(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ये मत किसको दूं…“।)
अभी अभी # 312 ⇒ ये मत किसको दूं… श्री प्रदीप शर्मा
चुनाव और परीक्षा का मौसम अक्सर साथ साथ ही आता है। बच्चे परीक्षा में पेपर देते हैं, हम चुनाव में मत देते हैं। परीक्षा में उत्तीर्ण होने से बच्चों का भविष्य बनता है, हमारे मतदान से देश का भविष्य संवरता है। जितनी आवश्यक एक बच्चे के लिए परीक्षा है, उतना ही जरूरी एक आम मतदाता के लिए मतदान है।
जितना बच्चों का भविष्य कीमती है उतना ही कीमती हमारा मत भी है।
एक मत की कीमत आंकना इतना आसान भी नहीं। मत की संख्या से ही कहीं अल्पमत है, तो कहीं बहुमत। वैसे भी मत से मतलब केवल चुनाव तक ही रहता है, मतलब निकल गया है, तो पहचानते नहीं।।
कहते हैं, मतदान सोच समझकर, योग्य उम्मीदवार को ही नहीं, पार्टी को देखकर भी देना चाहिए। एक समय वह भी था जब हम वोट नहीं देते थे मोहर लगाते थे। तब हमारे वोट की कीमत वैसे भी किसी मोहर से कम नहीं होती थी। अब हम मोहर से बटन पर आ गए हैं। उंगली कटाकर नहीं, उंगली रंगाकर अब हम देश का भविष्य लिखने लगे हैं।
देश अगर मजबूत है, तो उसे और मजबूत बनाना है, जो सरकार मजबूत है, उसे और मजबूत बनाना है। अगर आप नहीं बनाएंगे तो आपके चुने हुए प्रतिनिधि बनाएंगे। पहले आपको सब्जबाग दिखाएंगे, महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाएंगे, और मौका मिलते ही, बहती गंगा में हाथ धो आएंगे ;
आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् |
सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ||.
अब आपको लोकतंत्र की इतनी चिंता भी नहीं करनी चाहिए, हां मतदान आपका अधिकार है, उसका उपयोग अवश्य करना चाहिए। आप किसी भी व्यक्ति, किसी भी पार्टी को वोट दें, बूंद को सागर में ही मिलना है। सब राममय है, अस्सी करोड़ झोपड़ियों के भाग्य तो खुल ही गए हैं, और सन् 2028 तक की गारंटी है। अब चुनाव में वादे नहीं किए जाते, गारंटी दी जाती है। अब राम आ गए हैं, अब राम आ गए हैं।।
सिया राम मय जग जानी..
आप मतदाता होकर मतदान कर रहे हो, दाता होकर, दान कर रहे हो, यानी उल्टी गंगा बहा रहे हो।
उम्मीदवार याचक बन भीख मांग रहा है, आपका मतदान ही उसके लिए वरदान है, कुछ पल के लिए ही सही, आप सर्व शक्तिमान हो।
दरियादिल बनें, मतभेदों को भूल अपने दिल की बात सुनें, दिमाग का उपयोग कम करें। मत ज्यादा सोच विचार करें, व्यवस्था से सहमत हों अथवा असहमत, मतदान अवश्य करें, लोकतंत्र को महा मजबूत करें।।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “न ख रे…“।)
अभी अभी # 311 ⇒ न ख रे… श्री प्रदीप शर्मा
न खरे होते हैं, न खोटे होते हैं, नखरे, सिर्फ नखरे होते हैं। नखरों पर किसी का कॉपीराइट नहीं, बालिग, नाबालिग, स्त्री – पुरुष, बड़े- बूढ़े, समझदार – सयाने, स्वदेशी – विदेशी तो ठीक, यहां तक कि संत महात्मा भी नखरों में किसी से पीछे नहीं रहते। लेकिन न जाने क्यूं, नखरे महिलाओं, रूपसी स्त्रियों, और नाजुक सुंदरियों को ही शोभा देते हैं।
पुरुष तो सिर्फ भाव खा सकता है, नखरे तो स्त्रियों को ही शोभा देते हैं। हमें नहीं, ज़रा शैलेंद्र जी और किशोर कुमार जी का नया अंदाज़ देखिए, और हमें माफ़ कीजिए ;
नखरे वाली, नखरे वाली
देखने में देख लो है कैसी भोली भाली।
अजनबी ये छोरियां
दिल पे डालें डोरियां
मन की काली …
शहर की आधुनिक नारियों को छोड़िए, आइए गांव चलें। गोरी चलो न हंस की चाल, ज़माना दुश्मन है, तेरी उमर है सोलह साल, जमाना दुश्मन है।
क्या पुरुषों के शब्दकोश में ऐसे शब्द पाये जाते हैं ;
– उई मां उई मां, ये क्या हो गया !
उनकी गली में दिल खो गया ….
