हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #269 ☆ मन अच्छा हो सकता है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख मन अच्छा हो सकता है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 269 ☆

☆ मन अच्छा हो सकता है… ☆

“मन खराब हो, तो शब्द खराब ना बोलें, क्योंकि बाद में मन अच्छा हो सकता है, लेकिन शब्द नहीं।” गुलज़ार के यह शब्द मानव को सोच-समझकर व लफ़्ज़ों के ज़ायके को चख कर बोलने का संदेश देते हैं, क्योंकि ज़ुबान से उच्चरित शब्द कमान से निकले तीर की भांति होते हैं, जो कभी लौट नहीं सकते। शब्दों के बाण उससे भी अधिक घातक होते हैं, जो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं।

मानव को परीक्षा संसार की, प्रतीक्षा परमात्मा की तथा समीक्षा व्यक्ति की करनी चाहिए। परंतु हम इसके विपरीत परीक्षा परमात्मा की, प्रतीक्षा सुख-सुविधाओं की और समीक्षा दूसरों की करते हैं, जो घातक है। ऐसे लोग अक्सर परनिंदा में रस लेते हैं अर्थात् अकारण दूसरों की आलोचना करते हैं। हम अनजाने में कदम-कदम पर प्रभु की परीक्षा लेते हैं, सुख-ऐश्वर्य की प्रतीक्षा करते हैं, जो कारग़र नहीं है। ऐसा व्यक्ति ना तो आत्मावलोकन कर सकता है, ना ही चिंतन-मनन, क्योंकि वह तो ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम स्वीकारता है और दूसरे लोग उसे अवगुणों की खान भासते हैं।

आदमी साधनों से नहीं, साधना से महान् बनता है; भवनों से नहीं, भावना से महान बनता है; उच्चारण से नहीं, उच्च आचरण से महान् बनता है।  मानव धन, सुख-सुविधाओं, ऊंची-ऊंची इमारतों व बड़ी-बड़ी बातों के बखान से महान् नहीं बनता, बल्कि साधना, सद्भावना व अच्छे आचार- विचार, व्यवहार, आचरण व सत्कर्मों से महान् बनता है तथा विश्व में उसका यशोगान होता है। उसके जीवन में सदैव उजाला रहता है, कभी अंधेरा नहीं होता है।

जिनका ज़मीर ज़िंदा होता है, जीवन में सिद्धांत व जीवन-मूल्य होते हैं, देश-विदेश में श्रद्धेय व पूजनीय होते हैं। वे समन्वय व सामंजस्यता के पक्षधर होते हैं , जो समरसता के कारक हैं। वे सुख-दु:ख में सम रहते हैं और राग-द्वेष व ईर्ष्या-द्वेष से उनका संबंध-सरोकार नहीं होता। वे संस्कार व संस्कृति में विश्वास रखते हैं, क्योंकि संसार में नज़र का इलाज तो है, नजरिए का नहीं और नज़र से नज़रिये का,  स्पर्श से नीयत का, भाषा से भाव का, बहस से ज्ञान का और व्यवहार से संस्कार का पता चल जाता है।

‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ ब्रह्म अर्थात् सृष्टि-नियंता के सिवाय यह संसार मिथ्या है, मायाजाल है। इसलिए मानव को अपना समय उसके नाम-स्मरण व ध्यान में व्यतीत करना चाहिए। “ख़ुद से कभी-कभी मुलाकात भी ज़रूरी है/ ज़िंदगी उधार की है, जीना मजबूरी है” स्वरचित उक्त पंक्तियाँ आत्मावलोकन व आत्म-संवाद की ओर इंगित करती हैं। इसके साथ मानव को कुछ नेकियाँ व अच्छाइयाँ ऐसी भी करनी चाहिएं, जिनका ईश्वर के सिवा कोई ग़वाह ना हो अर्थात् ख़ुद में ख़ुद को तलाशना बहुत कारग़र है। प्रशंसा में छुपा झूठ, आलोचना में छुपा सच जो जान जाता है, उसे अच्छे-बुरे की पहचान हो जाती है। वह व्यर्थ की बातों से ऊपर उठ जाता है, क्योंकि हर इंसान को अपने हिस्से का दीपक ख़ुद जलाना पड़ता है, तभी उसका जीवन रोशन हो सकता है। दूसरों को वृथा कोसने कोई लाभ नहीं होता।

अहंकार व गलतफ़हमी मनुष्य को अपनों से अलग कर देती है। गलतफ़हमी सच सुनने नहीं देती और अहंकार सच देखने नहीं देता। इसलिए वह संकीर्ण मानसिकता से ऊपर नहीं उठ सकता और ऊलज़लूल बातों में फँसा रहता है। अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है और नम्रता साधारण व्यक्ति को भी फरिश्ता। इसलिए हमें जीवन में सदैव विवाद से बचना चाहिए और संवाद की महत्ता को स्वीकारना चाहिए। पारस्परिक संवाद व गुफ़्तगू हमारे व्यक्तित्व की पहचान हैं। जीवन में क्या करना है, हमें रामायण सिखाती है, क्या नहीं करना है महाभारत और जीवन कैसे जीना है– यह संदेश गीता देती है। सो! हमें रामायण व गीता का अनुसरण करना चाहिए और महाभारत से सीख लेनी चाहिए कि जीवन में क्या अपनाना श्रेयस्कर नहीं है अर्थात् हानिकारक है।

