(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दर और द्वार”।)
अभी अभी # 185 ⇒ दर और द्वार… श्री प्रदीप शर्मा
किसी के दर तक तो पहुंच गए, लेकिन अगर द्वार ही बंद हो, तो दस्तक तो देनी ही पड़ती है ;
आशिक हूं तेरे दर का
ठुकरा मुझे ना देना।
आया हूं बन भिखारी
झोली तो भर ही देना।।
अतिथि तो भगवान होता है। पता पूछते पूछते घर तक तो आ गए, द्वार भी खुले मिले, फिर भी आपको देहरी तो लांघनी ही पड़ेगी। देहरी को ड्यौढ़ी भी कहते हैं। दर और द्वार की यह लक्ष्मण रेखा है। वहीं पहले स्वागत होता है, उसके पश्चात् ही गृह प्रवेश होता है।
मंदिर की भी चौखट होती है, मंदिर के द्वार भी होते हैं, और ठाकुर जी के पट जब खुलते हैं, तब ही दर्शन हो पाते हैं। जब उनसे कुछ मांगना होता है, तो चौखट पर नाक भी रगड़नी पड़ती है। परमात्मा से कैसी लाज, कैसी शरम।।
कभी कभी उल्टी गंगा भी बह जाती है। तेरे द्वार खड़ा भगवान, भगत भर दे रे झोली। यह जीव नहीं जानता, उसके दर पर जो खड़ा है, वह दाता है या भिखारी। जब कि सच तो यह है, भिखारी सारी दुनिया, दाता एक राम।
आजकल द्वार, door अथवा दरवाजा कहलाता है, देहरी का भी कुछ पता नहीं, बस एक डोअरमेट नजर आती है, घर के बाहर। कोई कुंडी नहीं, कोई सांकल नहीं, डोअरबेल बजाई जाती है।। दरवाजे के पहले दो पाट होते थे, दरवाजा आधा भी खोला जा सकता था, आज का द्वार वन पीस होता है।
जिसमें सुरक्षा के लिए ना केवल एक की होल बना होता है, बाहर सीसीटीवी कैमरे और डोअर अलार्म आगंतुक की पूर्व सूचना भी दे देता है। कहीं कोई साधु के वेश में रावण ना हो।।
लेकिन इसी जीव की कभी ऐसी भी अवस्था आती है जब सजन के लिए द्वार नहीं खोलना पड़ता और ना ही अपने प्रीतम प्यारे के लिए दर दर भटकना पड़ता है। जब खिड़की है तो द्वार का क्या काम ;
जरा मन की किवड़िया खोल
सैंया तोरे द्वारे खड़े …
मीरा जानती थी, इस भेद को, और शायद इसीलिए वह इतने सरल शब्दों में गूढ़ ज्ञान की बात कर पाई ;
घूंघट के पट खोल रे
तोहे पिया मिलेंगे।
धन जोबन का गरब ना कीजे
झूठा इनका मोल रे
तोहे पिया मिलेंगे।।
अज्ञान, अस्मिता और अहंकार का पर्दा ही तो वह घूंघट है, जिसे हमें हटाना है। अगर हमारे मन का द्वार खुला है, तो मन के मीत को क्या जरूरत हमारे दर पर आकर, द्वार पर दस्तक देने की। बैक डोअर एंट्री कहें, अथवा इमरजेंसी डोअर, मकसद तो दीदारे यार से है। जरा हसरत तो देखिए इस दीवाने की ;
मन मंदिर में तुझको बिठा के
रोज करूंगा बातें।
शाम सवेरे हर मौसम में
होगी मुलाकातें।।
यह हर पल जागने का, इंतजार का खेल है।
दर हो या द्वार, अंदर हो या बाहर, बस एक आस, एक विश्वास ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किलकारी”।)
अभी अभी # 184 ⇒ किलकारी… श्री प्रदीप शर्मा
बहुत दिनों बाद एक बच्चे की किलकारी सुनी। किसी के लिए भले ही यह एक रोजमर्रा का अहसास हो, जो बच्चों के बीच रहते हैं, उन्हें संभालते, पालते पोसते रहते हैं, कई नर्सरी और केजी स्कूल होते हैं, बाग बगीचे होते हैं, जहां बच्चों को हंसते खेलते, मुस्कुराते, किलकारी मारते देखा जा सकता है।
आपको अगर प्रकृति के करीब जाना है, तो कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं, बस पास के किसी बच्चे के पास चले जाइए। हम जब बच्चे थे, तो यही हमारी दुनिया थी, जैसे जैसे हम बड़े होते चले गए, बचपन दूर होता चला गया। बच्चों से जुड़ना, अपने बचपन से जुड़ना है।।
कल ही निदा फाजली का जन्मदिन था। उनकी ही गजल के कुछ शब्द हैं ;
फूलों से न तितली को उड़ाया जाए
अगर मस्जिद बहुत दूर है,
क्यूं न किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।।
बच्चे हमारी नकल करते हैं, वे हमसे ही तो सीखते हैं। लेकिन इनका बाल स्वरूप, लीला स्वरूप होता है, हम बच्चों को नहीं खिलाते, वे हमें खिलाते हैं। खेलने खाने में बहुत अंतर होता है। हमने जब से तमीज से खाना सीख लिया, हम खेलना ही भूल गए। एक बच्चे को खेलना सिखाना नहीं पड़ता, हां भूख लगने पर कुछ जबरदस्ती खिलाना जरूर पड़ता है।
बात किलकारी की हो रही थी। कोयल की कूक नहीं, लता की सुरीली आवाज नहीं, उन सबसे अलग होती है, बच्चे की एक किलकारी। अक्सर जॉन कीट्स की एक कविता Ode to a Nightingale से लिए गए वाक्यांश full throated ease का जिक्र होता है।
हिंदी में अगर उसे अभिव्यक्त किया जाए तो, पूरी सहजता, ही कहा जाएगा।।
सहजता और सरलता ही तो प्रकृति है।
इसीलिए एक बच्चे के मुख में प्रकृति ही नहीं, पूरा ब्रह्माण्ड समाया हुआ है, जिसका दर्शन सिर्फ यशोदा कर सकती है, लेकिन माया उसे वापस ढंक लेती है। प्रकृति और ईश्वर के कुछ रहस्य जाने तो जा सकते हैं, लेकिन किसी को बताए नहीं जा सकते। कह लीजिए इसे गूंगे का गुड़।
लेकिन बच्चे के साथ ऐसा कहां ! जिसे कीट्स full throated ease कहते हैं, वही पूरी सहजता एक बच्चे की किलकारी में समाई हुई है, लेकिन बच्चा कोई चाबी का खिलौना नहीं, कि इधर चाबी भरी, और उधर उसने किलकारी भरी। वह अपनी मर्जी का मालिक है, सभी हठ, अलग हट, यही तो है बालहठ।।
मंदिर जाकर बच्चा क्यों मांगा जाए, जब अपने आसपास ही किसी के घर में नन्हा बच्चा मौजूद हो।
बच्चा अमीर गरीब नहीं होता, न ही उसकी कोई जात पात होती है। वह तो स्वयं ईश्वर स्वरूप होता है।
काग के भाग तो तब ही जाग गए थे, जब वह हरि हाथ से माखन रोटी ले गया था। अगर आपके भाग भी जाग गए, तो शायद आप भी सुन लें, उसकी सहज, सरल, अकस्मात् विस्मित और चकित कर देने वाली मनमोहक किलकारी।।
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख औरत की नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 204 ☆
☆ औरत की नियति☆
