हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 390 ⇒ ✓ लोफर √ • Loafer • ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “✓ लोफर √ • Loafer •।)

?अभी अभी # 390 ⇒ ✓ लोफर √ • Loafer • ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

दिन बुरे होते हैं, आदमी बुरा नहीं होता, फिर भी बुरे आदमी के लिए हमारा शब्दकोश तैयार रहता है।

आवारा, श्री 420, बेईमान, मि.नटवरलाल, अमानुष, चरित्रहीन, बंडलबाज, बनारसी ठग, नमकहराम, लुच्चा, लफंगा और लोफर। हम तो लोफर को भी हिंदी शब्द ही समझते थे, लेकिन यह तो अंग्रेजी शब्द निकला।

अन्य हिंदी शब्दों में यह इतना घुल मिल गया कि हम भी इसे बदमाश ही समझने लगे। जब अंग्रेजी डिक्शनरी उठाई तो इसका अर्थ आलसी निकला।

बद अच्छा, बदनाम बुरा। हमें अचानक फिल्म लोफर का यह गीत आ गया ;

आज मौसम बड़ा बेईमान है

बड़ा बेईमान है,

आज मौसम

आने वाला कोई तूफ़ान है

कोई तूफ़ान है,

आज मौसम ..

एक आलसी, लोफर के जीवन में क्या तूफान आएगा। लेकिन जब घूरे के दिन बदल सकते हैं, तो अवगुण भी गुण में क्यों नहीं ढल सकता। जब से हमें लोफर शब्द का अर्थ मालूम हुआ, हमें इस शब्द से प्रेम होने लग गया। आलसी के बजाय अगर कोई हमें प्रेम से लोफर कहे, तो हम कतई बुरा नहीं मानेंगे।।

क्या शब्द के भी दिन बदलते हैं ? एक हिंदी शब्द का प्रयोग हमने बंद कर दिया था, क्योंकि उससे किसी जाति विशेष का अपमान होता था। गांधीजी अस्पृश्य लोगों के लिए हरिजन शब्द लाए, तो क्या इससे क्या वे हरि के जन हो गए ! हरि के जन तो हम भी हैं। हम जिसे मोची कहते थे, वे रातों रात रैदास हो गए, और जिस डाल पर बैठे, उसी को काटने वाले कालिदास हो गए। सूरदास जब माइंड करने लग गए तब उन्हें दृष्टिहीन नहीं, दिव्यांग कहा जाने लगा।

हमने रैदास को पुनः मोची बनाया और उसे अत्याधुनिक, वातानुकूलित फीनिक्स मॉल में बाटा की बराबरी में बैठाया। आज लोग बाटा को भूल बैठे हैं, और मोची शूज को गले लगा रहे हैं।।

बेचारा बाटा मरता क्या न करता, ब्रांडेड शूज के बाजार में टिकना इतना आसान नहीं होता। महिलाओं और पुरुषों में बराबरी का सौदा है, ब्रांडेड शूज। विदेशी जूतों की एक दर्जन कंपनी से अगर लोहा लेना है तो कुछ तो नया करना ही पड़ेगा। बाटा कंपनी ने भी आलस छोड़ा और लोफर शूज की जबरदस्त रेंज बाजार में उतार दी। अब लोफर का अपना स्टेटस है, उपभोक्ताओं में लोफर शूज की अपनी अलग पहचान है।

फैशन वही, जो संस्कार और संस्कृति को आपस में जोड़े। एक समय था, जब पुरुष जूते के जोड़े पहनता था और स्त्री चप्पल अथवा सैंडिल। अब धोती कुर्ता, पैंट पायजामा, कुर्ता कुर्ती सबके साथ लोफर शूज पहने जा सकते हैं। आप भी आलस छोड़ो, लोफर शूज पहनो। यकीन मानिए, लोग आपका चेहरा नहीं, आपके शूज से नजर नहीं हटाएंगे। सस्ता रोए बार बार, लोफर रोए एक बार।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 288 ☆ आलेख – उधमसिंग और भगत सिंह में अद्भुत साम्य ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – उधमसिंग और भगत सिंह में अद्भुत साम्य। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 288 ☆

? आलेख – उधमसिंग और भगत सिंह में अद्भुत साम्य ?

भगत सिंह तथा राम प्रसाद बिस्मिल से उधमसिंह बहुत प्रेरित थे. देशभक्ति के तराने गाना उन्हें बहुत अच्छा लगता था. उधमसिंग और भगत सिंह के जीवन में अद्भुत साम्य था. क्रांति का जो कार्य देश में भगत सिंह कर रहे थे उधमसिंग देश से बाहर वही काम कर रहे थे. भगत सिंह से उनकी पहली मुलाकात लाहौर जेल में हुई थी. दोनों क्रांतिकारियों की कहानी में बहुत दिलचस्प समानताएं हैं. दोनों ही पंजाब से थे. दोनों ही नास्तिक थे. उधमसिंग और भगत सिंह दोनों ही हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे. दोनों की जिंदगी की दिशा तय करने में जलियांवाला बाग कांड की बड़ी भूमिका रही. दोनों को लगभग एक जैसे मामले में सजा हुई. जहाँ स्काट की जगह भगत सिंह ने साण्डर्स पर सरे राह गोली चलाई वहीं उधमसिंह को जनरल डायर की जगह ड्वायर को निशाना बनाना पड़ा , क्योकि डायर की पहले ही मौत हो चुकी थी. भगत सिंह की तरह उधमसिंह ने भी फांसी से पहले कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ने से इनकार कर दिया था. उधमसिंह भी सर्व धर्म समभाव में यकीन करते थे. इसीलिए उधमसिंह अपना नाम मोहम्मद आज़ाद सिंह लिखा करते थे. उन्होंने यह नाम अपनी कलाई पर भी गुदवा लिया था.इतिहासकार प्रोफेसर चमनलाल कहते हैं, ”उधम सिंह बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे. उन पर भगत सिंह और उनसे जुड़े आंदोलन का बहुत प्रभाव था. उम्र में वे भगत सिंह से बड़े थे किन्तु वे क्रांति के वैचारिक मंच पर सदैव भगत सिंह को स्वयं से ज्यादा परिपक्व मानते थे. उधम सिंह भगत सिंह की तरह लेखक नहीं थे. रिकॉर्ड पर उनके पत्र ज़्यादातर व्यक्तिगत स्तर पर लिखे गए थे लेकिन कुछ पत्रों में राजनीतिक मामलों का भी ज़िक्र मिलता है. उधम सिंह दृढ़ता से बोलते थे. अदालत में उनके भाषण भगत सिंह की तर्ज पर होते थे. जब उधमसिंह पर माइकल ओ डायर की हत्या के अभियोग का मुकदमा चला तो उन्होने बहुत गंभीरता और ढ़ृड़ता से अपनी बात रखी थी. उन्होने कहा था टेल पीपल आई वॉज़ अ रिवॉल्यूशनरी. 

