हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 267 ☆ आलेख – लंदन से 3 – अंतर्राष्ट्रीय लंदन पुस्तक मेले से ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख लंदन से 3 – अंतर्राष्ट्रीय लंदन पुस्तक मेले से

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 267 ☆

? आलेख लंदन से 3 – अंतर्राष्ट्रीय लंदन पुस्तक मेले से ?

प्रतिष्ठित लंदन पुस्तक मेले का आयोजन इस वर्ष 12से14 मार्च 2024 तक हो रहा है। 1971 से प्रति वर्ष यह वृहद आयोजन होता आ रहा है। यह एक ऐसा आयोजन है जिसमे दुनिया भर से लेखकों, प्रकाशकों, बुक एजेंट, कापीराइट और पुस्तक प्रेमियों का भव्य जमावड़ा होता है। इस अंतर्राष्ट्रीय आयोजन में विभिन्न देशों, विभिन्न भाषाओं, के स्टाल्स देखने मिले। ओलंपिया लंदन में पश्चिम केंसिंग्टन में एक ऐतिहासिक प्रदर्शनी स्थल है, जहां यह आयोजन होता है।

लंदन पुस्तक मेले के माध्यम से साहित्यिक एजेंट, लेखक, संपादक और प्रकाशक आगामी पुस्तक परियोजनाओं पर चर्चा करने, बातचीत करने और व्यवसायिक संबंध बनाने के लिए एकत्रित होते हैं। किताबों की खरीदी, विक्रय, विमोचन, लेखकों से साक्षात्कार, कापीराइट, अनुवाद, आदि के अलग अलग सेशन विशेषज्ञ करते हैं।

नेटवर्किंग इवेंट होते हैं, जो मेले के बाद भी प्रकाशन क्षेत्र से जुड़े लोगों को परस्पर जोड़ने का काम करते हैं।

भारत का स्टाल अभी भी इंडिया नाम से ही मिला। नेशनल बुक ट्रस्ट और वाणी प्रकाशन के ही स्टाल्स थे। विभिन्न भारतीय भाषाओं की चंद किताबें प्रदर्शित थी। मुझे आशा खेमका की आत्म कथा India made me, and Britain enabled me, एवं पद्मेश गुप्ता जी के कहानी संग्रह डैड ऐंड के हिंदी तथा उसके AI से किए गए अंग्रेजी अनुवाद की किताबों के विमोचन में सहभागी रहने का अवसर मिला।

दिल्ली के पुस्तक मेले की स्मृतियां दोहराते हुए यहां घूमना बहुत अच्छा लगा। यद्यपि दिल्ली में अनेकों परिचित लेखकों से भेंट हो जाती थी, पर यहां व्यक्तिगत न सही कुछ परिचित लेखकों की किताबों से रूबरू जरूर हुआ।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

लंदन से 

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 75 – देश-परदेश – रस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 75 ☆ देश-परदेश – रस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

भारत की रसमलाई दुनियाभर में
दूसरा सबसे स्वादिष्ट चीज डेजर्ट

बाल्यकाल में सबसे प्रिय गन्ने का रस हुआ करता था। हाथ गाड़ी वाला घर के बाहर आकर पुकार लगाता था। पहले इकन्नी बाद में दस पैसे में रसपान सुविधा उपलब्ध हुआ करती थी।

रसगुल्ले जब कोई परिचित हांडी में भेंट स्वरूप लेकर घर पर आता था, तो हम भाई बहन रस पर नज़र रखते थे, क्योंकि रसगुल्ले की संख्या की तो गणना हो जाती थी, रस की हांडी में तो कोई भी बाजी मार सकता था। वैसे बाद में ब्रेड के साथ रस के शाही टोस्ट बनने लगे थे। हांडी को साफ कर गर्मियों में पक्षियों के लिए जल भर कर पुण्य कमाया जाता था।

पाठशाला में जब माध्यमिक स्तर पर पहुंचे तो पता चला रस के ग्यारह भेद भी होते हैं। गुरुजन जब मुंह जबानी पूछते थे, तो हमेशा आठ/नौ ही याद आते थे।

आज प्रकाशित समाचार से जानकारी प्राप्त हुई कि हमारे देश की रसमलाई विश्व की दूसरी सबसे स्वादिष्ट “चीज़” द्वारा निर्मित मिठाई है।

चीज़ शब्द हमारे यहां बहुतायत से उपयोग किया जाता हैं। कपड़े की दुकान पर अक्सर हम लोग कहते है, कोई बढ़िया चीज दिखाएं। युवाकाल में जब कोई आकर्षित अपरिचित युवती पर दृष्टि पड़ जाती थी, तो मित्र कहा करते थे “क्या चीज” है।

हम भी कहां फालतू चीज़ों में उलझ गए है। मलाई पर ध्यान देना चाहिए। सरकारी सेवा में कार्यरत अधिकतर लोग “मोटी मलाई” हासिल कर लेते हैं। कुछ विभाग में तो मलाई वाली पोजीशन भी होती है। हमारे यहां तो दूध पर भी मलाई नहीं जम पाती है। सप्रेटा दूध में मलाई क्या खाक आयेगी।