‘दिन की रोशनी ख्वाबों को बनाने में गुज़र गई/ रात की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र गई/ जिस घर में मेरे नाम की तख्ती भी नहीं/ मेरी सारी उम्र उस घर को सजाने में गुज़र गई।’ जी हां! यह पंक्तियां हैं अतुल ओबरॉय की,जिसने महिलाओं के दर्द को आत्मसात् किया; उनके दु:ख को समझा ही नहीं,अनुभव किया और उनके कोमल हृदय से यह पंक्तियां प्रस्फुटित हो गयीं; जो हर औरत के जीवन का सत्य व कटु यथार्थ हैं। वैसे तो यदि हम ‘औरत’ शब्द को परिभाषित करें तो उसका शाब्दिक अर्थ जो मैंने समझा है– ‘औरत’ औ+रत अर्थात् जो औरों की सेवा में रत रहे; जो अपने अरमानों का खून कर दूसरों के लिए जिए और उनके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर प्रसन्नता का अनुभव करे।
यदि हम ‘नारी’ शब्द को परिभाषित करें, तो उसका अर्थ भी यही है– ना+अरि, जिसका कोई शत्रु न हो; जो केवल समझौता करने में विश्वास रखती हो; जिसमें अहं का भाव न हो और वह दूसरों के प्रति समर्पित हो। वैसे तो समाज में यही भावना बलवती होती है कि संसार में उसी व्यक्ति का मान-सम्मान होता है,जिसने जीवन में सर्वाधिक समझौते किए हों और औरत इसका अपवाद है। जीवन संघर्ष का पर्याय है। परंतु उसे तो जन्म लेने से पूर्व ही संघर्ष करना पड़ता है,क्योंकि लोग भ्रूण-हत्या कराते हुए डरते नहीं–भले ही हमारे शास्त्रों में यह कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति को कुम्भीपाक नरक प्राप्त होता है। दुर्भाग्यवश यदि वह जन्म लेने में सफल हो जाती है; घर में उसे पग-पग पर असमानता-विषमता का सामना करना पड़ता है और उसे बचपन में ही समझा दिया जाता है कि वह घर उसका नहीं है और वह वहां चंद दिनों की मेहमान है। तत्पश्चात् उसे स्वेच्छा से उस घर को छोड़कर जाना है और विवाहोपरांत पति का घर ही उसका घर होगा। बचपन से ऐसे शब्द-दंश झेलते हुए वह उस चक्रव्यूह से मुक्त नहीं हो पाती। पति के घर में भी उसे कहाँ मिलता है स्नेह व सम्मान,जिसकी अपेक्षा वह करती है। तदोपरांत यदि वह संतान को जन्म देने में समर्थ होती है तो ठीक है अन्यथा वह बाँझ कहलाती है और परिवारजन उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने में तनिक भी संकोच नहीं करते। उसका जीवन साथी मौन रह कर कठपुतली की भांति उस अप्रत्याशित हादसे को देखता रहता है, क्योंकि उसकी मंशा से ही उसे अंजाम दिया जाता है। इतना ही नहीं,वह मन ही मन नववधु के स्वप्न संजोने लगता है।
सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देने के पश्चात् उसे जननी व माता का दर्जा प्राप्त होता है और वह अपनी संतान की अच्छी परवरिश हित स्वयं को मिटा डालती है। उसके दिन-रात कैसे गुज़र जाते हैं; वह सोच भी नहीं पाती। वास्तव में दिन की रोशनी तो ख़्वाबों को सजाने व रातों की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र जाती है। उसे आत्मावलोकन करने तक का समय ही नहीं मिलता। परंतु वह खुली आंखों से स्वप्न देखती है कि बच्चे बड़े होकर उसका सहारा बनेंगे। सो! उसका सारा जीवन इसी उधेड़बुन में गुज़र जाता है। दिन भर वह घर-गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त रहती है और परिवारजनों के इतर कुछ भी सोच ही नहीं पाती। उसकी ज़िंदगी ता-उम्र घर की चारदीवारी तक सिमट कर रह जाती है। परंतु जिस घर को अपना समझ वह सजाने-संवारने में लिप्त होकर अपने सुखों को तिलांजलि दे देती है; उस घर में उसे लेशमात्र भी अहमियत नहीं मिलती तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है और वह सोचने पर विवश हो जाती है कि ‘जिस घर में उसकी उसके नाम की तख्ती भी नहीं; उसकी सारी उम्र उस घर को सजाने-संवारने में गुज़र गयी।’
वास्तव में यही नियति है औरत की– ‘उसका कोई घर नहीं होता और वह सदैव परायी समझी जाती है। उन विषम परिस्थितियों में वह विधाता से प्रार्थना करती है कि ऐ मालिक! किसी को दो घर देकर उसका मज़ाक मत उड़ाना। पिता का घर उसका होता नहीं और पति के घर में वह अजनबी समझी जाती है। सो! न तो पति उसका हो पाता है; न ही पुत्र।’ अंतकाल में कफ़न भी उसके मायके से आता है और मृत्यु-भोज भी उनके द्वारा–यह देखकर हृदय चीत्कार कर उठता है कि क्या पति व पुत्र उसके लिए दो गज़ कफ़न जुटाने में अक्षम हैं? जिस घर के लिए उसने अपने अरमानों का खून कर दिया; अपने सुखों को तिलांजलि दे दी; उसे सजाया-संवारा– उस घर में उसे आजीवन अजनबी अर्थात् बाहर से आयी हुई समझा जाता है।
मुझे स्मरण हो रही हैं मैथिलीशरण गुप्त की वे पंक्तियां ‘अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी/ आँचल में है दूध और आँखों में पानी।’ इक्कीसवीं सदी में भी नब्बे प्रतिशत महिलाओं के जीवन का यही कटु यथार्थ है। वे मुखौटा लगा समाज में खुश रहने का स्वाँग करती हैं। अवमानना, तिरस्कार व प्रताड़ना उसके गले के हार बन जाते हैं और उसे आजीवन उस अपराध की सज़ा भुगतनी पड़ती है; जो उसने किया ही नहीं होता। इतना ही नहीं,उसे तो जिरह करने का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता,जो हर अपराधी को कोर्ट-कचहरी में प्राप्त होता है– अपना पक्ष रखने का अधिकार।
धैर्य एक ऐसा पौधा होता है,जो होता तो कड़वा है,परंतु फल मीठे देता है। बचपन से उसे हर पल यह सीख जाती है कि उसे सहना है, कहना नहीं और न ही किसी बात पर प्रतिक्रिया देनी है,क्योंकि मौन सर्वोत्तम साधना है और सहनशीलता मानव का अनमोल गुण। परंतु जब निर्दोष होने पर भी उस पर इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा किया जाता है, वह अपने दिल पर धैर्य रूपी पत्थर रख चिन्तन करती है कि मौन रहना ही श्रेयस्कर है,क्योंकि उसके परिणाम भी मनोहारी होते है। शायद! इसलिए ही लड़कियों को