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© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 389 ⇒ थप्पड़… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – ” थप्पड़…।)

?अभी अभी # 389 ⇒ थप्पड़ ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

थप्पड़ तेरे कितने नाम, चांटा, तमाचा, रेपटा, झापड़ तमाम। अगर थप्पड़ का संधि विच्छेद किया जाए, तो जो थप से पड़े, वह थप्पड़। थप शब्द भी तबले की थाप का करीबी ही प्रतीत होता है, थाप में प्रहार भी है, और ध्वनि भी।

जिस तरह क्रिकेट, हॉकी और फुटबॉल जैसे खेल मैदान में खेले जाते हैं, थप्पड़ का दायरा सिर्फ गाल तक ही सीमित होता है। ईश्वर ने दो गोरे गोरे गाल शायद इसीलिए बनाए हैं, कि अगर आप अहिंसा के पुजारी हो, तो कोई अगर आपके एक गाल पर थप्पड़ मारे, तो आप उसे दूसरा गाल भी पेश कर सकें।।

जो अहिंसा में विश्वास रखते हैं, वे भले ही किसी को थप्पड़ ना मारें, लेकिन थप्पड़ खाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता। हमारा जन्म तो थप्पड़ खाने के लिए ही हुआ था। पैदा होते से ही अगर नहीं रोओ, तो कभी नर्स तो कभी दाई से थप्पड़ मानो हमारा पैदाइशी तोहफा था। बाद में तो थप्पड़ ही हमारा स्कूल का होमवर्क था, और थप्पड़ ही हमारी पढ़ाई का सबक।

हमने बचपन में जवाब देने पर भी थप्पड़ खाया है और चुप रहने पर भी। हमें याद नहीं, कभी पिताजी ने हमें प्यार से चपत मारी हो, ऐसा सन्नाकर चांटा मारते थे, कि पांचों उंगलियां गालों पर नजर आ जाती थी। लेकिन बाद में मां का प्यार दुलार थप्पड़ का सारा दर्द सोख लेता था, और वही पिताजी रात को हमारे लिए कुल्फी लेकर आते थे, और अपने हाथों से, प्यार से खिलाते थे। हमें तब कहां दबंग का यह डायलॉग याद था, पिताजी आपके थप्पड़ से नहीं, प्यार से डर लगता है।।

कुछ छड़ीमार गुरुजन शिष्यों में विद्या कूट कूटकर भरना चाहते थे। मुक्का, घूंसा, लप्पड़, और जब स्केल और पेंसिल से काम नहीं हो पाता था, तो इंसान से मुर्गा बनाकर भी देख लेते थे। बाद में थक हारकर यही उद्गार व्यक्त करते थे, इन गधों को इंसान नहीं बनाया जा सकता।

आज भले ही हमें थप्पड़ मारने वाला कोई ना हो, लेकिन पिताजी और गुरुजनों के थप्पड़ का सबक हमें आज तक याद है। काश, आज भी कोई हमारे कान उमेठे, थप्पड़ मारे।

जो लोग शाब्दिक हिंसा के पक्षधर होते हैं, वे केवल शब्दों के प्रहार से ही अपने प्रतिद्वंदी के मुंह पर ऐसा तमाचा जड़ते हैं, कि वह तिलमिला जाता है। स्मरण रहे, शब्द रूपी तमाचा, गाल पर नहीं, मुंह पर जड़ा जाता है।।

कूटनीति का नाम राजनीति है। यहां बल की जगह बुद्धि का प्रयोग अधिक किया जाता है। बुद्धि बल से बड़ा कोई बल नहीं। चरित्र हनन से लगाकर इनकम टैक्स और ईडी के छापों से जो काम कुशलतापूर्वक संपन्न किया जा सकता है, वह बल प्रयोग द्वारा नहीं किया जा सकता।

राजनीति काजल की कोठरी है, इसका फायदा उठाकर कई राजनेता यहां काले कारनामे भी कर जाते हैं, और अपनी छवि भी स्वच्छ बनाए रखना चाहते हैं। लेकिन जब ऐसे नेता मुंह की खाते हैं, तो जनता से सरे आम थप्पड़ भी खाते हैं, चेहरे पर कालिख पुतवाते हैं, छापे भी पड़वाते हैं और जेल की हवा भी खाते हैं। कहती रहे जनता, आप तो ऐसे न थे।।

