(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक दिन पिता का…“।)
अभी अभी # 399 ⇒ एक दिन पिता का… श्री प्रदीप शर्मा
एक दिन पिता का (father’s day)
माता पिता का बराबरी का सौदा होता है, अगर मदर्स डे है तो फादर्स डे भी। महिला दिवस की तर्ज पर पुरुष दिवस कब मनाया जाता है, शायद इन तथाकथित “days” यानी “दिनों” का कोई कैलेंडर उपलब्ध हो, क्योंकि कभी कभी तो एक ही दिन में दो दो days टपक जाते है।
खैर हमें इससे क्या, जिस तरह सुबह होती है, शाम होती है, इसी तरह कोई ना कोई day आता है, और चला जाता है। ऐसे ही पितृ दिवस यानी फादर्स डे कब आया और कब चला गया, हमें पता ही नहीं चला। हम भी कभी पिता थे, अब तो लोगों ने हमें अंकल से नाना जी और दादाजी बना दिया है। ।
हमने पिता को तो देखा है, लेकिन कभी परम पिता को नहीं देखा। पिता का और हमारा साथ 33 वर्ष का ही रहा। उसके बाद एक दिन हमारे पिता, परम पिता में विलीन हो गए, यानी हमारे सर से पिता का साया छिन गया और पिछले 42 वर्ष से हमें पिता का प्यार नहीं मिला। तब से हमने परम पिता को ही अपना पिता मान लिया है।
ईश्वर एक है, आप उसे खुदा कहें अथवा परम पिता परमेश्वर। लेकिन जिन अभागों ने अपने बाप को बाप नहीं माना, वे किसी पत्थर की मूरत को भगवान कैसे मान लेंगे। वास्तव में सबका मालिक एक का मतलब भी यही है, सबका बाप एक। ।
जिस तरह ईश्वर एक है, उसी तरह माता -पिता एक इकाई है, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, और शायद इसीलिए उन्हें सम्मिलित रूप से पालक का दर्जा दिया गया है और साफ साफ शब्दों में कह दिया गया है, “त्वमेव माता च पिता त्वमेव”। अंग्रेजी में एक शब्द है spouse, जिसका प्रयोग पति पत्नी दोनों के लिए किया जाता है, यानी दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।
पिताजी के गुजर जाने के बाद, जब तक माता का साया सर पर रहा, पिताजी का अभाव इतना नहीं खला, लेकिन मां के गुजर जाने के बाद महसूस हुआ, एक अनाथ किसे कहते हैं, और तब केवल नाथों के नाथ जगन्नाथ की शरण में जाना ही पड़ा। क्योंकि वही तो पूरे जगत का नाथ है। ।
जिंदगी तो ठहरती नहीं, लेकिन वक्त ठहर सा जाता है। अतीत में झांकने से अब क्या हासिल होना है, हां एक पछतावा जरूर होता है, क्योंकि हमने भी माता पिता की कदर जानी ना, हो कदर जानी ना।
शायद इसीलिए हमारी संस्कृति में पितृ पक्ष की व्यवस्था भी है। उस पखवाड़े में श्रद्धा के प्रतीक स्वरूप ही श्राद्ध कर्म किया जाता है। श्रद्धा का अर्पण ही वास्तविक तर्पण है। पछतावे की भरपाई है। भूल चूक लेनी देनी का सत्यापन है। उनके प्रति नतमस्तक होना, उस परम पिता परमेश्वर के समक्ष नतमस्तक होने के बराबर है। आज की पीढ़ी के लिए ही शायद यह गीत लिखा गया है ;
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सफलता प्राप्ति के मापदंड… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 237 ☆
☆ सफलता प्राप्ति के मापदंड… ☆
अमिताभ बच्चन का यह संदेश जीवन की आदर्श राह दर्शाता है कि यदि आप जीवन में सफलता पाना और आनंदपूर्वक जीवन बसर करना चाहते हैं, तो यह पांच चीज़ें छोड़ दीजिए …सब को खुश करना, दूसरों से ज़्यादा उम्मीद करना, अतीत में जीना, अपने आप को किसी से कम आंकना व ज़्यादा सोचना बहुत सार्थक है, अनमोल है, अनुकरणीय है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी यह कहा गया है कि अतीत के गहन अंधकार से बाहर निकल, वर्तमान में जीना सीखो। जो गुज़र गया, लौट कर कभी आयेगा नहीं। सो! उसकी स्मृतियों को अपने आज को, वर्तमान को नष्ट न करने दो। रात्रि के पश्चात् स्वर्णिम भोर का स्वागत करो; उसकी ऊर्जा को ग्रहण करो। उसकी लालिमा तुम्हें ओज, बल, शक्ति व उम्मीदों से आप्लावित कर देगी। वर्तमान सत्य है, हक़ीक़त है, उसे स्वीकार्य व उपास्य समझो। जो आज है; वह कल लौटकर नहीं आएगा, इसकी महत्ता को स्वीकारो। अतीत में की गई ग़लतियों से शिक्षा ग्रहण करो… उन्हें दोहराओ नहीं, यह सर्वश्रेष्ठ उपहार है।
जो इंसान अपने कृत-कर्मों से सीख लेकर अपने वर्तमान को सुंदर बनाता है– वह श्रेष्ठ मानव है और जो उनसे सीख नहीं लेता, पुन: वही ग़लतियां दोहराता है, निकृष्ट मानव है; त्याज्य है; निंदा का पात्र बनता है और जो दूसरों की ग़लतियों से सीख लेकर उनसे बचता है; दूर रहता है; उन्हें त्याग देता है … वह सब सर्वश्रेष्ठ मानव है। ऐसे महापुरुष महात्मा बुद्ध, महावीर भगवान, गुरु नानक, महात्मा गांधी व अब्दुल कलाम की भांति सदैव स्मरण किए जाते हैं; युग-युगांतर तक उनकी उपासना व आराधना की जाती है; उनकी शिक्षाओं का बखान किया जाता है तथा वे अनुकरणीय हो जाते हैं… क्योंकि वे सदैव सत्कर्म करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
