(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण लघुकथा “सहयोग”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 89
☆ लघुकथा — सहयोग ☆
” उसे जरूरी काम है। अवकाश मंजूर कर दो भाई।”
” नहीं करूंगा। वह अपने आपको बहुत ज्यादा होशियार समझता है।” प्रभारी प्राचार्य ने कहा।
” उसकी मजबूरी है। देख लो।”
“उससे कहो- वह मेरी बात मान ले।”
“अरे भाई ! वह नास्तिक है। आपकी बात कैसे मान सकता है? ” उसके साथी ने सिफारिश करते हुए कहा।
” उससे कहो- ताली एक हाथ से नहीं बजती है,” प्राचार्य ने विजय मुद्रा में मुस्कुराते हुए कहा,” वह मंदिर-निर्माण के लिए दान दे कर मेरा सहयोग करें तब मैं उस का अवकाश मंजूर कर के उसका सहयोग करूंगा।”
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – सपने
कभी डराया कभी धमकाया, कभी कुचला, कभी दबाया, कभी तोड़ा, कभी फोड़ा, कभी रेता, कभी मरोड़ा, सब कुछ करके हार गईं, हाँफने लगी परिस्थितियाँ।….जाने क्या है जो मेरे सपने मरते ही नहीं..!
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं भाईचारे का सन्देश देती अतिसुन्दर लघुकथा “बूंदी के लड्डू”। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 96 ☆
लघुकथा – बूंदी के लड्डू
गणेश उत्सव का माहौल। घर और पास पड़ोस मोहल्ले में बहुत ही धूमधाम से गणेश उत्सव मनाया जा रहा था। पंडाल पर गणपति जी विराजे थे। राजू अपने दादा- दादी से रोज कुछ ना कुछ गणपति जी के बारे में सुनता था।
दादा जी आज उसे बूंदी के लड्डू की महिमा बता रहे थे कि क्यों पसंद है गणेश जी को लड्डू? बेसन से अलग-अलग मोती जैसे तलकर शक्कर की चाशनी में सब एक साथ पकड़कर लड्डू बनता है। गणेश जी भी सभी को मिला कर रखना चाहते हैं। उनकी पूजन का अर्थ भी यही है कि सभी मनुष्य आपस में प्रेम से रहें और बूंदी के लड्डू की तरह मीठे और मिलकर रहे।
राजू कुछ देर सुनता रहा फिर दौड़कर पड़ोस के अंकल- आंटी देशमुख के घर गया और छोटे से हाथ से निकालकर बूंदी का लड्डू उनके हाथ पर दे दिया। और कहा-” गणपति जी ने कहा है बूंदी के लड्डू की तरह रहना सीखें” और दौड़ कर फिर अपने घर के ऊपर के कमरे में बैठे अपने पापा को भी लड्डू दिया। और कहा कि – “गणपति ने कहा है कि हमें लड्डू जैसा रहना चाहिए।
थोड़ी देर पापा और देशमुख अंकल सोचते रहे। तब तक मोहल्ले में पंडाल से गणपति की आरती की आवाज आने लगी। दोनों अपने-अपने घर से डिब्बों में लड्डू लेकर पहुंचे और फिर क्या था। ‘साॅरी, मुझे माफ करना’, ‘नहीं सॉरी मैं बोलता हूँ मुझे माफ करना’, एक दूसरे को कहने लगे।
कुछ दिनों से जो मनमुटाव चल रहा था। अचानक सब मिलजुल कर ठहाका लगाने लगे।
दादा जी को समझ नहीं आया कि कल तक जो देशमुख के नाम से चिढ़ता था। आज अपने हाथ में हाथ पकड़े खड़े हैं। उन्हें क्या पता था कि बूंदी के लड्डू कितने मीठे हैं जिन्हें किसी ने अपने छोटे – छोटे हाथों से सब जगह बांट दिया है।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा-कहानी ☆ स्त्री पर तीन लघुकथाएं ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
1. तिलस्म