हिंसा हिंसा है, शाब्दिक हो अथवा शारीरिक ! खेद है, शाब्दिक हिंसा का खेल आजकल राजनीति में इतना बढ़ गया है कि प्रतिकार स्वरूप आम जनता भी शारीरिक हिंसा पर उतर आई है। शब्दों का घाव अधिक गहरा होता है, यह फिर भी तमाचा खाने वाला नहीं समझ पाता ..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 387 ⇒ बड़े होने का सबब… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बड़े होने का सबब।)

?अभी अभी # 387 ⇒ बड़े होने का सबब? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कोई जन्म से बड़ा अथवा महान नहीं होता। सब बड़े होते हैं, हाथी भी और चींटी भी। चींटी कितनी भी बड़ी हो जाए, लेकिन हाथी नहीं बन सकती। केवल बड़ा होने से भी कुछ नहीं होता, आदमी हाथी से छोटा होता है, फिर भी शान से हाथी की सवारी करता है, उस पर अंकुश लगाता है। होगा शेर जंगल का राजा, सर्कस के शेर से तो कागज़ का शेर भला।

बढ़ना और विकसित होना प्रकृति का नियम है। कल अगर आपका जन्मदिन था तो आज आप सिर्फ एक दिन और बड़े हो पाए, एक वर्ष और बढ़ने के लिए आपको अभी 364 और दिनों का इंतजार करना पड़ेगा। समय से बड़ा कोई नहीं होता। अच्छा समय चुटकियों में गुजर जाता है, दुःख के दिन पहाड़ से प्रतीत होते हैं।।

प्रकृति के कुछ नियम हैं। यहां अगर सभी कुछ नियत है तो कहीं कहीं नियति भी है। सृष्टि में, अलग अलग प्रजाति के जीव और वनस्पति हैं, कहीं बीज में पूरा वृक्ष समाया हुआ है तो कहीं सागर के सीपी में मोती। आम खाने के लिए बबूल का पेड़ नहीं लगाया जाता, क्योंकि बबूल पर आम नहीं पैदा होते। जानवरों में भी घोड़े, गधे और खच्चर पैदा होते हैं केवल एक इंसान ही ऐसा प्राणी है जिसका भविष्यफल जाना जा सकता है। मनुष्य में विकास की सभी संभावनाएं निहित हैं। उसका जन्म नियत है, नियति सबकी अलग अलग है। भाग्य और प्रारब्ध का खेला केवल इंसान ने ही खेला।

मेहनत का फल इंसान को ही मिलता है, बेचारे जानवर को तो सिर्फ घास ही नसीब होती है। किसी पेड़ की, अथवा किसी घोड़े, ऊंट, और बंदर की जन्म कुंडली नहीं बनती, क्योंकि इनमें और कुछ बनने की संभावनाएं हैं ही नहीं। मनुष्य में नर से नारायण और नारी से नारायणी का खयाल बुरा नहीं। और जहां खयाल ही बुरा हो, वहां तो फिर इस इंसान का भगवान ही मालिक है। अच्छे लोगों को अन्य सब लोग बुरे नजर आ रहे हैं। वे सबको अच्छा बनाने में लगे हुए हैं। लगता है, पूरे देश को बदल डालेंगे।

अगर ऐसा नहीं होता तो शायद किसी नारी कंठ से यह पुकार नहीं उठती ;

तुमको तो करोड़ों साल हुए

बताओ गगन गंभीर !

इस प्यारी प्यारी दुनिया में

क्यों अलग अलग तकदीर ?

आज का युग सीख देने का नहीं, सीखने का है। छोटे छोटे बच्चे अभी से एक बड़ा इंसान बनने का सपना देखने लगते हैं। उनके माता पिता भी, जो वे खुद नहीं बन पाए, अथवा अपने जीवन में नहीं कर पाए, अपने बच्चों में उसकी संभावनाएं तलाशते हैं। आज अधिक अवसर है, अधिक संभावनाएं हैं। जल्द ही बच्चों के पाठ्यक्रम से बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर जैसे नीति वाक्य नदारद हो जाएंगे। हमें पंछी और परमार्थ से क्या लेना देना। अर्जुन की तरह केवल मछली की आंख पर ही हमारा निशाना होता है। क्या आज आपको संतोषी सदा सुखी और रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, जैसे आउट ऑफ डेट लेक्चर सुन हंसी नहीं आती ? लगता है, आप जीवन में कुछ बनना ही नहीं चाहते।।

जब एक छोटा आदमी, बड़ा आदमी बन जाता है, तो लोग उसे और बड़ा बनाने में लग जाते हैं। उसे और बड़ा बनाने के प्रयास में उन्हें कितना भी छोटा होना पड़े, उन्हें उसमें भी अपना बड़प्पन नजर आता है। बिग भी, एक बड़े आदमी के बेटे होते हुए भी, संघर्ष और पुरुषार्थ से बड़े हुए और आज इतने बड़े हो गए, कि अब छोटा होना उनके बस में ही नहीं। जब इंसान के दाने दाने में केसर का दम नजर आता है, तो उसे लोगों की नजर लग जाती है। वह भी मन में सोचता है, बड़ा होना भी अभिशाप है। लेकिन गरीब होने से यह अभिशाप अच्छा है।

अगर बड़ा बनना है, तो छोटे दिखते रहो। अच्छा पहनो, अच्छा ओढ़ो। नम्रता और विनम्रता से अच्छा कोई परिधान नहीं।

आजकल पत्थर उछालने पर प्रतिबंध है इसलिए दुष्यंत कुमार क्षमा करें, आसमान में सुराख करने के और भी तरीके होंगे। लोकतंत्र में सबको बराबरी का अवसर मिलता है। हाथ कंगन को आरसी क्या, एक चाय वाले को ही ले लो। नर देखिए, नारायण नहीं बना, नरेन्द्र बन गया। लोग नारायण को भूल गए। इसे कहते हैं कुछ बनना। आप भी बनना तो एक और नरेन्द्र ही बनना, भूल से भी चाय वाला मत बन बैठना, कोई नहीं पूछेगा।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 244 – दर्शन-प्रदर्शन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 244 दर्शन-प्रदर्शन ?

