(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 55 ☆ देश-परदेश – अटरम शटरम ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज एक मित्र के साथ जयपुर स्थित सी स्कीम क्षेत्र में एक कार्यालय जाना हुआ। वहां कुछ समय फ्री था, तो पास के मार्ग में सुनहरी धूप का स्वाद लेते हुए एक घर के बाहर लगे साइन बोर्ड पर दृष्टि पड़ी, तो मोबाइल से उसकी फोटो लेकर आप को साझा करने का विचार आता, इससे पूर्व उस घर से एक युवक बाहर आकर हमें अंदर ले जाकर पूछने लगा आप सरकारी विभाग से हैं क्या, हमारी छोटी सी दुकान है।
हमने उससे कहा आपकी दुकान का नाम कुछ अटपटा लगा इसलिए फोटो खींच ली है। उसको लगा अब उसको बोर्ड लगाने का सरकारी शुल्क देना पड़ेगा।
विस्तार से उससे चर्चा हुई कि ये नाम क्यों रखा गया है? उसने बताया की उनके पास खाने पीने का सामान और भेंट (गिफ्ट) में दिए जाने वाली वस्तुएं हैं, जो कि बाज़ार में उपलब्ध सामान से हटकर/ अलग प्रकार की हैं। दूसरों से अलग (different) हैं। आज प्रत्येक व्यक्ति सब से अलग करने की मानसिकता में विश्वास करने लगा है।
हमें भी याद आ गया जब युवावस्था में बाज़ार से चाट/ पकोड़ी या समोसा इत्यादि खाकर घर में अम्माजी को भोजन की मनाही करते थे, वे कहा करती थी, बाज़ार का “अटरम शटरम” मत खाया करो, नियमित भोजन करना चाहिए।
स्वास्थ्य की दृष्टि से उनका कथन शत-प्रतिशत उचित होता था, परंतु हम तो अपनी जिह्वा के वश में होश खो कर बाज़ार का सामान चट कर जाते थे।
हमारे साथ चल रहे मित्र, हंसते हुए बोले की तुम भी तो कुछ भी देखकर “अटरम शटरम” लिख कर व्हाट्स ऐप में साझा कर देते हो।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जयपुर वाली बुआ जी”।)
अभी अभी # 179 ⇒ जयपुर वाली बुआ जी… श्री प्रदीप शर्मा
जीवन में कई प्रसंग ऐसे आते हैं, जब घर रिश्तों से भर जाता है। जैसे जैसे रिश्ते खत्म होने लगते है, घर खाली होने लग जाता है। रिश्ते कभी मरते नहीं, लेकिन रिश्तेदार तो अमर नहीं हो सकते न।
ये पारिवारिक प्रसंग ही तो होते हैं, जब बेटियां मायके जाती हैं और बेटों को कभी अपना ननिहाल तो कभी अपना ससुराल खींच लाता है। वहां रिश्ते ही नाम होते हैं। अभी कानपुर वाली चाचीजी नहीं आई, मथुरा वाले फूफा जी नहीं दिख रहे। मत लो नाम उनका, अभी टपक पड़ेंगे। ।
हम भी जब ससुराल जाते थे, तो हमारे रिश्ते को भी नाम दिया जाता था। हम किसी के जीजाजी बन जाते थे तो किसी के कंवर साहब। ऐसे में अगर कहीं से अपना नाम सुनने में आ जाए, तो बड़ा अच्छा लगता था। कोई तो है यहां ऐसा, जो अपने को नाम से भी जानता है।
रिश्ते तो सभी अपने होते हैं, लेकिन अपनों में भी रिश्ते निकल आते हैं। रिश्ते में वे किसी की बुआ थी, तो किसी की बहन, लेकिन मेरे लिए उनका परिचय जयपुर वाली बुआ जी का ही काफी था। जयपुर में उनका भरा पूरा परिवार था। राजगढ़ उनका मायका और मेरा ससुराल था। अधिकतर उनसे मेरी भेंट मेरे ससुराल में ही होती थी। ।
रिश्ते के अलावा उनकी एक पहचान और थी, लोग
उन्हें पान वाली बुआ भी कहते थे। पान उनकी पहचान नहीं, जीवन शैली बन चुकी थी। सुबह कड़क, मीठी, कम दूध की चाय के पश्चात् जमीन पर ही उनकी पान की दुकान सज जाती थी। हम बड़े कुतूहल और उत्सुकता से उनके जादू के पिटारे को निहारा करते थे। गीले टाट के टुकड़े में करीने से रखे हुए हरे हरे पान के पत्ते, खुलता हुआ पानदान, जिसमें कत्था, चूना, लौंग, सुपारी, इलायची
और गुलकंद के अलावा भी बहुत कुछ होता था। कई पोटलियां और नजर आती थी वहां, जिनमें डॉक्टरों की निर्देशित नियमित दवाओं के पैकेट्स भी शामिल होते थे। जीवन की वह एक ऐसी सुबह होती थी, जो शाम तक उन्हें तरो ताजा रखती थी।
वे पान खाती ही नहीं, बनाकर सबको खिलाती भी थी। एकमात्र मैं ऐसा टीटोटलर था, जो पान भी नहीं खाता था। लेकिन बुआ जी के पास सबके लिए कुछ ना कुछ अवश्य होता था। मैने भले ही उनकी सेवा नहीं की हो, लेकिन मुझे पांच बादाम और पांच मनक्का रोजाना इनाम स्वरूप अवश्य मिलते थे। सत्संग से बड़ी कोई सेवा नहीं, शायद इसीलिए मुझे मेवा नसीब होता था। ।
जब तक वे वहां रहती, उनका आत्म विश्वास और जिंदादिली का आलम यह रहता था, मानो उनके आसपास जिंदगी मुस्कुरा रही हो। अपने आराध्य श्रीनाथ जी की सेवा, स्मरण ही उनके जीवन का मूल मंत्र था। उनके पान में एक विशेष बात होती थी, वे पिपरमेंट की जगह भीमसेनी कपूर का उपयोग करती थी। भीमसेनी कपूर को बरास भी कहते हैं, जो नाथद्वारे के प्रसाद में भी मिलाया जाता है। इससे एक तो प्रसाद अधिक दिन तक टिका रहता है और कहते हैं, इसकी शुगरफ्री तासीर भी होती है।
लेकिन सब दिन कहां समान होते हैं। आज तो बस जयपुर वाली बुआ जी की मधुर यादें ही शेष हैं। जब वे अधिक बीमार थीं, तब एक बार जयपुर एक विवाह में जाना हुआ, कोशिश थी, बुआ जी से मिलेंगे, लेकिन हम तो सोचते ही रह गए और बुआ जी ने हमें, अपनी सुशील बहू को भेजकर होटल से बुला लिया। ” बुआ जी आपसे मिलना चाहती हैं। “