इसलिए ‘जो अच्छा है, श्रेष्ठ है, उसे ग्रहण करना उत्तम है और जो अच्छा नहीं है, उसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है।’ यदि हम उनकी आलोचना में अपना समय नष्ट कर देंगे, तो हमारा ध्यान उनके गुणों की ओर नहीं जाएगा और हम उस निंदा रूपी भंवर से कभी भी मुक्त नहीं हो पाएंगे। इस संदर्भ में मुझे एक महान् उक्ति का स्मरण हो रहा है, ‘यदि राह में कांटे हैं, तो उस पर रेड-कारपेट बिछाने का प्रयास करने की अपेक्षा अपने पांव में जूते पहनना बेहतर है। सो! हमें सदैव उसी राह का अनुसरण करना चाहिए, जो सुविधा- जनक हो; जिसमें कम समय व कम परिश्रम की आवश्यकता हो, न कि व्यवस्था व व्यक्ति विशेष की निंदा करना अर्थात् जो प्रकृति व परमात्मा द्वारा प्रदत्त है, उसमें से श्रेष्ठ चुनने की दरक़ार है। जो मिला है, उसमें संतोष करना अच्छा है, बेहतर है। इसके साथ-साथ गीता का निष्काम कर्म व कर्म-फल का संदेश हमारे भीतर नवीन ऊर्जा संचरित करता है तथा ‘शुभ कर्मण से कबहुं न टरूं’ का संदेश देता है। जीवन में निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, थककर बैठना नहीं चाहिए। जो लोग आत्म-संतोषी होते हैं, अर्थात् ‘जो मिला है, उसी में संतुष्ट रहते हैं, तो उन्हें वही मिलता है, जो परिश्रमी लोगों के ग्रहण करने के पश्चात् शेष बच जाता है। अब्दुल कलाम का यह संदेश अनुकरणीय है कि जो लोग भाग्यवादी होते हैं, आलसी कहलाते हैं। वे नियति पर विश्वास कर संतुष्ट रहते हैं कि जो हमारे भाग्य में लिखा था, वह हमें मिल गया है।
यह नकारात्मक भाव जीवन में नहीं आने चाहिएं। यदि आप सागर के गहरे जल में नहीं उतरेंगे, तो अनमोल मोती कहां से लाएंगे? सो! साहिल पर बैठे रहने वाले उस आनंद व श्रेष्ठ सीपियों से वंचित रह जाते हैं। प्रथम सीढ़ी पर कदम न रखने वाले अंतिम सीढ़ी तक पहुंचने की कल्पना भी नहीं कर पाते, उनके लिए आकाश की बुलंदियों को छूने की कल्पना बेमानी है। मुझे याद आ रही हैं, कवि दुष्यंत की वे पंक्तियां, ‘कौन कहता है/ आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’ सकारात्मकता का संदेश देती हैं। हमें मंज़िल पर पहुंचने से पहले थककर नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि बीच राह से लौटने में उससे भी कम समय लगेगा और आप अपनी मंज़िल पर पहुंच जाएंगे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘एकला चलो रे’ कविता हमें यह संदेश देती है… जीवन की राह पर अकेले आगे बढ़ने का, क्योंकि ज़िंदगी के सफ़र में साथी तो बहुत मिलते हैं और छूट जाते हैं। उनका साथ देने के लिए बीच राह में रुकना श्रेयस्कर नहीं है और न ही उनकी स्मृतियों में अवगाहन कर अपने वर्तमान को नष्ट करने का कोई औचित्य है।
एकांत सर्वश्रेष्ठ उपाय है– आत्मावलोकन का, अपने अंतर्मन में झांकने का, क्योंकि मौन नव-निधियों को अपने आंचल में समेटे है। मौन परमात्मा तक पहुंचने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है और मौन रूपी साधना द्वारा हृदय के असंख्य द्वार खुलते हैं; अनगिनत रहस्य उजागर होते हैं और आत्मा-परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता है… यह ‘एकोहम्-सोहम्’ की स्थिति कहलाती है, जिससे मानव बाहर नहीं आना चाहता। यह कैवल्य की स्थिति है, जीते जी मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।
आइए! हम चर्चा करते हैं… स्वयं को किसी से कम नहीं आंकने व अधिक सोचने की, जो आत्मविश्वास को सर्वोत्तम धरोहर स्वीकार उस पर प्रकाश डालता है, क्योंकि अधिक सोचने का रोग हमें पथ-विचलित करता है। व्यर्थ का चिंतन, एक ऐसा अवरोध है, जिसे पार करना कठिन ही नहीं, असंभव है। आत्मविश्वास वह शस्त्र है, जिसके द्वारा आप राह की आपदाओं को भेद सकते हैं। इसके लिए आवश्यकता है, प्रबल इच्छा-शक्ति की… यदि आपका निश्चय दृढ़ है और आप में अपनी मंज़िल पर पहुंचने का जुनून है, तो लाख बाधाएं भी आपके पथ में अवरोधक नहीं बन सकतीं। इसके लिए आवश्यकता है…एकाग्रता की; एकचित्त से उस कार्य में जुट जाने की और लोगों के व्यंग्य-बाणों की परवाह न करने की, क्योंकि ‘कुछ तो लोग कहेंगे/ लोगों का काम है कहना’ अर्थात् दूसरों को उन्नति की राह पर अग्रसर होते देख, उनके सीने पर सांप लोटने लग जाते हैं और वे अपनी सारी शक्ति, ऊर्जा व समय उस सीढ़ी को खींचने व निंदा कर नीचा दिखाने में लगा देते हैं। ईर्ष्या-ग्रस्त मानव इससे अधिक और कर भी क्या सकता है? उस सामर्थ्यहीन इंसान में इतनी शक्ति, ऊर्जा व सामर्थ्य तो होती ही नहीं कि वह उनका पीछा व अनुकरण कर उस मुक़ाम तक पहुंच सके। सो! वह उस शुभ कार्य में जुट जाता है, जो उसके लिए शुभाशीष के रूप में फलित होता है। परंतु यह तभी संभव हो पाता है, यदि उसकी सोच सकारात्मक हो। इस स्थिति में वह जी-जान से अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जुट जाता है। अगर वह अधिक बोलने वाला प्राणी है, तो उसका सारा ध्यान व्यर्थ की बातों की ओर केंद्रित होगा तथा वह मायाजाल में उलझा रहेगा। यदि परिस्थितियां उसके अनुकूल न रहीं, तो वह क्या करेगा और उसके परिवार का क्या होगा और यदि उसे बीच राह से लौटना पड़ा, तो…तो क्या होगा…वह इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने में स्वयं को असमर्थ पाता है। सो! अधिक सोचना आधि अथवा मानसिक रोग है, जिससे मानव अपनी प्रबल इच्छा-शक्ति व ऊर्जा के बिना लाख प्रयास करने पर भी उबर नहीं पाता।
जहां तक स्वयं को कम आंकने का प्रश्न है… वह आत्मविश्वास की कमी को उजागर करता है। मानव असीमित शक्तियों का पुंज है, जिससे वह अवगत नहीं होता। आवश्यकता है, उन्हें पहचानने की, क्योंकि घने अंधकार में एक जुगनू भी पथ आलोकित कर सकता है… एक दीपक में क्षमता है; अमावस के निविड़ अंधकार का सामना करने की, परंतु मूढ़ मानव न जाने इतनी जल्दी अपनी पराजय क्यों स्वीकार कर लेता है। विषम परिस्थितियों में वह थक-हार कर, निष्क्रिय होकर बैठ जाता है। अक्सर तो वह साहस ही नहीं जुटाता और उस राह पर अपने कदम बढ़ाता ही नहीं, क्योंकि वह अपनी आंतरिक शक्तियों व सामर्थ्य से परिचित नहीं होता। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वरचित काव्य- संग्रह अस्मिता की पंक्तियां ‘औरत! तुझे इंसान किसी ने माना नहीं/ तू जीती रही औरों के लिए/ तूने आज तक/ स्वयं को पहचाना नहीं’ के साथ-साथ मैंने ‘नारी! तू नारायणी बन जा, कलयुग आ गया है/ तू दुर्गा, तू काली बन जा/ कलयुग आ गया है’ के माध्यम से अपनी शक्तियों को पहचानने के साथ-साथ नारी को दुर्गा व काली बनकर शत्रुओं का मर्दन करने का संदेश दिया है। इसलिए मानव को कभी स्वयं को दूसरों से कम नहीं आंकना चाहिए। यदि हम इस रोग से मुक्ति पा लेंगे, तो हम सब को खुश करने व दूसरों से ज़्यादा उम्मीद करने के चक्कर में उससे मुक्त हो जाएंगे।