प्रतिक्रिया न देने की सीख दी जाती है और वे मासूम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आजीवन कोसों दूर रहती हैं। बचपन में वे पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे तथा विवाहोपरांत पति व पुत्र के अंकुश में रहती हैं और अपनी व्यथा-कथा को अपने हृदय में दफ़न किए इस बेदर्द जहान से रुख़्सत हो जाती हैं। नारी से सदैव यह उम्मीद की जाती है कि वह निष्काम कर्म करे और किसी से अपेक्षा न करें।
परंतु अब ज़माना बदल रहा है। शिक्षित महिलाएं सशक्त व समर्थ हो रही हैं; परंतु उनकी संख्या नगण्य है। हां! उनके दायित्व अवश्य दुगुन्ने हो गए हैं। नौकरी के साथ उन्हें पारिवारिक दायित्वों का भी वहन पूर्ववत् करना पड़ रहा है और घर में भी उनके साथ वैसा ही अमानवीय व्यवहार किया जाता है। फलत: उन्हें मानसिक प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है।
परंतु संविधान ने महिलाओं के पक्ष में कुछ ऐसे कानून बनाए गए हैं, जिनके द्वारा वर पक्ष का उत्पीड़न हो रहा है। विवाहिता की दहेज व घरेलू-हिंसा की शिकायत पर उसके पति व परिवारजनों को जेल की सीखचों के पीछे डाल दिया जाता है; जहाँ उन्हें अकारण ज़लालत व मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। इसलिए लड़के आजकल विवाह संस्था को भी नकारने लगे हैं और आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प कर लेते हैं। इसे हवा देने में ‘लिव इन व मी टू’ का भी भरपूर योगदान है। लोग महिलाओं की कारस्तानियों से आजकल त्रस्त हैं और अकेले रहना उनकी प्राथमिकता व नियति बन गई है। सो! वे अपना व अपने परिजनों का भविष्य दाँव पर लगाने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते।
‘अपने लिए जिए तो क्या जिए/ तू जी ऐ दिल! ज़माने के लिए।’ यह पंक्तियां औरत को हरपल ऊर्जस्वित करती हैं और साधना,सेवा व समर्पण भाव को अपने जीवन में संबल बना जीने को प्रेरित करती हैं।’ यही है औरत की नियति,जो वैदिक काल से आज तक न बदली है, न बदलेगी। सहसा मुझे स्मरण हो रही हैं वे पंक्तियां ‘चुपचाप सहते रहो तो आप अच्छे हो; अगर बोल पड़ो,तो आप से बुरा कोई नहीं।’ यही है औरत के जीवन के भीतर का कटु सत्य कि जब तक वह मौन रहकर ज़ुल्म सहती रहती है; तब तक सब उसे अच्छा कहते हैं और जिस दिन वह अपने अधिकारों की मांग करती है या अपने आक्रोश को व्यक्त करती है, तो सब उस पर कटाक्ष करते हैं; उसे बुरा-भला कहते हैं। परंतु ध्यातव्य है कि रिश्तों की अलग-अलग सीमाएं होती हैं,लेकिन जब बात आत्म-सम्मान की हो; वहाँ रिश्ता समाप्त कर देना ही उचित है,क्योंकि आत्मसम्मान से समझौता करना मानव के लिए अत्यंत कष्टकारी होता है। परंतु नारी को आजीवन संघर्ष ही नहीं; समझौता करना पड़ता है–यही उसकी नियति है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आओ चिंता पालें”।)
अभी अभी # 182 ⇒ आओ चिंता पालें… श्री प्रदीप शर्मा
सबकी अपनी पसंद होती है, अपने अपने शौक होते हैं। कोई कबूतर पालता है तो कोई गैया, कोई तोता पाले तो कोई पाले गवैया, कोई संगीत का शौकीन तो कोई करे ता ता थैया। क्या करें उन लोगों का, जो मुफ्त में किसी से दुश्मनी भी पालें और आस्तीन में सांप भी।
इस पापी पेट को पालना इतना आसान भी नहीं। कोई आया बच्चों की देखभाल कर अपना पेट पालती है तो कोई किसान खेती बाड़ी के साथ साथ जानवरों को भी पालता है। बेचारे बैल खेत को जोतते हैं तो गाय भैंस के दूध से किसान की आमदनी भी हो जाती है। मुर्गी पालन और कुक्कुट पालन के साथ ही साथ मधुमक्खी पालन भी कई लोगों का व्यवसाय रहता चला आया है।।
अगर इंसान के सर पर परिवार का बोझ और जिम्मेदारी है तो उसे उसकी चिंता तो पालनी ही पड़ती है। बहुत पुरानी कहावत है ;
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै:।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य
प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।
माना कि चिंता चिता है, चिंता से कुछ हासिल नहीं होता, लेकिन रोजमर्रा की कठिनाई और परेशानियों के बीच निश्चिंत और गैर जिम्मेदार भी तो नहीं रहा जा सकता। बड़े अरमान थे, उत्साह उत्साह में परिवार बड़ा होता चला गया, हमें तो हम दो हमारे दो में ही पसीने आ गए, जिनके हम दो हमारे नौ होंगे वे बाल बच्चों के साथ साथ कितनी चिंता और पालते होंगे।
फिर भी पालक तो पालक होता है, चाहे दो बच्चों का परिवार हो या दस बारह का। जितने बच्चे उतनी उनकी पढ़ाई लिखाई, खानपीन और बाद में शादी की चिंता। बीमारी और गरीबी में आटा अगर होता भी था, तो गीला ही होता था। आज की तरह कहां बेचारों को मुफ्त राशन नसीब होता था। आज सरकार चिंता पाल रही है, कल तक तो परेशानियों का मारा, आम इंसान ही सब चिंता पालता था ना।
तब कोई मामा न तो लाडली बहना के लिए इस तरह आकर खड़ा होता था, और ना ही वृद्धों को कोई परिवारिक पेंशन सुविधा की गारंटी थी। कितना कर्जा कर करके बेटियों की शादी की। कर्ज के मारे रात रात भर नींद अलग नहीं आती थी, और ऊपर से यह चिंता, कहीं हमारी बेटी दुखी तो नहीं।।
वास्तविक पालनहारा तो वह निर्गुण और न्यारा ही है, लेकिन चिंता की शर शैय्या पर पड़ा, काम और कर्जे का मारा एक आदमी, कोई भीष्म पितामह नहीं, जो इच्छा मृत्यु के लिए भी अपने आराध्य का इंतजार करता फिरे। चिंता ने मारे जवानी में बूढ़े जवां कैसे, गरीबी और मजबूरी खा गई, इंसां कैसे कैसे।
कहना बहुत आसान है ;
किस किसको याद कीजिए
किस किसको रोइये।
आराम बड़ी चीज है,
मुंह ढंक कर सोइये।।
कल की तुलना में आज छोटे परिवार के अलावा भी बहुत कुछ है पालने को। सुबह बच्चों के स्कूल और टिफिन की चिंता, चार रोज काम वाली बाई नहीं आएंगी उसकी चिंता। बच्चों का होमवर्क, कोचिंग, परसेंटेज और अच्छे भविष्य की चिंता, नौकरी में बॉस और दुकानदारी में नफा नुकसान की चिंता। उम्र की चिंता के साथ, बी पी, शुगर, कोलोस्ट्राल और ओव्हरवेट की चिंता।
