हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #220 ☆ मन अच्छा हो सकता है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मन अच्छा हो सकता है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 220 ☆

मन अच्छा हो सकता है... ☆

“मन खराब हो, तो शब्द खराब ना बोलें, क्योंकि बाद में मन अच्छा हो सकता है, लेकिन शब्द नहीं।” गुलज़ार के यह शब्द मानव को सोच-समझकर व लफ़्ज़ों के ज़ायके को चख कर बोलने का संदेश देते हैं, क्योंकि ज़ुबान से उच्चरित शब्द कमान से निकले तीर की भांति होते हैं, जो कभी लौट नहीं सकते। शब्दों के बाण उससे भी अधिक घातक होते हैं, जो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं।

मानव को परीक्षा संसार की, प्रतीक्षा परमात्मा की तथा समीक्षा व्यक्ति की करनी चाहिए। परंतु हम इसके विपरीत परीक्षा परमात्मा की, प्रतीक्षा सुख-सुविधाओं की और समीक्षा दूसरों की करते हैं, जो घातक है। ऐसे लोग अक्सर परनिंदा में रस लेते हैं अर्थात् अकारण दूसरों की आलोचना करते हैं। हम अनजाने में कदम-कदम पर प्रभु की परीक्षा लेते हैं, सुख-ऐश्वर्य की प्रतीक्षा करते हैं, जो कारग़र नहीं है। ऐसा व्यक्ति ना तो आत्मावलोकन कर सकता है, ना ही चिंतन-मनन, क्योंकि वह तो ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम स्वीकारता है और दूसरे लोग उसे अवगुणों की खान भासते हैं।

आदमी साधनों से नहीं, साधना से महान् बनता है; भवनों से नहीं, भावना से महान बनता है; उच्चारण से नहीं, उच्च आचरण से महान् बनता है।  मानव धन, सुख-सुविधाओं, ऊंची-ऊंची इमारतों व बड़ी-बड़ी बातों के बखान से महान् नहीं बनता, बल्कि साधना, सद्भावना व अच्छे आचार- विचार, व्यवहार, आचरण व सत्कर्मों से महान् बनता है तथा विश्व में उसका यशोगान होता है। उसके जीवन में सदैव उजाला रहता है, कभी अंधेरा नहीं होता है।

जिनका ज़मीर ज़िंदा होता है, जीवन में सिद्धांत व जीवन-मूल्य होते हैं, देश-विदेश में श्रद्धेय व पूजनीय होते हैं। वे समन्वय व सामंजस्यता के पक्षधर होते हैं , जो समरसता के कारक हैं। वे सुख-दु:ख में सम रहते हैं और राग-द्वेष व ईर्ष्या-द्वेष से उनका संबंध-सरोकार नहीं होता। वे संस्कार व संस्कृति में विश्वास रखते हैं, क्योंकि संसार में नज़र का इलाज तो है, नजरिए का नहीं और नज़र से नज़रिये का,  स्पर्श से नीयत का, भाषा से भाव का, बहस से ज्ञान का और व्यवहार से संस्कार का पता चल जाता है।

‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ ब्रह्म अर्थात् सृष्टि-नियंता के सिवाय यह संसार मिथ्या है, मायाजाल है। इसलिए मानव को अपना समय उसके नाम-स्मरण व ध्यान में व्यतीत करना चाहिए। “ख़ुद से कभी-कभी मुलाकात भी ज़रूरी है/ ज़िंदगी उधार की है, जीना मजबूरी है” स्वरचित उक्त पंक्तियाँ आत्मावलोकन व आत्म-संवाद की ओर इंगित करती हैं। इसके साथ मानव को कुछ नेकियाँ व अच्छाइयाँ ऐसी भी करनी चाहिएं, जिनका ईश्वर के सिवा कोई ग़वाह ना हो अर्थात् ख़ुद में ख़ुद को तलाशना बहुत कारग़र है। प्रशंसा में छुपा झूठ, आलोचना में छुपा सच जो जान जाता है, उसे अच्छे-बुरे की पहचान हो जाती है। वह व्यर्थ की बातों से ऊपर उठ जाता है, क्योंकि हर इंसान को अपने हिस्से का दीपक ख़ुद जलाना पड़ता है, तभी उसका जीवन रोशन हो सकता है। दूसरों को वृथा कोसने कोई लाभ नहीं होता।

अहंकार व गलतफ़हमी मनुष्य को अपनों से अलग कर देती है। गलतफ़हमी सच सुनने नहीं देती और अहंकार सच देखने नहीं देता। इसलिए वह संकीर्ण मानसिकता से ऊपर नहीं उठ सकता और ऊलज़लूल बातों में फँसा रहता है। अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है और नम्रता साधारण व्यक्ति को भी फरिश्ता। इसलिए हमें जीवन में सदैव विवाद से बचना चाहिए और संवाद की महत्ता को स्वीकारना चाहिए। पारस्परिक संवाद व गुफ़्तगू हमारे व्यक्तित्व की पहचान हैं। जीवन में क्या करना है, हमें रामायण सिखाती है, क्या नहीं करना है महाभारत और जीवन कैसे जीना है– यह संदेश गीता देती है। सो! हमें रामायण व गीता का अनुसरण करना चाहिए और महाभारत से सीख लेनी चाहिए कि जीवन में क्या अपनाना श्रेयस्कर नहीं है अर्थात् हानिकारक है।

