार के । गर्मी में मस्तानी दही की लस्सी और वह भी रबड़ी मलाई मार के । खाने वाले खाते होंगे दही के साथ गर्मागर्म जलेबी,हम तो जलेबी भी रबड़ी के साथ ही खाते हैं ।

आज हम जिस रबड़ी प्लेट का जिक्र कर रहे हैं,उसके लिए हमें थोड़ा अतीत में जाना पड़ेगा । नालंदा जितना अतीत नहीं,फिर भी कम से कम पचास बरस। हमारे होल्करों के शहर इंदौर के बीचों बीच एक श्रीकृष्ण टाकीज था,जहां गर्मियों में सुबह साढ़े आठ बजे एक ठेला नजर आता था,जो हीरा लस्सी के नाम से प्रसिद्ध था । यह लस्सी केवल गर्मियों में ही नसीब होती थी । एक बारिश हुई,और वहां से ठेला नदारद ।

एक श्रृंगारित ठेला,जिसमें कई शरबत की बोतलें सजी हुई,ठेले के नीचे के स्टैण्ड पर कई ताजे दही के कुंडे, ठेले के बीच टाट पर विराजमान एक बर्फ  की शिला, एक विशाल तपेले में,लबालब रबड़ी और इन सबके बीच कार्यरत एकमात्र व्यक्ति हीरा और उनका चीनी मिट्टी का बड़ा पात्र और एक लकड़ी की विशाल रवई,दही को मथने के लिए । (सब कुछ हाथ से ही) हीरा लस्सी ही उस लस्सी का ब्रांड था, जो किसी जमाने में आठ आने से शुरू होकर दस रुपए तक पहुंच गई थी । पहले कुंडे से दही निकालकर तबीयत से मथना,फिर कांच के ग्लासों में बर्फ छील छीलकर डालना,लस्सी और बोतलों में रखे शकर के केसरिया शरबत को मिलाना,और ग्लासों को लस्सी से भरना, फिर थोड़ी रबड़ी और उसके बाद लबालब लस्सी पर दही की मलाई की एक मोटी परत। लीजिए, हीरा लस्सी तैयार ।।

हमारा विषयांतर में विश्वास नहीं। वहां रबड़ी प्लेट भी उपलब्ध होती थी,जो मेरी पहली और आखरी पसंद होती थी । भाव लस्सी से उन्नीस बीस,लेकिन एक कांच की बड़ी प्लेट में लच्छेदार रबड़ी, उस पर थोड़ा बर्फ का चूरा और ऊपर से गुलाब का शर्बत । एक लोहे की डब्बी में काजू,बादाम,पिस्ते का चूरा लस्सी और रबड़ी प्लेट दोनों पर कायदे से बुरकाया जाता था । तब जाकर हमारी रबड़ी प्लेट तैयार होती थी ।

हाइजीन वाले हमें माफ करें,क्योंकि हम रबड़ी प्लेट खाने के बाद हाथ नहीं धोते थे,रबड़ी और गुलाब के शरबत की खुशबू हमारे हाथों में हमारे साथ ही जाती थी और साथ ही जबान पर रबड़ी प्लेट का स्वाद भी ।।

आज न तो वहां श्रीकृष्ण टाकीज है और ना ही वह हीरा लस्सी वाला । पास में बोलिया टॉवर के नीचे,उसके वंशज जरूर फ्रिज में रखी लस्सी,हीरा लस्सी के नाम से,साल भर बेच रहे हैं,लेकिन वह बात कहां ।

जिस तरह शौकीन लोग,अपना शौक घर बैठे भी पूरा कर लेते हैं,हमारी रबड़ी प्लेट भी आजकल घर पर ही तैयार हो जाती है । तैयार केसरिया रबड़ी मांगीलाल दूधवाले अथवा रणजीत हनुमान के सामने विकास रबड़ी वाले के यहां आसानी से उपलब्ध हो ही जाती है,बस एक प्लेट में रबड़ी पर थोड़ा सा ,मौसम के अनुकूल बर्फ और गुलाब का शर्बत ही तो डालना है,लीजिए,रबड़ी प्लेट तैयार । शौकीन हमें ज्वाइन कर सकते हैं ।।

विशेष : शुगर फ्री वालों से क्षमायाचना सहित …!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 412 ⇒ लिखने का सुख… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लिखने का सुख।)

?अभी अभी # 412 ⇒ लिखने का सुख? श्री प्रदीप शर्मा  ?