अब आप जब भी रसमलाई खायेंगे तो और अधिक स्वादिष्ट लगेगी, क्योंकि किसी विदेशी संस्था ने इसकी पुष्टि जो कर दी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 313 ⇒ व्यंग्य की धार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “व्यंग्य की धार।)

?अभी अभी # 313 ⇒ व्यंग्य की धार? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मुझे तरस आता है उनकी बुद्धि पर, जो आलोचना को भी साहित्य की एक विधा मानते हैं। इससे तो हमारी राजनीति अच्छी, जब चाहो, जहां चाहो, मुंह उठाकर किसी की भी आलोचना कर दो। इधर आम शिकायत है कि आज के व्यंग्य में शरद और परसाई जैसी धार कहां, और उधर पत्नी की भी शिकायत है कि न तो घर की कैंची में धार है और न ही सब्जी काटने वाले चाकुओं में।

धार से याद आया, मोहल्ले में एक धार करने वाला व्यक्ति आया करता था, जिसके पास चाकू छुरियों को तेज करने वाला एक साइकिल के पहिए जैसा लोहे का उपकरण था, जिससे रगड़ने पर चिंगारियां निकलती थी और औजारों की धार तेज हो जाती थी। चक्कू छुरियां तेज करा लो, जैसे फिल्मी गाने की प्रेरणा भी वहीं से ली गई है।।

हमारे घरों में हथियार के नाम पर शायद चाकू छुरी और कैंची ही मिले। पत्नी की शिकायत पर मेरी हिम्मत नहीं हुई यह कहने की, कि जबान के रहते आपको कैंची की क्या जरूरत, फिर खयाल आया रसोई में तो बेलन जैसा एक हथियार और है, जिसे धार करवाने की जरूरत ही नहीं पड़ती और जिसका प्रयोग कभी भी अस्त्र के रूप में, पत्नी द्वारा किया जा सकता है।

पहले छुरी कैंची लोहे की आती थी, जिनका स्थान अब स्टील ने ले लिया है। कैसी उल्टी गंगा बह रही है आजकल, लोगों की जबान तो कैंची की तरह चल रही है, लेकिन कैंची जबान की तरह नहीं चल रही। घर गृहस्थी और बच्चों के घर में अगर चाकू छुरी में धार कम हो तो एक तरह से ठीक ही है। उंगली वगैरह कटने का अंदेशा कम ही होता है।।

व्यंग्य को धारदार बनाने में राजनीति का बहुत योगदान रहा है। वैसे भी विसंगति और राजनीति में कोई विशेष फर्क नहीं। राजनीति ने कभी व्यंग्य को

गंभीरता से नहीं लिया लेकिन व्यंग्य ने राजनीति को काफी गंभीरता से लिया है। मन्नू भंडारी का महाभोज हो अथवा श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी। परसाई और शरद द्वारा भी राजनीति को नहीं बख्शा गया।

लेकिन जब से राजनीति ने व्यंग्य को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है, व्यंग्य की धार भी भोथरी हो चली है। अब राजनीति पर सीधे वार करने का जमाना गया। आखिर व्यंग्य को छपना भी होना होता है और पुरस्कृत भी होना पड़ता है। गन्ने को वैसे भी जड़ से कौन उखाड़ता है।।

आज व्यंग्य पर राजनीति हावी है। जो धार आज राजनीति में है, वह व्यंग्य में नहीं। आज का व्यंग्य धार नहीं देखता, तेल देखता है, तेल की धार देखता है। व्यंग्य की धार इतनी पैनी भी ना हो, जो खुद अपना ही हाथ कटा बैठे।

सबकी अपनी अपनी घर गृहस्थी है। धार उतनी ही हो, जो किसी पर वार ना कर सके। काश व्यंग्य की धार पैनी करने का भी कोई दादी मां का घरेलू नुस्खा होता। राजनीति पर व्यंग्य कसने के दिन अब लद गए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 231 – दृश्य-अदृश्य ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 231 ☆ दृश्य-अदृश्य ?

दृश्य और अदृश्य की बात अध्यात्म और मनोविज्ञान, दोनों करते हैं। यूँ देखा जाए तो मनोविज्ञान, अध्यात्म को समझने की भावभूमि तैयार करता है जबकि अध्यात्म, उदात्त मनोविज्ञान का विस्तार है। अदृश्य को देखने के लिए दर्शन, अध्यात्म और मनोविज्ञान को छोड़कर सीधे-सीधे आँखों से दिखते विज्ञान पर आते हैं।

जब कभी घर पर होते हैं या कहीं से थक कर घर पहुँचते हैं तो घर की स्त्री प्रायः सब्जी छील रही होती है। पति से बातें करते हुए कपड़ों की कॉलर पर जमे मैल को हटाने के लिए उस पर क्लिनर लगा रही होती है। टीवी देखते हुए वह खाना बनाती है। पति काम पर जा रहा हो या शहर से बाहर, उसके लिए टिफिन, पानी की बोतल, दवा, कपड़े सजा रही होती है। उसकी फुरसत का अर्थ हरी सब्जियाँ ठीक करना या कपड़े तह करना होता है।