या फिर ;
दैया रे दैया, लाज मोहे लागे, पायल मोरी बाजे।।
अब बेचारा पुरुष इतनी नज़ाकत और मासूमियत कहां से लेकर आए। जिसका काज उसी को साजे। नखरे करना, हमारे बस का नहीं। हम तो खोटे ही भले।।
हमारे स्कूल में एक बिड़वई सर थे, वे जब हमारी ओर पीठ करके ब्लैक बोर्ड पर कुछ लिखते थे, तो उन्हें दोनों पांवों पर खड़े रहने में कुछ परेशानी होती थी, अतः उनका आधा भार एक नितंब को वहन करना पड़ता था। जब थक जाते, तब दूसरे नितंब की सेवाएं ली जाती। चलते वक्त भी पीछे से उनकी मटकती चाल हमारे लिए किसी मतवाली चाल से कम नहीं थी। उनकी अनुपस्थिति में लड़के लोग, क्लास में उनकी चाल की नकल निकाला करते थे। रुस्तम की चाल तो हमने नहीं देखी, लेकिन बिड़वई सर की चाल आज तक याद है।
नखरे कौन नहीं करता ! खाने पीने के नखरे, पहनने के नखरे, पसंद नापसंद, नखरे का ही दूसरा रूप है। लेकिन हमारे जैसे वैराग्य शतक वाले श्रृंगार शतक के बारे में क्या जानें। आईने के सामने खड़े हुए, शेव की, और चलते बने। होठों पर कभी लिपस्टिक और उंगलियों में नेल पॉलिश कभी लगाई हो, कानों में कभी झुमका पहना हो, तो नखरे दिखाएं। जब घर से बाहर निकलते हैं तो यह भी होश नहीं रहता, पांव में चप्पल पहनी है या जूते। और वहां महिलाओं को मैचिंग का कितना खयाल रखना पड़ता है। नखरे नहीं, इंसान की मजबूरी है। हम समझ सकते हैं, दुनिया इसे नखरा कहे तो कहे।।
नारियों के नखरों के साथ अगर लाज जुड़ जाए, तो सोने में सुहागा !
लाज शब्द पुरुषों को शोभा नहीं देता। उनके लिए तो फ्रेंड्स लॉज ही काफी है। औरतों को जितना नाज़ नखरों पर है उतनी ही अपनी लाज पर भी। इसीलिए पुरुष अपनी पत्नियों के नाज नखरे खुशी खुशी उठाता है। हम तो अपनी कहते हैं, जग की नहीं !
अगर श्रीमती जी के नाज नखरे नहीं उठाए, तो वे आसमान सर पर उठा लेती हैं। चलो बुलावा आया है, सुबह सुबह एक कप गर्म चाय का प्याला बुलाया है…!!!
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख स्वास्थ्य, पैसा व संबंध… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 223 ☆
☆ स्वास्थ्य, पैसा व संबंध… ☆
आप जिस वस्तु पर आप ध्यान देना छोड़ देते हैं, नष्ट हो जाती है–चाहे वह स्वास्थ्य हो, पैसा हो या संबंध; यह तीनों आपकी तवज्जो चाहते हैं। जब तक आप उन्हें अहमियत देते हैं, आपका साथ देते हैं और जब आप उनकी ओर ध्यान देना बंद कर देते हैं, वे मुख मोड़ लेते हैं तथा अपना आशियाँ बदल लेते हैं। वे स्वार्थी हैं तथा तब तक आप के अंग-संग रहते हैं, जब तक आप उन्हें पोषित करते हैं अर्थात् उनके साथ अमूल्य समय व्यतीत करते हैं।
स्वस्थ बने रहने के लिए व्यायाम की आवश्यकता होती है और यह दो प्रकार का होता है। व्यायाम से आप शारीरिक रूप से स्वस्थ रहेंगे और सकारात्मक सोच व चिंतन-मनन से मानसिक रूप से दुरुस्त रहेंगे, जो जीवन का आधार है। वास्तव में शरीर तभी स्वस्थ रह सकता है– यदि मन स्वस्थ व जीवंत हो और उसका चिंतन सार्थक हो। दुर्बल मन असंख्य रोगों का आग़ार है। भय, चिंता आदि मानव को तनाव की स्थिति में ले जाते हैं, जो भविष्य में अवसाद की स्थिति ग्रहण कर लेते हैं। यह एक ऐसा भंवर है, जिससे बाहर आना नामुमक़िन होता है। यह एक ऐसा चक्रव्यूह है, जिसमें मानव प्रवेश तो कर सकता है, परंतु बाहर निकलना उसके वश में नहीं होता। वह आजीवन उस भूल-भुलैया में भटकता रहता है और अंत में दुनिया से अपने सपनों के महल के साथ रुख़्सत हो जाता है। इसलिए इसे मानसिक स्वास्थ्य से अधिक अहमियत प्रदान की गई है।
मन बहुत चंचल है और पलभर में तीन लोगों की यात्रा कर लौट आता है। उसे वश में रखना बहुत कठिन होता है। मन भी लक्ष्मी की भांति चंचल है, एक स्थान पर नहीं टिकता। परंतु बावरा मन अधिकाधिक धन कमाने में अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है और भूल जाता है कि यह ‘दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा।’ इतना ही नहीं, वह इस तथ्य से भी अवगत होता है कि ‘खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’ और यह भी शाश्वत् सत्य है कि तूने जो कमाया है/ दूसरा ही खायेगा।’ परंतु बावरा मन स्वयं को इस मायाजाल से मुक्त नहीं कर पाता। जब तक साँसें हैं, तब तक रिश्ता है और साँसों की लड़ी जिस समय टूट जाती है; रिश्ता भी टूट जाता है। ‘जीते जी तू माया में राम नाम को भूला/ मौत का समय आया, तो राम याद आएगा ‘–इन पंक्तियों में छिपा है जीवन का सार। जब तुम पैदा भी नहीं हुए थे, यह किसी दूसरे की संपत्ति थी और जब तुम मर जाओगे, तो भी यह किसी दूसरे की होगी। एक अंतराल के लिए यह तुम्हें प्रयोग करने के लिए मिली है। यह प्रभु की संपदा है; किसी की धरोहर नहीं। आज सुबह यह संदेश व्हाट्सएप पर सुना तो हृदय सोचने को विवश हो गया कि इंसान क्यों स्वयं को इस मायाजाल के विवर्त से मुक्त नहीं कर पाता, जबकि वह जानता है कि ‘कलयुग केवल नाम अधारा।’ पैसा तो हाथ की मैल है और वक्त में सामर्थ्य है कि वह मानव को किसी भी पल अर्श से फ़र्श पर ला सकता है। इसलिए हमें पैसे की नहीं, वक्त की अहमियत को स्वीकारना चाहिए। पैसा इंसान को अहंवादी बनाता है, संबंधों में दूरियाँ लाता है और दूसरों की अहमियत को नकारना उसकी दिनचर्या में शामिल हो जाता है। पैसा ‘हॉउ से हू’ तक लाने का कार्य करता है। जब तक इंसान के पास धन-संपदा होती है, सब उसे अहमियत देते हैं। उसके न रहने पर वह ‘हू आर यू ‘ तक पहुँच जाता है। सो! आप अनुमान लगा सकते हैं कि पैसा कितना बलवान, शक्तिशाली व प्रभावशाली है। यह पलभर में संबंधों को लील जाता है। इसके ना रहने पर सब अपने पराए हो जाते हैं तथा मुख मोड़ लेते हैं, क्योंकि पैसा सबको एक लाठी से हाँकता है। जब तक मानव के पास धन रहता है, उसके कदम धरा पर नहीं पड़ते। वह आकाश की बुलंदियों को छू लेना चाहता है तथा अपने सुख-ऐश्वर्य व खुशियाँ दूसरों से साँझा नहीं करना चाहता।
परंतु सब संबंध स्वार्थ के होते हैं, जो धनाश्रित होते हैं, परंतु आजकल तो यह अन्योन्याश्रित हैं। इंसान भूल जाता है कि यह संसार मिथ्या है; नश्वर है और पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है। इसलिए उसे माया में उलझे नहीं रहना चाहिए, बल्कि प्रभु के साथ शाश्वत् संबंध बनाए रखना ही कारग़र उपाय है। ‘सुमिरन कर ले बंदे/ यह तेरे साथ जाएगा।’ प्रभु नाम ही सत्य है और अंतकाल वही मानव के साथ जाता है।
संबंध ऐसे बनाओ कि आपके चले जाने के पश्चात् भी लोग आपका अभाव अनुभव करें और परदा गिरने के पश्चात् भी तालियाँ निरंतर बजती रहें। परंतु आजकल संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति होते हैं। नज़रें घुमाते ही वे सदैव के लिए ओझल हो जाते हैं, क्योंकि अक्सर लोग स्वार्थ साधने हेतू संबंध स्थापित करते हैं। मानव को ऐसे लोगों से दूर रहने की सलाह दी जाती है, क्योंकि वे अपने बनकर अपनों पर घात लगाते व निशाना साधते हैं।
दूसरी ओर यदि आप पौधारोपण करने के पश्चात् उसे खाद व पानी नहीं देते, तो वह मुरझा जाता है; पल्लवित-पोषित नहीं हो पाता। उसके आसपास कुकुरमुत्ते उग आते हैं, जिन्हें उखाड़ना अनिवार्य होता है, अन्यथा वे ख़रपतवार की भांति बढ़ते चले जाते हैं। एक अंतराल के पश्चात् बाड़ ही खेत को खाने लगती है। इसी प्रकार संबंधों को पोषित करने के लिए समय, देखभाल और संबंध बनाए रखने के लिए स्नेह, त्याग, समर्पण व पारस्परिक सौहार्द की दरक़ार होती है। यदि हमारे अंतर्मन में ‘मैं अर्थात् अहं’ का अभाव होता है, तो वे संबंध पनप सकते हैं, अन्यथा मुरझा जाते हैं। ‘मैं और सिर्फ़ मैं’ का भाव तिरोहित होने पर ही हम शाश्वत् संबंधों को संजोए रख सकते हैं। वहाँ अपेक्षा व उपेक्षा का भाव समाप्त हो जाता है। आत्मविश्वास व परिश्रम सफलता प्राप्ति का सोपान है। सो! स्वास्थ्य, पैसा व संबंध तीनों की एक की दरक़ार है। यदि हम समय की ओर ध्यान देते हैं, तो यह संबंध स्वतंत्र रूप से पनपते है, अन्यथा दरक़िनार कर लेते हैं। आइए! मर्यादा में रहकर सीमाओं का अतिक्रमण ना करें और उन्हें खुली हवा में स्वतंत्र रूप से पल्लवित होने दें।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “साहब, … और गुलाम …“।)
अभी अभी # 310 ⇒ साहब, … और गुलाम… श्री प्रदीप शर्मा
हमारी संस्कृति में हमेशा राजा, रानी और प्रजा ही होते थे, साहब, बीवी और गुलाम नहीं। हमने हमेशा राजा को महाराजधिराज ही कहा है, राजा साहब नहीं। महाभारत के युग में, जब हमारे धर्मराज अपने भाइयों के साथ चौपड़ का खेल खेलते थे, तो कौड़ियां तो होती थीं, खेल में हार जीत भी होती थी। अगर शकुनि का दांव चल गया तो महाराज भी गुलाम और उनकी रानी भी गुलाम। बस यही खेल अंग्रेजों ने हमारे साथ खेला। राजा साहब शिकार खेलते रह गए, देश गुलाम होता चला गया। साहब, बीवी और गुलाम।
फिर हमने कौड़ियों के मोल में आजादी खरीद ली। राजतंत्र लोकतंत्र हो गया। राजा, रंक और रंक राजा होते चले गए। देश में साहबों और सेवकों का राज हो गया। पहले साहब सिविल सर्वेंट कहलाते थे, अब वे शासकीय सेवक हो गए। राजा ना सही, नेता ही सही, राज करेगा खालसा। ईश्वर और गीता की शपथ लेने वाले संविधान की शपथ भी लेने लग गए। देश विधि के विधान के अनुसार नहीं, संविधान के अनुसार चलने लगा।।
जनता जिसे नेता चुनेगी, वही उस पर राज करेगा। अगर सिर पर ताज नहीं तो कैसा राजा, और आजादी के बाद, नेताओं ने टोपी पहननी शुरू कर दी। पहनी भी और पहनाई भी। जब टोपियां कम और सर अधिक हो गए तो नेताओं का त्याग देखिए, खुद तो हार फूल पहनने लगे, और अपनी टोपी उतारकर जनता को पहना दी।
हमने बुरे दिन भी देखे और सुनहरे दिन भी। सपने भी देखे और कुछ सपनों को सच होते भी देखा। नौकरी में किसी के साहब भी बने और किसी के सेवक भी। अपने स्वाभिमान से हमने कभी समझौता नहीं किया। जब भी सत्ता निरंकुश हुई, अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में पड़ी, सत्ता परिवर्तन भी हुए और हमेशा लोकतंत्र की ही जीत हुई।।
