(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय आलेख “इंटरनेट बधाई”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 212 ☆
🌻आलेख 🌻 इंटरनेट बधाई🌻
आधुनिक, वैज्ञानिक युग, या सोशल मीडिया युग कह लिजिये। कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
सोशल मीडिया ने अपना वर्चस्व बना कर रखा हुआ है। गूगल महाधिपति ज्ञान का भंडार बांट रहा है। बधाईयों के सुंदर शब्द, पिरोये गये पुष्पहार, सजे गुलदस्ते, चाहे जैसा इमेज निकालना, यहाँ तक के कि मृत्यु श्रद्धांजलि की तस्वीरें भी अनेक दिखाई देती है।
परंतु क्या? इनमें आदमी के आत्मिय, श्रद्धा भाव शामिल हो पता है। फेसबुक फ्रेंड की भरमार, परंतु दैनिक जीवन में जब वह अकेला किसी चीज के लिए परेशान खड़ा है, तब वह केवल वही अकेला होता है।
सोशल मीडिया केवल नयन सुख है। आत्मा की संतुष्टि नहीं आपको कई उपदेश और कई ज्ञान की बातें मिलेगी परंतु कोई आपकी आत्मा को संतुष्टि के पल नही दे सकता। क्षण भर की खुशी तो पहुँचा सकता है। परन्तु जो अपनों के बीच होता है,जिसकी यादें बरसों मन को गुदगुदाती रहती है। वह न जाने कहाँ खतम हो गया।
आज घर परिवार को याद करते-करते वह भाव विभोर हो रहा था। एक समय ऐसा था कि जब पूरा परिवार इकट्ठा हो, तो पता चला कि परिवार किसे कहा जाता है।
कहाँ का सामान कहाँ कब पहुंच जाए। किसी को पता नहीं रहता था। हर बच्चे को एक साथ बिठाकर नाश्ता कराना, एक स्नान का काम तो दूसरा सबको तैयार कर दिया। कब भोजन बना और तब तक न जाने खेल-खेल में क्या हो जाता।
पता चलता था किसी के बदले किसी को दो-चार थप्पड़ ज्यादा लग गए। फिर भी किसी को कोई शिकायत नहीं। भोजन की थाली पड़ोसी के घर तक पहुँच जाती। भोजन एक साथ। बच्चों में होड़ किसी का मुँह इधर किसी का मुँह उधर। कोई किसी की थाली से खा रहा है और कोई कुछ गिर रहा, परंतु सभी खुश। दादा जी या ताऊ जी एक-एक बाइट सबको खिला देते।
घर परिवार में ऐसा समय आया कि सब कुछ नष्ट होता चला गया। सभी ज्यादा समझदार जो हो गए थे। बड़े चुपचाप और छोटों का मुँह कुछ ज्यादा खुल गया। बूढ़े माँ पिताजी की सेवा भी वही करें जो केवल सुनता है, कुछ कहता नहीं है।
और चुपचाप पैसा देता रहे। राम तो सभी बनना चाहे परंतु लक्ष्मण न बनना पड़े। बिना कमाए माँ-बाप की जायदाद मिल जाए और जो बाहर है वह केवल पैसा भेज दे।
बोलचाल आना-जाना बातचीत सब बंद। वर्षों से अलग-अलग।
परंतु जाते-जाते अंग्रेजी साल का अंतिम दिन, जैसे ही मोबाइल उठाया फेसबुक फ्रेंड रिक्वेस्ट पर अचानक नजर गई। एक नाम जो बरसों से तो अलग, परंतु हृदय के करीब होते हुए भी मीलों दूर।
संवेदना खत्म हो चुकी थी, परंतु हृदय के कोने में अब भी अपनेपन का एहसास था। मन प्रसन्नता से भर उठा। चलो आज फ्रेंड रिक्वेस्ट में नाम तो शामिल हो गया।
आत्मीय ना सही सोशल मीडिया फ्रेंड बनकर ही वह जुड़ा रहेगा, घर परिवार से। फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर वह नव वर्ष की सोशल मीडिया (इंटरनेट बधाईयाँ) शुभकामनाएँ भेज, आज बहुत खुश हो रहा था।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 114 ☆ देश-परदेश – तथाकथित टीवी के कला कार्यक्रम के निर्णायक और जमूरे ☆ श्री राकेश कुमार ☆
मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता, नग्नता और अश्लीलता का प्रदर्शन देखते, सुनते जीवन के कई दशक व्यतीत हो चुके हैं।
प्रतियोगिता मुख्य रूप से नृत्य और गायन कला में ही होती हैं। कभी कभी विभिन्न कलाओं को लेकर भी कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं।
इन कार्यक्रमों को “जमूरों” के माध्यम से चलाया जाता हैं। टीवी चैनल वालों के पास कुल आठ दस जमूरे सभी कार्यक्रम को संचालित कर सकने के काबिल हैं। कार्यक्रम गायन कला का हो या पाक कला जैसे विषय की, ये जम्मूरे सब काम कर लेते हैं। प्रतियोगियों के निर्णायकों को अपनी हाजिर जवाबी या ठिठोलेपन से दर्शकों का दिल बहलाने के लिए फूहड़ता का प्रदर्शन करते हुए ये जमूरे पाए जाते है।
इन कार्यक्रमों के निर्णायक फिल्मी पृष्ठभूमि से होते हैं।गायन और नृत्य क्षेत्र में कुछ अच्छे और मंजे हुए कलाकार भी होते हैं। अधिकतर निर्णायक शालीनता की हदों को पार कर नग्नता का प्रदर्शन करते हैं। इनमें से अधिकतर तलाक शुदा या निजी जीवन में कुछ अनैतिक कार्यों में लिप्त परिवारों से होते हैं।
