हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 205 ⇒ आसमान से गिरे… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आसमान से गिरे”।)

?अभी अभी # 205 ⇒ आसमान से गिरे… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अगर आपके पास पैराशूट नहीं है, और आप आसमान से जमीन पर गिरते हैं, तो आपका तो भगवान ही मालिक है। ऐसी स्थिति में अगर आप जमीन पर गिरने की जगह

खजूर में ही अटक जाएं, तो शायद आप भी खजूर को ही दोष दें, आसमान से गिरे, और खजूर में अटके।

बेचारा खजूर तो नेकी कर, दरिया में भी नहीं डाल सकता क्योंकि बद अच्छा बदनाम बुरा। और खजूर तो पहले से ही बदनाम है;

बड़ा हुआ तो क्या हुआ,

जैसे पेड़ खजूर।

पंथी को छाया नहीं

फल लागे अति दूर।।

इंसान को आसमान से गिरने की कोई चिंता नहीं, हो सकता है उसका जीवन बीमा हो। लेकिन अगर खजूर पर अटक गया तो कौन निकालेगा। कलयुग में खजूर से लंबा तो दशहरे पर रावण बनाया जाता है, आग लगने पर फायर ब्रिगेड बहुमंजिला भवनों से प्रभावित परिवारों को सफलतापूर्वक बचा लेता है, लेकिन बेचारा खजूर मानो कोई पनौती हो।

इसी खजूर के फल को अमीरों के घरों में कितना सम्मान मिलता है। अंग्रेजी में इसे डेट date अथवा date palm कहते हैं। सूखने पर यह सूखा मेवा ही खारक कहलाता है। अगर यही खजूर गरीबों के मेवे बोर की तरह झाड़ियों में उगता तो बकरी के साथ साथ, हर आम और खास के लिए भी आसानी से उपलब्ध हो जाता। वैसे भी अमीरों के फल तो आसमान में ही उगते हैं।।

प्रकृति की गोद में हर प्राणी का वास है। यह वत्सला एक चींटी से लेकर हाथी तक का पूरा खयाल रखती है। बस्ती, जंगल, बर्फ, पहाड़ और रेगिस्तान में भी जीवन व्याप्त है। केवल मनुष्य को छोड़कर किसी प्राणी को प्रकृति से कोई शिकायत नहीं। भले ही दास मलूका अजगर और पंछी को निकम्मा साबित कर दें, कोई अजगर और पंछी इंसान की भांति मंदिर में घंटियाँ बजा, उस दाता से कभी कुछ नहीं मांगता।

यह मनुष्य ही है, जो बंदर से भी दो कदम आगे बढ़ बागों के फूल भी तोड़ता है और फल भी खाता है और फिर कुल्हाड़ी लेकर गुलशन भी उजाड़ देता है।

अपने विशाल महल के खिड़की दरवाजों के लिए वह कितने पंछियों को बेघर करता है, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है और खजूर को दोष देता है, बड़ा हुआ तो क्या हुआ।।

लेकिन वह इतना मूढ़ मति भी नहीं ! उसका स्वार्थ देखिए, जब डूबता है तो तिनके का सहारा लेना भी नहीं भूलता। और जब कोई तिनका भी नसीब नहीं होता, तो पता है, क्या कहता है ;

हम तो डूबेंगे सनम

तुमको भी ले डूबेंगे ….

स्वार्थ और खुदगर्जी के इस पुतले से बचाने के लिए ही प्रकृति कुछ वस्तुएं उसकी पहुंच से दूर रखती है। रेगिस्तान में ऊंट को पीने को पानी और उसकी भूख मिटाने इंसान नहीं जाता।

हाथी का पेट एक इंसान नहीं भर सकता लेकिन एक जानवर कई इंसानों का पेट पालता है।

सुबह सुबह, खजूर खाते हुए मुझे कोई डर नहीं, कि कहीं मैं भी आसमान से गिरकर खजूर में न अटक जाऊं। इसके पहले कि कोई दूसरा आ जाए, क्यों न कुछ और खजूर उदरस्थ कर लिए जाएं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 204 ⇒ पलटवार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पलटवार”।)

?अभी अभी # 204 ⇒ पलटवार… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यहां वार की पहल नहीं की गई है। पहले किसी और ने वार किया है। पलटवार को आप जवाबी हमला भी कह सकते हैं। यहां हम अहिंसक रहते हुए, केवल मौखिक हमलों की ही चर्चा करेंगे। जो नीति और रणनीति की बातें करते हैं उनकी बात अलग है, क्योंकि उनका ब्रह्म वाक्य ही यह होता है ;

Art of Defence

is to attack.