लिखने में भी वही सुख है, जो सुख एक तैराक को तैरने में आता है, किसी किसी को गाड़ी ड्राइव करने में आता है, एक रसिक को संगीत में, और एक शराबी को शराब पीने में आता है। लिखना किसी के लिए एक आदत भी हो सकता है, एक नशा भी, और एक जुनून भी।

आज मुझे जितनी लिखने की सुविधा है, उतनी पहले कभी नहीं थी। लेकिन लिखने वाले तो तब भी लिखते थे, जब कागद कलम भी नहीं था। पत्थरों को खोद खोद कर लोगों ने शब्द बनाए हैं, पेड़ पौधों के पत्तों पर सरकंडे की कलम का उपयोग किया है। विचारों को शब्दों का जामा पहनाना ही लेखन है। अव्यक्त को व्यक्त करना, विचारों को लिपिबद्ध करना, अप्रकट को प्रकट करना ही सृजन है, साहित्य है, कविता है, वेद पुराण है। ।

संसार का सबसे बड़ा सुख सीखने में है। हमने बोलना, लिखना सीखा, हाथ में कलम पकड़ना सीखा। पहले मिट्टी की पेम, फिर पेंसिल। पहले निब वाला होल्डर और दो पैसे की कैमल की स्याही की टिकिया दवात में घोली और स्याही तैयार। एक ब्लोटिंग पेपर यानी स्याहीचट भी फैली स्याही को सोखने के लिए तैयार। उसके बाद ही हमारे हाथों में हमने पेन पकड़ा था। नौसिखिए के हाथ में न तो पेन देना चाहिए और ना ही तलवार।

लिखने के लिए एक अदद पैन और कागज ही पर्याप्त नहीं होता, दिमाग में भी तो कुछ होना चाहिए। सभी प्रेमचंद और शरदचंद्र तो नहीं हो सकते। रायचंद और जयचंद तो बहुत मिल जाएंगे। संसार में पढ़े लिखे लोग तो बहुत हैं, लेकिन पढ़ने और लिखने वाले बहुत कम। ।

दो शब्द बोलने का कहकर आधा घंटा बोलना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल है सिर्फ दो शब्द लिखना। जिनको लिखने का अभ्यास है, वे ही कुछ लिख सकते हैं। जिनसे लिखे बिना रहा नहीं जाता, वे और कुछ नहीं तो डायरी ही लिखा करते हैं। जो बात हम किसी से कहना नहीं चाहते, वह डायरी में तो लिख ही सकते हैं।

आज एक एंड्रॉयड फोन अथवा कंप्यूटर पर लेखन कितना आसान हो गया है। पहले लेखक लिखता था, फिर उसे टाइप करवाकर छपने को भेजता था। आज बिना कागज पेन के केवल उंगलियों की सहायता से लिखिए और उसे दुनिया में जहां चाहे, वहां भेज दीजिए।

बस, आपके थिंक टैंक में क्या है, यह आप ही जानते हैं। ।

सृजन का संसार सुख सुविधा नहीं देखता। आप पौधारोपण से फूलों की घाटी नहीं बना सकते। तुलसी, मीरा, कबीर और सूर को तब कहां लिखने की इतनी सुख सुविधाएं उपलब्ध थी, लेकिन वे जो रच गए, वह जन मानस में रच बस गया। उन्होंने सृजन का सुख लूटा भी और दोनों हाथों से लुटाया भी।

आज लेखन पेशेवर भी है और स्वांतः सुखाय भी।

तकनीक तो इतनी विकसित हो गई है कि आप बोलकर भी लिख सकते हो, लेकिन अगर कल्पनाशीलता, मौलिक चिंतन और सर्व जन हिताय की मन में अवधारणा ही नहीं हो, तो सूर कबीर तो छोड़िए, हमारा सृजन प्रसाद, पंत, निराला, अज्ञेय और महादेवी की धूल के बराबर भी नहीं। लेकिन सृजन सृष्टि का नियम है, वह सतत चलता रहेगा। सृजन में केवल सुख ही नहीं पूरे संसार की वेदना, विषाद और दुख दर्द भी शामिल है। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 248 – क्षणभंगुरता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 248 क्षणभंगुरता ?