बस वही हमारी अंतिम भेंट, अंतिम मिलन था। वे लेटी हुई थी, पान की दुकान नदारद थी, लेकिन आंखों में वही चमक और श्रीनाथ जी में विश्वास ! उन्हें उठाकर बैठाया गया, उन्होंने अपनी पोटली में से पांच बादाम और पांच मनक्का निकाले और मेरे हाथ में धर दिए। ईश्वर कहां खुद इस धरती पर अवतरित होता है, शायद उसे जरूरत ही नहीं पड़ती। उनकी पूरी कृपा हम पर इसी तरह बरसती रहती है। हमारे बुजुर्गों के आशीर्वाद से बड़ा कोई मेवा नहीं, किसी मंदिर का प्रसाद नहीं। जयपुर वाली बुआ जी को समर्पित यह स्मरणाञ्जलि ..!!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वामी और स्वामिभक्त”।)
अभी अभी # 178 ⇒ स्वामी और स्वामिभक्त… श्री प्रदीप शर्मा
अपने स्वामी के हर आदेश का जो पालन करता है, उसे स्वामिभक्त कहते हैं। यह संबंध एक भक्त और स्वामी का भी हो सकता है, दास और स्वामी का भी हो सकता है और एक मालिक और नौकर का भी हो सकता है। भक्त तो कई प्रकार के होते हैं, लेकिन जो केवल अपने स्वामी अर्थात् मालिक के प्रति ही वफादार हो, उसे स्वामिभक्त कहते हैं। क्या हुक्म है मेरे आका !
बुरा तो लगता है, लेकिन अंग्रेजी गुलामों की भाषा है, yours faithfully का हिंदी अनुवाद आपका आज्ञाकारी ही तो होता है।
मैनर्स कह लें, तमीज, तहजीब कह लें, अथवा संस्कार कह लें, जहां भक्ति है, वहां शरणागति है। सारा जगत राम का दास है, कोई मोहनदास तो कोई हरि ओम शरण।।
गुरु और शिष्य का संबंध भी भक्त और भगवान की तरह ही है और अगर घर में एक ईमानदार और आज्ञाकारी नौकर मिल जाए, तो हर गृह स्वामी धन्य हो जाए।
जब एक आदमी का ही दूसरे आदमी पर से विश्वास
टूट जाता है, तब बारी आती है एक मूक प्राणी की, जिसे आप चाहें तो जानवर भी कह सकते हैं। पुराने जमाने में गुलामों को खरीदा जाता था, आजकल कुत्तों को खरीदा जाता है।
वैसे यह अनमोल प्राणी तो बिन मोल ही बिकने को तैयार है, इसकी कीमत तो आजकल बाजार लगाने लगा है। मुफ्त में बिकने वाले प्राणी को हम बोलचाल की भाषा में एक वफादार कुत्ता कहते हैं।।
कुत्ता आपका नमक खाए ना खाए, कभी वफादारी नहीं छोड़ता। कुत्ता अपने स्वामी को पहचानता है, वह चोर को भी पहचानता है और साहूकार को भी। अगर कोई चोर ही कुत्ता पाल ले, तो कुत्ता इतना भी इंसाफपसंद, नमक हराम, स्वार्थी और खुदगर्ज नहीं कि अपने मालिक को ही पुलिस के हवाले कर दे। सबकी स्वामिभक्ति की अपनी अपनी परिभाषा है। जानवर सिर्फ प्रेम की भाषा समझता है, उसके शब्दकोश में केवल एक ही शब्द है, वफादारी और स्वामिभक्ति।
पहले हम गाय पालते थे, आजकल कुत्ता पालते हैं। गाय तो हमारी माता है, कहीं माता को भी पाला जाता है। इसलिए हमने गाय के लिए गौशाला बना दी और कुत्ते को पाल लिया। हम रोजाना गौसेवा करते हैं और कुत्ता हमारी
रखवाली करता है।।
रोज सुबह मैं कई स्वामियों को स्वामिभक्त, वफादार प्राणियों को, जिनको उन्होंने बच्चों की तरह नाम दिया है, टहलाते हुए देखता हूं। गले में पट्टे और जंजीर से बंधा कुत्ता आगे आगे, और मालिक पीछे पीछे। स्वच्छ भारत में सुबह का यह दृश्य आम है। सब्जी मार्केट में जिस तरह सूंघ सूंघ कर सब्जी खरीदी जाती है, ये पालतू श्वान महाशय सूंघ सूंघकर, नित्य कर्म हेतु, अपनी साइट पसंद करते हैं, जिसे हम कभी दिशा मैदान कहते थे। हर प्राणी का अपना अपना निवृत्ति मार्ग होता है।
आज की तारीख में अगर वफादारी और स्वामिभक्ति की बात करें, तो शायद घर का पालतू कुत्ता ही बाजी मार जाए। गृह स्वामी ही नहीं, घर के सभी सदस्यों का प्यारा, जिसे घर में बच्चे जैसा ही प्यार और देखभाल मिले। विशेष भोजन और दवा दारू भी। कभी कभी तो यह भी पता नहीं चलता, सेवक कौन है और स्वामी कौन।
अगर घर से बाहर गांव जाएंगे, तो उसकी भी व्यवस्था करेंगे। बच्चे को कौन अकेला घर में छोड़कर जाता है।।
कहीं यह स्वामी और एक स्वामिभक्त और वफादार कुत्ते का प्रेम और आसक्ति का रिश्ता हमें जड़ भरत तो नहीं बना देगा। लेकिन इसमें एक बेचारे बेजुबान प्राणी का क्या दोष। उसका तो जन्म ही वफादारी के लिए हुआ है।
कुत्ते की योनि में अगर उसे अपने स्वामी का संरक्षण और प्यार मिलता है, तो उसका तो जीवन धन्य हो गया।
परिवारों का टूटना, बिखरना, रिश्तों में प्रेम की जगह स्वार्थ का प्रवेश, इंसान का दूसरे इंसान से भरोसा उठ जाना, घर में बड़े बुजुर्गों का अभाव, दौड़भाग की जिंदगी का तनाव और टूटते रिश्ते, हमें अनजाने ही इस प्राणी की ओर खींच ले जाते हैं। घर के एकांत को दूर करने का एक वफादार कुत्ते के अलावा कोई विकल्प नहीं। जड़ भरत ही सही, आखिर कोई इंसान हैं, फरिश्ता तो नहीं हम।।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 212☆ हर काल, हर हाल !