‘यदि किसी व्यक्ति के शत्रु कम है या नहीं हैं, तो उसने जीवन में बहुत से समझौते किए होंगे’ उक्त भाव की अभिव्यक्ति करता है। हमें दूसरों की खुशी का ध्यान तो रखना चाहिए, परंतु अपनी भावनाओं- इच्छाओं को अपने हाथों रौंद कर अथवा मिटाकर नहीं, क्योंकि हमारे लिए आत्म-सम्मान को बरक़रार रखना अपेक्षित है। वास्तव में जो स्वार्थ हित दूसरों की खुशी के लिए कुछ भी कर गुज़रते हैं, वे चाटुकार कहलाते हैं। हमें रीतिकालीन कवियों बिहारी, केशव आदि की भांति केवल आश्रयदाताओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन नहीं करना है, बल्कि उन्हें उनके कर्तव्य-पथ से अवगत कराना है … ‘नहीं पराग नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल/ अलि कली ही सौं बंध्यो,आगे कौन हवाल’ के द्वारा बिहारी ने राजा जयसिंह को अपने दायित्व के प्रति सजग रहने का संदेश दिया था। साहित्य में जहां सबको साथ लेकर चलने का भाव समाहित है; वहीं साहित्य का सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् भाव से आप्लावित होना भी अपेक्षित है। वास्तव में यही सामंजस्यता है।
आइए! इसी से जुड़े दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात कर लें, यदि हम बात करें कि ‘हमें दूसरों से ज़्यादा उम्मीद नहीं रखनी चाहिए क्योंकि इच्छाएं,आकांक्षाएं व लालसाएं तनाव की जनक हैं। उम्मीद सुंदर भाव है; हमें प्रेरित करता है; परिश्रम करने का संदेश देता है तथा हमारे अंतर्मन में ऊर्जस्वित करता है तथा असीमित शक्तियों को संचरित करता है। इसके साथ ही वह स्वयं से अपेक्षा रखने का संदेश देता है, क्योंकि यदि मानव दूसरों से अधिक उम्मीद रखता है, तो उसके एवज़ में उसे अपने आत्मसम्मान का अपने हाथों से क़त्ल कर, उसके कदमों में बिछ जाना पड़ता है और कठपुतली की भांति उसके इशारों पर नाचना पड़ता है; उसके दोषों पर परदा डाल उसका गुणगान करना होता है। अनेक बार हर संभव प्रयास करने के पश्चात् भी जब हमें मनचाहा प्राप्त नहीं होता, तो हम चिन्ता व अवसाद के व्यूह से बाहर आने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। अर्थशास्त्र का नियम भी यही है कि ‘अपनी इच्छाओं को सीमित रखो और उन पर अंकुश लगाओ।’ इसके साथ यह भी आवश्यक है कि दूसरों से कभी भी उम्मीद मत रखो, क्योंकि मनचाहा न मिलने पर निराशा का होना स्वाभाविक है। मुझे याद आ रहा है वह प्रसंग, जब एक संत प्रजा के हित में राजा से कुछ मांगने के लिए गया और वहां उसने राजा को सिर झुकाए इबादत करते हुए देखा, तो वह तुरंत वहां से लौट गया। राजा उस संत के लौटने की खबर सुन उससे मिलने कुटिया में गया और उसने वहां आने का प्रयोजन पूछा। संत ने स्पष्ट शब्दों में कहा’ जब मैंने आपको ख़ुदा की इबादत में मस्तक झुकाए इल्तिज़ा करते देखा, तो मैंने सोचा– आपसे क्यों मांगूं, उस दाता से सीधा ही क्यों न मांग लूं।’ यह दृष्टांत मानव की सोच बदलने के लिए काफी है। सो! मानव का मस्तक सदैव ख़ुदा के दर पर ही झुकना चाहिए; व्यक्ति की अदालत में नहीं, क्योंकि वह सृष्टि-नियंता ही सबका दाता है, पालनहार है। इसी संदर्भ में गुरु नानक देव जी का यह संदेश भी उतना ही सार्थक है ‘जो तिद् भावे,सो भली कार’…ऐ! मालिक वही करना, जो तुझे पसंद हो, क्योंकि तू ही जानता है; मेरे हित में क्या है? यह है सर्वस्व समर्पण की स्थिति, जिसमें मानव में मैं और तुम का भाव समाप्त हो जाता है। उसे केवल ‘तू और तेरा ही’ नज़र आता है। यह है तादात्म्य की मनोदशा, जहां अहं विगलित हो जाता है… केवल उस नियंता का अस्तित्व शेष रह जाता है। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए हठयोगी हजारों वर्ष तक एक ही मुद्रा में तपस्या करते हैं और मानव इस स्थिति को पाने के लिए लख चौरासी योनियों में भटकता रहता है।
अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि बच्चन जी का यह संदेश सफलता पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है; शांत मन से जीवन जीने की कला है; मैं से तुम हो जाने का सर्वोत्तम ढंग है… उपरोक्त पांच चीज़ो का त्याग कर आप आनंदमय जीवन बसर कर सकते हैं। सो! इसमें निहित हैं–समस्त दैवीय गुण। यदि आप इस मार्ग को जीवन में अपना लेते हैं, तो शेष सब पीछे-पीछे स्वत: चले आते हैं। ‘एक के साथ एक फ्री’ का प्रचलन तो आधुनिक युग में भी प्रचलित है। यहां तो आप उस नियंता की शरण में अपना अहं विसर्जित कर दीजिए; जीवन की सब समस्याओं-इच्छाओं का स्वत: शमन हो जाएगा और मानव ‘मैं व मेरा भाव’ से विमुक्त हो जाएगा और ‘तू ही तू और तेरा भाव में परिवर्तित हो जाएगा, जिसकी चाहत हर इंसान को आजीवन रहती है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सेवारत और निवृत्त”।)
अभी अभी # 397 ⇒ सेवारत और निवृत्त श्री प्रदीप शर्मा
