हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 240 – छह बजेंगे अवश्य..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 240 ☆ छह बजेंगे अवश्य..! ?

सोसायटी की पार्किंग में लगभग चार साल का एक बच्चा खेल रहा है। वह ऊपरी मंज़िल पर रहने वाले आयु में अपने से बड़े किसी मित्र को आवाज़ लगा रहा है, “…भैया खेलने आओ।”…”अभी पढ़ रहा हूँ “…, मित्र बच्चे का स्वर सुनाई देता है।…” अच्छा कब आओगे?”… ” छह बजे…”, …”ठीक है, छह बजे आओ..।” वह फिर से खेलने में मग्न हो गया।

यह छोटू अभी घड़ी देखना नहीं जानता। छह कब बजेंगे, इसका कोई अंदाज़ा भी नहीं है पर उसका अंतःकरण शुद्ध है, विश्वास दृढ़ है कि छह बजेंगे और भैया खेलने आएगा।

विचारबिंदु यहीं से विस्तार पाता है। जीवन में ऐसा कब- कब हुआ कि कठिनाइयाँ हैं, हर तरफ अंधेरा है पर दृढ़  विश्वास है कि अंधेरा छँटेगा, सूरज उगेगा। इस विश्वास को फलीभूत करने के लिए कितना डूबकर कर्म  किया? कितने शुचिभाव से ईश्वर को पुकारा? ईश्वर को मित्र माना है तो शत-प्रतिशत समर्पण से  पुकार कर तो देखो।

कुरुसभा के द्यूत में युधिष्ठिर अपने सहित सारे पांडव हार चुके। दाँव पर द्रौपदी भी लगा दी। दु:शासन केशों से खींचते हुए पांचाली को सभा में ले आया। दुर्योधन के आदेश पर सार्वजनिक रूप से वस्त्रहरण का विकृत कृत्य आरम्भ कर दिया। द्रुपदसुता ने पराक्रमी पांडवों की ओर निहारा।  पांडव सिर नीचा किये बैठे रहे। यथाशक्ति संघर्ष के बाद  असहाय कृष्णा ने अंतत: अपने परम सखा कृष्ण को पुकारा, ‘ अभयम् हरि, अभयम् हरि।’ मनसा, वाचा, कर्मणा जीवात्मा पुकारे, परमात्मा न आए, संभव ही नहीं। कृष्ण चीर में उतर आए। चीर, चिर हो गया। खींचते-खींचते आततायी दु:शासन का श्वास टूटने लगा, निर्मल मित्रता पर द्रौपदी का विश्वास जगत में बानगी हो चला।

इसी भाँति गजराज का पाँव  पानी में खींचने का प्रयास ग्राह ने किया। अनेक दिनों तक हाथी और मगरमच्छ का संघर्ष चला। मृत्यु निकट जान गजराज ने आर्त भाव से प्रभु को पुकारा। गजराज की यह पुकार ही स्तुति रूप में गजेन्द्रमोक्ष बनी।

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं

क्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।

*

अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते

स आत्ममूलोवतु मां परात्परः।

अर्थात अपनी संकल्प शक्ति द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए, सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले, कार्य-कारणरूप जगत को जो निर्लिप्त भाव से साक्षी रूप से देखते रहते हैं, वे परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें।…गज की न केवल रक्षा हुई अपितु भवसागर से मुक्ति भी मिली।

शुद्ध मन, निष्पाप भाव, दृढ़ विश्वास की त्रिवेणी भीतर प्रवाहित हो रही हो और आर्त भाव से ईश्वर से पूछ सको कि भैया कब आओगे, तो विश्वास रखना कि हाथ में घड़ी हो या न हो, समय देखना आता हो या न आता हो, तुम्हारे जीवन में भी छह बजेंगे अवश्य।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 358 ⇒ आइए डोरे डालें… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आइए डोरे डालें।)

?अभी अभी # 358 ⇒ आइए डोरे डालें? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या आपने कभी किसी पर डोरे डाले हैं, अथवा आप पर किसी ने डोरे डाले हैं ? आखिर क्या होता है यह डोरा! डोरा सूत के धागे अथवा तागे को कहते हैं। धागे में सुई से मोतियों अथवा फूलों को पिरोकर माला बनाई जाती है। याद है, फिल्म कच्चे धागे ;

कच्चे धागे के साथ जिसे बांध लिया जाये।

वो बंदी क्या छूटे वहीं पे जिये वहीं मर जाये।।

कहीं वह भाई बहन के बीच की प्रेम की डोर है तो कहीं उसी धागे में मंगलसूत्र के रूप में किसी पतिव्रता का सुहाग सुरक्षित है ;

जीवन डोर तुम्हीं संग बाँधी क्या तोड़ेंगे इस बन्धन को जग के तूफ़ाँ आँधी …

किसी को एक तरह से धागे में उलझाना अथवा बांधना ही डोरे डालना कहलाता है। हमने बचपन में , स्वेटर बुनते वक्त, फंदे डालना सीखा था, लेकिन खुद ही फंदे में उलझकर रह गए। धागा कमजोर होता है, जबकि डोर मजबूत। एक डोर प्रेम की भी होती है, जिसके आकर्षण में इंसान तो क्या भगवान भी खिंचे चले आते हैं।।

डोरे डालना भी एक कला है, जिस पार्टी अथवा व्यक्ति ने आप पर डोरे डाले होंगे, आपका वोट उधर ही तो होगा। कितनी बार विवाहित महिलाओं की आम शिकायत रहती है, कि फलाना औरत हमारे पति पर डोरे डालती है।

वह डोरे कहां से लाती है, और कब चोरी छुपे इनके पति पर डाल देती है कुछ पता ही नहीं चलता।

क्या ये डोरे अदृश्य होते हैं, और क्या इनको किसी जादू अथवा टोने टोटके से हटाया अथवा डिफ्यूज नहीं किया जा सकता। ऐसा कहा जाता है कि जब कोई आप पर डोरे डालता है, तब आपकी मति मारी जाती है। यह डोरा क्या कोई नजर है, नजर लागी राजा तोरे बंगले पर। ऐसे कई बंगलों पर इन डोरे डालने वालियों ने कब्जा कर रखा है।।