सुबह जल्दी उठकर स्ट्रेस मैनेजमेंट के लिए योग और ध्यान के अलावा मॉर्निंग वॉक की चिंता भी हम पाल ही रहे हैं। उधर एक युद्ध से निपटे तो इधर दूसरे में गले पड़ गए। वे कहां हमारी छाती पर चढ़ रहे हैं, लेकिन एक हम जो हैं न, चिंता को न्यौता देते फिर रहे हैं। मनवा ! रात भर जाग, तबीयत से फिर देश की चिंता पाल।।
☆ आलेख – प्रभात बेला के रंग – भाग-2 – लेखक- श्री विश्वास देशपांडे ☆ भावानुवाद – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
(महानायक श्री अमिताभ बच्चन जी के जन्मदिवस 11 अक्तूबर पर विशेष)
श्री विश्वास देशपांडे
चलिए, आज थोड़ा मुस्कुराते हैं – महानायक बीमार पड़ते हैं तब की बात बताऊँ…
कुछ देर बाद अमरीश पुरी वहाँ पहुंचते हैं। उनकी भारी भरकम आवाज गेट के बाहर से ही सुनी जा सकती है। तभी अस्पताल के रिसेप्शन काउंटर पर कोई उनका पहचान पत्र मांगता है।
बस फिर क्या था, पुरी साहब बरस पड़ते हैं, “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? मुझसे मेरा ही पहचान पत्र मांग रहे हो? खबरदार, अगर किसीने भी मुझे रोकने की कोशिश की तो!” हर कोई डर के मारे किनारे हट जाता है। अमरीश पुरी सीधे बेखटके अमिताभ के कमरे में दाखिल होते हैं। अपनी तराशी हुई कर्कश आवाज में बड़ी बड़ी ऑंखें और फैलाते हुए अमिताभ से पूछते हैं, “ऐसे ऑंखें फाड फाड कर क्या देख रहे हो? क्या मैं तुम्हें मिलने नहीं आ सकता? देखो, इस वक्त तुम बीमार हो। ‘मोगैम्बो खुश हुआ’ ये डायलॉग तो यहाँ चलेगा नहीं ना। मैं तुम्हें बस एक हफ्ते की मोहलत और देता हूँ। इस बीच अगर तुम ठीक नही हुए, तो मुझे ही कुछ करना पडेगा।”
उनके निकलने की देर थी कि, प्रवेश द्वार पर आगमन होता है अभिनेत्री रेखा का। अरे यह क्या देखने में आ रहा है? उसके हाथ में सामान से लदे दो झोले नजर आ रहे हैं। रेखा के आने के बाद सभी ने उसका बड़े ही सलीक़े से स्वागत किया। डॉक्टरसाहब रेखा से पूछते हैं, “मैडमजी, क्या आपको जया भाभी और ऐश्वर्या से मिलना है?”‘
रेखा अपनी खनकती आवाज में जवाब देती है, “जी नहीं डाक्टरबाबू, उनसे तो मैं बाद में मिलूंगी। मुझे सबसे पहले अमितजी से मिलना है।”
एक नर्स उसे अमिताभ के कमरे में ले जाती है। रेखा को देखते ही अमिताभ के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है और जैसे ही वह उठने की कोशिश करने लगता है, तो रेखा कह उठती हैं, “जी नहीं, आप उठिए मत। आपको आराम की सख्त जरूरत है। देखिये मैंने आपके लिए कुछ लाया है। ये जो छोटा बॉक्स है न, इसमे मैंने खुद अपने हाथों से बनाये हुये कुछ मास्क हैं। आप इन्हे पहन लीजिये, जल्दी ठीक हो जायेंगे। दूसरे बॉक्स मे आपके लिये स्टीमर लायी हूँ। दिन मे दो तीन बार स्टीम लेते रहिये। और देखिये ना, आप के लिए अपने हाथों से बादाम की खीर बनाकर लाई हूँ। मुझे मालूम है, आपको बहोत पसंद है, इस जरूर खा लीजिये।” इतना सब कहते कहते रेखा की ऑंखें भर आती हैं। उन्हें पोंछते हुए वह बोलती है, “आप जल्दी ठीक हो जाइये अमितजी, बस और क्या कहूं? बाकी तो आप जानते हैं…….!”
ऐसे में ही अस्पताल में खबर पहुँचती है कि, माननीय मुख्यमंत्रीजी अमिताभ से मिलने आ रहे हैं। नर्सें, वार्ड ब्वॉय इधर उधर भागने लगते हैं। डॉक्टर अपनी पीपीई या ऐसी ही किट पहनकर व्ही आय पी मंडली का स्वागत के लिए तैयार हो जाते हैं। सफाई कर्मियों पर अक्सर बेवजह जोर शोर से चिल्लाना जारी है। वैसे तो अमिताभ का कमरा साफ-सुथरा ही है, लेकिन फिर एक बार कीटाणुनाशक दवाइयाँ छिड़ककर और टाइल्स को घिस घिस कर पोंछते हुए उन्हें बारम्बार चकाचक चमकाया जाता है।
मुख्यमंत्रीजी सीधे अमिताभ के कमरे में आते हैं। उनके साथ साथ डाक्टरों की टीम भी है। सी एम को देखते ही अमिताभ उठकर नमस्ते कहने की कोशिश करता है।
“अरे, आप उठिये मत। आराम करते रहिये। आप को जल्दी ठीक होना है। अब कैसा लग रहा है आपको?”
“जी, मैं बिल्कुल ठीक हूँ।”
“कोई परेशानी तो नही है न? अगर हो तो हमें जरूर बतलाना।”
सी एम डाक्टर की ओर मुड़कर बोले, “देखिये, इनका खूब अच्छे से ख्याल रखना। अभिषेक, ऐश्वर्या और आराध्या के इलाज पर भी ठीक से ध्यान दीजिए। मुझे कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए।”
प्रमुख चिकित्सक, “सर, हम हमारी ओर से पूरी कोशिश कर रहे हैं। आप रत्तीभर भी चिंता न करें।”
मुख्यमंत्री, “फिर ठीक है। आप कोशिश कर रहे हैं ना, करते रहना चाहिए। सावधानी बरत रहे हैं ना। सावधानी बरतना जरुरी है। सावधानी से काम लिए बगैर कैसे चलेगा? इसका ध्यान रखना सबसे ज्यादा जरुरी है। कोरोना के संकट से तो हम सभी घिरे हैं। हम सब को मिलकर उस पर काबू पाना होगा। उसके बगैर वह कैसे जायेगा?”
डाक्टर को यूँ निर्देश देने के बाद माननीय मुख्यमंत्री अपने काफिले के साथ निकल जाते हैं।
अगले दिन सुबह सुबह अस्पताल के बाहर अभी भी कड़ी सुरक्षा जारी है। अब सुरक्षा बढ़ा दी जाती है। ब्लैक कैट कमांडो ने सम्पूर्ण इमारत पर कब्ज़ा कर लिया है। ताज़ातरीन खबर आयी है कि, माननीय प्रधान मंत्रीजी अमिताभ का हाल चाल पूछने हेतु अस्पताल को भेंट देने आ रहे हैं। सुबह के करीबन दस बजे उनका आगमन होता है। वे अपनी सुरक्षा टीम को बाहर छोड़कर अकेले ही अमिताभ से मिलने आते हैं। प्रवेश द्वार पर तैनात डाक्टरों की एक टीम अदब से उनका स्वागत करती है। चलते चलते वे डाक्टर से पूछते हैं, “कहिये, सब ठीक तो है?”
सारे डाक्टर एक स्वर में तुरंत जवाब देते हैं,”येस सर! एव्हरीथिंग इस ओके। वी आर ट्राईन्ग अवर लेवेल बेस्ट!”
पी एम अमिताभ के कमरे में आते हैं। अमिताभ पहले ही बेड पर उठ कर बैठा हुआ है। उन्हें देखते ही वह हाथ जोड़कर नमस्कार करता है।
माननीय प्रधान मंत्रीजी, “कैसे हो? यहां कोई कमी तो नहीं?”
