डाॅ. मीना श्रीवास्तव
☆ आलेख ☆ ‘होलिकोत्सव का बदलता रंगरूप’ – ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆
नमस्कार प्रिय पाठकगण !
आप सबको होली की रंगबिरंगी शुभ कामनाएँ!
टीवी पर ‘आज गोकुळात रंग खेळतो हरी, राधिके जरा जपून जा तुझ्या घरी’ (आज गोकुल में हरी होरी खेल रहे हैं, राधे, थोड़ा सम्हाल कर अपने घर जइयो!) या ‘होली आई रे कन्हाई, रंग छलके सुना दे जरा बांसुरी’ जैसे कर्णमधुर गाने देखकर एहसास होता है कि, रंगपंचमी बहुत पहले शुरू हो गई थी। गुलाबी और केसरिया रंग के सुगंधित जल में रंगे कृष्ण, राधा और गोपियों के सप्तरंगी होलिकोत्सव के वर्णन से हम भली भाँति परिचित हैं। राधा और गोपियों के साथ कृष्ण की प्रेम से सरोबार रंगलीला को ब्रजभूमि में ‘फाग लीला’ के नाम से जाना जाता है। ब्रज भाषा के प्रसिद्ध कवि रसखान ने कृष्ण द्वारा राधा और गोपियों के संग खेले गए रंगोत्सव का अत्यंत रसीले काव्य प्रकार (सवैयों) में ‘फाग’ (फाल्गुन माह की होली) में वर्णन किया है। उदाहरण के तौर पर दो सवैयों का वर्णन देखिये|
रसखान कहते हैं-
खेलिये फाग निसंक व्है आज मयंकमुखी कहै भाग हमारौ।
तेहु गुलाल छुओ कर में पिचकारिन मैं रंग हिय मंह डारौ।
भावे सुमोहि करो रसखानजू पांव परौ जनि घूंघट टारौ।
वीर की सौंह हो देखि हौ कैसे अबीर तो आंख बचाय के डारो।
(अर्थ: चन्द्रमुखी सी ब्रजवनिता कृष्ण से कहती है, “निश्शंक होकर आज इस फाग को खेलो। तुम्हारे साथ फाग खेल कर हमारे भाग जाग गये हैं। गुलाल लेकर मुझे रंग दो, हाथ में पिचकारी लेकर मेरा मन रंग डालो, वह सब करो जिसमें तुम्हारा सुख निहित हो। लेकिन तुम्हारे पैर पडती हूं, यह घूंघट तो मत हटाओ और तुम्हें कसम है, ये अबीर तो आंख बचा कर डालो अन्यथा, तुम्हारी सुन्दर छवि देखने से मैं वंचित रह जाऊंगी!”)
रसखान कहते हैं-
खेलतु फाग लख्यी पिय प्यारी को ता सुख की उपमा किहिं दीजै।
देखत ही बनि आवै भलै रसखान कहा है जो वारि न कीजै॥
ज्यौं ज्यौं छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजै।
त्यौं त्यौं छबीलो छकै छवि छाक सो हेरै हँसे न टरै खरौ भीजै॥
(अर्थ: एक गोपी अपनी सखी से फाग लीला का वर्णन करती हुई कहती है, “हे सखि! मैंने कृष्ण और उनकी प्यारी राधा को फाग खेलते हुए देखा। उस समय की जो शोभा थी, उसे किस प्रकार उपमा दी जा सकती है! उस समय की शोभा तो देखते ही बनती है और कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो उस शोभा पर न्यौछावर न की जा सके। ज्यों-ज्यों वह सुंदरी राधा चुनौती देकर एक के बाद दूसरी पिचकारी कृष्ण के ऊपर चलाती है, त्यों-त्यों वे उसके रूप के नशे में मस्त होते जाते हैं। राधारानी की पिचकारी को देखकर वे हँसते तो हैं, पर वहाँ से भागते नहीं और खड़े-खड़े भीगते रहते हैं|”)
फागुन के इस महीने में पलाश के पेड़ों पर फूलों की बहार छाई रहती है| ऐसा प्रतीत होता है मानों पलाश वृक्ष केसरिया अग्निपुष्पों का वस्त्र पहने हों| (सुंदर प्राकृतिक नारंगी रंग बनाने के लिए इन्हीं फूलों को पानी में भिगोया जाता है)। होली मथुरा, गोकुल और वृन्दावन का विशेष आकर्षण है जो गुलाल और अन्य प्राकृतिक रंगों से खेली जाती है| यहीं फ़ाग इस दिव्य और पवित्र परंपरा को कायम रखे हुए है। वहाँ यह त्योहार अलग-अलग दिनों में सार्वजनिक रूप से गलियारों और चौक पर खेला जाता है, इसलिए यह होली फाल्गुन पूर्णिमा से एक महीने या पंद्रह दिन पहले ही शुरू हो जाती है।