एक डोर होती है, जो पतंग को आसमान में उड़ाती है।

पतंग यूं ही डोर के सहारे आसमान में नहीं उड़ती, पतंग में पहले सूराख कर कन्नी डाली जाती है, जिसे जोते बांधना भी कहते हैं।

एक बार आसमान में उड़ने के बाद आप जितनी डोर खींचेंगे, पतंग उतनी ही आसमान में ऊंची उड़ती जाएगी।

ऊंचे उड़ने वालों को जमाने की बहुत जल्द नज़र लगती है। कोई दूसरी पतंग आसमान में आई, तो पेंच लड़ाने शुरू। खेल तो पूरा डोर का होता है, लेकिन किसी ना किसी की पतंग तो कट ही जाती है। होते हैं, कुछ लालची लुटेरे, जो कटी पतंग पर भी झपट पड़ते हैं।।

केवल चिकनी चुपड़ी बातों से ही नहीं, अदाओं और लटके झटकों से भी सामने वाले पर डोरे डाले जाते हैं। फिल्म नमूना(1949) का शमशाद बेगम द्वारा गाए इस खूबसूरत गीत को सुनकर आप अंदाज नहीं लगा सकते, रानी जी किसी पर डोरे डाल रही हैं, अथवा डाका ;

टमटम से झांको न रानी जी।

गाड़ी से गाड़ी लड़ जाएगी।।

तिरछी नज़र जो पड़ जाएगी।

बिजली सी दिल पे गिर जाएगी।।

अगर डोरे डालने की खुली प्रतियोगिता हो, तो उसमें इस तरह के गीत (फिल्म समाधि 1950) मोटिवेशन का काम कर सकते हैं ;

 ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 357 ⇒ पसंद अपनी अपनी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पसंद अपनी अपनी।)

?अभी अभी # 357 ⇒ पसंद अपनी अपनी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

तेरी पसंद क्या है,

ये मुझको खबर नहीं।

मेरी पसंद ये है कि

मुझको है तू पसंद।।

हमने कब किसी की पसंद की परवाह की है, बस जो खुद को पसंद आया, उसी की चिंता की है। जब भी रिश्ते तय होते थे, पहले लड़की देखी जाती थी, वह भी ठोक बजाकर, अगर बुजुर्गों को पसंद आई, तो फिर आपकी बारी आती थी। पति के पहले आप सिर्फ राष्ट्रपति होते थे, आपको तो सिर्फ मोहर लगानी होती थी।

यह तो हुई लड़कों की बात। लड़कियों पर तो बड़े बूढ़ों की बचपन से ही निगाह होती थी। खुद उनकी शादी बचपन में इसी तरह तय जो हुई थी, तेरह, पंद्रह और सत्रह वर्ष बहुत हुए। गुड्डे गुड़ियाओं से खेलने की उम्र में, उनके हाथ भी को पीले कर दिए गए थे।।

समय बदला, युग बदला, परिस्थिति बदली। नौकरी वाले लड़कों की मांग बढ़ने लगी। मास्टरों की तो लॉटरी लग गई। गांव में एक मास्टर की बहुत इज्जत होती थी। उसकी पत्नी भी मास्टरानी कहलाती थी। उधर शहरों में दफ्तर के बाबू तक दहेज मांगने लग गए। लड़की सुखी रहेगी। बाबू की ऊपरी कमाई भी बहुत है। अब तुझे कलेट्टर मिलने से तो रहा। राज करेगी। तब लड़कियों की पसंद कौन पूछता था।

फिर आया सह शिक्षा यानी कोएजूकेशन और कॉन्वेंट/पब्लिक स्कूल का जमाना। लड़कियां भी अंग्रेजी में गिटर पिटर करने लगी। कॉलेज में पांव रखते ही उनके भी पर लग गए। उनकी भी पसंद और नापसंद का खयाल रखा जाने लगा। अच्छे संस्कारी लड़कों की तलाश की जाने लगी। पढ़ लिखकर वे भी अपने पांवों पर खड़ी होने लगी।।

चार युग हमने नहीं देखे, सिर्फ कलयुग देखा है। यहां हर २५ वर्ष में युग बदलता है। पसंद के रिश्ते हों, अथवा तय किए हुए, हमारे समय के रिश्ते आज तक टिके हुए हैं। आर्थिक अभाव, पारिवारिक संघर्ष, आपसी मनमुटाव और लड़ाई झगड़े भी, अगर विवाह की बुनियाद को हिला नहीं पाए तो कैसी पसंद, नापसंद और गिला शिकवा।

७५ वर्ष की उम्र में हमने मानो तीनों युग देख लिए, लेकिन इस कलयुग में सिर्फ मियां बीवी का राजी होना जरूरी है, काहे का काजी और काहे के फेरे, बिन फेरे हम तेरे वाला लिव इन रिलेशन अगर दोनों की पसंद हों, तो फिर आप किसको दोष देंगे।।

हम कौन होते हैं किसी पर अपनी पसंद थौंपने वाले, फिर भी सामाजिक और नैतिक मूल्यों का महत्व ना कभी घटा है और ना कभी घटेगा। विवाह एक पवित्र सामाजिक संस्था है एवं पति पत्नी का संबंध एक आत्मिक और धार्मिक गठबंधन। समय की नाजुकता के मद्दे नजर एक दूसरे की पसंद नापसंद इसमें बहुत माने रखती है ;

जो तुमको हो पसंद

वही बात कहेंगे।

तुम दिन को अगर

रात कहो, रात कहेंगे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #231 ☆ ज़िन्दगी समझौता है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ज़िन्दगी समझौता है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 231 ☆