संध्या समय प्राय: बालकनी में मालाजप या ध्यान के लिये बैठता हूँ। देखता हूँ कि एक बड़ी-सी छिपकली दीवार से चिपकी है। संभवत: उसे मनुष्य में काल दिखता है। मुझे देखते ही भाग खड़ी होती है। वह भागकर बालकनी के कोने में दीवार से टिकाकर रखी इस्त्री करने की पुरानी फोल्डिंग टेबल के पीछे छिप जाती है।
बालकनी यूँ तो घर में प्रकाश और हवा के लिए आरक्षित क्षेत्र है पर अधिकांश परिवारों की बालकनी का एक कोना पुराने सामान के लिये शनै:-शनै: आरक्षित हो जाता है। इसी कोने में रखी टेबल के पीछे छिपकर छिपकली को लगता होगा कि वह काल को मात दे आई है। काल अब उसे देख नहीं सकता।
यही भूल मनुष्य भी करता है। धन, मद, पद के पर्दे की ओट में स्वयं को सुरक्षित समझने की भूल। अपने कथित सुरक्षा क्षेत्र में काल को चकमा देकर जीने की भूल। काल की निगाहों में वह उतनी ही धूल झोंक सकता है जितना टेबल के पीछे छुपी छिपकली।
एक प्रसिद्ध मूर्तिकार अनन्य मूर्तियाँ बनाता था। ऐसी सजीव कि जिस किसीकी मूर्ति बनाये, वह भी मूर्ति के साथ खड़ा हो जाय तो मूल और मूर्ति में अंतर करना कठिन हो। समय के साथ मूर्तिकार वृद्ध हो चला। ढलती साँसों ने काल को चकमा देने की युक्ति की। मूर्तिकार ने स्वयं की दर्जनों मूर्तियाँ गढ़ डाली। काल की आहट हुई कि स्वयं भी मूर्तियों के बीच खड़ा हो गया। मूल और मूर्ति के मिलाप से काल सचमुच चकरा गया। असली मूर्तिकार कौनसा है, यह जानना कठिन हो चला। अब युक्ति की बारी काल की थी। ऊँचे स्वर में कहा, ‘अद्भुत कलाकार है। ऐसी कलाकारी तो तीन लोक में देखने को नहीं मिलती। ऐसे प्रतिभाशाली कलाकार ने इतनी बड़ी भूल कैसे कर दी?” मूर्तिकार ने तुरंत बाहर निकल कर पूछा,” कौनसी भूल?” काल हँसकर बोला,” स्वयं को कालजयी समझने की भूल।”
दाना चुगने से पहले चिड़िया अनेक बार चारों ओर देखती है कि किसी शिकारी की देह में काल तो नहीं आ धमका? …चिड़िया को भी काल का भान है, केवल मनुष्य बेभान है। सच तो यह है कि काल का कठफोड़वा तने में चोंच मारकर भीतर छिपे कीटक का शिकार भी कर लेता है। अनेक प्राणी माटी खोदकर अंदर बसे कीड़े-मकोड़ों का भक्ष्ण कर लेते हैं। काल, हर काल में था, काल हर काल में है। काल हर हाल में रहा, काल हर हाल रहेगा। काल से ही कालचक्र है, काल ही कालातीत है। उससे बचा या भागा नहीं जा सकता।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
अगले 15 दिन अर्थात श्राद्ध पक्ष में साधना नहीं होगी। नियमितता की दृष्टि से साधक आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना करते रहें तो श्रेष्ठ है।
नवरात्र से अगली साधना आरंभ होगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पन्नालाल टैरेस“।)
अभी अभी # 177 ⇒ पन्नालाल टैरेस… श्री प्रदीप शर्मा
जिस मुंबई को आज बॉलीवुड कहा जाता है, कभी उसे माया नगरी भी कहते थे। समुद्र के रास्ते, व्यापार के बहाने कलकत्ते से प्रवेश करने वाले अंग्रेजों का प्रिय शहर था बॉम्बे, जिसे पहले बंबई और बाद में मुंबई कहा जाने लगा। गुरुदत्त ने सन् १९५६ में ही अपनी फिल्म सीआईडी के एक गीत के जरिए मुंबई की सैर करवा दी थी ;
ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां।
जरा हट के, जरा बच के,
ये है बॉम्बे मेरी जान।।
एक समय था, जब युवा पीढ़ी अपनी तकदीर आजमाने भाग भागकर मुंबई जाती थी, फिल्मों में काम ना मिले, कोई रोजगार तो मिल ही जाएगा। एक आज की पीढ़ी है, जिसे मुंबई की चकाचौंध रास नहीं आती, वह पढ़ लिखकर विदेशों में अपनी तकदीर आजमा रही है, और अपने माता पिता और देश का नाम रोशन कर रही है।।