हम सभी की कमोबेश एक ही स्थिति है, कोई सेवारत है तो कोई सेवानिवृत्त। सेवा को अंग्रेजी में सर्विस कहते हैं, और सेवक को सर्वेंट। सेवा और सेवक कितने सुंदर शब्द हैं जब कि सर्विस और सर्वेंट जैसे शब्दों में वह सम्मान और गरिमा कहां। वही मजबूरी जो नौकर और नौकरी जैसे शब्दों में है। आज एक करोड़ के पैकेज को कोई विरहन दो टकियां दी नौकरी कहने की जुर्रत नहीं कर सकती।
आप भले ही चपरासी को भृत्य कह लें और नाच को नृत्य, लिपिक, बाबू और क्लर्क आपको एक ही कतार में खड़े मिलेंगे। जहां सेवा के साथ परिश्रमिक जोड़ दिया जाता है, उसमें सेवा की जगह पेशेवर दृष्टिकोण उजागर हो जाता है। फिर भी अफसरी और एंप्लॉयर में जो रौब और रुतबा है वह एक अदद बाबू अथवा साधारण एम्प्लॉई में नहीं।।
क्या सेवानिवृत्त होते से ही हमें काम के साथ सेवा से भी निवृत्त कर दिया जाता है। खेल खतम, पैसा हजम। भाई आपने नौकरी छोड़ी है, सेवा करने से आपको कौन रोक रहा है। सेवा शब्द तो काम धंधे और नौकरी पर सोने चांदी की पॉलिश है जो सेवानिवृत्त होते ही उतर जाती है। हां पैंशन डकारते वक्त कभी कभी शासकीय सुविधा, भत्ते, दौरे और ऊपरी इनकम जरूर याद आ जाती है।
जिन्होंने जीवन भर ईमानदारी से सेवा की है, वे आज भी कहीं ना कहीं, कुछ ना कुछ रचनात्मक कार्य से अपने समय का सदुपयोग कर रहे होंगे। सेवा का क्षेत्र और दायरा बड़ा विस्तृत और विशाल है। कार्य से निवृत्ति तो संभव है, लेकिन सेवा से निवृत्ति इतनी आसान नहीं। माया तो आपको मिल ही गई जब आप सेवारत थे, अब अपने राम, निः स्वार्थ सेवा अथवा परमार्थ से जुड़ जाएं, तो शायद राम भी मिल जाएं।।
केवल कवि की ही दृष्टि रवि से भी अधिक दूर की नहीं होती, एक सच्चे सेवक प्रशासक की दूर दृष्टि से कोई सेवा कार्य बच नहीं सकता। रिटायर होते ही कई सामाजिक संस्थाएं, यानी NGO’s अपने द्वार उनके लिए खोल देती हैं। योग्य और काबिल इंसान की कहां कद्र नहीं।
सेवानिवृत्ति उन्हें पुनः निष्काम सेवा की ओर प्रवृत्त करती है। सेवा में भी इनबिल्ट पैकेज होता है, करोगे सेवा, तो पाओगे मेवा। निष्काम कर्म में भले ही फल की आशा ना करें, लेकिन सेवा कभी निष्फल नहीं जाती। यश, कीर्ति और सम्मान अगर मिलता रहे, तो सेवानिवृत्ति का कोई मलाल नहीं रह जाता।।
सच्ची सेवा तो ईश्वर की सेवा होती है, लेकिन ईश्वर है कि कहीं नजर ही नहीं आता। जो कार्य सेवारत रहते हुए नहीं कर पाए, अगर वही कार्य सेवा समझकर सेवा निवृत्ति के बाद कर लिया जाए, तो क्या बुरा है।
अब तो सेवा भी कंज्यूमर आइटम हो गई है। सभी सुविधाएं आजकल सेवा ही कहलाने लग गई है। पूरा बाजार आपकी सेवा के लिए 24×7 तत्पर है। सरकार सबसे बड़ी सेवा, हम पर जीएसटी लगाकर कर रही है। सेवा के द्वार खुले हैं, आप भी सेवा कीजिए, पैसा और पुण्य दोनों कमाइए। देश को समृद्ध, मजबूत और एक विकसित राष्ट्र बनाइए।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सुषुम सेतु पर खड़ी…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 201 ☆ सुषुम सेतु पर खड़ी… ☆
अहम,वहम, सहम, रहम और हम के बीच में उलझा हुआ इंसान सही गलत के बीच अंतर को अनदेखा करता है। सभी का मूल्यांकन एक न एक दिन अवश्य होता है, कोई देखे या न देखे हमें सत्य के मार्ग का चयन करना चाहिए। अपने तय किए गए रास्ते पर चलते हुए मंजिल की ओर जाना आसान होता है। अक्सर देखने में आता है कि बच्चे डिजिटल दुनिया से सब कुछ सीखने का प्रयास करते हैं। यहाँ उन्हें एक क्लिक पर बिना रोकटोक, बिना किचकिच प्रश्नों के उत्तर आसानी से मिलते हैं। पर माता- पिता की सशंकित नजर हमेशा घबराती है। बच्चों के भटकने का डर स्वाभाविक है। लगभग सभी माँ अपने बच्चे से कहती हुई मिलेंगी…
कितनी बार कहा कि इस आकर्षण से निकलो ये तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा, इस इंटरनेट की चमक – दमक भरी दुनिया से सिवा धोखे के कुछ नहीं मिलने वाला विनीता ने अपनी बेटी से कहा।
इस पर उसकी बेटी नैना ने कहा माँ ऐसी बात नहीं है। जिस तरह एक सिक्के के दो पहलू होते हैं वैसे ही इस डिजिटल दुनिया से लाभ और हानि दोनों हैं। आज के समय में केवल किताबी ज्ञान से काम चलने वाला नहीं है, हमें समय के साथ तेजी से भागना होगा और उपयोगी व अनुपयोगी वस्तुओं के बीच अंतर भी सीखना होगा।
विनीता ने धीरे से सहमति की मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा वो तो ठीक है बेटा पर माँ का मन है हमेशा इसी चिन्ता में लगा रहता है कि कहीं तुम भटक न जाओ। अच्छी आदतों को सीखने में वक्त लगता है पर बुरी आदतों का मोहजाल ऐसा भयानक होता है कि उसकी गिरफ्त में कोई कब आ जाए कहा नहीं जा सकता।
नैना ने विनीता की आँखों में झाँकते हुए कहा आप की बात एकदम सही है, जब आप मेरे साथ साये की तरह हो तो मुझे घबराने की कोई जरुरत ही नहीं है जहाँ भी ऐसा लगे कि मैं अपने लक्ष्य से भटक रहीं हूँ तो अवश्य टोक दीजियेगा।
हाँ, ये तो है बेटा, जब लक्ष्य निर्धारित हो और उसे पाने के लिए परिश्रम की राह चुन ली गयी हो तो भटकने का खतरा बहुत कम हो जाता है, तथा व्यक्ति अनावश्यक के आकर्षण से भी स्वतः बच जाता है।आज आवश्यकता है सजग रहने की तो जागिए और जगाइए साथ ही डिजिटल दुनिया की ओर कदम से कदम मिलाते हुए आगे बढ़िए।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कीट नियंत्रण – (Pest Control)“।)
अभी अभी # 396 ⇒ कीट नियंत्रण – (Pest Control) श्री प्रदीप शर्मा