इन दिनों घर पर अकेला हूँ। वॉशिंग मशीन के बजाय हाथ से कपड़े धोने को सदा प्राथमिकता देता रहा हूँ। कपड़े भी दो-चार ही हैं, सो आज भी यही सुविधाजनक लगा।

कपड़ों पर साबुन लगाया। नल हल्का-सा चलाकर कपड़े उसके नीचे डाले। देखता हूँ कि साबुन के झाग से कुछ बुलबुले उठते हैं, कुछ देर पानी पर सवारी करते हैं। कोई जल्दी तो कोई देर से पर फूटता हरेक है।

विशेष बात यह कि इस पूरे दृश्य का चित्र सामने की दीवार पर बन रहा है। इसका कारण यह है कि बाथरूम के दरवाज़े के सामने वॉश बेसिन है। बेसिन पर एक बल्ब लगा है, जिसके कारण बुलबुलों के जन्म  और आगे की यात्रा का छायाचित्र दीवार पर बहुत बड़ा होकर दिख रहा है। इस दृश्य के साथ मानस में चिंतन भी विस्तार पा रहा है।

चिंतन बताता है कि  विसर्जन है, तभी सृजन है। पुरानी इमारतें कभी टूटती ही नहीं तो अधुनातन सुविधाओं वाली गगनचुंबी अट्टालिकाएँ कैसे बनतीं?  जो राजा मानव प्रजाति के आरंभ में होता, सदा वही राजा बना रहता। महान डॉन ब्रैडमैन आज भी क्रिकेट खेल रहे होते। जन्म हरेक पाता पर मृत्यु किसी की नहीं होती। इसके चलते धरती पर संसाधन कम पड़ने लगते। लोग एक दूसरे के प्राणों के ही शत्रु हो जाते।

सार यह कि यह मर्त्यलोक है। इसमें विनाश है तभी जीवन की आस है।  अनेक  ज्ञानी-ध्यानी कहते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है। मैं विनम्रता से कहता हूँ, सिक्का पलट दो …, तुम पाओगे कि क्षणभंगुरता में ही जीवन है।

वस्तुत: क्षणभंगुरता वरदान है जीवन के लिए। हर क्षण को जीने का दर्शन है क्षणभंगुरता। समय की सत्ता है क्षणभंगुरता।

वन विभाग के एक अधिकारी मित्र ने एक बार निजी बातचीत में एक सत्य घटना सुनाई थी। मुख्यालय से उनके उच्चाधिकारी आए हुए थे।  उच्चाधिकारी अपने इस अधीनस्थ के साथ वनक्षेत्र के निरीक्षण के लिए निकले। रास्ते में  विशाल बरगद के नीचे एक औघड़ बैठे थे। पास के गाँव के कुछ ग्रामीण अपना भविष्य जानने की आस में उन्हें घेरे हुए थे। उच्चाधिकारी को जाने क्या सूझा!  कुछ व्यंग्य से आदेशात्मक स्वर में औघड़ से बोले, “इन गाँववालों को क्या भविष्य बताता है। बता सकता है तो मेरा भविष्य बता।” औघड़ गंभीरता से बोला, “तेरा क्या भविष्य बताना। तेरे पास अब तीन दिन ही बचे हैं।” उच्चाधिकारी आग-बबूला हो गए। औघड़ को अपशब्द कहे और आगे निकल गए।

संयोग कहें या विधि का लेखा, औघड़वाणी सत्य सिद्ध हुई और उच्चाधिकारी तीन दिन बाद सचमुच चल बसे।

मेरे मित्र ने यह घटना अपनी पत्नी को बताई। उसकी पत्नी ने तुरंत औघड़ बाबा से मिलने की इच्छा व्यक्त की ताकि पूरे परिवार का भविष्य पूछा जा सके। मित्र ने इंकार करते हुए कि जीवन में जो घटना होगा, अपने समय पर घटेगा। उसे पहले से जान लिया तो जीवन जीना ही असंभव हो जाएगा। बाद में औघड़बाबा से मिलने से बचने के लिए उन्होंने अन्य क्षेत्र में स्थानांतरण ले लिया।

कबीर ने लिखा है,

‘पाणी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।

एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।।

आयु का बुलबुला कब फूट जाए, कोई नहीं जानता। अत: हर क्षण जिएँ,  क्षणभंगुरता का आनंद उठाएँ। स्मरण रहे, क्षण-क्षण जीवन है, हर क्षण में एक जीवन है।…इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ स्वर्गीय पिता से संवाद… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है श्री अजीत सिंह जी द्वारा पितृ दिवस पर स्वर्गीय पिताजी के साथ उनका आभासी संवाद ‘स्वर्गीय पिता से संवाद…’।)