हमारे बच्चे जो इन कार्यक्रमों में प्रतियोगी बनकर भाग लेते है, उनके साथ भी कार्यक्रम के निर्माता तरह तरह के निजी संबंध बनाने की झूठी कहानियां भी चलाते हैं। कभी कभी तो इन झूठी कहानियों में बच्चों के परिवार वालों को भी जबरदस्ती शामिल किया जाता हैं।
देश के करोड़ों बच्चे जो इन कार्यक्रमों को टीवी पर देखते है, क्या उस कला के बारे में ज्ञान की वृद्धि होती होगी ? सिवाय घटिया नग्न और अश्लील बातों के वो शायद ही कुछ और अर्जित कर पाते हैं।
निर्णायक जितनी घटिया हरकते करता है, उसको देश के बड़े बड़े विज्ञापन करने को भी मिल जाते हैं। बदनाम है, तो क्या हुआ, चर्चा भी तो हमारी ही होती हैं।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 271 ☆ एकोऽहम् बहुस्याम्…
शहर में ट्रैफिक सिग्नल पर बल्ब के हरा होने की प्रतीक्षा में हूँ। लाल से हरा होने, ठहराव से चलायमान स्थिति में आने के लिए संकेतक 28 सेकंड शेष दिखा रहा है। देखता हूँ कि बाईं ओर सड़क से लगभग सटकर पान की एक गुमटी है। दोपहर के भोजन के बाद किसी कार्यालय के चार-पाँच कर्मी पान, सौंफ आदि खाने के लिए निकले हैं। एक ने सिगरेट खरीदी, सुलगाई, एक कश भरा और समूह में सम्मिलित एक अपने एक मित्र से कहा, ‘ले।’ सम्बंधित व्यक्ति ने सिगरेट हाथ में ली, क्षण भर ठिठका और मित्र को सिगरेट लौटाते हुए कहा, “नहीं, आज सुबह मैंने अपनी छकुली (नन्ही बिटिया) से प्रॉमिस की है कि आज के बाद कभी सिगरेट नहीं पीऊँगा।” मैं उस व्यक्ति का चेहरा देखता रह गया जो संकल्प की आभा से दीप्त हो रहा था। बल्ब हरा हो चुका था, ठहरी हुई ऊर्जा चल पड़ी थी, ठहराव, गतिमान हो चुका था।
वस्तुत: संकल्प की शक्ति अद्वितीय है। मनुष्य इच्छाएँ तो करता है पर उनकी पूर्ति का संकल्प नहीं करता। इच्छा मिट्टी पर उकेरी लकीर है जबकि संकल्प पत्थर पर खींची रेखा है। संकल्प, जीवन के आयाम और दृष्टि बदल देता है। अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,
कह दो उनसे,
संभाल लें
मोर्चे अपने-अपने,
जो खड़े हैं
ताक़त से मेरे ख़िलाफ़,
कह दो उनसे,
बिछा लें बिसातें
अपनी-अपनी,
जो खड़े हैं
दौलत से मेरे ख़िलाफ़,
हाथ में
क़लम उठा ली है मैंने
और निकल पड़ा हूँ
अश्वमेध के लिए…!
संकल्प अपनी साक्षी में अपने आप को दिया गया वचन है। संकल्प से बहुत सारी निर्बलताएँ तजी जा सकती हैं। संकल्प से उत्थान की गाथाएँ रची जा सकती हैं।
संकल्प की सिद्धि के लिए क्रियान्वयन चाहिए। क्रियान्वयन के लिए कर्मठता चाहिए। संकल्प और तत्सम्बंधी क्रियान्वयन के अभाव में तो सृष्टि का आविष्कार भी संभव न था। साक्षात विधाता को भी संकल्प लेना पड़ा था, ‘एकोऽहम् बहुस्याम्’ अर्थात मैं एक से अनेक हो जाऊँ। एक में अनेक का बल फूँक देता है संकल्प।
संकल्प को सिद्धि में बदलने के लिए स्वामी विवेकानंद का मंत्र था, ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ अर्थात् उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक मत रुको।
संकल्प मनोबल का शस्त्र है, संकल्प, असंभव से ‘अ’ हटाने का अस्त्र है। उद्देश्यपूर्ण जीवन की जन्मघुट्टी है संकल्प, मनुष्य से देवता हो सकने की बूटी है संकल्प।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जावेगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “व्यग्रता…“।)
अभी अभी # 562 ⇒ व्यग्रता (Anxiety) श्री प्रदीप शर्मा
यह एक ऐसी मानसिक अवस्था होती है, जिसमें व्यक्ति बड़ा अस्त व्यस्त और असमंजस में रहता है । किसी भी कार्य में उसे ना तो रुचि रहती है और ना ही
मन में कोई उमंग । मन हमेशा अशांत और चिड़चिड़ा रहता है । आशा से कोसों दूर, हमेशा निराशा के बादल मन में छाए रहते हैं ।
वह सन् ७० का दौर था । इसी दौर में एक लेखक हुए हैं, गुलशन नंदा, जिनका गुलशन से कोई लेना देना नहीं था ।
जरा उनके प्रेरणादायक शब्द तो देखिए, फिल्म कटी पतंग से, जो उनके ही उपन्यास पर आधारित थी ;
ना कोई उमंग है,
ना कोई तरंग है
मेरी ज़िंदगी है क्या,
इक कटी पतंग है ।।
वह पीढ़ी अमरीकन उपन्यासकार हेमिंग्वे की भाषा में lost generation कहलाती थी, कामू, काफ्का और ज्यां पॉल सार्त्रे के अवसाद भरे साहित्य का शिकार थी ।।