होते हैं कुछ विघ्नसंतोषी जिन्हें जब सत्ता की बंदरबांट में कुछ हासिल नहीं होता, तो वे उछलकूद मचाने लगते हैं। लेकिन ये मर्कट भूल जाते हैं कि इनकी डोर एक मदारी के हाथ में है। वह जैसा चाहे इन्हें नचा सकता है। जो कुशल नेता, जनता की नब्ज जानता है, वह इन प्राणियों का भी इलाज जानता है।
मानस वचन भी तो यही कहता है, भय बिनु होइ ना प्रीति। कभी सत्ता के पास इन विरोधियों की फाइल हुआ करती थी, कब किसकी फाइल चुनाव के वक्त खुल जाए, कहा नहीं जाए। स्कैंडल, घोटाले और गबन राजनीति में आम बात है।।
काजल की कोठरी में तो सभी के दाग लग जाता है। अगर सत्ता की सीढ़ी पर बेदाग चढ़ना है तो किस किस से बचकर चलें। और किसी से बचने का एकमात्र उपाय, शरणागति भाव। इसे ही आज की राजनीति की भाषा में साहब … और गुलाम कहा जाता है ..!!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आए गए का घर…“।)
अभी अभी # 309 ⇒ आए गए का घर… श्री प्रदीप शर्मा
किसी भी घर की रौनक ही इसी में है, कि वहां मिलने जुलने वाले और रिश्तेदारों का आना जाना बना रहे। किसी घर की घंटी बजना, अथवा घर के सामने जूते चप्पलों का ढेर यह दर्शाता है कि इस घर में काफी चहल पहल है।
वैसे भी घर में खामोशी किसे पसंद है, दीवारें तक कान लगाए सुनती रहती हैं, जिस घर में हमेशा महफिल जमी रहती है।
ऐसे घर को हमारी मां, आए गए का घर कहती थी। जब तक हमारे घर में मां और पिताजी मौजूद रहे, ना तो घर कभी खाली अथवा खामोश रहा और ना ही घर में कभी ताला लगा।।
तब कहां घरों में फोन अथवा मोबाइल थे। कभी कभी तो चिट्ठी के आने के पहले ही मेहमान टपक पड़ते थे लेकिन अधिकतर अतिथि शब्द का मान रखते हुए समय और तारीख बताए बिना ही पधार जाते थे।
पिताजी रात को जब घर आते तो भोजन के वक्त, कोई ना कोई परिचित अवश्य उनके साथ होता। बहन स्कूल से घर आती, तो एक दो सहेलियों को साथ लेकर आती। तब ना तो इतनी मोहल्लों में दूरी थी और ना ही दिलों में। तब शायद सबको प्यास भी बहुत लगती थी, वॉटर बॉटल का तब शायद आविष्कार ही नहीं हुआ था।।
हर तरह की परिस्थिति से घर में तब मां को ही जूझना पड़ता था। अनाज, मसाले और दाल चावल का साल भर का संग्रह जरूरी होता था। मौसम के हिसाब से घरों में एक्सट्रा बिस्तर और रजाई गद्दों की भी व्यवस्था करनी पड़ती थी। टेंट हाउस की याद तो बस शादी ब्याह के वक्त ही आती थी। किराने और दूध का हिसाब महीने में एक बार करना पड़ता था।
इस तरह की सभी युद्ध स्तर की तैयारियों से सुसज्जित घर ही आए गए का घर कहलाता था। मेहमानों की पसंद का भी पूरा खयाल रखा जाता था। फूफा जी को चावल में घी और शक्कर प्रचुर मात्रा में लगता था और वे पूड़ी ही पसंद करते थे, रोटी नहीं।।
लेकिन यह सब कल की बात है। आज तो मेहमानों के लिए नाश्ता भी बाहर से ही आता है और भोजन भी बाहर होटल में ही किया जाता है। फोन और मोबाइल की सुविधा के बावजूद ना किसी को आने की फुर्सत है और ना ही किसी को बुलाने की।
परिवार छोटे होते जा रहे हैं, घर बड़े होते जा रहे हैं।
छोटे घर में तब कितने सदस्य समा जाते थे, आज आश्चर्य होता है। तब कहां किसी का अटैच बेडरूम और बाथरूम था। घर की महिलाएं अपने कपड़े ताक में रखती थी। आज घरों में सोफ़ा, अलमारी, अपनी अपनी वॉर्डरोब और मॉड्यूलर किचन है, बस खाने वाला कोई नहीं है।।
हंसी आती है, जब धर्मपत्नी पुराने बर्तनों और एक्सट्रा बिस्तरों को आज भी सहेजकर रखती है। वह कहती है, आप नहीं समझते, आए गए के घर में घर घृहस्थी का सभी सामान जरूरी होता है।
बड़ी भोली और घरेलू टाइप की गृहिणी है वह।
अनायास कोई मेहमान आता है तो उसकी बांछें खिल जाती हैं। घर में दावत हो जाती है। लेकिन ऐसे अवसर आजकल कम ही आते हैं। लगता है अपने परिचित कहीं बहुत दूर चले गए हैं, यह दूरी दिलों की है अथवा मजबूरी की, समझ नहीं पाते। कोई आए, जाए, कितना अच्छा लगता है।।
होते हैं कुछ ऐसे खामोश घर, जहां कोई ज्यादा आता जाता नहीं। किसी आहट पर उम्मीद सी बंधती है लेकिन फिर खयाल आता है ;
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – “लिपि की कहानी”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 162 ☆
☆ आलेख – लिपि की कहानी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मुनिया की सुबह तबीयत खराब हो गई। उसने एक प्रार्थनापत्र लिखा। अपनी सहेली के साथ स्कूल भेज दिया। प्रार्थनापत्र में उसने जो लिखा था, उसकी अध्यापिका ने उस प्रार्थनापत्र को उसी रूप में समझ लिया। और मुनिया को स्कूल से छुट्टी मिल गई।
क्या आप बता सकते है कि मुनिया ने प्रार्थनापत्र किस लिपि में लिख कर पहुंचाया था। नहीं जानते हो ? उसने प्रार्थनापत्र देवनागरी लिपि में लिख कर भेजा था।
देवनागरी लिपि उसे कहते हैं, जिसे आप इस वक्त यहाँ पढ़ रहे है। इसी तरह अंग्रेजी अक्षरों के संकेतों के समूहों से मिल कर बने शब्दों को रोमन लिपि कहते हैं।
इस पर राजू ने जानना चाहा, “क्या शुरु से ही इस तरह की लिपियां प्रचलित थीं?”