आज यूँ ही विचार उठा कि समय ने मूल्यों को कितनी गति से और आमूल बदल दिया है। अपवाद तो हर समय होते हैं पर समय के विश्लेषण का मानक तो परम्परा ही होती है। दो घटनाओं के माध्यम से इसे समझने का प्रयास करेंगे।

पहली घटना लगभग चालीस वर्ष पुरानी है।  बड़े भाई महाविद्यालय में पढ़ते थे। उनके एक मित्र उनसे मिलने घर आए। यह साइकिल का जमाना था। गर्मी की छुट्टियों का समय रहा होगा। वे काफी दूर से आए थे, पसीने से लथपथ थे। पानी पीने के बाद माँ से बोले, “चाची शिकंजी बनाना।”  फिर पैंट की जेब में हाथ डाल कर दो नीबू निकाले और कहा, “सोचा, पता नहीं घर में नीबू होगा या नहीं। रास्ते में एक जगह नीबू दिखे तो खरीद लाया।” माँ ने उन्हीं नीबुओं से शिकंजी बनाई।

ये वे दिन थे जब जीवन को सहजता से जिया  जाता था। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का दर्शन  हमारे सामाजिक-जीवन का केंद्र था। समय के साथ केंद्र सरका और दर्शन को प्रदर्शन ने विस्थापित कर दिया। इस विस्थापन का एक अनुभव हुआ लगभग दस वर्ष पहले।

एक व्याख्यान के लिए दिल्ली जाना था। सम्बंधित संस्था ने आने-जाने के लिए हवाई जहाज की यात्रा का किराया देने का प्रावधान किया था। मैंने इकोनॉमी क्लास के टिकट खरीदे। एक  परिचित भी उसी आयोजन में जाने वाले थे। सोचा एक से भले दो। यात्रा में साथ हो जाएगा। उनसे बात की। उन्होंने बताया कि वे एक अन्य प्रीमियम एयरलाइंस की बिजनेस क्लास से यात्रा करेंगे। बात समाप्त हो गई।… मैं दिल्ली पहुँचा। व्याख्यान हुआ। होटल में मैं और मेरे परिचित अड़ोस-पड़ोस के कमरे में ही ठहरे थे। बातचीत के दौरान किसी संदर्भ में उन्होंने आने-जाने के टिकट दिखाए। उनके टिकट भी इकोनॉमी क्लास के ही थे। उन्हें तो अपना असत्य याद नहीं रहा पर सत्य सारी परतें भेदकर बाहर आ गया।

गाड़ी के शीशे पर लिखा होता है, ‘ऑब्जेक्ट्स  इन मिरर आर क्लोजर देन दे एपियर।’ सत्य भी मनुष्य के निकट ही होता है, उसे दिखता भी है पर गाड़ी के शीशे में दिखती वस्तु की भाँति वह उसे दूर मानकर उससे भागने की फिराक में रहता है। नश्वरता को शाश्वत से बड़ा मान लेने की मनुष्य की प्रवृत्ति विचित्र है। ‘लार्जर देन लाइफ’ सामान्यत: अद्वितीय सकारात्मक क्षमता के लिए प्रयोग किया जाता है। इसके मूल को नष्ट करते हुए हमने प्रदर्शन के लिए इसका प्रयोग करना आरंभ कर दिया है।

वस्तुत: जीवन जितना सादा होगा, जितना सरल होगा, जितना सहज होगा, उतना ही ईमानदार होगा। जीवन को काँच-सा पारदर्शी रखें, भीतर-बाहर एक-सा। भीतर कुछ और, बाहर कुछ और.. इस ओर-छोर का संतुलन बनाये रखने की कोशिश में बीच की नदी सूख जाती है। जीवन प्रवाह के लिए है। अपने आप को सूखने से बचाइए।

प्रकृति का एक घटक है मनुष्य। प्रकृति हरी है, जीवन हरा रहने के लिए है। पर्यावरण दिवस पर इस हरेपन का सबसे बड़ा प्रतिदान मनुष्य, प्रकृति को दे सकता है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 386 ⇒ लंबी गहरी साॅंस (Deep breathing) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लंबी गहरी साॅंस (Deep breathing)।)

?अभी अभी # 386 लंबी गहरी साॅंस (Deep breathing) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या कभी आपने चैन की सांस ली है, ली होगी कई बार ली होगी। चैन की सांस का हठयोग में कहीं कोई जिक्र नहीं, कोई अभ्यास नहीं। हमारा तो सांस पर कभी ध्यान ही नहीं रहता, कौन सी सांस चैन की है, और कौन सी बैचेनी की। जिस सांस से चैन की बंसी बजाई जाए, उसे आप चैन की सांस कह सकते हैं।

चैन की सांस ही नहीं, चैन की नींद भी होती है। नींद का नाम ही चैन है, जहां चैन नहीं, वहां आंखों में नींद नहीं। चैन की सांस और चैन की नींद ईश्वर ने हर प्राणी के लिए बनाई है, ईश्वर इस बारे में कोई भेद नहीं करता, अमीरी गरीबी का, छोटे बड़े का, साधु और शैतान का।।

अगर आपका चैन छिन गया, तो आप जैसा कोई दुखी प्राणी नहीं। “हम प्यार में जलने वालों को, चैन कहां, आराम कहां”। बैचेनी किसी बीमारी से भी हो सकती है और दुख, संताप और व्यथा से भी हो सकती है। होते हैं कुछ ऐसे लोग, जिनसे अक्सर यही शिकायत रहती है कि ;