आपको आश्चर्य होगा, वार भी दो तरह के होते हैं। एक होता है अंग्रेज़ी का वॉर (war) जिसका अर्थ सिर्फ युद्ध होता है, फिर चाहे वह वर्ल्ड वॉर हो अथवा रूस यूक्रेन और इसराइल हमास वॉर।

लेकिन हमारी हिंदी का वार कभी खाली नहीं जाता। सप्ताह में अगर सात दिन होते हैं, तो सात ही वार होते हैं, कोई भी खाली वार हो तो बताइए। बस, एक रविवार की जरूर छुट्टी हो जाती है। भारतीय परिधान साड़ी कितने वार की होती है, गूगल कर लें।।

हमारी भारतीय सनातन संस्कृति में कभी युद्ध नहीं होता, सिर्फ धर्मयुद्ध होता है। जब भी धर्म की हानि होती है, मैं अवतार लेता हूं ;

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

जब तक हम पर युद्ध नहीं थौंपा जाता, हम कभी युद्ध नहीं करते। लेकिन अगर दुश्मन वार करेगा, तो हम उसे दूसरा गाल ऑफर करने से तो रहे। वो क्या कहते हैं उसे, शठे शाठ्यम् समाचरेत् ! यह हमारी नहीं, विदुर नीति है। वार का पलटवार तो कुश्ती में भी होता है, और शास्त्रार्थ में भी।

रामायण और महाभारत सीरियल में कैसे अस्त्र, दिव्यास्त्र और ब्रह्मास्त्र छोड़े जाते थे। इधर से वार तो उधर से पलटवार। बस एक ब्रह्मास्त्र ही लाजवाब था, जिसके आगे नतमस्तक होना पड़ता था। राजनीति तो छोड़िए जनाब, यहां तो हमने लोगों को नजरों के तीर भी कस कसकर मारते देखा है। वैदिक हिंसा की तरह ही इसे भी हिंसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहां तो तीर खाने वाला ही फरियाद करता नजर आता है ;

तीर आंखों से, जिगर के

पार कर दो यार तुम।

जान ले लो, या तो जां को

निसार कर दो यार तुम।।

बचपन में हमने भी बहुत वाकयुद्ध खेला है। बहुत वार और पलटवार किए हैं। उधर से पहला वार, तू चोर। देखिए हम कितने शरीफ, तू महाचोर से ही जवाब दे दिया। लेकिन जब उधर से प्रत्युत्तर में, तेरा बाप चोर, आया तो हमने भी कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी थी। हमने भी पलटवार किया, तू गधा, तेरा बाप गधा, तेरा पूरा खानदान चोर। कभी हाथापाई भी होती और कभी बीच बचाव भी। लेकिन कुछ समय बाद, वही, एक दूसरे के गले में हाथ डाले घूम रहे हैं, चोर और महाचोर।

लेकिन अफसोस, इस आज की राजनीति ने तो हमारे बरसों की दोस्ती पर भी डाका डाल दिया है। फेसबुक पर दोस्त बनते हैं, राजनीतिक मतभेद के चलते, और स्वस्थ संवाद के अभाव में ब्लॉक और अनफ्रेंड करने की नौबत आ जाती है।।

रिश्तों में राजनीति, खेल में राजनीति, सामाजिक जीवन में राजनीति। वही वार और पलटवार। अच्छे भले भले मानुस, यानी जैन्टलमैन्स गेम क्रिकेट के मुकाबले को पहले तो धर्मयुद्ध बना दिया और उसके बाद सत्ता और विपक्ष का जो वार और पलटवार शुरू हुआ, वह बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा। आप हम कौरव पांडव बने, शकुनि के पासों में उलझे हुए हैं।

हमें आजकल आरपार की लड़ाई का बहुत शौक है। जब तक वार चलता रहेगा, पलटवार भी चलता रहेगा। इनके बीच, आज कोई राजकपूर जैसा दीवाना नहीं, जो आकर कह दे ;

तुम्हारी भी जय जय, हमारी भी जय जय।

ना तुम हारे, ना हम हारे..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #207 ☆ अनुभव और निर्णय ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अनुभव और निर्णय। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 207 ☆

☆ अनुभव और निर्णय ☆

अगर आप सही अनुभव नहीं करते, तो निश्चित् है कि आप ग़लत निर्णय लेंगे–हेज़लिट की यह उक्ति अपने भीतर गहन अर्थ समेटे है। अनुभव व निर्णय का अन्योन्याश्रित संबंध है। यदि विषम परिस्थितियों में हमारा अनुभव अच्छा नहीं है, तो हम उसे शाश्वत् सत्य स्वीकार उसी के अनुकूल निर्णय लेते रहेंगे। उस स्थिति में हमारे हृदय में एक ही भाव होता है कि हम आँखिन देखी पर विश्वास रखते हैं और यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है–सो! यह ग़लत कैसे हो सकता है? निर्णय लेते हुए न हम चिन्तन-मनन करना चाहते हैं; ना ही पुनरावलोकन, क्योंकि हम आत्मानुभव को नहीं नकार सकते हैं?