☆ आलेख – स्वर्गीय पिता से संवाद… ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

पितृ दिवस पर स्वर्गीय पिता जी के साथ मेरा एक आभासी संवाद (virtual conversation)  हुआ। वे शायद स्वर्ग में हैं और स्वर्ग का कोई सही पता ठिकाना मुझे नहीं मालूम। मुझे लगता है कि स्वर्ग मात्र मेरे मानसिक पटल (mental space) पर है।

पिताश्री स्वर्गीय चौधरी मुगला राम

पिताजी से मैंने पूछा कि वे वहां पर कैसे हैं। हम सब यहां उन्हें याद करते हैं और उनके आशीर्वाद की कामना करते हैं कि यहां कब आयेंगे।

पिताजी का स्वर्ग में भी काफी बड़ा परिवार है। वे इसका जिक्र करते हैं। मैं उन्हें यहां के परिवार के बारे में बताता हूं।

पिताजी कहते हैं कि वे स्वर्ग में अपने परिवार के साथ खूब ठाठ कर रहे हैं। अंत में वे मुझसे पूछते हैं कि मैं स्वयं कब उनके पास जा रहा हूं।

ये सारा किस्सा मैने एक कविता/गीत के रूप में वानप्रस्थ संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रम में प्रस्तुत किया।

☆ स्वर्गीय पिता जी के साथ एक आभासी संवाद (virtual conversation) ☆

बाब्बू  बैठा कौन से देस

बदल कर भेस

बता कद आवेगा।

भेज कोई चिट्ठी या संदेश

 बता कद आवेगा।

*

पितृ पूजा पे कुनबा

आगया सारा,

वे पूछे हाल तुम्हारा।

बता कद आवेगा।

*

मां भी जाली,

जाली दो बड़नी बांहन,

दो छोटे बीरन भी,  जा लिए वहां

तेरे चार पोते,  नहीं  हैं यहां।

दो बेटी , तेरी विधवा बैठी,

बस एक का सही सुहाग।

बता कद आवेगा।

बाब्बू बैठा कौनसे देस

बदल कर भेस

बता कद आवेगा।

भेज कोई चिट्ठी या संदेश

 बता कद आवेगा।

*

एक पोता तेरा अफसर बंग्या,

एक दूजा ट्राला ऑपरेटर,

तीन पोते  जमींदारी करते,

चलावें ट्रैक्टर और थ्रेशर।

तेरा एक पड़पोता  अमरीका में

दूजा गया ऑस्ट्रेलिया।

एक पोती, एक द्योती तेरी बनी प्रोफेसर,

एक द्योति बनी बीमा मैनेजर

बता कद आवेगा।

बाब्बू बैठा कौनसे देस

बदल कर भेस

बता कद आवेगा।

भेज कोई चिट्ठी या संदेश

 बता कद आवेगा।

*

(अब बाब्बू कहता है)

तेरी मां भी मेर पास,

तीन और रानियों के साथ।

जगबीर  भरे हुक्का,

सुखपाल सुनावे  हाल,

यहां पूरा है जमाल।

पोते सिल्लू, प्रदीप, वेद यहां

घूम रहे हैं।

कुछ तो पी के यहां झूम रहे हैं।

*

बेटा लयूं सु सुरग के ठाठ

देखूं सु तेरी बाट

बता तू कब आवेगा ।

तेरी उम्र अठत्तर होगी,

तेरे बी पी शुगर होगी,

कितने दिन और है जीना,

बता  कब आवेगा ।

*

बाब्बू बैठा कौनसे देस

बदल कर भेस

बता कद आवेगा।

पितृ पूजा पे कुनबा

आगया सारा,

वे पूछे हाल तुम्हारा।

बता कद आवेगा।

*

(पिता कथन)

बेटा लयूं सु सुरग के ठाठ

देखूं सु तेरी बाट

बता कब आवेगा ।

तेरी उम्र अठत्तर होगी,

तेरे बी पी शुगर होगी,

कितने दिन और है जीना,

बता कब आवेगा ।

☆ ☆ ☆ 

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647037

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार से स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 411 ⇒ पांव की धूल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पांव की धूल।)

?अभी अभी # 411 ⇒ पांव की धूल? श्री प्रदीप शर्मा  ?

