हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #221 ☆ ज़रूरतें व ख्वाहिशें… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़रूरतें व ख्वाहिशें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 221 ☆

ज़रूरतें व ख्वाहिशें... ☆

‘ज़रूरत के मुताबिक ज़िंदगी जीओ; ख्वाहिशों के मुताबिक नहीं, क्योंकि ज़रूरतें तो फ़कीरों की भी पूरी हो जाती हैं, मगर ख्वाहिशें बादशाहों की भी अधूरी रह जाती हैं।’ इच्छाएं सुरसा के मुख की भांति बढ़ती चली जाती हैं, जिनका अंत संभव नहीं होता। उनका आकाश बहुत विस्तृत है, अनंत है, असीम है और एक इच्छा के पश्चात् दूसरी इच्छा तुरंत जन्म ले लेती है, परंतु इन पर अंकुश लगाने में ही मानव का हित है। ख्वाहिशें एक ओर तो जीने का मक़सद हैं, कर्मशीलता का संदेश देती हैं, जिनके आधार पर हम निरंतर बढ़ते रहते हैं और हमारे अंतर्मन में कुछ करने का जुनून बना रहता है। दूसरी ओर संतोष व ठहराव हमारी ज़िंदगी में पूर्ण विराम लगा देता है और जीवन में करने को कुछ विशेष नहीं रह जाता।

ख्वाहिशें हमें प्रेरित करती हैं; एक गाइड की भांति दिशा निर्देश देती हैं, जिनका अनुसरण करते हुए हम उस मुक़ाम को प्राप्त कर लेते हैं, जो हमने निर्धारित किया है। इनके अभाव में ज़िंदगी थम जाती है। इंसान की मौलिक आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान हैं। जहाँ तक ज़रूरतों का संबंध है, वे आसानी से पूरी हो जाती हैं। मानव शरीर पंच-तत्वों से निर्मित है और अंत में उन में ही समा जाता है। वैसे भी यह सब हमें प्रचुर मात्रा में प्रकृति प्रदत्त है, परंतु मानव की लालसा ने इन्हें सुलभ-प्राप्य नहीं रहने दिया। जल तो पहले से ही बंद बोतलों में बिकने लगा है। अब तो वायु भी सिलेंडरों में बिकने लगी है।

कोरोना काल में हम वायु की महत्ता जान चुके हैं। लाखों रुपए में एक सिलेंडर भी उपलब्ध नहीं था। उस स्थिति में हमें आभास होता है कि हम कितनी वायु प्रतिदिन ग्रहण करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़कर पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं। परंतु प्रभुकृपा से वायु हमें मुफ्त में मिलती है, परंतु प्रदूषण के कारण आजकल इसका अभाव होने लगा है। प्रदूषण के लिए दोषी हम स्वयं हैं। जंगलों को काटकर कंक्रीट के घर बनाना, कारखानों की प्रदूषित वायु व जल हमारी श्वास-क्रिया को प्रदूषित करते हैं। गंदा जल नदियों के जल को प्रदूषित कर रहा है, जिसके कारण हमें शुद्ध जल की प्राप्ति नहीं हो पाती।

सो! ज़रूरतें तो फ़कीरों की भी पूरी हो जाती है, परंतु ख़्वाहिशें राजाओं की भी पूरी नहीं हो पाती, जिसका उदाहरण हिटलर है। उसने सारी सृष्टि पर आधिपत्य प्राप्त करना चाहा, परंतु जीवन की अंतिम वेला में उसे ज्ञात हुआ कि अंतकाल में इस जहान से व्यक्ति खाली हाथ जाता है। इसलिए आजीवन राज्य विस्तार के निमित्त आक्रमणकारी नीति को अपनाना ग़लत है, निष्प्रयोजन है। सम्राट अशोक इसके जीवित प्रमाण हैं। उसने सम्राट के रूप में सारी दुनिया पर शासन कायम करना चाहा और निरंतर युद्ध करता रहा। अंत में उसे ज्ञात हुआ कि यह जीवन का मक़सद अर्थात् प्रयोजन नहीं है। सो! उसने  सब कुछ छोड़कर बौद्ध धर्म को अपना लिया।

‘यह किराये का मकान है/ कौन कब तक ठहर पाएगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’ यहाँ हर इंसान मुसाफ़िर है। वह खाली हाथ आता है और खाली हाथ चला जाता है। इसलिए संचय की प्रवृत्ति क्यों? ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा।’ स्वरचित गीतों की पंक्तियाँ इन भावों को पल्लवित करती हैं कि वैसे तो यह जन्म से पूर्व निश्चित हो जाता है कि वह कितनी साँसें लेगा? इसलिए मानव को अभिमान नहीं करना चाहिए तथा सृष्टि के कण-कण में परमात्मा की सत्ता अनुभव करनी चाहिए, जो उसे प्रभु सिमरन की ओर प्रवृत्त करती है।

सो! मानव को स्वयं को इच्छाओं का गुलाम नहीं बनाना चाहिए। यह बलवती इच्छाएं मानव को ग़लत कार्य करने को विवश करती हैं। उस स्थिति में वह उचित-अनुचित के भेद को नहीं स्वीकारता और नरक में गिरता चला जाता है। अंतत: वह चौरासी के चक्कर से आजीवन मुक्त नहीं हो पाता। इससे मुक्ति पाने का सर्वोत्तम उपाय है प्रभु सिमरन। जो व्यक्ति शरणागत हो जाता है, वह निर्भय होकर जीता है आगत-अनागत से बेखबर…उसे भविष्य की चिंता नहीं होती। जो गुज़र गया है, वह उसका स्मरण नहीं करता, बल्कि वह वर्तमान में जीता है और प्रभु का नाम स्मरण करता है और गीता का संदेश ‘जो हुआ, अच्छा हुआ/ जो होगा, अच्छा ही होगा ‘ वह इसे जीने का मूलमंत्र स्वीकारता है। प्रभु अपने भक्तों की कदम-कदम पर सहायता करता है।