शब्द, विचार व भाव धनी होते हैं और  इनका प्रभाव चिरस्थाई होता है, लंबे समय तक चलता रहता है। इसके लिए आवश्यकता है सकारात्मक सोच की, क्योंकि हमारी सोच से हमारा तन-मन प्रभावित होता है। ‘जैसा अन्न, वैसा मन” से तात्पर्य हमारे खानपान से नहीं है, चिंतन-मनन व सोच से है। यदि हमारा हृदय शांत होगा, तो उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ये पांच विकार नहीं होंगे और हमारी वाणी मधुर होगी। इसलिए मानव को वाणी के महत्व को स्वीकारना चाहिए तथा शब्दों के लहज़े / ज़ायके को समझ कर इसका प्रयोग करना चाहिए। मधुर वाणी दूसरों के दु:ख, पीड़ा व चिंताओं को दूर करने में समर्थ होती है और उससे बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान हो जाता है।

क्रोध माचिस की भांति होता है, जो पहले हमें हानि पहुँचाता है, फिर दूसरे की शांति को भंग करता है। लोभ आकांक्षाओं व तमन्नाओं का द्योतक है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती जाती है। मोह सभी व्याधियों का मूल है, जनक है, जो विनाश का कारण सिद्ध होता है। काम-वासना मानव को अंधा बना देती है और उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट कर देती है। अहंकार अपने अस्तित्व के सम्मुख सबको हेय समझता है, उनका तिरस्कार करता है। सो! हमें इन पाँच विकारों से दूर रहना चाहिए। हमारा मन, हमारी सोच किसी के प्रति बदल सकती है, परंतु उच्चरित कभी शब्द लौट नहीं सकते। सकारात्मक सोच के शब्द बिहारी के सतसैया के दोहों की भांति प्रभावोत्पादक होते हैं तथा जीवन में अप्रत्याशित परिवर्तन लाने का सामर्थ्य रखते हैं। इसलिए मानव को जीवन में सुई बनकर रहने की सीख दी गई है; कैंची बनने की नहीं, क्योंकि सुई जोड़ने का काम करती है और कैंची तोड़ने व अलग-थलग करने का काम करती है। मौन सर्वश्रेष्ठ है, नवनिधियों व गुणों की खान है। जो व्यक्ति मौन रहता है, उसका मान-सम्मान होता है। लोग उसके भावों व अमूल्य विचारों को सुनने को लालायित रहते हैं, क्योंकि वह सदैव सार्थक व प्रभावोत्पादक शब्दों का प्रयोग करता है, जो जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों की संगति से मानव का सर्वांगीण विकास होता है। सो! गुलज़ार की यह सोच अत्यंत प्रेरक व अनुकरणीय है कि मानव को क्रोध व आवेश में भी सोच-समझ कर व शब्दों को तोल कर प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि मन:स्थिति कभी एक-सी नहीं रहती; परिवर्तित होती रहती है और शब्दों के ज़ख्म नासूर बन आजीवन रिसते रहती हैं।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 633 ⇒ खुदकुशी और जिजीविषा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खुदकुशी और जिजीविषा ।)

?अभी अभी # 633 ⇒  खुदकुशी और जिजीविषा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिंदगी के कई रंग रूप हैं ;

तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं

वापस बुला ले, मैं सजदे में गिरा हूं

मुझको ऐ मालिक उठा ले..

अब एक रंग यह भी देखिए ;

जिंदगी कितनी खूबसूरत है जिंदगी कितनी खूबसूरत है

आइए, आपकी जरूरत है।।

आज फिर जीने की

तमन्ना है,

आज फिर मरने का

इरादा है ;

ऐसी तमन्ना और इरादा सिर्फ गीतकार शैलेन्द्र का ही हो सकता है। यूं तो एक आम आदमी, रोज जीता और मरता है, लेकिन वह कभी खुदकुशी करने की नहीं सोचता। मेरा नाम जोकर में यही बात शैलेन्द्र के साहबजादे शैली शैलेन्द्र ने भी दोहराई है ;

जीना यहां मरना यहां

इसके सिवा जाना कहां।।

इंसान भी अजीब है। एक तरफ वह कहता है, गम उठाने के लिए मैं तो जिये जाऊंगा, और अगर उसे अधिक खुशी मिले तो भी वह कह उठता है, हाय मैं मर जावाँ।।

प्यार में लोग साथ साथ जीने मरने की कसमें खा लेते हैं, अगर दिल टूट गया तो कह उठे, ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं, और अगर खोया प्यार मिल गया तो;

तुम जो मिल गए हो,

तो ऐसा लगता है

कि जहान मिल गया।।

सुख दुःख और आशा निराशा के इस सागर में कोई डूब जाना चाहता है, तो कोई किनारा चाहता है। हाथ पांव सब मारते हैं, किसी की नैया पार लग जाती है, तो कोई मझधार में ही डूब जाता है। माझी नैया ढूंढे सहारा।