सपना तो फिर भी सपना होता है। एक सपना था, इस मुंबई शहर को देखने का, जो सन् १९७५ में जाकर पूरा हुआ, जब एक मित्र के साथ मुंबई जाने का पहली बार मौका हाथ लगा।
मुंबई के ही एक निवासी श्री गिरीश भाई हाथी कुछ वर्ष पहले ही हमारी बैंक में स्थानांतरित होकर इंदौर आए थे। उनके साथ कुछ समय काम भी किया। अच्छे मिलनसार और खुशमिजाज इंसान थे गिरीश भाई। जब विदा हुए तो मुंबई आने का हमें औपचारिक आमंत्रण भी दिया।।
आज विश्वास नहीं होता, ७५ ₹ प्रति व्यक्ति के हिसाब से एक टैक्सी कार की सहायता से हम आनन फानन में, रात भर की यात्रा कर, सुबह मुंबई पहुंच गए और एलफिंस्टन रोड स्थित, एलफिंस्टन होटल में मात्र ₹३५ प्रति व्यक्ति के किराए की दर से दो कमरों में जम गए।
मेरे मित्र का मुंबई आने का एक मकसद था, जब कि मुझे तो सिर्फ मुंबई में ही रुचि थी।
सबसे पहला काम मैने अपने मुंबई के मित्र गिरीश हाथी को फोन लगाया। गिरीश भाई ने तत्काल फोन उठा लिया। जब हमने उन्हें हमारे मुंबई आगमन की सूचना दी तो उनका पहला प्रश्न था, कब आए, अभी कहां से बोल रहे हो। जब होटल का जिक्र किया, तो बरस पड़े।
यहां क्यों नहीं आए, हमें फोन क्यों नहीं किया और गुस्से में फोन रख दिया।।
हम समझे, बात आई गई हो गई, लेकिन केवल पंद्रह मिनिट में ही हाथी दंपत्ति हमारे सामने होटल में खड़े थे। वे टैक्सी लेकर हमें लेने आए थे। वे अभी भी नाराज ही थे। हमारे रहते आप होटल में रुको, यह हमारे लिए शर्म की बात है। मेरा मित्र किसी व्यक्तिगत कारण से होटल में रुका था, लेकिन मेरे पास कोई बहाना नहीं था। और मुझे गिरीश भाई आग्रहपूर्वक अपने साथ ग्रांट रोड स्थित उनके निवास पन्नालाल टैरेस ले ही आए। दोस्त को होटल में अकेले छोड़ने से अधिक दुख तो मुझे इस बात का था, कि केवल कुछ समय ही होटल में रुकने के मुझे पैंतीस रुपए व्यर्थ में खर्च करने पड़े।
पन्नालाल टैरेस बॉम्बे सेंट्रल में एक आवासीय परिसर है, जहां मुंबई के कई मध्यमवर्गीय परिवार वर्षों से रहते आए हैं। आज हम भले ही संपन्न हों, लेकिन उस जमाने में मुंबई में रहने का ठिकाना मिलना इतना आसान भी नहीं था। मुम्बई की जीवन शैली पर कई फिल्में बनी हैं, के. ए. अब्बास की बंबई रात की बांहों में, बहुत कुछ कह जाती है, मेरे लिए तो मुंबई तब एक जगमगाता शहर था जिसे मेरे मित्र गिरीश भाई के आतिथ्य ने और भी खूबसूरत बना दिया था।।
सबसे पहला काम गिरीश भाई ने बैंक से छुट्टी लेने का किया। पन्नालाल टैरेस के दो छोटे छोटे कमरों में उनका स्वर्ग बसा था। पति पत्नी और एक प्यारा सा पांच साल का बच्चा। जैसे हम बच्चों को बाजार ले जाते हैं, हाथी परिवार मुझे मुंबई घुमा रहा था। जब कोई अपना साथ होता है तो अनजान शहर भी अपना लगने लगता है।
ग्रांट रोड एक व्यावसायिक इलाका है, जहां से चर्च गेट और विक्टोरिया टर्मिनस दोनों पास हैं। चौपाटी और नरीमन पॉइंट एरिया भी ज्यादा दूर नहीं। पन्नालाल टैरेस से लगा हुआ ही ग्रांट रोड रेलवे स्टेशन है। यानी सब कुछ, केवल कुछ ही कदमों की दूरी पर। सुबह की सैर मेरी कमजोरी रही है। जब तक पन्नालाल टैरेस में रहा, गिरीश भाई सुबह सोते रहते, मैं चुपचाप रात भर जागने वाले मुंबई की सुबह की हवा का आनंद लेता।।
अच्छे पल बहुत जल्द बीत जाते हैं। मैं भी मुंबई के साथ साथ गिरीश भाई और मुद्रिका भाभी की यादों को समेटे वापस अपने शहर आ गया। कुछ समय तक हाथी परिवार से संपर्क रहा, लेकिन बाद में वह भी छूट गया। आज मुंबई वह नहीं, लोग वह नहीं जमाना वह नहीं।
तब की तस्वीरें तो मैं कैद नहीं कर पाया, जब एक बार गिरीश भाई और पन्नालाल टैरेस की बहुत याद आई, तो गूगल पर तस्वीर भी नजर आई। किसी ने सही कहा है, यादों का सहारा ना होता, हम छोड़ के दुनिया चल देते ..!!