तब उस की मम्मी ने बताया कि शुरु शुरु में ज्ञान की बातें एक दूसरे को सुना कर बताई जाती थीं। गुरुकुल में गुरु शिष्य को ज्ञान की बातें कंठस्थ करा दिया करते थे। इस तरह अनुभव और ज्ञान की बातें पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाती थीं।
मनुष्य निरंतर, विकास करता गया। इसी के साथ उस का अनुभव बढ़ता गया। तब ढेरों ज्ञान की बातें और अनुभव को सुरक्षित रखने की आवश्यकता महसूस हुई।
इसी आवश्यकता ने मनुष्य को प्रत्येक वस्तु के संकेत बनाने के लिए प्रेरित किया। तब प्रत्येक वस्तु को इंगित करने के लिए उस के संकेताक्षर या चिन्ह बनाए गए। इस तरह चित्रसंकेतों की लिपि का आविष्कार हुआ। इस लिपि को चित्रलिपि कहा गया।
आज भी विश्व में इस लिपि पर आधारित अनेक भाषाएं प्रचलित हैं। जापान और चीन की लिपि इसका प्रमुख उदाहरण है। शब्दाचित्रों पर आधारित ये लिपियों इसका श्रेष्ठ नमूना भी है।
चित्रलिपि का आशय यह है कि अपने विचारों को चित्र बना कर अभिव्यक्त किया जाए। मगर यह लिपि अपना कार्य सरल ढंग में नहीं कर पायी। क्यों कि एक तो यह लिपि सीखना कठिन था। दूसरा, इसे लिखने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। तीसरा, लिखने वाला जो बात कहना चाहता था, वह चित्रलिपि द्वारा वैसी की वैसी व्यक्त नहीं हो पाती थी। चौथा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह आकर्षण का केंद्र नहीं थी। और यह दुरुह थी।
तब कुछ समय बाद प्रत्येक ध्वनियों के लिए एक एक शब्द संकेत बनाए गए। जिन्हें हम वर्णमाला में पढ़ते हैं। मसलन- क, ख, ग आदि। इन्हीं अक्षरों और मात्राओं के मेल से संकेत-चिन्ह बनने लगे। जो आज तक परिष्कृत हो रहे हैं।
हरेक वस्तु के लिए एक संकेत चिन्ह बनाए गए। विशेष संकेत चिन्ह विशेष चीजों के नाम बताते हैं। इस तरह प्रत्येक वस्तु के लिए एक शब्द संकेत तय किया गया। तब लिपि का आविष्कार हुआ।
इस तरह सब से पहले जो लिपि बनी, उसे ब्राह्मी लिपि के नाम से जाना जाता है। बाद में अन्य लिपियां इसी लिपि से विकसित होती गई।
ऐसे ही धीरे धीरे विकसित होते हुए आधुनिक लिपि बनी। जिसमें अनेक विशेषताएं हैं। प्रमुख विशेषता यह है कि इसे जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा भी जाता है। अर्थात् यह हमारे विचारों को वैसा ही व्यक्त करती है।
इनमें से बहुत सी लिपियों से हम परिचित हैं । ब्रिटेन में अंग्रेजी भाषा बोली जाती है। इस भाषा को रोमन लिपि में लिखते हैं। पंजाबी भाषा, गुरुमुखी लिपि में लिखी जाती है। इसी तरह तमिल, तेलगु, कन्नड़ तथा मलयालम आदि ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती हैं।
इसके अलावा भी विश्व में अनेक लिपियां प्रचलित है।
अब यह भी जान लें कि विश्व की सबसे प्राचीन लिपियां निम्न हैं- ब्राह्मी, शारदा आदि।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| मुंहफट ||”।)
अभी अभी # 308 ⇒ || मुंहफट ||… श्री प्रदीप शर्मा
Blunt
बोलचाल की भाषा में मुंह पर जवाब देने वाले को मुंहफट कहते हैं। तो क्या मुंह पर जवाब देना गलत है, मुंह फेरकर जवाब दिया जाए ! हमें जिस जवाब की उम्मीद ही नहीं हो, वे शब्द जब अचानक किसी के मुंह से फट पड़े, तो उसे आप मुंहफट कह सकते हैं। आप किसी की जबान को तो नहीं रोक सकते, लेकिन मुंहफट का तो आप मुंह भी बंद नहीं कर सकते, क्योंकि वह तो खुलते ही फट पड़ता है।
जिसके शब्दों में ही विस्फोट हो, उसे आप मुंहफट कह सकते हैं।
जहां बोलने वाले का मुंह फटता नहीं, सिर्फ खुलता है, लेकिन जब शब्द फूटते हैं, तो सामने वाला अवाक् हो जाता है, उसकी आंखें विस्मय से फटी की फटी रह जाती हैं। आम परिस्थिति में तो पहले फुग्गा पहले फूलता है, लेकिन ज्यादा फुलाने पर फूट जाता है, लेकिन मुंहफट का मुंह तो बिना फूले ही फट पड़ता है।।