अक्सर  ज़्यादा पाने की चाहत में हमारे पास जितना उपलब्ध है, उसका आनंद लेना भूल जाते हैं। इसलिए संतोष को सर्वश्रेष्ठ धन स्वीकारा गया है। इसलिए कहा जाता है कि श्रेय मिले ना मिले, अपना श्रेष्ठ देना बंद ना करें। आशा चाहे कितनी कम हो, निराशा से बेहतर होती है। इसलिए दूसरों से उम्मीद ना रखें और सत्कर्म करते रहें। दूसरों से उम्मीद रखना ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल व ग़लती है, जो हमें पथ-विचलित कर देती है। इंसान का मन भी एक अथाह  समुद्र है। किसी को क्या मालूम कि कितनी भावनाएं, संवेदनाएं, सुख-दु:ख, हादसे, स्मृतियाँ आदि उसमें समाई हैं। इसलिए वह मुखौटा धारण किए रखता है और दूसरों पर सत्य उजागर नहीं होने देता। परंतु इंसान कितना भी अमीर क्यों ना बन जाए, तकलीफ़ बेच नहीं सकता और सुक़ून खरीद नहीं सकता। वह नियति के हाथों का खिलौना है। वह विवश है, क्योंकि वह अपने निर्णय नहीं ले सकता।

‘जो तकलीफ़ तुम ख़ुद बर्दाश्त नहीं कर सकते, वो किसी दूसरे को भी मत दो।’ महात्मा बुद्ध का यह कथन अत्यंत कारग़र है। इसलिए वे दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार न करने का संदेश देते हैं, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से नहीं करते हैं। संसार में जो भी आप किसी को देते हैं, वह लौट कर आपके पास आता है। इसलिए दूसरों की ज़रूरतों की पूर्ति का माध्यम बनिए ताकि आपकी ख़्वाहिशें पूरी हो सकें। इसके साथ ही अपनी इच्छाओं आकाँक्षाओं, तमन्नाओं व लालसाओं पर अंकुश लगाइए, यही जीवन जीने की कला है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 297 ⇒ गिले शिकवे और प्यार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गिले शिकवे और प्यार ।)

?अभी अभी # 297 ⇒ गिले शिकवे और प्यार? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कभी कभी, अभी अभी, फिल्मी हो जाता है। वैसे भी सुबह का वक्त लेखन, पठन पाठन, ध्यान धारणा और गीत संगीत का ही होता है। यूं भी दिन की शुरुआत इससे अच्छी तरह हो भी नहीं सकती अगर इनमें चाय और अखबार को और शामिल कर लिया जाए।

मैं पुस्तक प्रेमी के अलावा रेडियो प्रेमी अर्थात् संगीत प्रेमी भी हूं, मतलब किसी ना किसी तरह मेरा भी प्रेम से नाता तो है ही। जो रेडियो से करे प्यार, वो फिल्म संगीत से कैसे करे इंकार। जो कलाकार संगीत की गायकी विधा से जुड़े होते हैं, वे तानसेन कहलाते हैं, लेकिन मेरे जैसे रेडियो श्रोता को आप चाहें तो कानसेन कह सकते हैं। मेरे कान अक्सर रेडियो से ही सटे रहते हैं।।

सुबह सुबह कभी रेडियो सीलोन सुनने की आदत अब विविध भारती पर आकर ठहर गई है। मैं आज भी वही स्तरीय गीत पसंद करता हूं, जो कभी रेडियो सीलोन पर करता है, और विविध भारती भी मुझे कभी निराश नहीं करता।

अभी कल ही की बात है, सुबह ७.३० बजे, यानी भूले बिसरे गीतों के पश्चात् विविध भारती से कुछ युगल गीत प्रसारित हुए, जिसमें से एक गीत का जिक्र मैं यहां करने जा रहा हूं। जब हम कोई गीत बार बार सुनते हैं, तो उसके गायक/गायिका के साथ साथ ही गीतकार और संगीतकार के बारे में भी हमें पूरी जानकारी हो जाती है। जो संगीत रसिक होते हैं वे ऐसे खवैये होते हैं, जो स्वाद के साथ साथ परोसे व्यंजन के बारे में भी पूरी जानकारी रखते हैं।।

रफी और लता का फिल्म सच्चा झूठा का एक युगल गीत चल रहा था, जिसे इंदीवर ने लिखा और कल्याणजी आनंद जी ने संगीतबद्ध किया था। यूं ही तुम मुझसे बात करती हो, या कोई प्यार का इरादा है। बड़ा प्यारा गीत है, मन करता है, बस सुनते ही रहो।

इस गीत को सुनते सुनते ही एक और गीत जेहन में गूंजने लगा। इस गीत और उस गीत की धुन और बोल आपस में टकराने लगे, लेकिन गीत इतनी जल्दी याद नहीं आया। बड़ी मशक्कत हो जाती है याददाश्त की और तसल्ली तब ही मिलती है, जब वह गीत याद आ ही जाता है।

और वह गीत निकला फिल्म रखवाला का, जिसे राजेंद्र कृष्ण ने लिखा और कल्याण जी आनंद जी ने ही संगीतबद्ध किया। इस गीत को भी रफी साहब ने ही आशा जी के साथ गाया था। बोल थे ;

रहने दो,

रहने दो गिले शिकवे

छोड़ी भी तकरार की बातें

जब तक फुरसत दे ये जमाना

क्यूं ना करें हम प्यार की बातें।।

दोनों ही गीतों में गिले, शिकवे, प्यार और तकरार है। मेरे हिसाब से गीत सुनने की चीज है। हमने तो अक्सर सभी गीत रेडियो पर ही सुने हैं और क्रिकेट की भी रनिंग कमेंट्री भी रेडियो पर ही सुनी है। तब कहां घर घर टीवी था।

कल्पना कीजिए, क्रिकेट मैच की ही तरह रफी साहब और लता जी के बीच शब्दों का मैच चल रहा है। लता जी के हाथ में बैट है और रफी साहब के हाथ में बॉल। फिल्म सच्चा झूठा का गीत शुरू होता है। कल्याण जी आनंद जी का संगीत चल रहा है, और रफी साहब शब्दों की डिलीवरी के पहले छोटा सा रन अप ले रहे हैं। उनकी शब्दों की स्पिन का जादू देखिए, और शब्दों की डिलीवरी देखिए ;

यूं ही तुम मुझसे बात करती हो ….

या कोई प्यार का इरादा है ..