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख न्याय की तलाश में। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 203 ☆
☆ न्याय की तलाश में☆
‘औरत ग़ुलाम थी, ग़ुलाम है और सदैव ग़ुलाम ही रहेगी। न पहले उसका कोई वजूद था, न ही आज है।’ औरत पहले भी बेज़ुबान थी, आज भी है। कब मिला है..उसे अपने मन की बात कहने का अधिकार …अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता…और किसने उसे आज तक इंसान समझा है।
वह तो सदैव स्वीकारी गई है – मूढ़, अज्ञानी, मंदबुद्धि, विवेकहीन व अस्तित्वहीन …तभी तो उसे ढोल, गंवार समझ पशुवत् व्यवहार किया जाता है। अक्सर बांध दी जाती है वह… किसी के खूंटे से; जहां से उसे एक कदम भी बाहर निकालने की इजाज़त नहीं होती, क्योंकि विदाई के अवसर पर उसे इस तथ्य से अवगत करा दिया जाता है कि इस घर में उसे कभी भी अकेले लौट कर आने की अनुमति नहीं है। उसे वहां रहकर पति और उसके परिवारजनों के अनचाहे व मनचाहे व्यवहार को सहर्ष सहन करना है। वे उस पर कितने भी सितम करने व ज़ुल्म ढाने को स्वतंत्र हैं और उसकी अपील किसी भी अदालत में नहीं की जा सकती।
पति नामक जीव तो सदैव श्रेष्ठ होता है, भले ही वह मंदबुद्धि, अनपढ़ या गंवार ही क्यों न हो। वह पत्नी से सदैव यह अपेक्षा करता रहा है कि वह उसे देवता समझ उसकी पूजा-उपासना करे; उसका मान-सम्मान करे; उसे आप कहकर पुकारे; कभी भी गलत को गलत कहने की जुर्रत न करे और मुंह बंद कर सब की जी-हज़ूरी करती रहे…तभी वह उस चारदीवारी में रह सकती है, अन्यथा उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने में पल भर की देरी भी नहीं की जाती। वह बेचारी तो पति की दया पर आश्रित होती है। उसकी ज़िन्दगी तो उस शख्स की धरोहर होती है, क्योंकि वह उसका जीवन-मांझी है, जो उसकी नौका को बीच मंझधार छोड़, नयी स्त्री का जीवन-संगिनी के रूप में किसी भी पल वरण करने को स्वतंत्र है।
समाज ने पुरुष को सिर्फ़ अधिकार प्रदान किए हैं और नारी को मात्र कर्त्तव्य। उसे सहना है; कहना नहीं…यह हमारी संस्कृति है, परंपरा है। यदि वह कभी अपना पक्ष रखने का साहस जुटाती है, तो उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं होता। उसे चुप रहने का फरमॉन सुनाया दिया जाता है। परन्तु यदि वह पुन: जिरह करने का प्रयास करती है, तो उसे मौत की नींद सुला दिया जाता है और साक्ष्य के अभाव में प्रतिपक्षी पर कोई आंच नहीं आती। गुनाह करने के पश्चात् भी वह दूध का धुला, सफ़ेदपोश, सम्मानित, कुलीन, सभ्य, सुसंस्कृत व श्रेष्ठ कहलाता है।
आइए! देखें, कैसी विडंबना है यह… पत्नी की चिता ठंडी होने से पहले ही, विधुर के लिए रिश्ते आने प्रारम्भ हो जाते हैं। वह उस नई नवेली दुल्हन के साथ रंगरेलियां मनाने के रंगीन स्वप्न संजोने लगता है और परिणय-सूत्र में बंधने में तनिक भी देरी नहीं लगाता। इस परिस्थिति में विधुर के परिवार वाले भूल जाते हैं कि यदि वह सब उनकी बेटी के साथ भी घटित हुआ होता…तो उनके दिल पर क्या गुज़रती। आश्चर्य होता है यह सब देखकर…कैसे स्वार्थी लोग बिना सोच-विचार के, अपनी बेटियों को उस दुहाजू के साथ ब्याह देते हैं।
असंख्य प्रश्न मन में कुनमुनाते हैं, मस्तिष्क को झिंझोड़ते हैं…क्या समाज में नारी कभी सशक्त हो पाएगी? क्या उसे समानता का अधिकार प्राप्त हो पाएगा? क्या उस बेज़ुबान को कभी अपना पक्ष रखने का शुभ अवसर प्राप्त हो सकेगा और उसे सदैव दोयम दर्जे का नहीं स्वीकारा जाएगा? क्या कभी ऐसा दौर आएगा… जब औरत, बहन, पत्नी, मां, बेटी को अपनों के दंश नहीं झेलने पड़ेंगे? यह बताते हुए कलेजा मुंह को आता है कि वे अपराधी पीड़िता के सबसे अधिक क़रीबी संबंधी होते हैं। वैसे भी समान रूप से बंधा हुआ ‘संबंधी’ कहलाता है। परन्तु परमात्मा ने सबको एक-दूसरे से भिन्न बनाया है, फिर सोच व व्यवहार में समानता की अपेक्षा करना व्यर्थ है, निष्फल है। आधुनिक युग यांत्रिक युग है, जहां का हर बाशिंदा भाग रहा है…मशीन की भांति, अधिकाधिक धन कमाने की दौड़ में शामिल है ताकि वह असंख्य सुख-सुविधाएं जुटा सके। इन असामान्य परिस्थितियों में वह अच्छे- बुरे में भेद कहां कर पाता है?