ईश्वर ने मुंह बोलने के लिए दिया है, संवाद के लिए दिया है। तर्क वितर्क, वाद विवाद और बहस के लिए दिया है। लेकिन मुंहफट तो आपको बोलने का ही अवसर नहीं देता। यहां सामने वाला अंखियों से गोली नहीं मारता, बिना सोचे विचारे, सीधे मुंह से ही फायरिंग शुरू हो जाती है।
यूं तो मुंहफट के लिए अंग्रेजी में outspoken और blunt जैसे शालीन शब्द हैं, हिन्दी उर्दू में भी बेबाक, बदजुबान, लड़ाका और ढीट जैसे शब्द हैं, लेकिन जो सहज ध्वनि मुंहफट में है, वह किसी और शब्द में नहीं। ऐसा लगता है, मुंह में शब्द रूपी दूध भरा हुआ हो, जो कड़वाहट के कारण फट गया हो और बाहर निकलते वक्त शब्द फटे हुए निकल रहे हों। याद रखिए, शब्द फटेंगे तो आवाज भी करेंगे।।
जो लोग मुंहफट नहीं होते, वे कपड़े फाड़ते हैं।
कपड़ा भी अगर फटेगा तो थोड़ी बहुत आवाज तो होगी ही। कपड़े भी अक्सर खुद के ही फाड़े जाते हैं, दूसरे के नहीं। लेकिन यह कहां की समझदारी है।
इससे तो मुंहफट रहना ही ठीक, क्योंकि मुंहफट के कोई मुंह नहीं लगता।
मुंहफट बनने के लिए हिम्मत लगती है, सारी तमीज और शालीनता को ताक में रखना पड़ता है।
जिनमें इतनी हिम्मत नहीं होती वे मुंहजोरी पर उतर आते हैं। मुंहजोरी में हाथ पांव नहीं चलते, केवल शब्दों के माध्यम से ही शक्ति प्रदर्शन हो जाता है।।
किसी भी मुंहफट का मुंहतोड़ जवाब देना संभव नहीं। और अगर आप अपना संयम त्याग क्रोध में उसका मुंह तोड़ने की बात करते हैं तो आप जैसा नादान कोई नहीं। लोग आप पर ही हंसेंगे क्योंकि मुंहफट का मुंह तो पहले से ही फटा हुआ है..!!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “असली चाय वाला…“।)
अभी अभी # 307 ⇒ असली चाय वाला… श्री प्रदीप शर्मा
कॉपीराइट और पेटेंट के इस युग में भी किसी के नाम से उसके पेशे का पता लग पाना इतना आसान नहीं। पान वाला और चाय वाला तो इतना आम है कि उसका कॉपीराइट भी संभव नहीं। हां चाय के पेटेंट ब्रुक बॉन्ड, लिप्टन और वाघ बकरी तो हो सकते हैं, लेकिन डॉ पोहा वाला, पोहा नहीं बेच सकते और डॉ जंगलवाला, शहर में भी रह सकते हैं। हमारे साथ एक मिस बुहारी वाला थी, जिन्हें हम कभी मिस बुहारी वाली कहने की धृष्टता नहीं कर सकते थे।
किसी का नाम बड़ा छोटा हो सकता है, लेकिन कोई पेशा छोटा नहीं होता। बचपन से हम चाय पीते आ रहे हैं और कई चाय वालों से हम सबका वास्ता भी पड़ा है। जिस देश में भिखारी भी पैसे वाले होते हैं, वहां कोई भी पेशा छोटा हो ही नहीं सकता।।
उधर पूरी दुनिया अनंत अंबानी और राधिका मर्चेंट की प्री वेडिंग सेरेमनी में उलझी हुई थी और उधर माइक्रोसॉफ्ट के मालिक बिल गेट्स नागपुर के डॉली के टपरे पर खड़े खड़े चाय की चुस्कियां ले रहे थे। यह ना तो कोई विज्ञापन ही था और ना ही कोई फोटो शूट। सुनील पाटिल उर्फ डॉली चाय (जन्म 1998), वाला क्या इतना प्रसिद्ध हो गया कि बिल गेट्स उसके यहां अचानक चाय पीने चले आए और हमारे डॉली चाय वाले अपने उसी साधारण अंदाज में उसे कांच के ग्लास में चाय पेश करते नजर आएं।
भले ही यह बात इतनी आसानी से हजम नहीं हो, और सीआईडी के दया को इसमें कुछ गड़बड़ भी नजर आए, लेकिन बिल गेट्स के चेहरे पर वही सहज मुस्कान नजर आ रही है, जो हम आम चाय की चुस्कियां लेने वालों के चेहरे पर होती है। और हमारे डॉली महाराज का भी वही अंदाज जो एक आम आदमी के लिए होता है।।
यह तो तय है कि इस हैरतअंगेज तस्वीर से बिल गेट्स का कारोबार कोई छोटा तो नहीं हो जाएगा, लेकिन हां, डॉली चाय वाला, जो पहले से ही लोकप्रिय था, उसकी तो चांदी ही चांदी। एक बेचारे डॉली जैसे चाय वाले की क्या औकात कि वह बिल गेट्स जैसी विश्व प्रसिद्ध हस्ती को अपने यहां, डॉली के टपरे पर चाय पर बुलाए।
चुनाव के दिनों में राजनीतिक नेता ऐसे स्टंट करते रहते हैं। लेकिन बिल गेट्स तो मोदी जी के मित्र ट्रम्प भी नहीं, जो यहां आकर इस तरह एक चाय वाले का प्रचार करेंगे। हमें तो बिल गेट्स की चाय में कोई काला नजर नहीं आता। लेकिन हां, वह चाय की पत्ती जरूर हो सकती है।।
सियासत की राजनीतिक पैनी नजर भले ही अभी तक इस डॉली चाय वाले पर नहीं गई हो, लेकिन हमारा चाय वाला दिमाग ऐसा है जो ऐसे मौकों को कभी हाथ से नहीं जाने दे सकता ;