ज़िन्दगी समझौता है… ☆

‘ज़िन्दगी भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और हर स्थिति में मानव को अपनी भावनाओं का त्याग कर यथार्थ को स्वीकारना पड़ता है।’ यदि हम यह कहें कि ‘ज़िंदगी संघर्ष नहीं, समझौता है’, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे औरत को तो कदम-कदम पर समझौता करना ही पड़ता है, क्योंकि पुरुष-प्रधान समाज में उसे दोयम दर्जे का प्राणी समझा जाता है और कानून द्वारा प्रदत्त समानाधिकार भी कागज़ की फाइलों में बंद हैं। प्रसाद जी की कामायनी की यह पंक्तियां ‘तुमको अपनी स्मित-रेखा से/ यह संधि-पत्र लिखना होगा’—औरत को उसकी औक़ात का एहसास दिलाती हैं। मैथिलीशरण गुप्त जी की ‘आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ द्वारा नारी जीवन का मार्मिक चित्र प्रस्तुत करते हुए उसकी नियति, असहायता, पराश्रिता व विवशता का आभास कराया गया है; जो सतयुग से लेकर आज तक उसी रूप में बरक़रार है।

यहाँ हम आधी आबादी की बात न करके सामान्य मानव के जीवन के संदर्भ में चर्चा करेंगे, क्योंकि औरत के पास समझौते के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प होता ही नहीं। चलिए! दृष्टिपात करते हैं कि ‘जीवन भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और वह मानव की नियति है।’ यह संघर्ष है…हृदय व मस्तिष्क के बीच अर्थात् जो हमें मिला है… वह हक़ीक़त है; यथार्थ है और जो हम चाहते हैं; अपेक्षित है…वह आदर्श है, कल्पना है। हक़ीक़त सदैव कटु और कल्पना सदैव मनोहारी होती है; जो हमारे अंतर्मन में स्वप्न के रूप में विद्यमान रहती है और उसे साकार करने में इंसान अपना पूरा जीवन लगा देता है। मानव को अक्सर जीवन के कटु यथार्थ से रू-ब-रू होना पड़ता है और उन परिस्थितियों का विश्लेषण व गहन चिंतन-मनन कर के समझौता करना पड़ता है। वैसे भी जीवन की हक़ीक़त व सच्चाई कड़वी होती है। सो! मानव को ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चल कर, विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचना होता है। इस स्थिति में यथार्थ को स्वीकारना उसकी नियति बन जाती है। इसमें सबसे अधिक योगदान होता है…हमारी पारिवारिक, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों का …जो मानव को विषम परिस्थितियों का दास बना देती हैं और लक्ष्य-प्राप्ति के निमित्त उसे हरपल उनसे जूझना पड़ता है। वास्तव में वे विकास के मार्ग में अवरोधक के रूप में सदैव विद्यमान रहती हैं।

आइए! चर्चा करते हैं पारिवारिक परिस्थितियों की… जैसा कि सर्वविदित है कि प्रभु द्वारा प्रदत्त जन्मजात संबंधों का निर्वहन करने को व्यक्ति विवश होता है। परंतु कई बार आकस्मिक आपदाएं उसका रास्ता रोक लेती हैं और वह उनके सम्मुख नतमस्तक हो जाने को विवश हो जाता है। पिता के देहांत के बाद बच्चे अपने परिवार का आर्थिक- दायित्व वहन करने को मजबूर हो जाते हैं और उनके स्वर्णिम सपने राख हो जाते हैं। अक्सर पढ़ाई बीच में छूट जाती है और उन्हें मेहनत-मज़दूरी कर अपने परिवार का पालन-पोषण करना पड़ता है। उस विषम परिस्थिति में वे सृष्टि-नियंता को भी कटघरे में खड़ा कर प्रश्न कर बैठते हैं कि ‘आखिर विधाता ने उन्हें जन्म ही क्यों दिया? अमीर- गरीब के बीच इतनी असमानता व दूरियां क्यों पैदा कर दीं?’ ये प्रश्न उनके मनोमस्तिष्क को निरंतर कचोटते रहते हैं और सामाजिक विसंगतियाँ–जाति-पाति विभेद व अमीरी-गरीबी रूपी वैषम्य उन्हें उन्नति के समान अवसर प्रदान नहीं करतीं।

प्रेम सृष्टि का मूल है तथा प्राणी-मात्र में व्याप्त है। कई बार इसके अभाव के कारण उन अभागे बच्चों का बचपन तो खुशियों से महरूम रहता ही है; वहीं युवावस्था में भी वे माता-पिता की इच्छा के प्रतिकूल, मनचाहे साथी के साथ विवाह-बंधन में नहीं बंध पाते; जिसका घातक परिणाम हमें ऑनर-किलिंग व हत्या के रूप में दिखाई पड़ता है। अक्सर उनके विवाह को अवैध क़रार कर खापों व पंचायतों द्वारा उन्हें भाई-बहिन के रूप में रहने का फरमॉन सुना दिया जाता है; जिसके परिणाम-स्वरूप वे अवसाद की स्थिति में पहुँच जाते हैं और चंद दिनों पश्चात् आत्महत्या तक कर लेते हैं।

‘शक्तिशाली विजयी भव’ के रूप में समाज शोषक व शोषित दो वर्गों में विभाजित है। दोनों एक-दूसरे के शत्रु रूप में खड़े दिखाई पड़ते हैं; जिससे सामाजिक-व्यवस्था चरमरा कर रह जाती है और उसका प्रमाण इंडिया व भारत के रूप में परिलक्षित है। चंद लोग ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में सुख-सुविधाओं से रहते हैं; वहीं अधिकांश लोग ज़िंदा रहने के लिए दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते। उनके पास सिर छुपाने को छत भी नहीं होती; जिसका मुख्य कारण अशिक्षा व निर्धनता है। इसके प्रभाव-स्वरूप वे जनसंख्या विस्फोटक के रूप में भरपूर योगदान देते हैं। जहाँ तक चुनावों का संबंध है…हमारे नुमांइदे उनके आसपास मंडराते हैं; शराब की बोतलें देकर इन्हें भरमाते हैं और वादा करते हैं– सर्वस्व लुटाने का, परंंतु सत्तासीन होते ये दबंगों के रूप में शह़ पाते हैं।’ आजकल सबसे सस्ता है आदमी…जो चाहे खरीद ले…सब बिकाऊ है…एक बार नहीं, तीन-तीन बार बिकने को तैयार है। यह जीवन का कटु यथार्थ है; जहां समझौता तो होता है, परंतु उपयोगिता के आधार पर और उसका संबंध हृदय से नहीं; मस्तिष्क से होता है।