माटी कहे कुम्हार से,

तू क्या रोंदे मोहे।

एक दिन ऐसा आएगा,

मैं रोंदूगी तोहे।।

पांव की धूल, हमारे शरीर की सबसे उपेक्षित वस्तु है। इसीलिए घरों में बाहर के जूते चप्पलों का प्रवेश वर्जित रहता है। रोज सुबह घर को बुहारा संवारा जाता है, धूल मिट्टी को घर से बाहर का रास्ता दिखाया जाता है। दुश्मन को धूल चटाने में भी हमें उतना ही मज़ा आता है, जितना बचपन में मिट्टी खाने में आता था। जो जमीन के अंदर है, वह मिट्टी और जो जमीन के बाहर है, वह सब धूल।

हम मिट्टी से ही पैदा हुए, और हमें मिट्टी में ही समा जाना है। जब हम अपने देश की धरती का गुणगान करते हैं, तो देश की मिट्टी को सर पर लगाते हैं ;

इस मिट्टी को तिलक करो

ये मिट्टी है बलिदान की ;

जिसे हम साधारण धूल समझते हैं, उसे ही रज भी कहते हैं, महात्माओं की चरण रज को केवल शिष्य ही अपने मस्तक पर नहीं लगाते, ब्रज रज में तो भक्त लोटते हुए, गिरिराज की पूरी परिक्रमा करते हैं।।

धूरि भरे अति सोभित स्यामजू,

तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।

खेलत खात फिरै अँगना, पग पैंजनी बाजति पीरी कछोटी।।

आजकल की माताएं भले ही बच्चों को धूल मिट्टी से बचाएं, पहले उनके हाथ पांव धुलवाएं और उसके पश्चात् ही उन्हें गले लगाएं, लेकिन यशोदा जी ने ऐसा कभी नहीं किया। जिसका मन मैला नहीं, उस के तन पर कैसा मैल।

मिट्टी भी कभी मैली हुई है। मिट्टी तो आज सोने के भाव बिक रही है और लोग पैसा कमाने अपनी जमीन जायदाद बेच बेचकर विदेशों में जा रहे हैं। उनका नमक खा रहे हैं।

और इधर कुछ पाखंडी कथित अवतारी पुरुष इस देश की मिट्टी को कलंकित करते हुए, भक्तों से अपने पांव पुजवा रहे हैं, अपने पांव की मिट्टी से उनकी जान का सौदा कर रहे हैं।।

श्रद्धा, अंध श्रद्धा और विश्वास, अंध विश्वास में एक महीन अंतर होता है। जहां आपकी आस्था के साथ खिलवाड़ शुरू हुआ, अंध विश्वास अपना नंगा नाच शुरू कर देता है। नीम हकीमों के खतरों से तो अब सरकार भी जाग उठी है, लेकिन हिंदू समाज में फैले अंध विश्वास और बाबाओं की कथित सिद्धियों और चमत्कारों के प्रति वह ना केवल आंख मूंदे पड़ी है, अपितु वोट बैंक की खातिर उन्हें समुचित सुरक्षा और राजाश्रय भी प्रदान कर रही है।

हर बड़े बाबा, महात्मा और कथित जगतगुरु के यहां नेता, अभिनेता और उद्योगपति को आसानी से देखा जा सकता है। इनके कथा, प्रवचन और सत्संगों का श्रीगणेश यजमानों से ही शुरू होता है। मान ना मान, मैं तेरा यजमान।।

साधु संतों का सम्मान हमारी सनातनी परम्परा रही है। जो भी संत हिंदू समाज और सनातन धर्म की बात करेगा, हमारी आस्था स्वाभाविक रूप से उधर ही दौड़ पड़ेगी। पहले मुफ्त भंडारे और सत्संग और बाद में पहले ब्रेन वाश और तत्पश्चात् सत्यानाश। और शायद यही हुआ होगा हाथरस में।

अपने आपको श्री हरि विष्णु का अवतार कहने वाले इस पाखंडी सूरज पाल की मिट्टी से तिलक करने के चक्कर में हाथरस के कितने अभागे इंसानों को अपने प्राणों का बलिदान देना पड़ा। देश की मिट्टी और आस्था को कलंकित करने वाला यह शैतान क्या अदृश्य होकर पूरे देश को बेवकूफ बनाएगा।।

एक मछली सारे तालाब को सदियों से गंदा करती चली आ रही है और बदनाम बेचारी अन्य दूध सी धुली मछलियां हो रही हैं। यह एक गंदी मछली ही शाश्वत और सनातन है। अगर इसका इलाज हो जाए, तो शायद आस्था का तालाब पूरी तरह स्वच्छ और निर्मल हो जाए। और अगर फिर भी पूरा तालाब ही गंदा रहा, तब तो सभी मछलियों की खैर नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #239 ☆ बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 239 ☆