मानव मस्तिष्क ठीक एक पैराशूट की भांति है, जब तक खुला रहता है, कार्यशील रहता है–लार्ड डेवन का यह कथन मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालता है और उसके अधिकाधिक प्रयोग करने का संदेश देता है। कबीरदास जी भी ‘दान देत धन न घटै, कह गये भक्त कबीर’ संदेश प्रेषित करते हैं कि दान देते ने से धन घटता नहीं और विद्या रूपी धन बाँटने से सदैव बढ़ता है। महात्मा बुद्ध भी जो हम देते हैं; उसका कई गुणा लौटकर हमारे पास आता है–संदेश प्रेषित करते हैं। भगवान महाबीर भी त्याग करने का संदेश देते हैं और प्रकृति का भी यही चिरंतन व शाश्वत् सत्य है।

मनुष्य तभी तक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वगुण-सम्पन्न व सर्वपूज्य बना रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता–ब्रह्मपुराण का भाव, कबीर की वाणी में इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है ‘मांगन मरण एक समान।’ मानव को उसके सम्मुख हाथ पसारने चाहिए, जो सृष्टि-नियंता व जगपालक है और दान देते हुए उसकी नज़रें सदैव झुकी रहनी चाहिए, क्योंकि देने वाला तो कोई और…वह तो केवल मात्र माध्यम है। संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह नश्वर मानव देह भी पंचतत्वों से निर्मित है और अंतकाल उसे उनमें विलीन हो जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ उक्त भाव को व्यक्त करती हैं…’यह किराये का मकान है/ जाने कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘प्रभु नाम तू जप ले रे बंदे!/ वही तेरे साथ जाएगा’ यही है जीवन का शाश्वत् सत्य।

मानव अहंनिष्ठता के कारण निर्णय लेने से पूर्व औचित्य- अनौचित्य व लाभ-हानि पर सोच-विचार नहीं करता और उसके पश्चात् उसे पत्थर की लकीर मान बैठता है, जबकि  उसके विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होता है। अंततः यह उसके जीवन की त्रासदी बन जाती है। अक्सर निर्णय हमारी मन:स्थिति से प्रभावित होते है, क्योंकि प्रसन्नता में हमें ओस की बूंदें मोतियों सम भासती हैं और अवसाद में आँसुओं सम प्रतिभासित होती हैं। सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ सो! चेहरे पर हमारे मनोभाव प्रकट होते हैं। इसलिए ‘तोरा मन दर्पण कहलाए’ गीत की पंक्तियाँ आज भी सार्थक हैं।

दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है, क्योंकि हम स्वयं को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझते हैं। परिणामत: हम सत्यान्वेषण नहीं कर पाते। ‘बहुत कमियाँ निकालते हैं/ हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात/ ज़रा आईने से भी कर लें।’ परंतु मानव अपने अंतर्मन में झाँकना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह आश्वस्त होता है कि वह गुणों की खान है और कोई ग़लती कर ही नहीं सकता। परंतु अपने ही अपने बनकर अपनों को प्रताड़ित करते हैं। इतना ही नहीं, ‘ज़िन्दगी कहाँ रुलाती है/ रुलाते तो वे लोग हैं/ जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी समझ बैठते हैं’ और हमारे सबसे प्रिय लोग ही सर्वाधिक कष्ट देते हैं। ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। आनंद तो हमारे मन में है। यदि वह मन में नहीं है, तो दुनिया में कहीं नहीं है, क्योंकि दूसरों से अपेक्षा करने से तो उलझनें प्राप्त होती हैं। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ही न किसी से ग़िला कीजिए’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ उलझनों को शीघ्र सुलझाने व शिक़ायत न करने की सीख देती हैं।

उत्तम काम के दो सूत्र हैं…जो मुझे आता है कर लूंगा/ जो मुझे नहीं आता सीख लूंगा। यह है स्वीकार्यता भाव, जो सत्य है और यथार्थ है उसे स्वीकार लेना। जो व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकार लेता है, उसके जीवन पथ में कोई अवरोध नहीं आता और वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। ‘दो पल की है ज़िन्दगी/ इसे जीने के दो उसूल बनाओ/ महको तो फूलों की तरह/ बिखरो तो सुगंध की तरह ‘ मानव को सिद्धांतवादी होने के साथ-साथ हर स्थिति में खुशी से जीना बेहतर विकल्प व सर्वोत्तम उपाय  है।