शब्द, विचार व भाव धनी होते हैं और  इनका प्रभाव चिरस्थाई होता है, लंबे समय तक चलता रहता है। इसके लिए आवश्यकता है सकारात्मक सोच की, क्योंकि हमारी सोच से हमारा तन-मन प्रभावित होता है। ‘जैसा अन्न, वैसा मन” से तात्पर्य हमारे खानपान से नहीं है, चिंतन-मनन व सोच से है। यदि हमारा हृदय शांत होगा, तो उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ये पांच विकार नहीं होंगे और हमारी वाणी मधुर होगी। इसलिए मानव को वाणी के महत्व को स्वीकारना चाहिए तथा शब्दों के लहज़े / ज़ायके को समझ कर इसका प्रयोग करना चाहिए। मधुर वाणी दूसरों के दु:ख, पीड़ा व चिंताओं को दूर करने में समर्थ होती है और उससे बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान हो जाता है।

क्रोध माचिस की भांति होता है, जो पहले हमें हानि पहुँचाता है, फिर दूसरे की शांति को भंग करता है। लोभ आकांक्षाओं व तमन्नाओं का द्योतक है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती जाती है। मोह सभी व्याधियों का मूल है, जनक है, जो विनाश का कारण सिद्ध होता है। काम-वासना मानव को अंधा बना देती है और उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट कर देती है। अहंकार अपने अस्तित्व के सम्मुख सबको हेय समझता है, उनका तिरस्कार करता है। सो! हमें इन पाँच विकारों से दूर रहना चाहिए। हमारा मन, हमारी सोच किसी के प्रति बदल सकती है, परंतु उच्चरित कभी शब्द लौट नहीं सकते। सकारात्मक सोच के शब्द बिहारी के सतसैया के दोहों की भांति प्रभावोत्पादक होते हैं तथा जीवन में अप्रत्याशित परिवर्तन लाने का सामर्थ्य रखते हैं। इसलिए मानव को जीवन में सुई बनकर रहने की सीख दी गई है; कैंची बनने की नहीं, क्योंकि सुई जोड़ने का काम करती है और कैंची तोड़ने व अलग-थलग करने का काम करती है। मौन सर्वश्रेष्ठ है, नवनिधियों व गुणों की खान है। जो व्यक्ति मौन रहता है, उसका मान-सम्मान होता है। लोग उसके भावों व अमूल्य विचारों को सुनने को लालायित रहते हैं, क्योंकि वह सदैव सार्थक व प्रभावोत्पादक शब्दों का प्रयोग करता है, जो जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों की संगति से मानव का सर्वांगीण विकास होता है। सो! गुलज़ार की यह सोच अत्यंत प्रेरक व अनुकरणीय है कि मानव को क्रोध व आवेश में भी सोच-समझ कर व शब्दों को तोल कर प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि मन:स्थिति कभी एक-सी नहीं रहती; परिवर्तित होती रहती है और शब्दों के ज़ख्म नासूर बन आजीवन रिसते रहती हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 290 ⇒ स्मृति शेष… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्मृति शेष…।)

?अभी अभी # 290 ⇒ स्मृति शेष… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

इस भौतिक जगत में एक संसार शब्द, सुर और स्वर का भी है। शब्द अगर ब्रह्म है तो सुर की साधना परमेश्वर की साधना है।

शब्द और स्वर की यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा है। शब्दों के संसार में अगर कविता और साहित्य है तो सुर संसार में गायन और संगीत है। कुल मिलाकर यह सृजन का ही तो संसार है।

शब्दों और आवाज की दुनिया का एक सुर कल टूट गया जब एक मधुर और कर्णप्रिय आवाज इस दुनिया से विदा हो गई। कुछ स्वर और कुछ आवाजें मैं बचपन से सुना करता था और जिन्होंने आज तक मेरा साथ नहीं छोड़ा। ये आवाजें हमेशा मुझे स्थूल से सूक्ष्म जगत की ओर खींच ले जाती। जब मैं इन्हें सुनता था, तो मेरी आंखें बंद हो जाती थी।।

अक्षर तो वही है जो जिसका कभी क्षर ना हो। आवाज भी हम जब एक बार सुनते हैं, तो वह हमेशा के लिए हमारी स्मृति में कैद हो जाती है। इनमें से जिन दो विशेष आवाजों का मैं जिक्र करने जा रहा हूं, उनमें से एक तो आमीन सायानी साहब की आवाज ही है और दूसरी मोहम्मद रफी की। ये शख्स हमारे कौन लगते हैं ;