☆ बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक… ☆

‘कुछ अदालतें वक्त की होती हैं, क्योंकि जब समय जवाब देता है, ग़वाहों की ज़रूरत नहीं होती और सीधा फैसला होता है’ कोटिशः सत्य हैं और आजकल इनकी दरक़ार है। आपाधापी व दहशत भरे माहौल में चहुँओर अविश्वास का वातावरण तेज़ी से फैल रहा है।  हर दिन समाज में घटित होने वाली फ़िरौती, दुष्कर्म व हत्या के हादसों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। संवेदनहीनता इस क़दर बढ़ रही है कि इंसान इनका विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाता बल्कि ग़वाही देने से भी भयभीत रहता है, क्योंकि वह हर पल दहशत में जीता है और सदैव आशंकित रहता है कि यदि उसने ऐसा कदम उठाया तो वह और उसका परिवार सुरक्षित नहीं रहेगा। सो! उसे ना चाहते हुए भी नेत्र मूँदकर जीना पड़ता है।

आजकल किडनैपिंग अर्थात् अपहरण का धंधा ज़ोरों पर है। अपहरण बच्चों का हो, युवकों-यवतियों का– अंजाम एक ही होता है। फ़िरौती ना मिलने पर उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है या हाथ-पाँव तोड़कर बच्चों से भीख मंगवाने का धंधा कराया जाता है या ग़लत धंधे में झोंक दिया जाता है, जहाँ वे दलदल में फंस का रह जाते हैं। जहाँ तक बालिकाओं के अपहरण का संबंध है, उनकी अस्मिता से खिलवाड़ होता है और उन्हें दहिक शोषण के धंधे में धकेल कोठों पर पहुंचा दिया जाता है। वहाँ उन्हें 30-40 लोगों की हवस का शिकार बनना पड़ता है। रात के अंधेरे में सफेदपोश लोग उन बंद गलियों में आते हैं, अपनी दैहिक क्षुधा शांत कर भोर होने से पहले लौट जाते हैं, ताकि वे समाज के समक्ष दूध के धुले बने रहें और सारा इल्ज़ाम उन  मासूम बालिकाओं व कोठों के संचालकों पर रहे।

जी हाँ! यही है दस्तूर-ए-दुनिया अर्थात् ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात् दोषारोपण सदैव दुर्बल व्यक्ति पर ही किया जाता है, क्योंकि उसमें विरोध करने की शक्ति नहीं होती और यह सबसे बड़ा अपराध है। गीता में यह उपदेश दिया गया है कि ज़ुल्म करने वाले से बड़ा दोषी ज़ुल्म सहने वाला होता है। अमुक स्थिति में हमारी सहनशक्ति हमारे दुश्मन होती है, अर्थात् इंसान स्वयं अपना शत्रु बन जाता है, क्योकि वह ग़लत बातों का विरोध करने का सामर्थ्य नहीं रखता। मेरे विचार से जिस व्यक्ति में ग़लत को ग़लत कहने का साहस नहीं होता, उसे जीने का अधिकार नहीं होना चाहिए। सत्य की स्वीकार्यता व्यक्ति का सर्वोत्तम गुण है और इसे अहमियत ना देना जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है।