खुशी खुशी कौन खुदकुशी करता है, क्योंकि शास्त्रों के अनुसार आत्महत्या पाप है, और कानून के अनुसार एक अपराध। एक ऐसा अपराध जिसका प्रयास तो दंडनीय है, लेकिन अगर प्रयास सफल हो गया, तो कानून के हाथ बंधे हैं।।

एक फौजी जब सरहद पर हंसते हंसते अपने प्राण न्यौछावर करता है, तो यह वीरता कहलाती है और उसे शहीद का दर्ज़ा दिया जाता है तथा संसार उसे नमन करता है।

जापान में हाराकिरी को एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अभ्यास के रूप में देखा जाता है, लेकिन आजकल यह भी वहां वैध नहीं है। जब जन्म पर आपका अधिकार नहीं है तो क्या मौत को इस तरह गले लगाना, ईश्वरीय विधान को चुनौती देने की अनधिकार चेष्टा नहीं। अगर आप खुद को इस तरह दंडित करते हो, ऊपरवाला इसको अमानत में ख़यानत का अपराध मान कठोर दंड देता है। वहां कोई सुप्रीम कोर्ट नहीं, कोई राष्ट्रपति नहीं जो आपका अपराध माफ कर दे।

दुख दर्द, शारीरिक और मानसिक कष्ट एवं भावनात्मक आवेग के वशीभूत होकर कोई भी व्यक्ति खुदकुशी के लिए प्रेरित हो सकता है, लेकिन जीने की चाह, जिसे जिजीविषा कहते हैं, हमेशा उसे ऐसा करने से रोकती रहती है। कीड़े मकौड़ों और पशुओं से हमारा जीवन लाख गुना अच्छा है। पशु पक्षियों में जंगल राज होते हुए भी, कोई प्राणी स्वेच्छा से मौत के मुंह में जाना पसंद नहीं करता। मूक प्राणियों की तुलना में मनुष्य अधिक सभ्य और सुरक्षित है। जब एक गधे को भी अपने जीवन से कोई शिकायत नहीं, तो वह इंसान गधा ही होगा जो खुदकुशी करने की सोचेगा।।

आज के भौतिक युग में कुंठा, संत्रास, अवसाद अथवा मादक पदार्थों के सेवन के प्रभाव से भी व्यक्ति आत्मघाती प्रवृत्ति का हो जाता है। नास्तिकता और विकृति के कारण कई युवा अपनी जान गंवा बैठते हैं।।

सकारात्मक सोच और विवेक के अभाव में फिर भी किसी व्यक्ति के जीवन में ऐसे नाजुक क्षण आ जाते हैं, कि क्षणिक आवेश में वह अपनी इहलीला समाप्त कर बैठता है। यह एक ऐसा गंभीर जानलेवा कदम है, जो कभी वापस नहीं लिया जा सकता। यहां कोई भूल चूक लेनी नहीं, किसी तरह का भूल सुधार संभव नहीं।

अगर जीवन में एकांत है तो नीले आकाश और उड़ते पंछियों को निहारें, फूल पौधों और तितलियों से प्यार करें।

कहीं कोई नन्हा सा बच्चा दिख जाए, तो उससे बातें करें। बच्चों से आप ढेर सारी बातें कर सकते हैं। बच्चे कभी नहीं थकते क्योंकि बच्चों में ही तो भगवान होते हैं। अपने से कमजोर, अधिक दुखी और त्रस्त इंसान से प्रेरणा लें।

आखिर वह भी तो जिंदा है ;

एक बंजारा गाए

जीवन के गीत सुनाए।

हम सब जीने वालों को जीने की राह बताए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 236 ☆ हाथों में ले हाथ… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना हाथों में ले हाथ। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 236 ☆ हाथों में ले हाथ…

स्नेह शब्द में इतना जादू है कि इससे इंसान तो क्या जानवरों को भी वश में किया जा सकता है। मेरी  सहेली रमा  जब भी  मुझसे मिलती यही कहती कि कोई मुझे स्नेह  नहीं करता,  मैंने उससे कहा सबसे पहले तुम खुद से प्यार करना सीखो,  जो तुम दूसरों से चाहती हो वो तुम्हें खुद करना होगा  सबसे पहले खुद को व्यवस्थित रखो,  स्वच्छ भोजन,  अच्छे कपड़े, अच्छा साहित्य व सकारात्मक लोगों के साथ उठो- बैठो। जैसी संगति होगी वैसा ही प्रभाव  दिखाई देता है।  जीवन में एक लक्ष्य जरूर होना चाहिए जिससे उदासी हृदय में घर नहीं करती।  हृदय की शक्ति बहुत विशाल है यदि हमने दृढ़ निश्चय कर लिया तो किसी में हिम्मत नहीं कि वो हमारे  फैसले को बदल सके।

कोई भी कार्य शुरू करो तो मन में तरह- तरह के विचार उतपन्न होने लगते हैं क्या करे क्या न करे समझ में ही नहीं आता। कई लोग इस चिंता में ही डूब जाते हैं कि इसका क्या परिणाम होगा बिना कार्य शुरू किए परिणाम की कल्पना करना व भयभीत होकर कार्य की शुरुआत  न करना।

ऐसा अक्सर लोग करते हैं,  पर वहीं कुछ  ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने लक्ष्य के प्रति सज़ग रहते हैं और सतत चिंतन करते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनकी सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती रहती है।

द्वन्द हमेशा ही घातक होता है फिर बात  जब अन्तर्द्वन्द की हो तो विशेष ध्यान रखना चाहिए क्या आपने सोचा कि जीवन भर कितनी चिन्ता की और इससे क्या  कोई लाभ मिला?