आशावाद ही आस्तिकता है और निराशावाद ही नास्तिकता । जीवन की व्यर्थता और खोखलेपन का बोध व्यक्ति को पलायनवादी बना देता है ।
इधर प्रेम में धोखा खाया, उधर एक देवदास निकल आया ।
इधर फिल्मी पर्दे पर राजेश खन्ना की रोमांटिक फिल्में और उधर लुगदी साहित्य की भरमार । कौन कॉलेज पढ़ने जाता था । जिन्हें सिर्फ प्रेम और राजनीति करनी होती थी, वे तो कॉलेज छोड़ना ही नहीं चाहते थे । भटकी और भ्रमित तब की युवा पीढ़ी भाग भागकर मुंबई निकल जाती थी, फिल्मों में एक्टर बनने ।।
जो उस दौर के इस कुंठा और संत्रास की बीमारी से बच गया, उसने आत्म विश्वास, आस्तिकता और सकारात्मकता की राह पकड़ ली, और अपनी जीवन नैया को आसानी से पार लगा ली । जो उसमें डूब गए, दुनिया उन्हें भुला बैठी ।।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री आशीष गौड़ जी का साहित्यिक परिचय श्री आशीष जी के ही शब्दों में “मुझे हिंदी साहित्य, हिंदी कविता और अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का शौक है। मेरी पढ़ने की रुचि भारतीय और वैश्विक इतिहास, साहित्य और सिनेमा में है। मैं हिंदी कविता और हिंदी लघु कथाएँ लिखता हूँ। मैं अपने ब्लॉग से जुड़ा हुआ हूँ जहाँ मैं विभिन्न विषयों पर अपने हिंदी और अंग्रेजी निबंध और कविताएं रिकॉर्ड करता हूँ। मैंने 2019 में हिंदी कविता पर अपनी पहली और एकमात्र पुस्तक सर्द शब सुलगते ख़्वाब प्रकाशित की है। आप मुझे प्रतिलिपि और कविशाला की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं। मैंने हाल ही में पॉडकास्ट करना भी शुरू किया है। आप मुझे मेरे इंस्टाग्राम हैंडल पर भी फॉलो कर सकते हैं।”
आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं संस्मरणात्मक आलेख अस्तित्वगत विडंबना।
☆ आलेख ☆ अस्तित्वगत विडंबना ☆ श्री आशीष गौड़ ☆
क्या एक ही जगह पर दोबारा जाने का एहसास समय और उम्र के साथ बदलता रहता है?
वह जगह जो आपके बचपन को दिलों में समेटे हुए है और जहाँ आप भावनात्मक रूप से गहराई से जुड़े हुए हैं? हाल ही में मैं अपने गृह नगर श्री गंगानगर गया था। क्या ट्रेन एक माँ की तरह नहीं है जो आपको अपनी गोद में उठाकर अपने घर ले जाने की कोशिश कर रही है। ट्रेन वही पुरानी है जो उन्हीं पुरानी पटरियों पर चल रही है, उन्हीं पुरानी जगहों से गुज़र रही है जैसे यादें ताज़ा हो रही हैं। जब मैंने गहरी रातों में उन पुरानी और शारीरिक रूप से खराब हो चुकी खिड़कियों के बाहर देखा, तो मुझे बाहर ठंड का एहसास हुआ। मैंने खुद से पूछा, क्या मैं यहाँ के तापमान के बारे में सोच रहा हूँ? या वे पेड़ अब मेरी मौजूदगी के प्रति शत्रुतापूर्ण थे, मेरी लंबी अनुपस्थिति और विस्मृति के कारण। जैसे ही ट्रेन एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन के लिए फिर से चली, वे पेड़ मुझसे दूर जाने लगे, मानो वे मुझसे नाराज़ होकर मुझसे दूर भागने की कोशिश कर रहे हों। ठीक वैसे ही जैसे हम अपनी मातृभूमि से, अपने पुराने शहरों से, उन पुरानी गलियों से भागे थे, जहाँ आज भी हमारे बचपन के निशान हैं।
मैंने मन ही मन सोचा, जब मैं इतने सालों से दूर था, उन बड़े भीड़-भाड़ वाले शहरों में खुद को समझने की कोशिश कर रहा था, तो वे दुकानदार दिन-रात अपनी दुकानें खोले रहते थे, ग्राहकों का इंतज़ार करते हुए। वे कभी भी उन सांसारिक दिनचर्या से ऊबते नहीं थे। मैं अब उन दुकानदारों का ग्राहक जैसा महसूस करता हूँ जो मुझे अपने मोटे लेंसों से देखते हैं जो उन पुराने मोतियाबिंद कॉर्निया को ढकने के लिए हैं।
वे बगीचे अभी भी उसी मिट्टी को बरकरार रखे हुए हैं और वे मिट्टी उन्हीं पौधों का पोषण कर रही हैं जो अब पेड़ बन गए हैं। मैं उन घास के मैदानों में खेला करता था। वहाँ कोई पेड़ नहीं थे। मैं उन रेतीले कीचड़ भरे घास के मैदानों में खुला घूमता था। जब मैं घास के मैदानों, उन निचले इलाकों में घूमता था, तो मैं खाने से पहले फलों के बीज फेंक देता था। वही फल अब उन गहरी जड़ों वाले पेड़ों के रूप में मेरी ज़मीन को थामे हुए हैं। मैं उन पेड़ों का ऋणी हूँ जो हर मौसम में मेरी ज़मीन को मिट्टी से भर देते हैं। मैं उस फल विक्रेता का ऋणी हूँ जिसने मुझे वे फल बेचे। मैं अपनी माँ का ऋणी हूँ जिसने मुझे वे फल दिए। मैं जीवन का ऋणी हूँ, क्योंकि चीज़ों को फेंकने की मेरी आदत के बावजूद, उन्होंने मेरी ज़मीन, मेरी मिट्टी, मेरे चरागाह और मेरी निचली ज़मीन को मेरी अनुपस्थिति में भी बरकरार रखा और आबाद रखा। मैं उन सभी का ऋणी हूँ, मिट्टी, भूमि, पेड़, फल और बीज जिन्होंने मेरे घर को आश्रय दिया और मेरा “अस्तित्व” बनाया।