पुरुष की थकावट का दृश्य, स्त्री के निरंतर श्रम को अदृश्य कर देता है। अदृश्य को देखने के लिए मनोभाव की पृष्ठभूमि तैयार करनी चाहिए। मनोभाव की भूमि के लिए अध्यात्म का आह्वान करना होगा। परम आत्मा के अंश आत्मा की प्रतीति जब अपनी देह के साथ हर देह में होगी तो ‘माताभूमि पुत्रोऽहम् पृथ्विया’ की अनुभूति होगी।

जगत में जो अदृश्य है, उसे देखने की प्रक्रिया शुरू हो गई तो भूत और भविष्य के रहस्य भी खुलने लगेंगे। मृत्यु और उसके दूत भी बालसखा-से प्रिय लगेंगे। आँख से  विभाजन की रेखा मिट जाएगी और समानता तथा ‘लव बियाँड बॉर्डर्स’ का आनंद हिलोरे लेने लगेगा।

जिनके जीवन में यह आनंद है, वे ही सच्चे भाग्यवान हैं। जो इससे वंचित हैं, वे आज जब घर पहुँचें तो इस अदृश्य को देखने से आरंभ करें। यकीन मानिए, जीवन का दैदीप्यमान नया पर्व आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। 🕉️

💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 312 ⇒ ये मत किसको दूं… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ये मत किसको दूं।)

?अभी अभी # 312 ⇒ ये मत किसको दूं? श्री प्रदीप शर्मा  ?

चुनाव और परीक्षा का मौसम अक्सर साथ साथ ही आता है। बच्चे परीक्षा में पेपर देते हैं, हम चुनाव में मत देते हैं। परीक्षा में उत्तीर्ण होने से बच्चों का भविष्य बनता है, हमारे मतदान से देश का भविष्य संवरता है। जितनी आवश्यक एक बच्चे के लिए परीक्षा है, उतना ही जरूरी एक आम मतदाता के लिए मतदान है।

जितना बच्चों का भविष्य कीमती है उतना ही कीमती हमारा मत भी है।

एक मत की कीमत आंकना इतना आसान भी नहीं। मत की संख्या से ही कहीं अल्पमत है, तो कहीं बहुमत। वैसे भी मत से मतलब केवल चुनाव तक ही रहता है, मतलब निकल गया है, तो पहचानते नहीं।।

कहते हैं, मतदान सोच समझकर, योग्य उम्मीदवार को ही नहीं, पार्टी को देखकर भी देना चाहिए। एक समय वह भी था जब हम वोट नहीं देते थे मोहर लगाते थे। तब हमारे वोट की कीमत वैसे भी किसी मोहर से कम नहीं होती थी। अब हम मोहर से बटन पर आ गए हैं। उंगली कटाकर नहीं, उंगली रंगाकर अब हम देश का भविष्य लिखने लगे हैं।

देश अगर मजबूत है, तो उसे और मजबूत बनाना है, जो सरकार मजबूत है, उसे और मजबूत बनाना है। अगर आप नहीं बनाएंगे तो आपके चुने हुए प्रतिनिधि बनाएंगे। पहले आपको सब्जबाग दिखाएंगे, महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाएंगे, और मौका मिलते ही, बहती गंगा में हाथ धो आएंगे ;

आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् |

सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ||.

अब आपको लोकतंत्र की इतनी चिंता भी नहीं करनी चाहिए, हां मतदान आपका अधिकार है, उसका उपयोग अवश्य करना चाहिए। आप किसी भी व्यक्ति, किसी भी पार्टी को वोट दें, बूंद को सागर में ही मिलना है। सब राममय है, अस्सी करोड़ झोपड़ियों के भाग्य तो खुल ही गए हैं, और सन् 2028 तक की गारंटी है। अब चुनाव में वादे नहीं किए जाते, गारंटी दी जाती है। अब राम आ गए हैं, अब राम आ गए हैं।।

सिया राम मय जग जानी..

आप मतदाता होकर मतदान कर रहे हो, दाता होकर, दान कर रहे हो, यानी उल्टी गंगा बहा रहे हो।

उम्मीदवार याचक बन भीख मांग रहा है, आपका मतदान ही उसके लिए वरदान है, कुछ पल के लिए ही सही, आप सर्व शक्तिमान हो।

दरियादिल बनें, मतभेदों को भूल अपने दिल की बात सुनें, दिमाग का उपयोग कम करें। मत ज्यादा सोच विचार करें, व्यवस्था से सहमत हों अथवा असहमत, मतदान अवश्य करें, लोकतंत्र को महा मजबूत करें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 311 ⇒ न ख रे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “न ख रे।)

?अभी अभी # 311 ⇒ न ख रे? श्री प्रदीप शर्मा  ?