यकीन मानिए इसका उत्तर शत- प्रतिशत लोगों का  नहीं  होगा।  अक्सर हम रिश्तों को लेकर मन ही मन उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि सामने वाले को मेरी परवाह ही नहीं जबकि मैं तो उसके लिए जान निछावर कर रहा हूँ ऐसी स्थिति से निपटने का एक ही तरीका है आप किसी भी समस्या के दोनों पहलुओं को समझने का प्रयास करें। जैसे ही आप  हृदय व सोच को विशाल  करेंगे सारी समस्याएँ स्वतः हल होने लगेंगी।

सारी चिंता छोड़ के,  चिंतन कीजे नाथ।

सच्चे  चिंतन मनन से,  मिलता सबका साथ।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 632 ⇒ हंसने का मौसम ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हंसने का मौसम।)

?अभी अभी # 632 ⇒  हंसने का मौसम ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

साहित्य में जो स्थान हास्य व्यंग्य को है, वह स्थान व्यंग्य को नवरसों में नहीं है। हास्य को रस के आचार्यों ने एक प्रमुख रस माना है, शांत, करुण, श्रृंगार, भक्ति, वीर, रौद्र, और वीभत्स भी रस की श्रेणी में आते हैं लेकिन इनमें भी व्यंग्य का कहीं कोई पता ही नहीं।

क्या व्यंग्य में रस नहीं।

शास्त्र भले ही हमारी निंदा कर लें, लेकिन जब निंदा तक में रस है तो विसंगति से उपजे व्यंग्य में भी रस तो होगा ही।

एक समय था जब व्यंग्य हास्य की बैसाखी के सहारे चलता था। हमारा पुराना साहित्य हास्य रस से परिपूर्ण है। भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, श्री नारायण चतुर्वेदी, प्रतापनारायण मिश्र और जी. पी. श्रीवास्तव जैसे रचनाकारों ने व्यंग्य के साथ साथ हास्य को भी अपनी रचनाओं में प्रमुखता दी लेकिन कबीर और परसाई ने जो शैली अपनाई उसमें मिठास कम, करेले का रस ही अधिक था। जब व्यंग्य करेला और नीम चढ़ा होने लगता है, तब यह नीरस होकर सिर्फ दवा का काम करता है। बिना चाशनी के व्यंग्य, व्यंग्य नहीं विद्रूप है।।

मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव जैसी तिकड़ी तो खैर व्यंग्य जगत में देखने को नहीं मिलती फिर भी परसाई, त्यागी और शरद जोशी को व्यंग्य की त्रिमूर्ति जरूर कहा जा सकता है। शुक्र है किसी ने सूर सूर, तुलसी शशि, उड़गन केशवदास जैसी इनकी तुलना नहीं की, वर्ना कई ज्ञानपीठ वाले ज्ञानी बुरा मान जाते।

होली पर हंसना मना नहीं, आवश्यक है। आज हास्य अपनी मर्यादा में नहीं रहता, व्यंग्य भी मस्ती में आ जाता है। मूर्ख और महामूर्ख सम्मेलन आयोजित होते हैं, जबरदस्त छींटाकशी होती है, उपाधियों का वितरण होता है। लेकिन आजकल राजनीति से सहज हास्य गायब हो चुका है। हास्य भी लगता है, असहज हो चुका है आजकल। जब वर्ष भर निंदा और नफरत की मिसाइल चलेगी तो होली पर रंग कैसे बरसेगा।

एक समय था, जब सभी प्रमुख अखबार और पत्रिकाएं होली के अवसर पर हास्य व्यंग्य विशेषांक निकाला करती थी। आजकल अखबार तो रोजाना सिर्फ विज्ञापन ही निकाला करता है। वैसे भी आजकल अखबार और सरकार, दोनों विज्ञापन से ही चल सकते हैं।।

हास्य और व्यंग्य का भी अपना एक स्तर होता है। लेकिन पाठक यह सब नहीं समझता। सभी सुधी पाठकों ने सुरेंद्र मोहन पाठक और गुलशन नंदा को भी पढ़ा है। मत दीजिए इन लेखकों को आप साहित्य अकादमी पुरस्कार, क्या फर्क पड़ता है।