मथुरा के निकट एक मेडिकल कॉलेज में नौकरी करने का मेरा अनुभव अविस्मरणीय था। फ़ाग का उत्सव जोरों पर था ही, लेकिन चूँकि होलिकादहन के दूसरे दिन कॉलेज में छुट्टी थी, इसलिए होली पूर्णिमा की सुबह ही कॉलेज के सभी गलियारे गुलाल से रंग गये। दोपहर १२ बजे कॉलेज में ऐसी जबरदस्त होरी खेलकर पूरा स्टाफ नौ दो ग्यारह हो गया| इस होली पूर्णिमा पर ही अग्रिम ‘फ़ाग’ के बाद अगले दिन संबंधित इलाकों में सार्वजनिक फ़ाग तो मनाया जाना आवश्यक ही था! हालाँकि, मुझे बरसाना (राधा का पैतृक गाँव) की लट्ठमार होली देखने का पूर्ण अवसर प्राप्त था, परन्तु मैंने वह अवसर खो दिया, इसका मुझे मलाल जरूर है| लट्ठमार होली का यह अद्भुत आकर्षक दृश्य बरसाना की खासियत है| मथुरा, गोकुल, वृन्दावन के और स्थानीय पुरुषों को बरसाना की महिलाओं की लाठियों का प्रतिकार करते हुए देखने में बहुत मज़ा आता है| वैसे भी उस क्षेत्र में राधारानी के प्रति अगाध भक्ति देखने को मिलती है। अक्सर वहाँ के लोग एक-दूसरे का अभिवादन करते समय ‘राधे-राधे’ कहते हैं।
हमारे बचपन में हर घर में बड़ा आंगन होता था और घर-घर होली जलती थी। होली के लिए पुरानी लकड़ियाँ, पुराने पेड़ों की सूखी शाखाएँ, जीर्ण-शीर्ण लकड़ी के सामान आदि एकत्रित किए जाते थे। गोबर इकट्ठा करते हुए उसे छोटे-छोटे उपलों में थापकर प्रत्येक उपले के बीच में एक छेद कर दिया जाता था| उनमें मोटे धागे से गूंदकर मालाएँ बनी जातीं और होली को अर्पण कीं जातीं थीं| अब ऐसी मालाएँ खरीदी जा सकती हैं। इस होलिकोत्सव की प्रसिद्ध कहानी यह है कि, हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को मिले वरदान के कारण आग से भय नहीं था। इस कारण वह हिरण्यकश्यप के पुत्र यानि, विष्णु-भक्त प्रह्लाद को मारने के लिए उसे अपनी गोद में लेकर जलते हुए अग्निकुंड में बैठ गई। लेकिन वास्तविक विष्णु की कृपा के कारण, प्रह्लाद बच गया और होलिका राक्षसी जलकर मर गई। इसके प्रतीक स्वरूप प्रत्येक फाल्गुन पूर्णिमा को अग्नि जलाकर अपने घर और समाज में फैली बुरी चीजों को जलाने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन स्वस्थ वृक्षों को मारकर और वनों की कटाई द्वारा लकड़ियाँ इकट्ठा करके होली जलाना उचित नहीं है। पेड़ों का विनाश यानि पर्यावरण को नुकसान पहुँचाना! है। पहले से ही पेड़ों की अन्दाधुन्द कटाई के कारण प्रदूषित पर्यावरण की समस्या गंभीर होती जा रही है। ऐसे में इस प्रकार होली जलाने के लिए पेड़ों को नुकसान पहुँचाना अनुचित है। आजकल हर बड़े परिसर में होली जलाई जाती है| मेरा मानना है कि, इसके बजाय दो-तीन या आस-पास के परिसर के लोगों को एक साथ आकर एक छोटी सी प्रतीकात्मक होली जलाकर इस त्योहार को मनाना चाहिए।
रंगोत्सव से जुड़ी मेरी बचपन की सबसे प्यारी यादें पानी से जुड़ी हुई हैं। नागपुर में हमारे माता-पिता के घर के सामने बहुत बडा आँगन हुआ करता था| उसमें एक बहुत बड़ी कड़ाही थी| इतनी बड़ी कि, लगभग 3 साल के बच्चे के खड़े होने के लिए वह पर्याप्त थी। उसका उपयोग हमारे १०० से भी अधिक पेड़ों को पानी देने के लिए किया जाता था। यह मेरा पसंदीदा कार्य था| कढ़ाई में पानी भरने के लिए एक नल था और उससे जुडे लंबेसे पाइप से पेड़ों को पानी देना, खासकर गर्मियों में, मेरे लिए ‘अति शीतल’ कार्य होता था। लेकिन रंगीली होरी के दिन उसी पानी में रंग मिलाकर एक-दूसरे को पानी में अच्छी तरह डुबकियाँ लगवाना हमारी पसंदीदा मनोरंजक क्रीड़ा होती थी| ऐसी सीमेंट की टंकी हर किसी के घर में होती थी, उनमें बारी-बारी से स्नान करना और जो भी, जहाँ भी मिल जाए उसे बेझिझक खाकर होरी का जश्न मनाया जाता था।
कराड, कोल्हापुर और सांगली से लगभग ४० किमी दूर इस्लामपुर में २०१६ को नौकरी के सिलसिले में मेरा जाना हुआ। वहाँ रंगोत्सव यानि होली का दूसरा दिन अन्य दिनों की तरह बिल्कुल सामान्य नजर आ रहा था। मैं समझ नहीं पा रही थी, ‘ये क्या हो रहा है?’ पूछ ताछ करने के उपरांत मालूम हुआ कि, यहां ‘रंगपंचमी’ मनाई जाती है (होली पूर्णिमा के बाद का पाँचवा दिन)! लेकिन मैंने यह बात पहली बार सुनी और देखी| छुट्टी मिले या न मिले, यहाँ रंगपंचमी के दिन हर कोई छुट्टी लेता ही है। हमारे मेडिकल कॉलेज के छात्र और छात्राएं भारत के विविध भागों से होने के कारण उन्होंने अपनी डबल व्यवस्था कर ली, मतलब, लगे हाथों होली के दूसरे दिन और पाँचवे दिन ऐसे दोनों दिन मस्ती!