और लता जी बड़े आराम से शब्दों की बॉल को पैड कर देती हैं ;

अदाएं दिल की जानता ही नहीं

मेरा हमदम भी कितना सादा है।।

बस इस तरह आप पूरा गीत सुनते जाइए और रफी साहब की शब्दों की स्पिन डिलीवरी और लता जी की डिफेंसिव बैटिंग का आनंद लीजिए।

फिल्म रखवाला में भी शब्दों की स्पिन के जादूगर रफी साहब ही हैं, लेकिन सामने इस बार आशा जी बैटिंग कर रही हैं ;

रहने दो और कहने दो

में आशा जी स्पिन को डिफेंड नहीं करती, कई बार बॉल बाउंड्री पार भी निकल जाती है।

दोनों गीतों को सुनिए और रफी साहब की शब्दों की स्पिन और लता और आशा के गले का कमाल सुनकर लीजिए। क्योंकि परदे के पीछे के असली कलाकार तो ये अमर गायक और दोनों अमर गायिकाएं ही हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 184 ☆ मरतु प्यास पिंजरा पयो… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना मरतु प्यास पिंजरा पयो। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 184 ☆ मरतु प्यास पिंजरा पयो

किसी से बदला मत लो उसे बदल दो बहुत सुंदर, सकारात्मक विचार है। कर्म का फल अवश्य सम्भावी है, ये बात गीता में कही गयी है और इसी से प्रेरित होकर लोग निरन्तर कर्म में जुटे रहते हैं; बिना फल की आशा किए। उम्मीद न रखना सही है किन्तु हमारे कार्यों का परिणाम क्या होगा ? ये चिन्तन न करना किस हद तक जायज माना जा सकता है।

अक्सर लोग ये कहते हुए पल्ला झाड़ लेते हैं कि मैंने सब कुछ सही किया था, पर लोगों का सहयोग नहीं मिला जिससे सुखद परिणाम नहीं आ सके। क्या इस बात का मूल्यांकन नहीं होना चाहिए कि लोग कुछ दिनों में ही दूर हो रहे हैं, क्या सभी स्वार्थी हैं या जिस इच्छा से वे जुड़े वो पूरी नहीं हो सकती इसलिए मार्ग बदलना एकमात्र उपाय बचता है।

कारण चाहे कुछ भी हो पर इतना तो निश्चित है कि सही योजना द्वारा ही लक्ष्य मिलेगा। केवल परिश्रम किसी परिणाम को सुखद नहीं बना सकता उसके लिए सही राह व श्रेष्ठ विचारों की आवश्यकता होती है।

बुजुर्गों ने सही कहा है, संगत और पंगत में सोच समझ के बैठना चाहिए। जिसके साथ आप रहते हो उसके विचारों का असर होने लगता है यदि वो अच्छा है, तब तो आप का भविष्य उज्ज्वल है, अन्यथा कोयले की संगत हो और कालिख न लगे ये संभव नहीं।

इसी तरह जिन लोगों के साथ आपका खान- पान, उठना – बैठना हो यदि वे निरामिष प्रवत्ति के हैं तो आपको वैसा होने में देर नहीं लगेगी। कहा भी गया है जैसा होवे अन्न वैसा होवे मन।

मन यदि आपके बस में नहीं रहा तो कभी भी उन्नति के रास्ते नहीं खुलेंगे। क्योंकि सब कुछ तो मन से नियंत्रित होता है। मन के जीते जीत है मन के हारे हार।

इस सब पर विजय केवल अच्छे साहित्य के पठन- पाठन से ही पायी जा सकती है क्योंकि जैसी संगत वैसी रंगत।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 296 ⇒ गीतकार इन्दीवर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गीतकार इन्दीवर।)

?अभी अभी # 296 ⇒ गीतकार इन्दीवर? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक संस्कारी बहू की तरह, मैंने जीवन में कभी आम आदमी की दहलीज लांघने की कोशिश ही नहीं की। बड़ी बड़ी उपलब्धियों की जगह, छोटे छोटे सुखों को ही तरजीह दी। कुछ बनना चाहा होता, तो शायद बन भी गया होता, लेकिन बस, कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे।

गीतकार इन्दीवर से भी मुंबई में अचानक ही एक सौजन्य भेंट हो गई, वह भी तब, जब उनके गीत लोगों की जुबान पर चढ़ चुके थे। मैं तब भी वही था, जो आज हूं। यानी परिचय के नाम पर आज भी, मेरे नाम के आगे, फुल स्टॉप के अलावा कुछ नहीं है। कभी कैमरे को हाथ लगाया नहीं, जिस भी आम और खास व्यक्ति से मिले, उसके कभी डायरी नोट्स बनाए नहीं। यानी जीवन में ना तो कभी झोला छाप पत्रकार ही बन पाया और न ही कोई कवि अथवा साहित्यकार।।

सन् 1975 में एक मित्र के साथ मुंबई जाने का अवसर मिला। उसकी एक परिचित बंगाली मित्र मुंबई की कुछ फिल्मी हस्तियों को जानती थी।

तब कहां सबके पास मोबाइल अथवा कैमरे होते थे। ऋषिकेश मुखर्जी से फोन पर संपर्क नहीं हो पाया, तो इन्दीवर जी से बांद्रा में संपर्क साधा गया। वे उपलब्ध थे। तुरंत टैक्सी कर बॉम्बे सेंट्रल से हम बांद्रा, उनके निवास पर पहुंच गए।

वे एक उस्ताद जी और महिला के साथ बैठे हुए थे, हमें देखते ही, उस्ताद जी और महिला उठकर अंदर चले गए। मियां की तोड़ी चल रही थी, इन्दीवर जी ने स्पष्ट किया। बड़ी आत्मीयता और सहजता से बातों का सिलसिला शुरू हुआ। कविता अथवा शायरी में शुरू से ही हमारा हाथ तंग है। उनके कुछ फिल्मी गीतों के जिक्र के बाद जब हमारी बारी आई तो हमने अंग्रेजी कविता का राग अलाप दिया। लेकिन इन्दीवर जी ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि उन्हें अंग्रेजी साहित्य का इतना इल्म नहीं है। हमने उन्हें प्रभावित करने के लिए मोहन राकेश जैसे लेखकों के नाम गिनाना शुरू कर दिए, लेकिन वहां भी हमारी दाल नहीं गली।।

थक हारकर हमने उन्हें Ben Jonson की एक चार पंक्तियों की कविता ही सुना दी। कविता कुछ ऐसी थी ;

Drink to me with thine eyes;

And I will pledge with mine.