“जी नहीं। यह तो हमारा सौभाग्य है कि, आप हमें देखने आये हैं।”
“अरे ये क्या कह रहे हो अमितजी? आपकी ओर तो सम्पूर्ण देश का ध्यान लगा हुआ है। आपको तो जल्दी ठीक होना है और लोगों को सन्देश भी देना है कि, कोरोना की महामारी का आपने सफलता पूर्वक मुकाबला कैसे किया। बस, आप जल्दी ठीक हो जाईये।”
फिर अस्पताल के ही एक हॉल में प्रधानमंत्री अस्पताल की नर्सों, वार्ड बॉय और डाक्टरों को पाँच मिनट के लिए संबोधित करते हैं।
“भाइयों और बहनों, मै जानता हूँ की इस परीक्षा की घडी में आप सब जी जान से कड़ी मेहनत कर रहे हैं। पूरा ध्यान रहे कि, हमें कोरोना को हर हाल मे हराना है। दुनिया की ऐसी कोई बीमारी नहीं है, जो ठीक नहीं हो सकती। हमें बहुत अधिक सावधानी बरतनी होगी। अपनी इम्युनिटी बढानी होगी। योग और प्राणायाम का नियमित अभ्यास इसे दूर रखने में हमारी सहायता अवश्य करेगा। हम इस बीमारी पर काबू पाने की लगातार कोशिश करेंगे। हम दुनिया को यह दिखा देंगे कि, भारत के पास हर समस्या का समाधान है और हम दुनिया का भी मार्गदर्शन कर सकते हैं। आप सभी को मेरी शुभ कामनाएँ!”
इस प्रकार माननीय प्रधान मंत्री की अस्पताल यात्रा के बाद लोगों का अमिताभ से मिलने का सिलसिला खत्म हुआ। इसके पश्चात डॉक्टर ने अन्य किसी को अमिताभ से मिलने से मनाही कर दी।
टिपण्णी – इसी लेख के जरिये हमारी ओर से अमिताभजी को उनके जनम दिन के उपलक्ष पर हमारी ओर से ढेर सारी शुभकामनाएँ, इस उम्मीद के साथ कि वे स्वस्थ रहें, जुग जुग जियें और यूँही दर्शकों का मनोरंजन करते रहें!
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ आलेख – प्रभात बेला के रंग – भाग-1 – लेखक- श्री विश्वास देशपांडे ☆ भावानुवाद – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
(महानायक श्री अमिताभ बच्चन जी के जन्मदिवस 11 अक्तूबर पर विशेष)
श्री विश्वास देशपांडे
चलिए, आज थोड़ा मुस्कुराते हैं – महानायक बीमार पड़ते हैं तब की बात बताऊँ…
सामान्यतः अत्यधिक व्यस्त रहने वाले (पिछली और इस सदी के भी) महानायक अमिताभ बच्चन तीन साल पहले कोरोना की बीमारी से त्रस्त हो गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उस समय फिल्म उद्योग के विभिन्न अभिनेता और नेता उनसे मिलने आते हैं। इस कल्पना का आधार लेकर निम्नलिखित लेख लिखा गया है। पाठकगण यह ध्यान में रखें कि, यह लेख सम्पूर्ण रूप से काल्पनिक है। इस लेख का एकमात्र उद्देश्य पाठकों को पल भर की खुशी का अवसर प्रदान करना है, बस और कुछ भी नहीं…)
फिल्म जगत के दिग्गज अभिनेता अमिताभ उर्फ़ बिग बी, अभिषेक उर्फ़ स्मॉल बी, बहूरानी ऐश्वर्या और अमिताभजी की लाड़ली पोती आराध्या कोरोना से ग्रस्त होकर मुंबई के नानावटी अस्पताल में भर्ती हैं। इस अवसर पर राजनीतिज्ञ नेता तथा फिल्म जगत के दिग्गज अभिनेता और अभिनेत्री उनसे मिलने आते हैं। आइये देखते हैं कि, इन महानुभावों के बीच किस किस प्रकार की बातचीत हो रही है।
प्रारम्भ में नानावटी अस्पताल के डाक्टर बाबू अमिताभ को ढाढ़स बँधाते हुए कह रहे हैं, “बच्चनसाहब, आप रत्तीभर भी चिंता मत कीजिये। आप बहुत जल्द पूरी तरह तंदुरुस्त हो जायेंगे। बताइये, आपका बेड कहाँ लगवा दूँ?”
अमिताभ का बीमारी की हालत में भी करारा जवाब आया “ये भी कोई पूछने की बात है डाक्टर साहब? आप तो अच्छी तरह जानते हैं कि, हम जहाँ खडे (अब मज़बूरी में पड़े) होते हैं, लाईन वहीं से शुरु होती है। आप जहाँ चाहे हमारा बेड लगवा सकते हैं।”
अमिताभ को (naturally) सबसे स्पेशल रूम दी जाती है। वह बेड पर विश्राम करने के बारे में सोच ही रहा है कि, उतने में राजेश खन्ना उसे मिलने के लिए आता है।
“ए बाबू मोशाय, जिंदगी बडी होनी चाहिये, लंबी नहीं। अरे! ये तो मेरा ही डायलॉग है। बिस्तर पर तो मुझे होना चाहिए। यहाँ भी मेरी जगह तुमने कैसे ले ली बाबू मोशाय? मैं जानता हूँ, तुम्हें कुछ नहीं होगा। भगवान तुम्हारे सारे दुःख दर्द मुझे दे दे और तुम्हें लंबी आयु दे। (उफ़! ये भी तो नहीं कह सकता कि तुम्हें मेरी उमर लग जाये!)” ऐसा कहकर अपनी खास स्टाइल में काका उर्फ़ राजेश खन्ना उससे बिदा लेता है।
वह जाने ही वाला है कि, तब तक शशी कपूर आता है। अमिताभ को बीमारी की हालत में बेड पर पड़े देख उसे बहुत बुरा लगता है। वह कहता है, “मेरे भाय, तुम्हारी जगह यहाँ नहीं है। शायद तुम गलती से इधर अस्पताल में आ गये हो।”
अमिताभ शशि भाय से कहता है, “हाँ मेरे भाई! ऐसाच होता है कभी कभी। ये सब तकदीर का खेल है। तुम तो हमेशा (तुम्हारा पेटेंट डायलॉग मारते हुए) कहते थे ना कि, तुम्हारे (मतलब मेरे) पास क्या है? तो लो आज आखिरकार सुन ही लो। मेरे पास कोरोना है। नजदीक आने की बिलकुल भी कोशिश ना करना, वर्ना यह तुम्हें भी जकड़ लेगा।”
शशी कपूर डर के मारे अस्पताल से निकल जाता है। उतने में धरमजी की एंट्री होती है।
“जय! ये कैसे हो गया जय? क्या हमारी दोस्ती को तुम भूल गये? तुम्हें याद है ना वो गाना जो हम कभी किसी ज़माने में गाया करते थे। ‘ये दोस्ती हम नही तोडेंगे।’ मैं तुम्हे अकेला नहीं लडने दूँगा इस बीमारी से! तुम बिलकुल भी अकेले नही हो मेरे दोस्त। चलो, हम दोनों मिल कर इसे खत्म करेंगे।”
इतने में ही वहाँ संजीवकुमार का आगमन होता है। उसने शॉल ओढ़ा हुआ है। धर्मेंद्र का कहा उसके कान पर पड़ा हुआ है। आगबबूला होते हुए वह दांत भींचकर कहता है, “तुम लोग उसे नहीं मारोगे! तुम लोग सिर्फ उसे पकडकर मेरे हवाले करोगे। इन हाथों में अब भी बहुत ताकत है।”
धर्मेंद्र और अमिताभ साथ साथ कहते हैं, “हम कोशिश जरूर करेंगे, ठाकुरसाहब, लेकिन ये काम तो बहुत कठिन लग रहा है”
“खाली कोशिश नहीं, तुम लोग उसे पकडकर मेरे हवाले करोगे। मैं उसे मारूँगा। हमें उसे इस दुनिया से खत्म करना है। अगर और भी पैसों की जरूरत हुई तो, मांग लेना। मगर ध्यान रहे कि, आसान कामों के लिये इतने ज्यादा पैसे नहीं दिये जाते।”
