ई-अभिव्यक्ति: संवाद– 4
इस बात को कतई झुठलाया नहीं जा सकता कि सोशल मीडिया ने वास्तव में साहित्यिक जगत में क्रान्ति ला दी है। हाँ, यह बात अलग है कि इस क्रान्ति नें तकनीकी बदलावों की वजह से साहित्यकारों की तीन पीढ़ियाँ तैयार कर दी हैं। एक वरिष्ठतम पीढ़ी जो अपने आप को समय के साथ तकनीकी रूप से स्वयं को अपडेट नहीं कर पाये और कलम कागज तक सीमित रह गए। दूसरी समवयस्क एवं युवा पीढ़ी ने कागज और कलम दराज में रख कर लेपटॉप, टबलेट और मोबाइल में हाथ आजमा कर सीधे साहित्य सृजन करना शुरू कर दिया। और कुछ साहित्यकारों नें तो वेबसाइट्स, सोशल मीडिया और ब्लॉग साइट में भी हाथ आजमा लिया।
इन सबके मध्य एक ऐसी भी हमारी एवं वरिष्ठ पीढ़ी के साहित्यकार हैं जो अपने पुत्र, पुत्रवधुओं एवं नाती पोतों पर निर्भर होकर इस क्षेत्र में सजग हैं। यह तो इस क्रान्ति का एक पक्ष है।
दूसरा पक्ष यह है कि हमारे कई गाँव, कस्बों और शहरों में सामयिक काव्य एवं साहित्यिक गोष्ठियाँ बरकरार हैं। इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में महानगरों में बड़ी पुस्तकों और चाय/कॉफी की दुकानों (कैफे) में ऐसे सप्ताहांत में होने वाले कार्यक्रमों के लिए निःशुल्क अथवा साधारण शुल्क पर स्थान उपलब्ध करा दिया जाता है। ताकि श्रोता और वक्ता शेल्फ की पुस्तकों के साथ चाय / कॉफी/ नाश्ते का लुत्फ उठा सकें। मैं ऐसे ही अंजुमन नाम की संस्था द्वारा माह के प्रथम सप्ताहांत में अट्टागलट्टा बुक शॉप, बेंगुलुरु में आयोजित कार्यक्रमों में भाग ले चुका हूँ। वहाँ परआइ टी कंपनियों के युवा रचनाकारों की प्रतिभा और साहित्य के प्रति रुझान देखकर मैं हतप्रभ रह गया। वैसे ही पृथा फ़ाउंडेशन, पुणे द्वारा सभी भाषाओं के साहित्य का स्वागत किया जाता है। ऐसी अनेकों संस्थाएं हैं जो प्रत्येक पीढ़ी के संवेदनशील साहित्यकारों को स्वस्थ साहित्य की ऊर्जा प्रदान कर रही हैं। इस दौर की इन संस्थाओं और कार्यकर्ताओं को नमन।
अब तीसरा पक्ष भी देखिये। एक ऐसी भी पीढ़ी तैयार हो रही है जो किसी की भी रचना को बिना लेखक की अनुमति के नाम का उल्लेख किए बिना अन्य साहित्यकारों की रचनाएँ स्वयं के नाम से प्रकाशित/प्रसारित कर देते हैं। इस सन्दर्भ में एक विचित्र अनुभव हुआ। मेरे मित्र और एक वरिष्ठ व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर आदरणीय श्री शांतिलाल जैन जी की व्यंग्य रचना जिनगी का यो यो बीप टेईस्ट कुछ समय पूर्व सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रही थी । सम्पूर्ण व्यंग्य मात्र एक पोस्ट की तरह जिसमें कहीं भी उनके नाम का उल्लेख नहीं था। जब यह व्यंग्य उन्होने मुझे भेजा और मैंने इस सच्चाई से उन्हें अवगत कराया तो बड़ा ही निश्छल एवं निष्कपट उत्तर मिला – “मैंने इन चीजों पर कभी ध्यान नहीं दिया। लिखा, कहीं छप गया तो ठीक, फिर अगले काम में लग गए।” उनके इस उत्तर पर मैं निःशब्द हूँ, किन्तु ,मेरा मानना है की हम सबको ,सबके कार्य और नाम को यथेष्ट सम्मान देना चाहिए।
एक विडम्बना यह भी कि आज कोई भी पुस्तक/पत्रिकाएँ खरीद कर नहीं पढ्ना चाहता। लेखकों की एक पीढ़ी सिर्फ लिखना चाहती है, यह पीढ़ी पढ़ना नहीं चाहती। किन्तु ,वह यह अवश्य चाहती है कि उसकी पुस्तकें लोग खरीद कर अवश्य पढ़ें । अब आप ही तय करें, यह दौर हमें कहाँ ले जा रहा है।
इस टुकड़ा टुकड़ा संवाद में मैं अपनी निम्न पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा।
अब ना किताबघर रहे न किताबें ना ही उनको पढ़ने वाला कोई
सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट रहे हैं मुझको।
अब तक का सफर तय किया एक तयशुदा राहगीर की मानिंद
आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें है न मुझको।
आज बस इतना ही।
हेमन्त बावनकर