तेरे मेरे बीच में,

कैसा है ये बंधन अनजाना।

मैं ने नहीं जाना,

तू ने नहीं जाना।।

तुझे खो दिया, हमने पाने के बाद, तेरी याद आए। रफी साहब और अमीन भाई से तो रिश्ता रेडियो से ही जुड़ा था। जो आज भी कायम है। किसी से बिना मिले भी दिल के तार जुड़ सकते हैं। ऐसा क्या था, अमीन भाई की आवाज में, कि हर बुधवार को घरों में, होटलों में, और पान की दुकानों में रेडियो के आसपास श्रोताओं की भीड़ जमा हो जाती थी। एक जुनून, पागलपन या हमारा बचपना ! लेकिन याद सबको है।

क्या किसी शख्स की बोली की मिठास इतना गजब ढा सकती है कि कल हर व्यक्ति की जबान पर सिर्फ अमीन भाई का ही नाम था। ऐसी दौलत कौन कमाता है भाई, जो इस तरह साथ जाती है। जहां कोई पद अथवा ओहदा नहीं, फिर भी जिसके लिए दिल में प्रेम और जगह हो, वह रतन अनमोल होता है।।

नेकदिली में अमीन साहब और रफी साहब दोनों का जवाब नहीं। जब ३१ जुलाई सन् १९८० में रफी साहब को खोया था, तब भी आंखें नम थीं, और आज जब यह खनकती आवाज भी दिव्य मौन में समा गई, तो लगा, दिल का एक तार और टूट गया।

यही तो अंतर है सूक्ष्म और स्थूल जगत में। ये आवाजें कभी हमसे जुदा नहीं हो सकती। इनकी धरोहर इनकी बुलंदियों के परचम फहराएंगी। ना दूसरा मोहम्मद रफी कभी पैदा होगा ना अमीन सायानी, लेकिन हमारे दिलों पर ये पहले भी राज करते थे, आज भी करते हैं, और सदा करते रहेंगे।

आमीन रफी साहब, आमीन अमीन भाई।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

 

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ प्री वेडिंग शूट… ☆ सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ आलेख ☆ प्री वेडिंग शूट… ☆ सुश्री सुनीता गद्रे ☆

इसकी शुरुआत मुझे लगता है कि दस बारह साल पहले हो गई। जब इव्हेंट मॅनेजमेंट की कल्पनाने हमारे देश में भी जोर पकड़ा। इलेक्शन से लेकर घरेलू या सार्वजनिक छोटे-छोटे समारोहों के लिए  इवेंट शब्द आ गया। फिर इवेंट मैनेजर हायर कर लो।  आदि से लेकर अंत तक समारोह का ठेका उसको दे दो और बेफिक्र होकर चैन की सांस ले लो। यह तरीका शुरू हो गया। शादी जैसा पवित्र मंगल समारंभ भी इससे अछूता नहीं रहा। इस तरह से पश्चिमी संस्कृति ने इवेंट के रूप में हमारे समाज पर पकड़ मजबूत कर दी।

बड़ी चतुराई से शादी समारोह को मंगनी या रोका, हल्दी, मेहंदी, महिला संगीत, प्रीवेडिंगशूट, बारात,  शादी, रिसेप्शन, हनीमून  इस तरह के बहुत इवेंट्स में बांटा गया। मालदार पार्टियों ने, सेलिब्रिटीज ने स्टेटस सिंबल, कुछ हटके करने के चक्कर में इसकी शुरुआत की।

उसमें से प्री वेडिंग शूट यह बहुत ही गलत इवेंट

अमीरों की देखा देखी आम समाज में भी प्रचलित हो गया। हम लोग भी पिछडे नहीं है। शादी तो एक बार ही होनी है। कर्जे का क्या? वह तो चुक जाएगा। इन बातों से आगे आगे जाकर मध्यम वर्गीय और गरीब तबके के लोगों पर भी एक फिजूलखर्ची अनिवार्य हो गई। और वह कर्ज के बोझ में दबते चले जा रहे हैं। यह रहा आर्थिक पहलू । सामाजिक पहलू तो बहुत ही भयानक है। शादी से पहले लड़का-लड़की द्वारा इनडोर-आउटडोर भिन्न-भिन्न जगहों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के पोज में, कपड़ों में फोटो शूट करने वाला यह इवेंट, ट्रेंडी नकली लव स्टोरी की थीम पर स्टडी रूम, डाइनिंग रूम, बैडरूम, समुद्र, बाग, पहाड़, पेड़, कीचड़, रेलवे पटरी कहीं पर भी… जैसे लव स्टोरी की मांग हो शूट करने वाला यह इवेंट घातक इसलिए है कि शादी के दिन शादी के जगह पर यह बड़े स्क्रीन पर दिखाया जाता है।

प्राइवेट में रखने के लिए लड़का- लड़की हजारों फोटो शूट कर ले लेते, तो समाज के लिए कोई समस्या ही नहीं बनती, लेकिन उसको शादी के दिन भव्य पर्दे पर सार्वजनिक करना यही बहुत समस्या पैदा कर रहा है।

