(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष…“।)
अभी अभी # 347 ⇒ सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष… श्री प्रदीप शर्मा
सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष (Thorough gentleman
एक सज्जन पुरुष की क्या परिभाषा है, वह भला भी होता है, सभ्य भी होता है और चरित्रवान भी होता है। शिक्षित, विनम्र, सरल, और संस्कारी व्यक्ति को आप संभ्रांत भी कह सकते हैं। जिस व्यक्ति में सभी पुरुषोचित गुण होते हैं, उसे अंग्रेजी में thorough gentleman कहा जाता है।
एक बड़ा प्यारा बंगाली शब्द है मोशाय जिसे हमारे यहां महाशय कहते हैं। यूं तो सभी अच्छाइयां एक व्यक्ति में होना संभव नहीं है, फिर भी हमारे सभ्य समाज की मान्यताओं पर जो व्यक्ति खरा उतरता है, उसे हमें सज्जन अथवा संभ्रांत मानने में कोई संकोच नहीं होता।।
अंग्रेजी शब्द thorough का मतलब ही होता है, पूर्ण रूप से, अथवा अच्छी तरह से। मनोयोग से अध्ययन को thorough study कहा जाता है। बीमारियों की गहन जांच को भी thorough check up ही कहा जाता है। जेंटलमैन तो कोई भी हो सकता है, लेकिन thorough gentleman हर व्यक्ति नहीं होता।
भला आदमी, सीधा सरल इंसान, जिसमें शराफत कूट कूटकर भरी हो, उसे भी हम सज्जन ही तो कहते हैं। कहीं कहीं तो पसीने की तरह, ऐसे व्यक्ति के चेहरे से शराफत टपक रही होती है। डर है, कहीं इतनी शराफत ना टपक जाए, कि कुछ बचे ही नहीं।।
अंग्रेजी में एक कहावत है, He is every inch a gentleman. यानी उस आदमी की शराफत इंच टेप से नापी जाती होगी। हमारे समाज में भी तो कुछ लोग रहते हैं, जिनका कद ऊंचा होता है। कुछ समाज के मापदंड हैं, जो व्यक्ति की ऊंच नीच निर्धारित करते हैं। शायद इसीलिए हर आदमी ऊपर उठना चाहता है, इंच इंच, सेंटीमीटर के लिए मिलीमीटर से प्रयास करना पड़ता है।
बंगाल में एक लाहिड़ी महाशय हुए हैं, उनकी आध्यात्मिक ऊंचाई नापना इतना आसान नहीं था। इनकी केवल एक तस्वीर ही उपलब्ध है, जिसके बारे में भी यह मान्यता है कि वह तस्वीर भी उनकी सहमति से ही कैमरे में कैद हो पाई, अन्यथा कोई फोटोग्राफर कभी उनकी तस्वीर कैद नहीं कर पाया।।
इतना ऊंचा कौन उठना चाहता है भाई। बस मानवीय गुण, नैतिकता, शराफत, ईमानदारी, विनम्रता, प्रेम और करुणा का समावेश हो हम सबमें। सबका उत्थान हो, लेडीज हों या जेंटलमैन, सभी thorough gentleman हों, सौम्य पुरुष हों, सौम्य महिला हों।।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 80 ☆ देश-परदेश – भविष्यवक्ता ☆ श्री राकेश कुमार ☆
“कल आज और कल” हमारा जीवन इन्हीं तीन काल में सीमित रहता हैं। बीता हुआ काल (समय), वर्तमान याने आज और सबसे महत्वपूर्ण आने वाला काल।
हम सब अपने भविष्य को लेकर चिंतित रहते हैं। हमारे देश की ज्योतिष विद्या, विज्ञान और तर्क आधारित हैं। प्रतिदिन पेपर में सबसे पहले भविष्य फल और टीवी में भी आज का राशि फल की जानकारी सबसे अधिक पाठक/ श्रोता द्वारा प्राप्त की जाती हैं।