मानव के हृदय पर सदैव बुद्धि भारी पड़ती है। हमारे आसपास का वातावरण और हमारी मजबूरियाँ हमारी दिशा-निर्धारण करती हैं और मानव उनके सम्मुख घुटने टेकने को विवश हो जाता है …क्योंकि उसके पास इसके अतिरिक्त अन्य विकल्प होता ही नहीं। अक्सर लोग विषम परिस्थितियों में टूट जाते हैं; पराजय स्वीकार कर लेते हैं और पुन: उनका सामना करने का साहस नहीं जुटा पाते। ‘वास्तव में पराजय गिरने में नहीं, बल्कि न उठने में है’ अर्थात् जब आप धैर्य खो देते हैं; परिस्थितियों को नियति स्वीकार सहर्ष पराजय को गले लगा लेते हैं–उस असामान्य स्थिति से कोई भी आपको उबार नहीं सकता अर्थात् मुक्ति नहीं दिला सकता और वे निराशा रूपी गहन अंधकार में डूबते-उतराते रहते हैं।

ग़लत लोगों से अच्छे की उम्मीद रखना; हमारे आधे दु:खों का कारण है और आधे दु:ख अच्छे लोगों में दोष-दर्शन से आ जाते हैं। इसलिए बुरे व्यक्ति से शुभ की अपेक्षा करना आत्म-प्रवंचना है, क्योंकि उसके पास जो कुछ होगा; वही तो वह देगा। बुराई-अच्छाई में शत्रुता है… दोनों इकट्ठे नहीं चल पातीं, बल्कि वे हमारे दु:खों में इज़ाफ़ा करने में सहायक सिद्ध होती हैं। अक्सर यह तनाव हमें अवसाद के उस चक्रव्यूह में ले जाकर छोड़ देता है; जहां से मुक्ति पाना असंभव हो जाता है। उस स्थिति में भावनाओं से समझौता करना हमारे लिए हानिकारक होता है। दूसरी ओर जब हम अच्छे लोगों में दोष व अवगुण देखना प्रारंभ कर देते हैं, तो हम उनसे लाभान्वित नहीं हो पाते और हम भूल जाते हैं कि अच्छे लोगों की संगति सदैव कल्याणकारी व लाभदायक होती है। इसलिए हमें उनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जैसे चंदन घिसने के पश्चात् उसकी महक स्वाभाविक रूप से अंगुलियों में रह जाती है और उसके लिए मानव को परिश्रम नहीं करना पड़ता। भले ही मानव को सत्संगति से त्वरित लाभ प्राप्त न हो, परंतु भविष्य में वह उससे अवश्य लाभान्वित होता है और उसका भविष्य सदैव उज्ज्वल रहता है।

‘मानव का स्वभाव कभी नहीं बदलता।’ सोने को भले ही सौ टुकड़ों में तोड़ कर कीचड़ में फेंक दिया जाए; उसकी चमक व मूल्य कभी कम नहीं होता। उसी तरह ‘कोयला होय न उजरा, सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् ‘जैसा साथ, वैसी सोच’… सो! मानव को सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहना चाहिए, क्योंकि इंसान अपनी संगति से ही पहचाना जाता है। शायद! इसीलिए यह सीख दी गयी है कि ‘बुरी संगति से व्यक्ति अकेला भला।’ सो! व्यक्ति के गुण-दोष परख कर उससे मित्रता करनी चाहिए, ताकि आपको शुभ फल की प्राप्ति हो सके। आपके लिए बेहतर है कि आप भावनाओं में बहकर कोई निर्णय न लें, क्योंकि वे आपको विनाश के अंधकूप में धकेल सकती हैं; जहां से लौटना नामुमक़िन होता है।

सो! यथार्थ से कभी मुख मत मोड़िए। साक्षी भाव से सब कुछ देखिए, क्योंकि व्यक्ति भावनाओं में बहने के पश्चात् उचित-अनुचित का निर्णय नहीं ले पाता। इसलिए सत्य को स्वीकारिए; भले ही उसके उजागर होने में समय लग जाता है और कठिनाइयां भी उसकी राह में बहुत आती हैं। परंतु सत्य शिव होता है और शिव सदैव सुंदर होता है। सो! सत्य को स्वीकारना ही श्रेयस्कर है। जीवन में संघर्ष रूपी राह पर यथार्थ की विवेचना करके समझौता करना सर्वश्रेष्ठ है। जब गहन अंधकार छाया हो; हाथ को हाथ भी न सूझ रहा हो…एक-एक कदम निरंतर आगे बढ़ाते रहिए; मंज़िल आपको अवश्य मिलेगी। यदि आप हिम्मत हार जाते हैं, तो आपकी पराजय अवश्यंभावी है। सो! परिश्रम कीजिए और तब तक करते रहिए; जब तक आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। संबंधों की अहमियत स्वीकार कीजिए; उन्हें हृदय से महसूसिए तथा बुरे लोगों से शुभ की अपेक्षा कभी मत कीजिए। बिना सोचे-विचारे जीवन में कभी कोई भी निर्णय मत लीजिए, क्योंकि एक ग़लत निर्णय आपको पथ-विचलित कर पतन की राह पर ले जा सकता है। सो! भावनाओं को यथार्थ की कसौटी पर कस कर ही सदैव निर्णय लेना तथा उसकी हक़ीक़त को स्वीकारना श्रेयस्कर है। यथा-समय, यथा-स्थिति व अवसरानुकूल लिया गया निर्णय सदैव उपयोगी, सार्थक व अनुकरणीय होता है। उचित निर्णय व समझौता जीवन-रूपी गाड़ी को चलाने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है, उपादान है; जो सदैव ढाल बनकर आपके साथ खड़ा रहता है और प्रकाश-स्तंभ अथवा लाइट-हाउस के रूप में आपका पथ-प्रशस्त करता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 356 ⇒ साक्षर, निरक्षर और पढ़े लिखे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साक्षर, निरक्षर और पढ़े लिखे …।)