रात के गहरे सन्नाटे में किसी वीरान फैक्ट्री से युवती के चीरहरण की आवाज सुनी नहीं गयी पर दूसरी सुबह सभी अखबार इस आवाज को हर घर का दरवाजा पीट पीट कर बता रहे थे । दोपहर तक युवती मीडिया के कैमरों की फ्लैश में पुलिस स्टेशन में थी ।
किसी बड़े नेता के निकट संबंधी का नाम भी उछल कर सामने आ रहा था । युवती विदेश से आई थी और शाम किसी बड़े रेस्तरां में कॉफी की चुस्कियां ले रही थी । इतने में नेता जी के ये करीबी रेस्तरां में पहुंच गये । अचानक पुराने रजवाड़ों की तरह युवती की खूबसूरती भा गयी और फिर वहीं से उसे बातों में फंसा कर ले उड़े । बाद की कहानी वही सुनसान रात और वीरान फैक्ट्री ।
देश की छवि धूमिल होने की दुहाई और अतिथि देवो भवः की भावना का शोर । ऊपर से विदेशी दूतावास । दबाब में नेता जी को मोह छोड़ कर अपने संबंधियों को समर्पण करवाना ही पड़ा । फिर भी लोग यह मान कर चल रहे थे कि नेता जी के संबंधियों को कुछ नहीं होगा । कभी कुछ बिगड़ा है इन शहजादों का ? केस तो चलते रहते हैं । अरे ये ऐसा नहीं करेंगे और इस उम्र में नहीं करेंगे तो कौन करेगा ? इनका कुछ नहीं होता और लोग भी जल्दी भूल जाते हैं । क्या यही तिलस्म था या है ? ये लोग तो बाद में मजे में राजनीति में भी प्रवेश कर जाते हैं ।
थू थू सहनी पड़ी पर युवती विदेशी थी और उसका समय और वीजा ख़त्म हो रहा था । बेशक वह एक दो बार केस लड़ने , पैरवी करने आई लेकिन कब तक ?
बस । यही तिलस्म था कि नेता जी के संबंधी बाइज्जत बरी हो गये ।
2. स्त्री
वह जार जार रोये जा रही थी और फोन पर ही अपने पति से झगड रही थी । बार बार एक ही बात पर अडी हुई थी कि आज मैं घर नहीं आऊंगी । बहुत हो गया । संभालो अपने बच्चे । मुझे कुछ नहीं चाहिए ।
पति दूसरी तरफ से मनाने की कोशिश में लगा था और वह आंसुओं में डूबी कह रही थो कि आखिर मैं कलाकार हूं तो बुराई कहां है ? क्या मैं घर का काम नहीं करती ? क्या मैं आदर्श बहू नहीं ? यदि कला का दामन छोड दूं और मन मार कर रोटियां थापती और बच्चे पालती रहूं तभी आप बाप बेटा खुश होंगे ? नहीं । मुझे अपनी खुशी भी चाहिए । मेरो कला मर रही है । आज मेरा इंतजार मत करना । मैं नौकरी के बाद सीधे मायके जाऊंगी । मेरे पीछे मत आना ।
इसी तरह लगातार रोते बिसूरती वह ऑफिस का टाइम खत्म होते ही सचमुच अपने मायके चली गयी ।
मां बाप ने हैरानी जताई । अजीब सी नजरों से देखा । कैसे आई ? कोई जरूरी काम आ पडा ? कोई स्वागत् नहीं । कहीं बेटी के घर आने की कोई खुशी नहीं । चिंता, बस चिंता । क्या करेगो यहां बैठ कर ? मुहल्लेवाले क्या कहेंगे ? हम कैसे मुंह दिखायेंगे ?
शाम को पति मनाने और लिवाने आ गया । कहां है मेरा घर ? यह सोचती अपने रोते बच्चों के लिए घर लौट गयी । पर कौन सा घर ? किसका घर ? कहां खो गयी कला ? किसी घर में नहीं ?
3. सात ताले और चाबी
-अरी लडक़ी कहां हो ?
-सात तालों में बंद ।
-हैं ? कौन से ताले ?
-पहले ताला -मां की कोख पर । मुश्किल से तोड़ कर जीवन पाया ।
-दूसरा ?
-भाई के बीच प्यार का ताला । लड़का लाडला और लड़की जैसे कोई मजबूरी मां बाप की । परिवार की ।
-तीसरा ताला ?
-शिक्षा के द्वारों पर ताले मेरे लिए ।
-आगे ?
-मेरे रंगीन , खूबसूरत कपड़ों पर भी ताले । यह नहीं पहनोगी । वह नहीं पहनोगी । घराने घर की लड़कियों की तरह रहा करो । ऐसे कपड़े पहनती हैं लड़कियां?
-और आगे ?
-समाज की निगाहों के पहरे । कैसी चलती है ? कहां जाती है ? क्यों ऐसा करती है ? क्यों वैसा करती है ?
-और ?
-गाय की तरह धकेल कर शादी । मेरी पसंद पर ताले ही ताले । चुपचाप जहां कहा वहां शादी कर ले । और हमारा पीछा छोड़ ।
– और?
-पत्नी बन कर भी ताले ही ताले । यह नहीं करोगी । वह नहीं करोगी । मेरे पंखों और सपनों पर ताले । कोई उड़ान नहीं भर सकती । पाबंदी ही पाबंदी ।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #58 – सेवाभाव और संस्कार ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक संत ने एक विश्व- विद्यालय का आरंभ किया, इस विद्यालय का प्रमुख उद्देश्य था ऐसे संस्कारी युवक-युवतियों का निर्माण करना था जो समाज के विकास में सहभागी बन सकें।
एक दिन उन्होंने अपने विद्यालय में एक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया, जिसका विषय था – “जीवों पर दया एवं प्राणिमात्र की सेवा।”
निर्धारित तिथि को तयशुदा वक्त पर विद्यालय के कॉन्फ्रेंस हॉल में प्रतियोगिता आरंभ हुई।
किसी छात्र ने सेवा के लिए संसाधनों की महत्ता पर बल देते हुए कहा कि- हम दूसरों की तभी सेवा कर सकते हैं, जब हमारे पास उसके लिए पर्याप्त संसाधन हों।
वहीं कुछ छात्रों की यह भी राय थी कि सेवा के लिए संसाधन नहीं, भावना का होना जरूरी है।
इस तरह तमाम प्रतिभागियों ने सेवा के विषय में शानदार भाषण दिए।
आखिर में जब पुरस्कार देने का समय आया तो संत ने एक ऐसे विद्यार्थी को चुना, जो मंच पर बोलने के लिए ही नहीं आया था।
यह देखकर अन्य विद्यार्थियों और कुछ शैक्षिक सदस्यों में रोष के स्वर उठने लगे।
संत ने सबको शांत कराते हुए बोले:- ‘प्यारे मित्रो व विद्यार्थियो, आप सबको शिकायत है कि मैंने ऐसे विद्यार्थी को क्यों चुना, जो प्रतियोगिता में सम्मिलित ही नहीं हुआ था।
दरअसल, मैं जानना चाहता था कि हमारे विद्यार्थियों में कौन सेवाभाव को सबसे बेहतर ढंग से समझता है।
इसीलिए मैंने प्रतियोगिता स्थल के द्वार पर एक घायल बिल्ली को रख दिया था।
आप सब उसी द्वार से अंदर आए, पर किसी ने भी उस बिल्ली की ओर आंख उठाकर नहीं देखा।
यह अकेला प्रतिभागी था, जिसने वहां रुक कर उसका उपचार किया और उसे सुरक्षित स्थान पर छोड़ आया।
सेवा-सहायता डिबेट का विषय नहीं, जीवन जीने की कला है।
जो अपने आचरण से शिक्षा देने का साहस न रखता हो, उसके वक्तव्य कितने भी प्रभावी क्यों न हों, वह पुरस्कार पाने के योग्य नहीं है।’
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है बाल मनोविज्ञान पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा मासूमियत। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 72 ☆
☆ लघुकथा – मासूमियत ☆
सुनीता पेट से है, आठवां महीना चल रहा है अब एक साथ सारा काम नहीं होता उससे, सुस्ताती फिर काम में लग जाती। मालकिन ने कहा भी कि नहीं होता तो काम छोड दे, पैसा नहीं काटेंगी, पर सुनीता को डर है कि बच्चा होने के बाद काम ना मिला तो क्या करेगी? दो लडकियां हैं, एक तीन साल की दूसरी पाँच साल की, तीसरा आनेवाला है। घर कैसे चलाएगी वह? मालकिन दिलदार है, उसके खाने – पीने का बहुत ध्यान रखती है इसलिए इसी घर का काम रखा है, बाकी छोड दिए हैं।