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 74 ☆ देश-परदेश – राजस्थान की परंपराएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆
विविधता वाले हमारे देश में जब हर आठ कोस पर बोली बदल जाती है, तो हर क्षेत्र और प्रदेश की परंपरा भी भिन्न भिन्न होना स्वाभाविक है।
राजस्थान में मरुस्थल बहुत बड़े भाग में फैला हुआ है। इसलिए खान पान भी वहां की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ही होता है।
जयपुर में हनुमान जी का एक प्रसिद्ध स्थान ” खोले के बाला जी” है। यहां वर्षों से लोग अपनी मुरीद पूरी हो जाने पर भगवान को भोग लगा कर प्रसादी वितरण कर पुण्य अर्जित करते आ रहें हैं।
शहर के करीब हो जानें से भीड़ अधिक होना स्वाभाविक है। कुछ माह पूर्व राज्य सरकार ने मंदिर परिसर में “रोप वे” की व्यवस्था करवा दी है। आज हम जब वहां गए तो उसके किराए में सत्तर वर्ष की आयु पर छूट की जानकारी थी। हमने भी मानस बना लिया दो वर्ष बाद आकर इस सुविधा का लाभ अवश्य लेंगे।
यहां पर 24 रसोइयां हैं, और एक समय में पांच हज़ार भक्त प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं।
आज रविवार का दिन होने पर भी भीड़ कम दिखी, तब दिमाग के घोड़े दौड़ाए तो ज्ञात हुआ कि पेट्रोल पंप वाले हड़ताल पर हैं। हम मित्र तो कार में बैठने की शत प्रतिशत सुविधा का उपयोग कर शहर की आबो हवा को दुरस्त रखने में तो विश्वास करते ही है,साथ ही साथ अपने लाभ के हित भी साध लेते हैं।
आज के कार्यक्रम में अकेले ही जाना पड़ा क्योंकि श्रीमती जी अस्वस्थ है, हमने भी मौके का लाभ लिया और पेट भर कर दाल बाटी और तीन प्रकार के चूरमा का दबा कर सेवन किया, श्रीमती जी साथ रहती है, तो शुगर रोग के नाम से मीठे और मोटापे में वृद्धि को नियंत्रण में रखने के बहाने प्रतिबंध लगा देती हैं।
परिवर्तन पारंपरिक भोजन में भी हुआ हैं। धार्मिक आयोजनों में चावल भी परोसे जाना लगा है। कुछ दिन पूर्व एक गुरुद्वारे में लंगर प्रसाद ग्रहण किया वहां भी चावल परोसे जा रहे थे। पूर्व में सिर्फ गेंहू की रोटी ही होती थी। वहां एक बजुर्ग सिक्ख से इस बाबत बातचीत हुई तो उन्होंने बताया की पांच दशक से पंजाब में भी चावल की खेती बहुत बड़े स्तर पर होने से चावल अब दैनिक भोजन का हिस्सा बन गया हैं।
आप जब भी कभी “खोले के हनुमान” में प्रसादी करवाएं,तो हमें अवश्य याद रखियेगा।
1. एक कविता संग्रह उपनिषद का राजस्थानी भाषा में अनुवाद 3. हिन्दी से राजस्थानी शब्दकोष 4. मोनोग्राफ
हिन्दी भाषा में प्रकाशित कृतियां
1. ’’कब आया बसंत’’-2016 (कविता संग्रह) 2. ’’नाक का सवाल’’-2019 (व्यंग्य संग्रह) 3. ’’नन्हे अहसास’’-2019 (काव्य संग्रह) 4. ’’तलाश ढाई आखर की’’-2023 (कहानी संग्रह) 5. ’’फाॅर द सेक आॅफ नोज’’ ’’नाक का सवाल’’ का अंग्रेजी में अनुवाद-2022, ’’अपना अपना भाग्य’’ (राजस्थानी आत्मकथा का हिन्दी में अनुवाद) – 2023. 7. ’’संस्कारों की सौरभ’’ (पत्र शैली में बाल निबंध । पं. जवाहरलाला नेहरु, बाल साहित्य अकादमी, राजस्थान द्वारा प्रकाशित)
हिन्दी में प्रकाशनाधीन कृतियां
1. ’’प्यार की तलाश में प्यार’’ (उपन्यास) 2. एक व्यंग्य संग्रह, ’’अहसासों की दुनिया’’ (काव्य संग्रह) 4. एक काव्य संग्रह
राजस्थानी और हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं / साझा संकलनों में कहानियां, कविताएं, लेख, व्यंग्य, लघुकथाएं, संस्मरण, पुस्तक समीक्षा आदि का लगातार प्रकाशन ।
आकाशवाणी जोधपुर, जयपुर दूरदर्शन से वार्ता, कहानी, कविता, व्यंग्य आदि का प्रसारण । राजस्थानी भाषा के ’’आखर’’ कार्यक्रम (जयपुर) में और जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर, राजस्थानी विभाग के ’गुमेज’ कार्यक्रम में भागीदारी ।
विशेषः-राजस्थानी भाषा की पहली महिला उपन्यासकार एवं दूसरी व्ंयग्यकार ।
यूट्यूब पर ’’मैं बसंत’’ नाम से चेनल ।