?अभी अभी # 356 ⇒ साक्षर, निरक्षर और पढ़े लिखे ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती, हमारे १४० करोड़ की आबादी के देश में लोग अनपढ़ भी हो सकते हैं, और शिक्षित भी।

जो निरक्षर है, उसे आप काला अक्षर भी कह सकते हैं, जो साक्षर है, हो सकता है, वह सिर्फ ढाई अक्षर ही पढ़ा हो, लेकिन हमें सबसे अधिक उम्मीद देश के पढ़े लिखे लोगों से होती है।

फिलहाल हमारी साक्षरता दर ७७ प्रतिशत है, अगर इसे अस्सी भी मान लिया जाए तो बीस प्रतिशत आबादी अभी भी अंगूठा छाप है। निरक्षरता के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन अस्सी प्रतिशत साक्षर आबादी में ही सभी शिक्षित भी शामिल हैं। जनगणना (census) के वक्त ही यह पता चल सकता है कि देश में कितने शिक्षित हैं और कितने साक्षर। हर परिवार में कौन कितना पढ़ा लिखा है, यह जानकारी भी जनगणना के वक्त ही एकत्रित कर ली जाती है।।

फिल्म, टीवी, मोबाइल और अखबारों ने लोगों को पढ़ना, लिखना, बोलना सिखाया है, व्यावहारिक कुशलता का और काम धंधे का वैसे तो पढ़ने लिखने से कोई संबंध नहीं है, फिर भी नौकरियों के लिए हर आदमी को पढ़ना लिखना और डिग्री हासिल करना ही पड़ता है।

हमारे देश में शिक्षा से अधिक कार्य कुशलता पर जोर दिया गया। घर की महिलाएं हों, अथवा कामकाजी पुरुष, लड़कियां गृह कार्य में कुशल होती थीं और लड़के पिताजी के काम धंधे में हाथ बंटाते थे। वैसे भी कभी हमारा देश कृषि प्रधान देश था, और गांवों में ही बसता था।।

आजादी के बाद से ही हमें अपनी वास्तविक स्थिति का पता चल पाया। आज हम चलते चलते यहां पहुंचे हैं। उपयोगिता के आधार अगर देखा जाए, तो शिक्षा की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता।

एक साधारण पुराना पांचवीं अथवा आठवीं पास व्यक्ति आज भी आराम से अपना काम धंधा कुशलता से चला लेता है। लेकिन बढ़ती जनसंख्या और बेरोजगारी उसे अधिक अधिक शिक्षित होने के लिए बाध्य कर देती है।

सन् ६० और ७० के दशक में, जब हमारी पीढ़ी कॉलेज में पढ़ रही थी, तब देश में बाबुओं की फौज (Clerk generation) खड़ी हो रही थी। कोई  बी.ए., बी.एससी. करके बैंक और एलआइसी ज्वाइन कर रहा था, तो कोई शासकीय सेवक अथवा शिक्षक। लेकिन रिटायर होते होते वे पदोन्नत भी होते गए, और आज अच्छी पेंशन पा रहे हैं। यही नहीं, उन्होंने अपनी मेहनत और पुरुषार्थ से अपनी पीढ़ी को इतना शिक्षित और सक्षम बनाया कि आज वह दुनिया के हर कोने में अपने माता पिता का नाम रोशन कर रही है।।

लेकिन वही बात, पांचों उंगलियां कहां बराबर होती हैं। शहर और महानगरों की चकाचौंध हमेशा सिक्के का एक ही पहलू ही दर्शाती है। एक और तस्वीर भी है देश की बड़ी आबादी की, जिसकी हालत बहुत चिंताजनक है। अशिक्षा, अंधविश्वास, बेरोजगारी, और पिछड़ेपन के शिकार, इन लोगों की बदहाली तक केवल चुनाव प्रचार ही पहुंच पाता है।

इनके ही बहुमत से तो सरकारें चुनी जाती हैं।

एक व्यापारी अथवा दुकानदार जो कम लिखा पढ़ा है, अपने यहां अधिक पढ़े लिखे शिक्षित कर्मचारी को सेवा में रख उसकी योग्यता का दोहन कर सकता है। देश की उत्पादकता वृद्धि में हर मजदूर, किसान, व्यापारी और शिक्षित वर्ग का अपना अपना योगदान है। क्या फर्क पड़ता है, कौन कितना पढ़ा लिखा है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 195 ☆ इन सम यह उपमा उर आनी… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “इन सम यह उपमा उर आनी…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 195 ☆ इन सम यह उपमा उर आनी

एक शब्द दो लोग पर अर्थ अलग निकलता है। हमारा व्यक्तित्व उसके साथ जुड़कर उसे  शक्तिशाली बनाता है। जिनकी कथनी और करनी में भेद हो, केवल एक पक्ष को साधते हुए बयानबाजी  की जा रही हो तो शक होना जायज है। जल्दबाजी में दूसरे के शब्दों को कापी कर  स्वयं बढ़चढ़ कर बोलना और हँसी का पात्र बनना। सच तो ये है कि जब दोहरा चरित्र हो तो हास्य के साथ शर्मनाक स्थिति बन जाती है, जिसे सुधारने की नाकाम कोशिश, अनजाने ही उलझन उतपन्न कर देती है। वर्षों से एक ही पदचिन्ह पर चलना और नए युग से तारतम्यता न रख पाना आपको गर्त में धकेल रहा है। जिसे सब कुछ पहले ही मुक्त हस्त से सौंप दिया हो और अब फिर देने की घोषणा करना कहाँ तक उचित है। बंदरबाट की विचार धारा से उन्नति नहीं हो सकती है। जो जिसके योग्य है उसे वो मिलना चाहिए अन्यथा आप के साथ वो भी डूबेगा जिसकी चिंता में आप दिन- रात  एक करते जा रहे हैं।

