डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़रूरतें व ख्वाहिशें…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 221 ☆
☆ ज़रूरतें व ख्वाहिशें... ☆
‘ज़रूरत के मुताबिक ज़िंदगी जीओ; ख्वाहिशों के मुताबिक नहीं, क्योंकि ज़रूरतें तो फ़कीरों की भी पूरी हो जाती हैं, मगर ख्वाहिशें बादशाहों की भी अधूरी रह जाती हैं।’ इच्छाएं सुरसा के मुख की भांति बढ़ती चली जाती हैं, जिनका अंत संभव नहीं होता। उनका आकाश बहुत विस्तृत है, अनंत है, असीम है और एक इच्छा के पश्चात् दूसरी इच्छा तुरंत जन्म ले लेती है, परंतु इन पर अंकुश लगाने में ही मानव का हित है। ख्वाहिशें एक ओर तो जीने का मक़सद हैं, कर्मशीलता का संदेश देती हैं, जिनके आधार पर हम निरंतर बढ़ते रहते हैं और हमारे अंतर्मन में कुछ करने का जुनून बना रहता है। दूसरी ओर संतोष व ठहराव हमारी ज़िंदगी में पूर्ण विराम लगा देता है और जीवन में करने को कुछ विशेष नहीं रह जाता।
ख्वाहिशें हमें प्रेरित करती हैं; एक गाइड की भांति दिशा निर्देश देती हैं, जिनका अनुसरण करते हुए हम उस मुक़ाम को प्राप्त कर लेते हैं, जो हमने निर्धारित किया है। इनके अभाव में ज़िंदगी थम जाती है। इंसान की मौलिक आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान हैं। जहाँ तक ज़रूरतों का संबंध है, वे आसानी से पूरी हो जाती हैं। मानव शरीर पंच-तत्वों से निर्मित है और अंत में उन में ही समा जाता है। वैसे भी यह सब हमें प्रचुर मात्रा में प्रकृति प्रदत्त है, परंतु मानव की लालसा ने इन्हें सुलभ-प्राप्य नहीं रहने दिया। जल तो पहले से ही बंद बोतलों में बिकने लगा है। अब तो वायु भी सिलेंडरों में बिकने लगी है।
कोरोना काल में हम वायु की महत्ता जान चुके हैं। लाखों रुपए में एक सिलेंडर भी उपलब्ध नहीं था। उस स्थिति में हमें आभास होता है कि हम कितनी वायु प्रतिदिन ग्रहण करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़कर पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं। परंतु प्रभुकृपा से वायु हमें मुफ्त में मिलती है, परंतु प्रदूषण के कारण आजकल इसका अभाव होने लगा है। प्रदूषण के लिए दोषी हम स्वयं हैं। जंगलों को काटकर कंक्रीट के घर बनाना, कारखानों की प्रदूषित वायु व जल हमारी श्वास-क्रिया को प्रदूषित करते हैं। गंदा जल नदियों के जल को प्रदूषित कर रहा है, जिसके कारण हमें शुद्ध जल की प्राप्ति नहीं हो पाती।
सो! ज़रूरतें तो फ़कीरों की भी पूरी हो जाती है, परंतु ख़्वाहिशें राजाओं की भी पूरी नहीं हो पाती, जिसका उदाहरण हिटलर है। उसने सारी सृष्टि पर आधिपत्य प्राप्त करना चाहा, परंतु जीवन की अंतिम वेला में उसे ज्ञात हुआ कि अंतकाल में इस जहान से व्यक्ति खाली हाथ जाता है। इसलिए आजीवन राज्य विस्तार के निमित्त आक्रमणकारी नीति को अपनाना ग़लत है, निष्प्रयोजन है। सम्राट अशोक इसके जीवित प्रमाण हैं। उसने सम्राट के रूप में सारी दुनिया पर शासन कायम करना चाहा और निरंतर युद्ध करता रहा। अंत में उसे ज्ञात हुआ कि यह जीवन का मक़सद अर्थात् प्रयोजन नहीं है। सो! उसने सब कुछ छोड़कर बौद्ध धर्म को अपना लिया।
‘यह किराये का मकान है/ कौन कब तक ठहर पाएगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’ यहाँ हर इंसान मुसाफ़िर है। वह खाली हाथ आता है और खाली हाथ चला जाता है। इसलिए संचय की प्रवृत्ति क्यों? ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा।’ स्वरचित गीतों की पंक्तियाँ इन भावों को पल्लवित करती हैं कि वैसे तो यह जन्म से पूर्व निश्चित हो जाता है कि वह कितनी साँसें लेगा? इसलिए मानव को अभिमान नहीं करना चाहिए तथा सृष्टि के कण-कण में परमात्मा की सत्ता अनुभव करनी चाहिए, जो उसे प्रभु सिमरन की ओर प्रवृत्त करती है।
सो! मानव को स्वयं को इच्छाओं का गुलाम नहीं बनाना चाहिए। यह बलवती इच्छाएं मानव को ग़लत कार्य करने को विवश करती हैं। उस स्थिति में वह उचित-अनुचित के भेद को नहीं स्वीकारता और नरक में गिरता चला जाता है। अंतत: वह चौरासी के चक्कर से आजीवन मुक्त नहीं हो पाता। इससे मुक्ति पाने का सर्वोत्तम उपाय है प्रभु सिमरन। जो व्यक्ति शरणागत हो जाता है, वह निर्भय होकर जीता है आगत-अनागत से बेखबर…उसे भविष्य की चिंता नहीं होती। जो गुज़र गया है, वह उसका स्मरण नहीं करता, बल्कि वह वर्तमान में जीता है और प्रभु का नाम स्मरण करता है और गीता का संदेश ‘जो हुआ, अच्छा हुआ/ जो होगा, अच्छा ही होगा ‘ वह इसे जीने का मूलमंत्र स्वीकारता है। प्रभु अपने भक्तों की कदम-कदम पर सहायता करता है।
अक्सर ज़्यादा पाने की चाहत में हमारे पास जितना उपलब्ध है, उसका आनंद लेना भूल जाते हैं। इसलिए संतोष को सर्वश्रेष्ठ धन स्वीकारा गया है। इसलिए कहा जाता है कि श्रेय मिले ना मिले, अपना श्रेष्ठ देना बंद ना करें। आशा चाहे कितनी कम हो, निराशा से बेहतर होती है। इसलिए दूसरों से उम्मीद ना रखें और सत्कर्म करते रहें। दूसरों से उम्मीद रखना ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल व ग़लती है, जो हमें पथ-विचलित कर देती है। इंसान का मन भी एक अथाह समुद्र है। किसी को क्या मालूम कि कितनी भावनाएं, संवेदनाएं, सुख-दु:ख, हादसे, स्मृतियाँ आदि उसमें समाई हैं। इसलिए वह मुखौटा धारण किए रखता है और दूसरों पर सत्य उजागर नहीं होने देता। परंतु इंसान कितना भी अमीर क्यों ना बन जाए, तकलीफ़ बेच नहीं सकता और सुक़ून खरीद नहीं सकता। वह नियति के हाथों का खिलौना है। वह विवश है, क्योंकि वह अपने निर्णय नहीं ले सकता।
‘जो तकलीफ़ तुम ख़ुद बर्दाश्त नहीं कर सकते, वो किसी दूसरे को भी मत दो।’ महात्मा बुद्ध का यह कथन अत्यंत कारग़र है। इसलिए वे दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार न करने का संदेश देते हैं, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से नहीं करते हैं। संसार में जो भी आप किसी को देते हैं, वह लौट कर आपके पास आता है। इसलिए दूसरों की ज़रूरतों की पूर्ति का माध्यम बनिए ताकि आपकी ख़्वाहिशें पूरी हो सकें। इसके साथ ही अपनी इच्छाओं आकाँक्षाओं, तमन्नाओं व लालसाओं पर अंकुश लगाइए, यही जीवन जीने की कला है।
© डा. मुक्ता
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