कुछ नहीं कहते,

कुछ नहीं कहते।

अपनी तो ये आदत है

कुछ नहीं कहते

कुछ नहीं कहते।।

और कभी कभी जब सब्र का बांध टूट पड़ता है, तो अंदर दबी कड़वाहट कुछ इस तरह बाहर फूट पड़ती है ;

चैन से हमको कभी

आपने जीने ना दिया।

जहर भी चाहा अगर पीना,

तो पीने ना दिया।।

तो क्या बेसब्री और बैचेनी, सब सांस का खेल है। हम डॉक्टर के पास जाते हैं, वह आंखें देखता है, जबान देखता है, कलाई पकड़ता है, अपने यंत्र से दिल की धड़कन नापता है और लंबी गहरी सांस लेने और छोड़ने को कहता है।

सांस की गति से वह जान जाता है, गले, फेफड़े की स्थिति, और सर्दी, जुकाम, खांसी का असर।

एक कविता में डा सुमन ने हमसे बचपन में सांसों का हिसाब पूछा था, हम कुछ समझे नहीं थे ;

तुमने जितनी सांसें खींची, छोड़ी हैं

उनका हिसाब दो और करो रखवाली

कल आने वाला है साँसों का माली …

लेकिन उम्र के साथ सांस का महत्व भी समझ में आ गया। सांस जितनी लंबी और गहरी होगी, मन उतना ही शांत होगा। लंबी गहरी सांस में सिर्फ रेचक और पूरक होता है, कुंभक नहीं होता। मनुष्य नाक से सांस लेता है, इसलिए उसकी उम्र ज्यादा है। जो प्राणी मुंह से सांस लेते हैं, उनकी उम्र कम होती है। कुत्ता हमेशा मुंह से ही सांस लेता है। जो प्राणी जमीन के अंदर होते हैं, उन्हें कम सांस लगती है। कछुए की उम्र अधिक होती है। मेंढक तो प्राकृतिक आवासों में हाइबरनेशन पीरियड में चले जाते हैं। महीनों सांस रोके पड़े रहते हैं।।

आप प्राणायाम करें ना करें, लेकिन क्रोध, अवसाद एवं बैचेनी की अवस्था में लंबी गहरी सांस अवश्य लें। रात को सोते वक्त भी अगर लंबी गहरी सांस ली जाए, तो मन शांत हो जाता है, और चैन की नींद नसीब होती है।

हमारी ईश्वर से प्रार्थना है, हमारी हर सांस, चैन की सांस हो। हमारे शहर में कहीं चैनसिंह का बगीचा था। अगर हमारे मन की बगिया में ही सुख, संतोष और चैन के फूल उगने लगे तो शायद हमें कभी लंबी गहरी सांस लेने की आवश्यकता नहीं पड़े।

जब भी बैचेनी महसूस हो, लीजिए लंबी गहरी सांस। देखिए, महसूस कीजिए, सांस का चमत्कार और सदा लीजिए चैन की सांस।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ भूत भभूत ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ भूत भभूत ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सियासत में “भूत” को “वर्तमान “नहीं बनाया जाता। भूत तो भूत है “अभूतपूर्व” नहीं होता। बहुत कम भूतों को वर्तमान बनने का सौभाग्य मिलता है। मिल भी गया तो उन्हें तोता बना दिया जाता है। कुछ को भेड़ में रूपान्तरित कर दिया जाता है।

 पांव छूकर नेतागण, विदेह भूत को “आदर की भभूत “मल देते हैं। भूत इसी में खुश कि चलो कुर्सी पर तो बैठेंगे भले ही किसी को दिखाई न दें। सदेह कुछ और मिलने से रहा। कुछ नहीं तो हैप्पीवाले बर्थ डे मतलब जन्म जयंती या पुण्यतिथि पर खुशबूदार फूलों का गुच्छा और एक दीया तो मिल ही जायेगा।

 वैसे भी भूत को “खंडहर “में रहना चाहिए। जिसके दरवाजे चरर मरर करते हों, खिड़कियों के पल्ले बंद होते खुलते हों, अंधेरे उजाले का तिलिस्म फैला हो, और जहां चमगादड़ों की फड़फड़, मकड़ियों के जाले और छिपकलियों की चिकचिक सुनाई देती हो। भूत, “काल” हो या “व्यक्ति” उन्हें एक जैसा “संवैधानिक उपहार” मिलता है।

 बात सियासत की हो तो “बिचौलिए “यहां हरे हरे नोटों की सूटकेस लेकर “गिरगिटिया जीवों” को पलक झपकते गाँठ लेते हैं। चीता भी फीका है उनके आगे।

आयरलैंड की “अमांडा” को भी बिचौलिए ने ही भूत से मिलवाया था। यहां तक कि शादी के वक्त” अँगूठी “भी भूत की तरफ से पहनाई। 5 बच्चों की माँ अमांडा और 300 साल की उम्र वाला “समुद्री लुटेरा जैक। ” ये अलग बात है कि अमांडा की ढेरों भूतों से दोस्ती थी पर कसम है है जो कभी उसने उनकी तरफ उस नजर से देखा हो। सारा खेल नज़र का है। क्या पता भूतों ने शादी का प्रस्ताव दिया हो और अमांडा ने बेदर्दी से ठुकरा दिया हो।

अमांडा ने प्राइवेट बोट पर शादी की। दिल लिया और दिया भी।

 आजकल “आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस “का जलवा है। हाल ही में लिसा नाम की चीनी व्लाॅगर, डैन नाम के चैटबाॅट से दीवानों की तरह प्यार कर बैठी। उसने लिसा का निक नेम” लिटिल किटन” रख दिया।