तब हमने ना तो स्वच्छ भारत अभियान का नाम सुना था और ना ही पेस्ट कंट्रोल जैसी बीमारी का नाम। शाम होते ही अचानक मोहल्ले में भगदड़ मच जाती, धुंए वाली मशीन आ रही है, खाने का सामान ढांककर रख दो, अपने मुंह पर कपड़ा बांध लो। और थोड़ी ही देर में एक वाहन वातावरण में धुंआ फैलाता गुजर जाता। डीडीटी की बदबू सांसों में भर जाती, आंखों के आगे अंधेरा छा जाता।
तब कहां घर घर कमोड था, खुली नालियां थीं, और घरों में डब्बे वाले शौचालय थे, पीछे गली रहती थी, और इंसान सिर पर मैला ढोता था। तब और अब में जमीन आसमान का अंतर है, लेकिन मक्खी, मच्छर और काक्रोच आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं।।
स्वास्थ्य और हाइजीन के प्रति आम नागरिक और प्रशासन कल की तुलना में आज बहुत अधिक मुस्तैद और जागरूक है, स्वच्छ भारत अभियान अपनी बुलंदियों पर है और घर घर हार्पिक, एसिड, डेटॉल और लायज़ॉल की खुशबू से घर महकता रहता है। मच्छरों के लिए ऑल आउट और काला हिट, काला जादू का काम करता है। फिर भी सावधानी के लिए समय समय पर घरों में पेस्ट कंट्रोल की सलाह दी जाती है।
एक तरह का व्हाइट वाॅश ही तो होता है पेस्ट कंट्रोल। घर के कोने कोने में कीट प्रजाति के प्राणियों को जड़ से खत्म किया जाता है। एक तरह से उनके वंश का नाश किया जाता है। किसे पसंद है उनका मधुर संगीत, और वह भी रात के अंधेरे में।।
बारिश के आते ही, सड़कों पर और मैदानों के ठहरे हुए पानी में मेंढक अपना राग अलापना शुरू कर देते हैं, एक अदबी महफिल शुरू हो जाती है, जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। लगते होंगे किसी को दूर के ढोल सुहाने, लेकिन इस तरह का गीत जब बज रहा हो, और आपके घर में गायक झींगुर महोदय स्वयं उपस्थित हों, तो आप क्या करेंगे ;
सुनो तो ज़रा, झींगर बोले चीकीमीकी चीकीमीकी रिमझिम के ये प्यारे प्यारे गीत लिए …
भाई साहब, हमसे तो कंट्रोल नहीं होता और हम एक पेस्ट कंट्रोल वाले को फोन लगा ही देते हैं। उधर पेस्ट कंट्रोल वाले आते हैं और इधर कोई परिचित मेहमान फोन द्वारा टपकने की सूचना देते हैं। फोन धर्मपत्नी उठाती है, और उन्हें साफ मना कर देती है, सभी घर में गेस्ट कंट्रोल चल रहा है, आप बाद में पधारिए। भले ही जबान अनजाने में फिसली हो, गेस्ट को नाराज तो होना ही था।
आप पेस्ट कंट्रोल करवाएं, ना करवाएं, लेकिन ये सामान्य सावधानियां तो रख ही सकते हैं ;
खुद करें घर में पेस्ट कंट्रोल
रात को जूठे बरतन सिंक में न छोड़ें. इस से कौकरोच और चींटियों को खाना मिलता है. …
बचे खाने को फ्रिज में रखें. …
डस्टबिन ढकी होनी चाहिए.
कमरे के फर्श को दिन में 1 या 2 बार साबुन के पानी से साफ करें.साबुन के घोल में हमने केंचुए को मरते देखा है।
बाथरूम और किचन की नियमित सफाई करें.
भीगे कपड़ों को बाथरूम में अधिक देर तक न रखें।।
विज्ञान और माइक्रोबायोलॉजी जिन्होंने पढ़ी है, वे जानते हैं, मक्खी जहां बैठती है, वहीं अंडे दे देती है। बरसात में धूप के अभाव में मक्खी हमारे आसपास अधिक घूमती है। हमारे पहले वह कहां कहां आसन जमाकर आई होगी, कौन जानता है।
जब वह मेरी नाक पर बैठती होगी तो वहां भी अवश्य अंडे देती होगी।
जनसंख्या नियंत्रण जब होगा तब होगा, अपने घर और परिवार को स्वस्थ व तंदुरुस्त रखने के लिए अपने स्तर पर कीट नियंत्रण अर्थात् पेस्ट कंट्रोल तो आपको करना ही होगा। इसी बहाने कुछ समय के लिए गेस्ट कंट्रोल भी अपने आप ही हो जाएगा। कृपया मेहमान बुरा ना मानें।।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक एकांकी –“छत्रपति शिवाजी की सूझबूझ”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 175 ☆
☆ एकांकी–छत्रपति शिवाजी की सूझबूझ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
स्थान- घर का एक बरामदा की धूप का परिदृश्य
पात्र-
पिता– छत्रपति शिवाजी की सेना का एक वीर सैनिक
मां- इस वीर सैनिक की पत्नी
पुत्र- वीर सैनिक का पुत्र
पुत्री- वीर सैनिक की पुत्री
(दृश्य – घर के बरामदे में धूप में बैठी सैनिक की पत्नी उसकी पुत्री की चोटी गूंथ रही है।)
पुत्री- मां धीरे करो। दर्द होता है। (बालिका मुंह बनाते हुए)
मां- मैं तो धीरे ही चोटी गूंथ रही हूं। थोड़ा तो दर्द होगा ही। (माता उसके माथे पर एक हाथ से झटका देते हुए) थोड़ी देर तो चुप रहा कर।
पुत्री-वही तो कर रही हूं।
(मां चुपचाप चोटी गूंथने लगती है।)
(अचानक बालिका कुछ सुनते हुए अपनी गर्दन हिलाती है।)
पुत्री- मां! देखो तो।
मां- क्या देखूं? (मां इधर-उधर देखते हुए)
पुत्री- नहीं मां। देखो नहीं। ध्यान से सुनो।
मां- बेटी, घोड़े की टॉप की आवाज आ रही है।
(पास से घोड़े की टापों की आवाज पहले धीरे-धीरे आती है। और तेजी से बढ़ने लगती है। जैसे घोड़े धीरे-धीरे पास आ रहे हो।)
पुत्री- मां, लगता है बप्पा आ गए हैं।
मां- घोड़े की टॉप से तो ऐसा ही लगता है।
पुत्री- मां। क्या भैया की मांग पूरी हुई होगी?
मां- पता नहीं बेटी। (मां ने कहा और ध्यान से टापों की आवाज सुनाने लगी।)
पुत्री- हां मां, ध्यान से सुनो।
मां- तू सही कहती है पुत्री। यह एक नहीं दो घोड़े की टॉपों की आवाज आ रही है। (कहते हुए मां पुत्री को हाथों से धक्का देकर उठाते हुए कहती है) अंदर जा। स्वागत की थाली लेकर आ जा।
(पुत्री कमरे के अंदर जाकर स्वागत का थाल ले आती है। मां सिर पर अपना पल्लू सजाते हुए खड़ी हो जाती है।)
मां- लो। वे आ गए। (मां पुत्री के हाथ से स्वागत का थाल ले लेती है।)
पुत्री– हां मां। दोनों के चेहरे खिले हुए हैं।
मां– लगता है काम बन गया हैं। (कह कर मां दो कदम आगे बढ़ती है।) आपका हार्दिक स्वागत है!