आम चुनाव के समय में भी विगत कुछ वर्षों से नए प्रकार के भविष्य वक्ता ” ओपिनियन पोल सर्वे” के नाम से दुकानें सजाए बैठे हैं।
प्री पोल,पोस्ट पोल सर्वे पर कुछ हद तक अंकुश भी लगाया गया हैं। लेकिन ये लोग भी बहुत ही चतुर प्राणी होते हैं। चुनाव से महीनों पूर्व भी ये लोग सर्वे करवाते रहते हैं।
सभी टीवी चैनल वाले आम जनता को मूर्ख बनाते हुए टीवी पर अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में इन सो कॉल्ड भविष्य के ज्ञानियों की रिपोर्ट पर भी कुत्तों को लड़वाते रहते हैं।
चुनाव के दिन मौसम कैसा रहेगा ? शादी का सीजन या कोई स्थानीय कारण से मतदान का प्रतिशत निर्भर करता है, इन सब बातों की चर्चा करते हुए ये लोग भी चुनाव परिणाम के साथ “अगर/ मगर” जोड़ कर परिणाम के भविष्य के साथ एक प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देते हैं।
हमारे विचार से पुराने समय के अच्छे भविष्य वक्ता ग्रह और नक्षत्र विज्ञान का सहारा लेते थे। वर्तमान में टीवी चैनल वाले भविष्य वक्ता हेलीकॉप्टर/ एसी कार में भ्रमण कर फर्जी आंकड़ों को कंप्यूटर में डाल कर मंथन करते हुए अपने आप को ” राजनैतिक विशेषज्ञ” मान लेते हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हालचाल ठीक ठाक हैं…“।)
अभी अभी # 347 ⇒ साहित्य के ब्रांड – एंबेसडर… श्री प्रदीप शर्मा
रामायण काल में राजा के जो दूत होते थे, उन्हें भी राजदूत ही कहते थे। अपने स्वामी का जो संदेश लेकर जाए, वह दूत ! पूरे दरबार में दूत का सम्मान किया जाता है। और अगर दूत अंगद जैसा निकल जाए तो उसका पांव ही बहुत भारी पड़ जाता है।
अगर राजदूत पूरे देश के दूत बनकर विदेश जाते हैं, तो प्रचार और विज्ञापन की दुनिया में ब्रांड एंबेसडर यह दायित्व पूरा करते हैं। ब्रांड एम्बेसडर की एक छवि होती है जो लोगों को आकर्षित करती है। उसका उस विषय की जानकारी रखना कतई ज़रूरी नहीं। एक छोरा गंगा किनारे वाला, जब आपसे कहता है, कि कुछ दिन तो गुजारिए गुजरात में, तो आप गंगा को छोड़ साबरमती की राह पकड़ लेते हैं। ।
साहित्य एक ऐसा ब्रांड है, जहां सभी एंबेसडर है। जब कोई लेखक कोई रचना लिखता है, तो कोई अख़बार अथवा पत्रिका उसकी ब्रांड अम्बेसडर बन जाती है। कोई प्रकाशक जब किसी लेखक की कृति को प्रकाशित करता है तो वह उस लेखक का ब्रांड एम्बेसडर बन जाता है। पुस्तक का प्रचार प्रसार उसकी जिम्मेदारी हो जाती है।
कभी कभी कोई आलोचक अथवा समीक्षक भी स्वयं को साहित्य का ब्रांड एम्बेसडर समझ बैठता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ रामविलास शर्मा और नामवर सिंह क्या साहित्य के ब्रांड एंबेसडर नहीं ! लेखक किस ब्रांड का है, यह भी आजकल आलोचक ही तय करता है।
अगर कोई नया कवि स्थापित कवियों के लिए खतरे की घंटी है तो उसे बजाने में ही समझदारी है। उस पर रीतिकालीन अथवा अश्लील होने का भी आरोप लगाया जा सकता है। फिर वह ब्रांड बाज़ार में ज़्यादा नहीं चल सकता।।