Or leave a kiss but in the cup

And I will not look for wine…

इन्दीवर जी ने ध्यान से कविता सुनी। कविता उन्हें बहुत पसंद आई। वे बोले, एक मिनिट रुकिए। वे उठे और अपनी डायरी और पेन लेकर आए और पूरी कविता उन्होंने डायरी में उतार ली।

इतने में एक व्यक्ति ने आकर उनके कान में कुछ कहा। हम समझ गए, हमारा समय अब समाप्त होता है। चाय नाश्ते का दौर भी समाप्ति पर ही था। हमने इजाजत चाही लेकिन उन्होंने इजाजत देने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई और बड़ी गर्मजोशी से हमें विदा किया।।

इसे संयोग ही कहेंगे कि उस वक्त उनकी एक फिल्म पारस का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था। मुकेश और लता के इस गीत के बोल कुछ इस प्रकार थे ;

तेरे होठों के दो फूल प्यारे प्यारे

मेरी प्यार के बहारों के नजारे

अब मुझे चमन से क्या लेना, क्या लेना।।

एक कवि हृदय ही शब्दों और भावों की सुंदरता को इस तरह प्रकट कर सकता है। ये कवि इन्दीवर ही तो थे, जिनके गीतों को जगजीत सिंह ने होठों से छुआ था, और अमर कर दिया था।

सदाबहार लोकप्रिय कवि इन्दीवर जी और जगजीत सिंह दोनों ही आज हमारे बीच नहीं हैं। हाल ही में पंकज उधास का इस तरह जाना भी मन को उदास और दुखी कर गया है ;

जाने कहां चले जाते हैं

दुनिया से जाने वाले।

कैसे ढूंढे कोई उनको

नहीं कदमों के निशां

दुनिया से जाने वाले …

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 262 ☆ आलेख – नई पीढ़ी को राष्ट्र नायकों से परिचय कराते रहने की आवश्यकता  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – नई पीढ़ी को राष्ट्र नायकों से परिचय कराते रहने की आवश्यकता)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 262 ☆

? आलेख – नई पीढ़ी को राष्ट्र नायकों से परिचय कराते रहने की आवश्यकता ?

निर्विवाद है। समय के साथ यदि बड़ी से बड़ी घटना का दोहराव बदलती पीढ़ी के सम्मुख न हो तो वर्तमान की आपाधापी में गौरवशाली इतिहास की कुर्बानियां विस्मृत हो जाती हैं। हमारी संस्कृति में दादी नानी की कहानियों का महत्व यही सुस्मरण है।

भारतीय संदर्भो में राष्ट्रीय एकता का विशेष महत्व है। भारत पाकिस्तान का बंटवारा कर अंग्रेजो ने धर्म के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण किया था। शेष भारत विभिन्नता में एकता के स्वरूप में मुखरित हुआ है। देश में अनेको भाषायें, ढ़ेरों बोलियां, कई संस्कृतियां, विभिन्न धर्मावलम्बी, क्षेत्रीय राजनैतिक दल हैं। यही नही नैसर्गिक दृष्टि से भी हमारा देश रेगिस्तान, समुद्र, बर्फीली वादियों और मैदानी क्षेत्रो से भरा हुआ है, हम विविधता में देश के रूप में एकता के जीवंत उदाहरण के लिए सारी दुनियां के लिये पहेली हैं। जाति, वर्ग, धर्म आदि अनेक व्यैक्तिक मान्यताओं में भेद होने के बावजूद एकता और परस्पर शांति, प्रेम सद्भाव के अस्तित्व पर हमारी शासन व्यवस्था और समाज का ताना बाना केंद्रित है। विविधता में यह एकता राष्ट्र की शक्ति है। विशिष्ट रीति-रिवाजों के साथ लोग हमारे देश में शांत तरीके से अपना जीवनयापन करते हैं, यहाँ मुसलमान, सिख, हिंदू, यहूदी, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी सहअस्तित्व के संग जोश और उत्साह के साथ अपने धार्मिक त्यौहार मनाते हैं।

जब इस तरह का परस्पर सद्भाव होता है तो विचारों में अधिक ताकत, बेहतर संचार और बेहतर समझ होती है। अंग्रेजों के भारत पर शासन के पहले दिन से लेकर भारत की आज़ादी के दिन तक भारतीयों की आजादी का संघर्ष सभी समुदायों की धार्मिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अलग होने के बावजूद जनता के संयुक्त प्रयास किए बिना आजादी संभव नहीं थी। जनता सिर्फ एक लक्ष्य से प्रेरित थी और यह भारत की आजादी प्राप्त करने का उद्देश्य था। यही कारण है कि भारत की स्वतंत्रता संग्राम विविधता में एकता का एक अप्रतिम उदाहरण है।

आजादी के लिये गांधी जी की अहिंसा वाली धारणा के समानांतर आत्म बलिदानी क्रांतिकारियों, सेनानियों का योगदान निर्विवाद है। आत्मोत्सर्ग की पराकाष्ठा हंसते हुये फांसी के फंदे पर भारत माता की जय का जयकारा लगाते हुये झूल जाने वाले बलिदानी शहीद, काला पानी की प्रताड़ना सहने वाले वीर और सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के सेनानियों सहित गुमनाम रहकर वैचारिक क्रांति के आंदोलन रचने वाले प्रत्येक क्रांतिवीर का योगदान अप्रतिम है जिसका ज्ञान नई पीढ़ी को होना ही चाहिये। फिल्में, किताबें, शैक्षिक पाठ्यक्रम और साहित्य इस प्रयोजन में बड़ी भूमिका निभाता है।