आजकल लिव-इन का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसमें दोष युवतियों का है, जो अपने माता-पिता के प्यार-दुलार को दरक़िनार कर, उनकी अस्मिता को दाँव पर लगाकर एक अनजान व्यक्ति पर अंधविश्वास कर चल देती है उसके साथ विवाह पूरव उसके साथ रहने ताकि वह उसे देख-परख व समझ सके। परंतु कुछ समय पश्चात् जब वह पुरुष साथी से विवाह करने को कहती है, तो वह उसकी आवश्यकता को नकारते हुए यही कहता है कि विवाह करके ज़िम्मेदारियों का बोझ ढोनेने का प्रयोजन क्या है– यह तो बेमानी है। परंतु उसके आग्रह करने पर प्रारंभ हो जाता है मारपीट का सिलसिला, जहाँ उसे शारीरिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। श्रद्धा व आफ़ताब, निक्की व साहिल जैसे जघन्य अपराधों में दिन-प्रतिदिन इज़ाफा होता जा रहा है। युवतियों के शरीर के टुकड़े करके फ्रिज में रखना, उन्हें निर्जन स्थान पर जाकर फेंकना इंसानियत की सभी हदों को पार कर जाता है। साहिल का निक्की की हत्या करने के पश्चात् दूसरा विवाह रचाना सोचने पर विवश कर देता है कि इंसान इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? यह तो संवेदनशून्यता की पराकाष्ठा है। मैं इस अपराध के लिए उन लड़कियों को दोषी मानती हूँ, जो हमारी सनातन संस्कृति का अनुकरण न कर पाश्चात्य की जूठन स्वीकार करने में फख़्र महसूसती हैं। वैसे ही पित्तृसत्तात्मक युग में हम यह  अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि पुरुष की सोच बदल सकती है। वह तो पहले ही स्त्री को अपनी धरोहर / बपौती समझता था। आज भी वह उसे उसका मालिक समझता है तथा जब चाहे उसे घर से बाहर का रास्ता दिखा सकता है। उसकी स्थिति खाली बोतल के समान है, जिसे वह बीच राह फेंक सकता है; वह उस पर शक़ के दायरे में अवैध संबंधों का  इल्ज़ाम लगा पत्नी व बच्चों की निर्मम हत्या कर सकता है।  वास्तव में पुरुष स्वयं को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, ख़ुदा समझता है, क्योंकि उसे कन्या-भ्रूण को नष्ट करने का अधिकार प्राप्त है।

‘औरत में जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया / जब जी चाहा मसला-कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।’ ये पंक्तियाँ औरत की नियति को उजागर करती हैं। वह अपनी जीवन-संगिनी को अपने दोस्तों के हम-बिस्तर बनाने का जघन्य अपराध कर सकता है। वह पत्नी पर अकारण इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा सकता है। वैसे भी उस मासूम को अपना पक्ष रखने का अधिकार प्रदान ही कहाँ किया जाता है? कचहरी में भी क़ातिल को भी अपना पक्ष रखने व स्पष्टीकरण देने का अधिकार होता है। इतना ही नहीं एक दुष्कर्मी पैसे व रुतबे के बल पर उस मासूम की जिंदगी के सौदे की पेशकश करने को स्वतंत्र है और उसके माता-पिता उसे दुष्कर्मी के हाथों सौंपने को तैयार हो जाते हैं।

वास्तव में दोषी तो उसके माता-पिता हैं जो अपनी नादान बच्ची पर भरोसा नहीं करते। वैसे भी वे अंतर्जातीय विवाह की एवज़ में कभी ऑनर किलिंग करते हैं, तो कभी दुष्कर्म का हादसा होने पर समाज में निंदा के भय से उसका तिरस्कार कर देते हैं। उस स्थिति में वे भूल जाते हैं कि वे उस निर्दोष बच्ची के जन्मदाजा हैं। वे उसकी मानसिक स्थिति को अनुभव न करते हुए उसे घर में कदम तक नहीं रखने देते। अच्छा था, तुम मर जाती और उसकी ज़िंदगी नरक बन जाती है। अक्सर ऐसी लड़कियाँ आत्महत्या कर लेती हैं या हर दिन ना जाने वे कितने सफेदपोश मनचलों की हमबिस्तर बनने को विवश होती हैं। काश! हम अपने बेटे- बेटियों को बचपन से यह एहसास दिला पाते कि वे अपने संस्कारों अथवा मिट्टी से जुड़े रहते व सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करते। वे उसे आश्वस्त कर पाते कि यह घर उसका भी है और वह जब चाहे, वहाँ आ सकती है।

यदि हम परमात्मा की सत्ता पर विश्वास रखते हैं, तो हमें इस तथ्य को स्वीकारना पड़ेगा कि परमात्मा की लाठी में आवाज़ नहीं होती और कुछ फैसले रब्ब के होते हैं और जब समय जवाब देता है तो ग़वाहों की ज़रूरत नहीं होती– सीधा फैसला होता है। कानून तो अंधा व बहरा है, जो गवाहों पर आश्रित होता है और उनके न मिलने पर जघन्य अपराधी भी छूट जाते हैं और निकल पड़ते हैं अगले शिकार की तलाश में और यह सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता। हमारे यहाँ फ़ैसले बरसों बाद होते हैं, जब उनकी अहमियत ही नहीं रहती। इतना ही नहीं, मी टू ने भी अपना खाता खोल दिया है। पच्चीस वर्ष पहले घटित हादसे को भी उजागर कर, आरोपी पर इल्ज़ाम लगा हंसते-खेलते परिवार की खुशियों में सेंध लगा लील सकती हैं; उन्हें कटघरे में खड़ा कर सकती हैं। वैसे यह दोनों स्थितियाँ विस्फोटक हैं, लाइलाज हैं, जिसके कारण समाज में विसंगति व विद्रूपताएं निरंतर बढ़ गई हैं, जो स्वस्थ समाज के लिए घातक हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 410 ⇒ पूजा, आरती और प्रार्थना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पूजा, आरती और प्रार्थना।)

?अभी अभी # 410 ⇒ पूजा, आरती और प्रार्थना? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ भारतीय नारियां, आस्था एवं, संस्कार वश, अपने पति को ही परमेश्वर मानती हुई, तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा की तर्ज पर, पति को ही पति देव मान बैठती हैं। पतिदेव भी जानते हैं, वे किसी पूजा के पति तो हो सकते हैं, परमेश्वर नहीं। अतः मंदिर अथवा घर में, श्रद्धानुसार तथा सुविधानुसार स्वयं भी पूजा – पाठ किया करते हैं।

जहां मंदिर होता है, भगवान होता है और भक्त होता है, वहां पूजा में दीप भी प्रज्वलित होता है, धूप बत्ती भी होती है, और आरती भी होती है। जितने भगवान, उतनी आरती ! ईश्वर एक है, वह सभी ऐश्वर्यों का मालिक है, दाता है।

वह जगत का ईश, जगदीश है, परम पिता परमेश्वर है। उसका गुणगान ही आरती है। ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे। भक्त जनों के संकट, पल में दूर करे। कष्ट मिटे तन का, स्वामी कष्ट मिटे तन का।

जगदीश जी की आरती के वक्त, हर श्रद्धालु दीन, हीन, याचक बन जाता है। भावावेश में वह खुद को, “मैं मूरख, खल कामी” तक कह बैठता है। वह जानता है, आरती में सब चलता है। समर्पण और शरणागति का यह भाव घंटियों और तालियों से और पुष्ट होता रहता है। वह कभी आंखें बंद करता है, कभी खोलता है, उसे आरती में आनंद आने लगता है। सभी आरतियों का कॉपीराइट स्वामी शिवानंद जी के पास होता है। स्वामी शिवानंद जी की कोई सी भी आरती आप गाएं, सुख संपत्ति घर आए। ।

तन, मन, धन सब अर्पण करने के बाद जब आरती के पश्चात् वह प्रसाद ग्रहण करता है, उसे लगता है, उसने जग जीत लिया। एकाएक वह एक साधारण, समझदार इंसान बन जाता है। गाड़ी स्टार्ट कर अपने काम धंधे में लग जाता है। अब उसे कर्म करना है। मन लगाकर धन कमाना है। कल फिर मुलाकात होती है आरती में।

पूजा आरती हो अथवा संध्या आरती, हार फूल, दिया बाती और प्रसाद का भोग तो आराध्य को लगता ही है। ईश्वर की, सर्व शक्तिमान की आराधना का एक और तरीका है, जिसे प्रार्थना कहते हैं। भक्ति हो अथवा प्रार्थना, वह सकाम भी हो सकती है और निष्काम भी। प्रार्थना में केवल मन ही पर्याप्त है। ।

मन में बसी किसी भी मूरत से आप प्रार्थना के जरिए आत्म – निवेदन कर सकते हैं। अपने कल्याण अथवा किसी के कष्ट दूर करने के लिए दुआ कर सकते हैं। सामूहिक प्रार्थना में बड़ा बल होता है। काश हम प्रार्थना में खुद के लिए नहीं, सब के लिए कुछ मांगें। जहां हैं, वहीं से आंख बंद करके जो दीन – दुःखी, अशक्त बीमार अथवा लाचार हैं, उनकी खुशहाली की प्रार्थना अगर निःस्वार्थ रूप से की जाए, तो शायद पत्थर रूपी भगवान भी पिघल जाए। प्रार्थना में बल है, बिना प्रार्थना के हर इंसान निर्बल है।

पूजा पाठ, आरती करें ना करें, प्रार्थना अवश्य करें, खुद के लिए ही नहीं, किसी और के लिए भी। ज्ञात, अज्ञात सब पर प्रार्थना का असर होता है। प्रार्थना की कोई इबारत नहीं, कोई शब्द नहीं। सच्चे मन से जो पुकार निकलती है, बस वही प्रार्थना है, इबादत है, पूजा है, आरती है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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