साहित्य की ब्रांड एम्बेसडर कभी पुस्तक प्रदर्शनी होती थी, जो समय के साथ पुस्तक मेले और बुक फेस्टिवल में तब्दील हो गई।
हर प्रकाशक की अपनी स्टॉल होती है, जहां लेखक खुद ब्रांड एंबेसडर बन अपनी बेची जाने वाली पुस्तक पर ऑटोग्राफ देता रहता है। बिल्कुल चना ज़ोर गरम जैसा माहौल बन जाता है।
हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए जो संस्थाएं बनीं, क्या उनको आप ब्रांड एंबेसडर नहीं कहेंगे ! नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी की स्थापना की सन् 1893 में और श्री मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति, इंदौर की स्थापना सन् 1910 में हुई। उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ और बिहार की बिहार राष्ट्रभाषा परिषद जैसी कई साहित्यिक संस्थाएं देश विदेश में ब्रांड एम्बेसडर की तरह हिंदी की सेवा कर रही है। साहित्य अकादमी का गठन सन 1954 में किया गया। तब तक दिल्ली में भारतीय ज्ञानपीठ की सन 1944 में स्थापना भी हो चुकी थी। ये दोनों ही संस्थाएं साहित्य की स्थापित ब्रांड एम्बेसडर हैं। आप चाहें तो इन्हें आई एस आई मार्का ब्रांड एम्बेसडर कह सकते हैं। ।
साहित्य का सच्चा ब्रांड एम्बेसडर एक पाठक होता है जो न केवल किसी कृति का सच्चा प्रचारक होता है, बल्कि पोषक भी होता है। पाठक को साहित्यिक पुस्तकें उपलब्ध करवाने वाले पुस्तक विक्रेता और शहर शहर, नगर नगर में फैले सार्वजनिक वाचनालय को हम कैसे भूल सकते हैं।
साहित्य एक समग्र विषय है। जितने प्रदेश उतनी भाषाएं। जितने देश उनके उतने ही साहित्यकार। पुस्तकें ही पुस्तकें। आप भी जब लेखक की रचना खरीदकर पढ़ते हो, तो आप भी एक ब्रांड एम्बेसडर बन जाते हो। किसी पुस्तक की तारीफ का भी वही महत्व होता है जो एक ब्रांड एम्बेसडर का होता है। ज्ञान की ज्योत से ज्योत जलाना ही एक ब्रांड एम्बेसडर का काम है। आप भी साहित्य के ब्रांड एंबेसडर बनिए, अच्छा साहित्य पढ़िए, अच्छे साहित्य का प्रचार करिए।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 237☆ समुद्र मंथन
स्वर्ग की स्थिति ऐसी हो चुकी थी जैसे पतझड़ में वन की। सारा ऐश्वर्य जाता रहा। महर्षि दुर्वासा के श्राप से अकल्पित घट चुका था। निराश देवता भगवान विष्णु के पास पहुँचे। भगवान ने समुद्र की थाह लेने का सुझाव दिया। समुद्र में छिपे रत्नों की ओर संकेत किया। तय हुआ कि सुर-असुर मिलकर समुद्र मथेंगे।
मदरांचल पर्वत की मथानी बनी और नागराज वासुकि बने नेती। मंथन आरम्भ हुआ। ज्यों-ज्यों गति बढ़ी, घर्षण बढ़ा, कल्पनातीत घटने की संभावना और आशंका भी बढ़ी।
मंथन के चरम पर अंधेरा छाने लगा और जो पहला पदार्थ बाहर निकला, वह था, कालकूट विष। ऐसा घोर हलाहल जिसके दर्शन भर से मृत्यु का आभास हो। जिसका वास नासिका तक पहुँच जाए तो श्वास बंद पड़ने में समय न लगे। हलाहल से उपजे हाहाकार का समाधान किया महादेव ने और कालकूट को अपने कंठ में वरण कर लिया। जगत की देह नीली पड़ने से बचाने के लिए शिव, नीलकंठ हो गए।
समुद्र मंथन में कुल चौदह रत्न प्राप्त हुए। संहारक कालकूट के बाद पयस्विनी कामधेनु, मन की गति से दौड़ सकनेवाला उच्चैश्रवा अश्व, विवेक का स्वामी ऐरावत हाथी, विकारहर्ता कौस्तुभ मणि, सर्व फलदायी कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी, मदिरा की जननी वारुणी, शीतल प्रभा का स्वामी चंद्रमा, श्रांत को विश्रांति देनेवाला पारिजात, अनहद नाद का पांचजन्य शंख, आधि-व्याधि के चिकित्सक भगवान धन्वंतरि और उनके हाथों में अमृत कलश।
अमृत पाने के लिए दोनों पक्षों में तलवारें खिंच गईं। अंतत: नारायण को मोहिनी का रूप धारण कर दैत्यों को भरमाना पड़ा और अराजकता शाश्वत नहीं हो पाई।
समुद्र मंथन की फलश्रुति के क्रम पर विचार करें। हलाहल से आरंभ हुई यात्रा अमृत कलश पर जाकर समाप्त हुई। यह नश्वर से ईश्वर की यात्रा है। इसीलिए कहा गया है, ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय।’
अमृत प्रश्न है कि क्या समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था? फिर ये नित, निरंतर, अखण्डित रूप से मन में जो मथा जा रहा है, वह क्या है? विष भी अपना, अमृत भी अपना! राक्षस भी भीतर, देवता भी भीतर!… और मोहिनी बनकर जग को भरमाये रखने की चाह भी भीतर !
अपनी कविता की पंक्तियाँ स्मरण आती हैं-
इस ओर असुर,
उस ओर भी असुर ही,
न मंदराचल,
न वासुकि,
तब भी-
रोज़ मथता हूँ
मन का सागर…,
जाने कितने
हलाहल निकले,
एक बूँद
अमृत की चाह में..!
इस एक बूँद की चाह ही मनुष्यता का प्राण है। यह चाह अमरत्व प्राप्त करे।…तथास्तु!
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्रीरामनवमी साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जिन्दगी और टेस्ट मैच…“।)
अभी अभी # 346 ⇒ जिन्दगी और टेस्ट मैच… श्री प्रदीप शर्मा
एक समय था, जब ज़िंंन्दगी चार दिन की थी और टेस्ट मैच पांच दिनों का। यानी टेस्ट मैच जिंदगी से ज्यादा उबाऊ था। एक खिलाड़ी को दो दो पारी खेलनी पड़ती थी। वैसे देखा जाए तो किसकी होती है चार दिन की जिंदगी। सौ बरस जिंदगी जीने की आस, को ही शायद चार दिनों की जिंदगी माना गया हो।
२५ ब्रह्मचर्य, २५ गृहस्थ, २५ वानप्रस्थ और २५ सन्यास, लो हो गए चार दिन। वैसे एक क्रिकेटर की जिंदगी भी कहां २५ बरस से अधिक की होती है। उसे एक लंबे, सफल क्रिकेट कैरियर के बाद जिंदगी से नहीं, लेकिन हां क्रिकेट से सन्यास जरूर लेना पड़ता है। क्रिकेट राजनीति नहीं, जहां सन्यास लिया नहीं जाता, विरोधियों को दिलवाया जाता है।।
उबाऊ जिंदगी को रोचक और रोमांचक बनाने के लिए पांच दिन के टेस्ट मैच को एक दिन का, फिफ्टी फिफ्टी ओवर का कर दिया गया। यानी सौ बरस की जिंदगी हमारी अब पचास बरस की हो गई, क्योंकि इसमें से वानप्रस्थ और सन्यास को निकाल बाहर कर दिया गया। जिंदगी छोटी हो, लेकिन खूबसूरत हो।
खेलना कूदना, पढ़ना लिखना, कुछ काम धंधा करना और हंसते खेलते जिंदगी गुजारना। यानी कथित चार दिन की जिंदगी का मजा एक ही दिन में ले लेना, क्या बुरा है। फटाफट क्रिकेट की तरह, फटाफट जिंदगी।
जिंदगी एक सफर है सुहाना। यहां कल क्या हो, किसने जाना। अगर दुनिया मुट्ठी में करना है, तो आपको फटाफट जिंदगी जीना पड़ेगी। जब से क्रिकेट में टेस्ट मैच और वन डे का स्थान टी -20 ने लिया है, इंसान ने कम समय में जिंदगी जीना सीख लिया है।।
एक आईपीएल खिलाड़ी की उम्र देखो और उसका पैकेज देखो, और बाद में उनका खेल देखो और खेल की धार देखो। सिर्फ टी – 20 क्रिकेट ही नहीं, आज की युवा पीढ़ी को भी देखिए, समय से कितनी आगे निकली जा रही है। गए जमाने बाबू जी की नब्बे ढाई की नौकरी और रिटायरमेंट के बाद मामूली सी पेंशन के दिन। कितना सही लिखा है जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने, ” जो चाहते हो, वह पा लो, वर्ना जो पाया है, वही चाहने लगोगे।
काश हमारी जिंदगी भी क्रिकेट की तरह ही होती। हम रोज आउट होते और रोज हमें नई बैटिंग मिलती। हमारे भी जीवन के कैच मिस होते, नो बॉल पर हम क्लीन बोल्ड होते, फिर भी जीवनदान मिलता। एलबीडब्ल्यू की अपील होने के बावजूद हमें एक और लाइफ मिलती।।
अगर हमारा जीवन फाइव डे क्रिकेट की तरह लंबा है, तो हमें लिटिल मास्टर की तरह अपनी विकेट बचाते हुए, संभलकर खेलना है। अगर गलती से आउट भी हो गए, तो दूसरी पारी की प्रतीक्षा करना है।
अगर समय कम है तो कभी धोनी तो कभी विराट हमारे आदर्श हो सकते हैं।
जिंदगी में गति रहे, रोमांच रहे, कभी वन डे तो कभी टी – 20, लेकिन सावधानी हटी, विकेट गिरी। जिंदगी में वैसे भी गुगली, यॉर्कर और फुल टॉस की कमी नहीं। कभी आप टॉस हार सकते हैं, तो कभी जीत भी सकते हैं। दुनिया भले ही जालिम अंपायर की तरह उंगली दिखाती रहे, जब तक हमारा ऊपर वाला थर्ड अंपायर हमारे साथ है, कोई हमारा बाल बांका नहीं कर सकता।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हालचाल ठीक ठाक हैं…“।)
अभी अभी # 345 ⇒ साहित्यिक आदमी… श्री प्रदीप शर्मा
साहित्यिक आदमी (man of letters)
जिस तरह आवाज की दुनिया होती है, अक्षरों की भी एक दुनिया होती है। आवाज की दुनिया के कई दोस्तों को हम जानते हैं, क्योंकि उनकी आवाज ही पहचान है। उनकी आवाज हमारे कानों में जरूर मिश्री घोलती होगी। क्या अक्षरों की दुनिया के भी आदमी होते हैं ?
जो कला से जुड़ा आदमी होता है, वह कलाकार कहलाता है फिल्मों से जुड़ा इंसान फिल्मी कलाकार गीतकार, संगीतकार, गायक कलाकार और नाटककार तो होते ही हैं, कवि, लेखक, साहित्यकार और पत्रकार भी होते हैं। लेकिन किसी व्यक्ति की पहचान केवल इतनी हो कि He is a man of letters ! तो यह अपने आप में एक बहुत बड़ी विशेषता मानी जाती है। गागर में सागर शब्द है यह man of letters.