सत्यराज से सत्यधर्म तक सबको समान अवसर मिलना चाहिए। गुणीजन जब बड़े पदों में बैठेंगे तभी सही निर्णय होंगे। रणनीति बनाने की कला सबको नहीं आती। सही विचारधारा के साथ सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय का चिंतन जनकल्याण की दिशा को गति प्रदान करेगा।

आछे दिन पाछे गए, गुरु सो किया न हेत।

अब पछताए होत क्या? चिड़िया चुग गय खेत।।

हैरानी तो तब होती है जब सलाहकार विदेशी धरती पर बैठकर देश को राह दिखाने की नीतियाँ निर्धारित करता हो। समझदारी को ताक पर रख कुछ भी बोलते जाना क्योंकि जो बोल रहे हैं उसका अर्थ तो सीखा ही नहीं। जिसका जमीनी जुड़ाव नहीं होगा उसे न तो कहावतों  न ही मुहावरों का पता होगा। वो बस लिखा हुआ पढ़ेगा। अरे भई कम से कम ऐसा लिखने वाला तो ढूंढिए जो चने के झाड़ में बैठ कर न लिखता हो, उसे हिंदी और हिन्द के निवासियों के मन की जानकारी हो।

अभी भी समय है जागिए अन्यथा- जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, chhayasaxena2508@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 355 ⇒ स्टेटस अपने अपने… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्टेटस अपने अपने।)

?अभी अभी # 355 ⇒ स्टेटस अपने अपने? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक समय था, जब किसी से मिलते थे, तो पहले आपस में दुआ सलाम होती थी, राम राम होती थी, और फिर आमने सामने बात होती थी। जो दूर गांव बसे होते थे, उनसे चिट्ठी पत्री के माध्यम से ही हालचाल जाने जा सकते थे। तब कहां इतने अमीर गरीब थे, समय ही समय था, रिश्तों में हम कितने अमीर थे।

समय बदलता चला गया, हमारे लाखों के सावन में दो टकियाॅं की नौकरी ने आग लगा दी। नौकरी ने ओहदे दिए, दर्जा दिया, इंसान बड़ा छोटा, अमीर गरीब होने लगा। उसका भी अपना एक स्टेटस, दबदबा, कायम होने लगा।।

पहले रेडियो आया फिर टेलीफोन। जिस घर में रेडियो और टेलीफोन होता, वह बहुत बड़ा आदमी समझा जाता। लेकिन फ्रिज टीवी के आते ही इंसान फिर खास से आम हो गया। घर घर लूना, कार और स्कूटर और सबके हाथों में मोबाइल। पहले सम्पूर्ण क्रांति और तत्पश्चात् संचार क्रांति। और आदमी को स्मार्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगा।

2G स्कैम और कोलगेट कांड के बाबजूद, देश आखिर 3G, 4G और 5G तक पहुंच ही गया। कैशलेस, ऑनलाइन और डिजिटल होते होते वह आखिर व्हाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम से जुड़ ही गया।

शिक्षा का स्तर कुछ भी हो, व्हाट्सप यूनिवर्सिटी ने कई की पीठ को ज्ञानपीठ बना दिया, और उधर फेसबुक तो मानो अपनी खुद की प्रिंटिंग प्रेस ही हो गई। शादी की विवाह पत्रिका खजूरी बाजार में नहीं, व्हाट्सएप और पीडीएफ पर ही छपने लगी।।

दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, लेकिन मेरे जैसा कुंए का मेंढक पीसी, लैपटॉप और डेस्कटॉप से अनजान ही रहा। स्मार्ट फोन आज भी मेरे हाथ में, मानो बंदर के हाथ में उस्तरा ही है। रोजी रोटी की चिंता से दूर मेरे जैसा पेंशनर सिर्फ व्हाट्सएप और फेसबुक पर ही अपना जीवन गुजार रहा है। स्मार्ट फोन की सांकेतिक भाषा मेरे पल्ले नहीं पड़ती। बच्चे मेरे मार्गदर्शक और गाइड हैं, फिर भी स्मार्ट फोन के बाकी एप्स यानी बंदर मेरे किसी काम के नहीं। करत करत अभ्यास के इतना ही पढ़ पाया कि ape बंदर को नहीं एप्लीकेशन को कहते हैं।

व्हाट्सएप का ही एक अंग है स्टेटस, जिससे मैं अभी तक अनभिज्ञ था। अभी तक नेकी कर, व्हाट्सएप पर डाल, लेकिन आजकल लोग पार्टी करते हैं और स्टेटस पर डाल देते हैं। जब मैंने दूध वाले, ऑटो वाले, मंदिर वाले पंडित जी और काम वाली बाई को भी स्टेटस पर देखा, तो मुझमें हीनता की भावना जाग्रत हो गई। बगल में छोरा जैसा व्हाट्सएप के बगल में स्टेटस और मुझे पता ही नहीं। हाय मैं मर जाऊं।।

इस उम्र में हीनता से ग्रस्त होना स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं। मैंने आज से ही स्टेटस की कोचिंग लेना शुरु कर दी है। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। मेरा स्टेटस अभी तक इतना गिरा हुआ था, और मुझे पता ही नहीं था। होगा ignorance is bliss, मैं इस कलंक को अपने माथे से मिटाकर ही रहूंगा। आखिर मेरा भी कुछ स्टेटस है।

अक्सर मैं महिला/पुरुषों को स्टेटस पर टहलते देखा करता हूं, अब मुझे भी अदरक का स्वाद लग चुका है। सुबह सुबह गर्मागर्म चाय के साथ अब स्टेटस का भी जायका लिया जाएगा। हो सकता है, आपसे भी शीघ्र ही स्टेटस पर मुलाकात हो। दिल थामकर बैठिए, अब हमारी बारी है। शांतता, कोचिंग जारी है।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #169 – आलेख – सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 169 ☆

☆ आलेख – सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

यह प्रश्न जटिल है कि क्या सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है, इसका कोई आसान उत्तर नहीं है। इस मुद्दे के दोनों पक्षों में मजबूत तर्क दिए जाने हैं।