संतुष्टि स्वयं में है। मेरे मित्र अमन ने इस पंक्ति का उल्लेख किया जब हम इस बात पर बहस कर रहे थे कि एक अच्छा आत्मनिर्भर व्यवसाय कैसे खोला और बनाया जाए। हम संतुष्टि के लिए एक आदर्श परिभाषा का पता लगाने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने मुझे बताया कि सड़क पर रोटी बेचने वाला संतुष्ट है क्योंकि वह अपने व्यवसाय का असली मालिक है, क्योंकि वह किसी ग्राहक को मना करने का फैसला कर सकता है। उसने कहा कि वह ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि वह अपने व्यवसाय के लाभ और भविष्य के लिए चिंतित था। वह एक बड़ा लकड़ी व्यापारी होने के नाते कहा कि वह उस सड़क किनारे विक्रेता से छोटा महसूस करता है जो भविष्य की संभावनाओं को अस्वीकार करने की इच्छा और क्षमता का प्रयोग करता है।
जीवन उन विकल्पों और संभावनाओं का एक समूह है जो फलित होते हैं। संभावना या विकल्प चुनने की संभावना हमारे हाथ में नहीं है। हमारे पास विकल्प हैं लेकिन हम प्रत्येक विकल्प या प्रत्येक संभावना की सफलता वहन क्षमता के बारे में सुनिश्चित नहीं हैं। यह सब फिर से एक संभावना है कि आप शायद अनंत विकल्पों में से एक संभावना का चयन करें जो शायद आपके भविष्य को रोशन कर सके। अनिश्चितता है न?
जब मैं ठंडी सर्दियों की रात में अपना समय पी रहा था, मैंने खुद से पूछा – खून गाढ़ा है या जमीन? कौन सा रिश्ता गहरा है खून या जमीन? कौन सी भावना गहरी है? हम जैसे कई लोग, मेरे जैसे कई लोग, हरियाली भरे चरागाहों की तलाश में अपने वतन से बहुत दूर आ गए हैं। हम उन जानवरों की तरह हैं जो घास खाने आए थे लेकिन हमारे दांतों और होठों पर खून लगा हुआ था। हर बार जब हम घर वापस जाने के बारे में बोलने की कोशिश करते हैं, तो हमारे खून से सने होंठ आपस में चिपक जाते हैं और हमें बोलने नहीं देते। मानो उन चरागाहों को खाते हुए जीभ से खून बह रहा हो, और उन चरागाहों को खाने की वजह से हमारी जीभ से हमारा ही खून बह रहा हो, चरागाह और हरी-भरी ज़मीन जिसके लिए हम आए थे, हमारी फँसने की वजह बन गई है।
हमारे माता-पिता भी हमेशा के लिए हमारे साथ नहीं जाना चाहते, अपना वतन छोड़कर। वे अपनी मातृभूमि और धरती माँ से बहुत जुड़े हुए हैं और उनकी गहरी भावनात्मक जड़ें हैं। हमारे साथ भी ऐसी ही स्थिति है लेकिन हमारे हरे चरागाहों ने हमारी जीभ को घायल कर दिया है, हमारा खून बह रहा है, हमने खून का स्वाद चखा है और हमारे होंठ चिपक गए हैं। वे वापस जाने के बारे में नहीं बोल सकते। जमीन उनके लिए खून से ज्यादा गाढ़ी है और ज्यादा प्रासंगिक भी है। और हम… हम अब शाकाहारी नहीं हैं, हमारे घास के मैदानों ने हमें मांसाहारी बना दिया है। हमारी प्रकृति बदल गई है। हमारा विकास गलत हो गया है। जब एक शाकाहारी मांसाहारी बन जाता है, तो यह सभ्यता का अंत है। इसलिए यह गलत बयान नहीं होगा और यह कम करके नहीं आंका जाएगा जब कहा जाता है – खून जमीन से ज्यादा गाढ़ा नहीं होता। हम मरते हैं और हम जमीन के लिए जीते हैं न कि अपनी संतानों के लिए। जमीन के रिश्ते और भावनाओं का खून से ज्यादा गहरा प्रभावपूर्ण अर्थ होता है वे ईंटें हमारे लिए हमारे खून से भी ज्यादा मायने रखती हैं।
मैं भी घास के मैदानों के प्रति अपनी धारणा और अपनी ईंटों के प्रति अपने भावनात्मक रुख में खुद को उतना ही चयनात्मक रखता हूँ। क्योंकि जब समय आएगा, तो शायद मैं भी अपनी ईंट को अपने दिल से लगा लूँगा, बजाय इसके कि मैं अपनी घास खाऊँ।
क्या समय सापेक्ष नहीं है? जब आप नहीं चाहते कि यह रेंगे, तो यह बहुत तेज़ी से गुज़रता है और जब आप चाहते हैं कि यह रेंगता रहे और रेंगता रहे, तो यह तेज़ी से उड़ता है। सापेक्षता के विशेष सिद्धांत में, आइंस्टीन ने निर्धारित किया कि समय सापेक्ष है – दूसरे शब्दों में, जिस दर से समय बीतता है वह आपके संदर्भ के ढांचे पर निर्भर करता है। आइंस्टीन के यह जानने से पहले हम आइंस्टीन थे। काश आइंस्टीन सापेक्षता के बजाय ईंट और खून के सिद्धांत को समझ पाते… है न?