ठाकुरसाहब उर्फ़ संजीव कुमार के जाने के बाद अमजद खान उर्फ़ गब्बर वहाँ पहुंचता है। यहाँ हम यह मानकर चलेंगे (कोई माने या ना माने) कि, गब्बर यानि कोरोना! रामपुरी चाकू जैसी खूँखार नजर, तम्बाकू से सनी दन्तपंक्तियाँ और लोगों को मारने के लिए अति उत्सुक चमड़े का बेल्ट! गब्बर के ये तामझाम दिखाई देने पर सभी परिचारिकाएँ एवं वार्डबॉय डर के मारे क्रमशः भीगे हुए बिल्लियां और बिलाव बनकर वार्ड के एक कोने में दुबककर छुप जाते हैं। डाक्टरबाबू अपने कमरे में हैं। गब्बर के प्रवेश करते ही मानों यमराज की बजाई एक विशिष्ट सीटी वाला संगीत गूँजने लगता है।
“आ गये ना इधर? अपने को मालूम था भिडू कि, एक दिन तुम इधरिच आने वाला है। अपुन के पीछे पड़ने का येइच नतीजा निकलेगा ना! पता है तुम लोगों को कि, घर में जब बच्चा रोता है और बाहर जाने की जिद करता है, तो माँ उसे कहती है कि, बेटा बाहर मत जाना। गब्बर (कोरोना) तुम्हें पकड लेगा। पता है? इस्पर एक बच्चा मेराइच डायलॉग बोलै है, ‘जो डर गया वो मर गया!’ और पता है जो नहीं सुनता है उसको मरना ही है। (मन में कहते हुए – अरे, ऐन टाइम पर साम्भा किधर गया रे!) जानते तो होंगे (स्क्रिप्ट में है ना!) कितना इनाम रक्खा है सरकार ने हमारे सर पर! लेकिन अभी तक कोई हमारे उप्पर अक्सीर दवा नहीं बना पाया। और सुन लो, गब्बर (कोरोना) से तुम्हें एक ही आदमी बचा सकता है, वो है गब्बर (कोरोना- इम्युनिटी मिलती है जी कुछ महीने की)” ऐसे कड़क डायलॉग मारकर शान से गब्बर घोड़े पर सवार हो कर वहाँ से निकल जाता है।
टिपण्णी – इसी लेख के जरिये हमारी ओर से अमिताभजी को उनके जनम दिन के उपलक्ष पर हमारी ओर से ढेर सारी शुभकामनाएँ, इस उम्मीद के साथ कि वे स्वस्थ रहें, जुग जुग जियें और यूँही दर्शकों का मनोरंजन करते रहें!
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कल, आज और कल“।)
अभी अभी # 181 ⇒ कल, आज और कल… श्री प्रदीप शर्मा
पहले कल आया या आज ! कल ही आया होगा, अगर आज आया होता तो कहीं नजर जरूर आता। कल आता है, और गुजर जाता है। कल फिर एक नया कल आएगा। इसलिए हमने कल और आज को मिलाकर आजकल बना लिया है।
कहते हैं, कल कभी नहीं आता, हमेशा आज ही रहता है। जो बीत गया, वह भी कल था, और जो आएगा, वह भी कल ही है।
आज ही कल में ढल जाता है, जब दिन तमाम हो जाता है। वैसे तो हर बीता हुआ पल ही कल है, कल कल, पानी की तरह बहता समय है। जल और पल में यही फर्क है, जल को बांधा जा सकता है, लेकिन पल को नहीं रोका जा सकता ;
सुनो गजर क्या गाए
समय गुजरता जाए। ।
हमने समय को घड़ी में बांध दिया। जो पल है, वही तो घड़ी है। आप घड़ी को चाहे हाथ में बांध लो, अथवा दीवार पर टांग दो। समय की बड़ी संक्षिप्त और सटीक व्याख्या है 24 x 7, जो समय बताए वह घड़ी। वैसे काल गणना के लिए हमारे पास कैलेंडर ही नहीं, काल निर्णय भी है और पंचांग भी। घड़ी, चौघड़िया, और तिथि, वार सब की खबर है हमें।
पहले की दीवार घड़ियों में घंटा भी होता था। वे कलपुर्जों वाली टिक टिक करने वाली घड़ियां होती थी। हर घंटे आधे घंटे में बजकर समय बताती थी। जितनी बजी, उतने घंटे, आवाज वही टन टन। नगर में जगह जगह घंटाघर होते थे, जिनमें चारों दिशाओं के लिए चार घड़ियां होती थी, जो एक ही समय बताती थी। घड़ी भले ही कोई साज ना हो, लेकिन घड़ी सुधारक को घड़ीसाज ही कहते थे। खराब घड़ी शुभ नहीं मानी जाती। जो हमारा समय सुधार दे, वही सच्चा घड़ीसाज, श्री सदगुरूनाथ महाराज। ।
समय बहुत कीमती है, जो समय का मूल्य जानते हैं, वे बहुमूल्य, कीमती घड़ी पहनते हैं। जिनके हाथ में कीमती घड़ी नहीं, वे क्या समय की कीमत जानेंगे।
बस, आपका समय अच्छा चलना चाहिए। अगर एक बार खराब वक्त आ गया, तो सब घड़ी बेकार।
कल कभी नहीं आता, फिर भी हमें कल का इंतजार रहता है। कल की बीती रात से बेहतर हमारी आज सुबह की शुरुआत हो। अब तो हमारा हर पल भी डिजिटल हो गया है। शुभ घड़ी आई।।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की अगली कड़ी। )
☆ आलेख # 87 – प्रमोशन… भाग –5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
अंततः written test की date आ ही गई और इस शाखा से पात्रतानुसार पांच प्रत्याशी उस नगर की ओर रवाना होने के लिये रिलीव हुये जहाँ परीक्षा केंद्र भी था और आंचलिक कार्यालय भी. जाने के लिये बस की सुविधा थी और रेल की भी. बाकी चार तो टैक्सी तय करके मनमुताबिक stoppage और गति के साथ चलने का प्लान बना चुके थे पर मिस्टर 100% इनसे अलग जाने की और रुकने की व्यवस्था कर चुके थे. अतः उन्होंने ये टैक्सी द्वारा जाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया और रेल से प्रस्थान करने का निश्चय भी बतला दिया. दरअसल उनके पिताश्री भारतीय रेलवे विभाग में अधिकारी थे और उन्होंने परीक्षा केंद्र के निकट ही, अपने कार्यालयीन संबंधो का उपयोग कर रेल्वे के अधिकारी विश्राम गृह में रुकने की व्यवस्था भी कर दी थी. उनका सोचना था इस तरह की एकला चलो यात्रा और एकाकी प्रवास निर्विघ्न पढ़ने की भी सुविधा देता है. साथी सब समझ गये और चूंकि इनके “अकेला ही काफी है ” स्वभाव से वाकिफ थे, अतः इनके वहिष्कार से एक बेहतर मनोरंजक यात्रा का लाभ पाया. ये चारों आधुनिक काल के वो बैंकर्स बंधु थे जो मि. 100% का साथ पाने के बजाय, उनसे सुरक्षित दूरी बनाकर रखना ज्यादा पसंद करते थे. मि. 100% शाखा में समझे जाने वाले सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी थे, trainee officer (प्रशिक्षु अधिकारी) का written test पास कर इंटरव्यू दे चुके थे पर रिजल्ट किसी लीगल प्रक्रिया {legally stayed} के कारण अटका हुआ था. चूंकि इस दौरान काफी समय बीत चुका था तो लोग भी और वो भी भूल गये थे कि ऐसा कोई टेस्ट उन्होंने दिया है.