क्रांतिकारी भगतसिंह युवाओ के लिये पीढ़ी दर पीढ़ी प्रेरणा स्त्रोत हैं। उनका दार्शनिक अंदाज, क्रांतिकारी स्वभाव, उनका संतुलित युवा आक्रोश, उनके देश प्रेम का जज्बा जिल्द बंद किताबों में सजाने के लिये भर नहीं है। उनको किताबों से बाहर लाना समय की आवश्यकता है। भगत सिंह की विचारधारा और उनके सपनों पर बात कर उनको बहस के केन्द्र में लाना युवा पीढ़ी को दिशा दर्शन के लिये वांछनीय है। बदलती राजनीति शहीदो के सपने साकार करने की राह से भटके हुये लगते हैं। समय की मांग है कि देश भक्त शहीदो के योगदान से नई पीढ़ी को अवगत करवाने के निरंतर पुरजोर प्रयास होते रहने चाहिये। भगतसिंह ने कहा था कि देश में सामाजिक क्रांति के लिये किसान, मजदूर और नौजवानो में एकता होनी चाहिए। साम्राज्यवाद, धार्मिक-अंधविश्वास व साम्प्रदायिकता, जातीय उत्पीड़न, आतंकवाद, भारतीय शासक वर्ग के चरित्र, जनता की मुक्ति के लिए क्रान्ति की जरूरत, क्रान्तिकारी संघर्ष के तौर-तरीके और क्रान्तिकारी वर्गों की भूमिका के बारे में उन्होने न केवल मौलिक विचार दिये थे बल्कि अपने आचरण से उदाहरण रखा था। उनके चरित्र, त्याग की भावना के अनुशीलन और विचारों को आत्मसात कर आज के प्रबल स्वार्थ भाव समाज को सही दिशा दी जा सकती है। उनके विचार शाश्वत हैं, आज भी प्रासंगिक हैं।

क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के विचारो की प्रासंगिकता का एक उदाहरण वर्तमान साम्प्रदायिकता की समस्या के हल के संदर्भ में देखा जा सकता है। आजादी के बरसो बाद आज भी साम्प्रदायिकता देश की बड़ी समस्या बनी हुई है। जब तब देश में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठते हैं। युवा भगत सिंह ने 1924 में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे देखे थे। भगतसिंह विस्मित थे कि दंगो में दो अलग अलग धर्मावलंबी परस्पर लोगो की हत्या किसी गलती पर नही वरन अकारण केवल इसलिये कर रहे थे, क्योकि वे परस्पर अलग धर्मो के थे। उनका युवा मन आक्रोशित हो उठा। स्वाभाविक रूप से दोनो ही धर्मो के आदर्श सिद्धांतो में हत्या को कुत्सित और धर्म विरुद्ध बताया गया है। धर्म के इस स्वरूप से क्षुब्ध होकर व्यक्तिगत रूप से स्वयं भगत सिंह तो नास्तिकता की ओर बढ़ गये। उन्होने अवधारणा व्यक्त की, कि धर्म व्यैक्तिक विषय होना चाहिये, सामूहिक नही। आज भी यह सिद्धांत समाज के लिये सर्वथा उपयुक्त है। राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली। साम्रदायिक वैमनस्य को समाप्त करने की जरूरत सबने महसूस की। साम्प्रदायिकता की इस समस्या के निश्चित हल के लिए भगत सिंह के क्रान्तिकारी आन्दोलन ने अपने विचार प्रस्तुत किये। जून 1928 के पंजाबी मासिक ‘कीर्ती’ में उनके द्वारा धार्मिक उन्माद विषय के कारण तथा समाधान पर लेख छापा गया। भगत सिंह के अनुसार ” साम्प्रदायिक दंगों का मूल कारण आर्थिक असंपन्नता ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर समाज में अविश्वास-सा हो गया। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। तोंद जहाँ पूंजीपतियों की प्रतीक है, वहीं निराला की रचना में पीठ से चिपकता पेट गरीबी प्रदर्शित करता है। भगतसिंह मानते थे कि दंगों का स्थाई समाधान भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। कलकत्ते के दंगों में एक अच्छी बात भी देखने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें अपने कार्य वर्ग की चेतना थी और वे अपने वर्ग हित को अच्छी तरह पहचानते थे। इस तरह उन्होंने पाया कि कार्य वर्ग चेतना का यही रास्ता साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है। इसी से भगत सिंह ने मजदूरो, किसानो को एकजुट होने और आर्थिक आत्मनिर्भरता व विकास के लिये काम करने और साम्राज्यवाद के विरुद्ध खड़े करने के प्रयत्न किये।

आज हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी भी जाति से ऊपर विकास का रास्ता ही साम्प्रदायिकता का हल बता रहे हैं। आज राष्ट्रीय प्रगति पथ पर सबके साथ चलते हुये धार्मिक मसलों को न्यायपालिका के निर्देशानुसार हल किया जा रहा है। इसी से भगत सिंह की दूरगामी सोच और गहरे चिंतन की स्पष्ट झलक मिलती है। देश में आम नागरिको की आर्थिक संपन्नता के लिये आज सतत विकास और जनसंख्या नियंत्रण ही एक मार्ग है।

जो कुछ दिखता रहता है लोग उसे ही तो स्मरण करते हैं, मंदिरो में भगवान रहता हो या नही किंतु शायद मंदिरो की इस सार्थकता से मना नहीं किया जा सकता कि सड़क किनारे के मंदिर भी हमें उस परम सत्ता का निरंतर स्मरण करवाते रहते हैं। भगत सिंह को नई पीढ़ी भूल चली है, उन्हें जीवंत बनाये रखकर सामाजिक समस्याओ पर उनके वैचारिक चिंतन के अमृत तथ्यो का अनुसरण आवश्यक है। देश हित में भगत सिंह के निस्वार्थ बलिदान को प्रेरणा दीप बनाकर पाठक तक उनके समर्पण का प्रकाश पहुंचे। फिर फिर पहुंचे।

देश के तमाम शहीदो को जिन्होने किसी प्रतिसाद की अपेक्षा के बिना अपने सुखो का और परिवार का परित्याग करके देश व समाज के लिये अपना जीवन दांव पर लगा दिया उन्हें और आज भी देश की सीमाओ पर नित शहीद होते उन वीर जवानो को, जो केवल आजीविका से परे, देश की रक्षा के लिये लड़ते हुये शहीद हो जाते हैं, उन सब को समर्पित करते हुये यह कृति प्रस्तुत है। इसके लिये इंटरनेट पर ढ़ेरो माध्यमो से सहज उपलब्ध कराई गई शहीद भगत सिंह की ही सामग्रियो तथा पूर्व प्रकाशित कुछ किताबो के अध्ययन से संदर्भ उपयोग किये है। मुक्त ज्ञान की इस रचनात्मक दुनियां का आभार।