हमारे संस्कृती में शादी से पहले इतना खुलापन स्वीकार्य नहीं है। हमारी संस्कृती में, संस्कारों में, एक नैतिकता की मर्यादा है। वह सारी यह शूट ध्वस्त कर देता है। शादी के पहले एक दूसरों की ज्यादा नजदीकियां, कम परिधान पहने हुए फोटोज् में शालीनता कहां होगी? वह तो फूहड़ता से आगे जाकर अश्लीलता का रूप ले रहे हैं। यह शादी की मर्यादा का हनन है।

शादी की विधि देखना, पंडित जी से संस्कृत में उच्चारित  शादी के पवित्र मंत्रों को सुनना, खुशी-खुशी दूल्हा दुल्हन को आशीर्वाद देना, ये बातें जादा नजर ही नहीं आती। छोटे, बड़े सारे लोग बड़े स्क्रीन पर एक इस तरह की अश्लील  फिल्म देखना ही पसंद करने लगे हैं। सामाजिक स्वस्थ्य के लिए यह अच्छी चीज नहीं है। इसलिए ज्यादा फैलने से पहले ही इसको रोकने की जरूरत है।

प्री वेडिंग शूट ना तो अपरिहार्य है ना तो आवश्यक है।

  • यह इवेंट उपभोक्तावाद, स्वच्छंदता और वैचारिक उथलापन दिखता है।
  • आजकल बहुत लोगों के पास इस तरह के बेकार आयोजन पर खर्च करने के लिए पैसा, समय, इच्छा और वैचारिक उथलापन  भी है।
  • कुछ लोगों को जानकार लोगों के आदर्श सामने रखने में हीनता महसूस होती है।

इस फोटोशूट से

  • अंग प्रदर्शन
  • संपत्ति का प्रदर्शन
  • आधुनिकता प्रदर्शन
  • ड्रेसिंग सेन्स
  • रोमांस और अभिनय दर्शन
  • इस तरह की बाते  जिनको  पसंद नही है वो कितने गंवार है ये दिखाना शामिल है।

इसमें से कौन सी बात गृहस्थ जीवन सुखमय होने के लिए आवश्यक है?

Of course  इन लोगों को सुखी जीवन चाहिए या नहीं यह भी पता नही।

प्री वेडिंग शूट में एक खतरा यह भी है कि अगर शूट के बाद किसी भी वजह से शादी टूट जाती है तो ज्यादातर लड़की के लिए दूसरी शादी में यह शूट मुसीबत भी बन सकता है।

अपने रहन-सहन में अमीरी दिखाना यही बहुतों का उद्देश्य होता है।

दो घड़ी टिकने वाले आनंद की कोई जरूरत है क्या?

आने वाले जनरेशन को लोग कौन से जीवन मूल्य सिखाएंगे?

जिंदगी में सांस्कृतिक मूल्यों का बहुत महत्व होता है

इसकी लोगों को परवाह है भी या नहीं।

इसलिए जनता को यही संदेश मिलना चाहिए कि जागते रहो। 

**

सुश्री सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 183 ☆ नहि पावस ऋतुराज यह… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “नहि पावस ऋतुराज यह…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 183 ☆ नहि पावस ऋतुराज यह ☆

स्वतंत्र होने पर जो आदर सम्मान मिलता है, वो पिंजरे में रहने पर नहीं मिल सकता। वैचारिक समृद्धता से परिपूर्ण व्यक्ति सही योजना के साथ टीम वर्क पर कार्य करता है और अपनी उपयोगिता को सिद्ध करते हुए सुखद वातावरण निर्मित करता जाता है। संगठन के साथ जुड़ाव होने पर एकता की शक्ति स्वाभाविक रूप से झलकती है। दूसरी तरफ अपने आपको बंधनो में बांध कर कम्फर्ट जोन में रहने वाला कोई भी नयी योजना को शुरू करने में झिझकता है। यदि किसी तरह कुछ करने भी लगे तो उसका परिणाम आशानुरूप नहीं होता। कारण साफ है, जमीनी स्तर पर कैसे कार्य होता है ये पिंजरे में बैठकर समझा नहीं जा सकता है।

जैसी संगत वैसी रंगत के कारण, बंधनों को अपना सुरक्षा कवच मानने वाले लोगों को ही अपना सलाहकार बना कर बड़ी काल कोठरी बनाने लगते हैं, जिसमें कोई भूलवश भले आ जाए पर जल्दी ही छटपटाने लगता है और मौका मिलते ही भाग जाता है। आने- जाने की प्रक्रिया तो भावनाओं की परीक्षा है जिससे सभी को गुजरना पड़ता है। मजे की बात तो ये है कि उम्रदराज लोग भी सही और गलत में भेद करने की हिम्मत जुटा रहे हैं और खुलकर अपने विचारों पर बोल रहे हैं। सत्य की राह पर चलने का सुख जब मिले तभी चल पड़ें। कहते हैं, राह और राही दोनों सही होते हैं तो भगवान भी मदद करने को आतुर हो उठते हैं।