खैर दूसरे दिन सुबह 08:00 पर सभी परीक्षा केंद्र पहुंच गये और जहाँ बाकी लोग अपने मित्रों से मिलने में व्यस्त थे, मि. 100% कैंपस में ही एकांत स्थान चुनकर प्रबल संभावित प्रश्नों के उत्तरों पर आखिरी नजर मारने में लगे रहे. तयशुदा समय पर लिखित परीक्षा प्रारंभ हुई और सबसे अंत में उत्तरपुस्तिका जमा करने वाले यही थे. इसका कारण अनिश्चितता थी या हरेक मिनट का पूरा उपयोग, पता नहीं पर 100% जी का पूरा ध्यान सिर्फ और सिर्फ प्रश्न पत्र पर ही केंद्रित रहा. अगर यात्रा तनावपूर्ण हो तो फिर इस यात्रा में कुछ बहुत अच्छे, रमणीक, रिफ्रेशिंग, प्राकृतिक दृश्य छूट जाते हैं, प्रकृति का स्वभाव निश्चिंतता, उन्मुक्तता और निरंतरता होता है और वही लोग इसका आनंद उठा पाते हैं जो स्वयं “पाने की लालसा” से भयभीत होने तक की उत्कंठा के शिकार नहीं बनते.
परीक्षा केंद्र से शाखा में वापसी भी उसी तरह अलग अलग साधनों से हुई जैसी आने के वक्त अपनाई गई थी. बाकी चार परीक्षार्थी, जहाँ परीक्षा के रिजल्ट से बेपरवाह अपने मित्रों से मुलाकात और यात्रा के अन्य प्रसंगों की चर्चाओं का आनंद ले रहे थे, वहीं मि. 100% ने रिजल्ट के तनाव से गुजरना प्रारंभ कर दिया था. अनावश्यक रूप से टेंशन लेना व्यक्तित्व की बड़ी कमजोरी ही मानी जाती है जो निर्णय और रिस्क लेने की क्षमता को बुरी तरह प्रभावित करती है पर इनका ये खानदानी स्वभाव बदलना मुश्किल था.
लौटने पर जैसा कि होता है कि “कैसा रहा पेपर” और इसका स्टेंडर्ड जवाब भी यही होता है कि ठीक रहा. ये ऐतिहासिक सवाल स्कूल से ही लगातार पूछा जाता रहा है और आदिकाल से ही हर परीक्षार्थी यही जवाब देता आया है. अब सब लोग वापस अपने अपने काम में लग गये और रिजल्ट का इंतजार करने लगे. वो ज्यादा कर रहे थे जो इस मैटर में क्रिकेट के समान चुपचाप शर्त लगा कर बैठे थे. कितने होंगे और किसका नहीं होगा, दो बातों पर शर्त लगी थी और मि. 100% पर किसी ने शर्त नहीं लगाई थी क्योंकि सब जानते थे कि इनका तो हो ही जाना है.
Written test के रिजल्ट और आगे की प्रक्रिया को मनोरंजन नामक रैपर में लपेटकर अगले अंक में प्रस्तुत किया जायेगा. बैंकर्स के जीवन में written test बहुत समय तक साथ चलता है. शुक्र है कि रिटायरमेंट और पेंशन पाने की पात्रता के लिये कोई रिटनटेस्ट नहीं होता वरना क्या होता, कल्पना कीजिए.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चेहरे पर चेहरा“।)
अभी अभी # 180 ⇒ चेहरे पर चेहरा… श्री प्रदीप शर्मा ०००
THE BEARD
क्या दाढ़ी चेहरे पर एक और चेहरा नहीं। केश को महिलाओं का श्रृंगार माना गया है और दाढ़ी को मर्दों की खेती, जब चाहे उगा ली, और जब चाहे काट ली। एक समय था, वानप्रस्थ और सन्यास के वेश में दाढ़ी का भी योगदान होता था। आज भी साधु, बाबा और संन्यासियों का श्रृंगार है यह दाढ़ी।
चलती का नाम गाड़ी की तर्ज पर किशोर कुमार ने एक फिल्म बनाई थी, बढ़ती का नाम दाढ़ी ! आप अगर काटो नहीं, तो दाढ़ी और नाखून दोनों बढ़ने लगते हैं। क्या विचित्र सत्य है, हमारे शरीर के नाखून और बाल, शरीर का हिस्सा होते हुए भी, इनमें खून नहीं है। इन्हें काटो, तो दर्द नहीं होता।
कैसी अहिंसक पहेली है यह ;
बीसों का सर काट लिया।
ना मारा ना खून किया। ।
हमारे दिव्य अवतार राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर के मुखमंडल की आभा देखते ही बनती है। स्वामी विवेकानंद के चेहरे का ओज देखिए। कलयुग के फिल्मी सितारों को ही देख लीजिए, देव, राज और दिलीप। धरम, राजेश खन्ना, जीतू और गोविंदा ही नहीं एंग्री यंग मैन अमिताभ भी ! बेचारे अमिताभ को तो स्क्रीन टेस्ट में भी बड़ी परेशानी आई थी। भला हो सात हिंदुस्तानी आनंद, नमकहराम, मिली और शोले और दीवार जैसी फिल्मों का, जिसने अमिताभ को सदी का महानायक बना दिया और हमारे बिग बी ने एक चेहरे पर एक और चेहरा चढ़ा लिया।
कितनी पते की बात कह गए हैं हसरत जयपुरी साहब फिल्म असली नकली में ;
लाख छुपाओ छुप ना सकेगा
राज दिल का गहरा।
दिल की बात बता देगा
असली नकली चेहरा। ।
साहिर ने अपने चेचक के दाग वाले चेहरे को कभी दाढ़ी में नहीं छुपाया लेकिन एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेने वालों की अच्छी खबर ली। गुलजार तो कह गए हैं, मेरी आवाज ही पहचान है, और आज इधर जहां देखो वहां, दाढ़ी ही मेरी पहचान है। ।
एक समय था, जब मर्द की पहचान मूंछों से होती थी।
लिपटन टाइगर वाला मुछंदर याद है न? लिपटन माने अच्छी चाय। मूंछ पर ताव देना और शर्त हारने पर मूंछ मुंडवा देने की कसम खाना आम था। मूंछ तो हमने भी बढ़ाई थी, लेकिन जब दाढ़ी भी बढ़ने लगी तो पिताजी ने डांट पिला दी, यह क्या देवदास बने फिर रहे हो, जाओ दाढ़ी बनाकर आओ। पिताजी के सामने कभी हमारा मुंह नहीं खुला, मन मसोसकर रह गए। लेकिन मन ही मन बड़बड़ाते रहे, पिताजी क्या जानें, बिना दाढ़ी के कोई येसुदास नहीं बनता।
कभी दाढ़ी फैशन थी, आज तो दाढ़ी का ही प्रचलन है।
कबीर बेदी की दाढ़ी बड़ी स्टाइलिश थी। क्या जोड़ी थी कच्चे धागे में विनोद खन्ना और कबीर बेदी की। बेचारे संत महात्मा तो दाढ़ी बढ़ाकर भूल जाते हैं, लेकिन जो लोग शौकिया दाढ़ी रखते हैं, उन्हें तो दाढ़ी का बच्चों जैसा खयाल रखना पड़ता है। ब्यूटी पार्लर से महंगे होते जा रहे हैं आजकल मैन्स पॉर्लर।
वैसे हमें क्या, बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद। ।