शहीद भगतसिंह की प्रमुख कार्यस्थली रहा लाहौर शहर अब पाकिस्तान में है। लाहौर तब भी था और आज भी है। लाहौर प्रतीक है भविष्य की संभावना का, जो शहीदे आजम की कुर्बानी के नाम पर ही सही पाकिस्तान को साम्प्रदायिक, संकुचित, कट्टरपंथी आतंकी विचार धारा से मुक्त कर भारत के नक्शे कदम पर चलने की प्रेरणा दे यही कामना है। शहीद भगत सिंह के पुनर्स्मरण के इस प्रयास को पाठकीय आशीर्वाद की अपेक्षा के साथ… 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 295 ⇒ दाहिना हाथ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दाहिना हाथ।)

?अभी अभी # 295 ⇒ दाहिना हाथ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

right hand

हम सबके शरीर में दो हाथ और दो पांव हैं। दाहिना और बायां।

एक पांव से भी कहीं चला जाता है। कुछ जानवर तो चौपाये भी होते है, वहां उन्हें दो हाथों की सुविधा नहीं होती। एक से भले दो। एक अकेला थक जाता है इसलिए दोनों हाथ मिल जुलकर आसानी से काम निपटा लेते हैं। किसी से अगर दो दो हाथ करने पड़े, तो दोनों हाथ एक हो जाते हैं। एक हाथ से कहां काम होता है, प्रार्थना में भी दोनों हाथ जुड़ ही जाते हैं।

खाने के लिए मुंह हमें भगवान ने भले ही एक दिया हो, लेकिन वहां भी वह देखने के लिए मस्त मस्त दो नैन और सुनने के लिए दो दो कान देना नहीं भूला। नासिका भले ही हमें एक ही नजर आती हो, लेकिन वहां भी उसके दो द्वार हैं, आगम निगम। सांस इधर से अंदर, उधर से बाहर। हम भले ही ज्यादा अंदर नहीं झांकें, फिर भी दो दो किडनी और एक दिल और सौ अफसाने।।

वैसे तो अपना हाथ जगन्नाथ है ही, लेकिन हमारे दाहिने हाथ के साथ कुछ विशेष बात है। आपने शायद एक्स्ट्रा ab के बारे में नहीं सुना हो, लेकिन हर व्यक्ति के पास एक एक्स्ट्रा दाहिना हाथ होता है, जिसे आप अंग्रेजी में राइट हैंड भी कह सकते हैं। लेकिन यह हाथ अदृश्य होते हुए भी, मौका आने पर सबको नज़र आता है।

यह कोई पहेली नहीं, महज एक कहावत नहीं, एक हकीकत है। जो व्यक्ति संकट में, मुसीबत में, अथवा जरूरत पड़ने पर हमेशा आपके काम आता है, उसे आपका दाहिना हाथ ही कहा जाता है। कहीं कहीं तो गर्व से उस व्यक्ति का परिचय भी कराया जाता है। ये मेरे दाहिने हाथ हैं।

He is my right hand.

He or she, it doesn’t matter. कभी मेरी बहन मेरी राइट हैंड थी, तो उसके बाद एक परम मित्र मेरे जीवन में आए, जो वास्तव में मेरे दाहिने हाथ ही थे।।

हम सबके जीवन में कभी ना कभी ऐसे हितैषी अथवा सहयोगी का प्रवेश अवश्य होता है, जो हमारे हर काम में हमारा हाथ बंटाता है। उसके पीछे उसका कोई स्वार्थ नहीं होता। केवल

परिस्थितिवश ही ऐसे दाहिने हाथ हमसे अलग हो सकते हैं, जिसका हमें हमेशा मलाल और अफसोस बना रहता है।

राजनीति में आपको कई दाहिने हाथ नजर आ जाएंगे, लेकिन कौन कब तक साथ निभाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। यहां दाहिने हाथ तो कम ही होते हैं, strange bed fellows ही अधिक होते हैं। कोई नीतीश कब किसके साथ नातरा कर ले, कुछ कहा नहीं जा सकता। समय समय का फेर है। फिलहाल तो सत्ता के आसपास, एक नहीं कई, दाहिने हाथ नजर आ रहे हैं, जिनमें आजकल हाथ तो काम, पंजे ही अधिक दिखाई दे रहे हैं।।

जब तक इस संसार में इंसानियत है, हमारी नीयत साफ है, हमारे जीवन में भी, ऐसे दाहिने हाथ जरूर आते रहते हैं। अपने दोनों हाथों के लिए तो हम ईश्वर को धन्यवाद देते ही हैं, साथ ही उन सभी दाहिने हाथों को भी नमन करते हैं, जिन्होंने मुसीबत में किसी का हाथ थामा है, सुख दुख में सदा उनका साथ दिया है। निर्बल के बल राम। हम भी किसी के दाहिने हाथ बन सकें, ईश्वर हमें भी ऐसा अवसर प्रदान करे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 294 ⇒ हालचाल ठीक ठाक हैं… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हालचाल ठीक ठाक हैं।)

?अभी अभी # 294 हालचाल ठीक ठाक हैं? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब तक दफ्तर में काम करते रहे, साहब की गुड मॉर्निंग का जवाब, गुड मॉर्निंग से देते रहे, जिसने राम राम किया, उसको राम राम किया और जिसने जय श्री कृष्ण किया, उनसे जय श्री कृष्ण भी किया। इक्के दुक्के जय जिनेन्द्र वाले भी होते थे। आप इसे सामान्य अभिवादन का एक सर्वमान्य तरीका भी कह सकते हैं।

बहुत कम ऐसा होता है कि अभिवादन का जवाब नहीं दिया जाए। कहीं अभिवादन की पहल होती है और कहीं उसका जवाब दिया जाता है। जहां भी साधारण परिचय है, वहां मिलने पर इसे आप एक सहज अभिव्यक्ति कह सकते हैं। औपचारिक होते हुए भी आप इसे व्यावहारिक जगत का एक अभिन्न अंग कह सकते हैं।।

मुझे नमस्ते अभिवादन में उतनी ही सहज लगी, जितनी लोगों को गुड मॉर्निंग, राम राम, जय श्री कृष्ण अथवा जय श्री राम लगती है। लेकिन राम राम का जवाब राम राम से देना और जय श्री कृष्ण का जवाब जय श्री कृष्ण से देना ही ज्यादा उचित होता है।