 लोग” रोबो “से शादी कर सकते हैं तो “भूत “ने क्या बिगाड़ा !यूं भी कुछ पति नामक जीवों के पुरुष मुक्ति आन्दोलन चलते रहते हैं। वे कहते हैं कि उनकी पत्नियां” वर्तमान” में भी “भूत” की तरह बर्ताव करती हैं। वे कुछ इस तरह से टॉर्चर करती हैं जैसे अशरीरी भूत। मजाल है जो किसी को प्रमाण मिल जाये। जेब से इतने रुपयों का गबन करती हैं कि त्रिकाल में कोई माई का लाल सबूत न जुटा सके।

 उन्हें “सियासी भूतों “को देखकर तसल्ली कर लेनी चाहिए। उनका भी अंदाज़ कातिलाना होता है। दिखाई देकर भी दिखाई नहीं देते। इसे कहते हैं भूतिया कलाकारी, साजिश, षडयंत्र। भूत एक ही तरह के नहीं न होते। नज़र न आने वाले सुरक्षित होते हैं पर चलते फिरते भूत ज्यादा खतरनाक होते हैं।

एक लतीफा वायरल हुआ था। बला का खूबसूरत।

“अच्छी पत्नी और भूत में क्या समानता है?”

“दोनों दिखाई नहीं देते”

“कल्पना कला “भी कोई चीज़ होती है कि नहीं !इसी के बूते बोतलबंद भूत का धंधा भी कर लिया किसी ने। काहे का स्टार्ट अप। न लोन की झंझट न सदेह भूतों का एहसान।

 एक उद्योग ऐसा भी—किसी को अगर शक हो कि वह जिस घर में रहने जा रहा है कहीं वहां भूत तो नहीं—भूत ढूंढने का व्यवसाय करनेवाले इसमें दक्ष होते हैं।

सबसे मुश्किल है यह दौर जहां अमूमन ये पता करना टेढ़ी खीर है कि जिन्दा दोपाया, भूत तो नहीं या जिसे हमने भूत समझा वह चलता फिरता धड़कते दिल का मालिक हो।

💧🐣💧

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 385 ⇒ असंग्रह (अपरिग्रह)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “असंग्रह (अपरिग्रह)।)

?अभी अभी # 385 ⇒ असंग्रह (अपरिग्रह)? श्री प्रदीप शर्मा  ?

नैतिक नियमों को आप यम नियम कह सकते हैं। आवश्यकता से अधिक संग्रह की वृत्ति हमारी भौतिकता की देन है। अगर जीवन ही सादा होगा तो जीवन कितना फीका फीका होगा, हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

जब हमारा आचरण हमारे सिद्धांतों और आदर्श से मेल नहीं खाता, तो जीवन में कृत्रिमता और

बनावटीपन आ जाता है, सहजता कहीं गायब हो जाती है। कौन नहीं चाहता, अच्छा खाना और अच्छा पहनना। लेकिन जाने अनजाने सुविधाओं की आड़ में हमारे पास कई अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह होता चला जाता है, और हम उनसे बेखबर रहते हैं। ।

आवश्यकता आविष्कार की जननी है, हम आविष्कार किया करते हैं, और हमारी आवश्यकताओं को दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ाते रहते हैं। मूल भूत सुविधा भी आवश्यकता का ही अंग है, लेकिन संपन्नता के साथ सुविधा का ग्राफ भी बढ़ता ही रहता है। छोटे मकान से बड़ा मकान और छोटी गाड़ी से बड़ी गाड़ी समय की भी मांग है, और संपन्नता की निशानी भी। लेकिन जब हर अनावश्यक चीज भी आवश्यक लगने लगे, तब जीवन से यम नियम गायब हो जाता है।

आइना हम रोज देखते हैं, लेकिन हमें आइना दिखाने वाले लोग कम ही होते हैं। असंग्रह और अपरिग्रह की दुहाई देते हुए जब एक दिन अनायास मैने अपने कपड़ों की आलमारी खोली तो मुझे कई ऐसे पुराने कपड़े नजर आए, जो केवल अलमारी की शोभा बढ़ा रहे थे। पत्नी की अलमारी में तो मेरी नजर चली गई, कितनी अनावश्यक साड़ियां हैं, लेकिन अपनी अलमारी से मेरा साक्षात्कार मानो पहली बार हुआ हो। मुझे मेरा मुंह आईने में नजर आ गया, मुझे आज अपने गिरेबान में झांकना ही पड़ा, अपने हाथों से ही अपने कानों को उमेठना पड़ा। ।

एक पंछी को रोज अपने दाना पानी की व्यवस्था करनी होती है। रोजाना अपने बाल बच्चों का भी पेट भरना होता है। आप उसे अपरिग्रह का पाठ नहीं पढ़ा सकते, क्योंकि वह कल के लिए कुछ संग्रह कर ही नहीं सकता। इंसान की बात अलग है, उसे दो जून की रोटी की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। वह परिग्रह की श्रेणी में नहीं आता।

जो अपरिग्रह का पालन करते हैं, वे अनावश्यक वस्तुओं को नेकी के दरिए में बहा देते हैं। लेकिन संग्रह की प्रवृत्ति से छुटकारा पाना इतना आसान भी नहीं। अपने किताबों के संग्रह से कौन मुंह मोड़ सकता है, तिजोरी और लॉकर में रखे गहनों का भी खयाल रखना पड़ता है। ।

कई घरों में आपको संग्रहालय नजर आ जाएंगे। किसी को जूतों का शौक तो किसी को टाइयों का। वॉर्डरोब होता ही काहे के लिए है। शान शौकत पर खर्च और धूमधाम से शादियां, हमारे समाज का ही प्रचलन है। कोई किसी का हाथ नहीं रोकता लेकिन फिर भी इसी समाज में कुछ लोग हैं जो फिजूलखर्ची को अपराध मानते हैं, और संयम और सादगी का जीवन व्यतीत करते हैं।