जब हम अपने गृह नगर के लिए निकलते हैं, तो समय हमारी इच्छाओं और हमारी धारणा से कहीं ज़्यादा तेज़ी से यात्रा करता है। इसके विपरीत जब हम घर वापस जाने के लिए ट्रेन पकड़ने से सिर्फ़ दो दिन दूर होते हैं, तो समय ऐसे चलता है जैसे हर घंटा घड़ी के एक मिनट बजने के बराबर हो। और इससे पहले कि आप समझ पाएं, आप अपने फीते वापस बांध रहे हैं।
वापस यात्रा करते समय, मैं गहरी नींद में सो जाना चाहता था ताकि मैं अपना घर, अपनी ज़मीन मुझसे दूर न देखूं। मैं सीधे दूसरे शहर में जागना चाहता था जैसे कि मैं सपने में हूँ और नींद में चल रहा हूँ।
घर की ओर यात्रा करते समय मैं पूरी रात सो रहा था जब मैं जागना चाहता था और उन सभी स्टेशनों और उन पेड़ों को गिनना चाहता था जो घर की ओर मील के पत्थर के रूप में काम करते हैं। लेकिन जीवन एक विरोधाभास है।
अपनी मातृभूमि की ओर वापस जाने और खून बहने वाली जीभ से दूर जाने, मांसाहारी से शाकाहारी बनने का सिद्धांत वही है जो आइंस्टीन ने सापेक्षता के बारे में कहा था। और यह अस्तित्व के विरोधाभास के बारे में भी है।
जब हम मातृभूमि के बारे में गहराई से बात करते हैं तो ऐसी कई चीजें हमारे विचारों में उलझ जाती हैं। हस्ताक्षर करने से पहले, एक आखिरी विचार जो मेरे दिमाग में आया, उसे साझा करूँगा।
मेरे करीबी दोस्त जो वहां एक बड़े व्यवसाय के मालिक हैं, ने मुझे रिश्तों की पेचीदगियों के बारे में बताया, साथ ही मैंने यह भी सीखा कि कैसे एक रिश्ता जटिल हो सकता है और कैसे एक रिश्ता जीवन के अर्थ के लिए एक बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए जटिल हो सकता है। दार्शनिक रूप से कहें तो यह यात्रा मात्र जीवविज्ञान से परे है। यह पहचान और अपनेपन की खोज बन जाती है। प्रत्येक बच्चा अतीत और भविष्य के मिश्रण का प्रतिनिधित्व करता है, आशाओं और सपनों का एक मूर्त रूप जो व्यक्ति से परे फैला हुआ है। पुरुष संतान की इच्छा को सांस्कृतिक मूल्यों के प्रतिबिंब के रूप में देखा जा सकता है – पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं को बनाए रखने की लालसा। फिर भी, यह मूल्य और पहचान की प्रकृति के बारे में भी सवाल उठाता है: वास्तव में विरासत को क्या परिभाषित करता है? क्या यह किसी के बच्चों का लिंग है या वे मूल्य जो वे आगे ले जाते हैं?
जब हम अपने 40 के दशक के मध्य में होते हैं, तो हमारे माता-पिता सहित हमारे अधिकांश करीबी रिश्तेदार 75 वर्ष की आयु के होते हैं। उन झुर्रियों वाले चेहरों को अलविदा कहने से ज़्यादा दर्दनाक कुछ नहीं है। जब हम वापस लौटते हैं तो उन्हें देखने की संभावना हमारे दिमाग में बनी रहती है। ऐसा लगता है कि भगवान बहुत क्रूर है। यह सब हमारे जीवन में सुलझाया जा सकता है। लेकिन ऐसा नहीं है, ऐसा कभी नहीं होगा। ऐसा क्यों नहीं होगा? इसे कौन रोकता है?