अब रंगोत्सव बड़े-बड़े आवासीय परिसरों में मनाया जाता है। यह सच है कि, जश्न की ख़ुशी में सराबोर होने का कोई निर्धारित मूल्य नहीं| संभवतः पृष्ठभूमि में बजते डिस्को गाने और उस पर एक साथ तल्लीन होकर नाचते सभी उम्र के लोग, यह होरी का अभिन्न अंग बन गया है! इसके अलावा कहीं कहीं (पानी की उपलब्धि कम होने पर भी) कृत्रिम फव्वारों की और उनमें भीगने की व्यवस्था की जाती है| इस प्रकार पानी की बर्बादी वाकई परेशान करने वाली है| इसके साथ ही रंगोत्सव में माँस -मदिरा की पार्टियाँ भी होती हैं। वास्तविक इस त्यौहार की मूल संकल्पना एक-दूसरे के रंग में रंगकर एकात्मकता को वृद्धिंगत करने की है। लेकिन जब इसका विकृत रूप सामने आता है तो क्लेश होता है| त्वचा पर बुरा प्रभाव डालते वाले और जो लगातार धोने पर भी नहीं धुलते, ऐसे केमिकल युक्त भड़कीले रंग, साथ ही कीचड़ में खेलना, अनाप-शनाप बातें, स्त्रियों के साथ छेड़छाड़, अश्लील गालियाँ देना, शराब के नशे में धुत होकर झगड़ा फसाद करना, एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू हो जाना, कभी-कभी तो चाकू से वार करना और हत्या तक कर देना, इस हद तक अपराध होते हैं| इस दिन माहौल ऐसा होता है कि, कुछ जगहों पर महिलाएं घर से बाहर निकलने से भी डरती हैं। होली का यह अकथनीय और बीभत्स रूप हमारी संस्कृति के विरूद्ध है। उपरोक्त सभी असामाजिक गतिविधियाँ बंद होनीं चाहिए| पुलिस अपना कर्तव्य निभाएगी ही, परन्तु सामाजिक चेतना नाम की कोई चीज़ तो है ना! हमें अपना त्योहार मनाते समय यह स्मरण रहे कि, कहीं हम दूसरों की खुशी को जलाकर राख़ तो नहीं कर रहे हैं!
मेरे प्रिय स्वजनों, होली सामाजिक एकता का प्रतीक है, इसलिए राष्ट्रीय एकता के प्रतीक होलिकोत्सव को सुंदर पर्यावरण-अनुकूल सूखे रंगों की विविधता के साथ, पेड़ों को काटे बिना और नशे में लिप्त हुए बिना ख़ुशी ख़ुशी मनाना चाहिये, ऐसा मुझे प्रतीत होता है| आपका क्या विचार है?
टिप्पणी – होली के दो गाने शेअर कर रही हूँ| (लिंक के न खुलनेपर कृपया ऊपर दिए हुए शब्द डालकर YouTube पर खोजें|)
गीत – ‘नको रे कृष्ण रंग फेकू चुनडी भिजते’ गीतप्रकार-हे शामसुंदर (गवळण) गायिका- सुशीला टेंबे, गीत– संगीत-जी एन पुरोहित
‘होली आई रे कन्हाई’- फिल्म- मदर इंडिया (१९५७) गायिका- शमशाद बेगम, गीत- शकील बदायुनी, संगीत-नौशाद अली
© डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे
मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