यह कहावत तो आप सबने सुनी होगी, कि ‘युद्ध व प्रेम में सब कुछ उचित होता है।’ परन्तु आजकल तो सब चलता है। इसलिए रिश्तों की अहमियत रही नहीं। हर संबंध व्यक्तिगत स्वार्थ से बंधा है। हम वही सोचते हैं, वही करते हैं, जिससे हमें लाभ हो। यही भाव हमें आत्मकेंद्रितता के दायरे में क़ैद कर लेता है और हम अपनी सोच के व्यूह से कहां मुक्ति पा सकते हैं? आदतें व सोच इंसान की जन्म-जात संगिनी होती हैं। लाख प्रयत्न करने पर भी इंसान की आदतें बदल नहीं पातीं और लाख चाहने पर भी वह इनके शिकंजे से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कार जीवन-भर उसका पीछा नहीं छोड़ते। सो! वे एक स्वस्थ परिवार के प्रणेता नहीं हो सकते। वह अक्सर अपनी कुंठा के कारण परिवार को प्रसन्नता से महरूम रखता है तथा अपनी पत्नी पर भी सदैव हावी रहता है, क्योंकि उसने अपने परिवार में वही सब देखा होता है। वह अपनी पत्नी तथा बच्चों से भी वही अपेक्षा रखता है, जो उसके परिवारजन उससे रखते थे।
इन परिस्थितियों में हम भूल जाते हैं कि आजकल हर पांच वर्ष में जैनेरेशन-गैप हो रहा है। पहले परिवार में शिक्षा का अभाव था। इसलिए उनका दृष्टिकोण संकीर्ण व संकुचित था.. परन्तु आजकल सब शिक्षित हैं; परंपराएं बदल चुकी हैं; मान्यताएं बदल चुकी हैं; सोचने का नज़रिया भी बदल चुका है… इसलिए वह सब कहां संभव है, जिसकी उन्हें अपेक्षा है। सो! हमें परंपराओं व अंधविश्वासों-रूपी केंचुली को उतार फेंकना होगा; तभी हम आधुनिक युग में बदलते ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकेंगे।
एक छोटी सी बात ध्यातव्य है कि पति स्वयं को सदैव परमेश्वर समझता रहा है। परन्तु समय के साथ यह धारणा परिवर्तित हो गयी है, दूसरे शब्दों में वह बेमानी है, क्योंकि सबको समानाधिकार की दरक़ार है, ज़रूरत है। आजकल पति-पत्नी दोनों बराबर काम करते हैं…फिर पत्नी, पति की दकियानूसी अपेक्षाओं पर खरी कैसे उतर सकती है? एक बेटी या बहन पूर्ववत् पर्दे में कैसे रह सकती है? आज बहन या बेटी गांव की बेटी नहीं है; इज़्ज़त नहीं मानी जाती है। वह तो मात्र एक वस्तु है, औरत है, जिसे पुरुष अपनी वासना-पूर्ति का साधन स्वीकारता है। आयु का बंधन उसके लिए तनिक भी मायने नहीं रखता … इसीलिए ही तो दूध-पीती बच्चियां भी, आज मां के आंचल के साये व पिता के सुरक्षा-दायरे में सुरक्षित व महफ़ूज़ नहीं हैं। आज पिता, भाई व अन्य सभी संबंध सारहीन हैं और निरर्थक हो गए हैं। सो! औरत को हर परिस्थिति में नील-कंठ की मानिंद विष का आचमन करना होगा…यही उसकी नियति है।
विवाह के पश्चात् जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचने पर भी, वह अभागिन अपने पति पर विश्वास कहां कर पाती है? वह तो उसे ज़लील करने में एक-पल भी नहीं लगाता, क्योंकि वह उसे अपनी धरोहर समझ दुर्व्यवहार करता है; जिसका उपयोग वह किसी रूप में, किसी समय अपनी इच्छानुसार कर सकता है। उम्र-भर साथ रहने के पश्चात् भी वह उसकी इज़्ज़त को दांव पर लगाने में ज़रा भी संकोच नहीं करता, क्योंकि वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ व ख़ुदा समझता है। अपने अहं-पोषण के लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकता है। काश! वह समझ पाता कि ‘औरत भी एक इंसान है…एक सजीव, सचेतन व शालीन प्राणी; जिसे सृष्टि-नियंता ने बहुत सुंदर, सुशील व मनोहरी रूप प्रदान किया है… जो दैवीय गुणों से संपन्न है और परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है।’ यदि वह अपनी जीवनसंगिनी के साथ न्याय कर पाता, तो औरत को किसी से व कभी भी न्याय की अपेक्षा नहीं रहती।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नाक में दम”।)
अभी अभी # 176 ⇒ नाक में दम… श्री प्रदीप शर्मा
क्या आपने कभी किसी सुंदर चेहरे पर गौर किया है, क्या आपको याद है, उसका नाक नक्श कैसा है। कुछ लोग शादी के रिश्ते के लिए लड़का, लड़की देखने में विशिष्टता हासिल किए होते हैं। चाचा चाची बबलू के लिए लड़की देखने गए हैं, बस आते ही होंगे।
और उनके आते ही प्रश्नों की बौछार ! कैसी है लड़की चाची देखने में, चेहरा मोहरा तो ठीक है न। क्या होता है चेहरे में, आंख, नाक, होंठ, पतली गर्दन और लंबे बाल के अलावा। चेहरा तो ठीक, अब मोहरा क्या होता है, कैसा होता है यह तो आजमाने पर ही पता चलता है।।
गोरे गोरे गालों, झील सी आंखों और रसीले होठों के बीच बेचारी नाक अपने आपको उपेक्षित सी महसूस करती है। मजा तो तब आता है, जब यह सुंदर सा चेहरा पहले तो परिवार के सभी सदस्यों का दिल जीत लेता है, और बाद में जब अपना असली रंग दिखाता है, तो सबकी नाक में दम कर देता है। चाची, आपने क्या देखा था ऐसा, इस लड़की में।
हमें कभी विश्वास नहीं हुआ ऐसी बातों पर। लोग अपनी गलती नहीं देखते और चाहे जिस पर इल्जाम लगा देते हैं नाक में दम करने का। हमें तो इस बात में ही कोई दम नजर नहीं आता।।
हमने अपनी नाक को कभी अनदेखा नहीं किया, लेकिन कभी उसे विशेष भाव भी नहीं दिया। उसी के दोनों मजबूत कंधों पर हमारा चश्मा टिका हुआ है। बड़े शुक्रगुजार हैं हम नाक और कान दोनों के।
नाक के बिना हम चेहरे के बनावट की कल्पना ही नहीं कर सकते। लंबी, पतली, चपटी, मोटी कैसी भी हो, बस नाक कभी नीची नहीं होनी चाहिए।
सूंघने वाले नाक से कहां तक सूंघ लेते हैं। किसके घर में क्या चल रहा है।।
फूलों का गजरा हो, खिला हुआ गुलाब हो, गुलाब, केसर और इत्र की महक तब ही संभव है, जब सूंघने लायक नाक हो। जिनको सूंघने की लत लग जाती है, वे सुंघनी और नसवार के भी आदी हो जाते हैं। तंबाकू खाई ही नहीं जाती, सूंघी भी जाती है।
मुंबई से आए हमारे दोस्त गिरीश भाई भी नसवार सूंघने के आदी थे। जब कभी उनकी नाक बंद हो जाती, नसवार सूंघते ही, उन्हें एक साथ आठ दस छः छींकें आती थीं और उनका चेहरा एकदम राहत इंदौरी हो जाता था। वॉट अ रिलीफ़ !