तकिया कलाम की तरह सबके अपने अपने अभिवादन होते हैं। कहीं जय माता दी तो कहीं जय बजरंग बली। जय सियाराम से चलकर आज यह कहीं जय श्री राम, तो कहीं जय साईं राम तक पहुंच गई है। कहीं कहीं तो अभी भी भोले, गुरु और उस्ताद से ही काम चल रहा है।।

कुछ लोगों का तो यह भी आग्रह रहता है कि फोन पर हेलो की जगह भगवान अथवा अपने इष्ट का नाम ही लिया जाए। आजकल व्हाट्सएप और मैसेंजर पर गुड मॉर्निंग के रंग बिरंगे, सूर्योदय, नदी पहाड़ और फूल पत्तियों से सुजज्जित हिंदी अंग्रेजी में फॉरवर्डेड मैसेज आते हैं, जिन्हें गमले की तरह, सिर्फ इधर से उठाकर उधर रख दिया जाता है। कुछ लोगों को यह औपचारिकता भी पसंद नहीं आती।

व्यावसायिक की तुलना में, एक उम्र के बाद, व्यक्तिगत फोन वैसे भी कम ही आते हैं। जहां बाल बच्चे और परिजन परदेस में होते हैं, वहां नियमित समय बंधा रहता है, वीडियो कॉल पर ही बात होती है। मन फिर भी नहीं भरता। लेकिन दुनिया में ऐसा कहां, सबका नसीब है।।

कहीं कहीं परिस्थितिवश स्थिति एकांगी हो जाती है। यानी मिलने जुलने वाले लोगों का आना जाना कम हो जाता है और फोन कॉल्स भी इक्के दुक्के ही आते हैं। सामान्य तरीके से हालचाल पूछे जाते हैं, जिसका जवाब भी ठीक ठाक ही देना पड़ता है। आप कैसे हैं, हां ठीक है। सामने वाले को तसल्ली हो जाती है। जब कि दिल का हाल तो अपनों को ही सुनाया जाता है।

ज्ञानपीठ वाले गुलजार के ही शब्द हैं, जो ऐसे लोगों का दर्द बयां कर जाते हैं ;

कोई होता जिसको अपना

हम अपना कह लेते यारों।

पास नहीं तो दूर ही होता

लेकिन कोई मेरा अपना।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 261 ☆ आलेख – पाठक और लेखक के रिश्ते बनाते पुस्तक मेले ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – पाठक और लेखक के रिश्ते बनाते पुस्तक मेले)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 261 ☆

? आलेख – पाठक और लेखक के रिश्ते बनाते पुस्तक मेले ?

पाठक लेखक के साथ उसकी लेखन नौका पर सवार होकर रचना में अभिव्यक्त वैचारिक  प्रवाह की दिशा में पाठकीय सफर करता है। यह लेखक के रचना कौशल पर निर्भर होता है कि वह अपने पाठक के रचना विहार को कितना सुगम, कितना आनंदप्रद और कितना उद्देश्यपूर्ण बना कर पाठक के मन में अपनी लेखनी की और विषय की कैसी छबि अंकित कर पाता है। रचना का मंतव्य समाज की कमियों को इंगित करना होता है। इस प्रक्रिया में लेखक स्वयं भी अपने मन के उद्वेलन को  रचना लिखकर शांत करता है। जैसे किसी डाक्टर को जब मरीज अपना सारा हाल बता लेता है, तो इलाज से पहले ही उसे अपनी बेचैनी से किंचित मुक्ति मिल जाती है। उसी तरह लेखक की दृष्टि में आये विषय के समुचित प्रवर्तन मात्र से रचनाकार को भी सुख मिलता है। लेखक समझता है कि ढ़ीठ समाज उसकी रचना पढ़कर भी बहुत जल्दी अपनी गति बदलता नहीं है पर साहित्य के सुनारों की यह हल्की हल्की ठक ठक भी परिवर्तनकारी होती है। व्यवस्था धीरे धीरे ही बदलतीं हैं। साफ्टवेयर के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रो में जो पारदर्शिता आज आई है, उसकी भूमिका में भ्रष्टाचार के विरुद्ध लिखी गई व्यंग्य रचनायें भी हैं। शारीरिक विकृति या कमियों पर हास्य और व्यंग्य अब असंवेदनशीलता मानी जाने लगी है। जातीय या लिंगगत कटाक्ष असभ्यता के द्योतक समझे जा रहे हैं, इन अपरोक्ष सामाजिक परिवर्तनों का किंचित श्रेय बरसों से इन विसंगतियों के खिलाफ लिखे गये साहित्य को भी है। रचनाकारों की यात्रा अनंत है, क्योंकि समाज विसंगतियों से लबरेज है।

पुस्तक दीर्घ जीवी होती हैं। वे संदर्भ बनती हैं। आज या तो डोर स्टेप पर ई कामर्स से पुस्तकें मिल जाती हैं, या एक ही स्थान पर विभिन्न पुस्तकें लाइब्रेरी या पुस्तक मेले में ही मिल पाती हैं। अतः पुस्तक मेलों की उत्सव धर्मिता बहु उपयोगी है। और नई किताबों से पाठको को जोड़े रखने में हमेशा बनी रहेगी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 72 – देश-परदेश – लीप वर्ष ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 72 ☆ देश-परदेश – लीप वर्ष ☆ श्री राकेश कुमार ☆

प्रत्येक चार वर्ष के पश्चात लीप वर्ष याने वर्ष का सबसे छोटा माह फरवरी भी थोड़ा सा बड़ा हो जाता हैं।

कुछ दिन पूर्व एक पेंशनर साथी ने फोन कर जानकारी मांगी थी, क्या फरवरी की पेंशन दो/ तीन जल्दी याने कि हर माह साताईस को मिलती है, तो क्या इस बार पच्चीस तारीख को मिलेगी ना। उनके तर्क में दम हैं।

मन में विचार आया कि जो दिहाड़ी/ दैनिक वेतन पर भुगतान प्राप्त करते हैं, उनका तो इस माह नुकसान रहेगा।

पेपर में उपभोक्ता सामान पर लीप डिस्काउंट भी आरंभ हो गया हैं। रेडीमेड शर्ट विक्रेता एक के साथ तीन शर्ट और खरीदने पर छूट के लुभाने ऑफर दे रहें हैं।