अपने शुरुआती दौर में मैंने भी दीवाना तेज जैसी हास्य पत्रिका पढ़ी है उसी चाव और रुचि से, जितनी गंभीरता से लोग धर्मयुग और सारिका जैसी पत्रिका पढ़ते थे। पसंद अपनी अपनी, दिमाग अपना अपना। हास्य जीवन में बहुत जरूरी है। दूसरे की जगह खुद पर हंसने की कला अभी हमें सीखनी है क्योंकि हमारा राजनीति का स्कूल तो आजकल सिर्फ दूसरों पर हंसने की ही शिक्षा दे रहा है। मत कोसिए नाहक किसी को ! हंसिए खुलकर कम से कम आज तो, अपने आप पर। समझिए हो ली होली।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 631 ⇒ गीत गाया पत्थरों ने ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गीत गाया पत्थरों ने ।)

?अभी अभी # 631 ⇒ गीत गाया पत्थरों ने ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सेहरा, झनक झनक पायल बाजे और लड़की सह्याद्रि की जैसी नृत्य और संगीतमय फिल्मों के निर्माता ने सन् १९६४ में एक और फिल्म बनाई, गीत गाया पत्थरों ने। हमने संगीत का असर देखा नहीं, लेकिन सुना जरूर है। तानसेन का दीपक राग बुझते दीयों को जला देता था और मेघ मल्हार की तो पूछिए ही मत। इसलिए हम तो मानते हैं कि जब पत्थर दिल इंसान भी पिघल सकता है, तो पत्थर गीत क्यों नहीं गा सकते।

यह फिल्म हमने भी देखी थी। थिएटर पुराना था, पंखे खराब थे, और सीटें फटी हुई। दर्शक फिल्म देखकर जब बाहर निकले, तो यही गीत गा रहे थे, काट खाया मच्छरों ने।।

तब घरों में कहां टीवी मोबाइल थे, एक अदद रेडियो अथवा ट्रांजिस्टर था, जिसकी आवाज सभी सुन सकते थे। रेडियो पर इसी फिल्म का शीर्षक गीत बज रहा था, और मेरे साथ मेरी पांच वर्ष की बिटिया भी गीत सुन रही थी। अचानक गीत खत्म हुआ और उद्घोषिका की आवाज सुनाई दी, अभी आपने सुना महेंद्र कपूर को, फिल्म गीत गाया पत्थरों ने।

पांच साल की उम्र इतनी छोटी भी नहीं होती, लेकिन कच्ची जरूर होती है। बिटिया अचानक चौंकी और प्रश्न किया, पापा ! गीत तो पत्थरों ने गाया था, और रेडियो वाली कह रही है, यह गीत महेंद्र कपूर ने गाया है। मैने उसे प्यार से समझाया, बेटा, वह तो फिल्म का नाम था, जिसका गीत गायक महेंद्र कपूर ने गाया है।

तब बच्ची जरूर समझ गई होगी लेकिन मेरे लिए एक प्रश्न खड़ा कर गई।।

मैं नहीं मानता, पत्थर बोलते हैं अथवा गीत गाते हैं। होती है पत्थर में प्राण प्रतिष्ठा और पत्थर भगवान हो जाता है, मंदिरों में स्थापित हो जाता है। मंदिर में उसी पत्थर की पूजा होती है, लोग उसके सामने हंसते गाते, भजन कीर्तन करते, अपना दुखड़ा रोते, चिल्लाते, गिड़गिड़ाते हैं। चूंकि वह अब पत्थर नहीं भगवान है, उसे पिघलना पड़ता है, भक्त की सुननी पड़ती है, उसका दुख दर्द दूर करना पड़ता है।

केवल एक प्राण प्रतिष्ठा से जब पत्थर भगवान बन सकता है तो इस इंसान में तो स्वयं भगवान ने ही प्राण फूंके हैं, प्राण की प्रतिष्ठा की है, तो क्या हम सिर्फ इंसान भी नहीं बन सकते !

मेहनत से इंसान जाग उठा और जागेगा इंसान जमाना देखेगा, जैसे गीत भी महेंद्र कपूर ने ही गाए हैं। जागने की बात आज भी हो रही है, लेकिन एक नेकदिल इंसान होने की बात कोई नहीं कर रहा। हमसे तो वह पत्थर ही भला, जो जड़ है, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता। कहीं से एक इंसान आता है, उसे उठाता है, और किसी मासूम का सिर फोड़ देता है। शायद तब ही पत्थर पिघला, पसीजा होगा और उसने दर्द भरा गीत गाया होगा। गीत गाया पत्थरों ने।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 630 ⇒ काश का आकाश ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “काश का आकाश।)

?अभी अभी # 630 ⇒ काश का आकाश ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस प्रकार आशा का आकाश होता है, एक आकाश काश का भी होता है। अभाव में भी सुख की अनुभूति ही काश है। हम भी अगर बच्चे होते ! हम इस उम्र में बच्चे तो नहीं बन सकते, लेकिन कल्पना में बचपन का आनंद तो ले सकते हैं। आइए, काश के सहारे ही ज़िन्दगी जी लें।

दो ही शब्द आशा के हैं, और दो ही काश के ! आशा उम्मीद है, सकारात्मकता है, एक खुला हुआ आकाश है। जब हमारी आशा निराशा में बदल जाती है, मन के आकाश में काले बादल छा जाते हैं, हम दुखी हो जाते हैं। ।

काश, यथार्थ के आगे अस्थाई आत्म – समर्पण है। बचपन में हम सोचते थे, काश बड़े होकर हमारा भी एक खुद का मकान हो, बड़ी सी कार हो। खूब पैसा हो। आज हो सकता है, हमारे पास वह सब कुछ हो, लेकिन हम काश फिर भी कुछ मांग बैठें ! काश हमें भी मन की शांति हो। कोई तो दो घड़ी हमारे पास बैठे, हमारे मन की बात सुने।

सोचिए, अगर जीवन में काश न हो तो जीवन कितना नीरस हो जाए !