पिछले कुछ दिनों से जुकाम ने हमारी नाक में दम कर रखा है। आंखों की जगह नाक के दोनों सायफन से गंगा जमना रुकने का नाम ही नहीं ले रही। जो आता है, उसका दो दर्जन छींकों से स्वागत करते हैं, बेचारे चुपचाप नाक पर रूमाल रख, लौट जाते हैं। जब तक जुकाम रहेगा, नाक में दम रहेगा। उम्मीद पर दुनिया कायम है। इधर जुकाम गायब, उधर हमारी नाक भी दमदार हो जाएगी। बात में है दम, नाक से हैं हम।।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – यात्राओं का साहित्यिक अवदान…)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 234 ☆
आलेख – यात्राओं का साहित्यिक अवदान…
बालीवुड ने बाम्बे टू गोवा, एन इवनिंग इन पेरिस, लव इन टोकियो, बाम्बे टू बैंकाक, एट्टी देज एराउन्ड दि वर्ल्ड, आदि अनेक यात्रा केंद्रित फिल्में बनाई हैं.
शिक्षा में नवाचार के समर्थक विद्वान यात्रा के महत्व को प्रतिपादित करते हुये कहते हैं कि पुस्तकों में ज्ञान मिलता है पर उसे समझने के लिये शैक्षणिक यात्राये पाठ्यक्रम का हिस्सा होनी चाहिये. मिडिल स्कूल तक के बच्चों को शिक्षक या अभिवावकों को समय समय पर पोस्ट आफिस, रेल्वे रिजर्वेशन, पोलिस थाना, बैंक, संस्थान, आसपास के उद्योग, आदि का भ्रमण करवाने से वे इन संस्थानों से प्रायोगिक रूप से परिचित हो पाते हैं. यह परिचय उन्हें इनके जीवन में अति उपयोगी होता है. विज्ञान के वर्तमान युग में जब हम घर बैठे ही टी वी पर दुनिया भर की खबरें देख सकते हैं, तब भी उस वर्चुअल वर्ल्ड की अपेक्षा वास्तविक पर्यटन प्रासंगिक बना हुआ है. टूरिज्म, चाहे वह स्पोर्टस को लेकर हो, कार्निवल्स पर केंद्रित हो, बुक फेयर, एम्यूजमेंट पार्क, नेशनल फारेस्ट पर आधारित हो या अन्य विभिन्न कारणों से हो, बढ़ता जा रहा है.
यात्राओं का साहित्यिक अवदान भी बहुत है.
यात्रावृत्त एक प्रकार का मानवीय इतिहास है, जिसमें घटनाओं के साथ-साथ व्यक्तिचेतना, संस्कार, सांस्कृतिक जीवन, सामाजिक और आर्थिक क्रियाएँ, राजनीतिक और भौगोलिक स्थितियाँ, विचार तथा धारणायें समाहित होती हैं. ‘कालिदास’ और ‘बाणभट्ट’ के साहित्य में भी आंशिक रूप से यात्रा वर्णन मिलता है.
एक विधा के रूप में यात्रा वर्णन स्थापित हो चुका है.