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “कहानियों से जुड़ाव…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 225 ☆कहानियों से जुड़ाव… ☆
कैसी भी घटना हो, समझाने हेतु आस पास से जुड़ी कहानियाँ ही सबसे सरल माध्यम होतीं हैं। जो कुछ हम देखते हैं उसे अपने शब्दों में ढाल कर सरलतम रूप से कहने पर बात हृदय में घर कर जाती है।
यही कारण है कि जब से बच्चा कुछ समझने लायक होता है हम उसे छोटी- छोटी प्रेरक कहानियों के द्वारा शिक्षा देते हैं। इसके अतिरिक्त जो कुछ भी वे आसपास देखते हैं उसे अवलोकन के द्वारा सीख कर आपको वापस लौटाते हैं।
अतः आप बच्चों में जो संस्कार देखना चाहते वो पहले आपको पालन करना होगा तभी उनसे ये उम्मीद की जा सकेगी कि वो भी रिश्तों के महत्व को समझें और जीवन रूपी किताब के पन्ने न बिखरने दें।
समय- समय पर हम महान व्यक्तियों की जयंती मनाते हैं इस अवसर पर उनके गुणों पर प्रकाश डालना, जीवनचर्या, समाज को उनका योगदान इन पहलुओं पर चर्चा आयोजित करते हैं।
अपने कार्यस्थल पर ऐसे फ़ोटो रखना, डायरी में उनके चित्र और तो और अपने बच्चों के नाम भी उनके ही नाम पर रखकर हम वही गुण उनमें देखना चाहते हैं। ये तो सर्वथा सत्य है कि हम जो देखते हैं सोचते हैं वैसे ही अनयास बनते चले जाते हैं, हमारा मनोमस्तिष्क उसे ग्रहण कर लेता है और उसे ही आदर्श बना कर श्रेष्ठता की ओर बढ़ चलता है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक अप्रतिम आलेख – “ऐप्स की दुनिया… ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 323 ☆
आलेख – ऐप्स की दुनिया… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
हमारे जीवन को आसान, सुविधाजनक और मनोरंजक बनाती , हर मोबाईल की सर्वाधिक जरूरत है ऐप्स की दुनिया। आप सोचिए भर और सर्च कीजिए , आपकी आवश्यकता का कोई ना कोई ऐप सुलभ होगा। नहीं हो तो भी सरलता से डेवलप किया जा सकता है। ऐप्स की दुनिया हमें विभिन्न प्रकार के ऐप्स प्रदान करती है जो हमारी विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
सोशल मीडिया ऐप्स हमें अपने दोस्तों और परिवार, समाज के साथ जुड़ने की अवसर देते हैं। आज हम सब फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और व्हाट्सएप जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपने प्रियजनों के साथ जुड़ सकते हैं। गेमिंग ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें मनोरंजन प्रदान करते हैं। पबजी, क्लैश ऑफ क्लैन्स, कैंडी क्रश और फॉर्टनाइट जैसे ऐप्स का उपयोग करके हम अपने खाली समय को मनोरंजक बना सकते हैं।
ऐप्स की दुनिया में हमें शिक्षा और ज्ञान के ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें विभिन्न विषयों में जानकारी प्रदान करते हैं। हम डुओलिंगो, कोर्सेरा, एडएक्स अकादमी जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपने विषय ज्ञान को और बढ़ा सकते हैं।
ऐप्स की दुनिया में हमें स्वास्थ्य और फिटनेस के ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें स्वस्थ और फिट रहने में मदद करते हैं। हम मायफिटनेसपैल, हेडस्पेस, कैलम और नाइके ट्रेनिंग क्लब जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपने स्वास्थ्य और फिटनेस को बेहतर बना सकते हैं।
ऐप्स की दुनिया में हमें वित्तीय ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें अपने वित्त को प्रबंधित करने में मदद करते हैं। हम पेटीएम, गूगल पे, फोनपे, और ज़िप जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपने वित्त को प्रबंधित कर सकते हैं।
इसके अलावा, ऐप्स की दुनिया में हमें यात्रा ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें यात्रा करने में मदद करते हैं। हम गूगल मैप्स, उबर, ओला, और मेकमायट्रिप जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपनी यात्रा को आसान बना सकते हैं।
ऐप्स की दुनिया में हमें खाना ऑर्डर करने के लिए ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें अपने पसंदीदा खाने को घर पर मंगाने में मदद करते हैं। हम जोमाटो, स्विगी, फूडपांडा, और उबर ईट्स जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपने पसंदीदा खाने को घर पर मंगा सकते हैं।
ऐप्स की दुनिया में हमें मनोरंजन के लिए ऐप्स भी मिलते हैं जो हमें विभिन्न प्रकार के मनोरंजन प्रदान करते हैं। हम नेटफ्लिक्स, अमेज़न प्राइम वीडियो, हॉटस्टार, और यूट्यूब जैसे ऐप्स का उपयोग करके अपने पसंदीदा टीवी शो और मूवीज़ देख सकते हैं।
इस प्रकार, ऐप्स की दुनिया हमें विभिन्न प्रकार के ऐप्स प्रदान करती है जो हमारे जीवन को आसान, सुविधाजनक और मनोरंजक बनाता है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बड़े दिन का दर्द…“।)
अभी अभी # 561 ⇒ बड़े दिन का दर्द… श्री प्रदीप शर्मा