पुत्र- हां मां! आपका आशीर्वाद फलीभूत हो गया है। (पुत्र मां के चरण स्पर्श करता हैं। तभी मां के हाथ आशीर्वाद के लिए ऊपर उठ जाते हैं।) तुम अपने पिता की तरह ही इस माटी का नाम रोशन करो।
पिता- आखिर बेटा किसका है? (तभी साथ आया हुआ आंगुतक पिता अपनी मूंछो पर ताव देते हुए कहता है।)
मां- बहादुर शेर पिता की तरह बहादुर शेर संतान है।
(मां आंगुतक पिता के तिलक लगा देती है। दोनों चारपाई पर बैठ जाते हैं। मगर पुत्र इधर-उधर घूमता रहता है। वह अधीरता से कहता है।)
पुत्र- मां! जानती हो मां दरबार में क्या हुआ था?
मां- हां बेटा। बता। मगर इस चारपाई पर बैठकर।
पुत्री- हां भैया! बताओ ना। वहां क्या हुआ था?
पुत्र- जानती हो मां, जब हम दरबार में पहुंचे तब क्या हुआ?
मां- क्या हुआ मेरे शेर। बता तो।
पुत्र- महाराज छत्रपति शिवाजी महाराज ने मेरी ओर देखकर कहा- इस बालक के मुख से एक अलौकिक तेज झलक रहा है।
मां- अच्छा बेटा। हमारे प्रिय महाराज ने ऐसा कहा था।
पुत्र- हां मां। मुझे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। महाराज शिवाजी ने कहा- बोलो वीर पुत्र! क्या चाहिए?
मां– अच्छा। उन्हें स्वयं ही पता चल गया कि तुम कुछ मांगने आए हो?
पुत्र- हां मां। महाराज छत्रपति शिवाजी जितने बहादुर, वीर और कुशल शासक हैं उतने ही दूसरे की मंशा पकड़ने में माहिर है। (कहते हुए पुत्र ने अपनी बहन की ओर देखा। वह वह अपलक अपने भाई को निहारे जा रही थी।)
मां– फिर?
पुत्र- मैंने कहा- महाराज छत्रपति शिवाजी की जय हो! वे सदा विजयी रहे! जिसे सुनकर महाराज छत्रपति शिवाजी मुस्कुरा दिए।
मां-अच्छा!
कब से चुपचाप बैठे हुए पिता ने कहा- सत्य कहता है हमारा पुत्र।
मां- फिर क्या हुआ?
पुत्र- मैंने कहा- महाराज आपका हौसला बुलंद हो। मुझे नाचीज को एक उम्दा किस्म का घोड़ा चाहिए।
मां- फिर?
पुत्र- फिर क्या मां। दरबार में सन्नाटा छा गया। इस वक्त एक मंत्री ने खड़े होकर कहा- महाराज गुस्ताखी माफ हो हुजूर!
मां- फिर?
पुत्र- तभी छत्रपति शिवाजी महाराज ने कहा- बोलिए मंत्री जी। क्या कहना चाहते हो? तब मंत्री जी ने कहा- महाराज! एक बालक को घोड़े देने में घोड़े की क्या उपयोगिता रहेगी?
मां-फिर क्या हुआ बेटा?
पुत्र- तब कुछ देर दरबार में सन्नाटा छाया रहा। तब छत्रपति शिवाजी महाराज ने मेरी और देखा- वीर बालक! इस बारे में तुम्हारी राय क्या है?
(कहते हुए बालक पिताजी के पास खड़ा हो गया) -पिता श्री! यही हुआ था ना?
पिता- हां पुत्र। कहते रहो। बहुत ठीक कह रहे हो।
पुत्र-तब मां मैंने कहा- महाराज की जय हो! यदि मंत्रीवार घोड़े की उपयोगिता जानना चाहते हो तो मुझे तलवार के दो-दो हाथ कर लें। तब उन्हें पता चल जाएगा कि मेरे लिए इस घोड़े की क्या उपयोगिता है?
मां- अच्छा! फिर?
पुत्र- फिर क्या मां, वह मंत्री यही चाहता था। वह तलवार लेकर मेरे पास आ गया- चलो बालक! तुम्हारी इस तमन्ना को पूरी कर देता हूं। कह कर वह इस तरह खड़ा हो गया जैसे किसी नादान बालक के सामने खड़ा हो।
मां- फिर क्या हुआ पुत्र?
पुत्र- होना क्या था मां, मैंने इस तरह तलवार चलाई कि वह चकित रह गया। तब वह सावधान होकर तलवार चलाने लगा। उसने कई दांवपेच चले। ताकि मुझे धूल चटा सके।
मां- फिर?
पुत्र- फिर क्या था मां। दरबार व महाराज छत्रपति शिवाजी भी मेरे तलवार कौशल को देखते रह गए। मंत्रीवर ने हारता देखकर अपना पैंतरा दिखाने की कोशिश की। मगर उनके सब पैंतरे फेल हो रहे थे।
पुत्री- फिर क्या हुआ भैया?
पुत्र-होना क्या था बहन। मैंने उसकी नजर बचाकर तलवार का एक पैंतरा लगाया। तलवार सीधे दोनों पैर के बीच से होकर कमर की ओर जाने लगी। यह देखकर उनके होश उड़ गए। तब मैंने तलवार पैर के ऊपर जोड़ के पास ले जाकर रोक दी।
(कब से चुप बैठे पिता ने कहा)
पिता- भाग्यवान! वह दृश्य देखने लायक था। दरबार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। महाराज छत्रपति शिवाजी अपने सिंहासन से उठकर नीचे आ गए।
मां- फिर?
पुत्र- उन्होंने आते ही मुझे अपने सीने से लगा लिया। शाबाश! मेरे वीर बालक! तुमने अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी है। हमारे मंत्रीवर को हरा दिया।
मां- अच्छा! उन्होंने ऐसा कहा!
पुत्र- हां मां।
पुत्री-अच्छा भैया!
पुत्र- हां बहन।
माँ- फिर?
पुत्र- फिर मैंने कहा- महाराज! मंत्रीवर हारे नहीं है। उन्होंने मुझे जीता दिया। तब महाराज ने चौक कर कहा- क्या मतलब है वीर बालक आपका?
मां- हूं।
पुत्र-तब मैंने कहा- महाराज! मंत्रीवर का अभ्यास छूटा हुआ है। इस कारण उन्होंने मुझे जीतने दिया। अन्यथा मैं कभी नहीं जीतता।
मां-अच्छा।
पुत्र- हां मां। तब महाराज छत्रपति शिवाजी ने कहा- बेटा! तुम बहादुर नहीं बल्कि बुद्धिमान बालक भी हो। तब सभी मंत्री जोर से बोल पड़े- वीर बालक की, जय हो!
मां- अच्छा!