कल कॉलर ट्यून पर एक गीत बज रहा था, ये मोह मोह के धागे …. आगे के शब्द बेमानी हैं। समाज के नियम अपनी जगह हैं, हमारे जीवन के नियम हमें ही बनाने पड़ते हैं, खुद को अपनी ही कसौटी पर कसना पड़ता है, संयम, संतुलन के साथ तितिक्षा का भी अभ्यास करना पड़ता है। वैराग्य ना सही, विवेक का दामन तो थामना ही पड़ता है ;

बहुत दिया देने वाले ने तुझको।

आंचल ही न समाए

तो क्या कीजे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #235 ☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ख्वाब : बहुत लाजवाब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 235 ☆

☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब… ☆

‘जो नहीं है हमारे पास/ वो ख्वाब है/ पर जो है हमारे पास/ वो लाजवाब है’ शाश्वत् सत्य है, परंतु मानव उसके पीछे भागता है, जो उसके पास नहीं है। वह उसके प्रति उपेक्षा भाव दर्शाता है, जो उसके पास है। यही है दु:खों का मूल कारण और यही त्रासदी है जीवन की। इंसान अपने दु:खों से नहीं, दूसरे के सुखों से अधिक दु:खी व परेशान रहता है।

मानव की इच्छाएं अनंत है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती चली जाती हैं और सीमित साधनों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। इसलिए वह आजीवन इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और सुक़ून भरी ज़िंदगी नहीं जी पाता। सो! उन पर अंकुश लगाना अनिवार्य है। मानव ख्वाबों की दुनिया में जीता है अर्थात् सपनों को संजोए रहता है। सपने देखना तो अच्छा है, परंतु तनावग्रस्त  रहना जीने की ललक पर ग्रहण लगा देता है। खुली आंखों से देखे गए सपने मानव को प्रेरित करते हैं करते हैं, उल्लसित करते हैं और वह उन्हें साकार रूप प्रदान करने में अपना सर्वस्व झोंक देता है। उस स्थिति में वह आशान्वित रहता है और एक अंतराल के पश्चात् अपने लक्ष्य की पूर्ति कर लेता है।

परंतु चंद लोग ऐसी स्थिति में निराशा का दामन थाम लेते हैं और अपने भाग्य को कोसते हुए अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और उन्हें यह संसार दु:खालय प्रतीत होता है। दूसरों को देखकर वे उसके प्रति भी ईर्ष्या भाव दर्शाते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अभावों से नहीं; दूसरों के सुखों को देख कर दु:ख होता है–अंतत: यही उनकी नियति बन जाती है।

अक्सर मानव भूल जाता है कि वह खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। यह संसार मिथ्या और  मानव शरीर नश्वर है और सब कुछ यहीं रह जाना है। मानव को चौरासी लाख योनियों के पश्चात् यह अनमोल जीवन प्राप्त होता है, ताकि वह भजन सिमरन करके अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सके। परंतु वह राग-द्वेष व स्व-पर में अपना जीवन नष्ट कर देता है और अंतकाल खाली हाथ जहान से रुख़्सत हो जाता है। ‘यह किराये का मकान है/ कौन कब तक रह पाएगा’ और ‘यह दुनिया है एक मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला’ स्वरचित गीतों की ये पंक्तियाँ एकांत में रहने की सीख देती हैं। जो स्व में स्थित होकर जीना सीख जाता है, भवसागर से पार उतर जाता है, अन्यथा वह आवागमन के चक्कर में उलझा रहता है।

जो हमारे पास है; लाजवाब है, परंतु बावरा इंसान इस तथ्य से सदैव अनजान रहता है, क्योंकि उसमें आत्म-संतोष का अभाव रहता है। जो भी मिला है, हमें उसमें संतोष रखना चाहिए। संतोष सबसे बड़ा धन है और असंतोष सब रोगों  का मूल है। इसलिए संतजन यही कहते हैं कि जो आपको मिला है, उसकी सूची बनाएं और सोचें कि कितने लोग ऐसे हैं, जिनके पास उन वस्तुओं का भी अभाव है; तो आपको आभास होगा कि आप कितने समृद्ध हैं। आपके शब्द-कोश  में शिकायतें कम हो जाएंगी और उसके स्थान पर शुक्रिया का भाव उपजेगा। यह जीवन जीने की कला है। हमें शिकायत स्वयं से करनी चाहिए, ना कि दूसरों से, बल्कि जो मिला है उसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। जो मानव आत्मकेंद्रित होता है, उसमें आत्म-संतोष का भाव जन्म लेता है और वह विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँध देता है।

गुलज़ार के शब्दों में ‘हालात ही सिखा देते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह होता है।’

हमारी मन:स्थितियाँ परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। यदि समय अनुकूल होता है, तो पराए भी अपने और दुश्मन दोस्त बन जाते हैं और विपरीत परिस्थितियों में अपने भी शत्रु का क़िरदारर निभाते हैं। आज के दौर में तो अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, उन्हें तक़लीफ़ पहुंचाते हैं। इसलिए उनसे सावधान रहना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए जीवन में विवाद नहीं, संवाद में विश्वास रखिए; सब आपके प्रिय बने रहेंगे। जीवन में  इच्छाओं की पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म में सामंजस्य रखना आवश्यक है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा।