बहुत क़रीब से अंजान बनके निकला है/ जो कभी दूर से पहचान लिया करता था–गुलज़ार का यह कथन जीवन की त्रासदी को इंगित करता है। इस संसार म़े हर व्यक्ति स्वार्थी है और उसकी फ़ितरत को समझना अत्यंत कठिन है। ज़िन्दगी समझ में आ गयी तो अकेले में मेला/ न समझ में आयी तो भीड़ में अकेला…यही जीवन का शाश्वत्  सत्य व सार है। हम अपनी मनस्थिति के अनुकूल ही व्यथित होते हैं और यथासमय भरपूर सुक़ून पाते हैं।

तराशिए ख़ुद को इस क़दर जहान में/ पाने वालों को नाज़ व खोने वाले को अफ़सोस रहे। वजूद ऐसा बनाएं कि कोई तुम्हें छोड़ तो सके, पर भुला न सके। परंतु यह तभी संभव है, जब आप इस तथ्य से अवगत हों कि रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। हमें त्याग व समर्पण भाव से इनका निर्वहन करना चाहिए। सो! श्रेष्ठ वही है, जिसमें दृढ़ता हो; ज़िद्द नहीं, दया हो; कमज़ोरी नहीं, ज्ञान हो; अहंकार नहीं। जिसमें इन गुणों का समुच्चय होता है, सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलती है, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल जाता है। प्राय: जिनमें समझ होती है, वे अहंनिष्ठता के कारण दूसरों को हेय समझते हैं और उनके अस्तित्व को नकार देते हैं। उन्हें किसी का साथ ग़वारा नहीं होता और एक अंतराल के पश्चात् वे स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। न कोई उनके साथ रहना पसंद करता है और न ही किसी को उनकी दरक़ार होती है।

वैसे दो तरह से चीज़ें नज़र आती हैं, एक दूर से; दूसरा ग़ुरूर से। ग़ुरूर से दूरियां बढ़ती जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं–प्रथम दूसरों के अनुभव से सीखते हैं, द्वितीय अपने अनुभव से और तृतीय अपने ग़ुरूर के कारण सीखते ही नहीं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। बुद्धिमान लोगो में जन्मजात प्रतिभा होती है, कुछ लोग शास्त्राध्ययन से तथा अन्य अभ्यास अर्थात् अपने अनुभव से सीखते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ कबीरदास जी भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि हमारा अनुभव ही हमारा निर्णय होता है। इनका चोली-दामन का साथ है और ये अन्योन्याश्रित है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 203 ⇒ चाय के बहाने… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चाय के बहाने।)

?अभी अभी # 203 ⇒ चाय के बहाने… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मौसम के करवट बदलते ही, गुलाबी ठंड का असर मेरे गुलाबी गालों और होठों पर पड़ने लगता है।

पंखों में हवा की जगह मानो हवा में ही पंख लग गए हों। हवा के झोँकों में इतनी ताजगी रहती है, कि नींद की खुमारी तो गायब हो जाती है, लेकिन गुलाबी चाय की तलब कुछ और ही बढ़ जाती है।

पीने वाले को पीने का बहाना चाहिए, लेकिन चाय एक हकीकत है, कोई फसाना नहीं ! एक ऐसी कड़वी सच्चाई जिसके लिए झूठी कसमें नहीं खाई जाती, बस एक कप गर्मागर्म चाय से मुंह जूठा किया जाता है। होठों से छू लो तुम, मेरा स्वाद अमर कर दो।।

बंदर को भले ही अदरक का स्वाद ना मालूम हो, लेकिन चाय के स्वाद से यह जरूर पता चल जाता है कि चाय में अदरक है कि नहीं। मसाले वाली चाय में तो तुलसी, अदरक, लौंग इलायची और दालचीनी के अलावा भी बहुत कुछ डाला जाता है। जो नर सुरापान नहीं करते, उन्हें तो चाय की चुस्कियों में ही जन्नत नजर आ जाती है।

अगर चाय में नशा ना होता, तो हर नर इस तरह मोदी मोदी नहीं करता।

चाय पीने वालों के भी विभिन्न स्तर और स्टाइल होती हैं। कौन मेहमान आज प्लेट में चाय डालकर

चाय पीता नहीं, सुड़कता है। एक चाय ट्रे की चाय कहलाती है। दूध अलग, चाय का खौलता पानी अलग। अपनी पसंद अनुसार दूध और शकर मिलाएं और चाय का स्वाद लें। शुगर फ्री चाय भी लोग बिना शुगर फ्री डाले नहीं पीते।।

अधिक चाय स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है, इसलिए डॉक्टर कॉफी पीने की सलाह देते हैं।

एक चायवाले ने न केवल हमारे जीवन में क्रांति ला दी है, आजकल चाय के जीवन में भी हरित क्रांति ने प्रवेश कर लिया है।

घर घर मोदी की तरह, घर घर ग्रीन टी का प्रचलन बढ़ गया है। यह वजन नहीं बढ़ाती, कोलोस्ट्राल घटाती है। जो लड़की अपने फिगर से करे प्यार, वह ग्रीन टी से कैसे करे इंकार। लेकिन कुछ लोगों को क्रांति हजम नहीं होती।

सम्पूर्ण क्रांति से जले लोग आज आंदोलन का हर कदम फूंक फूंक कर रखते हैं।।

सबसे भली चाय के प्याले की क्रांति है। कड़क उबली हुई चाय की तुलना आप बासी कढ़ी में उबाल से नहीं कर सकते। अगर जल ही जीवन है तो चाय भी एक जीवन शैली है।

गर्म चाय की भाप ना केवल फिक्र को वाष्प के साथ उड़ाती है, कई लोगों के लिए थिंक टैंक का काम भी करती है।

पीना था हमको चाय

ठिकाने बना लिए।

तलब थी लब की

हमने बहाने बना लिए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 202 ⇒ संकेतक… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जश्न और त्रासदी “।)

?अभी अभी # 202 || संकेतक || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

|| संकेतक || ~ signal ~

समझदार को इशारा काफी होता है, और डूबते को तिनके का सहारा। लेकिन कुछ सहारे श्री, खुद ऐसे टाइटैनिक होते हैं जो अपने साथ तिनकों को भी ले डुबो बैठते हैं। एक गलत इशारा हमारी मंजिल को भटका भी सकता है और एक संकेतक हमें अपनी मंजिल तक भी पहुंचा सकता है।

जीवन के सफर में मंजिल तक पहुंचने के लिए, हमें कोई ना कोई रास्ता तो चुनना ही पड़ता है। जहां कोई मार्गदर्शक नहीं होता, वहां संकेत ही काम आते हैं। गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है। यह सीटी संकेत भी है और एक तरह का अलार्म भी। चलिए, सिर्फ एक सीटी नहीं ! एक, दो, तीन के बाद कभी चार की गुंजाइश नहीं रह जाती। टेशन से गाड़ी छूट जाती है, एक, दो, तीन हो जाती है।।

शहर के भीड़ भरे यातायात को सुचारू रूप से चलाने के लिए, चौराहों पर ट्रैफिक सिग्नल लगाए जाते हैं। लाल, हरी और पीली बत्ती का मतलब कौन नहीं जानता। और तो और हमारे इंजन वाले वाहनों में भी आवाज वाले इंडिकेटर्स लगे होते हैं, कार को रिवर्स लेते वक्त भी अलार्म हमें आगाह किया करता है। फिर भी ;

ना तूने सिग्नल देखा

ना मैने सिग्नल देखा

एक्सीडेंट हो गया

रब्बा रब्बा …

इसे क्या कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना कहें, अथवा सरासर लापरवाही। पहले नजरों के इशारे हुए, फिर दिल से दिल टकराए, ना कोई खता हुई ना कोई थाने में रिपोर्ट, ना कोई दफा। दोनों गिरफ्तार भी हुए। लेकिन फिर भी मामला रफा दफा।

अगर हमारे जीवन के माइल स्टोन में, संकेतक और सूचक नहीं होते, तो क्या हमारी जिंदगी की राह इतनी आसान होती। एक छोटी सी उंगली का सहारा किसी की जीवन नैया को अगर पार लगा सकता है तो एक गलत सलाह आपके जीवन को बर्बाद और तबाह भी कर सकती है ;

माॅंझी नैया ढूॅंढे किनारा

किसी ना किसी की खोज

में है ये जग सारा।

कभी ना कभी तो समझोगे

तुम ये इशारा

माॅंझी नैया ढूॅंढे किनारा।।

किसी के स्पर्श मात्र से मन का बोझ हल्का हो जाता है तो किसी की छोटी सी सलाह अथवा मार्गदर्शन से इंसान कहां से कहां पहुंच जाता है। छोटे छोटे इशारों और संकेतों में ही जीवन के रहस्य छुपे हैं। कहीं कोई रहबर, तो कहीं किसी सदगुरु का इशारा ही काफी होता है कश्ती को किनारे लाने में और जीवन नैया को पार लगाने में।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 241 ☆ आलेख – साहित्य का विभाजन कितना उचित ?? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख साहित्य का विभाजन कितना उचित ??)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 241 ☆

? आलेख – साहित्य का विभाजन कितना उचित ?? ?

हम तरह-तरह की साहित्य खंड या धाराएँ देखते हैं, जैसे स्त्री-विमर्श, दलित साहित्य (संयोग से आभिजात्य साहित्य नहीं), प्रवासी साहित्य, आदि। साहित्य को विभिन्न खेमों में विभाजित करने की क्या सार्थकता है?