न खरे होते हैं,  न खोटे होते हैं,  नखरे,  सिर्फ नखरे होते हैं। नखरों पर किसी का कॉपीराइट नहीं,  बालिग,  नाबालिग,  स्त्री – पुरुष,  बड़े- बूढ़े,  समझदार – सयाने,  स्वदेशी – विदेशी तो ठीक,  यहां तक कि संत महात्मा भी नखरों में किसी से पीछे नहीं रहते। लेकिन न जाने क्यूं,  नखरे महिलाओं,  रूपसी स्त्रियों,  और नाजुक सुंदरियों को ही शोभा देते हैं।

पुरुष तो सिर्फ भाव खा सकता है, नखरे तो स्त्रियों को ही शोभा देते हैं। हमें नहीं,  ज़रा शैलेंद्र जी और किशोर कुमार जी का नया अंदाज़ देखिए, और हमें माफ़ कीजिए ;

नखरे वाली,  नखरे वाली

देखने में देख लो है कैसी भोली भाली।

अजनबी ये छोरियां

दिल पे डालें डोरियां

मन की काली …

शहर की आधुनिक नारियों को छोड़िए,  आइए गांव चलें। गोरी चलो न हंस की चाल,  ज़माना दुश्मन है,  तेरी उमर है सोलह साल,  जमाना दुश्मन है।

क्या पुरुषों के शब्दकोश में ऐसे शब्द पाये जाते हैं ;

– उई मां उई मां,  ये क्या हो गया !

उनकी गली में दिल खो गया ….

या फिर ;

दैया रे दैया,  लाज मोहे लागे,  पायल मोरी बाजे।।

अब बेचारा पुरुष इतनी नज़ाकत और मासूमियत कहां से लेकर आए। जिसका काज उसी को साजे। नखरे करना,  हमारे बस का नहीं। हम तो खोटे ही भले।।

हमारे स्कूल में एक बिड़वई सर थे,  वे जब हमारी ओर पीठ करके ब्लैक बोर्ड पर कुछ लिखते थे,  तो उन्हें दोनों पांवों पर खड़े रहने में कुछ परेशानी होती थी,  अतः उनका आधा भार एक नितंब को वहन करना पड़ता था। जब थक जाते,  तब दूसरे नितंब की सेवाएं ली जाती। चलते वक्त भी पीछे से उनकी मटकती चाल हमारे लिए किसी मतवाली चाल से कम नहीं थी। उनकी अनुपस्थिति में लड़के लोग,  क्लास में उनकी चाल की नकल निकाला करते थे। रुस्तम की चाल तो हमने नहीं देखी,  लेकिन बिड़वई सर की चाल आज तक याद है।

नखरे कौन नहीं करता ! खाने पीने के नखरे,  पहनने के नखरे,  पसंद नापसंद,  नखरे का ही दूसरा रूप है। लेकिन हमारे जैसे वैराग्य शतक वाले श्रृंगार शतक के बारे में क्या जानें। आईने के सामने खड़े हुए,  शेव की,  और चलते बने। होठों पर कभी लिपस्टिक और उंगलियों में नेल पॉलिश कभी लगाई हो,  कानों में कभी झुमका पहना हो,  तो नखरे दिखाएं। जब घर से बाहर निकलते हैं तो यह भी होश नहीं रहता,  पांव में चप्पल पहनी है या जूते। और वहां महिलाओं को मैचिंग का कितना खयाल रखना पड़ता है। नखरे नहीं,  इंसान की मजबूरी है। हम समझ सकते हैं,  दुनिया इसे नखरा कहे तो कहे।।

नारियों के नखरों के साथ अगर लाज जुड़ जाए,  तो सोने में सुहागा !

लाज शब्द पुरुषों को शोभा नहीं देता। उनके लिए तो फ्रेंड्स लॉज ही काफी है। औरतों को जितना नाज़ नखरों पर है उतनी ही अपनी लाज पर भी। इसीलिए पुरुष अपनी पत्नियों के नाज नखरे खुशी खुशी उठाता है। हम तो अपनी कहते हैं,  जग की नहीं !

अगर श्रीमती जी के नाज नखरे नहीं उठाए,  तो वे आसमान सर पर उठा लेती हैं। चलो बुलावा आया है,  सुबह सुबह एक कप गर्म चाय का प्याला बुलाया है…!!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #223 ☆ स्वास्थ्य, पैसा व संबंध… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख स्वास्थ्य, पैसा व संबंध। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 223 ☆

☆ स्वास्थ्य, पैसा व संबंध… ☆

आप जिस वस्तु पर आप ध्यान देना छोड़ देते हैं, नष्ट हो जाती है–चाहे वह स्वास्थ्य हो, पैसा हो या संबंध; यह तीनों आपकी तवज्जो चाहते हैं। जब तक आप उन्हें अहमियत देते हैं, आपका साथ देते हैं और जब आप उनकी ओर ध्यान देना बंद कर देते हैं, वे मुख मोड़ लेते हैं तथा अपना आशियाँ बदल लेते हैं। वे स्वार्थी हैं तथा तब तक आप के अंग-संग रहते हैं, जब तक आप उन्हें पोषित करते हैं अर्थात् उनके साथ अमूल्य समय व्यतीत करते हैं।