होटल वाले भी आपके लिए ” लीप की शाम” का ऐलान करने लगे हैं। पैसा फैंक तमाशा देख।

आज एक मित्र का मैसेज आया कि उन्नतीस को क्या कार्यक्रम हैं। हमने कहा कुछ नहीं घर पर ही रहेंगे, आ जाओ। मित्र बोला इस बार की उन्नतीस कुछ खास है, चार वर्ष के बाद फरवरी में ये तारीख़ आती है। सर्दी भी वापस हो रही है, कहीं आस पास सब मित्र भ्रमण हेतु चलते हैं। मज़ाक में बोला क्या पता हम लोग की ये आखरी उन्नतीस फरवरी हो।

हमारे ये मित्र भी जिंदादिल है, मौका ढूंढते रहते है, सब को साथ मिल कर कुछ नया करने का कार्यक्रम जमा देते हैं।

आपने, अपने मित्र/ परिवार के साथ कोई कार्यक्रम बनाया या  नहीं ? हमारा काम तो, था आपको आगाह करने का, आगे आपकी मर्जी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। ई -अभिव्यक्ति में आज से प्रत्येक सोमवार आप आत्मसात कर सकेंगे एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  महाकोशल क्षेत्र के एक लोकप्रिय सौम्य, गरिमामय व्यक्तित्व के धनी, प्रखर कवि, लेखक, पत्रकार, संपादक व  जनेता – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी”)

☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆

पंडित भवानी प्रसाद तिवारी☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(सौम्य, गरिमामय व्यक्तित्व के धनी, प्रखर कवि लेखक व संपादक)

कवि, पत्रकार और राजनेता के रूप में समान लोकप्रियता के धनी पंडित भवानी प्रसाद तिवारी जनसभाओं में प्रतिष्ठित राजनेताओं और साहित्यकारों के बीच में से श्रोताओं की सहज श्रद्धा और लोकप्रियता के एक मात्र पात्र बनने की सामर्थ्य रखते थे। सात बार जबलपुर नगर निगम के महापौर चुने गए थे, लम्बे समय राज्यसभा सांसद रहे। वे ‘प्रहरी’ पत्रिका के ऐसे सफल सम्पादक थे जिन्होंने देश को समर्थ और लोकप्रिय हरिशंकर परसाई जैसा व्यंग्यकार दिया, परसाई जी की पहली रचना और पहला कालम ‘नर्मदा के तट से’ प्रहरी से ही प्रारंभ हुआ। कवि के रूप में आदरणीय तिवारी जी जन जन के बीच लोकप्रिय थे। राजनीति और साहित्य के पारस्परिक संबंधों के बारे में उनका कहना था…

“जब राजनीति पथभ्रष्ट होती है तब साहित्य विद्रोही हो जाता है”

1942 के जन आंदोलन के समय पंडित भवानी प्रसाद तिवारी जी जबलपुर नगर कांग्रेस के अध्यक्ष थे, और पूरे देश में यह अकेला शहर था जहां सेना के जवान अपनी बैरकों से बाहर आ गए थे,यह तिवारी जी के समर्थ नेतृत्व का ही परिणाम था कि 1942 में जबलपुर का अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन समूचे महाकौशल में जन जाग्रति का वाहक बनकर फैला। सन् 1942 में गिरफ्तार हो उन्हें जेल यात्रा करनी पड़ी,जेल में भी उनका समय व्यर्थ नहीं गया  यहीं उन्होंने रवीन्द्र नाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ का अध्ययन मनन किया और गीतांजलि का अनु -गायन जैसा उनके द्वारा संभव हुआ।आज भी हिन्दी में प्रकाशित कोई भी अनुवाद उसके समक्ष बेसुरा प्रतीत होता है, गीतांजलि अनु गायन के प्रकाशित होते ही उनकी यश-कीर्ति नगर और राज्य की सीमा लांघकर सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में फैली…

‘दिखते हैं प्रभु कहीं,

यहाँ नहीं यहाँ नहीं,

फिर कहाँ? अरे वहाँ,

जहां कि वह किसान दीन,

वसनहीन तन मलीन,

जोतता कड़ी जमीन,

प्रभु वहीं कि जहां पर

वह मजूर करता है

चोटों से पत्थर को चूर’

प्राण पूजा’ और ‘प्राण धारा’ उनके मूल कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे,’तुम कहां चले गए’ शोक कविताओं का लघु संग्रह है, ‘जब यादें उभर आतीं हैं’ उनके संस्मरणात्मक वैयक्तिक निबंधों का संग्रह है, ‘गांधी जी की कहानी’ गांधी के महान व्यक्तित्व को सरल भाषा में किशोरोपयोगी बनाने का प्रयास था। कथा वार्ता उनकी कथात्मक एवं समीक्षात्मक रचनाओं का संग्रह है। श्री तिवारी जी की ‘प्रहरी’ पत्रिका में प्रकाशित ‘हाथों के मुख से’ और ‘संजय के पत्र’ , ‘हमारी तुमसे और तुम्हारी हमसे’ जैसे स्तंभों में छपी सेंकड़ों पृष्ठों की सामग्री हिंदी साहित्य के क्षेत्र में रचनात्मक योगदान के रूप में याद रखी जाएगी।

एक पूरी की पूरी साहित्यिक पीढ़ी जिसमें सर्वश्री केशव पाठक, रामानुज लाल श्रीवास्तव, सुभद्रा कुमारी चौहान, नर्मदा प्रसाद खरे, हरिशंकर परसाई, रामेश्वर गुरू, जैसे महान साहित्यकार उनकी प्रहरी पत्रिका में प्रकाशित हुए। राजनेता और पत्रकार से भिन्न उनका साहित्यिक व्यक्तित्व सर्वोपरि था जो उनके इन दोनों रूपों को सहज ही आच्छादित किए रहता था, और मंच से बोलते हुए तिवारी जी के भाषण और भंगिमा में इस व्यक्तित्व का इतना अधिक प्रभाव रहता था कि उनके साहित्यिक श्रोताओं को तिवारी जी की काव्य पंक्तियां याद आने लगतीं थीं। लोग बताते हैं कि होली जैसे जन पर्व के अवसर पर या शरद पूर्णिमा के कवि सम्मेलन में उनकी मधुर संवेदनशील वाणी सहज ही गूंज जाती थी….

‘फूल ने पांवड़े बिछाए हैं,

      कौन ये मेहमान आये हैं ‘

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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