काम निपटाने के बाद सुनीता और उसकी लडकियां एक तरफ बैठ गईं। बडकी बोली – अम्मां ! सब काम होय गवा, अब भाभी दैहें ना हम लोगन का अच्छा – अच्छा खाए का? भाभी रोज बहुत अच्छा खाना खिलावत हैं ,सच्ची –। छुटकी बिटिया की नजर तो रसोई से हटी ही नहीं बल्कि बीच – बीच में होंठों पर जीभ भी फिरा लेती । मालकिन ने एक ही थाली में भरपूर भोजन उन तीनों के लिए परोस दिया। दोनों बच्चियां तो इंतजार कर ही रही थीं तुरंत खाने में मगन हो गईं । खाना देकर मालकिन ने सुनीता से पूछा – नवां महीना पूरा होने को है, कब से छुट्टी ले रही हो तुम? सुनीता कुछ बोले इससे पहले उसकी पाँच साल की बडकी सिर नीचे झुकाए खाना खाते – खाते जल्दी से बोली - भाभी ! ऐसा करा अम्मां को रहे दें, हम तोहार सब काम कर देब – झाडू, पोंछा, बर्तन —जो कहबो तुम — –। बस काम छोडे को ना कहैं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण लघुकथा “फासले”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 88
☆ लघुकथा — फासले ☆
जय की शादी में मंच पर उस के पिता नहीं आए तो नवविवाहिता अपने को रोक नहीं पाई. अपने पति से पूछ बैठी, “ पापा जी !”
“मंच पर नहीं आएँगे,” जय की आँखों में आंसू आ गए, “ मैं भी चाहता हूँ कि वे यहाँ नहीं आएं.”
पत्नी की निगाहों में प्रश्न था. पति ने धीरे से कहा,“ उन्हें मेरी माँ ने ऐसे ही एक मंच पर, अपनी शादी में बुला कर अपने नए पति के सामने मुझे सौंप दिया था – मुझे अपना प्यार मिल गया और आप को अपना पूत. इसे सम्हालना.” अभी बेटे की बात खत्म नहीं हुई थी कि पिताजी मंच पर खड़े मुस्करा रहे थे.
मानो कह रहे हो,” बेटा ! इस टीस को कब तक सम्हाल कर तो नहीं रख सकता हूँ ना ?”
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – हिंदी दिवस विशेष – लघुकथा- हिंदी का लेखक
हिंदी का लेखक संकट में है। मेज पर सरकारी विभाग का एक पत्र रखा है। हिंदी दिवस पर प्रकाशित की जानेवाली स्मारिका के लिए उसका लेख मांगा है। पत्र में यह भी लिखा है कि आपको यह बताते हुए हर्ष होता है कि इसके लिए आपको रु. पाँच सौ मानदेय दिया जायेगा..। इसी पत्र के बगल में बिजली का बिल भी रखा है। छह सौ सत्तर रुपये की रकम का भुगतान अभी बाकी है।
हिंदी का लेखक गहरे संकट में है। उसके घर आनेवाली पानी की पाइपलाइन चोक हो गई है। प्लम्बर ने पंद्रह सौ रुपये मांगे हैं।…यह तो बहुत ज़्यादा है भैया..।…ज़्यादा कैसे.., नौ सौ मेरे और छह सौ मेरे दिहाड़ी मज़दूर के।….इसमें दिहाड़ी मज़दूर क्या करेगा भला..?….सीढ़ी पकड़कर खड़ा रहेगा। सामान पकड़ायेगा। पाइप काटने के बाद दोबारा जब जोड़ूँगा तो कनेक्टर के अंदर सोलुशन भी लगायेगा। बहुत काम होते हैं बाऊजी। दो-तीन घंटा मेहनत करेगा, तब कहीं छह सौ बना पायेगा बेचारा।…आप सोचकर बता दीजियेगा। अभी हाथ में दूसरा काम है..।
हिंदी के लेखक का संकट और गहरा गया है। दो-तीन घंटा काम करने के लिए मिलेगा छह सौ रुपया।… दो-तीन दिन लगेंगे उसे लेख तैयार करने में.., मिलेगा पाँच सौ रुपया।…सरकारी मुहर लगा पत्र उसका मुँह चिढ़ा रहा है। अंततः हिम्मत जुटाकर उसने प्लम्बर को फोन कर ही दिया।…काम तो करवाना है। ..ऐसा करना तुम अकेले ही आ जाना।..नहीं, नहीं फिकर मत करो। दिहाड़ी मज़दूर है हमारे पास। छह सौ कमा लेगा तो उस गरीब का भी घर चल जायेगा।…तुम टाइम पर आ जाना भैया..।
फोन रखते समय हिंदी के लेखक ने जाने क्यों एक गहरी साँस भरी!
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – हिंदी दिवस विशेष – लघुकथा – हिंदी
“…हिंदी की बात छोड़ दीजिए। कल्पनालोक से बाहर आइए। हिंदी कभी पढ़ाई-लिखाई, एडमिनिस्ट्रेशन, डिप्लोमेसी की भाषा नहीं हो सकती। हिंदी एंड इंग्लिश का अभी जो स्टेटस है, वही परमानेंट है…।”
उनकी बात सुनकर मेरी आँखों में चमक आ गई। यह वही शख्स है जिसने कहा था,…”जम्मू एंड कश्मीर की बात छोड़ दीजिए। जे एंड के का अभी जो स्टेटस है, वही परमानेंट है…।”
देश उम्मीद से है।
(5 अगस्त 2019 को सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक प्रस्तुत किये जाने से एक दिन पहले, 4 अगस्त को प्रातः 5:20 पर जन्मी रचना।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है भाई-भाई केसंबंधों पर आधारित एक लघुकथा “अनंता”। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 95 ☆
लघुकथा – अनंता
गणपति का पूजन, अर्चन और अनंत रूप के दर्शन कर सभी बहुत प्रसन्न और शांत मन से अपने अपने घरों की ओर बढ़ रहे थे। एक ही अपार्टमेंट में दो भाइयों का घर, पर दोनों अनजान ऐसे रहते थे कि सभी को लगता था कि दोनों अलग-अलग है।
सुधीर इसी ख्याल को लेकर पंडाल में बैठे देख रहा था कि बिना परिवार के भी यहां सभी परिवार जैसा रहते हैं। परंतु मैंने अपने छोटे भाई अधीर से क्यों दूरी बना लिया है । उधर आगे बढ़ते पैर ठिठक से गए । अधीर का बस यही विचार उसके मन में भी आ रहा था। परंतु दोनों जैसे किसी यंत्रचलित मानव की तरह चलते और देखे जा रहे थे।
हल्की- हल्की रोशनी में दोनों ने देखा कि मम्मी – पापा और सुधीर का बेटा वंश भी चलता आ रहा हैं। जो कई सालों बाद घर आ रहा था। दोनों ने दौड़कर अगवानी की।
वंश (सुधीर के बेटे ने) गणपति बप्पा के हाथों बंधा हुआ अनंत का धागा निकाला और दिखा कर कहने लगा- “चाचा इसका मतलब आप जानते हैं? इसे अनंता धागा कहा जाता है। साल में अनंत चतुर्दशी के दिन अनंत शुभकामनाएं और सभी के लिए बप्पा से सुख, समृद्धि मांगते हैं। क्यों ना आज दादा-दादी से आप दोनों अपने हाथों पर अनंता बंधवा कर सदा के लिए एक हो जाएं।”
दोनों यही तो चाह रहे थे। वंश बेटे को गले लगा लिया। मम्मी -पापा के चरणों पर सिर नवा भगवान गणेश की कृपा को सजते- संवरते देखने लगे। वंश ने जोर से ‘गणपति बप्पा’ की आवाज लगाई और सभी अपार्टमेंट वाले देखने लगे आज क्या हो रहा है। सुधीर और अधीर तो बड़े खुश और गले मिल रहे हैं। बात तो अनंत खुशियों की थी।