श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वर्ण काल -भक्तिकाल…“।)
अभी अभी # 255 ⇒ स्वर्ण काल -भक्तिकाल… श्री प्रदीप शर्मा
साहित्य में भक्तिकाल को स्वर्ण काल कहा गया है। यह भक्ति साहित्य ही है, जिसने भक्ति की अलख को सदा जलाए रखा है। भक्ति आंदोलन कोई नया आन्दोलन नहीं है। 1375 से 1700 तक का समय हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग माना गया है। भक्ति काल को लोक जागरण का काल भी कहा गया है।
रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानुज द्वारा यह आंदोलन दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाया गया।
चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, संत तुकाराम, जयदेव और गुरु नानक इनमें प्रमुख है।।
वाल्मिकी कृत आदि महाकाव्य रामायण और तुलसीदास रचित रामचरितमानस ने अगर रामाश्रयी परंपरा को पुष्ट किया तो वल्लभाचार्य के अष्ट छाप कवियों ने कृष्णाश्रयी परम्परा में पुष्टिमार्ग को स्थापित किया। मीरा अगर प्रेमाश्रयी शाखा के अंतर्गत कृष्ण भक्ति में लीन थी, तो हमारे कबीर साहब ज्ञानाश्रयी मतावलंबी होते हुए अपनी साखियों द्वारा समाज में व्याप्त अंध विश्वास और पाखंड की धज्जियां भी बिखेरने से बाज नहीं आते थे।
बिना भक्तों के कैसा भक्ति आंदोलन। भक्त जब जाग जाए तभी जन आंदोलन। कभी चित्रकूट के घाट पर संतों की भीड़ जमा होती थी, तुलसीदास जी चंदन घिसते थे, और रघुवीर का तिलक करते थे। आज अयोध्या में सरयू के तट पर संतों की भीड़ जमा है। बस तुलसीदास और रघुवीर की कमी है।।
मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम ने त्रेता युग में अपने वनवास काल में दुष्ट रावण का सहार किया, लंका पर विजय पाई और सीता, लखन सहित अयोध्या वापस लौटे रघुराई। उनका राजतिलक हुआ, रामराज्य की स्थापना हुई। लेकिन तब से आज तक हम हर वर्ष रावण जलाते रहे, दशहरा मनाते रहे, लेकिन रावण न जला, न जला, न मरा, न मरा।
रावण के जितने सिर हैं, उतने ही उसके अवतार हैं। अशोक वाटिका को तहस नहस करने और लंका में आग लगाने के बाद रामभक्त हनुमान शांत नहीं बैठे। हमारे हनुमत वीरा के भी कई अवतार हैं। रामकाज को आतुर सभी रामभक्तों ने कलयुग में एक और रावण की लंका ढहाई। भक्तों का यह जन आंदोलन था, जिसके ही कारण आज रामलला पुनः अयोध्या में विराज रहे हैं।।
कलयुग में यह त्रेतायुग का पदार्पण है। भक्ति का बीज अक्षुण्ण होता है, यह कभी नहीं मरता। वाल्मीकि, तुलसी और करोड़ों राम भक्तों की आस्था का ही यह परिणाम है कि आज अयोध्या में पुनः भव्य राम मंदिर की स्थापना हो रही है।
भक्तों के जन आंदोलन से बड़ा कोई आंदोलन नहीं होता। भक्ति काल ही हमारे जीवन का स्वर्ण काल है।
सगुण हो अथवा निर्गुण, ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन भक्ति ही है।।
अगर हम चाहते हैं कि वहां पुनः रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हो तो एक प्रतिज्ञा हमें भी करनी पड़ेगी। राम की मर्यादा और आचरण को अपने जीवन में उतारने की। शायद पंडित भीमसेन जोशी का भी इस भजन में यही संकेत है ;
राम का गुणगान करिये
राम की भद्रता का
सभ्यता का ध्यान धरिये।
मनुजता को कर विभूषित
मनुज को धनवान करिये
ध्यान धरिये।।
तू अंतर्यामी, सबका स्वामी
तेरे चरणों में चारों धाम
हे राम, हे राम ..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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