हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 203 ☆ हरो जन की पीर… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना हरो जन की पीर। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 203 ☆ हरो जन की पीर

शोर गुल से नींद टूट गयी, आँखें मलते हुए ज्ञानचंद्र जी चल दिये कि चलो भई लग जाओ अपने काम पर। इनकी विशेषता है कि बिना ज्ञान दान दिए इनको भोजन हज़म नहीं होता। ये सत्य है कि जब हाजमा खराब हो तो पूरे माहौल को बिगड़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगता।

इधर ध्यानचंद्र जी तो अपने नामारूप हैं, ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर ध्यान योग किए बिना उन्हें चैन कहाँ। इतना शोर उनके ध्यान को भंग करने के लिए पर्याप्त था, वे योगासन छोड़कर ऐसे उठे मानो इंद्र ने इंद्रासन छोड़ा हो।

दोनों के प्रिय समयलाल जी की माँ फुरसत देवी आज पूरे सौ वर्ष की हो गयीं थी, जिससे सुबह से ही अखंड मानस पाठ की तैयारी चल रही थी इधर साधना देवी भी मगन होकर सासू माँ के जी हजूरी में जीवन बिता देने की बात छेड़ बैठीं थीं।

आजकल तो रात बारह बजे से ही जन्मदिन मनाने लगते हैं, सो इनका भी मना, केक काटा गया, फेसबुक पर फ़ोटो अपलोड हुई और लाइक का जो दौर चला वो चलता ही जा रहा है एक तो शुभ सूचना दूसरा समयलाल के मोबाइल प्रेमी बेटे बबलू ने सारे दोस्तों को टैग जो कर दिया था।

इनके यहाँ तो मेहमान बारह बजे से आने लगेगें, हाँ भाई पड़ोस का भी पूरे दो दिन का चूल न्यौता है। ज्ञानचंद्र जी मुखिया बन कर सबको समझाइश देने लगे तो ध्यानचंद्र भी कहाँ चूकने वाले थे उन्होंने पूरे अधिकार से कहा ओ बबलू बेटा जरा कड़क चाय तो लाओ और हाँ वो जो रात में मठरी और कचौड़ी बनी है उसे भी ले आना, ससुरी महक भी ऐसी थी कि रात भर सो नहीं पाए और ध्यान तो लगवय नहीं कीन्ह।

ज्ञानचंद्र जी ने भी आराम से बैठते हुए कहा अरे भाई जो लोग पूजा में संकल्प लेगें वो केवल फलाहारी ही करें। समयलाल तुम तो केवल पूजा में बैठना सारा काम हम लोग देख लेगें आखिर पड़ोसी होते किसलिए हैं।

अब ये दोनों साठा तो पाठा की कहावत को चरितार्थ करते हुए बाहर पड़े तखत पर बैठ गए। बड़ी मुश्किल से एक बजे दोपहर में गए और पंद्रह मिनट में वापस आ कर फिर से आसन जमा कर बैठे ही थे कि बबलू आया उसने कहा चाचा जी खाना खा लीजिए।

अरे पहले बच्चों को खिलाओ और हाँ कन्या का मुहँ जरूर जुठला देना, बिना इनकी पूजा कोई कार्य सिद्ध नहीं होता समझाते हुए ज्ञानचंद्र ने कहा।

ध्यानचंद्र ने माथे में बल लाते हुए कहा अब तो नवरात्रि में नौ कन्या भी नहीं मिलती, छोटे शहरों में लोग भेज भी देते हैं कन्या पूजन हेतु अष्टमी व नवमी के दिन, बाकी यहाँ तो लगता है मूर्ति रखनी पड़ेगी कन्याओं की।

अरे सब कलयुग की महिमा है, धार्मिक होते हुए मगन लाल जी ने कहा जो बड़े ध्यान से दोनों की बातें ऐसे सुन रहे थे जैसे कथा पाठ चल रहा हो।

पंडित जी का ध्यान भी इन्हीं बुजुर्गों की तरफ था। उन्होंने और जोर- जोर से मंत्र जाप शुरू कर दिया और पूरी ताकत के साथ माइक से सबको संबोधित करते हुए कहा कि सब लोग यहाँ आकर प्रणाम करें व्यास पीठ को, अपनी बात को बल देने हेतु कुछ संस्कृत में श्लोक भी पढ़ दिए, सबने भी ऐसे व्यक्त किया जैसे अर्थ समझ में आ गया हो पर सच्ची बात तो यही है कि ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति बस यही अच्छा लगता है क्योंकि इतना अनुभव आजतक के सत्संग से हुआ है कि इसके बाद ही कार्यक्रम पूर्णता को प्राप्त होता है फिर आरती होकर प्रसाद मिल जाता है।

सबके के साथ ये दोनों बंधु भी पहुँचे जो सुबह से ही सच्चे पड़ोसी धर्म निभा रहे थे, इनके आभामंडल की रौनक तो देखते ही बन रही थी अब तो कई दिनों तक समयलाल के यहाँ ही इनका बसेरा होगा जब तक कि चाय के साथ मिठाई व नमकीन मिलना बंद नहीं होगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 290 ☆ आलेख – बदलते समय में साहित्य में लोकतांत्रिक मूल्य ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 290 ☆

? आलेख – बदलते समय में साहित्य में लोकतांत्रिक मूल्य ?

लोकतंत्र एक नैसर्गिक मानवीय मूल्य होता है । इसलिए, वसुधैव कुटुम्बकम् की वैचारिक उद्घोषणा करने वाले वैदिक भारतीय साहित्य में लोकतांत्रिक मूल्य खोजना नहीं पड़ता, यह अव्यक्त रूप से भारतीय साहित्य में समाहित है. वैज्ञानिक अनुसंधानो, विशेष रूप से संचार क्रांति जनसंचार (मीडिया एवं पत्रकारिता) एवं सूचना प्राद्योगिकी (इलेक्ट्रानिक एवं सोशल मीडिया) तथा आवागमन के संसाधनो के विकास ने तथा विभिन्न देशो की अर्थव्यवस्था की परस्पर प्रत्यक्ष व परोक्ष निर्भरता ने इस सूत्र वाक्य को आज मूर्त स्वरूप दे दिया है कि दुनिया एक समदर्शी गांव है. हम भूमण्डलीकरण के युग में जी रहे हैं. सारा विश्व कम्प्यूटर चिप और बिट में सिमट गया है. लेखन, प्रकाशन, पठन पाठन में नई प्रौद्योगिकी की दस्तक से आमूल परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं. नई पीढ़ी अब बिना कलम कागज के कम्प्यूटर पर ही लिख रही है, प्रकाशित हो रही है, और पढ़ी जा रही है. ब्लाग तथा सोशल मीडीया वैश्विक पहुंच के साथ वैचारिक अभिव्यक्ति के सहज, सस्ते, सर्वसुलभ, त्वरित साधन बन चुके हैं. ये संसाधन स्वसंपादित हैं, अतः इस माध्यम से प्रस्तुति में मूल्यनिष्ठा अति आवश्यक है, सामाजिक व्यवस्था के लिये यह वैज्ञानिक उपलब्धि एक चुनौती बन चुकी है. सामाजिक बदलाव में सर्वाधिक महत्व विचारों का ही होता है.

लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के तीन संवैधानिक स्तंभो के बाद पत्रकारिता को चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता दी गई क्योकि पत्रकारिता वैचारिक अभिव्यक्ति का माध्यम होता है, आम आदमी की नई प्रौद्योगिकी तक पहुंच और इसकी त्वरित स्वसंपादित प्रसारण क्षमता के चलते ब्लाग जगत व सोशल मीडिया को लोकतंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में देखा जा रहा है.

वैश्विक स्तर पर पिछले कुछ समय में कई सफल जन आंदोलन सोशल मीडिया के माध्यम से ही खड़े हुये हैं. कई फिल्मो में भी सोशल मीडिया के द्वारा जनआंदोलन खड़े करते दिखाये गये हैं. हमारे देश में भी बाबा रामदेव, अन्ना हजारे के द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध तथा दिल्ली के नृशंस सामूहिक बलात्कार के विरुद्ध बिना बंद, तोड़फोड़ या आगजनी के चलाया गया जन आंदोलन, और उसे मिले जन समर्थन के कारण सरकार को विवश होकर उसके सम्मुख किसी हद तक झुकना पड़ा. इन आंदोलनो में विशेष रुप से नई पीढ़ी ने इंटरनेट, मोबाइल एस एम एस और मिस्डकाल के द्वारा अपना समर्थन व्यक्त किया. मूल्यनिष्ठा के अभाव में ये त्वरित प्रसारण के नये संसाधन अराजकता भी फैला सकते हैं, हमने देखा है कि किस तरह कुछ समय पहले फेसबुक के जरिये पूर्वोत्तर के लोगो पर अत्याचार की झूठी खबर से दक्षिण भारत से उनका सामूहिक पलायन होने लगा था. स्वसंपादन की सोशल मीडिया की शक्ति उपयोगकर्ताओ से मूल्यनिष्ठा व परिपक्वता की अपेक्षा रखती है. समय आ गया है कि फेक आई डी के जरिये सनसनी फैलाने के इलेक्ट्रानिक उपद्रव से बचने के लिये इंटरनेट आई डी का पंजियन वास्तविक पहचान के जरिये करने के लिये कदम उठाये जावें.

आज जनसंचार माध्यमो से सूचना के साथ ही साहित्य की अभिव्यक्ति भी हो रही है. साहित्य समय सापेक्ष होता है. साहित्य की इसी सामयिक अभिव्यक्ति को आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी जी ने कहा था कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. आधुनिक तकनीक की भाषा में कहें तो जिस तरह डैस्कटाप, लैपटाप, आईपैड, स्मार्ट फोन विभिन्न हार्डवेयर हैं जो मूल रूप से इंटरनेट के संवाहक हैं एवं साफ्टवेयर से संचालित हैं. जनसामान्य की विभिन्न आवश्यकताओ की सुविधा हेतु इन माध्यमो का उपयोग हो रहा है. कुछ इसी तरह साहित्य की विभिन्न विधायें कविता, कहानी, नाटक, वैचारिक लेख, व्यंग, गल्प आदि शिल्प के विभिन्न हार्डवेयर हैं, मूल साफ्टवेयर संवेदना है, जो इन साहित्यिक विधाओ में रचनाकार की लेखकीय विवशता के चलते अभिव्यक्त होती है. परिवेश व समाज का रचनाकार के मन पर पड़ने प्रभाव ही है, जो रचना के रूप में जन्म लेता है. लेखन की सारी विधायें इंटरनेट की तरह भावनाओ तथा संवेदना की संवाहक हैं. साहित्यकार जन सामान्य की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है. बहुत से ऐसे दृश्य जिन्हें देखकर भी लोग अनदेखा कर देते हैं, रचनाकार के मन के कैमरे में कैद हो जाते है. फिर वैचारिक मंथन की प्रसव पीड़ा के बाद कविता के भाव, कहानी की काल्पनिकता, नाटक की निपुणता, लेख की ताकत और व्यंग में तीक्ष्णता के साथ एक क्षमतावान रचना लिखी जाती है. जब यह रचना पाठक पढ़ता है तो प्रत्येक पाठक के हृदय पटल पर उसके स्वयं के अनुभवो एवं संवेदनात्मक पृष्ठभूमि के अनुसार अलग अलग चित्र संप्रेषित होते हैं.

वर्तमान में विश्व में आतंकवाद, देश में सांप्रदायिकता, जातिवाद, सामाजिक उत्पीड़न तथा आर्थिक शोषण आदि के सूक्ष्म रूप में हिंसा की मनोवृत्ति समाज में तेज़ी से फैलती जा रही है, यह दशा हमारी शिक्षा, समाज में नैतिक मूल्यो के हृास, सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं की गतिविधियो और हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओ व आर्थिक प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगाती है, साथ ही उन सभी प्रक्रियाओं को भी कठघरे में खड़ा कर देती है जिनका संबंध हमारे संवेदनात्मक जीवन से है. समाज से सद्भावना व संवेदना का विलुप्त होते जाना यांत्रिकता को जन्म दे रहा है. यही अनेक सामाजिक बुराईयो के पनपने का कारण है. स्त्री भ्रूण हत्या, नारी के प्रति बढ़ते अपराध, चरित्र में गिरावट, चिंतनीय हैं. हमारी सभी साहित्यिक विधाओं और कलाओ का औचित्य तभी है जब वे समाज के सम्मुख उपस्थित ऐसे ज्वलंत अनुत्तरित प्रश्नो के उत्तर खोजने का यत्न करती दिखें. समाज की परिस्थितियो की अवहेलना साहित्य और पत्रकारिता कर ही नही सकती. क्योकि साहित्यकार या पत्रकार का दायित्व है कि वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ स्थितियों में भी समाज के लिये मार्ग प्रशस्त करे. समाज का नेतृत्व करने वालो को भी राह दिखाये.

राजनीतिज्ञो के पास अनुगामियो की भीड़ होती है पर वैचारिक दिशा दर्शन के लिये वह स्वयं साहित्य का अनुगामी होता है. साहित्यकार का दायित्व है और साहित्य की चुनौती होती है कि वह देश काल परिस्थिति के अनुसार समाज के गुण अवगुणो का अध्ययन एवं विश्लेषण करने की अनवरत प्रक्रिया का हिस्सा बना रहे और शाश्वत तथ्यो का अन्वेषण कर उन्हें लोकप्रिय तरीके से समुचित विधा में प्रस्तुत कर समाज को उन्नति की ओर ले जाने का वैचारिक मार्ग बनाता रहे.समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का दायित्व मीडिया व पत्रकारिता का ही है. इसके लिये साहित्यिक संसाधन उपलब्ध करवाना ही नही, राजनेताओ को ऐसा करने के लिये अपनी लेखनी से विवश कर देने की क्षमता भी लोकतांत्रिक प्रणाली में पत्रकारिता के जरिये रचनाकार को सुलभ है.

प्राचीन शासन प्रणाली में यह कार्य राजगुरु, ॠषि व मनीषी करते थे.उन्हें राजा स्वयं सम्मान देता था. वे राजा के पथ दर्शक की भूमिका का निर्वाह करते थे.हमारे महान ग्रंथ ऐसे ही विचारको ने लिखे हैं जिनका महत्व शाश्वत है. समय के साथ बाद में कुछ राजाश्रित कवियो ने जब अपना यह मार्गदर्शी नैतिक दायित्व भुलाकर केवल राज स्तुति का कार्य संभाल लिया तो साहित्य को उन्हें भांड कहना पड़ा. उनकी रचनाओ ने भले ही उनको किंचित धन लाभ करवा दिया हो पर समय के साथ ऐसी लेखनी का साहित्यिक मूल्य स्थापित नही हो सका. कलम की ताकत तलवार की ताकत से सदा से बड़ी रही है.वीर रस के कवि राजसेनाओ का हिस्सा रह चुके हैं, यह तथ्य इस बात का उद्घोष करता है कि कलम के प्रभाव की उपेक्षा संभव नही. जिस समय में युद्ध ही राज धर्म बन गया था तब इस तरह की वीर रस की रचनायें हुई.जब विदेशी आक्रांताओ के द्वारा हमारी संस्कृति का दमन हो रहा था तब तुलसी हुये. भक्तिरस की रचनायें हुई. अकेली रामचरित मानस, भारत से दूर विदेशो में ले जाये गये मजदूरो को भी अपनी संस्कृति की जड़ो को पकड़े रखने का संसाधन बनी.

जैसे जैसे नई कम्प्यूटर साक्षर पीढ़ी बड़ी होगी, स्मार्ट सिटी बनेंगी, इंटरनेट और सस्ता होगा तथा आम लोगो तक इसकी पहुंच बढ़ेगी यह वर्चुएल लेखन और भी ज्यादा सशक्त होता जायेगा, एवं भविष्य में लेखन क्रांति का सूत्रधार बनेगा. युवाओ में बढ़ी कम्प्यूटर साक्षरता से उनके द्वारा देखे जा रहे ब्लाग के विषय युवा केंद्रित अधिक हैं.विज्ञापन, क्रय विक्रय, शैक्षिक विषयो के ब्लाग के साथ साथ स्वाभाविक रूप से जो मुक्ताकाश कम्प्यूटर और एंड्रायड मोबाईल, सोशल नेट्वर्किंग, चैटिंग, ट्विटिंग, ई-पेपर, ई-बुक, ई-लाइब्रेरी, स्मार्ट क्लास, ने सुलभ करवाया है, बाजारवाद ने उसके नगदीकरण के लिये इंटरनेट के स्वसंपादित स्वरूप का भरपूर दुरुपयोग किया है. मूल्यनिष्ठा के अभाव में हिट्स बटोरने हेतु उसमें सैक्स की वर्जना, सीमा मुक्त हो चली है. पिछले दिनो वैलेंटाइन डे के पक्ष विपक्ष में लिखे गये ब्लाग अखबारो की चर्चा में रहे.

प्रिंट मीडिया में चर्चित ब्लाग के विजिटर तेजी से बढ़ते हैं, और अखबार के पन्नो में ब्लाग तभी चर्चा में आता है जब उसमें कुछ विवादास्पद, कुछ चटपटी, बातें होती हैं, इस कारण अनेक लेखक गंभीर चिंतन से परे दिशाहीन होते भी दिखते हैं. हिंदी भाषा का कम्प्यूटर लेखन साहित्य की समृद्धि में बड़ी भूमिका निभाने की स्थिति में हैं, ज्यादातर हिंदी ब्लाग कवियों, लेखको, विचारको के सामूहिक या व्यक्तिगत ब्लाग हैं जो धारावाहिक किताब की तरह नित नयी वैचारिक सामग्री पाठको तक पहुंचा रहे हैं. पाडकास्टिंग तकनीक के जरिये आवाज एवं वीडियो के ब्लाग, मोबाइल के जरिये ब्लाग पर चित्र व वीडियो क्लिप अपलोड करने की नवीनतम तकनीको के प्रयोग तथा मोबाइल पर ही इंटरनेट के माध्यम से ब्लाग तक पहुंच पाने की क्षमता उपलब्ध हो जाने से इलेक्ट्रानिक लेखन और भी लोकप्रिय हो रहा है.

आज का लेखक और पत्रकार राजाश्रय से मुक्त कहीं अधिक स्वतंत्र है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार हमारे पास है. लेखन, प्रकाशन, व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन अधिक सुगम हैं. अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है. माइक्रो ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है. पर आज नई पीढ़ी में पठनीयता का तेजी हृास हुआ है. किताबो की मुद्रण संख्या में कमी हुई है. आज चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये.

पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की जाये. आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है, प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है.अखबारो में नये स्तंभ बनाये जा सकते हैं. यदि समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है, तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियो को या व्यंग के कटाक्ष करती क्षणिकाओ को साहित्यिक विधा की मान्यता दी जा सकती है? यदि पाठक किताबो तक नही पहुँच रहे तो क्या किताबो को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे ? क्या टी वी चैनल्स पर रचनाओ की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे ? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं.

जो भी हो हमारा समय उस परिवर्तन का साक्षी है जब समाज में कुंठाये, रूढ़ियां, परिपाटियां टूट रही हैं. समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है, अतः हमारी पीढ़ी की चुनौती अधिक है. आज हम जितनी मूल्यनिष्ठा और गंभीरता से अपने साहित्यिक दायित्व में लोक मूल्यों का निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 409 ⇒ नाक रगड़ेंगे, गिड़गिड़ाएंगे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नाक रगड़ेंगे, गिड़गिड़ाएंगे।)

?अभी अभी # 409 ⇒ नाक रगड़ेंगे, गिड़गिड़ाएंगे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

नाक रगड़ेंगे, गिड़गिड़ाएंगे, आपके कदमों में ही सर झुकाएंगे। केवल अनन्य प्रेम और शरणागति भाव में ही यह संभव है। बिना लगन और समर्पण के यह संभव नहीं। बच्चे बहुत छोटे होते हैं, और उतने ही छोटे उनके हाथ। लेकिन जब आप उनसे पूछते हैं, कित्ती चॉकलेट खाओगे, तो वे अपने दोनों छोटे छोटे हाथ आसमान में

फैला देते हैं, इत्ता। यानी उनकी चाह असीम है, अनंत है। इतना और जितना को कोई कभी नाप नहीं पाया। शायद इसकी शुरुआत कुछ कुछ ऐसी होती हो ;

तू ही तू है इन आँखों में

और नहीं कोई दूजा

तुझ को चाहा तुझ को सराहा

और तुझे ही पूजा

तेरे दर को मान के मंदिर

झुकते रहे हम जितना

कौन झुकेगा इतना

कौन झुकेगा इतना

हमने तुझको प्यार किया है जितना

कौन करेगा इतना ;

जब हममें संसारी भाव होता है, तो हम किसी के आगे झुकते नहीं, हमारा मान सम्मान, अहंकार, अस्मिता और स्वाभिमान सभी ताल ठोंककर मैदान में उतर जाते हैं, सीना तना, मस्तक ऊंचा और भौंहे भी तनी हुई।।

लेकिन मंदिर में पहुंचते ही हम एकदम भक्त बन जाते हैं, आठों अंगों सहित साष्टांग दंडवत करते हैं। इतने दीन हीन हो जाते हैं, कि हमें अपने सभी विषय विकार याद आ जाते हैं,

बाहर ज्ञान बांटने वाले, वहां अपने आप को मूरख और अज्ञानी कहने लगते हैं। झुककर आचमन लेते हैं, प्रसाद माथे पर लगाकर ग्रहण करते हैं और जैसे ही बाहर जाकर जूते पहन कार में बैठते हैं, अपने पुराने रंग में आ जाते हैं।

दोहरी जिंदगी का यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। हमारा असली रूप कौन सा होता है, मंदिर के अंदर वाला, अथवा मंदिर के बाहर जगत वाला। हम तो खैर जैसे भी हैं, अपने इन दोनों रूपों से भली भांति अवगत हैं, लेकिन समस्या तब खड़ी होती है, जब किसी महात्मा की परीक्षा की घड़ी सामने होती है।।

जिस तरह एक राजनेता लाखों प्रशंसकों की भीड़ में किसी अपराध में जेल जाता है, तो उसके चेहरे पर कोई पश्चाताप का भाव नहीं होता, क्योंकि वह और उसके प्रशंसक जानते हैं, सदा सत्य की ही विजय होती है। जमानत मिलने पर भी जश्न मनाया जाता है।

संत महात्मा तो ईश्वर के अवतार होते हैं। यह कलयुग है, ईश्वर सबकी परीक्षा लेता है। सच्चा संत और महात्मा वही, जो हर परीक्षा और संकट में मुस्कुराता रहे, और अपने परमात्मा का स्मरण करता रहे। सत्यमेव जयते। धर्म की हमेशा विजय हुई है।।

आप शायद मेरी बात को गंभीरता से ना लें, लेकिन हर सुबह, मैं अपने इष्ट के आगे, यानी उसके दरबार में, नाक रगड़ता हूं और गिड़गिड़ाता हूं और उसके कदमों में झुककर, जाने अनजाने अपने किए अपराधों के लिए क्षमा मांगता हूं।

घर बाहर का अंतर मिटाना ही सच्ची ईश्वर सेवा है। हो सकता है, धीरे धीरे अंदर बाहर का अंतर भी मिट जाए। ईश्वर नहीं चाहता, आप रोज़ मंदिर आओ और उसके आगे नाक रगड़ो, जहां हो वही उसे महसूस करो। उसका मात्र स्मरण ही सत्य का मार्ग प्रशस्त करेगा। अपने अंदर उसे महसूस करना ही चित्त शुद्धि का मार्ग है।

व्यर्थ बाबाओं के यहां भीड़ बढ़ाना, अपने कल्याण के लिए उनको माया में उलझाना ही है। जब उनकी भी उलझन बढ़ जाती है तो वे भी मुस्कुराते हुए, अपने लाखों अनुयायियों के बीच, उसके दर पर नाक रगड़कर अपनी नाक बचा लेते हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 408 ⇒ रीगल से वोल्गा तक… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रीगल से वोल्गा तक।)

?अभी अभी # 408 ⇒ रीगल से वोल्गा तक? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज जिसे मेरे शहर का रीगल चौराहा कहा जाता है। वहां कभी वास्तव में एक जीता जागता रीगल थियेटर था। और उसके पास एक मिल्की वे टाकीज़ भी। और इन दोनों के बीच। रीगल थियेटर के परिसर में ही एक शाकाहारी वोल्गा रेस्टोरेंट था।

जो लोग काम से काम रखते हैं। वे व्यर्थ में नाम के अर्थ में अपना समय नष्ट नहीं करते। रीगल टेलर्स भी हो सकता है और रीगल इंडस्ट्रीज भी। कई बड़े शहरों में होता था कभी रीगल सिनेमा। इसमें कौन सी बड़ी बात है। वैसे रीगल का मतलब शाही होता है।।

हमारे घर में मैं बचपन से गर्म पानी की एक बॉटल देखता आ रहा हूं। जिसे ईगल फ्लास्क कहते थे।और उस पर एक पक्षी की तस्वीर होती थी।

मां जब अस्पताल जाती थी। तो उसमें बीमार सदस्य के लिए गर्म चाय ले जाती थी। और पिताजी के लिए उसमें रात में।पीने के लिए।  गर्म पानी भरा जाता था। बाद में पता चला ईगल तो बाज पक्षी को कहते हैं।

वोल्गा नया रेस्टोरेंट खुला था। इतना तो जानते थे कि गंगा की तरह वोल्गा भी कोई नदी है। जो भारत में नहीं।  रूस यानी रशिया में कहीं बहती है। लेकिन इसके लिए राहुल सांकृत्यायन की गंगा से वोल्गा पढ़ना मैं जरूरी नहीं मानता।।

वोल्गा रेस्टोरेंट में हमने पहली बार छोले भटूरे का स्वाद चखा। हम मालवी और इंदौरी कभी चाय। पोहे। जलेबी और दाल बाफले से आगे ही नहीं बढ़े। रेस्टोरेंट के मालिक भी एक ठेठ पंजाबी सरदार थे। गर्मागर्म छोले और फूले फूले भटूरे और साथ में मिक्स अचार। सन् १९८० में कितने का था। आज याददाश्त भले ही काम नहीं कर रही हो। लेकिन एक आम आदमी के बजट में था। फिल्म की फिल्म देखो और छोले भटूरे भी खाओ।

यादों का झरोखा हमें कहां कहां ले जाता है। जयपुर में एक लक्ष्मीनारायण मिष्ठान्न नामक प्रतिष्ठान है। जिसे एलएमबी (LMB) भी कहा जाता था। उसी तर्ज पर इंदौर में भी एक जैन मिठाई भंडार था। जिसे आजकल JMB जेएमबी भी कहा जाने लगा है।

सराफे में इनकी पहली दुकान थी और मूंग के हलवे का पहला स्वाद इंदौर वासियों ने यहीं चखा था।।

आज इनकी इंदौर में कई शाखाएं हैं। लेकिन स्मृति में भी आज इनकी वही शाखा है। जो कभी रीगल थीएटर से कुछ कदम आगे। आज जहां स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की एम जी रोड ब्रांच है। वहीं कभी JMB ने भी अपनी ओपन एयर शाखा भी खोली थी। जहां खुले में संगीत की मधुर धुनों में आप मुंबई की पांव भाजी का स्वाद ले सकते थे। जी हां इंदौर में पाव भाजी भी पहली बार JMB ही लाए थे। शायद यह बात उनकी आज की पीढ़ी को भी पता न हो।

आज शहर में छोटे भटूरे। पाव भाजी और मूंग का हलवा कहां नहीं मिलता। लेकिन रीगल चौराहे पर ना तो आज रीगल और मिल्की वे टाकीज मौजूद है। और ना ही वॉल्गा रेस्टोरेंट। लेकिन समय ने JMB को आज इतना बलवान बना दिया है।  कि इंदौर में उनकी कई शाखाएं भी हैं और अच्छी गुडविल भी। जो चला गया। उसे भूलने में ही समझदारी है। अलविदा रीगल। अलविदा वोल्गा।।

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 407 ⇒ स्टैण्डर्ड ट्रांज़िस्टर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्टैण्डर्ड ट्रांज़िस्टर।)

?अभी अभी # 407 ⇒ स्टैण्डर्ड ट्रांज़िस्टर? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मुझे बचपन से संगीत सुनने का शौक रहा है, क्लासिकल नहीं, सेमी क्लासिकल फिल्मी, जिसमें गैर फिल्मी गीत, गज़ल, और भजन सभी शामिल हैं। जो संगीत से करे प्यार, वो रेडियो से कैसे करे इंकार। वह लैंडलाइन

टेलीफोन और मोबाइल का जमाना भले ही ना रहा हो, लेकिन बिजली के रेडियो और ट्रांजिस्टर तक एक आम आदमी की पहुंच जरूर हो चुकी थी।

घर में रेडियो कभी हमारी संपन्नता की निशानी कहलाता था। ट्रांजिस्टर को आप आज की भाषा में मोबाइल रेडियो कह सकते हैं, जो कहीं आसानी से ले जाया जा सके और जिसे आप बैटरी सेल अथवा बिजली से भी चला सकें।।

नौकरी में जब मेरा ट्रांसफर हुआ तब मैं सिंगल यानी कुंआरा ही था और तब यार दोस्तों की तरह रेडियो भी मेरा चौबीस घंटे का साथी था। जापान मेड, चार बैंड वाला, एक पुराना स्टैण्डर्ड ट्रांजिस्टर मेरा अकेलेपन का साथी सिद्ध हुआ, जिसमें दो दो स्पीकर थे और जो पॉवर से भी चलता था।

वह रेडियो सीलोन का जमाना था और रेडियो में शॉर्ट वेव होना बहुत जरूरी था, तब के रेडियो और ट्रांजिस्टर सेट्स में FM नहीं था। मीडियम वेव पर आकाशवाणी इंदौर और विविध भारती आसानी से सुना जा सकता था। अधिक दूरी के कारण आकाशवाणी इंदौर भले ही नहीं सुन पाएं, विविध भारती आसानी से सुना जा सकता था।।

डुअल स्पीकर याने दो दो स्पीकर होने के कारण मेरा स्टैण्डर्ड ट्रांजिस्टर आवाज में किसी भी बड़े रेडिओ सेट से कम नहीं था। जिस रेडियो पर रेडिओ सीलोन साफ सुनाई दे जाए, उसकी तब बड़ी इज्जत होती थी, क्योंकि सभी रेडिओ सेट्स में शॉर्ट वेव की फ्रीक्वेंसी इतनी साफ नहीं होती थी। एक साथ दो तीन स्टेशन गुड़मुड़ करते रहते थे। बुधवार की 8 बजे रात तो मानो रेडियो के लिए जश्न की रात हो। बिनाका गीत माला और अमीन भाई का दिन होता था वह।

मेरा ट्रांजिस्टर पुराना था, और उसके अस्थि पंजर ढीले हो चुके थे, डॉक्टर की सलाह पर मुझे उसे दुखी मन से अलविदा कहना पड़ा, और कालांतर में मैने एक बुश बैटन ट्रांजिस्टर खरीद लिया, जो आराम से एक कबूतर की तरह हाथों में समा जाता था। तब 300 रुपए बहुत बड़ी बात थी। लेकिन इस काले बुश बैटन को कभी किसी की नजर नहीं लगती थी।।

तब कहां हमारे घरों में फिलिप्स का साउंड सिस्टम था। आवाज में स्टीरियोफोनिक इफेक्ट लाने के लिए घरेलू प्रयोग किया करते थे। हम अक्सर हमारे नन्हें से बुश बैटन को पानी की मटकी पर बैठा दिया करते थे। आवाज मटके के अंदर जाकर गूंजती और सलामे इश्क मेरी जान कुबूल कर लो, और वादा तेरा वादा जैसे गीत में हमें एक विशेष ही आनंद आता।

ऐसा प्रतीत होता गाना अलग चल रहा है और तबला अलग बज रहा है।

एक दिन एक फड़कते गीत को मटका बर्दाश्त नहीं कर पाया और हमारा बुश बैटन खिसककर पानी में ऐसा डूबा, कि हमेशा के लिए उसकी बोलती ही बंद हो गई, स्पीकर में पानी भर गया। कई उपचार किए, लेकिन पानी शायद ट्रांजिस्टर के सर से ऊपर निकल चुका था। मानो उसने जल समाधि ले ली हो।।

उसके बाद टू इन वन का जमाना आया, यानी रेडियो कम टेपरिकॉर्डर, जिसने रेकॉर्ड प्लेयर और रेडियोग्राम को बाहर का रास्ता दिखा दिया। आज भले ही पूरा संगीत जगत आपके मुट्ठी भर मोबाइल में कैद हो, लेकिन उस आनंद की तुलना आज भरे पेट आनंद से नहीं की जा सकती।

संगीत का शौक आज भी जारी है और एक फिलिप्स पॉवर वाला टेबल ट्रांजिटर आज हमारा साथ शिद्दत से निभा रहा है, लेकिन रह रहकर दो दो स्पीकर वाले स्टैण्डर्ड ट्रांजिस्टर और नन्हें से, काले बुश बैटन की सेवाओं को भुलाना इतना आसान भी नहीं।

क्या मांगते थे बेचारे, थोड़ा सा बिजली का करेंट, यानी पॉवर अथवा दो अदद बैटरी सेल, और बदले में हमारे जीवन को संगीतमय बना देते थे। और उनके साथ ही भूली बिसरी यादें रेडिओ सीलोन और अमीन भाई की। आमीन.. !!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ चौदा हजार चारशे सदुसष्ट ललाटरेखा ! ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

? इंद्रधनुष्य ?

चौदा हजार चारशे सदुसष्ट ललाटरेखा ! ☆ श्री संभाजी बबन गायके 

त्याच्या कलेवरासोबत आलेल्या ज्येष्ठ सैनिकाने तिच्या हातात राष्ट्रध्वज सोपवला, तिला सल्यूट बजावला आणि तो बाजूला झाला. तो ध्वज घेऊन ती शवपेटीनजीक आली…तिने शवपेटीवर आपलं रिकामं कपाळ टेकवलं आणि शवपेटीवर पांघरलेल्या राष्ट्रध्वजावर आसवांचा शेवटचा अभिषेक घातला. तिला तिथून हलायचं नव्हतं…पण व्यवहाराला थांबून चालणार नव्हतं. शवपेटी वाहून आणणा-या एका सैनिकानं हातानंच इशाला केला….या ताईला आवरा कुणीतरी!   एक ज्येष्ठ सैनिक पुढे झाला…. तिने त्याच्याकडे म्लान वदनाने पाहिलं….तिने आपलं उजव्या हाताचं मनगट आभाळाच्या दिशेनं वळवलं, हाताचा तळवा उघडला….तोंडही उघडं होतं…पण आता त्यातून ध्वनि उमटत नव्हता…माझं कसं होणार? हा तिने न विचारलेला प्रश्न मात्र त्या ज्येष्ठ सैनिकाला मोठ्याने ऐकू गेला त्या गदारोळात….त्याने तिच्या डोक्यावर आपले दोन्ही हात क्षणभर ठेवले आणि मागे घेऊन नमस्कर मुद्रेत जोडले!…जाऊ दे, बेटी आता तुझ्या मालकाला शेवटच्या प्रवासाला! आम्ही असू तुझ्यासोबत! 

अंत्ययात्रेत तीन हुंदके उमटत होते…एक त्याच्या आईचा, एक वडिलांचा आणि एक त्याच्या पत्नीचा. तिच्या गर्भातल्या बाळाच्या हुंदक्याला त्याचा स्वत:चा असा आवाज नव्हता! 

सैनिकाच्या जाण्यानंतर निर्माण होणारं दु:ख कुणाचं धाकलं आणि कुणाचं थोरलं? आयुष्याच्या मध्यावर असलेल्या किंवा त्याच्याही पुढे गेलेल्या आई-वडिलांचं? की जिचं उभं आयुष्य पुढं आ वासून तिच्याच समोर उभं ठाकलं आहे त्या तरूण विधवा पोरीचं? 

गळ्यात मंगळसूत्र पडतं तेंव्हाच माहेर बुडतं लेकींचं आपल्याकडच्या. कुंकू नावाच्या गोलाकार समिंदरात बाई उडी घेते ती याच मंगळसूत्राच्या भरवशावर. यातील दोन वाट्या म्हणजे एकमेकांना जोडलेली दोन गलबतं. वल्हवणारा भक्कम असला आणि त्यानं किना-यापोत साथ दिली तर किनारा काही दूर नसतो फारसा…फक्त वेळ लागतो एवढंच. पण श्वासांचं हे वल्हं वल्हवणरा हात सैनिकाचा असला आणि तोच स्वत: आपल्या गलबतासह मरणाच्या खोलात अकाली गर्तेस मिळाला तर? त्याच्यासोबतचं गलबत भरकटणारच! वरवर सालस,शांत,समंजस भासणारा व्यवहाराचा समुद्र मग आपले खोलातले रंग पृष्ठभागावर आणायला लागतो….वादळापूर्वीची शांतता म्हणजे स्वप्नात अनुभवलेली खोटी गोष्ट वाटू लागते! गलबत आधीच इवलंसं….लाटांना फार प्रयास पडत नाहीत त्याला तडाखे द्यायला! 

मृत्यू अपरिहार्य आहेच. आणि त्यामुळे विवाहीत बाईच्या कपाळी येणारं वैधव्यही! हा मृत्यू एखाद्या सैनिकाला लढता-लढता आलेला असेल तर या वैधव्याची दाहकता आणखीनच गडद होत जाते भारतात! धारातीर्थी पडलेल्या सैनिकाच्या पत्नीने कोणत्याही रंगाची साडी परिधान केलेली असली तरी केवळ एक वाक्याने त्या साडीचा रंग पांढरा होऊन जातो….”कुंकू पुसून टाक,सूनबाई!” 

पतीचे निधन झालेली स्त्री विधवाच असते. पण कर्तव्यासाठी प्राणापर्ण केलेल्या सैनिकांच्या पत्नींना आताशा व्यवस्था वीरनारी म्हणू लागली आहे, आणि हेही नसे थोडके! अन्यथा पूर्वी सर्व ओसाड कपाळांची किंमत एकच असायची! खरं तर सैनिकाशी लग्न करणं हेच मोठं धाडसाचं काम आहे…या अर्थाने प्रत्येक सैनिक-पत्नी वीरनारीच मानली गेली पाहिजे. या महिला करीत असलेला शारीरिक,मानसिक त्याग प्रचंड आहे. असो. 

अविवाहीत हुतात्मा सैनिकाच्या आई-वडिलांचं दु:ख थोरलंच. पण विवाहीत हुतात्मा सैनिकाच्या घरात आणखी एक मोठं दु:ख मान खाली घालून बसलेलं असतं! ते दु:ख वेगानं धावत असतं अंध:कारमय भविष्याच्या दिशेनं! 

तिला हे माहीत आहे….तिने इतरांच्या बाबतीत हे होताना पाहिलं,ऐकलं आहे! किंबहुना सैनिकाशी लग्नगाठ बांधून घेताना तिला याची कल्पना कुणी स्पष्टपणे दिली नसली तरी तिला हे का ठाऊक नव्हतं? पण तरीही तिने कुठल्याही कारणाने का होईना..हे धाडस केलंच होतं! परिणामांची जबाबदारी सर्वस्वी तिचीच!  अमर रहे….च्या घोषणा अल्पावधीतच हवेत विरून जातात, राजकीय,सामाजिक नेत्यांच्या भाषणांतील,मदतीच्या आश्वासनांतील काही शब्द,आकडेही बहुतांशवेळा पुसट होत जातात

आपल्या देशात सैन्यसेवेत असलेले सुमारे १६०० जण विविध कारणांनी मरण पावतात दरवर्षी. यात अतिरेक्यांशी लढताना,सीमेच्या पलीकडून होणा-या गोळीबारात धारातीर्थी पडणा-यांचे संख्याही दुर्दैवाने बरीच असते….यातून वीरनारींची संख्याही वाढत राहते. प्रत्यक्ष सशस्त्र संघर्षात मृत्यू पावलेल्या सैनिकांच्या, हयात असलेल्या वीरनारींची संख्या मार्च २०२३ पर्यंत होती….चौदा हजार चारशे सदुसष्ट! आणि या आकड्यांत दुर्दैवानं या वर्षीही भरच पडलेली आहे! 

सैनिकाच्या अकाली मृत्यूमुळे कुटुंबाची,विशेषत: पालक आणि पत्नी यांची होणारी हानी प्रचंड असते. हौतात्म्याची भरपाई करणं शक्य नसलं तरी ज्या समाजाचं हा सैनिक वर्ग जीवाची बाजी लावून रक्षण करत असतो, त्या समाजाचं प्रथम कर्तव्य हेच असावं की त्यानं या नुकसानीची मानवीय दृष्टीकोनातून भरपाई करण्याचा प्रयत्न करणे! 

कामी आलेल्या सैनिकाच्या परिवाराला गेल्या काही वर्षांपासून सुमारे एक कोटी रुपये दिले जातात. पण हा पैसा स्वत:सोबत अनेक समस्याही घेऊन त्या कुटुंबात प्रवेश करतो. हयात असणा-या माजी सैनिकांना निवृत्तीवेतन दिले जातेच. त्याच्या पश्चात त्याच्या आई-वडीलांना,पत्नीला आणि काही नियमांना अधीन राहून अपत्यानांही निवृत्तीवेतन दिले जाते. पाल्यांचे शिक्षण,नोक-या इत्यादी अनेक बाबतीतही शासकीय धोरणं कल्याणकारी आहेत.  

तरूण तडफदार असेलेले सैनिक सैनिकी कारवायांमध्ये ब-याचशा मोठ्या संख्येने अग्रभागी असतात. यात हौतात्म्य प्राप्त झालेले सैनिक जर विवाहीत असतील तर त्यांच्या पत्नीही वयाने तरूणच असतात, हे ओघाने आलेच. 

विधवेने पुनर्विवाह करणे या बाबीकडे समाजाकडून अक्षम्य दुर्लक्ष आणि अमानवीय विचारांमुळे विरोध झाल्याचे कालपरवापर्यंत दिसून येत होते. नुकसानभरपाईपोटी आलेला पैसा,कुटुंबाची संपत्ती कुटुंबातच रहावी, या अंतर्गत उद्देशाने स्त्रियांचे पुनर्विवाह लावून देताना वधूवरांच्या वयातील अंतरांचा किती विचार केला गेला असेल, हाही प्रश्नच होता. 

समाजाचा स्त्रियांना केवळ उपयुक्त साधन मानणे हाही विचार सर्वत्र होता आणि आहेच. हुतात्मा सैनिकाच्या कुटुंबियांना मिळणा-या निवृत्तीवेतनात आणि इतर आर्थिक लाभांत पत्नीचाही तेव्हढाच वाटा असतो. तीच जर पुनर्विवाह करून गेली तर घरातील पैसा इतरत्र जातो किंवा जाईल, हे समाजाने हुशारीने ताडले आहे. त्यामुळे आदर्श पत्नी म्हणून तिने अविवाहीत रहावे, सासु-सास-यांची सेवा करीत उर्वरीत आयुष्य रेटावे, असा प्रयत्न होतो. त्यातून पुढे आलेली आणि माणुसकीचे फसवे कातडे पांघरून रूढ झालेली प्रथा म्हणजे चुडा प्रथा. सैनिकाच्या विधवेने किंवा कोणत्याही विधवेने त्या दीराशी लग्न करणे! हे प्रमाण राजस्थानात सर्वाधिक आहे. यात बाईच्या पसंती-नापसंतीला कितपत वाव असेल? पण यात संबंधित दीर अविवाहीत असला पाहिजे ही अट मात्र सुदैवाने आहे. पण हा गुंता किती मोठा आणि महिलांसाठी किती अडचणींचा असेल याचा विचार केला तरी अवघडल्यासारखे होते. 

पंजाब,हरियाना,हिमाचल प्रदेश, बिहार सारख्या राज्यांत हाच कित्ता थोड्या अधिक फरकाने गिरवला जातो. पंजाब-हरियाणात करेवा प्रथा आहे. यातही दिवंगत सैनिकाच्या/व्यक्तीच्या विधवा पत्नीचा अविवाहीत दीराशी लग्नाचा रिवाज आहे. आणि पहिल्या पतीच्या अंत्यसंस्कारानंतर केवळ दोन आठवड्यानंतरही असे विवाह लावले जातात. आणि यात कोणताही समारंभ केला जात नाही…

वर वर पाहता या प्रथा विधवांना आधार देणा-या वाटत असल्या तरी यांत विधवेविषयी सहानुभूती वाटणे किती आणि आर्थिक विचार किती हा प्रश्न आहेच. राजस्थानात या प्रश्नाने तर मोठे स्वरूप धारण केले आहे. कारण राजस्थानातील वीरनारींची संख्या मार्च २०२३ पर्यंत १३१७ एवढी होती. अशा प्रकारे आपल्या दीराशी वैवाहिक संबंध प्रस्थापित करण्याची मनापासून किती विधवांची इच्छा असावी? आपली भावनिकतेच्या जाळ्यात ओढून सोयीस्कर अर्थ लावणारी, पुरुषप्रधान सामाजिक मानसिकता लक्षात घेता याचं उत्तर काय असेल, हे सूज्ञ समजू शकतात. 

पंजाबात दोन हजारांपेक्षा अधिक तर हरियाना,उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेशात सुमारे अकराशेच्या वर वीरनारी आहेत. अपत्य नसलेल्या वीरनारीने पुनर्विवाह केला तरी तिचे निवृत्तीवेतन सुरु राहते. पण तिचे इतर मार्गांने होणारे उत्पन्न निवृत्तीवेतनाएवढे किंवा जास्त झाले की ही रक्कम देणे बंद केले जाते. अपत्य असेल आणि नात्याबाहेर पुनर्विवाह केला तरी वेगळे नियम लागू होतात. 

सैनिक विधवेशी तिला मिळत असलेल्या पैशांवर डोळा ठेवून विवाह करणा-यांची संख्याही असेलच. परंतू यात किमान त्या स्त्रीची स्वसंमती तरी असते. वीरनारींना त्यांच्या पतींनी गाजवलेल्या शौर्याचे पारितोषिक म्हणून काही विशेष रक्कमही दरमहा देण्याची पद्धत आहे. मात्र ही रक्कम त्या स्त्रीने फक्त तिच्या दीराशीच लग्न केले असल्यासच देय असे २००६ पूर्वी. २०१७ मध्ये या नियमात बदल करण्यात आला! 

सरकार,नेते,संघटना,व्यक्ती यांनी दिलेली आश्वासने प्रत्यक्षात येतातच असे दुर्दैवाने होत नाही, हेही वास्तव आहे. हुतात्मा वीर सैन्याधिका-यांच्या कुटुंबियांना कित्येक वेळा शासन पेट्रोल पंप, गॅस एजन्सी इत्यादी बहाल करीत असते. यासाठीही मोठा कागदोपत्री कारभार कुटुंबियांना करावा लागतो. सैनिक कोणत्या परिस्थितीत मृत्यू पावला याही गोष्टीला नुकसानभरपाईबाबत मोठे महत्त्व आहे. 

भारताच्या ग्रामीण,आदिवासी भागातील वीरनारींच्या कपाळी तर काहीवेळा भयावह संकटे आल्याची उदाहरणे आहेत. त्यापैकीच एक म्हणजे एन.एस.जी.कमांडो लान्स नायक राजकुमार महतो यांची पत्नी जया महतो! राजकुमार महतो कश्मिरात अतिरेक्यांविरुद्ध प्राणपणाने लढताना धारातीर्थी पडले. त्यांच्या कुटुंबातील तीन व्यक्ती या नजीकच्या कालावधीत काही कारणांनी मृत्यू पावलेल्या होत्या. त्यात राजकुमारही गेल्यामुळे गावक-यांनी या घटनांसाठी थेट जया यांना जबाबदार धरले आणि चेटकीण म्हणून त्यांना ठार मारण्याची तयारीही केली होती. भारतीय सैन्य जया महतो यांच्या मदतीला वेळेवर पोहोचू शकले म्हणून त्या बचावल्या! पण आपला समाजाचा काही भाग अजूनही किती मागासलेला आहे, याचे हे भयानक उदाहरण मानले जावे!   

नव्या घरात सैनिकाची पत्नी म्हणून काहीच काळापूर्वी प्रवेश केलेल्या सामान्य मुलीला तिचा पतीच जर जगातून निघून गेला तर तिच्या वाट्याला येणारी परिस्थिती किमान महिलावर्ग तरी समजावून घेऊ शकेल. अर्थात, विधवा सून आणि तिचे सासू-सासरे यांच्यातील भावनिक आणि आर्थिक परिस्थितीला काही अन्य बाजूही असतीलच. पण तरीही सर्वाधिक नुकसान सोसावे लागलेल्या सर्वच तरूण वीरनारींची स्थिती फारशी बरी नसण्याचीच शक्यता अधिक आहे. समाजातील सर्व विचारवंतांच्या स्तरावर या समस्यांची यथायोग्य आणि वास्तवदर्शी माहिती पोहोचणे गरजेचे आहे! 

(या लेखाच्या पहिल्या परिच्छेदात वर्णन केलेली घटना एका विडीओ मध्ये पाहण्यात आल्यानंतर मी यावर गांभिर्याने विचार करून ही अल्प माहिती घेतली आहे. छायाचित्रातील ही वीरनारी भगिनी आणि लेखात उल्लेखिलेल्या बाबी याचा संबंध असेलच असे नाही. केवळ प्रतिपाद्य विषयाला परिमाण लाभावे म्हणून हे छायाचित्र वापरले आहे. यात काही त्रुटी असतीलच. पण समस्या मात्र ख-या आहेत, यात शंका नाही. विशेषत: सुशिक्षित महिलांनी यावर विचार करून याबाबतीत काही करता आले तर जरुर करावे.!) 

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 247 – दो ध्रुवों के बीच ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 247 ☆ दो ध्रुवों के बीच ?

इसी सप्ताह की घटना है। मैं दोपहिया वाहन से घर लौट रहा था। बाज़ार से दूर स्थित बैंक के पास एक वृद्ध सज्जन खड़े दिखाई दिए। जाने क्यों लगा कि लिफ्ट चाहते हैं पर कह नहीं पा रहे हैं। कुछ आगे जाकर मैं रुका और पूछा कि उन्हें कहाँ जाना है? उन्होंने बताया कि  लम्बे समय से ऑटोरिक्शा की प्रतीक्षा कर रहे हैं पर कोई रिक्शा आया ही नहीं। फिर जानना चाहा कि क्या मैं उन्हें उनके गंतव्य तक छोड़ सकता हूँ? मैंने उन्हें बिठाया और उनके गंतव्य पर छोड़ दिया।

वे धीरे से उतरे। बोले,”रिक्शा की प्रतीक्षा में खड़ा-खड़ा मैं बहत थक गया था। आपने बड़ी सेवा की।” फिर एकाएक उन्होंने मेरे पैर छू लिए।

इस अप्रत्याशित व्यवहार से मैं संकोच से गड़ गया। कुछ कह पाता, उससे पूर्व अप्रत्याशित का कल्पनातीत अगला संस्करण भी सामने आ गया। उन्होंने जेब से रुपये दस का नोट निकाला और फिर बोले,” इतना ही दे सकता हूँ। कृपया इस बूढ़े के पैसे से एक कप चाय पी लीजिएगा।” अपमान और क्रोध से माथा भन्ना उठा। मैंने उन्हें हाथ जोड़े। नोट हाथ में लिए वे खड़े रहे और मैं वहाँ से एक तरह से रफूचक्कर हो गया।

गाड़ी की बढ़ी हुई गति के साथ विचारों को भी हवा मिली। अपने अपमान के भाव से आरम्भ हुआ विचार, वृद्ध के स्वाभिमान तक जा पहुँचा।

निष्कर्ष निकला कि वे स्वाभिमानी व्यक्ति थे। अनेक लोग ऐसे होते हैं जो किसीका एक नए पैसे का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष ऋण अपने ऊपर नहीं चाहते। बैंक से उनके गंतव्य तक संभवत: शेयर रिक्शा दस रूपये ही लेता होगा। फलत:  उन्होंने मुझे दस रुपये देने का प्रयास किया था।

अनुभव हुआ कि ध्रुवीय अंतर है आदमी और आदमी के बीच। एक ओर किसीका किसी भी तरह का ऋण अपने माथे पर ना रखनेवाला यह निर्धन है तो दूसरी ओर वित्तीय संस्थानों के हज़ारों करोड़ डकार जाने वाले कथित धनिक।

अनुभव कहता है कि संस्कार से विचार उद्भूत होता है। विचार, कृति का जनक होता है। कृति, व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करती है।

ऋग्वेद का उद्घोष है-

‘‘अग्निना रयिमश्नवत पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्।’’

संदेश स्पष्ट है कि हम धन अवश्य कमाएँ पर नीति-रीति से ही कमाएँ। अनीति से फटाफट धन की चाह, लोभ उत्पन्न करती है। लोभ अतृप्ति ढोने को अभिशप्त है।

अपनी कविता ‘पुजारी’ स्मरण हो आई-

मैं और वह

दोनों काग़ज़ के पुजारी,

मैं फटे-पुराने,

मैले-कुचले,

जैसे भी मिलते

काग़ज बीनता, संवारता,

करीने से रखता,

वह इंद्रधनुषों के पीछे भागता,

रंग-बिरंगे काग़ज़ों के ढेर सजाता,

दोनों ने अपनी-अपनी थाती

विधाता के आगे धर दी,

विधाता ने

उसके माथे पर अतृप्त अमीरी

और मेरे भाल पर

 समृद्ध संतुष्टि लिख दी..!

