हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#3 – [1] नहीं  [2] मिनिस्टर ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में आज से शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “नहीं “एवं “मिनिस्टर ”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#3 – [1] नहीं  [2] मिनिस्टर ☆

[1]

नहीं

लड़की सयानी हुई तो रिश्तेदारनीउसका रिश्ता लेकर आई। बोलो- पांच भाइयों में से एक बड़े की तरफ लड़की का रिश्ता चलाएँ?

अपनी रिश्तेदारनी की बात सुनकर लड़की बोली- न जी न बुआजी । चार देवरानियां ब्याहते –  ब्याहते बूढ़ी हो जाऊंगी। छोटे से ब्याह रचाएंगी तो भारी भरकम गिफ्ट देने से बचूँगी। सबका प्यार भी पाती रहूंगी, अभी तो किसी तरह भी नहीं।

[2]

मिनिस्टर

लड़की को देखने वाले आए। बोले- आपकी लड़की का होनै वाला ससुर मिनिस्टर है। लड़की दिल्ली रहेगी। नौकरों की फौज रहेगी। अपने हाथ से गिलास भरकर पानी भी नहीं पिएगी ।?

‘मिनिस्टर है कोई युधिष्ठिर नहीं’.. वहाँ तो सच सुनने को तरस जाऊँगी। मुझे तो ऐसा घर चाहिए जहां  मेरी पूछ परख हो। मेरी पाक कला की पूछ हो, घर की नींव खून पसीने की हो। अपनत्व हो…. दिखावटीपन मुझे पसंद नहीं।

लड़के वाले दांत पीसकर रह गये।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#2 – [1] लक्ष्मी जी [2] भुतहा घर ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में आज से शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “लक्ष्मी जी “एवं “भुतहा घर”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#2 – [1] लक्ष्मी जी [2] भुतहा घर ☆

[1]

लक्ष्मी जी

सदियों से नारी को जेवर एवं गृहलक्ष्मी का ओहदा देकर औरत को बना रहा था आदमी।

अब वह सब खत्म। लक्ष्मी जी तो वह अब बनी है। बड़े बड़े ओहदे पर है। बड़ी बड़ी तनख्वाहें पा रही है।अब उसके पास बंगला है, कार हैं, बैंक बैलेंस है।अब आदमी औरत के सामने बौना हो गया है।

दो औरतें बिंदास चर्चा कर रही थीं। अपने सोने के मोटे मोटे कंगन एक दूसरे को दिखा रही थीं।

[2]

भुतहा घर

‘सास नहीं ससुर नही। देवर ननद, भाई भौजाई कुछ नहीं। लड़की राज करेगी’ माँ बोलीं।

‘तो मैं क्या भूतों के संग रहूँगी?  पति क्या चौबीस घंटे घर में रहा आएगा?’

‘नेवर – नो -‘

‘घर अकेले से नहीं रिश्तेदारों से भरता है। मायके वाले ही रिश्तों की गलत नींव रखते हैं।’

माँ चुप्पी लगा गयी।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #3 – गढ़चिरौली की रूपा ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है  तीसरी प्रेमकथा  – गढ़चिरौली की रूपा )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #3 – गढ़चिरौली की रूपा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

कैलाश मेश्राम की स्टेट बैंक के भोपाल स्थित स्थानीय कार्यालय में पदस्थी के दौरान सुरेश से हुई मुलाक़ात मित्रता में बदल गई। कुछ समय बाद कैलाश की पदोन्नति सहायक महाप्रबंधक की श्रेणी में होने के साथ उनका तबादला अंकेक्षण (Audit) विभाग में हो गया। दोनों पर्यटन के शौक़ीन थे इसलिए कैलाश जहाँ भी आडिट करने जाते वहाँ उनको घूमने-फिरने बुलाते। अनेकों बार कार्यक्रम बनता परंतु किन्ही कारणों से परवान न चढ़ता था।  नवम्बर 2020 के पहले हफ़्ते में कैलाश को आडिट हेतु पंद्रह दिन गढ़चिरौली में रहना था। उन्होंने उनको गढ़चिरौली भ्रमण हेतु आमंत्रित किया।