कभी न कभी, कहीं न कहीं,

कोई न कोई तो आएगा।

अपना मुझे बनाएगा,

दिल से मुझे लगाएगा।

कभी न कभी

या फिर ;

दिल की तमन्ना थी मस्ती में,

मंज़िल से भी दूर निकलते।

अपना भी कोई साथी होता,

हम भी बहकते, चलते चलते। ।

काश में कोई गिला शिकवा नहीं, कोई शिकायत नहीं, एक तरह से उस ऊपर वाले से गुजारिश है। मेरी तकदीर के मालिक, मेरा कुछ फैसला कर दे। भला चाहे भला कर दे, बुरा चाहे, बुरा कर दे। कितना अफसोस होता है, जब बड़ी बड़ी इमारतें हमारी धूप खा जाती है और हम एक झोपड़ी की तरफ गिरती धूप देखकर कहते हैं, काश

यह धूप हमें भी नसीब होती।

दीवानेपन की भी हद होती है, गौर फरमाइए :

ऐ काश किसी दीवाने को,

हम से भी मोहब्बत हो जाए।

हम लुट जाएं, दिल खो जाए

बस, आज क़यामत हो जाए। ।

अब इसको आप क्या कहेंगे ;

गमे हस्ती से बस बेगाना होता

खुदाया, काश मैं दीवाना होता

ऐसा ही एक दीवानापन मुझ पर भी सवार है। काश कोई ऐसा वायरस इस दुनिया में फैल जाए कि नफ़रत इस जहान से हमेशा हमेशा के लिए अलविदा हो जाए। आमीन!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 123 – देश-परदेश – विश्व निद्रा दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 123 ☆ देश-परदेश – विश्व निद्रा दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

14 मार्च शुक्रवार 2025 को प्रतिवर्षानुसार संपूर्ण विश्व निद्रा दिवस मनाने की तैयारियों में लगा हुआ हैं। कुछ  व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी के मेधावी शोधकर्ताओं से इस बाबत चर्चा भी हुई हैं। उन सभी ने एक मत से कहा ये तो ” कुंभकरण” जोकि रावण के अनुज थे, उनके अवतरण दिवस को मनाने के लिए सैकड़ों वर्षों से आयोजित किया जाता हैं।

कुछ शोधकर्ताओं ने तो इसकी पुष्टि करते हुए ऐतिहासिक प्रमाणों की फोटो तक भी प्रेषित कर दी हैं। हम समझ गए ये त्यौहार भी हमारी प्राचीन परंपरा और संस्कृति से भी प्राचीन है, जिसको अब पूरा विश्व भी स्वीकार कर चुका हैं।

हमारे दादाश्री ने हमें भी कुंभकरण नाम से नवाजा था। घर में कोई भी परिचित या अजनबी आता तो वो हमेशा कहते थे, कुंभकरण जाओ मेहमान के लिए जल ले कर आओ।

हमारा पूरा जीवन बिना सूर्योदय देखे हुए व्यतीत हुआ है। जब सूर्य देवता दस से बारह घंटे तक उपलब्ध रहते हैं, तो दिन में कभी भी उनके दर्शन कर सकते हैं। दिन में दस बजे के बाद उठने के कुछ समय बाद हमारा प्रिय पेय ” मीठी लस्सी” है। यदि आलू के पराठे साथ में हो तो सोने पर सुहागा हो जाता है।

मीठी लस्सी ग्रहण करने के बाद तो हम चिर निद्रा के आगोश में आकर, दिन में ही तारे (सपने) देखने लग जाते हैं। आप भी प्रयास कर सकते हैं, यदि लम्बी नींद लेनी हो तो कम से कम आधा लीटर लस्सी अवश्य ग्रहण करें।

हमारे कई मित्र तो हमेशा ही नींद में रहते हैं। दिन के समय जागते हुए भी यदि आप उनसे कोई बात पूछें तो वो एकबार तो हक़ब्का जाते हैं। चाणक्य ने भी ये ही कहा था “सोते हुए मूर्ख व्यक्ति को कभी भी नहीं उठाना चाहिए”।

हम भी इस लेख से व्हाट्स ऐप और सोशल मीडिया के उन पाठकों को जागने का निरर्थक प्रयास कर रहें है, जोकि जागते हुए भी सो रहें हैं। बुरा ना माने होली है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 629 ⇒ बदलते साथी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆“

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बदलते साथी।)

?अभी अभी # 629 ⇒  बदलते साथी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