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक शिक्षाप्रद आलेख –“सफलता मिले या असफलता हँसना जरूरी है”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 152 ☆
☆ आलेख – “सफलता मिले या असफलता हँसना जरूरी है” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
जीवन में सफलता और असफलता दोनों आती है। सफलता का आनंद लेना और असफलता से सीखना दोनों ही महत्वपूर्ण है। लेकिन, सफलता और असफलता में हंसकर जीना सीखना सबसे महत्वपूर्ण है।
हंसना एक शक्तिशाली दवा है। यह तनाव को कम करने, मूड को बेहतर बनाने और प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ाने में मदद कर सकता है। हंसना हमें कठिन परिस्थितियों में भी अनुकूल होने में मदद कर सकता है।
सफलता में हंसकर जीना सीखने से हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने और जीवन का अधिक आनंद लेने में मदद मिल सकती है। जब हम सफल होते हैं, तो हम अक्सर खुश और उत्साहित महसूस करते हैं। लेकिन, अगर हम अपने सफलता को बहुत गंभीरता से लेते हैं, तो हम जल्दी ही आराम कर सकते हैं और आगे बढ़ना बंद कर सकते हैं। हंसकर जीना हमें अपने सफलता का जश्न मनाने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
असफलता में हंसकर जीना सीखने से हमें कठिन परिस्थितियों से उबरने और मजबूत होने में मदद मिल सकती है। जब हम असफल होते हैं, तो हम अक्सर निराश और हताश महसूस करते हैं। लेकिन, अगर हम अपने असफलता को बहुत गंभीरता से लेते हैं, तो हम जल्दी ही हार मान सकते हैं। हंसकर जीना हमें अपने असफलता से सीखने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
सफलता और असफलता में हंसकर जीना सीखने के कुछ तरीके निम्नलिखित हैं:
अपने दृष्टिकोण को बदलें। सफलता और असफलता को एक पैमाने के दो छोर के रूप में देखें। सफलता केवल एक मंच है, असफलता केवल एक कदम पीछे है।
अपने आप को माफ़ करना सीखें। हर कोई गलतियाँ करता है। अपनी गलतियों से सीखें और आगे बढ़ें।
दूसरों की मदद करें। दूसरों की मदद करने से आपको अपनी त्रासदी को भूलने में मदद मिल सकती है।
अपने जीवन का आनंद लें। सफलता और असफलता दोनों जीवन का एक हिस्सा हैं। इन दोनों का आनंद लें और आगे बढ़ते रहें।
सफलता और असफलता में हंसकर जीना सीखने से हम एक अधिक संतुलित और खुशहाल जीवन जी सकते हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वीकारोक्ति”।)
अभी अभी # 174 ⇒ स्वीकारोक्ति… श्री प्रदीप शर्मा
Confession
अक्सर लोग सच को, अपनी गलती को, अथवा किए गए अपराध को आसानी से स्वीकार नहीं करते, और अगर वे स्वीकार कर लें, तो उसे कन्फेशन अथवा स्वीकारोक्ति कहा जाता है। स्वीकारोक्ति के भी दो प्रकार होते हैं, एक ऐच्छिक और एक अनिवार्य। हम यहां केवल ऐच्छिक की ही चर्चा करेंगे।
आ बैल मुझे मार ! गांधीजी ने इसे सत्य के प्रयोग कहा। बहुत से लोगों ने आत्म कथा का सहारा लेकर यह, स्वीकार किया मैने, वाला खेल बहुत रोचक तरीके से खेला। मधुशाला वाले बच्चन जी ने भी क्या भूलूं क्या याद करूं और नीड़ का निर्माण जैसे अपने संस्मरणों से पाठकों का मन मोह लिया।।
आत्मकथा हो या संस्मरण, इन सभी में स्वीकारोक्ति भी ऐच्छिक ही होती है। कोई आपका हाथ पकड़कर आपसे जबरन कुछ लिखवा नहीं सकता लेकिन जिसे अपने पांव पर खुद ही कुल्हाड़ी मारना हो, तो बन जाइए गांधी, और हो जाइए महान। वैसे यह नहीं इतना आसान।
अपनी स्वयं की खूबियां तो इंसान खुशी खुशी बयां कर देता है लेकिन कमजोरियों को छुपा लेता है। यह मानवीय स्वभाव है, जिसे आप चोर मन भी कह सकते हैं। देखिए, कितनी खूबसूरती से इस चोर मन की व्याख्या की गई है ;
तोरा मन बड़ा पापी सांवरिया रे।
मिलाए छल बल से
नजरिया रे।।
साहिर कुछ कदम और आगे चले गए हैं। वे इसी मन को दर्पण मानते हैं।
कहते हैं दर्पण झूठ नहीं बोलता, लेकिन फिर भी सच हमसे इतनी आसानी से स्वीकार नहीं होता। यही सच है।।
आप चाहे इसे कारगर तरीका ना मानें, लेकिन यह सच है कि हमारे पास गिरजाघरों जैसा कोई कन्फेशन बॉक्स नहीं, जहां जाकर हम अपनी भूल अथवा गुनाह कुबूल कर लें। वैसे अगर ईश्वर को गवाह मानें, तो यह कार्य इतना मुश्किल भी नहीं। सवाल यह है कि ईश्वर कहां है, और कहां नहीं, और क्या अपराध स्वीकार कर लेने से मामला सुलझ जाता है ? इसीलिए शायद हमने ओम जय जगदीश हरे जैसी आरती को अपना आधार बना लिया है। यह ऑल इन वन (all in one) है। विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा, और मैं मूरख खल कामी।
लो जी हो गए सभी अपराध स्वीकार। कितना सुख मिला सामूहिक स्वीकारोक्ति में।
इसे ही पर्युषण पर्व भी कहते हैं। व्रत, उपवास, मौन, आत्म संयम के साथ साथ चित्त की शुद्धिकरण का भी प्रयास ही तो है। जैसे जैसे अच्छाई बढ़ती जाएगी, बुराई धीरे धीरे रसातल में चली जाएगी।।
हमने यह स्वीकारोक्ति पुरखों के पुण्य स्मरण से प्रारंभ की है। जीते जी जिनकी सेवा नहीं की, आज उनकी स्मृति में तर्पण, ब्राह्मण भोज और दान पुण्य क्या नहीं किया। आपको शायद याद नहीं, मुझे ऐसी कई घटनाएं याद हैं, जब मैने उनकी अवज्ञा की है, उनका दिल दुखाया है।
यह उनकी महानता और बड़प्पन है कि आज भी उनकी छत्र छाया और आशीर्वाद मेरे साथ है। उन्होंने हमेशा मुझे माफ किया, और सही राह दिखाई। अपने दोषों को देखने और उन्हें स्वीकार करने के प्रेरणास्रोत भी वे ही हैं। बस वे मेरी कलम थाम लें तो मेरे लिए यह काम और भी आसान हो जाए। मैं गणेश ना सही, लेकिन वे तो शिव पार्वती से कम नहीं। मुझे इंतजार रहेगा उस कल का, जिस दिन से स्वीकारोक्ति अभियान रंग लाएगा।।