अभी जाड़े का वर्ष का सबसे छोटा दिन गुज़र गया। बड़ा दिन भी करीब है। लेकिन मेरा दिल बहुत छोटा होता जा रहा है। न जाने क्यों हम छोटे दिनों को बड़ा दिन कहते हैं। छोटे दिल वाले होते हुए भी बड़े दिल वाला होने का नाटक करते हैं।
दिन का लंबा होना और छोटा होना तो समझा जा सकता है ! गर्मी में दिन बड़े और रातें छोटी होती हैं और सर्दियों में दिन छोटे और रातें बड़ी हुआ करती हैं। लेकिन इंसान का दिल एक ही शक्ल का होता है, न बड़ा न छोटा। फिर भी किसी को बड़े दिल वाला और किसी को तंग दिल इंसान भी कहा जाता है।।
दिल पर या तो शायरी होती है या फिर डॉक्टर की रिसर्च ! दिन भर बहस हो सकती है, लेकिन दिन पर हम बातें कम ही करते हैं। दिल पर दिन भर बातें हो सकती हैं, लेकिन दिन पर हमने कभी दिल भर के बातें शायद ही कभी की हों।
दिल का दर्द रात को भी उठ सकता है। दिन के दर्द पर शायद ही किसी ने रात भर चर्चा की हो। सभी जानते हैं दिल की ही तरह, दिन भी सिर्फ बड़ा-छोटा ही नहीं, अच्छा-बुरा होता है। कहने वाले तो यहाँ तक कह गए, कि दिन बुरे होते हैं, हालात बुरे होते हैं, आदमी तो बुरा नहीं होता।।
आप मानें या न मानें ! खुश हों, या न हों। बड़ा दिन तो आकर ही रहेगा। आपके दिन अच्छे चल रहे हों, या बुरे। दिल में आपके उत्साह, उमंग हो, या न हो। आप दिन को बड़ा मानते हों या न हों। 25 दिसंबर तो बड़ा दिन है, और बड़ा ही रहेगा। कल ही किसी ने मुझे marry Christmas कह दिया। अंग्रेज़ी में marry और merry बहुत कंफ्यूज करते हैं। मैंने फिर भी उन्हें धन्यवाद दे दिया।
एक हफ्ते बड़े दिनों की छुट्टी रहती है। महानगर की होटलें और मॉल्स दिन रात जगमगाएँगे। लोग हँसेंगे, नाचेंगे, खुशियाँ मनाएंगे। जो बड़े दिन को अपना दिन नहीं मानते, वे दिल मसोसकर रह जाएँगे। सबकी खुशी में जो खुश रहना सीख लेते हैं, जिनका दिल उदार है, बड़ा है, वे ही बड़ा दिन मनाएंगे।।
मैं भी अपने दिल के दर्द को छुपाकर, बड़े दिल वाला बनकर, बड़े दिन का स्वागत करूँगा। Merry x-mas ! सबको बड़ा दिन, दिल से मुबारक …!!!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कृष्ण-सुदामा…“।)
अभी अभी # 560 ⇒ कृष्ण-सुदामा श्री प्रदीप शर्मा
जब भी आदर्श मित्रता की बात होगी, कृष्ण सुदामा का जिक्र अवश्य होगा।
कलयुग में आप इसे मित्रता की पराकाष्ठा कह सकते हैं। जिस तरह राधा कृष्ण का प्रेम अलौकिक था, उसी तरह यह मित्रता भी अलौकिक ही थी। जब राधा कृष्ण एक ही थे, तो कृष्ण सुदामा दो कैसे हो सकते हैं।
एक जिस्म दो जान एक कहावत बनकर रह गया है, और जिसे आजकल जुमले की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा है। दोस्ती कितनी भी पक्की हो, नि:स्वार्थ हो, दोनों मित्र एक दूसरे पर जान छिड़कते हों, सुख दुख में काम आते हों, लेकिन उनकी तुलना कृष्ण सुदामा से नहीं की जा सकती।।
A friend in need
is a friend in deed.
कृष्ण सुदामा बचपन के मित्र थे, सादीपनी आश्रम में साथ साथ पढ़े थे। कुछ उनकी ऐसी घटनाएं भी थीं, जहां सुदामा ने कथित रूप से अपने बाल सखा के हिस्से का भाग चोरी से स्वयं खा लिया था, जिसके फलस्वरूप उसे घोर आर्थिक अभाव और कष्ट में पूरा जीवन गुजारना पड़ा और अंत में मित्र कन्हैया ने ही उनका बेड़ा पार लगाया, जब द्वारका नगरी में उनका पुनर्मिलन हुआ।
कृष्ण लीला और अन्य कथाओं में भी सुदामा को अत्यंत दीन हीन, फटे हाल और कृशकाय दर्शाया गया है। बी आर चोपड़ा की महाभारत में भी सुदामा को एक गरीब ब्राह्मण ही बताया गया है। पर प्रश्न उठता है कि सुदामा क्या सिर्फ अपने मित्र कृष्ण के सखा थे। क्या उनकी श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति और समर्पण मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु राम के भाई भरत से कम थी।।
जिन लोगों ने सुदामा चरित्र पढ़ा है, वे जानते हैं सुदामा का चरित्र चित्रण कथाओं में कभी श्रीकृष्ण के एक अनन्य भक्त के रूप में नहीं किया गया। कृष्ण सुदामा में सांसारिक मित्रता का आपस में कोई भाव नहीं था। सुदामा तो शबरी की भांति ही श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। कन्हैया कृष्ण अगर निष्ठुर थे, तो भक्त सुदामा भी कम नहीं थे। जो कृष्ण कभी वापस गोकुल और मथुरा नहीं लौटे, उनसे सुदामा ने कभी आशा ही नहीं की थी, कि वे कभी जीवन में अपने मित्र की सुध लेंगे।
लेकिन मित्र सुदामा को कहां अपनी सुध थी। भक्त विभक्त नहीं होता, अनासक्त होता है। यह भी श्रीकृष्ण की ही लीला थी कि उन्होंने अपने मित्र सुदामा की पत्नी को प्रेरणा दी और उन्हें द्वारका मुट्ठी भर चावल के साथ आने के लिए प्रेरित किया।
उसके आगे तो सब कृष्ण की ही लीला है जिसे हम गलती से मित्रता की पराकाष्ठा मान बैठे हैं।
कृष्ण सुदामा कभी दो थे ही नहीं, एक ही थे। भक्त कभी अपने भगवान से अलग हो ही नहीं सकता।।