कितना अर्थ छुपा हुआ होता है इस ढाई शब्द के man of letters में विद्वान, साहित्यानुरागी, सरस्वती पुत्र, जिस पर मां शारदे विशेष रूप से प्रसन्न हों। आपको तारीफ के पुल बांधने की कोई आवश्यकता नहीं। किसी व्यक्ति का इससे अधिक सम्मानजनक परिचय नहीं दिया जा सकता। सभी सारस्वत सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार और ज्ञानपीठ पुरस्कार पर man of letters का विशेषण भारी पड़ते नजर आते हैं।
तारीफ और परिचय के लिए अभिनंदन ग्रंथ और सम्मान समारोह आयोजित किए जाते हैं। एक एक कृति की विवेचना, समालोचना होती है, बौद्धिक परिसंवाद होते हैं, तब जाकर किसी सृजनशील व्यक्ति के सृजनपीठ के क्षेत्र में पांव मजबूत होते हैं।।
Man of letters एक अंग्रेजी मुहावरा है जिसका दोहन हिंदी में नहीं हो पाया। हां एक इंटेलेक्चुअल जरूर बुद्धिजीवी बनकर मुफ्त में बदनाम हो गया। हमारे हिंदी के कई प्रख्यात कवि, और लेखक अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं। वे अंग्रेजी में पढ़ाते हैं और हिंदी में लिखते हैं। वाकई वे men of letters हैं। अक्षर विश्व उनका ऋणी है।
जो लोग अपनी प्रतिभा का परिस्थितिवश दोहन नहीं कर पाते, वे बेचारे केवल men of love letters बनकर रह जाते हैं। उर्दू के man of letters को शायर कहते हैं। शायर जब कोई खत लिखता है तो कलम को स्याही में नहीं डुबोता, खुद को शराब में डुबोकर अमर हो जाता है। और हर ऐसे शायर का सिर्फ एक ही नाम होता है। मैं शायर बदनाम। क्या आप किसी ऐसे man of letters को जानते हैं।
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 228 ☆
☆ बहुत तकलीफ़ होती है… ☆
‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए।
वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।
अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।
‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।
यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/ एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें; पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आचार्य देवो भव…“।)
अभी अभी # 344 ⇒ आचार्य देवो भव… श्री प्रदीप शर्मा
संस्कृत में आचार्य को गुरु भी कहते हैं। तब गुरुकुल होते थे, आज संकुल होते हैं। आचार्य का संबंध शिक्षा से है। आज की भाषा में हम इन्हें शिक्षक, टीचर, प्रोफेसर, डॉक्टर और रीडर भी कह सकते हैं।
मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव। यानी माता को देवता समझो, पिता को देवता समझो, आचार्य को देवता समझो, अतिथि को भी देवता समझो। माता पिता और आचार्य तक तो ठीक है, लेकिन अतिथि को भी देवता समझना, कुछ हजम नहीं होता।।
जहां जहां भी देव और असुर आमने सामने हुए हैं, असुरों के गुरु शुक्राचार्य जरूर बीच में आए हैं। द्वापर में कौरव पांडव दोनों के गुरु द्रोणाचार्य ही थे। जो आचार्य अमात्य होते थे, वे राजाओं के सलाहकार होते थे। आज वे ही मंत्री कहलाते हैं। जो शिक्षा प्रदान करे वह शिक्षक यानी आचार्य और जो नीति बनाए, वह अमात्य अर्थात् मंत्री।
शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में आचार्यों की कोई कमी नहीं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, और सर्व श्री आचार्य नंददुलारे बाजपेई, जैसे विद्वान साहित्यकारों ने अगर साहित्य की विधा को संपन्न किया है तो वल्लभाचार्य, निंबाकाचार्य ने पुष्टिमार्ग और द्वैताद्वैत मार्ग का प्रतिपादन किया। आदि शंकराचार्य और आज के शंकराचार्यो की यशकीर्ति से कौन परिचित नहीं।।