 समग्रता में साहित्य बहुत विशाल परिदृश्य है। जिस तरह विधा अनुसार काव्य, व्यंग्य कहानी एकाग्र है, उसी तरह अन्य उपवर्ग अध्ययन की दृष्टि से ही देखे जाने चाहिए। युवा लेखक, या वरिष्ठ कवि अथवा अभियंता रचनाकारों को एक जगह एकीकृत कर देने से वे साहित्य की मूल धारा से अलग नही हो जाते।

यह सब कुछ ऐसा ही है मानो देश के बच्चों को स्कूलों में, कक्षाओ में, पी टी ड्रेस के रंगों में, उम्र के अनुसार, रुचि के अनुसार अलग अलग क्लब में, या शिक्षा के भाषाई माध्यम अथवा सी बी एस ई, आई एस सी, या प्रादेशिक बोर्ड के खेमों में वर्गीकृत किया गया हो।

यह सब समग्रता में साहित्य को नए अवसर और विकसित ही कर रहा है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 201 ⇒ गोद भराई… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गोद भराई “।)

?अभी अभी # 201 ⇒ गोद भराई… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

गोद भराई ~ Baby Shower

बच्चे तो खैर प्यारे होते ही हैं,कुछ शब्द भी बड़े प्यारे होते हैं। अब भुट्टे को ही ले लीजिए,भले ही देसी हो या अमरीकन,बड़ा कड़क शब्द है,स्वाद भले ही भला हो,बोलने में तो मिठास झलकनी चाहिए। भाटे और भुट्टे में ज्यादा अंतर नहीं,सुनने में भी एक जैसे लगते हैं। वैसे भुट्टे और भुट्टो,और खांसी और फांसी में कितनी समानता नजर आती है। मुझे सुन सुन आए हांसी।

इसी भुट्टे को अंग्रेजी में कॉर्न कहते हैं,हमें तो किसी ने maize पढ़ाया था। क्या भुट्टे का बच्चा भी होता है,जी हां,इसे baby corn कहते हैं। कितना मुलायम होता है,baby corn, बिल्कुल baby जैसा। हर बच्चा,ईश्वर की देन होता है,आशीष,आशीर्वाद और ईश्वर कृपा से ही एक स्वस्थ शिशु का जन्म हो पाता है ;

अब तक छुपा है वो ऐसे

सीपी में मोती हो जैसे।

चंदा से होगा वो प्यारा फूलों से होगा वो न्यारा,

नाचेगा आंगन में छमछम

नन्हा सा मुन्ना हमारा।।

शिशु के जन्म लेने से पहले होने वाले उत्सव को गोद भराई कहा जाता है। हमारी माता वसुंधरा की गोद में कितने मोती छुपे हैं, और जितने माटी के लाल हैं, सभी तो उसकी संतान हैं वन, वनस्पति, जंगल, सोना चांदी और हीरे मोती, किस बात की कमी है उसके पास।

जगत की हर माता में धरती माता का अंश है और उसमें और जगत माता में रत्ती मात्र भी भेद नहीं। भगवान राम और कृष्ण भी जब इस धरा पर अवतरित होते हैं, तो उन्हें भी देवकी, यशोदा और कौशल्या की गोद नसीब होती है। पुरुष के नसीब में कहां यह मातृत्व सुख ! वह तो बेचारा, बाप बनकर ही खुश हो लेता है।।

जगत जननी की तरह ही होने वाले बच्च की मां की गोद भी सदा हरी भरी रहे, इसी कामना के साथ, सातवें महीने के पश्चात् गोद भराई की रस्म होती है, संसार का सभी सुख,वैभव और नाते रिश्तेदारों के प्यार,दुलार और आशीर्वाद की जब होने वाले बच्चे और उसकी मां पर वर्षा होती है, तो उसे baby shower कहते हैं।

शॉवर का सुख तो बच्चे बूढ़े सभी जानते हैं। सुख और आशीर्वाद की वर्षा बिना छप्पर फाड़े होती है, क्योंकि जच्चा बच्चा दोनों पर माता पिता, दादा दादी, नाना नानी,  बुआ फूफा सहित अन्य सभी छोटे बड़े रिश्तेदार, पड़ौसी और शुभचिंतक इस गोद भराई याने बेबी शॉवर का हिस्सा होते हैं।।

सृजन का सुख संसार का सबसे बड़ा सुख है,हमने उस सरजनहार को नहीं देखा, लेकिन अपनी जन्म देने वाली मां में हमने उसे साक्षात अनुभव किया है।

बड़ा विचित्र सुख है मातृत्व में और शिशु तो सुख का सागर ही है।

सज रही मेरी गली मां, सुनहरी गोटी में..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 200 ⇒ धड़का तो होगा दिल जरूर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “धड़का तो होगा दिल जरूर”।)

?अभी अभी # 200 ⇒ धड़का तो होगा दिल जरूर… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यह शाश्वत और सनातन प्रश्न आपसे पूछने वाला मैं कोई पहला व्यक्ति नहीं, लेकिन कल के फाइनल मैच के दौरान आपके दिल की क्या हालत हुई होगी, आप ही बेहतर जानते होंगे। वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूं, यही प्रश्न सबसे पहले फिल्म सीआईडी ९०९ (१९६७) में, कुछ इस अंदाज में, पूछा गया था ;

धड़का तो होगा दिल जरूर

किया जो होगा तुमने प्यार

बड़ा बचकाना सा सवाल है यह, लेकिन कल तो इस दिल की हालत बयां की ही नहीं जा सकती थी। क्या कहते हैं उसे, दिल कभी तो धड़क धड़क करता था, तो कभी धक से रह जाता था। हमेशा बल्लियों उछलने वाला यह दिल सांस रोके पूरा मैच देख रहा था। कल किस किसको याद नहीं किया हमने। अपनी इबादत में कोई कसर नहीं छोड़ी।

२४० रनों का भी कोई टारगेट होता है कंगारुओं के लिए ! लेकिन जब शुरू में ही ऑस्ट्रेलिया के तीन विकेट जल्दी जल्दी गिर गए, तो हमारे होठों पर, आपकी परछाइयां के गीत की ये पंक्तियां अनायास ही आ गई ;

दिल की ऐ धड़कन ठहर जा,

मिल गई मंजिल मुझे ..

अंपायर की उंगली का आउट होने का इशारा दिल को कितना सुकून दे रहा था, और होंठ भी कहां खामोश थे ;

जी हमें मंजूर है

आपका ये फैसला।

हर नज़र कह रही है

बंदा परवर शुक्रिया।।

दिल की धड़कनें तेज थीं, बस तड़ातड़ हमारा शमी, शनि बनकर सात विकेट और झटका ले, और पूरे स्टेडियम में तालियों और आतिशबाजियों का शोर गूंजे, और देश में हर तरफ बजने लगें, सैकड़ों शहनाइयां।।

लेकिन कुदरत का ही खेल निराला नहीं भाई, क्रिकेट का खेल भी निराला। बल्ले से खेलो, बॉल से खेलो, पूरी शिद्दत से खेलो, लेकिन हम क्रिकेट प्रेमियों के दिल से तो मत खेलो।

कल विश्व पुरुष दिवस अलग से था। जब तीन विकेट गिरने के बाद कंगारू बल्लेबाजों ने अंगद की तरह पांव जमा लिए, तो हमारे भी हौसले पस्त हो गए और जब तक चौथा विकेट गिरा तब तक तो कारवां गुजर चुका था, चारों तरफ गुबार ही गुबार और fogg ही fogg था।।

मत पूछो, कितनी बार दिल धड़का। पहली बार हमें महसूस हुआ, हमारा भी दिल धक धक करता है।

जीत का नशा सर चढ़कर बोलता है, हार को तो, बस थक हारकर स्वीकार किया हमने। दिल तो टूटा ही होगा ;

मैं कोई पत्थर नहीं

इंसान हूं।

कैसे कह दूं,

हार से घबराता नहीं।।

यह पुरुषोचित तो नहीं, लेकिन कल पुरुष दिवस पर मन बड़ा दुखी हुआ। उड़ा लीजिए आप हमारी कमजोरी का मजाक, लेकिन आज तो कहकर ही रहूंगा मन की बात। अरे सुनती हो, कहां गई भागवान;

मुझे गले से लगा लो

बहुत उदास हूं मैं….

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 239 ☆ आलेख – कैद सुरंगो में… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख कैद सुरंगो में…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 239 ☆

? आलेख – कैद सुरंगो में ?

उत्तराखंड में दुर्घटना वश 40 मजदूर सुरंग में कैद होकर रह गए हैं, जिन्हें बाहर निकालने के लिए सारी इंजीनियरिंग लगी हुई है।

हर बरसात में महानगरों में सड़को के किनारे बनाई गई साफ सफाई की सुरंग नुमा विशाल नालियों में कोई न कोई बह जाता है।

बोर वेल की गहरी खुदाई में जब तब खेलते कूदते बच्चो के गिरने फिर उन्हें निकालने  की खबरे सुनाई पड़ती हैं।

आपको स्मरण होगा थाईलैंड में थाम लुआंग गुफा की सुरंगों में फंसे खेलते बच्चे और उनका कोच दुर्घटना वश फंस गए थे, जो सकुशल निकाल लिये गये थे.

तब सारी दुनिया ने राहत की सांस ली. हमें एक बार फिर अपनी विरासत पर गर्व हुआ था क्योकि थाइलैंड ने विपदा की इस घड़ी में न केवल भारत के नैतिक समर्थन के लिये आभार व्यक्त किया था वरन कहा था कि बच्चो के कोच का आध्यात्मिक ज्ञान और ध्यान लगाने की क्षमता जिससे उसने अंधेरी गुफा में बच्चो को हिम्मत बढाई, भारत की ही देन है.