रेडियो सीलोन पर युगल गीतों का एक प्रोग्राम आता था, बदलते साथी। जिसमें एक मुख्य गायक होता था, और हर गीत में अन्य गायक बदलते रहते थे। अगर मुख्य गायक मुकेश है तो हर गीत में उसका साथी बदलता रहेगा, कभी लता, कभी आशा, तो कभी रफी, किशोर अथवा महेंद्र कपूर। यानी आधे घंटे के प्रोग्राम में मुकेश के सात आठ साथी बदल जाते थे।

हमारे जिंदगी के सफर में भी कितने साथी हमारे साथ चले होंगे, कुछ कुछ कदम, तो कुछ कदम से कदम मिलाकर चले, जब तक दम था, लेकिन एक दिन आखिर उनको बिछड़ना तो था ही ;

हमसफ़र साथ अपना छोड़ चले।

रिश्ते नाते वो सारे तोड़ चले। ।

आज अगर हम उन साथियों को याद करें, तो मिलने बिछड़ने की दास्तान बहुत लंबी हो जाएगी। पहले किसी की उंगली थामी, फिर मां का आंचल और पिताजी का कंधा। भाई बहन, यार दोस्त, अड़ोस पड़ोस और कामकाज के सहयोगियों का, किसका साथ हमें नहीं मिला।

वे दिन थे, जब मन में उमंग थी, उत्साह था, सब कुछ कितना खूबसूरत लगता था। शायद हमने भी कभी यह गीत अपने समय में गाया हो ;

आज मेरे संग हँस लो

तुम आज मेरे संग गा लो

और हँसते गाते इस जीवन

की उलझी राह संवारो ..

लेकिन समय का पंछी उड़ता जाए, और समय के साथ ही, मिलना बिछड़ना चला करता है। बहुत दर्द होता है, जब पुराने साथी बिछड़ते हैं, क्योंकि वह सच्चाई, ईमानदारी और भोलापन आज के रिश्तों में कहां।

मतलब की सब यारी, बिछड़े सभी बारी बारी। ।

साथी बदलते हैं, लेकिन साथ नहीं बदलता। किसी ने यूं ही नहीं कह दिया ;

जनम जनम का साथ है तुम्हारा हमारा, तुम्हारा हमारा

अगर न मिलते इस जीवन में लेते जनम दुबारा ;

दुबारा तो छोड़िए, ये साहब तो ;

सौ बार जनम लेंगे,

सौ बार फ़ना होंगे

ऐ जान-ए-वफ़ा फिर भी,

हम तुम न जुदा होंगे ..

लेकिन सच तो यही है कि हमारा सच्चा साथी और हितैषी तो केवल एक रहबर, परम पिता परमात्मा है, जो हमसे कभी जुदा नहीं होता। जिस व्यक्ति में अच्छाई है, उसमें वह सदा विराजमान है, और वही हमारा सच्चा साथी है। स्वार्थ, मतलब और सब संसारी रिश्ते तो यहीं रह जाना है। सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, अपना तो सिर्फ उसी से याराना है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 280 – मिलें होली, खेलें होली… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 280 मिलें होली, खेलें होली… ?? 

क्यों बाहर रंग तलाशता मनुष्य/

अपने भीतर देखो रंगों का इंद्रधनुष..,

जिसकी अपने भीतर का इंद्रधनुष देखने की दृष्टि विकसित हो ली, बाहर की दुनिया में उसके लिए नित मनती है होली। रासरचैया उन आँखों में  हर क्षण रचाते हैं रास, उन आँखों का स्थायी भाव बन जाता है फाग।

फाग, गले लगने और लगाने का रास्ता दिखाता है पर उस पर चल नहीं पाते। जानते हो क्यों? अहंकार की बढ़ी हुई तोंद अपनत्व को गले नहीं लगने देती। वस्तुत:  दर्प, मद, राग, मत्सर, कटुता का दहन कर उसकी धूलि में नेह का नवांकुरण है होली।

नेह की सरिता जब धाराप्रवाह बहती है तो धारा न रहकर राधा हो जाती है। शाश्वत प्रेम की शाश्वत प्रतीक हैं राधारानी। उनकी आँखों में, हृदय में, रोम-रोम में प्रेम है, श्वास-श्वास में राधारमण हैं।

सुनते हैं कि एक बार राधारमण गंभीर रूप से बीमार पड़े। सारे वैद्य हार गए। तब भगवान ने स्वयं अपना उपचार बताते हुए कहा कि उनकी कोई परमभक्त गोपी अपने चरणों को धो कर यदि वह जल उन्हें पिला दे तो वह ठीक हो सकते हैं। परमभक्त सिद्ध न हो पाने भय, श्रीकृष्ण को चरणामृत देने का संकोच जैसे अनेक कारणों से कोई गोपी सामने नहीं आई। राधारानी को ज्यों ही यह बात पता लगी, बिना एक क्षण विचार किए उन्होंने अपने चरण धो कर प्रयुक्त जल भगवान के प्राशन के लिए भेज दिया।