पुरस्कार और सम्मान – 50 से अधिक प्रादेशिक, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार एवं सम्मान से सम्मानित।
☆ कहाँ गए वे लोग # 4 ☆
☆ गुरुभक्त : कालीबाई☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆
राजस्थान के इतिहास में देश सेवा के विभिन्न कार्यों में सिर्फ पुरुष और महिलाओं ने ही अपने नाम दर्ज नहीं करवाए हैं बल्कि बालिकाएं भी किसी क्षेत्र में पीछे नहीं रही हैं, उन्हीं में से एक नाम कालीबाई का है ।
गांव रास्तापाल, जिला डूंगरपुर राजस्थान की पहचान ’अमर शहीद वीर बाला कालीबाई’ के नाम से की जाती है । आदिवासी समुदाय के भील सोमा के घर इसका जन्म जून 1935 ई. में माता नवली की कोख से हुआ जिसने मात्र 12 वर्ष की आयु में 19 जून 1947 को जागीरदारों व अंग्रेजों के शोषण के विरुद्ध बहादुरी की एक शानदार मिसाल कायम कर आदिवासी समाज में शिक्षा की अलख जगाई ।
बलिदान की इस घटना के समय डंूगरपुर रियासत के शासक महारावल लक्ष्मण सिंह थे और वे अंग्रेजों की हुकूमत की सहायता से अपना राज्य चलाते थे । उस समय के महान समाजसेवी श्री भोगी लाला पंड्या के तत्वावधान में एक जन आंदोलन चलाया गया जो समाज में फैली कुरीतियों को मिटाने तथा शिक्षा को बढ़ावा देने का कार्य करने लगा । डूंगरपुर रियासत के गांव-गांव में क्षेत्रियस्तर पर स्कूल खोले गए उनमें भील, मीणा, डामोर और किसान वर्ग के बालकों को शिक्षा दी जाती थी ।
जब महारावल को पता चला तो उन्होंने तथा उनके सलाहकारों ने सोचा कि यदि ये बालक शिक्षित हो गए तो बड़ी परेशानी हो जाएगी क्योंकि ये अपना अधिकार मांगने लगेंगे । इस सोच के चलते लक्ष्मण सिंह ने स्कूल बंद करवाने के लिए सन् 1942 में कानून बनवाया और मजिस्ट्रेट नियुक्त किये । वे जहां-जहां भील, मीणाओं के बालक पढ़ते थे, उन स्कूलों को बंद करवाने लगे इसके लिए पुलिस और सेना की मदद भी ली गई । इसी के तहत रास्तापाल की स्कूल बंद करवाने के लिए एक मजिस्ट्रेट, पुलिस अधीक्षक तथा ट्रक भर कर पुलिस व सैनिकों को उस गांव में भेजा गया ।
रास्तापाल में नानाभाई खांट, गांव के बालकों को अपने घर बुलाकर शिक्षा देते थे। स्कूल में इनका सहयोग देने के लिए गांव के बेड़ा मारगिया के सेंगाभाई भी अपनी सेवा देते थे । स्कूल के सभी खर्च नानाभाई वहन करते थे । राजकीय आदेश के बावजूद भी यहां पढ़ाई जारी थी । 19 जून 1947 को जब पुलिस यहां पहुंची तब दोनों वहां मौजूद थे । पुलिस नै उन्हें मारना शुरु कर दिया । नानाभाई को स्कूल में ताला लगाने को कहा तो उन्होंने इंकार कर दिया । चाबी नहीं देने पर सैनिकों उनको ट्रक के पीछे रस्सी से बांध कर घसीटने लगे । रस्सी का एक सिरा सेंगाभाई की कमर से बंधा था और दूसरा ट्रक से । पुलिस के खिलाफ आवाज उठाने की किसी की भी हिम्मत नहीं हुई । सेंगाभाई अपने लोगों को आवाज लगाते रहे मगर सभी को डर के मारे सांप सूंघ गया ।
तभी अचानक सिर पर घास की गठरी और हाथ में दांतली लिए बिजली की तरह एक 12 वर्ष की बालिका ने अपने अदम्य साहस का परिचय दिया, उस भीड़ को चीरते हुए हुए उसने पूछा कि ये सब किसके आदेश पर हो रहा है ? जब बालिका को सभी बातों का पता चला तो उसने कहा कि सबसे पहले मुझे गोली मारो । और साथ ही वह गाड़ी के पीछे दोड़ पड़ी, उसका खून खौल उठा । पुलिस ने उसे बहुत डराया धमकाया मगर उसने उनकी एक सुनी, अपनी दांतली से उसने रस्सी को एक ही झटके में काट दिया, पुलिस वाले अपनी बंदूकें तानें खड़े थे मगर कालीबाई को गोलियों की कोई परवाह नहीं थी ।
यह तेज और हट देखकर पुलिस को बहुत क्रोध आया । सैनिकों ने उस नन्ही बालिका पर गोलियों की बौछार कर दी । कालीबाई ने अपना जीवन गुरुजी के लिए बलिदान कर दिया । हमेंशा के लिए अमर हो गई । अपने गुरु को बचाकर, उसने गुरु-शिष्य की इस दुनिया में एक अलग पहचान कायम की ।
गुरु-शिष्य के ऐसे अनूठे उदाहरण इतिहास में बहुत कम ही मिलेंगे । नन्ही कालीबाई को शत-शत नमन ।