शिक्षा के क्षेत्र में आज आपको आचार्य ही नहीं प्राचार्य भी नजर आ जाएंगे। आचार्यों में भी विशेषज्ञ होते हैं ; मसलन, आयुर्वेदाचार्य, व्याकरणाचार्य और ज्योतिषाचार्य। योगाचार्य, धर्माचार्य तो एक ढूंढों हजार मिलेंगे। याद आते हैं आचार्य कृपलानी जैसे लोग। मंगल कार्य संपन्न करवाने वाले भी पहले आचार्य और जोशी ही कहलाते थे। पंडित, पुजारी शब्द में वह गरिमा कहां, जो आचार्य शब्द में है।
जब से उपाधियों का अलंकरण होने लगा है, लोग डॉक्टर, प्रोफेसर और साहित्यरत्न कहलाना अधिक पसंद करने लगे हैं। कहीं आचार्य नाम के आगे शोभायमान है तो कहीं पीछे। आज आपको डा .भोलाराम आचार्य भी नजर आ जाएंगे और योग गुरु आचार्य बालकृष्ण भी।
कुछ आचार्य बिना पेंदे के लोटे की तरह भी होते हैं।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सिरमौर विरंचि विचार सँवारे…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 191 ☆ सिरमौर विरंचि विचार सँवारे… ☆
भारतीय संस्कृति का आधार जिसने समझ लिया उसके लिए जीवन एक उत्सव की तरह हो जाता है। वसुधैव कुटुम्बकम का भाव जब हमारे भीतर समाहित होगा तब हम व्यक्ति से ज्यादा समष्टि को महत्व देने लग जाते हैं। कण- कण में भगवान को महसूस कर, धरती को माँ मानकर नदियों से अमृत स्वीकार कर, गीता का ज्ञान हृदय में बसा कर कर्म तो करते हैं पर फल की चिंता नहीं करते।
मैं (अहंकार) का भाव जब तक तिरोहित नहीं होगा तब तक सब कुछ सहजता से स्वीकार करना आसान नहीं होता। व्यक्ति क्रोध, लोभ मोह, माया से ग्रसित हो पृथ्वी लोक में भटकता रहेगा।
कर्म हमेशा सही योजना बनाकर करें। राह और राही दोनों को सत्यमार्ग का वरण करते हुए सहजता से आगे बढ़ना चाहिए जिससे प्रकृति का आनन्द उठाते हुए नर्मदा के कण- कण में शंकर बसते हैं इसे आप जी सकें, महसूस कर सकें अमृत तुल्य निर्मल जल की उद्गम धारा को आत्मसात कर सकें। किसी भी विशाल वृक्ष को देखें उसमें पंछी कितने उन्मुक्त भाव से अपने जीवन को बिताते हैं, प्रातः दूर आकाश में उड़ान भरते हुए अपने भोजन की तलाश में जाते हैं और शाम होने से पहले अपने घोसले में वापस आते हैं।
इसी तरह ऋतुओं का बदलाव भी कितना सहजता से होता है बिल्कुल बच्चे की मुस्कान जैसे, जो खेलते हुए चोट लगने पर रोता तो है पर माँ के पुचकारने से पुनः आँसू पोछता हुआ खेलने भाग जाता है। क्या हम ऐसा जीवन नहीं जी सकते ? आकाश की विशालता, पंछी की उन्मुक्तता, बच्चों की सहजता, धरती से धीरज, वृक्षों से निरंतर देते रहने का, प्रकृति से परिवर्तन का भाव ग्रहण कर सहजता से मानव धर्म का पालन करते हुए जीवन नहीं जी सकते ?
अभी भी समय है ये सब चिंतन हमें अवश्य करना चाहिए जिससे हमारा और भावी पीढ़ी का जीवन सरल होकर हर्षोल्लास में व्यतीत हो।
कोई भी कार्य शुरू करो तो मन में तरह- तरह के विचार उतपन्न होने लगते हैं क्या करे क्या न करे समझ में ही नहीं आता। कई लोग इस चिंता में ही डूब जाते हैं कि इसका क्या परिणाम होगा ? बिना कार्य शुरू किए परिणाम की कल्पना करना व भयभीत होकर कार्य की शुरुआत ही न करना।
ऐसा अक्सर लोग करते हैं पर वहीं कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने लक्ष्य के प्रति सज़ग रहते हैं और सतत चिंतन करते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनकी सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती रहती है।
द्वन्द हमेशा ही घातक होता है फिर बात जब अन्तर्द्वन्द की हो तो विशेष ध्यान रखना चाहिए क्या आपने सोचा कि जीवन भर कितनी चिन्ता की और इससे क्या कोई लाभ मिला ?