संत ज्ञानेश्वर महाराज पसायदान में कहते हैं,

जो जे वांछील तो ते लाहो ।

हरेक अपना वांछित पा सकता है।  तृप्ति या अतृप्ति, तोष या असंतोष, अनन्य मानव जीवन में अपना वांछित स्वयं तय करो।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 405 ⇒ || ढंग की बात || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| ढंग की बात ||।)

?अभी अभी # 405 ⇒ || ढंग की बात || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कौन नहीं चाहता, अपने मन की बात कहना, कोई कह पाता है, और कोई मन में ही रख लेता है। मन की बात कही तो बहुत जाती है, लेकिन मन की बात सुनने वाला कोई बिरला(ओम बिरला नहीं) ही होता है।

एक होती है मन की बात, और एक होती है ढंग की बात। कहीं कहीं बात करने का ढंग ही इतना प्रभावशाली होता है कि, बात भले ही ढंग की ना हो, श्रोताओं पर अपना प्रभाव जमा लेती है। वैसे मन की बात का वास्तविक उद्देश्य शायद आम आदमी की नब्ज टटोलना ही रहा होगा। देश का प्रधानमंत्री जब आपको संबोधित करता है, तो उसकी कुछ बातें तो अवश्य मन को छू जाती होंगी।।

हम पिछले ११० महीनों से मन की बात कार्यक्रम नियमित रूप से, हर महीने के अंतिम रविवार को सुबह 11:00 बजे आकाशवाणी और दूरदर्शन पर सुनते आ रहे हैं। आम चुनाव के तीन महीने के अंतराल के बाद शायद यह सिलसिला पुनः प्रारंभ हो।

अगर मन की बात कुछ ढंग की हो, तो श्रोता का भी सुनने का आकर्षण बढ़ जाता है। मन की बात के नाम पर केवल अपनी ही तारीफ करना, अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना और केवल अपनी सफलताओं का डंका बजाना कुछ समय तक तो कारगर रहता है, लेकिन बाद में वह नीरस और उबाऊ होता चला जाता है। फिर वह मन की बात नहीं रह जाती ;

फिर तेरी कहानी याद आई

फिर तेरा फसाना याद आया ;

हां अगर मन की बात, साथ साथ में ढंग की बात भी हो, तो क्या कहने। लेकिन ढंग की बात कहना जितना आसान है, लिखना उतना आसान नहीं। अब ढंग को ही ले लीजिए, इसमें ढ के ऊपर तो बिंदी है, लेकिन नीचे नहीं। ढोर, ढोल, ढाल और ढक्कन में भी ढ के नीचे बिंदी नहीं लगती।

लेकिन यही ढ जब शब्द के अंत में आ जाता है, तो आषाढ़, दाढ़ और बाढ़ बन जाता है, यानी ढ के नीचे बिंदी लग जाती है। बढ़िया, सिलाई – कढ़ाई, और पढ़ाई में ढ बीच में है, फिर भी ढ के नीचे बिंदी है।

लेकिन फिर भी ढ के रंग ढंग हमें समझ में नहीं आते। बेढब बनारसी में नीचे बिंदी गायब है। बड़ा बेढंगा है यह ढ। इसकी बढाई की जाए अथवा इसे बधाई दी जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।।

जब ढ के ही ऐसे रंगढंग हैं, तो ढंग की बात कितनी ढंग की हो सकती है यह विचारणीय है। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप इस बार मन की बात सुनना चाहते हैं, अथवा ढंग की बात।

हमारे मन की बात तो यही है कि बहुत हो गई मन की बात, अब कुछ ढंग की बात भी हो जाए। संसद में केवल तालियां ही नहीं बजें, किसी की शान में केवल कसीदे ही नहीं कढ़े जाएं, कुछ तर्क वितर्क, सवाल जवाब हो, जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि जनता की समस्याओं पर बात करें, केवल अपने नेता की जय जयकार ही नहीं करते बैठें। गहमा गहमी हो, दोनों ओर से संयम और सौहार्दपूर्ण वातावरण का नज़ारा हो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 404 ⇒ कड़वाहट (Bitterness)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कड़वाहट (Bitterness)।)

?अभी अभी # 404 ⇒ कड़वाहट (Bitterness)? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारा भारतीय दर्शन जीवन में मिठास घोलता है, कड़वाहट नहीं। दो मीठे शब्द, कुछ मीठा हो जाए। यहां अगर जन्म उत्सव है है, तो मृत्यु भी उत्सव।

जन्म पर बधाई गीत तो विवाह के अवसर पर बैंड बाजा बारात और अंतिम विदाई भी गाजे बाजे के साथ। जन्मदिन पर केक तो तेरहवें पर भी नुक्ति सेंव, लड्डू।

परीक्षा के दिनों में मां घर से दही शक्कर खिलाकर पाठशाला भेजती थी। गर्मी के मौसम में जगह जगह मधुशालाओं में गन्ने का रस नजर आता था।

एकाएक बच्चन जी एक और ही मधुशाला लेकर आ गए, जहां हिन्दू मुस्लिम आपस में बैठकर प्यालों में कड़वा पेय का सेवन करने लगे। बस तब से ही खुशी के पल हों, या गम गलत करना हो, यह कड़वी चीज हमारे मुंह लग ही गई।।

आज जगह जगह गन्ने के रस की नहीं, शासकीय देशी और विदेशी मदिरा की मधुशालाएं लोगों के जीवन में जहर घोल रही हैं। जिस तरह लोहा लोहा को काटता है, कुछ लोगों का यह भ्रम है कि आत्मा की कड़वाहट इस कड़वी चीज से कुछ कम हो जाती है।

जैसे जैसे यह कड़वा जहर शरीर में फैलने लगा, इंसान की कड़वाहट भी बढ़ने लगी ;

कोई सागर दिल को बहलाता नहीं।

बेखुदी में भी करार आता नहीं।।

कौन सा जहर ज्यादा खतरनाक है, कड़वे नशे का जहर अथवा नफरत का जहर, इसका फैसला करना इतना आसान नहीं। उनकी जुबां तो पहले ही कड़वी थी, बेचारा करेला मुफ्त ही बदनाम हो गया।

मीठे बोलने से कोई बीमारी नहीं होती, लेकिन हां मीठा खाने से जरूर होती है, और वह भी मधुमेह ही है। कड़वी शराब से मधुमेह बढ़ता है और कड़वे पदार्थ नीम, करेला, मैथीदाना मधुमेह को कंट्रोल करते हैं।।

कौन है जो हमारे रिश्तों में कड़वाहट घोल रहा है, भाई और भाई के बीच दीवारें खड़ी हो रही हैं। जिस जुबां से कभी शहद टपकता था आज वही जबान अभद्र, अश्लील और बुरी तरह कड़वी हो गई है। बात बात पर तैश खाना और आपा खोना क्या हमारा नैतिक पतन है अथवा तामसी जीवन का असर। कहीं इसके लिए हमारी शिक्षा दीक्षा अथवा आसपास का वातावरण तो जिम्मेदार नहीं।

भौतिकता की अंधी दौड़, पारिवारिक और सामाजिक जीवन में प्रेम और सद्भाव का अभाव शायद कुछ हद तक इसके लिए जिम्मेदार हो। सद्बुद्धि, आचरण की शुद्धता, संयम, विवेक और परस्पर प्रेम ही इस बढ़ती कड़वाहट को दूर कर सकता है। काश ऐसी कोई मधुशाला हो जहां ;

अरे पीयो रे

प्याला राम रस का।

राम रस का प्याला

प्रेम रस का।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #238 ☆लालसा ज़हर है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख लालसा ज़हर है… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 238 ☆

☆ लालसा ज़हर है… ☆

‘आवश्यकता से अधिक हर वस्तु का संचय व सेवन ज़हर है…सत्ता, संपत्ति, भूख, लालच, सुस्ती, प्यार, इच्छा, प्रेम, घृणा और आशा से अधिक पाने की हवस हो या जिह्वा के स्वाद के लिए अधिक खाने की इच्छा…दोनों ज़हर हैं, घातक हैं, जो इंसान के पतन का कारण बनती हैं।’ परंतु बावरा मन सब कुछ जानने के पश्चात् भी अनजान बना रहता है। जन्म से लेकर मृत्यु- पर्यंत इच्छाओं-आकांक्षाओं के मायाजाल में उलझा रहता है तथा और… और…और पाने की हवस उसे पल-भर के लिए भी चैन की सांस नहीं लेने देती। वैसे एक पथिक के लिए निरंतर चलना तो उपयोगी है, परंतु उसमें जिज्ञासा भाव सदैव बना रहना चाहिए। उसे बीच राह थककर नहीं बैठना चाहिए; न ही वापिस लौटना चाहिए, क्योंकि रास्ते तो स्थिर रहते हैं; अपने स्थान पर बने रहते हैं और चलता तो मनुष्य है।

इसलिए रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘एकला चलो रे’ का संदेश देकर मानव को प्रेरित व ऊर्जस्वित किया था, जिसके अनुसार मानव को कभी भी दूसरों से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह मानव को भ्रम में उलझाती है…पथ-विचलित करती है और उस स्थिति में उसका ध्यान अपने लक्ष्य से भटक जाता है। अक्सर वह बीच राह थक कर बैठ जाता है और उसे पथ में निविड़ अंधकार-सा भासता है। परंतु यदि वह अपने कर्तव्य-पथ पर अडिग है; अपने लक्ष्य पर उसका ध्यान केंद्रित है, तो वह निरंतर कर्मशील रहता है और अपनी मंज़िल पर पहुंच कर ही सुक़ून पाता है।

आवश्यकता से अधिक हर वस्तु की उपलब्धि व सेवन ज़हर है। यह मानव के लिए हानिकारक ही नहीं; घातक है, जानलेवा है। जैसे नमक शरीर की ज़रूरत है, परंतु स्वाद के लिए उसका आधिक्य रक्तचाप अथवा ब्लड-प्रैशर को  आह्वान देता है। उसी प्रकार चीनी भी मीठा ज़हर है; असंख्य रोगों की जन्मदाता है। परंतु सत्ता व संपत्ति की भूख व हवस मानव को अंधा व अमानुष बना देती है। उसकी लालसाओं का कभी अंत नहीं होता तथा अधिक …और अधिक पाने की उत्कट लालसा उसे एक दिन अर्श से फ़र्श पर ला पटकती है, क्योंकि आवश्यकताएं तो सबकी पूर्ण हो सकती हैं, परंतु निरंकुश आकांक्षाओं व लालसाओं का अंत संभव नहीं है।

आवश्यकता से अधिक मानव जो भी प्राप्त करता है, वह किसी दूसरे के हिस्से का होता है तथा लालच में अंधा मानव उसके अधिकारों का हनन करते हुए तनिक भी संकोच नहीं करता। अंततः वह एक दिन अपनी सल्तनत क़ायम करने में सफलता प्राप्त कर लेता है। उस स्थिति में उसका लक्ष्य अर्जुन की भांति निश्चित होता है, जिसे केवल मछली की आंख ही दिखाई पड़ती है… क्योंकि उसे उसकी आंख पर निशाना साधना होता है। उसी प्रकार मानव की भटकन कभी समाप्त नहीं होती और न ही उसे सुक़ून की प्राप्ति होती है। वास्तव में लालसाएं पेट की क्षुधा के समान हैं, जो कभी शांत नहीं होतीं और मानव आजीवन उदर-पूर्ति हेतु संसाधन जुटाने में व्यस्त रहता है।

परंतु यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगी कि नियमित रूप से मल-विसर्जन के पश्चात् ही मानव स्वयं को भोजन ग्रहण करने के योग्य पाता है। उसी प्रकार एक सांस को त्यागने के पश्चात् ही वह दूसरी सांस ले पाने में स्वयं को सक्षम पाता है। वास्तव में कुछ पाने के लिए कुछ खोना अर्थात् त्याग करना आवश्यक है। यदि मानव इस सिद्धांत को जीवन में अपनाता है, तो वह अपरिग्रह की वृत्ति को तरज़ीह देता है। वह हमारे पुरातन संत-महात्माओं की भांति परिग्रह अर्थात् संग्रह में विश्वास नहीं रखता, क्योंकि वे जानते थे कि भविष्य अनिश्चित है और गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। सो! आने वाले कल की चिंता व प्रतीक्षा करना व्यर्थ है और जो मिला है, उसे खोने का दु:ख व शोक मानव को कभी नहीं मानना चाहिए। गीता का संदेश भी यही है कि मानव जब जन्म लेता है तो उसके हाथ खाली होते हैं। वह जो कुछ भी ग्रहण करता है, इसी संसार से लेता है और अंतिम समय में सब कुछ यहीं छोड़ कर, उसे अगली यात्रा के लिए अकेले निकलना पड़ता है। यह चिंतनीय विषय है कि इस संसार में रहते हुए ‘पाने की खुशी व खोने का ग़म क्यों?’ मानव का यहां कुछ भी तो अपना नहीं…जो कुछ भी उसे मिला है– परिश्रम व भाग्य से मिला है। सो! वह उस संपत्ति का मालिक कैसे हुआ? कौन जानता है, हमसे पहले कितने लोग इस धरा पर आए और अपनी तथाकथित मिल्क़ियत को छोड़ कर रुख़्सत हो गए। कौन जानता है आज उन्हें? इसलिए कहा जाता है कि जिस स्थान की दो गज़ ज़मीन मानव को लेनी होती है; वह स्वयं वहां चलकर जाता है। यह सत्य कथन है कि जब सांसो का सिलसिला थम जाता है, तो हाथ में पकड़ा हुआ प्याला भी ओंठों तक नहीं पहुंच पाता है। सो! समस्त जगत्-व्यवहार सृष्टि-नियंता के हाथ में है और मानव उसके हाथों की कठपुतली है।

परंतु आवश्यकता से अधिक प्यार-दुलार, प्रेम-घृणा, राग-द्वेष आदि के भाव भी हमारे पथ की बाधा व अवरोधक हैं। प्यार में इंसान को अपने प्रिय के अतिरिक्त संसार में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। परंतु उस परमात्मा के प्रति श्रद्धा व प्रेम मानव को उस चिरंतन से मिला देता है; आत्म-साक्षात्कार करा देता है। इसके विपरीत किसी के प्रति घृणा भाव उसे दुनिया से अलग-थलग कर देता है। वह केवल उसी का चिंतन करता है और उसके प्रति प्रतिशोध की बलवती भावना उसके हृदय में इस क़दर घर जाती है कि वह उस स्थिति से उबरने में स्वयं को असमर्थ पाता है।

इसी प्रकार ‘लालच बुरी बला है’ यह मुहावरा हम सब बचपन से सुनते आ रहे हैं। लालच वस्तु का हो या सत्ता व धन-संपत्ति का; प्रसिद्धि पाने का हो या समाज में दबदबा कायम करने का जुनून– मानव के लिए हानिकारक है, क्योंकि ये सब उसमें अहं भाव जाग्रत करते हैं। अहं संघर्ष का जन्मदाता है, जो द्वन्द्व का परिणाम है अर्थात् स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने का भाव मानव को नीचे गिरा देता है। वह अहंनिष्ठ मानव औचित्य- अनौचित्य व विश्वास-अविश्वास के भंवर में डूबता-उतराता रहता है और सही राह का अनुसरण नहीं कर पाता, क्योंकि वह भूल जाता है कि इन इच्छाओं-वासनाओं का अंत नहीं। परिणामत: एक दिन वह अपनों से दूर हो जाता है और रह जाता है नितांत अकेला; एकांत की त्रासदी को झेलता हुआ…और वह उन अपनों को कोसता रहता है कि यदि वे अहं का त्याग कर उसका साथ देते, तो उसकी यह मन:स्थिति न होती। एक लंबे अंतराल के पश्चात् वह अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, जो संभव नहीं होता है। ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् सब कुछ लुट जाने के पश्चात् हाथ मलने अथवा प्रायश्चित करने का क्या लाभ व प्रयोजन अर्थात् उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता। जीवन की अंतिम वेला में उसे समझ आता है कि वे महल-चौबारे, ज़मीन-जायदाद, गाड़ियां व सुख-सुविधाओं के उपादान मानव को सुक़ून प्रदान नहीं कर सकते, बल्कि उसके दु:खों का कारण बनते हैं। वास्तविक सुख तो संतोष में है; परमात्मा से तादात्म्य में है; अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाकर संग्रह की प्रवृत्ति त्यागने में है; जो आपके पास है, उसे दूसरों को देने में है;  जिसकी सुधबुध उसे जीवन-भर नहीं रही। वह सदैव संशय के ताने-बाने में उलझा मृग- तृष्णाओं के पीछे दौड़ता रहा और खाली हाथ रहा। जीवन की अंतिम बेला में उसके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त खोने के लिए शेष कुछ नहीं रहता। सो! मानव को स्वयं को माया- जाल से मुक्त कर सृष्टि-नियंता का हर पल ध्यान करना चाहिए, क्योंकि वह प्रकृति के कण-कण में वह समाया हुआ है और उसे प्राप्त करना ही मानव जीवन का अभीष्ठ है।

आलस्य समस्त रोगों का जनक है और जीवन- पथ में अवरोधक है, जो मानव को अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंचने देता। इसके कारण न तो वह अपने जीवन में  मनचाहा प्राप्त कर सकता है; न ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति का स्वप्न संजो सकता है। इसके कारण मानव को सबके सम्मुख नीचा देखना पड़ता है। वह सिर उठाकर नहीं जी सकता और उसे सदैव असफलता का सामना करना पड़ता है, जो उसे भविष्य में निराशा-रूपी गहन अंधकार में भटकने को छोड़ देती है। चिंता व अवसाद की स्थिति से मानव लाख प्रयत्न करने पर भी मुक्त नहीं हो सकता। इस स्थिति से निज़ात पाने के लिए जीवन में सजग व सचेत रहना आवश्यक है। वैसे भी अज्ञानता जीवन को जड़ता प्रदान करती है और वह चाहकर भी स्वयं को उसके आधिपत्य, नियंत्रण अथवा चक्रव्यूह से मुक्त नहीं कर पाता। सो! जीवन में सजग रहते हुए अच्छे-बुरे की पहचान करने व लक्ष्य-प्राप्ति के निमित्त अनथक प्रयास करने की आवश्यकता है। आत्मविश्वास रूपी डोर को थाम कर इच्छाओं व आकांक्षाओं पर अंकुश लगाना संभव है। इस माध्यम से हम अपने श्रेय-प्रेय को प्राप्त कर सकते हैं तथा वह हमें उस मुक़ाम तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध हो सकता है।

‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ अर्थात् केवल ब्रह्म ही सत्य है और भौतिक संसार व जीव-जगत् हमें माया के कारण सत्य भासता है, परंतु वह मिथ्या है। सो! उस परमात्मा के अतिरिक्त, जो भी सुख-ऐश्वर्य आदि मानव को आकर्षित करते हैं; मिथ्या हैं, क्षणिक हैं, अस्तित्वहीन हैं और पानी के बुलबुले की मानिंद पल-भर में नष्ट हो जाने वाले हैं। इसलिए मानव को इच्छाओं का दास नहीं; मन का मालिक बन उन पर नियंत्रण रखना चाहिए, क्योंकि आवश्यकता से अधिक हर वस्तु रोगों की जननी है। सो! शारीरिक स्वस्थता के लिए जिह्वा के स्वाद पर नियंत्रण रखना श्रेयस्कर है। स्वाद का सुख मानव के लिए घातक है; सर्वांगीण विकास में अवरोधक है और हमें ग़लत कार्य करने की ओर प्रवृत्त करता है। अहंतुष्टि के लिए कृत-कर्म मानव को पथ- विचलित ही नहीं करते; अमानुष व राक्षस बनाते हैं और उन पर विजय प्राप्त कर मानव अपने जीवन को सफल व अनुकरणीय बना सकता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print