वस्तुत: प्रेम का अंकुरण भीतर से होना चाहिए। शब्दों को  वर्णों का समुच्चय समझने वाले असंख्य आए, आए सो असंख्य गए। तथापि जिन्होंने शब्दों का मोल, अनमोल समझा, शब्दों को बाँचा भर नहीं बल्कि भरपूर  जिया, प्रेम उन्हीं के भीतर पुष्पित, पल्लवित, गुंफित हुआ। शब्दों का अपना मायाजाल होता है किंतु इस माया में रमनेवाला मालामाल होता है। इस जाल से सच्ची माया करोगे, शब्दों के अर्थ को जियोगे तो सीस देने का भाव उत्पन्न होगा। जिसमें सीस देने का भाव उत्पन्न हुआ, ब्रह्मरस प्रेम का उसे ही आसीस मिला।

प्रेम ना बाड़ी ऊपजै / प्रेम न हाट बिकाय/

राजा, परजा जेहि रुचै / सीस देइ ले जाय…

बंजर देकर उपजाऊ पाने का सबसे बड़ा पर्व है धूलिवंदन। शीश देने की तैयारी हो तो आओ सब चलें, सब लें प्रेम का आशीष..!

इंद्रधनुष का सुलझा गणित / रंगी-बिरंगी छटाएँ अंतर्निहित / अंतस में पहले सद्भाव जगाएँ /नित-प्रति तब  होली मनाएँ।….

मिलें होली, खेलें होली!.. शुभ होली। ? 

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्री शिव महापुराण का पारायण सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 628 ⇒ परीक्षा और अग्नि परीक्षा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “परीक्षा और अग्नि परीक्षा।)

?अभी अभी # 628 ⇒  परीक्षा और अग्नि परीक्षा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

परीक्षा तो हम बचपन से देते आ रहे हैं। परीक्षा फल या तो पास होता है अथवा फैल। हर व्यक्ति पास नहीं होता और हर व्यक्ति फैल भी नहीं होता। सफलता और असफलता जीवन के दो आयाम हैं, जो सफल होता है, वह आगे बढ़ जाता है, और जो असफल होता है, वह थोड़ा पीछे रह जाता है। लेकिन संसार में अस्तित्व दोनों प्रकार के लोगों का हमेशा कायम रहता है, कोई जीवन में सफल है, तो कोई असफल। कोई अगर आगे बढ़ रहा है तो कोई पीछे भी छूट रहा है।

जीवन की परीक्षा में सफल होना अपने आपमें एक पुरस्कार है और असफल होना एक सबक। जो आज फैल हुआ हैं, वह कल पास भी हो सकता है।

गारंटीड सक्सेस गाइड से भी लोग जीवन में आगे बढ़े हैं और कोचिंग क्लासेस से भी। कुछ लोग परीक्षाएं पास कर करके भी जीवन में सफल नहीं हो पाए और कुछ बिना पढ़े ही बाजी मार ले गए। संभावनाओं और विसंगतियों, सफलता और असफलता का नाम ही तो जिंदगी है।।

कभी कभी हमें जीवन में अग्नि परीक्षा भी देनी पड़ती है। सीता ने भी अग्नि परीक्षा दी थी। भक्त प्रह्लाद की भी एक तरह से अग्नि परीक्षा ही तो थी। अग्नि परीक्षा में सब उत्तीर्ण नहीं होते। सुकरात और मीरा दोनों ने जहर का प्याला पीया। इतिहास में दोनों अमर हैं।

जब जब भी हम अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हैं, वह हमारी अग्नि परीक्षा ही तो होती है। युद्ध में एक सिपाही की अग्नि परीक्षा ही तो होती है, युद्ध में जीत अगर अग्नि परीक्षा है तो युद्ध में शहीद होना भी अग्नि परीक्षा ही है। अग्नि परीक्षा में परिणाम नहीं देखा जाता, त्याग और समर्पण देखा जाता है।।

जो सच्चाई, ईमानदारी और धर्म के मार्ग पर चलते हैं, संसार उनकी अग्नि परीक्षा लेता ही रहता है।

सत्यवादी हरिश्चंद्र एक ही पैदा हुआ है, क्योंकि वह अग्नि परीक्षा में सफल हुआ। आज के युग में सत्य के मार्ग पर चलना कांटों से खेलना है। अगर आप सच के मार्ग पर निःसंकोच निडर होकर चल रहे हैं, तो मान लीजिए आप अग्नि परीक्षा ही दे रहे हैं।

झूठ फरेब, अन्याय, अत्याचार और शोषण की इस दुनिया में एक आम आदमी पल पल में अग्नि परीक्षा दे रहा है, फिर भी वह जिंदा है, क्या यह ईश्वर का चमत्कार नहीं !

आज दुनिया किताबी ज्ञान, आधुनिक विज्ञान और एक नई बीमारी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के बलबूते पर ही चल रही है। आप परीक्षाएं देते रहिए, गला काट स्पर्धा में आगे बढ़ते रहिए, सफलता के परचम गाड़ते रहिए। निश्चिंत रहिए, आपको जीवन में कोई अग्नि परीक्षा नहीं देनी। वैसे भी होती क्या है अग्नि परीक्षा, गूगल सर्च तो इसे महज एसिड टेस्ट बता रहा है। यह कलयुग है, यहां परीक्षा और अग्नि परीक्षा नहीं, डिजिटल शिक्षा होती है। वैसे डिजिटल क्राइम से बचना भी किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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