सुरेश ने गढ़चिरौली के वनीय वैभव, गोंडी-तेलुगु-मराठी लोगों की मिलीजुली जीवंत संस्कृति, बाबा आमटे के पुत्र प्रकाश आमटे एवं उनकी पत्नी मंदाकिनी आमटे द्वारा पलकोटा, वेडिया और इंद्रावती नदियों के त्रिवेणी संगम पर स्थापित लोक बिरादरी सेवा आश्रम, अल्लापल्ली के प्रसिद्ध सागौन वन क्षेत्र और मार्क्सवादी नक्सल आतंकवाद के मायके के नाम से मशहूर कमलापुर वनक्षेत्र के बारे में सुन रखा था। गढ़चिरौली भ्रमण की बड़ी पुरानी इच्छा कुलबुला उठी। वह 09 नवम्बर 2020 को कार के टैंक में सिरे तक पेट्रोल भराकर सुबह छः बजे भोपाल से गढ़चिरौली के लिए निकल गया।

उसने ठंडी हवा के झोंकों से बतियाते हुए जैसे ही अब्दुल्लागंज पार किया विंध्याचल पर्वत के सुहाने दृश्य और ताज़ी हवा के झोंकों ने मन मोह लिया लेकिन वह प्रसन्नता अधिक देर नहीं टिकी रह सकी क्योंकि आगे आठ-दस किलोमीटर लम्बा धूल भरा ट्रैफ़िक जाम उसका स्वागत करने को तैयार था। वाहन फ़र्स्ट ग़ैर में घिसटते-घिसटते एक घंटे का रास्ता तीन घंटों में पूरा कर इटारसी पार करके केसला और पथरौटा से गुज़र कर शाहपुर पहुँचने ही वाला था कि सतपुड़ा की लुभावनी हरीतिमा को छूकर आए हवा के झोंकों ने उसकी तबियत खुश कर दी। पता चला कि बैतूल ज़िला लग चुका है। हरे भरे पहाड़ों से घिरे एक ढ़ाबे पर मुँह-हाथ धोकर घर से लाया टिफ़िन ख़ाली करके पेट में भरा और वहाँ पड़ी खटिया पर पटिया को सिरहाना बनाकर लेट गया। लेटते ही दिमाग़ में बैतूल ज़िले की भौगोलिक संरचना और बसावट के विचार तरंगित होने लगे।

बैतूल समुद्र तल से 2,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित वनों और जैव विविधता से समृद्ध क्षेत्र  है, जिस कारण यहाँ जलवायु पूरे वर्ष सुखद व मनमोहक बनी रहती है। यह सतपुड़ा रेंज के मैदानी इलाकों में स्थित होने से धूल भरे शहर के जीवन से अलग एक सुखद, शांतिपूर्ण भ्रमण हेतु उपयुक्त स्थान है। बैतूल ज़िला मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 180 किलोमीटर दूर छिंदवाड़ा, नागपुर, खंडवा, होशंगाबाद, हरदा जिलों की गोद में सतपुड़ा पर्वत के दक्षिणी पठार से नागपुर की तरफ़ फैले मैदान तक फैला हुआ है। उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में, बैतूल क्षेत्र बदनूर का इलाक़ा के नाम से जाना जाता था। इस स्थान और ज़िले का वर्तमान नाम इसके दक्षिण में लगभग 5 किमी की दूरी पर बसे एक छोटे से शहर बैतूल-बाजार के कारण पड़ा है। लेकिन बैतूल शब्द कहाँ से आया? बैतूल का शाब्दिक अर्थ होता है “बिना बाढ़” का। इस क्षेत्र के चारों तरफ़ कपास की खेती बहुतायत से होती थी। किसानों ने यहाँ भी कपास लगाना शुरू किया लेकिन यहाँ की ज़मीन पथरीली और जलवायु नम होने से यहाँ कपास का पौधा बढ़ता (तूल) नहीं था। जैसे “बातों को तूल  न देना” याने  न बढ़ाना एक मुहावरा है। वैसे ही कपास के पौधों का न बढ़ना बैतूल हो गया। वहाँ आदिवासियों की छोटी हाट लगती थी जिसे बैतूल बाज़ार पुकारा जाने लगा। उन्नीसवी सदी में उड़ीसा और छत्तीसगढ़ फ़तह करके लौटते वक्त चौथ-सरदेशमुखी वसूली हेतु बिरार का इलाक़ा शिवाजी के वंशज राघोजी भोसले को सौंपा गया था। मराठा साम्राज्य विखंडन होने पर अंग्रेजों ने बैतूल को राजस्व तालुक़ा बना दिया। 1822 में जिला मुख्यालय को वर्तमान स्थान पर स्थानांतरित कर दिया गया, तभी से स्थानीय बोली में बदनूर इलाक़ा बैतूल के नाम से जाना जाने लगा।