पुत्र- हां मां। यह कहते हुए छत्रपति शिवाजी ने कहा- यदि धरती पर सभी लाल इसी तरह बुद्धिमान व बहादुर हो जाए तो यह देश कभी गुलाम नहीं हो सकता।
(मां यह सुनकर गर्व से खड़ी हो जाती है।)
मां-आखिर लाल किसका है?
पुत्री- मेरा भैया!
पिता- ऐसा पुत्र सबको मिले। ताकि सब माता-पिता उस पर गर्व कर सके।
(यह सुनकर सभी खिलखिला कर हंस पड़ते हैं और पर्दा गिर जाता है)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बात करने की कला…“।)
अभी अभी # 395 ⇒ बात करने की कला… श्री प्रदीप शर्मा
ज्यादा बात वे ही करते हैं, जिन्हें बेफिजूल बात करने की आदत नहीं होती। Everything is an art. हर चीज एक कला है, बोलना भी तो एक कला ही है। कहीं आवाज, तो कहीं लहज़ा और स्टाइल। बचपन में रेडियो से एक आवाज गूंजती थी, ये आकाशवाणी है, और हम समझ जाते थे, अब आप देवकीनंदन पांडे से समाचार सुनिए।
उसके बाद सालों एक आवाज पहचान बन गई अमीन सायानी की, बहनों और भाइयों। आज बहनों और भाइयों को किसी और आवाज ने ही टेक ओवर कर लिया है। वह आवाज अब गारंटी बनकर पूरे देश में छा चुकी है।।
कुछ वक्ता अच्छे नेता होते हैं, और कुछ नेता सिर्फ अच्छे वक्ता होते हैं। राजनीति के अलावा विज्ञापन की दुनिया में भी बच्चों बड़ों को मोह लेने वाली कुछ आवाजें होती हैं। ललिता जी को कोई शायद ही कभी भूल पाए, भाई साहब, सर्फ़ की खरीददारी में ही अधिक समझदारी है।
आम जीवन में कोई स्क्रिप्ट राइटर अथवा सलीम जावेद जैसा डायलॉग राइटर नहीं होता, फिर भी हमारी घरेलू महिलाएं बातों में पुरुषों से बाजी मार ले जाती हैं। जिसके हाथ में कैंची होती है, उसकी जबान वैसे भी ज्यादा ही चलती है। कढ़ाई, सिलाई और बुनाई भी कभी बिना बातों के संभव हुई है। एक जमाना था, जब पापड़ बेलना अथवा चक्की पीसना जैसे काम महिलाएं मिल जुलकर, बातों बातों में ही निपटा देती थी।
वैसे बातों में किसी का एकाधिकार नहीं है। बात बनाने में, और बात का बतंगड़ बनाने में पुरुष भी पीछे नहीं। ऊंची ऊंची हांकने में अक्सर पुरुष ही बाजी मार ले जाता है। “हमारे जमाने में”, हर पुरुष का तकिया कलाम होता है लेकिन घर की स्त्री के आगे उसकी एक नहीं चलती। सौ सुनार की और एक लोहार की।।
जो लोग धाराप्रवाह बोलते हैं, वे अक्सर बिना सोचे समझे ही बोलते हैं, लेकिन उनकी बातों के जाल में श्रोता ऐसा उलझ जाता है कि उसकी बोलती बंद हो जाती है। आपको वे बीच में बोलने का मौका ही नहीं देते। आपका बीच में बोलना उन्हें टोका टोकी लगता है, लेकिन जब आप अपनी बात कहते हैं, तो आपको टोककर पुनः अपना राग अलापना शुरू कर देते हैं।
बातों का शब्द जाल, जिसे लच्छेदार भाषा कहते हैं, कुछ विरलों की ही जागीर होती है। सामने वाले को बातों में उलझाना सबके बस का नहीं होता। हमेशा बेचारा समय ही घुटने टेक देता है, लेकिन बातें खत्म होने का नाम नहीं लेती।।
बहनों और सहेलियों के पास कितना बातों का स्टॉक होता है और कितना उनका टॉकटाइम यह तो शायद ईश्वर भी नहीं जानता। मेरे घर में तो रॉन्ग नम्बर होने पर भी फोन एंगेज ही रहता है। रॉन्ग नंबर था, किसी अस्पताल को लगाया था, गलती से यहां लग गया। थोड़ी सुख दुख की बात कर ली, तो क्या गलत किया।
आपस में जितनी चाहें बात करें, लेकिन जब फोन अनावश्यक रूप से बातों में उलझा रहता है, तो बड़ी कोफ़्त होती है। कितने ही जरूरी कॉल्स लग नहीं पाते। कोई इमरजेंसी है, कोई घर आने की सूचना देना चाहता है, कुछ भी
अप्रत्याशित घट सकता है, बातों का क्या है, बातें तो बाद में भी हो सकती हैं।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हम लिखते क्यूं हैं ?“।)
अभी अभी # 394 ⇒ हम लिखते क्यूं हैं ? श्री प्रदीप शर्मा
यह एक ऐसा ही प्रश्न है, मानो किसी जीते जागते व्यक्ति से पूछा जाए, वह जिंदा क्यूं है, अथवा किसी खाते पीते इंसान से पूछा जाए, वह खाता क्यूं है। लेकिन कभी कभी भरे पेट, अथवा खाली दिमाग, ऐसे प्रश्न पूछने में आ ही जाते हैं।
जिंदगी तो जीना है, और जिंदा रहने के लिए खाना भी जरूरी है, लेकिन इसके अलावा क्या जरूरी है और क्या नहीं, यह हर व्यक्ति की परिस्थिति, प्राथमिकता और पसंद पर निर्भर करता है। भोजन करने से पहले कोई व्यक्ति यह नहीं सोचता, वह क्यूं खा रहा है, और पेट भरने के बाद कहां ऐसे खयाल आते हैं।।
लेखन का भी ऐसा ही है, लिखने के पहले कभी ऐसा खयाल नहीं आता कि हम क्यूं लिख रहे हैं, और लिखने के बाद तो ऐसे प्रश्न का सवाल ही पैदा नहीं होता। हर प्रसिद्ध लेखक से फिर भी इस तरह के प्रश्न किए जाते हैं, जिनके जवाब भी लाजवाब होते हैं।
मेरे सामने आज यह प्रश्न क्यूं पैदा हुआ, मैं कुछ समझ नहीं पाया, लेकिन जब से कल अनूप शुक्ल जी की जबानी दीपा की कहानी सुनी है, मेरे लेखन पर भी मेरी निगाह उठ गई है। हम साधारण इंसान हैं, कोई गोर्की, प्रेमचंद अथवा परसाई, त्यागी, शरद नहीं। लेकिन अगर आप एक साधारण इंसान के बारे में नहीं लिख पाते, तो आपके आदर्श आपके लेखन से कोसों दूर ही रहेंगे, और आप बार बार यह सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि आखिर आप लिखते ही क्यूं हैं।।