अब तो योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिल चुकी है और हम अपने पुरखो की साख का इनकैशमेंट जारी रख सकते हैं.

इस तरह की दुर्घटना से यह भी समझ आता है कि जब तक मानवता जिंदा है कट्टर दुश्मन देश भी विपदा के पलो में एक साथ आ जाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे बचपन में माँ की डांट के डर से हम बच्चों में एका हो जाता था या वर्तमान परिदृश्य में सारे विपक्षी एक साथ चुनाव लड़ने के मनसूबे बनाते दिखते हैं.

वैसे वे बहुत भाग्यशाली होते हैं जो  सुरंगों से बाहर निकाल लिए जाते हैं. वरना हम आप सभी तो किसी न किसी गुफा में भटके हुये कैद ही हैं. कोई धर्म की गुफा में गुमशुदा है. सार्वजनिक धार्मिक प्रतीको और महानायको का अपहरण हो रहा है. छोटी छोटी गुफाओ में भटकती अंधी भीड़ व्यंग्य के इशारे तक समझने को तैयार नही हैं. कोई स्वार्थ की राजनीति की सुरंग में भटका हुआ है. कोई रुपयो के जंगल में उलझा बटोरने में लगा है । तो कोई नाम सम्मान के पहाड़ो में खुदाई करके पता नही क्या पा लेना चाहता है ? महानगरो में हमने अपने चारो ओर झूठी व्यस्तता का एक आवरण बना लिया है और स्वनिर्मित इस कृत्रिम गुफा में खुद को कैद कर लिया है. भारत के मौलिक ग्राम्य अंचल में भी संतोष की जगह हर ओर प्रतिस्पर्धा, और कुछ और पाने की होड़ सी लगी दिखती है, जिसके लिये मजदूरो, किसानो ने स्वयं को राजनेताओ के वादो, आश्वासनो, वोट की राजनीति की सुरंगों में समेट कर अपने स्व को गुमा दिया है.

बच्चो को हम इतना प्रतिस्पर्धी प्रतियोगी वातावरण दे रहे हैं कि वे कथित नालेज वर्ल्ड में ऐसे गुम हैं कि माता पिता तक से बहुत दूर चले गये हैं. हम प्राकृतिक गुफाओ में विचरण का आनंद ही भूल चुके हैं.

मेरी तो यही कामना है कि हम सब को प्रकाश पुंज की ओर जाता स्पष्ट मार्ग मिले, कोई बड़ा बुलडोजर इन संकुचित सुरंगों को तोड़े, कोई हमारा भी मार्ग प्रशस्त कर हमें हमारी अंधेरी सुरंगो से बाहर खींच कर निकाल ले, सब खुली हवा में मुक्त सांस ले सकें. 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 58 – देश-परदेश – खेल खेल में ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 58 ☆ देश-परदेश – खेल खेल में ☆ श्री राकेश कुमार ☆

वर्तमान समय में किसी भी खेल को खेलने वाले तो बहुत कम हैं, लेकिन उसको लेकर विभिन्न सामाजिक मंचों पर चर्चा/ प्रतिक्रिया करने वाले बहुतायत में पाए जाते हैं।

विगत एक पखवाड़े से सभी जगह फुटबॉल को लेकर ही चर्चा हो रही है।

हमारे जैसे जिन्होंने जीवन में शायद ही कभी फुटबॉल को किक क्या हाथ भी नहीं लगाया होगा, वो भी पेनल्टी शूट को गोल में कैसे परिवर्तित करने का ज्ञान बघार रहे हैं।

खेल का बाजारीकरण हो जाने से सभी सक्रिय मीडिया के साधन विज्ञापन प्राप्त कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।

खेलों को लेकर इतना उन्माद क्यों है। इसी प्रकार जीत का भी आवश्यकता से अधिक जश्न मानने की होड़ लगी रहती है।

स्वयं श्रम करने के स्थान पर दूसरों की जीत/ हार पर वाणी से या व्हाट्स ऐप पर ही कॉपी/ पेस्ट कर समय बर्बाद करने में हमारा कोई सानी नहीं है। चार कदम दूरी के कार्य को भी बाइक/ कार द्वारा करने वाले खेल के मैदान में क्या खाक कुछ कर पाएंगे ?

क्रिकेट, टेनिस इत्यादि को छोड़ कर हमारे देश में विगत सत्तर वर्ष से कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं कही जा सकती है। हॉकी जैसे खेल जिसके हम सिरमौर हुआ करते थे, आज हाशिये पर खड़े हैं।

विदेश में खेलों को प्रोफेशनल रूप में अपनाया जाता है। जबकि हमारे यहां अध्ययन में कमज़ोर बच्चे ही खेल को प्राथमिकता देते हैं।

बाल्यकाल में दादाजी की वाणी भी कुछ ऐसा ही कहती थी “पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब! खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब!!”

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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