बसंत ऋतु का आगमन, पतझड़ का होना, नई कोपलों का बनना, बौर का फूलना, फागुनी रंग, चैत्र की आहट सब जरूरी है। योग्य नेतृत्व के छाया तले, निश्चित रूप से सभी को फलने- फूलने का मौका मिलेगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 289 ⇒ वाद विवाद… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “वाद विवाद।)

?अभी अभी # 289 ⇒ वाद विवाद… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Debate

वाद विवाद को आप बहस भी कह सकते हैं। किसी भी विषय के पक्ष अथवा विपक्ष में जब दलील दी जाती है और तर्क द्वारा उसकी पुष्टि की जाती है तो उसे वाद विवाद प्रतियोगिता अथवा डिबेट कंपटीशन कहते हैं। स्कूल कॉलेज के दिनों में कई अच्छे वक्ता बाद में जीवन में सफल अधिवक्ता और नेता सिद्ध हुए हैं।

वैसे तो वाद की जड़ में ही विवाद भी मौजूद है। जहां पक्ष है, वहीं विपक्ष भी है। जब दो पक्षों के बीच विवाद बढ़ जाता है तो अदालत में वाद प्रस्तुत किया जाता है, एक वादी कहलाता है तो दूसरा प्रतिवादी। जीत तो हमेशा सत्य की ही होती है।।

वाद विवाद प्रतियोगिता में सत्य के दो पहलू होते हैं। विषय भले ही एक हो, लेकिन पलड़ा दोनों पक्षों का भारी होता है। विजेता भी दो ही घोषित होते हैं और सत्य को दोनों में आपस में बांट दिया जाता है।

डिबेट के विषय भी तब कैसे होते थे। संयुक्त परिवार के गुण दोष, लव मैरिज और अरेंज्ड मैरेज और और सह शिक्षा के दुष्प्रभाव। गर्ल्स कॉलेज में एक पुरुष छात्र वक्ता, प्रेम विवाह के खिलाफ इतना गर्मजोशी से तर्क और दलीलें प्रस्तुत करता है कि ना केवल वह विजेता घोषित होता है, छात्राओं की तालियों के बीच, कोई अनजान लड़की उसे दिल दे बैठती है और कालांतर में दोनों प्रेम विवाह के सूत्र में बंध जाते हैं।।

समय के साथ वाद विवाद ने परिचर्चा और परिसंवाद का रूप ले लिया। ज्वलंत समस्याओं पर विचार विमर्श और सार्थक संवाद को अधिक महत्व दिया जाने लगा। संसद में भी विपक्ष द्वारा सत्ता पक्ष पर हमले होते थे। बेचारे सत्य की स्थिति भी डांवाडोल जैसी ही हो जाती थी। सत्य समझदार है, लोकतंत्र में वह भी हमेशा बहुमत के साथ ही चलता नजर आया है।

जब किसी वाद को लेकर विवाद खड़ा हो जाता है, तो सत्य बड़ा परेशान हो जाता है। कोई बुलंद इमारत जब रातों रात विवादित ढांचे में परिवर्तित हो जाती है, तो सत्य और भी सुंदर और शिव हो जाता है और सत्य की ही विजय होती है, और मंदिर भी वहीं बनाया जाता है।।

एक बार अगर सत्य की विजय हो गई तो फिर विवाद अपने पांव नहीं जमा पाता। संसद में भी सत्य का ही बहुमत होता है और विपक्ष विवादित हो जाता है। अब ऊंट पहाड़ के नीचे आ जाता है और सत्ता पक्ष विवादित विपक्ष पर हमला बोल देता है।

तर्क और बुद्धि के ऊपर की मंजिल को विवेक कहते हैं। अध्यात्म की भाषा में इसे शरणागति कहते हैं। राजनीति में भी जब विपक्ष की दुर्गति होती है, तो वह सब ओर से निराश हो सत्ता के चरणों में शरणागति हो जाता है।

इसे आजकल अवसरवाद नहीं, शरणागत का भाव कहते हैं। सभी पापों से, और ईडी के छापों से, अगर तुझे मुक्त होना है प्राणी, तो सारे वाद विवादों को छोड़

तू मेरी शरण में आ ;

बह रही उल्टी गंगा।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

 

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर-☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर-  ??

आज अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस है। विभाजन के बाद पाकिस्तान ने उर्दू को अपनी राजभाषा घोषित किया था। पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) बांग्लाभाषी था। वहाँ छात्रों ने बांग्ला को द्वितीय राजभाषा का स्थान देने के लिए मोर्चा निकाला। बदले में उन्हें गोलियाँ मिली। इस घटना ने तूल पकड़ा। बाद में 1971 में भारत की सहायता से बांग्लादेश स्वतंत्र राष्ट्र बन गया।

1952 की इस घटना के परिप्रेक्ष्य में 1999 में यूनेस्को ने 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस घोषित किया।

आज का दिन हर भाषा के सम्मान , बहुभाषावाद एवं बहुसांस्कृतिक समन्वय के संकल्प के प्रति स्वयं को समर्पित करने का है।