अनूप शुक्ल जी को पढ़ना, अपने आपको पढ़ना है, हर उस आम आदमी को पढ़ना है, जो हमारे आसपास मौजूद है, लेकिन हमारी लेखनी उससे कहीं कोसों दूर, कुछ और ही तलाश रही है। हम लिखना पढ़ना तो सीख गए, लेकिन लिखना कब सीखेंगे।
हम लिखते क्यूं है, इसका पूरा जवाब मुझे अनूप शुक्ल जी के कल के आलेख, दीपा से मुलाकात से मिल गया है। अक्सर इस विषय पर बहस हुआ करती है कि एक लेखक, साहित्यकार अथवा व्यंग्यकार कोई जननेता, समाज सेवी अथवा सामाजिक
कार्यकर्ता नहीं है। वह समाज को सिर्फ आईना दिखा सकता है, लेकिन शुक्ल जी जो साहित्य सेवा के अलावा शासकीय सेवा से भी जुड़े रहे हैं, आज सेवानिवृत्त होने के बाद भी सेवा से मुंह नहीं मोड़ रहे हैं।।
साहित्य सेवा के लिए तो साहित्यकारों और लेखकों को पुरस्कृत किया ही जाता है, लेकिन साहित्य के साथ साथ अगर अपने आसपास के असली पात्रों और चरित्रों पर निगाह डाली जाए, उनसे करीबी रिश्ता दीपा की तरह बनाया जाए, उनके चेहरे पर मुस्कान लाई जाए तो यह सेवा साहित्य सेवा से कई गुना श्रेष्ठ है।
जीवन जितना सहज और सरल हो, वह उतना ही सुंदर होता है। खाली कॉपियों पर हमने बहुत सुंदर लेखन किया, लेकिन फिर भी लेखनी में वह सुंदरता और सहजता नहीं आई जो अनूप शुक्ल जी के लेखन में झलकती है।
उनकी सहजता और सरलता कब सेवा में परिवर्तित हो जाती होगी, शायद वे भी नहीं जान पाते होंगे। एक अच्छा लेखक यूं ही नहीं लिखता।।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 88 ☆ देश-परदेश – पिता के संस्कार और परंपरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆
पिता शब्द सुनते ही अनुशासन का बोध होने लगता हैं। ऐसा हम इस दावे के साथ कह सकते है, कि पिताजी के पिता यानी हमारा दादा जी के समक्ष पिता जी की भी चूं नहीं निकलती थी।
पिता जी पच्चास वर्ष से ऊपर की आयु के होंगे, लेकिन दादा जी के समक्ष छोटे से युवा के समान पेश आते थे। दादा जी की दृष्टि भी बहुत कमजोर हो चुकी थी। प्रतिदिन जब देर रात्रि पिताजी दुकान को बढ़ा /मंगल कर घर आते तो दुकान की चाबियां और धन राशि की पोटली दादा जी को सम्मान पूर्वक दे दिया करते थे।
दादा जी परिवार के किसी भी सदस्य को बुला कर धन राशि और चाबियां घर की एक अलमारी में रख कर उसकी चाबी को अपने पास सहेज कर रख लेते थे।
हम सब भाई/ बहिनों ने वर्षों तक ये क्रम देखा और महसूस भी किया कि बड़े बुजर्गों का सम्मान और इज्ज़त कैसे की जाती है।
पिताजी की इन आदतों को देख कर हमारे में भी ये संस्कार कब आ गए, ज्ञात ही नहीं हुआ। ये सब संभव हुआ हमारे पिताजी के कारण, उनका अनुशासन पालन एक मिसाल हैं।
पिताजी की बराबरी तो नहीं कर सकते, परंतु उनके द्वारा स्थापित परंपराएं और परिवार के प्रति कर्तव्य प्रयंता के निर्वहन को जारी रखने के लिए कटिबद्ध हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आम सभा…“।)
अभी अभी # 393 ⇒ आम सभा… श्री प्रदीप शर्मा
भले ही आम चुनाव संपन्न हो गए हों, सरकारों का गठन भी शुरू हो गया हो, लेकिन मेरा आम चुनाव अभी भी जारी है। लोग आम चुनाव में पार्टी चुनते हैं, मैं चुनाव में अपनी पसंद का आम चुनता हूं।
जिस तरह राजनीति में आम आदमी की अपनी पसंदीदा पार्टी होती है, उसी तरह आम में भी मेरी पसंद होती है। आम के चुनाव के मौसम में मुझे किसी एक आम को नहीं चुनना, कभी लंगड़ा, कभी बदाम, कभी दशहरी तो कभी देसी आम को ही चूसना।
असली आम चुनाव तो वही है, जिसमें आदमी आम को चूसे, लेकिन यह कैसा आम चुनाव, जिसमें एक चुना हुआ आदमी, आम आदमी को काटे, छीले, चूसे और फेंके।।
आमों की सभा में से अक्सर मुझे अपनी पसंद का आम चुनना पड़ता है, आम मीठा भी हो, रसदार भी हो, और सस्ता भी हो। आम आदमी की पसंद अगर आम होती है, तो खास की कुछ खास। बदाम, तोतापरी, और दशहरी अगर आम है, तो बनारस का लंगड़ा, चौसा, गुजरात का केसर, और रत्नागिरी का अल्फांसो खास। जिनके घरों में अल्फांसो की पेटी आती है, वे आम नहीं, खास किस्म का आम खाते हैं।
एक आम देसी भी होता है, जो काटा नहीं, चूसा जाता है। आम चूसना, गन्ना चूसना जितना मुश्किल भी नहीं। लेकिन देसी आम धीरे धीरे बड़े शहरों से दूर होता चला जा रहा है। वैसे भी देसी आम चूसने से बेहतर है, अल्फांसो आम को काटकर खाया जाए और आम आदमी को चूसा जाए।।
हमें आम सभा में देसी आम कहीं नजर नहीं आता। इसलिए हमारा आम चुनाव भी एक तरह का गठबंधन ही होता है, कभी बनारस का लंगड़ा तो कभी गुजरात का केसर। बादाम ना सही, बदाम आम ही सही।
बरसों बाद हमारी देसी आम चूसने की मुराद पूरी हुई, जब अचानक हमारी बहन के सौजन्य से हमारे घर में देसी आम का प्रवेश हुआ। किसी परिचित के बगीचे के देसी आम थे। बस फिर क्या था, तबीयत से धोया, और टूट पड़े सब मिलकर। आम को पहले नर्म यानी पिलपिला करना, फिर उसका ढक्कन खोलकर मुंह से लगाना।
चूसते जाओ, चूसते जाओ, जैसे भ्रष्ट नेता, अफसर और व्यापारी आपको चूसता है, तब तक, जब तक गुठली बाहर ना आ जाए, लेकिन अपना दामन बचाकर, क्योंकि आम आदमी का आक्रोश कभी भी फूट सकता है। हम भी मनोयोग से मिल जुलकर आम चूसते रहे, जब तक आख़री आम ना चुक गया। अहा, क्या आम सभा थी और हम सबके चेहरों पर वही भाव था, जो आम चुनाव के बाद, बहुमत से जीतने के बाद किसी नेता का होता है। देसी आम चुनाव सम्पन्न, आम सभा समाप्त।।