यकीन मानिए इसका उत्तर, शत- प्रतिशत लोगों का न ही होगा। अक्सर हम रिश्तों को लेकर मन ही मन उधेड़बुन में लगे रहते हैं कि सामने वाले को मेरी परवाह ही नहीं जबकि मैं तो उसके लिए जान निछावर कर रहा हूँ ऐसी स्थिति से निपटने का एक ही तरीका है आप किसी भी समस्या के दोनों पहलुओं को समझने का प्रयास करें। जैसे ही आप अपने हृदय व सोच को विशाल करेंगे सारी समस्याएँ अपने आप हल होने लगेंगी।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विचारों का आखेट…“।)
अभी अभी # 343 ⇒ विचारों का आखेट… श्री प्रदीप शर्मा
शेर को जंगल का राजा कहा गया है। एक जंगल हमारे विचारों का भी है, और हम ही उस जंगल के राजा हैं। एक शेर की तरह हम अपने विचारों के जंगल में निर्विघ्न घूमते हैं, जब भी हमें भूख लगती है, हम अपने ही विचारों का आखेट कर लेते हैं।
हमारे विचारों के इस जंगल में प्रवेश तो कोई भी कर सकता है, लेकिन हमारे अदृश्य विचारों का शिकार नहीं कर सकता। विचार हमारे मन के आंगन में निर्द्वंद्व विचारा करते हैं। एक उड़ती चिड़िया की तरह हमें अपने ही विचारों को शब्दों और लेखनी के पिंजरे में कैद करना पड़ता है। आप चाहें तो हमारे मन को विचारों का चिड़ियाघर अथवा अजायबघर भी कह सकते हैं।।
आत्मा की तरह ही विचार भी अमर हैं। विचार प्रकट और अप्रकट दोनों होते हैं, प्रकट विचारों का कोई कॉपीराइट नहीं होता। लेकिन पुस्तक के रूप में प्रकट विचारों का कॉपीराइट हो सकता है।
मनुष्य के अप्रकट विचार एक ऐसा अक्षुण्ण भंडारगृह है, कुबेर का खजाना है, गोडाउन है, जिसका कभी क्षरण नहीं होता।
हमारी विचार गंगा कहां से निकलती है, कोई नहीं जानता, इसका कोई गोमुख नहीं, लेकिन इस ज्ञान रूपी गंगासागर के गर्भ में कितने मोती हैं, कोई नहीं जानता।
जो प्रकट है, वह अनमोल मोती है, और जो अभी अप्रकट है, उसकी कोई थाह नहीं।।
एक ऐसा नंदन कानन है हमारा मन, जिसमें स्मृतियों और संकल्प विकल्पों के बीच नए विचार भी पनप रहे हैं। इधर मन ने संस्कार संचित किया उधर विचार पीछे पीछे चले आए बाराती की तरह। अमृत मंथन की तरह हमारे विचारों का भी मंथन चलता रहता है। अफसोस, अमृत तो सभी चाहते हैं, लेकिन यहां किसी नीलकंठ विषपायी का नितांत अभाव है।
पृथ्वी के गर्भ की तरह ही हमारे विचारों और संस्कारों के गर्भ में क्या है, कौन जानता है। जब विचारों का निर्झर बाहर आता है, तब ही पता चलता है, यह गुप्तगंगा है अथवा कोई ज्वालामुखी। कहीं प्रेम की गंगा तो कहीं नफरत का ज्वालामुखी।
विचारों में आग भी है, ठंडक भी, अमृत भी है और जहर भी। हमारे मन के नंदन कानन में केवल फूल ही खिले, कांटे नहीं, प्रेम और अमृत ही संचित हो, नफरत का ज़हर नहीं, इसका केवल एक ही उपाय है, नीलकंठ महादेव की शरण ;