बिग भी, हमारे नरेंद्र मोदी और विराट कोहली तीन टॉप के दाढ़ी वाले हैं आज के इस युग के। विराट की स्टाइल की कॉपी ने तो पुराने फैशन के सभी रेकॉर्ड तोड़ दिए हैं। सोलह बरस की बाली उमर से ही आज के युवा में विराट की छवि नजर आने लगती है।
आज के युवा अभिनेता हों या क्रिकेट प्लेयर, कॉलेज का छात्र हो या प्रोफेसर, टॉप एक्जीक्यूटिव और मोटिवेशनल स्पीकर, सभी जगह दाढ़ी वाले ही नज़र आएंगे आजकल।
वैसे मनोविज्ञान तो यही कहता है कि पुरुष भी किसी महिला के लिए ही सजता, संवरता है। जरूर आज की युवतियों की भी पहली पसंद दाढ़ी वाले युवा ही होंगे। बुढ़ापे में तो दाढ़ी इंसान के कई ऐब छुपा लेती है। किस दाढ़ी में साधु है और किस दाढ़ी में शैतान, यह तो सिर्फ भगवान ही जानता है।
कभी अभिनय के लिए नकली दाढ़ी लगाते थे, आज तो असली दाढ़ी ही अभिनय के काम आती है। जो दाढ़ी में भी सहज और सरल है, बस वही सच्चा साधु है। ।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – आत्म निर्भर पारंपरिक प्राकृतिक सांस्कृतिक मूल्यों के संवाहक हमारे आदिवासी…)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 235 ☆
आलेख – आत्म निर्भर पारंपरिक प्राकृतिक सांस्कृतिक मूल्यों के संवाहक हमारे आदिवासी…
अधिकांश आदिवासी प्रकृति के साथ न्यूनतम आवश्यकताओ में जीवनयापन करते हैं. वे सामन्यत: समूहों में रहते हैं और उनकी संस्कृति अनेक दृष्टियों से आत्मनिर्भर होती है. आदिवासी संस्कृतियाँ परंपरा केंद्रित होती हैं. भारत में हिंदू धर्म की संस्कृति इनमें पाई जाती है. विश्व में उत्तर और दक्षिण अमरीका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, एशिया तथा अनेक द्वीपों और द्वीप समूहों में आज भी आदिवासी संस्कृतियों के अनेक रूप पाये जाते हैं. संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार, भारत में आदिवासियों को परिभाषित किया गया है. और उन्हें विशेषाधिकार दिये गये हैं, जिससे वे भी देश की मूल धारा के साथ बराबरी से विकास कर सकें. आदिवासी जनजातियाँ देश भर में, मुख्यतया वनों और पहाड़ी इलाकों में फैली हुई हैं. पिछली जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या का लगभग 8. 6% अर्थात देश में कोई बारह करोड़ जनसंख्या आदिवासी हैं.
आदिवासी शब्द का प्रयोग सबसे पहले अमृतलाल विठ्ठलदास ठक्कर ने किया था, जिन्हें ठक्कर बापा के नाम से जाना जाता है. मध्य प्रदेश में अनेक जनजातीय आबादी रहती है. भील, गोंड, कोल, बैगा, भारिया, सहरिया, आदि, मध्य प्रदेश के मुख्य आदिवासी समूह हैं. इनकी बोली स्थानीयता से प्रभावित है. सामान्यतः स्वयं बनाई हुई झोपड़ियों के समूह में ये जन जातियां जंगलो के बीच में रहती है.
अलग अलग जन जातियों के त्यौहार जैसे गल, भगोरिया, नबाई, चलवानी, जात्रा, आदि मनाये जाते हैं जिनमें मांस, स्वयं बनाई गई महुये की मदिरा, ताड़ी का सेवन स्त्री पुरुष करते हैं. सामूहिक नृत्य किया जाता है. विवाह की रीतियां भी रोचक हैं जिनमें अपहरण, भाई-भाई, नटरा, घर जमाई, दुल्हन की कीमत (देपा सिस्टम), आदि प्रमुख हैं. परंपरागत रूप से पुरुष सिर पर पगड़ी, अंगरखा, बंडी या कुर्ता, धोती, गमछा पहनते हैं, और महिलाएं साड़ी, चोली और घाघरा पहनती हैं. पिथौरा चित्रकला भील जनजाति की विश्व प्रसिद्ध लोक चित्रकला है. ये जन जातियां गीत संगीत, ढ़ोल नगाड़ो के शौकीन होते हैं. भील बांसुरी बजाने में माहिर होते हैं. होली दिवाली मेले मड़ई हाट बाजार में उत्सवी माहौल रहता है.
आदिवासियों में से समय समय पर अनेक क्रांतिकारियों का योगदान समाज में रहा है. बिरसा मुंडा, मुंडा विद्रोह/उलगुलान का महानायक, जयपाल सिंह मुण्डा – महान राजनीतिज्ञ, सुबल सिंह – चुआड़ विद्रोह के नायक और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रथम शहीद थे, टंट्या भील – भारत के रोबिन्हुड कहे जाते थे. रानी लक्ष्मीबाई की सेनापति झलकारी बाई, सिद्धू मुर्मू और कान्हू मुर्मू – संताल विद्रोह के नायक रहे हैं. तिलका माँझी – पहाड़िया विद्रोह के नायक, गंगा नारायण सिंह – भूमिज विद्रोह और चुआड़ विद्रोह के महानायक, जगन्नाथ सिंह – चुआड़ विद्रोह के नायक, दुर्जन सिंह – चुआड़ विद्रोह के नायक, रघुनाथ सिंह – चुआड़ विद्रोह के महानायक थे. बुधू भगत -भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध क्रांतिकारी के रूप में जाने जाते हैं. इनकी लड़ाई अंग्रेज़ों, ज़मींदारों तथा साहूकारों द्वारा किए जा रहे अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध थी. तेलंगा खड़िया – आदिवासी समाज के स्वतंत्रता सेनानी थे.
आजादी के बाद से उल्लेखनीय सामाजिक कार्यों के लिये आदिवासीयों में से सर्व श्री करिया मुंडा को पद्म भूषण, मंगरू उईके, रामदयाल मुण्डा, गंभीर सिंह मुड़ा, तुलसी मुंडा को पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है.
भोपाल में जन जातीय संग्रहालय बनाया गया है, जहाँ विभिन्न दीर्घाओ में आदिवासी संस्कृति को दर्शाया गया है.
कांग्रेस देश में सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी है, इससे आदिवासियों का गहरा पुराना नाता है. . मंगरू उईके मण्डला के प्रमुख आदिवासी नेता रहे हैं जो अनेक बार यहां से कांग्रेस के सांसद थे. उन्हे पदमश्री से समांनित भी किया गया था. मोहन लाल झिकराम मंडला का नेतृत्व कर चुके लोकप्रिय नेता थे. मंडला डिंडोरी के आदिवासी करमा नर्तक दल दिल्ली के गणतंत्र दिवस समारोह में शामिल होते रहे हैं. ये नृत्य दल फ्रांस आदि देशों में भी अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं.