हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#47 – आधा किलो आटा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#47 – आधा किलो आटा ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक नगर का सेठ अपार धन सम्पदा का स्वामी था। एक दिन उसे अपनी सम्पत्ति के मूल्य निर्धारण की इच्छा हुई। उसने तत्काल अपने लेखा अधिकारी को बुलाया और आदेश दिया कि मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल्य निर्धारण कर ब्यौरा दीजिए, पता तो चले मेरे पास कुल कितनी सम्पदा है।

सप्ताह भर बाद लेखाधिकारी ब्यौरा लेकर सेठ की सेवा में उपस्थित हुआ। सेठ ने पूछा- “कुल कितनी सम्पदा है?” लेखाधिकारी नें कहा – “सेठ जी, मोटे तौर पर कहूँ तो आपकी सात पीढ़ी बिना कुछ किए धरे आनन्द से भोग सके इतनी सम्पदा है आपकी”

लेखाधिकारी के जाने के बाद सेठ चिंता में डूब गए, ‘तो क्या मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मरेगी?’ वे रात दिन चिंता में रहने लगे।  तनाव ग्रस्त रहते, भूख भाग चुकी थी, कुछ ही दिनों में कृशकाय हो गए। सेठानी द्वारा बार बार तनाव का कारण पूछने पर भी जवाब नहीं देते। सेठानी से हालत देखी नहीं जा रही थी। उसने मन स्थिरता व शान्त्ति के किए साधु संत के पास सत्संग में जाने को प्रेरित किया। सेठ को भी यह विचार पसंद आया। चलो अच्छा है, संत अवश्य कोई विद्या जानते होंगे जिससे मेरे दुख दूर हो जाय।

सेठ सीधा संत समागम में पहूँचा और एकांत में मिलकर अपनी समस्या का निदान जानना चाहा। सेठ नें कहा- “महाराज मेरे दुख का तो पार नहीं है, मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मर जाएगी। मेरे पास मात्र अपनी सात पीढ़ी के लिए पर्याप्त हो इतनी ही सम्पत्ति है। कृपया कोई उपाय बताएँ कि मेरे पास और सम्पत्ति आए और अगली पीढ़ियाँ भूखी न मरे। आप जो भी बताएं मैं अनुष्ठान, विधी आदि करने को तैयार हूँ”

संत ने समस्या समझी और बोले- “इसका तो हल बड़ा आसान है। ध्यान से सुनो सेठ, बस्ती के अन्तिम छोर पर एक बुढ़िया रहती है, एक दम कंगाल और विपन्न। उसके न कोई कमानेवाला है और न वह कुछ कमा पाने में समर्थ है। उसे मात्र आधा किलो आटा दान दे दो। अगर वह यह दान स्वीकार कर ले तो इतना पुण्य उपार्जित हो जाएगा कि तुम्हारी समस्त मनोकामना पूर्ण हो जाएगी। तुम्हें अवश्य अपना वांछित प्राप्त होगा।”

सेठ को बड़ा आसान उपाय मिल गया। उसे सब्र कहां था, घर पहुंच कर सेवक के साथ कुन्तल भर आटा लेकर पहुँच गया बुढिया के झोपडे पर। सेठ नें कहा- “माताजी मैं आपके लिए आटा लाया हूँ इसे स्वीकार कीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा आटा तो मेरे पास है, मुझे नहीं चाहिए”

सेठ ने कहा- “फिर भी रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “क्या करूंगी रख के मुझे आवश्यकता नहीं है”

सेठ ने कहा- “अच्छा, कोई बात नहीं, कुन्तल नहीं तो यह आधा किलो तो रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, आज खाने के लिए जरूरी, आधा किलो आटा पहले से ही  मेरे पास है, मुझे अतिरिक्त की जरूरत नहीं है”

सेठ ने कहा- “तो फिर इसे कल के लिए रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, कल की चिंता मैं आज क्यों करूँ, जैसे हमेशा प्रबंध होता है कल के लिए कल प्रबंध हो जाएगा”  बूढ़ी मां ने लेने से साफ इन्कार कर दिया।

सेठ की आँख खुल चुकी थी, एक गरीब बुढ़िया कल के भोजन की चिंता नहीं कर रही और मेरे पास अथाह धन सामग्री होते हुए भी मैं आठवी पीढ़ी की चिन्ता में घुल रहा हूँ। मेरी चिंता का कारण अभाव नहीं तृष्णा है।

वाकई तृष्णा का कोई अन्त नहीं है। संग्रहखोरी तो दूषण ही है। संतोष में ही शान्ति व सुख निहित है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – मूल्यांकन ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

 

 

 

 

☆ जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – मूल्यांकन ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

“हे बघा, माझ्याकडे ए, बी, सी, डी, या चारही प्रतींचा कापूस ठेवलेला आहे. त्याच्याशी ताडून पाहून मी कापसाची किंमत ठरवत असतो. पण तुम्ही आणलेला कापूस यातल्या कुठल्याच श्रेणीत बसत नाहीये. कुठल्यातरी वेगळ्याच विचित्र प्रकारचा आहे तुमचा कापूस. म्हणून त्याला ई श्रेणी दिली गेली आहे. त्या श्रेणीच्या भावाप्रमाणेच तुम्हाला पैसे मिळतील.”

“तुम्ही जरा समजून घेण्याचा प्रयत्न करा साहेब. मी खूप कष्ट करून, आणि खूप सारे पैसे खर्च करून हे पीक घेतलं आहे. त्याची योग्य ती किंमत ठरवावी अशी अपेक्षा आहे माझी.”

कापसाची प्रत ठरवणारा तो माणूस आणि तो शेतकरी यांच्यात काहीच नक्की ठरत नाहीये हे पाहून, तिथल्या व्यवस्थापकांनी दुसऱ्या बाजारातल्या एका परीक्षा करणाऱ्याला बोलावलं. तो माणूस त्या शेतकऱ्याचा कापूस पाहून फक्त आश्चर्यचकीतच झाला नाही, तर अक्षरशः भारावल्यासारखा झाला.

“अरे वा, हा तर चीनमधला ‘ब्लू कॉटन‘ म्हणून ओळखला जाणारा लांब धाग्यांचा कापूस आहे. आपल्याकडच्या शेतात हे पीक घेण्यासाठी खूपच कष्ट करावे लागतात, आणि खर्चही खूप करावा लागतो.”

“म्हणजे कापूस शेतात पिकतो का ?” पहिल्या परिक्षकाने त्या दुसऱ्या परिक्षकाला जरा बाजूला नेऊन विचारलं.

“म्हणजे मग तुम्ही काय समजत होतात ?”

“मी तर समजत होतो की साखर किंवा थर्मोकोलसारखे हा कापूस तयार करण्याचेही कारखाने असतील.”

 

मूळ हिंदी कथा : श्री भगवान वैद्य ‘ प्रखर‘

अनुवाद :  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – मैं नहीं जानता ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – मैं नहीं जानता  ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

बस में कदम रखते ही एक चेहरे पर नज़र टिकी तो बस टिकी ही रह गयी । यह चेहरा तो एकदम जाना पहचाना है । कौन हो सकता है ? सीट पर सामान टिकाते टिकाते मैं स्मृति की पगडंडियों पर निकल चुका था ।

अरे, याद आया । यह तो हरि है । बचपन का नायक । स्कूल में शरारती छात्र । गीत संगीत में आगे । सुबह प्रार्थना के समय बैंड मास्टर के साथ ड्रम बजाता था । परेड के वक्त बिगुल । हर समारोह में उसके गाये गीत स्कूल में गूंजते । हर छात्र हरि जैसा हो ….. अध्यापक उपदेश देते न थकते ।

घर की ढहती आर्थिक हालत उसे किसी प्राइवेट स्कूल का अध्यापक बनने पर मजबूर कल गयी। अपनी अदाओं से वह एक सहयोगी अध्यापिका को भा गया। पर ,,, समाज दोनों के बीच दीवार बन कर खड़ा हो गया । जाति बंधन पांव की जंजीर बनते जा रहे थे। ऐसे में हरि और उस अध्यापिका के भाग जाने की खबर नगर की हर दीवार पर चिपक गयी थी। कुछ दिनों तक तलाश जारी रही थी, कुछ दिनों तक अफवाहों का बाज़ार गर्म रहा था। फिर मेरा छोटा सा शहर सो गया था। हरि और वह लड़की कहां गये, क्या हुआ शहर इस सबसे पूरी तरह बेखबर था। हां, लड़की के पिता ने समाज के सामने क्या मुंह लेकर जाऊं, इस शर्म के मारे आत्महत्या कर ली थी।

मैंने बार बार चेहरे को देखा, बिल्कुल वही था। हरि और साथ बैठी वह महिला? हो न हो वही होगी। अनदेखी प्रेमिका।

चाय पान के लिए बस रुकी तो मैं उतरते ही उस आदमी की तरफ लपका।

– आपका नाम हरि है न?

– हरि ? कौन हरि ? मैं नहीं जानता किसी हरि को।

– झूठ न कहिए । आप हरि ही हैं।

– अच्छा ? आपका हरि कैसा था ? कहां था ?

– हम एक ही स्कूल में पढ़ते थे। याद कीजिए वह शरारतें, वह बैंड बजाना ,,,गीत गाना,,

-नहीं नहीं। मैं किसी हरि को नहीं जानता।

हम बस के पास ही खड़े थे। खिड़की के पास बैठी हुई वह महिला हमारी बातचीत सुनने का प्रयास कर रही थी। उसने वहीं से पुकार लिया -हरि क्या बात है ? क्या पूछ रहे हैं ये ?

अब न शक की गुंजाइश थी और न किसी और सवाल पूछने की जरूरत रह गयी थी।

मैं चलने लगा तो उसने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा – भाई बुरा मत मानना। मैं नहीं चाहता था कि बरसों पहले जिस कथा पर धूल जम चुकी हो उसे झाड़ पोंछ कर फिर से पढ़ा जाये। मैं तुम्हारा नायक ही बना रहना चाहता था पर वक्त ने मुझे खलनायक बना दिया। खैर, जिस हरि को तुम जानते थे वह हरि मैं अब कहां हूं ? उसकी आंखों में नमी उतर आई । शायद खोये हुए हरि को याद करके ….

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 101 ☆ हास्य लघुकथा – तीन विचार चित्र ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की  हास्य लघुकथा – तीन विचार चित्र।  इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 101☆

? हास्य लघुकथा – तीन विचार चित्र ?

कितना भला था कोरोना .. २०२१ का दिसम्बर

पति सोचेंगे  

फिर शॉपिंग का चक्कर, फिर मूवी की फरमाइश…फिर वीक एंड पर होटलिंग,  फिर घूमने जाने की बच्चों की फरमाईश,  बीबी की नई साड़ी की डिमांड,  किटी पार्टी के चक्कर,  नई ज्वैलरी खरीदने की जिद्द .. इससे तो कोरोना ही भला था. न रिश्तेदारी में भागमभाग करनी पड़ती थी,  न आफिस के दौरे करने परते थे,  न बाजार जाकर चुन बीन कर देख भाल कर खरीददारी होती थी, सब कुछ मोबाईल से निपट जाता था,  कोरोना का बहाना सब ढ़ांक लेता था, कितना भला था कोरोना.

पत्नी सोचेंगी  

हाय कितने मजे थे,  शादी के २१ बरस हो गये,  इतना घरेलू काम तो इन्होने कभी नही किया,  इतना साथ रहने का समय भी कभी न मिला था,  थोड़ा बहुत डर था तो क्या हुआ सब कुछ ठीक ही चल रहा था,  जैसा भी था पर कोरोना बड़ा भला था.

बच्चे सोचेंगे

न होमवर्क की खिच खिच न स्कूल जाने की झंझट,  न परीक्षा का लफडा. ज्यादा पढ़ो तो मम्मी खुद कहती थीं कि थोड़ी देर टी वी देख लो. जरा सा खांसते थे तो मम्मी पापा कितनी चिंता करते थे,  कितना अच्छा था कोरोना.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – वृत्त ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – वृत्त ?

सात-आठ साल का रहा होगा जब गृहकार्य करते हुए परकार से वृत्त खींच रहा था। बैठक में लेटे हुए दादाजी अपने किसी मिलने आए हुए से कह रहे थे कि जीवन वृत्त है। जहाँ से अथ, वहीं पर इति, वहीं से यात्रा पुनः आरंभ। कुछ समझ नहीं पाया। जीवन वृत्त कैसे हो सकता है?

समय अपनी गति से चलता रहा। उसे याद आया कि पड़ोस के लक्खू बाबा की मौत पर कैसा डर गया था वह! पहली बार अर्थी जाते देखी थी उसने। कई रातें दादी के आँचल में चिपक कर निकाली थीं। उसे लगा, जो बाबा उससे रोज़ बोलते-बतियाते थे, उसे फल, मेवा देते थे, वे मर कैसे सकते हैं?

जीवन आगे बढ़ा। दादा-दादी भी चले गए। माता, पिता भी चले गए। जिन शिक्षकों, अग्रजों से कुछ सीखा, पढ़ा, उन्होंने भी विदा लेना शुरू कर दिया। पिछली पीढ़ी के नाम पर शून्य शेष रहा था।

उसकी अपनी देह भी बीमार रहने लगी। कहीं आना-जाना भी छूट चला। उस दिन अख़बार में अपने पुराने साथी की मृत्यु और बैठक का समाचार पढ़ा तो मन विचलित हो उठा। अब तो विचलन भी समाप्त हो गया क्योंकि गाहे-बगाहे संगी-साथियों के बिछड़ने के समाचार आने लगे हैं।

आज पलंग पर लेटा था। शरीर में उठ पाने की भी शक्ति नहीं थी। लेटे-लेटे देखा, छोटा पोता होमवर्क कर रहा है। सहज पूछ लिया, ‘मोनू, क्या कर रहा है?’…’दद्दू, सर्कल ड्रॉ कर रहा हूँ, आई मीन गोला, मीन्स वृत्त खींच रहा हूँ।’…..’जीवन भी वृत्त है बेटा..’ कहते हुए वह फीकी हँसी हँस पड़ा।

जीवन की परिक्रमा को सहजता से स्वीकार करो। सहज योग हर अवस्था के आनंद को जी सकने की कुंजी है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ – ग़ालिब का दोस्त ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है पहली बेहतरीन कहानी – ग़ालिब का दोस्त )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ – ग़ालिब का दोस्त ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

मशहूर शायर और फ़िल्मकार गुलज़ार साहब ने मिर्ज़ा ग़ालिब की वीरान हवेली को उनका स्मारक बनाया है। उन्होंने इस हवेली का पता शायराना अन्दाज़ में कुछ यूँ बयाँ किया हैं।

बल्ली-मारां  के  मोहल्ले  की  वो पेचीदा  दलीलों की  सी  गलियाँ, सामने  टाल  की  नुक्कड़  पे बटेरों  के  क़सीदे,

गुड़गुड़ाती  हुई  पान  की  पीकों में  वो  दाद  वो  वाह-वाह, चंद  दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के पर्दे,

एक बकरी के मिम्याने  की  आवाज़  और  धुँदलाई  हुई  शाम के  बे-नूर  अँधेरे  साए  दीवारों  से  मुँह  जोड़  के चलते  हैं  यहाँ। चूड़ी-वालान  कै  कटरे  की  बड़ी-बी  जैसे  अपनी  बुझती  हुई  आँखों  से  दरवाज़े टटोले,

इसी  बे-नूर  अँधेरी  सी गली-क़ासिम  से एक तरतीब चराग़ों की शुरूअ  होती है, एक क़ुरआन-ए-सुख़न का सफ़हा खुलता है, असदुल्लाह-ख़ाँ-ग़ालिब  का  पता  मिलता  है।

जब ग़ालिब ज़िंदा थे उस ज़माने की बात है। उनके उसी घर के दरवाज़े के सामने एक घोड़ागाड़ी आकर रुकी। उसमें से बंसीधर उतरे, आगे से कोचवान बिद्दु मियाँ हाँकनी को बग़ल में खोंसकर कूदा। बंसीधर यात्रा की थकान को अंगड़ाई से उतार रहे थे तभी घर का मुआयना करते हुए बिद्दु मियाँ ने हैरानी से पूछा – “लाला जी, आपके दोस्त असद इस घर में रहते हैं क्या?”

बंसीधर ने उपेक्षा पूर्वक “हाँ, यही रहते हैं।” कहते हुए, उसे घोड़ागाड़ी से सब्ज़ियों का टोकरा उतारने को कहा। बिद्दु मियाँ टोकरा उतारते हुए भी घर को तिरछी निगाह से देखते बोला “यह मकान उनके आगरा वाले “कलाँ महल” की तुलना में बहुत छोटा नहीं लगता?”

बंसीधर – “क्या तुम मिर्ज़ा को आगरा से जानते हो”

बिद्दु मियाँ – “हाँ लाला जी, जब आप दोनों मिलकर राजा बलवंत सिंह की पतंग काटते थे, तब हम दोस्तों के साथ मँज्जा लूटने का लुत्फ़ उठाया करते थे।”

तब तक मिर्ज़ा के घर की नौकरानी वफ़ादार दरवाज़ा खोलकर बंसीधर के नज़दीक पहुँच दुआ सलाम करके खड़ी हो गई तो बंसीधर ने पूछा- क्या मिर्ज़ा घर पर हैं? वफ़ादार ने बताया वे गुसलखाने में मशगूल हैं। बंसीधर ने हिदायत दी “ठीक है, यह टोकरा अंदर रखवा लो और हमारी भाभी जान को हमारे आने की खबर कर दो।”

थोड़ी देर में मिर्ज़ा की बेग़म उमराव जान उदासी के झीने नक़ाब के पीछे से दरवाज़े पर आकर बोलीं – “आदाब, लाला जी भाई”

बंसीधर – “आदाब भाभी जान, आप कैसी हैं?”

बेग़म – “अल्लाह का करम है, भाई साहब।”

बंसीधर – “और असद कैसा है, क्या वह दिल्ली से दिलजोई में इतना भी भूल गया कि आगरा में उसको दिल से चाहने वाला बचपन का एक दोस्त भी रहता है।”

बेग़म – “नहीं ऐसा नहीं है भाई साहब, अभी कल ही वे बचपन के क़िस्से सुनाकर आपको बहुत याद कर रहे थे।”

बंसीधर – “और बताइए, असद की क़िले में दाख़िले और दरबार में हाज़िरी की कोई जुगत बनी क्या?”

बेग़म ने कोई जबाव  नहीं दिया, वे चुपचाप दरवाज़े पर चमगादड़ से लटके फटेहाल पर्दे के किनारे को देखती खड़ी रहीं। बंशीधर ने पूछा “क्या बात है, भाभी जान, आपकी चुप्पी नाख़ुशी के साये में लिपटी है।”

बेग़म – “आप अपने दोस्त के अक्खड़ मिज़ाज और ज़िद से वाक़िफ़ ही हैं, उन्हें क़र्ज़ लेकर ज़िंदगी गुज़ारने में कोई परेशानी नहीं लेकिन किसी के नीचे काम करने में दिक्कत है। इतना काफ़ी नहीं था तो ऊपर से जुए और शराब की लत के खर्चे। क्या यह सब ठीक है?”

बंशीधर अपने दोस्त की आदतों को जानते थे, वे ज़मीन में आँखें गड़ाये खड़े रहे।

बेग़म थोड़ी देर रुककर बोलीं – “आप उनके बचपन के दोस्त हैं, दिल के मलाल आपसे भी न कहें तो किससे कहें, जब तक हमारे अब्बा मियाँ ज़िंदा थे, ज़्यादा दिक्कत नहीं थी।”

तभी मिर्ज़ा ग़ालिब पहले माले का दरवाज़ा खोलकर नमूदार हुए और बालकनी से नीचे झांकते हुए मुस्करा कर बोले : “बंशी, तुम फ़रियादी को सुन चुके हो तो इस आरोपी को ये बताओ कहाँ थे, इतने दिनों ?”

बंसीधर – “अच्छा, तुम तो जैसे रोज़ आगरा मिलने आते रहे हो। मैं तो चार महीनों में दो बार आ चुका हूँ।”

असद : “और हर बार यह सब लौकी भाजी क्यों भर लाते हो, भाई।”

बंसीधर: “तुम्हारे दिमाग़  की तर्ज़ पर साल के बारह महीनों तो आम नहीं बौराता न।”

बेग़म दोनों दोस्तों को घुलते देख पर्दे के पीछे गुम हो गईं। मिर्ज़ा ने बंशीधर को ऊपर आने का इशारा किया। बंशीधर सीढ़ी चढ़कर मिर्ज़ा से गले मिले। एक दूसरे के कंधों को पकड़ कर देर तक एक दूसरे को देखते रहे। दिलों की प्यास बरास्ते नज़र बुझाकर दोनों दीवान के दो छोर पकड़ मसनदों के सहारे एक दूसरे की तरफ़ मुँह करके बैठ गए। तब तक घर का नौकर कल्लू एक तश्तरी में भुने काजू-पिश्ता और रूह अफ़जा शरबत से भरे दो गिलास रख गया। शरबत की चुस्कियों के बीच यारों में बातचीत का सिलसिला चल पड़ा।

बंशीधर – “यार असद, भाभी जान की बात पर ध्यान क्यों नहीं देते? वो सही कह रहीं हैं। थोड़ा समय घर के लिए भी निकाला करो, यार।”

असद – “बंशी, हमारा पहला बच्चा गर्भ में ही ख़त्म हो गया और दूसरा पैदाइश के कुछ ही महीनों में हमें छोड़ गया। वह ख़ुदा को मानने वाली जनानी है। हमेशा गोद भरने की अरदास में लगी रहती है। उसका मुरझाया चेहरा मुझ से नहीं देखा जाता है। उसकी आँखों में उठता ग़म का समंदर मेरे अंदर तूफ़ान खड़ा कर देता है।”

बंशीधर – “और तुम्हारी कमाई का कोई ज़रिया बना कि नहीं?”

असद – “कहीं नौकरी का कोई ज़रिया बनता नहीं दिखता। फ़िरंगी क़िले के ओहदेदारों तक की तनख़्वाह और बादशाह तक का वज़ीफ़ा कम करते जा रहे हैं इसलिए क़िले पर भी कोई उम्मीद बर नज़र नहीं आती। फिरंगियों से मिलने वाली पेंशन रुकी या कहो अंग्रेज़ी हुकूमत के खातों में जमा हो रही है।”

बंशीधर – “यार, फिर तुम्हारा समय कैसे कटता है?”

असद – “यार, दिन का कुछ समय चाँदनी चौक पर हाजी मीर की दीनी-इल्मी-अदबी किताबों की दुकान पर सफ़े पलट कर बिताता हूँ, लौटते समय कुछ जुआरियों के अड्डों पर दाव लगते और चाल चलते देखता हूँ। तुम तो जानते हो कि मैं बचपन से ही दाव बड़े बेहतरीन लगाता हूँ। एक दिन मेरा भी दाव ज़रूर लगेगा, तब मैं सारी रक़म समेट बेगम का दामन भरकर उनकी बलैयाँ लूँगा।”

बंशीधर – “यार, मैंने सोचा था कि जब तुम्हारे ससुर का देहांत हुआ था तब तुम दिल्ली छोड़कर आगरा का रुख़ करोगे, वहाँ कुछ न कुछ व्यवस्था हो जाती। लेकिन तुम दिल्ली में ही रम गए।”

मिर्ज़ा मसनद पर गर्दन टिकाए कुछ देर सोचते रहे फिर बोले:-

“है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ‘असद’,

हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खाएँगे क्या?”

(अब तो इस शहर से प्रेम करने वाले दुःख की इंतिहा पल रही है। माना कि दिल्ली में रहकर क्या खाएँगे?)

थोड़ी देर बाद ख़ादिम कल्लू दीवान के सामने दस्तरखान बिछा कर दोपहर का खाना ले आया। रोटियों के ढ़ेर के साथ मटनकरी, कबाब, दाल और पीले रंग में पके चावल खाते-खाते  दोनों दोस्त एक घंटा बतियाते रहे, फिर बंशीधर दीवान पर और मिर्ज़ा सामने के कमरे में आराम फ़रमाते ऊँची आवाज़ में बातें करते नींद के झोंके में समा गए।

शाम पाँच बजे दोनों दोस्त उठे। तह किए कपड़े निकाले, इत्र फुलेल से रंग-ओ-बू हो घर से निकल कर गली क़ासिम पर चलते हुए बल्लीमाराँ रास्ते से दाहिनी तरफ़ चाँदनी चौक तरफ़ मुड़ गए। आसमान में हल्की धुँध के साये को मुँह चिढ़ाती रंग बिरंगी पतंगे इठला रही थीं। जामा मस्जिद की मीनारों से मगरिब की अज़ान बुलंद हो रही थी। चलते-चलते सामने मुग़लिया शान का प्रतीक लालक़िला दिखने लगा। मिर्ज़ा को लालक़िला निहारते देख बंशीधर बोले, इसी क़िले की महफ़िल में पहुँचना तुम्हारा ख़्वाब है न, असद।

असद ने हाँ में सर हिलाकर अपनी छड़ी से ज़मीन को सहलाया। दोनों दोस्त चाँदनी चौक पर गर्मागरम केसरिया जलेबियों का रस यारी की चाशनी में लिपटी ऊँगलियों को चाटते रहे, फिर बग़ल वाले दही-बड़े वाले से पाँच-पाँच मुलायम गुल्ले गले के नीचे उतार, यारों का सफ़र वापस क़ासिम गली की तरफ़ मुड़ गया।

दूसरे दिन सुबह कोचवान बिद्दु मियाँ घोड़ागाड़ी सहित मिर्ज़ा के दरवाज़े पर हाज़िर था। दोनों दोस्त नाश्ता निपटाकर मोटे किवाड़ों के कोने खिसकाकर बाहर आए।

असद दोनों हाथ बंशीधर के कंधों पर रखकर बोले – “यार, ऐसे ही आ ज़ाया करो लाला।”

बंशीधर : “यार, आगरा भी कोई समंदर किनारे नहीं है, मैं तो छै महीनों में तशरीफ़ ले ही आता हूँ। तुमको तो एक अरसा हुआ आगरा में नमूदार हुए। एक मुद्दत हुई तुम्हें मेह्मां किए हुए। हाँ, तुम्हारी यह रक़म तुम्हारे छोटे भाई को पहुँचा दूँगा।”

असद – “हाँ! उसे भी देखे एक अरसा हो चला है। यहाँ दिल्ली में गुज़ारे का ज़रिया ज़म जाए, तो आगरा आऊँगा।”

बंशीधर – “असद, एक बात कहूँ बुरा न मानना। ईश्वर की कृपा से मेरी माली हालत बहुत अच्छी है। मैं कुछ रक़म लाया हूँ। तुम्हारा इंतज़ाम होने तक रख लो, बाद में लौटा देना।”

असद – “छोड़ यार, तुझसे पतंग-हिचका-धागे के वास्ते बचपन में रुपए उधार लिए थे, वे अभी तक मयसूद  न जाने कितने चढ़ चुके होंगे। इतना मत कर कि वक्त-ए-रूखसत जनाजा इतना भारी हो जाए कि पालकी बरदार उसे उठा भी सकें, और फिर बाज़ार के सूदख़ोरों का धंधा चौपट करने का मेरा कोई इरादा नहीं है।”

बंशीधर – “जैसी तुम्हारी मर्ज़ी, बात तुम्हारी ख़ुद्दारी की है, मैं जानता हूँ, तुम बचपन से ऐसे ही हो।”

गले मिलकर दोनों दोस्त बिदा हुए। आँखों से ओझल होने तक एक दूसरे को देखते रहे।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – अंगूठा ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – अंगूठा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

पिता जी नम्बरदार थे । कोर्ट कचहरी गवाही देने या तस्दीक करने जाते । कभी कभार मैं भी जाता । बीमार होने के कारण साबूदाने की खीर लेकर । तहसील की दीवार पर जामुनी रंग के अंगूठे ही अंगूठे बने देखकर पूछा -यह क्या है ? पिता जी ने बताया -लोग अनपढ़ हैं और जमीन बेचने के बाद स्याही वाले पैड से अंगूठा लगाते हैं । फिर स्याही मिटाने के लिए इस दीवार पर अंगूठा रगड़ कर चले जाते हैं ।

बालमन ने प्रण लिया था कि मैं अपनी जमीन नहीं बेचूंगा । मैं ऐसा अंगूठा कभी नहीं लगाऊंगा । पचास साल तक यह प्रण निभाया । पर कुछ मजबूरी , कुछ गांव से दूरी और बेटियों की शादी में आखिर जमीन बेचनी ही पडी । अब बेशक मैं पढा लिखा हूं पर किसान की अंगूठा लगाने की मजबूरिया इसमें छिपी हैं । आखिर किसान का अंगूठा कैसे लग ही जाता है या घुटना टेक ही देता है ?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – मोक्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – मोक्ष ?

उसका जन्म मानो मोक्ष पाने के संकल्प के साथ ही हुआ था। जगत की नश्वरता देख बचपन से ही इस संकल्प को बल मिला। कम आयु में धर्मग्रंथों का अक्षर-अक्षर रट चुका था। फिर धर्मगुरुओं की शरण में गया। मोक्ष के मार्ग को लेकर संभ्रम तब भी बना रहा। कभी मार्ग की अनुभूति होती भी तो बेहद धुँधली। हाँ, धर्म के अध्ययन ने सम्यकता को जन्म दिया। अपने धर्म के साथ-साथ दुनिया के अनेक मतों के ग्रंथ भी उसने खंगाल डाले पर ‘मर्ज़ बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ … बचपन ने यौवन में कदम रखा, जिज्ञासु अब युवा संन्यासी हो चुका था।

मोक्ष, मोक्ष, मोक्ष! दिन-रात मस्तिष्क में एक ही विचार लिए सन्यासी कभी इस द्वार कभी उस द्वार भटकता रहा।… उस दिन भी मोक्ष के राजमार्ग की खोज में वह शहर के कस्बे की टूटी-फूटी सड़क से गुज़र रहा था। मस्तिष्क में कोलाहल था। एकाएक इस कोलाहल पर वातावरण में गूँजता किसी कुत्ते के रोने का स्वर भारी पड़ने लगा। उसने दृष्टि दौड़ाई। रुदन तो सुन रहा था पर कुत्ता कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। कुत्ते के स्वर की पीड़ा संन्यासी के मन को व्यथित कर रही थी। तभी कोई कठोर वस्तु संन्यासी के पैरों से आकर टकराई। इस बार दैहिक पीड़ा से व्यथित हो उठा संन्यासी। यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। बल्ले से निकली गेंद संन्यासी के पैरों से टकराकर आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई थी।

देखता है कि आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। वह गेंद उठाता तभी कुत्ते का आर्तनाद फिर गूँजा। बच्चे ने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गँवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।

अवाक संन्यासी बच्चे से कुछ पूछता कि बच्चों की टोली में से किसीने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।

संभ्रम छँट चुका था। संन्यासी को मोक्ष की राह मिल चुकी थी‌।

धरती के मोक्ष का सम्मान करो, आकाश का मोक्षधाम तुम्हारा सम्मान करेगा।

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 82 – लघुकथा – क्षमादान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत  भावप्रवण एवं स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा  “क्षमादान ।  बरसों बाद गलती सुधार कर बेशक क्षमादान दिया जा सकता है किन्तु, वह गुजरा वक्त वापिस नहीं किया जा सकता है। फिर किसने किसे क्षमादान दिया यह भी विचारणीय है। इस  भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 82 ☆

? लघुकथा – क्षमादान ?

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस सप्ताह मनाया जा रहा था। जगह-जगह आयोजन हो रहे थे। इसी के तहत गाँव के एक स्कूल में भाषण और महिला दिवस सम्मान समारोह रखा गया था। प्रभारी से लेकर सभी कर्मचारीगण, महिलाएँ बहुत ही उत्सुक थी।

आज के कार्यक्रम में बहुत ही गुणी और सरल सहज समाज सेविका वसुंधरा आ रही थी। उनके लिए सभी के मुँह से सदैव तारीफ ही निकलती थी। करीब 10- 12 साल से वह कहाँ से आई और कौन है इस बात को कोई नहीं जानता था।

परंतु वह सभी के दुख सुख में हमेशा भागीदारी करती थी। ‘वसुंधरा’ जैसा उनका नाम था ठीक वैसा ही उनका काम। सभी को कुछ ना कुछ देकर संतुष्ट करती। महिलाओं का विशेष ध्यान रखती थी। कठिन परिस्थितियों से जूझती- निकलती महिलाओं को हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देती।

उन्हें कहाँ से पैसा प्राप्त होता है? कोई कहता “सरकारी सहायता मिलती होगी” कोई कहता “राम जाने क्या है मामला”। खैर जितनी मुहँ उतनी बातें। ठीक समय पर वह मंच पर उपस्थित हुई। तालियों और फूल मालाओं से उनका स्वागत किया गया। सभी बैठकर उनकी बातें सुन रहे थे।

स्कूल प्रभारी ने कार्यक्रम के समाप्ति पर वसुंधरा जी को आग्रह किया कि “आज हम आपको उपहार देना चाहते हैं। आशा है आप को यह उपहार  पसंद आएगा।”  वसुंधरा ने “ठीक है” कहकर सोफे पर बैठे इंतजार करने लगी।

उन्होंने देखा हाथ में फूलों का सुंदर गुलदस्ता लिए जो चल कर आ रहा है वह उसका अपना पतिदेव है। जिन्होंने बरसों पहले उन्हें त्याग दिया था। माईक पर मानसिंह ने कहा “मैं हमेशा वसुंधरा को कमजोर समझता था। अपने ओहदे और काम को प्राथमिकता देते हमेशा प्रताड़ित करता रहा। मैं ही वह बदनसीब पति हूं जिसने वसुंधरा को छोटी सी गलती पर घर से ‘निकल’ कह दिया था, कि तुम कुछ भी नहीं कर सकती हो। परंतु मैं गलत था।”

“वसुंधरा तो क्या सृष्टि में कोई भी महिला अपनी लज्जा, दया, करुणा, क्षमा की भावना लिए चुप रहती है। मौन रहकर सब कुछ कहती है परंतु मौका मिलने पर वह कुछ भी कर सकती हैं। इतिहास साक्षी है कि वह अपना अस्तित्व और गर्व स्वयं बना सकती है। आज मैं सभी के समक्ष अपनी भूल स्वीकार कर इन्हें फिर से अपनाना चाहता हूं। तुम सभी को कुछ न कुछ देते आई हो, आज मुझे क्षमादान दे दो।”