जो लोग मानते हैं कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर गिरता है, उनका तर्क है कि इससे लेखक न्यायाधीशों या दर्शकों को खुश करने के लिए अपनी कलात्मक अखंडता का त्याग कर सकते हैं। उनका यह भी तर्क है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव रचनात्मकता को दबा सकता है और फॉर्मूलाबद्ध लेखन की ओर ले जा सकता है।

दूसरी ओर, जो लोग मानते हैं कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य के स्तर में सुधार हो सकता है, उनका तर्क है कि यह लेखकों को अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने के लिए आवश्यक प्रेरणा और फोकस प्रदान कर सकता है। उनका यह भी तर्क है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव लेखकों को अपने काम के प्रति अधिक आलोचनात्मक होने और उत्कृष्टता के लिए प्रयास करने के लिए मजबूर कर सकता है।

मेरे विचार में, सच्चाई इन दोनों चरम सीमाओं के बीच में कहीं है। हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कुछ लेखकों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, लेकिन यह दूसरों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक भी हो सकता है। अंततः, सम्मान के लिए लिखने से साहित्य के स्तर में सुधार होता है या नहीं, यह व्यक्तिगत लेखक और शिल्प के प्रति उनके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।

अपने तर्क का समर्थन करने के लिए, मैं खेल और साहित्य दोनों से दो उदाहरण प्रदान करूंगा। खेल की दुनिया में, हम अक्सर देखते हैं कि जब एथलीट प्रमुख प्रतियोगिताओं में प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं तो वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रतिस्पर्धा का दबाव उन्हें खुद को अपनी सीमा तक धकेलने और अपना सब कुछ देने के लिए मजबूर करता है। उदाहरण के लिए, माइकल जॉर्डन एनबीए फ़ाइनल में अपने अविश्वसनीय प्रदर्शन के लिए जाने जाते थे। वह अक्सर कहा करते थे कि उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ बास्केटबॉल तब खेला जब दांव सबसे ऊंचे थे।

साहित्य की दुनिया में, हम ऐसे लेखकों के उदाहरण भी देख सकते हैं जिन्होंने दबाव में होने पर भी अपना सर्वश्रेष्ठ काम किया है। उदाहरण के लिए, चार्ल्स डिकेंस धारावाहिक उपन्यास के उस्ताद थे। वह अक्सर समय सीमा के दबाव में लिखते थे और इस दबाव ने उन्हें नियमित आधार पर उच्च गुणवत्ता वाले काम करने के लिए मजबूर किया। उनके उपन्यास, जैसे “ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़” और “ग्रेट एक्सपेक्टेशंस”, अंग्रेजी साहित्य के क्लासिक्स माने जाते हैं।

निःसंदेह, सम्मान के लिए लिखने वाले सभी लेखक महान कार्य नहीं करते। हालाँकि, मेरा मानना ​​है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कई लेखकों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक हो सकता है, और इससे बेहतर काम का उत्पादन हो सकता है।

जिन उदाहरणों का मैंने पहले ही उल्लेख किया है, उनके अलावा, कई अन्य लेखक भी हैं जिन्होंने दबाव में महान कार्य किया है। उदाहरण के लिए, विलियम शेक्सपियर ने सार्वजनिक मंच के लिए नाटक लिखे, और वह जानते थे कि उनके काम का मूल्यांकन दर्शकों द्वारा किया जाएगा। इस दबाव ने उन्हें ऐसे नाटक लिखने के लिए मजबूर किया जो मनोरंजक और विचारोत्तेजक दोनों थे। उनके नाटक, जैसे “हैमलेट” और “किंग लियर”, आज भी साहित्य के अब तक लिखे गए सबसे महान कार्यों में से एक माने जाते हैं।

मेरा मानना ​​है कि लेखकों की अगली पीढ़ी को सम्मान के लिए लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे उन्हें बेहतर काम करने में मदद मिलेगी और लेखक के रूप में सफल करियर बनाने में भी मदद मिलेगी।

अंत में मेरा मानना ​​है कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधर सकता है। प्रतिस्पर्धा के दबाव से बेहतर लेखन हो सकता है, और मान्यता की इच्छा लेखकों को लिखते रहने की प्रेरणा प्रदान कर सकती है। साहित्य और खेल से ऐसे कई उदाहरण हैं जो इस तर्क का समर्थन करते हैं।

यहां उन लेखकों के कुछ अतिरिक्त उदाहरण दिए गए हैं जिन्होंने दबाव में भी बेहतरीन काम किया है:

टोनी मॉरिसन ने 1993 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार जीता। उन्होंने “बिलव्ड” और “द ब्लूस्ट आई” सहित कई उपन्यास लिखे।

अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने 1954 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार जीता। उन्होंने कई उपन्यास लिखे, जिनमें “द ओल्ड मैन एंड द सी” और “फॉर व्हॉम द बेल टोल्स” शामिल हैं।

जेके राउलिंग ने हैरी पॉटर श्रृंखला लिखी, जो अब तक की सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक श्रृंखला में से एक है। उन्होंने श्रृंखला की पहली पुस्तक एक समय सीमा के दबाव में लिखी, और उन्होंने श्रृंखला में सात और पुस्तकें लिखीं।

ये उन लेखकों के कुछ उदाहरण हैं जिन्होंने दबाव में भी बेहतरीन काम किया है। मेरा मानना ​​है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कई लेखकों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक हो सकता है, और इससे बेहतर काम का उत्पादन हो सकता है।

मुझे आशा है कि इस लेख से इस बहस पर कुछ प्रकाश डालने में मदद मिली होगी कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है या नहीं। मेरा मानना ​​है कि उत्तर हां में है, और मैं सभी लेखकों को अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने का प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित करता हूं, भले ही वे पुरस्कार के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हों या नहीं।

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 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

04-07-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 362 ⇒ जितने दूर, उतने पास… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जितने दूर, उतने पास।)