मातृभाषा मनुष्य के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मातृभाषा की जड़ों में उस भूभाग की लोकसंस्कृति होती है। इस तरह भाषा के माध्यम से संस्कृति का जतन और प्रसार भी होता है। भारतेंदु जी के शब्दों में, ‘ निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल/ बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।’

हृदय के शूल को मिटाने के लिए हम मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा की मांग और समर्थन सदैव करते रहे। आनंद की बात है कि करोड़ों भारतीयों की इस मांग और प्राकृतिक अधिकार को पहली बार भारत सरकार ने शिक्षानीति में सम्मिलित किया। नयी  शिक्षानीति  आम भारतीयों और भाषाविदों-भाषाप्रेमियों की इच्छा का दस्तावेज़ीकरण है। हम सबको इस नीति के क्रियान्वयन से अपरिमित आशाएँ हैं। 

विश्वास है कि यह संकल्प दिवस, आनेवाले समय में सिद्धि दिवस के रूप में मनाया जाएगा। अपेक्षा है कि भारतीय भाषाओं के संवर्धन एवं प्रसार के लिए हम सब अखंड कार्य करते करें। सभी मित्रों को शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष, हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे

सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 288 ⇒ भौंकने का अधिकार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भौंकने का अधिकार।)

?अभी अभी # 288 ⇒ भौंकने का अधिकार… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

∆ BARKING RIGHT ∆

दुनिया बनाने वाले ने सभी प्राणियों को कुछ जन्मसिद्ध अधिकार दिये हुए हैं, इनमें बोलना, काटना और भौंकना भी शामिल है। मनुष्य तो खैर, इन सभी में आय एम द सर्वश्रेष्ठ है ही, क्योंकि वह दिमाग की खाता है। केवल उसमें ही नर से नारायण बनने की संभावना निहित है और केवल यही गुण जहां उसके उत्थान का कारण बनता है वहीं यही घमंड उसके पतन के लिए भी उत्तरदायी होता है।

जुबां और दिमाग का धनी यह इंसान इतना चालाक है कि इसने सभी प्राणियों से कुछ न कुछ गुण/अवगुण अपने जीवन में उतार लिए हैं। अकारण रात भर जागना, कुत्ते की तरह भौंकना और अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति के संसाधनों का सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों ही इसमें शामिल है।।

बिना कारण सृष्टि के किसी जीव का जन्म नहीं होता। एक फूल के खिलने में जितना हाथ एक तितली का है, उतना ही एक भंवरे का भी। एक मधु मक्खी किसके इशारे पर छत्ते में शहद का निर्माण करती है, कोई नहीं जानता। मुर्गी किससे पूछकर अंडे देती है, गाय भैंस क्यों दूध देती है। एक रेशम का कीड़े से यह बुद्धिमान मनुष्य रेशम तक निकाल लेता है। और शायद इसीलिए वह इस सृष्टि का मालिक भी बन बैठा है।

अब आप एक श्वान को ही ले लीजिए ! उल्लू की तरह वह रात भर जागने के लिए अभिशप्त है। वह बिना वेतन का एक चौकीदार है। चूंकि वह बोल नहीं सकता, अतः पहरेदारी करते वक्त उसे भौंकने का अधिकार मिला है। उसके हाथ में कोई डंडा अथवा बंदूक नहीं, इसलिए अपनी सुरक्षा के लिए वह किसी को काट भी सकता है।।

आज का नर, जो नारायण भी बन सकता है, कभी वानर ही तो था। आज भी उसकी नकल करने की आदत नहीं गई। सांप की तरह डंसना और कुत्ते की तरह भौंकना भी उसमें शामिल है। हम अगर कुत्ते की भाषा समझते तो शायद उसके भावों को पकड़ पाते। वह हमसे ज़्यादा समझदार है। जैसा आप सिखाओ, सीख ही लेता है। जो इंसान खुद एक बंदर की तरह नाचता फिरता है, वह मदारी बन, पहले सड़कों पर बंदरों का नाच करता है और बाद में पढ़ लिखकर नच बलिए में शामिल हो जाता है।

बंदर से नाचने का और कुत्ते से भौंकने का अधिकार भी आज इंसान ने छीन लिया है। कुत्ता मालिक का हो या सड़क का, जिस तरह भौंकना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है, आज राजनीति में भी भौंकने का अधिकार जितना विपक्ष के पास है उतना ही सत्ता पक्ष के पास भी।।

अंतर सिर्फ इतना है किसी के गले में सत्ता का पट्टा है तो कोई निर्विघ्न सड़क पर घूम रहा है। Have और have nots की लड़ाई हमने इन मूक प्राणियों से सीखी या इन्हें सिखाई यह कहना बड़ा मुश्किल है।

इंसान के साथ रह रहकर श्वान, इंसानों के तौर तरीके सीख गया। एक इशारे पर चुप रहना, दुम हिलाना सीख गया। काश इंसान भी इन मूक प्राणियों से कुछ सीख पाता। अपनी भाषा छोड़ इनकी भाषा में भौंकना न तो राजा को शोभा देता है और न ही प्रजा को। मीठी जुबां दी बोलने को, इसमें जहर कौन घोल गया। मैं देशभक्त, वह देशद्रोही, कानों में यह कौन बोल गया।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 287 ⇒ बड़े काम के आदमी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बड़े काम के आदमी।)

?अभी अभी # 287 ⇒ बड़े काम के आदमी… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

वैसे तो कोई काम बड़ा छोटा नहीं होता, आदमी ही बड़ा छोटा होता है, फिर भी, काम के आदमी के लिए, काम की कोई कमी नहीं। होते हैं कुछ लोग, काम के न काज के, दुश्मन अनाज के।

यह दुनिया भी अजीब है। यहां किसी को काम की तलाश है, तो किसी को काम के आदमी की तलाश। एक कहावत भी है, जिसका काम, उसी को साजे। क्या बात है, मकान का काम क्यूं ठप पड़ा है, क्या बताएं, कोई ढंग का कारीगर ही नहीं मिलता। अच्छा मिलता है तो टिकता नहीं, और जो टिकता है, वह किसी काम का नहीं।।

वैसे तो दुनिया चलती रहती है, किसी का काम नहीं रुकता। फिर भी आदमी वही, जो वक्त पड़ने पर किसी के काम आए।

अपना काम तो सभी करते हैं, लेकिन होते हैं कुछ ऐसे लोग भी, जो बिना किसी स्वार्थ अथवा लालच के, किसी का अटका हुआ काम, आसानी से पूरा करवा देते हैं। उनके लिए अक्सर अंग्रेजी के एक शब्द का प्रयोग होता है, वे बड़े हेल्पिंग नेचर के हैं।

यह दुनिया इतनी भली भी नहीं। दुनिया ओ दुनिया, तेरा जवाब नहीं।

यहां कुछ काम जब आसानी से नहीं निकलते, तब टेढ़ी उंगली से घी निकालना पड़ता है, और तब काम आते हैं कुछ ऐसे लोग, जिन्हें बड़े काम का आदमी कहा जाता है।।

ऐसे लोगों की एक क्लास होती है, जो साम, दाम, दंड भेद, यानी by book or by crook, आपका काम निकलवाना जानते हैं, फिर भले ही काम, दफ्तर में आपके ट्रांसफर का हो, प्रमोशन का हो, अथवा

रुकी हुई पेंशन का। मकान का नक्शा पास नहीं हो रहा हो, लड़की की शादी नहीं हो रही हो, साले की कहीं नौकरी नहीं लग रही हो, ऐसे में जो व्यक्ति संकटमोचक बनकर प्रकट हो जाए, वही आदमी बड़े काम का आदमी कहलाता है।

सरकारी दफ्तरों में नौकरशाही चलती है। वहां भी एक फोर्थ क्लास होती है, बाकी सभी क्लास थर्ड क्लास होती है। अफसर, बाबू, और बड़े बाबू

जो काम नहीं करवा सकते, वह काम कभी कभी साहब का ड्राइवर अथवा चपरासी चुटकियों में करवा देता है, क्योंकि उसकी पहुंच साहब के गृह मंत्रालय तक होती है।।

एक चीज आपको बता दूं, बड़े काम का आदमी, कभी ओहदे से बड़ा नहीं होता। बड़े काम का आदमी वह होता है, जो उस ओहदे वाले से आपका काम निकलवा दे। कांटा कितना भी बड़ा हो, एक सुई ही काफी होती है, उसे निकालने के लिए।

सुई की तरह कहीं दबे हुए, छुपे हुए होते हैं समाज में ये बड़े काम के आदमी। बस जिसके हाथ लग जाए, समझिए उसकी लॉटरी लग गई। बड़े मिलनसार, व्यवहार कुशल, हमेशा मुस्कुराने वाले होते हैं ये बड़े काम के आदमी। साहित्य, धर्म, राजनीति, समाज के हर क्षेत्र में, यत्र, तत्र, सर्वत्र खुशबू की तरह फैले हुए हैं, ये बड़े काम के आदमी, तलाशिए जरूर मिलेंगे। हो सकता है, आप उन्हें जानते भी हों। पूरी दुनिया टिकी हुई है, ऐसे ही बड़े काम के आदमियों के कंधों पर। मानिए या ना मानिए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 71 – देश-परदेश – आज के बच्चे कल के नेता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 71 ☆ देश-परदेश – आज के बच्चे कल के नेता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

वर्षों पूर्व हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जी ने इस बात को लेकर अपने उदगार व्यक्त किए थे।

विगत दो तीन वर्षों से फरवरी माह में सड़कों पर बड़ी और खुली कारों जिसको आजकल एसयूवी के नाम से जाना जाता है,में स्कूल के अंतिम वर्ष के छात्र और छात्राएं खुले आम यातायात के नियमों की अवेहलेना करते हुए दृष्टिगोचर  होते हैं।

स्कूल से परीक्षा पूर्व विदाई कार्यक्रम को अब सड़कों पर कार की खिड़कियों से लटकते हुए,हाथों में मोबाइल से लाइव प्रसारण भी होता रहता हैं।