वसुंधरा आवाक सभी को देख रही थी। एक कोने पर नजर गई वसुंधरा के सास-ससुर बाहें फैलाएं अपनी बहू का इंतजार कर रहे थे। तालियों के बीच निकलती वसुंधरा आज बसंत सी खिल उठी।।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#46 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#46 – सच्चा भक्त ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक राजा था जो एक आश्रम को संरक्षण दे रहा था। यह आश्रम एक जंगल में था। इसके आकार और इसमें रहने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही थी और इसलिए राजा उस आश्रम के लोगों के लिए भोजन और वहां यज्ञ की इमारत आदि के लिए आर्थिक सहायता दे रहा था। यह आश्रम बड़ी तेजी से विकास कर रहा था। जो योगी इस आश्रम का सर्वेसर्वा था वह मशहूर होता गया और राजा के साथ भी उसकी अच्छी नजदीकी हो गई। ज्यादातर मौकों पर राजा उसकी सलाह लेने लगा। ऐसे में राजा के मंत्रियों को ईर्ष्या होने लगी और वे असुरक्षित महसूस करने लगे। एक दिन उन्होंने राजा से बात की – ‘हे राजन, राजकोष से आप इस आश्रम के लिए इतना पैसा दे रहे हैं। आप जरा वहां जाकर देखिए तो सही। वे सब लोग अच्छे खासे, खाते-पीते नजर आते हैं। वे आध्यात्मिक लगते ही नहीं।’ राजा को भी लगा कि वह अपना पैसा बर्बाद तो नहीं कर रहा है, लेकिन दूसरी ओर योगी के प्रति उसके मन में बहुत सम्मान भी था। उसने योगी को बुलवाया और उससे कहा- ‘मुझे आपके आश्रम के बारे में कई उल्टी-सीधी बातें सुनने को मिली हैं। ऐसा लगता है कि वहां अध्यात्म से संबंधित कोई काम नहीं हो रहा है। वहां के सभी लोग अच्छे-खासे मस्तमौला नजर आते हैं। ऐसे में मुझे आपके आश्रम को पैसा क्यों देना चाहिए?’

योगी बोला- ‘हे राजन, आज शाम को अंधेरा हो जाने के बाद आप मेरे साथ चलें। मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूं।’

रात होते ही योगी राजा को आश्रम की तरफ लेकर चला। राजा ने भेष बदला हुआ था। सबसे पहले वे राज्य के मुख्यमंत्री के घर पहुंचे। दोनों चोरी-छिपे उसके शयनकक्ष के पास पहुंचे। उन्होंने एक बाल्टी पानी उठाया और उस पर फेंक दिया। मंत्री चौंककर उठा और गालियां बकने लगा। वे दोनों वहां से भाग निकले। फिर वे दोनों एक और ऐसे शख्स के यहां गए जो आश्रम को पैसा न देने की वकालत कर रहा था। वह राज्य का सेनापति था। दोनों ने उसके भी शयनकक्ष में झांका और एक बाल्टी पानी उस पर भी उड़ेल दिया। वह व्यक्ति और भी गंदी भाषा का प्रयोग करने लगा। इसके बाद योगी राजा को आश्रम ले कर गया। बहुत से संन्यासी सो रहे थे।उन्होंने एक संन्यासी पर पानी फेंका। वह चौंककर उठा और उसके मुंह से निकला – शिव-शिव। फिर उन्होंने एक दूसरे संन्यासी पर इसी तरह से पानी फेंका। उसके मुंह से भी निकला – हे शंभो। योगी ने राजा को समझाया – ‘महाराज, अंतर देखिए। ये लोग चाहे जागे हों या सोए हों, इनके मन में हमेशा भक्ति रहती है। आप खुद फर्क देख सकते हैं।’ तो भक्त ऐसे होते हैं।भक्त होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दिन और रात आप पूजा ही करते रहें। भक्त वह है जो बस हमेशा लगा हुआ है, अपने मार्ग से एक पल के लिए भी विचलित नहीं होता। वह ऐसा शख्स नहीं होता जो हर स्टेशन पर उतरता-चढ़ता रहे। वह हमेशा अपने मार्ग पर होता है, वहां से डिगता नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो यात्रा बेवजह लंबी हो जाती है।

भक्ति की शक्ति कुछ ऐसी है कि वह सृष्टा का सृजन कर सकती है। जिसे मैं भक्ति कहता हूं उसकी गहराई ऐसी है कि यदि ईश्वर नहीं भी हो, तो भी वह उसका सृजन कर सकती है, उसको उतार सकती है। जब भक्ति आती है तभी जीवन में गहराई आती है। भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है। उसे भक्ति के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं होती और वहां ईश्वर मौजूद रहेंगे। भक्ति इसलिए नहीं आई, क्योंकि भगवान हैं। चूंकि भक्ति है इसीलिए भगवान हैं।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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