स्वस्थ बने रहने के लिए व्यायाम की आवश्यकता होती है और यह दो प्रकार का होता है। व्यायाम से आप शारीरिक रूप से स्वस्थ रहेंगे और सकारात्मक सोच व चिंतन-मनन से मानसिक रूप से दुरुस्त रहेंगे, जो जीवन का आधार है। वास्तव में शरीर तभी स्वस्थ रह सकता है– यदि मन स्वस्थ व जीवंत हो और उसका चिंतन सार्थक हो। दुर्बल मन असंख्य रोगों का आग़ार है। भय, चिंता आदि मानव को तनाव की स्थिति में ले जाते हैं, जो भविष्य में अवसाद की स्थिति ग्रहण कर लेते हैं। यह एक ऐसा भंवर है, जिससे    बाहर आना नामुमक़िन होता है। यह एक ऐसा चक्रव्यूह है, जिसमें मानव प्रवेश तो कर सकता है, परंतु बाहर निकलना उसके वश में नहीं होता। वह आजीवन उस भूल-भुलैया में भटकता रहता है और अंत में दुनिया से अपने सपनों के महल के साथ रुख़्सत हो जाता है। इसलिए इसे मानसिक स्वास्थ्य से अधिक अहमियत प्रदान की गई है।

मन बहुत चंचल है और पलभर में तीन लोगों की यात्रा कर लौट आता है। उसे वश में रखना बहुत कठिन होता है। मन भी लक्ष्मी की भांति चंचल है, एक स्थान पर नहीं टिकता। परंतु बावरा मन अधिकाधिक धन कमाने में अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है और भूल जाता है कि यह ‘दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा।’ इतना ही नहीं, वह इस तथ्य से भी अवगत होता है कि ‘खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’  और यह भी शाश्वत् सत्य है कि तूने जो कमाया है/  दूसरा ही खायेगा।’ परंतु बावरा मन स्वयं को इस मायाजाल से मुक्त नहीं कर पाता। जब तक साँसें हैं, तब तक रिश्ता है और साँसों की लड़ी जिस समय टूट जाती है; रिश्ता भी टूट जाता है। ‘जीते जी तू माया में राम नाम को भूला/ मौत का समय आया, तो राम याद आएगा ‘–इन पंक्तियों में छिपा है जीवन का सार। जब तुम पैदा भी नहीं हुए थे, यह किसी दूसरे की संपत्ति थी और जब तुम मर जाओगे, तो भी  यह किसी दूसरे की होगी। एक अंतराल के लिए यह तुम्हें प्रयोग करने के लिए मिली है। यह प्रभु की संपदा है; किसी की धरोहर नहीं। आज सुबह यह संदेश व्हाट्सएप पर सुना तो हृदय सोचने को विवश हो गया कि इंसान क्यों स्वयं को इस मायाजाल के विवर्त से मुक्त नहीं कर पाता, जबकि वह जानता है कि ‘कलयुग केवल नाम अधारा।’ पैसा तो  हाथ की मैल है और वक्त में सामर्थ्य है कि वह मानव को किसी भी पल अर्श से फ़र्श पर ला सकता है। इसलिए हमें पैसे की नहीं, वक्त की अहमियत को स्वीकारना चाहिए। पैसा इंसान को अहंवादी बनाता है, संबंधों में दूरियाँ लाता है और दूसरों की अहमियत को नकारना उसकी दिनचर्या में शामिल हो जाता है। पैसा ‘हॉउ से हू’ तक लाने का कार्य करता है। जब तक इंसान के पास धन-संपदा होती है, सब उसे अहमियत देते हैं। उसके न रहने पर वह ‘हू आर यू ‘ तक पहुँच जाता है। सो! आप अनुमान लगा सकते हैं कि पैसा कितना बलवान, शक्तिशाली व प्रभावशाली है। यह पलभर में संबंधों को लील जाता है। इसके ना रहने पर सब अपने पराए हो जाते हैं तथा मुख मोड़ लेते हैं, क्योंकि पैसा सबको एक लाठी से हाँकता है। जब तक मानव के पास धन रहता है, उसके कदम धरा पर नहीं पड़ते। वह आकाश की बुलंदियों को छू लेना चाहता है तथा अपने सुख-ऐश्वर्य व खुशियाँ दूसरों से साँझा नहीं करना चाहता।

परंतु सब संबंध स्वार्थ के होते हैं, जो धनाश्रित होते हैं, परंतु आजकल तो यह अन्योन्याश्रित हैं। इंसान भूल जाता है कि यह संसार मिथ्या है; नश्वर है और पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है। इसलिए उसे माया में उलझे नहीं रहना चाहिए, बल्कि प्रभु के साथ शाश्वत् संबंध बनाए रखना ही कारग़र उपाय है। ‘सुमिरन कर ले बंदे/ यह तेरे साथ जाएगा।’ प्रभु नाम ही सत्य है और अंतकाल वही मानव के साथ जाता है।