अमरावती जिले में हाटीघाट और चिकलदा पहाड़ियों के किनारे ताप्ती की सहायक नदियाँ मोरंड और गंजल बैतूल ज़िले की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा निर्धारित करती  हैं। मोरंड नदी और ढोढरा मोहर रेलवे स्टेशन के आगे से तवा नदी ज़िले की उत्तरी सीमा बनाती हैं।  पूर्वी सीमा छोटी नदियों और पहाड़ियों से गुलज़ार हैं। जिनमें से खुरपुरा और रोटिया नाला बरसात के दिनों में बादलों से ढँके अनेकों प्रपातों का निर्माण करते  हैं। गोंड, कोरकु, भरिया, कुर्मी, कुनबी, मेहरा और चमार इस ज़िले के मुख्य निवासी हैं। क़रीब आधा घंटा आराम के बाद पुनः यात्रा शुरू करके शाम को पाँच बजे के आसपास नागपुर शहर के मकान दिखने लगे। इतिहास की इन अठखेलियों से विचरते हुए भोपाल  से नागपुर की 350 किलोमीटर यात्रा पूरी हो चुकी थी। नागपुर से चंद्रपुर 160 किलोमीटर और चंद्रपुर  से गढ़चिरौली 80 किलोमीटर यानि कुल 590  किलोमीटर अच्छी-बुरी सड़क से यात्रा तय करके रात्रि नौ बजे गढ़चिरोली गेस्ट हाऊस में जाकर गरम पानी से नहाकर खाना खाया और ग्यारह बजे पलंग पर लिहाफ़ में घुसते ही नींद ने आ दबोचा।

उन्होंने अगला  पूरा दिन गढ़चिरोली भ्रमण में बिताया। दूसरे दिन सुबह उठकर गढ़चिरौली ज़िले की अहेरी तहसील में स्थित सघन सागौन वन की सैर को निकल गए। गढ़चिरौली जिला महाराष्ट्र के उत्तरी-पूर्वी कोने में स्थित है। यह पश्चिम में चंद्रपुर, उत्तर में  गोंदिया, पूर्व में  छत्तीसगढ़ राज्य के दुर्ग, राजनांदगाँव, बस्तर और जगदलपुर ज़िले और दक्षिण पश्चिम में  तेलंगाना  राज्य के करीमनगर और आदिलाबाद जिलों से घिरा है। गढ़चिरौली  आदिवासी  ज़िला है। मुख्य निवासी गोंड और माडिया आदिवासी समुदाय के लोग है। यहाँ 1972 में बंगाली समुदाय के शरणार्थी पुनर्वास करके बसाए गए हैं।

प्राचीन काल में इस क्षेत्र पर राष्ट्रकूट, चालुक्य, देवगिरि के यादव और बाद में गढ़चिरौली के गोंडों का शासन था। 13 वीं शताब्दी में खांडक बल्लाल शाह ने चंद्रपुर की स्थापना की और इसे अपनी राजधानी बनाया। चंद्रपुर बाद में मराठा शासन में आया। 1853 में, बरार जिसमें चंद्रपुर (जिसे चंदा कहा जाता था) का हिस्सा भी था, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया गया था। 1854 में चंद्रपुर सेंट्रल प्राविन्स एंड बेरार का एक स्वतंत्र जिला बन गया। लॉर्ड कर्ज़न की राज्य पुनर्गठन योजना के अंतर्गत 1905 में अंग्रेजों ने चंद्रपुर और ब्रम्हपुरी से एक-एक जमींदारी संपत्ति का हस्तांतरण करके गढ़चिरौली तहसील बनाई। यह 1956 तक सेंट्रल प्रांत का हिस्सा था, जब राज्यों के पुनर्गठन के साथ, चंद्रपुर को बॉम्बे राज्य में स्थानांतरित कर दिया गया था। 1960 में, जब महाराष्ट्र बनाया गया, चंद्रपुर नए राज्य का एक जिला बन गया। गढ़चिरौली जिले का गठन 26 अगस्त 1982 को चंद्रपुर से गढ़चिरौली और सिरोंचा तहसीलों को अलग करके किया गया था। गढ़चिरौली में नक्सलवाद की जड़ें जमी हैं। जिसमें छापामार लड़ाके पहाड़ियों और घने जंगलों में रहते हैं और इसे रेड कॉरिडोर के हिस्से के रूप में नामित किया गया है।

गढ़चिरौली से तेलंगाना राज्य की सीमा पर दक्षिण दिशा में अल्लापल्ली नाम का वन आच्छादित गाँव है। अल्लापल्ली आमतौर पर गोंडवाना गांव है, लेकिन अब, कई लोग शिक्षा, व्यवसाय और जीविका कमाने के उद्देश्य से वहां आ बसे  हैं। अल्लापल्ली के जंगल विश्व प्रसिद्ध सागौन की लकड़ी के ख़ज़ाने हैं। अल्लापल्ली से परमिली-भामरागढ़ रोड पर 07 किलोमीटर दूर 100 साल पहले वैज्ञानिक प्रबंधन के तहत मूल जंगल के रूप में संरक्षित ‘ग्लोरी ऑफ अल्लापल्ली’ वन पारिस्थितिकी के एक जीवित संग्रहालय के रूप में प्रसिद्ध है। जहाँ पर 500  वर्ष पुराने सागौन के 120 फ़ुट ऊँचे पेड़ मौजूद हैं। जिसे आज सागौन कहा जाता है वह साग का पेड़ है, एक जगह पर बहुत अधिक संख्या में साग के पेड़ होने से उसे सागवन पुकारा जाने लगा, वही सागवन कालांतर में सागौन हो गया।

पहले अल्लापल्ली हैदराबाद के निज़ाम के नियंत्रण में था। बाज़ीराव ने मराठवाड़ा को जीतकर नियंत्रण में लिया तब इस इलाक़े को नागपुर के राघोजी भोसले के अधीन रख दिया। इसलिए अल्लापल्ली तहसील की जनसंख्या मुख्यतः तेलुगु भाषी है लेकिन गावों में गोड़ों की बसावट है। वर्तमान में अल्लापल्ली महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले की तहसील ऐटापल्ली का एक ब्लॉक है।

फ़ारेस्ट रेंज आफ़िसर गणेश लाँड़गे ने बताया कि जिस गेस्ट हाऊस में हम रुके हैं वह अंग्रेजों द्वारा 1910 में बनाया गया था। अल्लापल्ली से 130 किलोमीटर दक्षिण दिशा में हत्थी केम्प बनाया गया है। लकड़ी उठाने और ढ़ोने के लिए कुछ हाथी आसाम के काज़ीरंगा पार्क से लाए गए थे। मशीनीकरण से बेरोज़गार हाथियों को सेवानिवृत्त करके एक पहाड़ी इलाक़े में रखा गया है। जहाँ उन्हें सप्ताह में दो बार चावल गुड घी और केलों का भोजन कराने हेतु एक तालाब के बीच बने हत्थी केम्प में लाया जाता है। उनके पैरों में लोहे की मोटी ज़ंजीर बांधी गई है जिनके घिसटने से भूमि पर बनने वाले निशानों से वनरक्षक उनकी गतिविधियों पर नज़र रखते हैं और भोजन  के दिन उन्हें हाँका लगाकर हत्थी केम्प लाते हैं। सबसे वयोवृद्ध हथिनी का नाम रूपा है, उसकी उम्र अस्सी साल बतायी जाती है। अल्लापल्ली की पुरानी हथिनी बसंती वहाँ के सबसे पुराने हाथी महालिंगा के संसर्ग से बच्चा नहीं दे रही थी इसलिए रूपा को हाथियों की संख्या बढ़ाने हेतु नागझिरा से अल्लापल्ली लाया गया। रूपा के पहुँचने से बसंती के कान खड़े हो गए। उसने महालिंगा पर कड़ी नज़र रखना शुरू कर दिया। दूसरी तरफ़ बसंती रूपा को चिंघाड़ कर चुनौतीपूर्ण धमकी देने लगी। एक दिन महालिंगा नज़र बचाकर रूपा के नज़दीक पहुँच सूँड़ से प्रेम का इज़हार करने लगा तो बसंती क्रोध से उफनते हुए रूपा पर टूट पड़ी। उसे धमकाकर घने जंगल में पहुँचा कर ही दम लिया। इस घटना के बाद वन अधिकारियों ने रूपा को तालाब की दूसरी तरफ़ आधे किलोमीटर लम्बी ज़ंजीरों से बांधकर वहीं उसके भोजन का इंतज़ाम कर दिया ताकि बसंती के दाम्पत्य जीवन में व्यवधान उत्पन्न न हो।

रूपा को अल्लापल्ली जंगल में बच्चे पैदा करके हाथियों की वंशवृद्धि का उद्देश्य पूरा न होते देख वन अधिकारियों ने केरल और आसाम से पशु विशेषज्ञ बुलाकर बसंती को एक साल तक कुछ इंजेक्शन दिए तो वह गर्भवती हुई और उसने बीस महीनों के बाद एक बच्चा जना, जिसका नाम प्रसिद्ध फ़िल्मी खलनायक अजीत के नाम पर रखा गया। बदली हुई परिस्थितियों में यह विचार करके कि शायद माँ बनने के बाद बसंती अब महालिंगा से रूपा को गर्भवती होने देगी। रूपा को उसके नज़दीक लाने की कोशिश की लेकिन बसंती ने अपनी मातृ सत्तात्मक पकड़ ज़रा सी भी ढ़ीली नहीं की। रूपा फिर एक बार मायूस हुई। कुछ सालों बाद अजीत जवान हो गया। रूपा की निगाह अजीत पर पड़ी। उसे भरोसा था कि बसंती अपने बच्चे अजीत के समागम से प्रजनन नहीं करेगी तो अजीत अंततोगत्वा उससे संसर्ग करेगा क्योंकि उस इलाक़े में उसके अलावा कोई और मादा नहीं है। बसंती को रूपा के इरादे भाँपते देर न लगी। अजीत भी अकसर भागकर रूपा के आसपास मँडराने लगा। जब अजीत उठाव पर आया तो बसंती ने उसके संसर्ग से एक और बच्चा दिया जिसका नाम एक अन्य फ़िल्मी विलेन रंजीत के नाम पर रखा गया। रूपा फिर एकबार मायूस हुई। बसंती का पुराना साथी महालिंगा उम्रदराज़ होकर मरा तब रूपा बसंती के परिवार को सांत्वना जताने आई परंतु बसंती ने उसे आते देख मुँह फेर लिया। अब रूपा ने हालात से समझौता करके जीना सीख लिया है, वह अकेली रहती है। हत्थी केम्प पहले आकर और भोजन करके चली जाती है। बसंती सपरिवार दूर खड़ी उसके चले जाने का इंतज़ार करती है। उसके जाने के बाद अपने परिवार को लेकर भोजन कराने आती है। मनुष्यों की तरह पशुओं में भी सौंतिया डाह के संघर्ष होते हैं।

हत्थी केम्प से लौटते समय मस्तिष्क में विचार आया कि पुरानी बाइबिल में लिखी अब्राहम, साराह और हागार की कहानी के पात्र महालिंगा, बसंती और रूपा के रूप में देखकर वापस लौट रहे हैं। अब्राहम पत्नी साराह और सेविका हागार के साथ दजला-फ़रात के मैदान में बसे कन्नान में रहते थे। साराह को बच्चे नहीं हो रहे थे इसलिए उसने अब्राहम से परिवार बढ़ाने के लिए सेविका हागार से बच्चा पैदा करने को कहा। अब्राहम और हागार से इस्माइल का जन्म हुआ। उसके बाद अब्राहम और साराह का भी  एक बच्चा इशाक नाम का हो गया। सुंदर सेविका हागार का बच्चा बड़ा होने से साराह में सौंतिया डाह विकसित हुआ तो वह हागार और इस्माइल पर अत्याचार करने लगी। हागार पीड़ित होकर इस्माइल को लेकर अरब देश में मक्का पहुँची जहाँ इस्माइल के वंश में मुहम्मद का जन्म हुआ था जिन्होंने इस्लाम धर्म चलाया।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#48 – कौन सा रास्ता सही? ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#48 – कौन सा रास्ता सही? ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक गरीब युवक, अपनी गरीबी से परेशान होकर, अपना जीवन समाप्त करने नदी पर गया, वहां एक साधू ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। साधू ने, युवक की परेशानी को सुन कर कहा, कि मेरे पास एक विद्या है, जिससे ऐसा जादुई घड़ा बन जायेगा जो भी इस घड़े से मांगोगे, ये जादुई घड़ा पूरी कर देगा, पर जिस दिन ये घड़ा फूट गया, उसी समय, जो कुछ भी इस घड़े ने दिया है, वह सब गायब हो जायेगा।