सो! हमें जीवन में स्नेह, प्यार, त्याग व समर्पण भाव को बनाए रखना आवश्यक है, ताकि जीवन में समन्वय बना रहे अर्थात् जहाँ समर्पण होता है, रामायण होती है और जहाल इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, महाभारत होता है। हमें जीवन में चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। स्व-पर, राग-द्वेष, अपेक्षा-उपेक्षा व सुख-दु:ख के भाव से ऊपर उठना चाहिए; सबकी भावनाओं को सम्मान देना चाहिए और उस मालिक का शुक्रिया अदा करना चाहिए। उसने हमें इतनी नेमतें दी हैं। ऑक्सीजन हमें मुफ्त में मिलती है, इसकी अनुपलब्धता का मूल्य तो हमें कोरोना काल में ज्ञात हो गया था। हमारी आवश्यकताएं तो पूरी हो सकती हैं, परंतु इच्छाएं नहीं। इसलिए हमें स्वार्थ को तजकर,जो हमें मिला है, उसमें संतोष रखना चाहिए और निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। हमें फल की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो हमारे प्रारब्ध में है, अवश्य मिलकर रहता है। अंत में अपने स्वरचित गा त की पंक्तियों से समय पल-पल रंग बदलता/ सुख-दु:ख आते-जाते रहते है/ भरोसा रख अपनी ख़ुदी पर/ यह सफलता का मूलमंत्र रे। जो इंसान स्वयं पर भरोसा रखता है, वह सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। इसलिए इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि जो नहीं है, वह ख़्वाब है;  जो मिला है, लाजवाब है। परंतु जो नहीं मिला, उस सपने को साकार करने में जी-जान से जुट जाएं, निरंतर कर्मरत रहें, कभी पराजय स्वीकार न करें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 384 ⇒ घर से काम (Work from home) ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घर से काम (Work from home)।)

?अभी अभी # 384 ⇒ घर से काम (Work from home) ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिन्हें दुनिया से कोई काम नहीं, उन्हें भी घर से काम होता है। एक हाउसवाइफ की तो पूरी दुनिया ही उसका घर होता है। हां, लेकिन एक योगी, संन्यासी और फकीर को क्या घर से काम।

हमने घर में तो बहुत काम किया है, लेकिन कभी घर से काम नहीं किया। कामकाज के लिए नौकरी धंधा करना पड़ता है, दफ्तर, दुकान, बाजार जाना पड़ता है। एड़ियां रगड़ने, और चप्पलें घिसने के बाद बड़ी मुश्किल से नौकरी मिलती है, एक आम इंसान को।।

हम जिस घर से काम की बात कर रहे हैं, उसे मराठी में घर बसून काम और अंग्रेजी में work from home कहते हैं। दूरस्थ कार्य किसी कार्यालय के बजाय अपने घर या किसी अन्य स्थान से काम करने की यह प्रथा है। भारत में कोरोना काल इसका जनक है। नई पीढ़ी के प्रतिभाशाली आईटी सेक्टर के इंजीनियर्स और अन्य कर्मचारी बड़ी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों में, पुणे, मुंबई, हैदराबाद और बेंगलुरू जैसे बड़े शहरों में, अपने घर से बहुत दूर कार्यरत थे। अच्छा पैकेज, और सभी सुविधाएं।

अचानक कोरोना ने, जो जहां था, उसे वहीं, ठहरने के लिए मजबूर कर दिया। लॉकडाउन की त्रासदी और कोरोना वायरस का हमला दिल दहला देने वाला था। जहां जान के लाले पड़ रहे हों, वहां कैसी नौकरी और कैसा रोजगार। कई परेशान युवा भागकर अपने घर आ गए, जान है तो जहान है, परदेस में ना खाने का ठिकाना और ना जान की गारंटी।।

कई उद्योग धंधे बर्बाद हो गए, कई कंपनियां डूब गई। केवल एक ही विकल्प बचा था, जो जहां है, वहीं से काम करता रहे, दफ्तर अथवा ऑफिस आने की जोखिम ना उठाए। आईटी सेक्टर का पूरा काम वैसे भी कंप्यूटराइज्ड होता है, आपको निर्देश ऑनलाइन मिल जाया करते हैं।

उधर वर्क फ्रॉम होम में कंपनी का भी ऑफिस एस्टाब्लिशमैंट का खर्चा बचा। सर्वसुविधायुक्त ऑफिस होते हैं इन कंपनियों के ऑफिस। अच्छी सुविधा, कसकर काम। खूब खाओ, मन लगाकर काम करो।

आज स्थिति यह है कि हर घर में वर्क फ्रॉम होम चल रहा है। सामान्य हालात के पश्चात् जो कर्मचारी वापस ऑफिस चले भी गए हैं, वे भी अगर छुट्टियों में घर आते हैं, तो उन्हें काम से छुट्टी नहीं मिल सकती। जहां हो, वहीं दफ्तर समझ, ऑफिस टाइम में काम करते रहो। यह कोई

सरकारी दफ्तर नहीं, और जॉब की भी कोई गारंटी नहीं।।

वर्क इज वर्शिप, काम ही पूजा है, का जमाना है। पूजा के लिए जिस तरह मंदिर जाना जरूरी नहीं, घर पर भी की जा सकती है, ठीक उसी तरह काम करने वाला कहीं भी काम कर सकता है, पूजा की तरह, बस उसके काम का सम्मान हो, उसे संतुष्टि के साथ, समुचित पारिश्रमिक भी मिले।

वर्क फ्रॉम होम का दायरा आजकल बहुत बढ़ गया है। आज की पीढ़ी सुशिक्षित और जागरूक है, केवल एक कंप्यूटर के जरिये आप पूरी दुनिया पर नजर रख सकते हैं। संभावनाओं का अंत नहीं,

अवसर अनंत हैं।।

आज हंसी आती है, हमारी पीढ़ी पर। हम अपने समय में कितने निश्चिंत और अनजान थे। उधर गर्मी की छुट्टियां आई, और बस एक ही काम ;

बैठे बैठे क्या करें

करते हैं कुछ काम।

अंताक्षरी शुरू करते हैं

लेकर प्रभु का नाम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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