संबंध ऐसे बनाओ कि आपके चले जाने के पश्चात् भी लोग आपका अभाव अनुभव करें और परदा गिरने के पश्चात् भी तालियाँ निरंतर बजती रहें। परंतु आजकल संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति होते हैं। नज़रें घुमाते ही वे सदैव के लिए ओझल हो जाते हैं, क्योंकि अक्सर लोग स्वार्थ साधने हेतू संबंध स्थापित करते हैं। मानव को ऐसे लोगों से दूर रहने की सलाह दी जाती है, क्योंकि वे अपने बनकर अपनों पर घात लगाते व निशाना साधते हैं।

दूसरी ओर यदि आप पौधारोपण करने के पश्चात् उसे खाद व पानी नहीं देते, तो वह मुरझा जाता है; पल्लवित-पोषित नहीं हो पाता। उसके आसपास कुकुरमुत्ते उग आते हैं, जिन्हें उखाड़ना अनिवार्य होता है, अन्यथा वे ख़रपतवार की भांति बढ़ते चले जाते हैं। एक अंतराल के पश्चात् बाड़ ही खेत को खाने लगती है। इसी प्रकार संबंधों को पोषित करने के लिए समय, देखभाल और संबंध बनाए रखने के लिए स्नेह, त्याग, समर्पण व पारस्परिक सौहार्द की दरक़ार होती है। यदि हमारे अंतर्मन में ‘मैं अर्थात् अहं’ का अभाव होता है, तो वे संबंध पनप सकते हैं, अन्यथा मुरझा जाते हैं। ‘मैं और सिर्फ़ मैं’ का भाव तिरोहित होने पर ही हम शाश्वत् संबंधों को संजोए रख सकते हैं। वहाँ अपेक्षा व उपेक्षा का भाव समाप्त हो जाता है। आत्मविश्वास व परिश्रम सफलता प्राप्ति का सोपान है। सो! स्वास्थ्य, पैसा व संबंध तीनों की एक की दरक़ार है। यदि हम समय की ओर ध्यान देते हैं, तो यह संबंध स्वतंत्र रूप से पनपते है, अन्यथा दरक़िनार कर लेते हैं। आइए! मर्यादा में रहकर सीमाओं का अतिक्रमण ना करें और उन्हें खुली हवा में स्वतंत्र रूप से पल्लवित होने दें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

19 जनवरी 2024

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 310 ⇒ साहब, … और गुलाम … ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साहब,  … और गुलाम ।)

?अभी अभी # 310 ⇒ साहब,  … और गुलाम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारी संस्कृति में हमेशा राजा, रानी और प्रजा ही होते थे, साहब, बीवी और गुलाम नहीं। हमने हमेशा राजा को महाराजधिराज ही कहा है, राजा साहब नहीं। महाभारत के युग में, जब हमारे धर्मराज अपने भाइयों के साथ चौपड़ का खेल खेलते थे, तो कौड़ियां तो होती थीं, खेल में हार जीत भी होती थी। अगर शकुनि का दांव चल गया तो महाराज भी गुलाम और उनकी रानी भी गुलाम। बस यही खेल अंग्रेजों ने हमारे साथ खेला। राजा साहब शिकार खेलते रह गए, देश गुलाम होता चला गया। साहब, बीवी और गुलाम।

फिर हमने कौड़ियों के मोल में आजादी खरीद ली। राजतंत्र लोकतंत्र हो गया। राजा, रंक और रंक राजा होते चले गए। देश में साहबों और सेवकों का राज हो गया। पहले साहब सिविल सर्वेंट कहलाते थे, अब वे शासकीय सेवक हो गए। राजा ना सही, नेता ही सही, राज करेगा खालसा। ईश्वर और गीता की शपथ लेने वाले संविधान की शपथ भी लेने लग गए। देश विधि के विधान के अनुसार नहीं, संविधान के अनुसार चलने लगा।।

जनता जिसे नेता चुनेगी, वही उस पर राज करेगा। अगर सिर पर ताज नहीं तो कैसा राजा, और आजादी के बाद, नेताओं ने टोपी पहननी शुरू कर दी। पहनी भी और पहनाई भी। जब टोपियां कम और सर अधिक हो गए तो नेताओं का त्याग देखिए, खुद तो हार फूल पहनने लगे, और अपनी टोपी उतारकर जनता को पहना दी।

हमने बुरे दिन भी देखे और सुनहरे दिन भी। सपने भी देखे और कुछ सपनों को सच होते भी देखा। नौकरी में किसी के साहब भी बने और किसी के सेवक भी। अपने स्वाभिमान से हमने कभी समझौता नहीं किया। जब भी सत्ता निरंकुश हुई, अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में पड़ी, सत्ता परिवर्तन भी हुए और हमेशा लोकतंत्र की ही जीत हुई।।

होते हैं कुछ विघ्नसंतोषी जिन्हें जब सत्ता की बंदरबांट में कुछ हासिल नहीं होता, तो वे उछलकूद मचाने लगते हैं। लेकिन ये मर्कट भूल जाते हैं कि इनकी डोर एक मदारी के हाथ में है। वह जैसा चाहे इन्हें नचा सकता है। जो कुशल नेता, जनता की नब्ज जानता है, वह इन प्राणियों का भी इलाज जानता है।

मानस वचन भी तो यही कहता है, भय बिनु होइ ना प्रीति। कभी सत्ता के पास इन विरोधियों की फाइल हुआ करती थी, कब किसकी फाइल चुनाव के वक्त खुल जाए, कहा नहीं जाए। स्कैंडल, घोटाले और गबन राजनीति में आम बात है।।

काजल की कोठरी में तो सभी के दाग लग जाता है। अगर सत्ता की सीढ़ी पर बेदाग चढ़ना है तो किस किस से बचकर चलें। और किसी से बचने का एकमात्र उपाय, शरणागति भाव। इसे ही आज की राजनीति की भाषा में साहब … और गुलाम कहा जाता है ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 309 ⇒ आए गए का घर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आए गए का घर।)

?अभी अभी # 309 ⇒ आए गए का घर? श्री प्रदीप शर्मा  ?

किसी भी घर की रौनक ही इसी में है, कि वहां मिलने जुलने वाले और रिश्तेदारों का आना जाना बना रहे। किसी घर की घंटी बजना, अथवा घर के सामने जूते चप्पलों का ढेर यह दर्शाता है कि इस घर में काफी चहल पहल है।

वैसे भी घर में खामोशी किसे पसंद है, दीवारें तक कान लगाए सुनती रहती हैं, जिस घर में हमेशा महफिल जमी रहती है।

ऐसे घर को हमारी मां, आए गए का घर कहती थी। जब तक हमारे घर में मां और पिताजी मौजूद रहे, ना तो घर कभी खाली अथवा खामोश रहा और ना ही घर में कभी ताला लगा।।

तब कहां घरों में फोन अथवा मोबाइल थे। कभी कभी तो चिट्ठी के आने के पहले ही मेहमान टपक पड़ते थे लेकिन अधिकतर अतिथि शब्द का मान रखते हुए समय और तारीख बताए बिना ही पधार जाते थे।

पिताजी रात को जब घर आते तो भोजन के वक्त, कोई ना कोई परिचित अवश्य उनके साथ होता। बहन स्कूल से घर आती, तो एक दो सहेलियों को साथ लेकर आती। तब ना तो इतनी मोहल्लों में दूरी थी और ना ही दिलों में। तब शायद सबको प्यास भी बहुत लगती थी, वॉटर बॉटल का तब शायद आविष्कार ही नहीं हुआ था।।

हर तरह की परिस्थिति से घर में तब मां को ही जूझना पड़ता था। अनाज, मसाले और दाल चावल का साल भर का संग्रह जरूरी होता था। मौसम के हिसाब से घरों में एक्सट्रा बिस्तर और रजाई गद्दों की भी व्यवस्था करनी पड़ती थी। टेंट हाउस की याद तो बस शादी ब्याह के वक्त ही आती थी। किराने और दूध का हिसाब महीने में एक बार करना पड़ता था।

इस तरह की सभी युद्ध स्तर की तैयारियों से सुसज्जित घर ही आए गए का घर कहलाता था। मेहमानों की पसंद का भी पूरा खयाल रखा जाता था। फूफा जी को चावल में घी और शक्कर प्रचुर मात्रा में लगता था और वे पूड़ी ही पसंद करते थे, रोटी नहीं।।

लेकिन यह सब कल की बात है। आज तो मेहमानों के लिए नाश्ता भी बाहर से ही आता है और भोजन भी बाहर होटल में ही किया जाता है। फोन और मोबाइल की सुविधा के बावजूद ना किसी को आने की फुर्सत है और ना ही किसी को बुलाने की।

परिवार छोटे होते जा रहे हैं, घर बड़े होते जा रहे हैं।

छोटे घर में तब कितने सदस्य समा जाते थे, आज आश्चर्य होता है। तब कहां किसी का अटैच बेडरूम और बाथरूम था। घर की महिलाएं अपने कपड़े ताक में रखती थी। आज घरों में सोफ़ा, अलमारी, अपनी अपनी वॉर्डरोब और मॉड्यूलर किचन है, बस खाने वाला कोई नहीं है।।

हंसी आती है, जब धर्मपत्नी पुराने बर्तनों और एक्सट्रा बिस्तरों को आज भी सहेजकर रखती है। वह कहती है, आप नहीं समझते, आए गए के घर में घर घृहस्थी का सभी सामान जरूरी होता है।

बड़ी भोली और घरेलू टाइप की गृहिणी है वह।

अनायास कोई मेहमान आता है तो उसकी बांछें खिल जाती हैं। घर में दावत हो जाती है। लेकिन ऐसे अवसर आजकल कम ही आते हैं। लगता है अपने परिचित कहीं बहुत दूर चले गए हैं, यह दूरी दिलों की है अथवा मजबूरी की, समझ नहीं पाते। कोई आए, जाए, कितना अच्छा लगता है।।

होते हैं कुछ ऐसे खामोश घर, जहां कोई ज्यादा आता जाता नहीं। किसी आहट पर उम्मीद सी बंधती है लेकिन फिर खयाल आता है ;

कौन आएगा यहाँ कोई न आया होगा।

मेरा दरवाजा हवाओं ने हिलाया होगा।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #162 – आलेख- लिपि की कहानी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – “लिपि की कहानी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 162 ☆

☆ आलेख – लिपि की कहानी  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’  

मुनिया की सुबह तबीयत खराब हो गई। उसने एक प्रार्थनापत्र लिखा। अपनी सहेली के साथ स्कूल भेज दिया। प्रार्थनापत्र में उसने जो लिखा था, उसकी अध्यापिका ने उस प्रार्थनापत्र को उसी रूप में समझ लिया। और मुनिया को स्कूल से छुट्टी मिल गई।

क्या आप बता सकते है कि मुनिया ने प्रार्थनापत्र किस लिपि में लिख कर पहुंचाया था। नहीं जानते हो ? उसने प्रार्थनापत्र देवनागरी लिपि में लिख कर भेजा था।

देवनागरी लिपि उसे कहते हैं, जिसे आप इस वक्त यहाँ पढ़ रहे है। इसी तरह अंग्रेजी अक्षरों के संकेतों के समूहों से मिल कर बने शब्दों को रोमन लिपि कहते हैं।

इस पर राजू ने जानना चाहा, “क्या शुरु से ही इस तरह की लिपियां प्रचलित थीं?” 

तब उस की मम्मी ने बताया कि शुरु शुरु में ज्ञान की बातें एक दूसरे को सुना कर बताई जाती थीं। गुरुकुल में गुरु शिष्य को ज्ञान की बातें कंठस्थ करा दिया करते थे। इस तरह अनुभव और ज्ञान की बातें पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाती थीं।

मनुष्य निरंतर, विकास करता गया। इसी के साथ उस का अनुभव बढ़ता गया। तब ढेरों ज्ञान की बातें और अनुभव को सुरक्षित रखने की आवश्यकता महसूस हुई।

इसी आवश्यकता ने मनुष्य को प्रत्येक वस्तु के संकेत बनाने के लिए प्रेरित किया। तब प्रत्येक वस्तु को इंगित करने के लिए उस के संकेताक्षर या चिन्ह बनाए गए। इस तरह चित्रसंकेतों की लिपि का आविष्कार हुआ। इस लिपि को चित्रलिपि कहा गया।

आज भी विश्व में इस लिपि पर आधारित अनेक भाषाएं प्रचलित हैं। जापान और चीन की लिपि इसका प्रमुख उदाहरण है। शब्दाचित्रों पर आधारित ये लिपियों इसका श्रेष्ठ नमूना भी है।

चित्रलिपि का आशय यह है कि अपने विचारों को चित्र बना कर अभिव्यक्त किया जाए। मगर यह लिपि अपना कार्य सरल ढंग में नहीं कर पायी। क्यों कि एक तो यह लिपि सीखना कठिन था। दूसरा, इसे लिखने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। तीसरा, लिखने वाला जो बात कहना चाहता था, वह चित्रलिपि द्वारा वैसी की वैसी व्यक्त नहीं हो पाती थी। चौथा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह आकर्षण का केंद्र नहीं थी। और यह दुरुह थी।

तब कुछ समय बाद प्रत्येक ध्वनियों के लिए एक एक शब्द संकेत बनाए गए। जिन्हें हम वर्णमाला में पढ़ते हैं। मसलन- क, ख, ग आदि। इन्हीं अक्षरों और मात्राओं के मेल से संकेत-चिन्ह बनने लगे। जो आज तक परिष्कृत हो रहे हैं।

हरेक वस्तु के लिए एक संकेत चिन्ह बनाए गए। विशेष संकेत चिन्ह विशेष चीजों के नाम बताते हैं। इस तरह प्रत्येक वस्तु के लिए एक शब्द संकेत तय किया गया। तब लिपि का आविष्कार हुआ।

इस तरह सब से पहले जो लिपि बनी, उसे ब्राह्मी लिपि के नाम से जाना जाता है। बाद में अन्य लिपियां इसी लिपि से विकसित होती गई।

ऐसे ही धीरे धीरे विकसित होते हुए आधुनिक लिपि बनी। जिसमें अनेक विशेषताएं हैं। प्रमुख विशेषता यह है कि इसे जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा भी जाता है। अर्थात् यह हमारे विचारों को वैसा ही व्यक्त करती है।

इनमें से बहुत सी लिपियों से हम परिचित हैं । ब्रिटेन में अंग्रेजी भाषा बोली जाती है। इस भाषा को रोमन लिपि में लिखते हैं। पंजाबी भाषा, गुरुमुखी लिपि में लिखी जाती है। इसी तरह तमिल, तेलगु, कन्नड़ तथा मलयालम आदि ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती हैं।

इसके अलावा भी विश्व में अनेक लिपियां प्रचलित है।

अब यह भी जान लें कि विश्व की सबसे प्राचीन लिपियां निम्न हैं- ब्राह्मी, शारदा आदि।

इसके अलावा भी विश्व में अनेक लिपियाँ प्रचलित हैं।

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 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-06-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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