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
आज प्रस्तुत है आपका एक शोधपरक आलेख “क्या है व्यंग्य? – हास्य और व्यंग्य में जुड़ाव व अंतर -”।)
☆ आलेख ☆ “क्या है व्यंग्य? – हास्य और व्यंग्य में जुड़ाव व अंतर -” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
प्रेम – सौंदर्य और अद्भुत कल्पनाओं के सुख – सागर से दूर व्यंग्य में कड़वे सच के दर्शन होते हैं। सामान्य व्यक्ति सामाजिक विसंगतियों, पाखंड और भ्रष्टाचार आदि से पीड़ित है, किंतु कुछ कर नहीं पाता अतः जब कोई इन मुद्दों को विषय बनाकर निडरता पूर्वक अपनी लेखनी से उन पर प्रहार करता है तो लोगों को उसमें अपनी बात नजर आती है। लोग व्यंग्यकार और उसकी रचना से ठीक उसी तरह जुड़ जाते हैं जिस तरह अन्याय के विरुद्ध लड़ते किसी फिल्म के हीरो से। यही कारण है कि व्यंग्य लेखन अन्य विधाओं की तुलना में अधिक लोकप्रिय हो रहा है।
व्यंग्य – चिंतकों द्वारा आजकल व्यंग्य पर तरह – तरह के विमर्श किए जा रहे हैं। व्यंग्य के जन्म और विकास की लम्बी पड़ताल की जा रही है। व्यंग्य दुनिया में कैसे आया? व्यंग्य कहाँ से पैदा होता है ? व्यंग्य का मुख्य स्त्रोत क्या है ? व्यंग्य का वो कौन सा तत्व है जिसके बिना रचना सब कुछ हो सकती है लेकिन व्यंग्य रचना नहीं बन सकती। कथित विद्वानों द्वारा इन प्रश्नों के न मानने योग्य हास्यास्पद जवाब भी दिए जा रहे हैं।
मेरे अनुसार तो व्यंग्य भेदभाव, विसंगतियों, असफलता, अपमान, ईर्ष्या, निराशा आदि की पृष्ठभूमि में जन्मता और पनपता है। इसे तत्व के बजाय यौगिक अथवा मिश्रण कहना अधिक उचित जान पड़ता है। यहाँ यह भी बताना आवश्यक है कि सामान्य शब्द अथवा वाक्य जिसमें कहीं कोई व्यंग्य नहीं है केवल उच्चारण के प्रस्तुतीकरण से अलग-अलग अर्थ प्रकट करता है।
नारद मुनि मात्र ‘नारायण-नारायण’ भी भिन्न-भिन्न तरह से बोलते दिखाए जाते हैं। कभी उनके ‘नारायण-नारायण’ कहने में अपने इष्ट के प्रति भक्ति प्रकट होता है, कभी श्रद्धा, कभी प्रश्न, कभी शंका तो कभी व्यंग्य। अतः व्यंग्य लिखा जाता है, पढ़ा जाता है, किन्तु व्यंग्य केवल कागज पर सवार शब्दों की नाव नहीं है अपितु शब्दों के प्रकटीकरण का तरीका भी व्यंग्य को जन्म दे देता है। जिस तरह परिस्थितिवश मनुष्य में प्रेम, दया, करुणा, भय और क्रोध के भाव पैदा होते हैं, उसी तरह व्यंग्य भी जन्म लेता और प्रकट होता है अतः व्यंग्य को मनोभाव भी कहा जा सकता है। व्यंग्य शब्दों के साथ ही वाणी, हावभाव और सिर्फ नजरों से भी व्यक्त किया जा सकता है।
साहित्य में व्यंग्य का विकास हास्य से मानने वालों का कथन मानव विकास के “डार्विन सिद्धांत” जैसा ही अमान्य हो चुका हास्यास्पद सिद्धांत लगता है। हास्य को व्यंग्य का जन्मदाता कदापि नहीं कहा जा सकता। हास्य और व्यंग्य जुड़वा हो सकते हैं, किन्तु पृथक-पृथक हैं। इनके प्रभाव भी अलग-अलग हैं। हास्य सभी को आनंद की अनुभूति कराता है, प्रसन्नचित्त कर देता है जबकि व्यंग्य सबको आनंद की अनुभूति नहीं कराता। इससे यदि कुछ लोग प्रसन्न होते हैं तो अनेक लोग आहत, अपमानित, क्रोधित और दुखी भी होते हैं। कुछ कथित बुद्धिजीवी कहते हैं कि हिन्दी साहित्य का विकास अभी भी बाकी है। व्यंग्य, साहित्य के मुकाबले अल्पायु वाला है। यहाँ यही कहा जा सकता है कि विकास एक निरंतर होने वाली प्रक्रिया है, इसे कभी भी पूर्ण नहीं कहा जा सकता। जहाँ तक व्यंग्य की बात है तो वह सदा से है, यह बात अलग है कि पहले यह खरपतवार की भांति उपेक्षित रहा।
हरिशंकर परसाई जी ने लिखा है कि – ‘‘व्यंग्य जीवन की आलोचना है। वे व्यंग्य को विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखंड का पर्दाफाश करने वाला मानते हैं। व्यंग्य एक गंभीर चीज है। हंसने-हंसाने की चीज नहीं। व्यंग्य निष्पक्ष ईमानदारी के बिना पैदा नहीं हो सकता और यह ईमानदारी अपने युग के प्रति, जीवन मूल्यों के प्रति होनी चाहिये।”
यदि व्यंग्य की इस “परसाई परिभाषा” को मान लिया जाए तो व्यंग्य मात्र निंदा बनकर रह जाएगा। समाचार लेखन में अथवा व्यंग्यकार के लेखन में बहुत ज्यादा फर्क नहीं रह जाएगा। निःसंदेह परसाई जी की ऊपर लिखी बातें मानी जा सकती हैं, किन्तु यह भी सच है कि व्यंग्यकार का नजरिया पत्रकार से अलग होता है। पत्रकार विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्ड का पूरी गंभीरता और ईमानदारी से सीधा-सीधा पर्दाफाश करता है, जबकि व्यंग्यकार उसकी निंदा करता है। तथ्यों पर ईमानदार रहते हुए उसकी खिल्ली उड़ाने से भी नहीं चूकता।
समय, काल, समाज को बदलता है, समाज नजरिये को और नजरिया लेखन को। संभवतः हम दोहा, चौपाई की भांति व्यंग्य की घेराबंदी नहीं कर सकते। न ही उसे किसी सरगम में कसा जा सकता है। वह नजरिये को तीखी धार से प्रस्तुत करती स्वंतत्र अभिव्यक्ति है।