परिवार के सदस्य सब से बड़े दोषी है, जो बिना लाइसेंस प्राप्त बच्चों को कार की चाबियां देकर कहते है, जिंदगी के मज़े ले लो। वैसे इसको फैशन परेड भी कहा जा सकता हैं। हमारे परिवारों की बेटियां भी इन सब में बेबाकी से भाग लेती है,वरन तरुणों को जोखिम भरे कदम उठाने के लिए उकसाती भी हैं। बाज़ार में बिना छत की कार भी किराए से लेकर इस नग्नता का हिस्सा बनती हैं।

ये, ही बच्चे कल के नेता बनकर देश को आगे बढ़ाएंगे। हमारे नेता भी तो आजकल जनता के बीच में “रोड शो” करने के समय इसी प्रकार से कारों से लटकते हुए देखे जा सकते हैं। कुछ नेता ट्रैक्टर पर बड़ी संख्या में बैठ कर “सड़क सुरक्षा” को परिभाषित करते हैं। शायद हमारे बच्चे इन नेताओं के चरण चिन्हों पर चलकर आने वाले समय में आज के बच्चे देश की बागडोर संभाल सकने में सक्षम होंगे।

ये ही बिगड़े हुए बच्चे स्कूल से उत्तीर्ण होकर महाविद्यालय में छात्र यूनियन के नेता बन जायेंगे। राजनैतिक दल भी छात्र नेताओं को प्राथमिकता से अपने अपने दल में ग्रहण कर लेते हैं।

नियम और कानून की धज्जियां उड़ाने वाले व्यक्ति ही हमारे नेता बनने में सक्षम होते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 286 ⇒ चार चांद… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चार चांद।)

?अभी अभी # 286 ⇒ चार चांद… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कवियों, शायरों और प्रेमियों को चांद से कुछ ज्यादा ही प्रेम होता है। सुंदरता की उपमा चांद से, और जब ठंड ज्यादा पड़े, तो सूरज रे, जलते रहना। वैसे प्रत्यक्ष को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, फिर भी शायर कहने से नहीं चूकता ;

एक हो मेरे तुम इस जहां में

एक हो चंदा, जैसे गगन में

तुम ही तुम हो, मेरे जीवन में।

लेकिन अगले ही पल वह कह उठता है,

एक चांद आसमान में, एक मेरे पास है।

इतना ही नहीं, उसे एक रात में दो दो चांद नजर आने लगते हैं,

एक घूंघट में, एक बदली में।।

होता है, प्रेम में सब कुछ संभव है। मां की ममता तो और एक कदम आगे बढ़ जाती है, चंदा है तू, मेरा सूरज है तू। ओ मेरी आंखों का तारा है तू। सूरज को तो बस एक बार सुबह सुबह सूर्य नमस्कार कर लिया और छुट्टी लेकिन बेचारे चांद की तो रात भर खैर नहीं।

कौन कहता है, सूरज सी महबूबा हो मेरी, सबको चांद सी ही चाहिए। वैसे भी जो दिन भर आग उगलेगा, उसे कौन गले लगाएगा। सबको चांद सी ही महबूबा चाहिए। चांद सा मुखड़ा क्यूं शरमाया।

अजीब होते हैं ये कवि, रवि से ऊपर तक पहुंच जाते हैं, लेकिन तारीफ चांद की करते हैं।।

कहते हैं, किसी की तारीफ करने से उसमें चार चांद लग जाते हैं। ना कम ना ज्यादा। कृष्णचंद्र हों अथवा चन्द्रमौलिश्वर भगवान शिव, वहां भी शोभायमान तो एक ही अर्धचन्द्र है। चार चांद कौन लगाता है भाई।

अतिशयोक्ति तो है, फिर भी हमको कुबूल है। अतिशयोक्ति में तर्क का कोई स्थान नहीं। चार चांद ही क्यों, क्या तीन से काम नहीं चल सकता। अगर आपने अपनी प्रेयसी की तारीफ में गलती से पांच चांद लगा दिए तो क्या वह आपको छोड़कर चली जाएगी। तारीफ नहीं, बनिये की दूकान हो गई। अतिशयोक्ति का भी एक भाव होता है, न कम, न ज्यादा।।

अगर आपकी तारीफ में दो सूरज और दो चांद लगा दें, तो चलेगा। सूरज आपको खा थोड़े ही जाएगा। अच्छा चलिए, चारों सूरज चलेंगे। अलग ही चमकेंगे। कहां चार चांद और जहां चार सूरज। बस आफताब मियां से एक बार पूछना पड़ेगा।

आपके पास जो आएगा, वो जल जाएगा। मतलब एक भी सूरज नहीं चलेगा। अपने तो चंदामामा दूर के ही भले। चार मामा होंगे तो शायद मां भी खुश हो जाए। वैसे भी तीन का आंकड़ा शुभ नहीं माना जाता। बहुत सोच समझकर चार चांद लगाए जाते हैं किसी की तारीफ में।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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मो 8319180002

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