?अभी अभी # 362 ⇒ जितने दूर, उतने पास? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 जीवन में दूरियां भी हैं, और नजदीकियां भी, जो जितना पास है, उसकी कद्र नहीं, जो दूर है उसे पाए बिना सब्र नहीं। आधी छोड़ पूरी को पाना, क्या एक बच्चे द्वारा दोनों हाथों में लड्डू का थाल समेट लेने जैसा अनथक प्रयास नहीं। बच्चा तो अबोध, नासमझ है, लेकिन साधारण मनुष्य भी कहां, जो पास उपलब्ध है, करीब है, उससे संतुष्ट है।

पास और करीबी का अहसास किसे नहीं होता। एक मां तक अपने नवजात शिशु को एक पल के लिए भी अपनी आंखों से दूर नहीं जाने देती। क्या कलेजे के टुकड़े से अधिक करीबी कोई रिश्ता आपने देखा है। ।

लेकिन जब जो पास है, वह पर्याप्त प्रतीत नहीं होता, तब निगाहें दूर तक कुछ खोजा करती हैं। केवल वस्तुओं तक ही यह सीमित हो ऐसा जरूरी नहीं, जब पास के रिश्तों में खटास का अनुभव होने लगे, स्वार्थ, मतलब और खुदगर्जी अपने पांव पसारने लगे, तब रिश्तों में दूरियां पनपनी शुरू हो जाती हैं। अपने कब पराये हो जाते हैं, कुछ पता ही नहीं चलता।

जहां प्रेम की गांठ मजबूत होती है, हमेशा करीबी का अहसास बना रहता है। दूरी और नजदीकी यहां कोई मायने नहीं रखती। एक बंधन ऐसा भी होता है, जब कोई दूर का अनजान मुसाफिर अचानक हमारे जीवन में आता है, और हमारा जीवन साथी बन जाता है ;

कभी रात दिन हम दूर थे

दिन रात का अब साथ है।

वो भी इत्तिफाक की बात थी

ये भी इत्तिफाक की बात है। ।

बस फिर तो, “जनम जनम का साथ है, निभाने को, सौ सौ बार मैने जनम लिए” यानी जितने दूर उतने पास अनंत काल तक। ।

क्या दूर और क्या प्यास, क्या धरती और आकाश, सबको प्यार की प्यास। यह प्यास अगर पास नहीं बुझती तो एक प्यासा मृगतृष्णा की तरह भटकता ही रहता है, बस्ती बस्ती परबत परबत। जहां दो बूंद पानी मिला, बस वहीं विश्राम।

हमारी प्यास जन्मों की है, यह इतनी आसानी से तृप्त नहीं हो सकती। हम दूर के रिश्तों में, यारों में, दोस्तों में कुछ ऐसा तलाश करते हैं, जो हमें और करीब, और पास लाए, जहां रिश्ते दिलों के हों, आत्मीय हों, जिससे चित्त शुद्ध हो, मन शांत हो। यह तलाश कभी खत्म होने का नाम नहीं लेती, क्योंकि हम जिसे दूर दूर तक तलाश रहे हैं, वह तो कहीं नजर ही नहीं आ रहा। थक हारकर व्यथित मन यही कह उठता है ;

ओ दूर के मुसाफिर

हमको भी साथ ले ले।

हम रह गए अकेले।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 361 ⇒ संतुलन (Balance) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संतुलन (Balance)।)

?अभी अभी # 361 ⇒ संतुलन (Balance) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आर्थिक संतुलन के लिए जिस तरह हमारे खाते में समुचित बैलेंस जरूरी होता है, ठीक उसी तरह एक व्यवस्थित जीवन का आधार भी संतुलन ही है,

जिसमें संतुलित आहार से लगाकर बोलचाल, रहन सहन और आचार विचार तक शामिल है। हमारे मानसिक संतुलन को ही तो हमने मति, समझ और बुद्धि का नाम दिया है। फिर भी इंसान की कभी मति मारी जाती है, और कभी मति, फिर भी जाती है। विनाश काले विपरीत बुद्धि।

तराजू को हम तुला अथवा balance भी कहते हैं।

तराजू के दो पलड़े होते हैं, जब दोनों पलड़े बराबर होते हैं, तब सौदा खरा और सच्चा होता है। हमारे न्याय की देवी के हाथ में भी इंसाफ का तराजू होता है, और आंखों पर काली पट्टी बंधी होती है। निर्माता निर्देशक बी.आर.चोपड़ा को कानून से इतना प्यार था कि उन्होंने सन् १९६० में पहले एक अपराध फिल्म कानून बनाई। फिर भी उनका मन नहीं भरा और सन् १९८० में पुनः एक बार इंसाफ का तराजू फिल्म बना डाली।

लोगों का क्या है, वे तो अंधा कानून जैसी फिल्म भी देख लेते हैं। ।

बाबू जी धीरे चलना,

प्यार में ज़रा संभलना

बड़े धोखे हैं इस राह में ..

सिर्फ प्यार में ही नहीं, जीवन की राह में, हर मोड़ पर हमें संभलकर ही चलना होता है, और फिसलते वक्त अपना संतुलन भी कायम रखना पड़ता है। अपने आप पर काबू रखना, आपा नहीं खोना, हर तरह की सावधानी बिना mental balance के संभव नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।

मानसिक संतुलन को आप मनोयोग भी कह सकते हैं। आज रपट जाएं, तो हमें ना उठइयो ! फिसलना, रपटना किसी के लिए खेल हो सकता है। बगीचे की फिसल पट्टी पर फिसलने और झूला झूलने में, बच्चों को डर लग सकता है, लेकिन फिर बाद में धीरे धीरे उसकी आदत पड़ जाती है। कई बार सड़क पर वाहन चलाते चलाते, एकाएक बैलेंस बिगड़ जाता है, और हम धड़ाम से गिर जाते हैं। ।

बैलेंस अथवा संतुलन एक तरह का मानसिक अनुशासन है, जो हमारे स्वस्थ समाज का निर्माण करता है। जीवन की सभी विसंगतियों की जड़ में संतुलन और अनुशासन का अभाव होता है। फिल्म मासूम(१९६०) का यह गीत शायद यही संदेश देता है ;

हमें उन राहों पर चलना है।

जहाँ गिरना और संभलना है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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