अगर तुम मेरी 2 साल तक सेवा करो, तो ये घड़ा, मैं तुम्हे दे सकता हूँ और, अगर 5 साल तक तुम मेरी सेवा करो, तो मैं, ये घड़ा बनाने की विद्या तुम्हे सिखा दूंगा। बोलो तुम क्या चाहते हो, युवक ने कहा, महाराज मैं तो 2 साल ही आप  की सेवा करना चाहूँगा , मुझे तो जल्द से जल्द, बस ये घड़ा ही चाहिए, मैं इसे बहुत संभाल कर रखूँगा, कभी फूटने ही नहीं दूंगा।

इस तरह 2 साल सेवा करने के बाद, युवक ने वो जादुई घड़ा प्राप्त कर लिया, और अपने घर पहुँच गया।

उसने घड़े से अपनी हर इच्छा पूरी करवानी शुरू कर दी, महल बनवाया, नौकर चाकर मांगे, सभी को अपनी शान शौकत दिखाने लगा, सभी को बुला-बुला कर दावतें देने  लगा और बहुत ही विलासिता का जीवन जीने लगा, उसने शराब भी पीनी शुरू कर दी और एक दिन नशें में, घड़ा सर पर रख नाचने लगा और ठोकर लगने से घड़ा गिर गया और फूट गया.

घड़ा फूटते ही सभी कुछ गायब हो गया, अब युवक सोचने लगा कि काश मैंने जल्दबाजी न की होती और घड़ा बनाने की विद्या सीख ली होती, तो आज मैं, फिर से कंगाल न होता।

“ईश्वर हमें हमेशा 2 रास्ते पर रखता है एक आसान -जल्दी वाला और दूसरा थोडा लम्बे समय वाला, पर गहरे ज्ञान वाला, ये हमें चुनना होता है की हम किस रास्ते पर चलें?”

“कोई भी काम जल्दी में करना अच्छा नहीं होता, बल्कि उसके विषय में गहरा ज्ञान आपको अनुभवी बनाता है।”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह – [1] नासमझ [2] ऊपरी कमाई ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में आज से शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “नासमझ “एवं “ऊपरी कमाई”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह – [1] नासमझ [2] ऊपरी कमाई ☆

[1]

नासमझ

‘नहीं माँ, मैं लिव इन में रह लूँगी पर ब्याह नहीं करुँगी.’

‘क्या कह रही रही है बेटी तू?’

‘पति की गुलामी, बच्चों की गुलामी, घर गृहस्थी की सेवा संभाल करते-करते आज की औरत तंगहाल है माँ, उसका स्व कुछ नहीं रह गया है.’

आजाद ख्याल बच्ची को नासमझ  कहने के सिवाय उसके पास शेष कुछ रह नहीं गया था.

 

[2]

ऊपरी कमाई

बिचौलिया कह रहा था ‘लड़के की तनख्वाह जरूर कम है पर ऊपरी आमदनी, बाबा रे बाबा , लड़की कार चढ़ेगी.’

‘ऊपरी कमाई ऊपर के ऊपर उड़ जाएगी, साथ में मेरे जेवर भी बेच खाएगी. शराब जुआँ संग ले आएगी, लगे हाथ सौत भी खिची चलीआएगी, घर भी बेच खाएगी. बचेगा निल बटे सन्नाटा-टा-टा.’

लड़की मुँहमोड़ गयी.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – गीलापन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – गीलापन ?

‘उनके शरीर का खून गाढ़ा होगा। मुश्किल से थोड़ा बहुत बह पाएगा। फलत: जीवन बहुत कम दिनों का होगा। स्वेद, पसीना जैसे शब्दों से अपरिचित होंगे वे। देह में बमुश्किल दस प्रतिशत पानी होगा। चमड़ी खुरदरी होगी। चेहरे चिपके और पिचके होंगे। आँखें बटन जैसी और पथरीली होंगी। आँसू आएँगे ही नहीं।

उस समाज में सूखी नदियों की घाटियाँ संरक्षित स्थल होंगे। इन घाटियों के बारे में स्कूलों में पढ़ाया जाएगा ताकि भावी पीढ़ी अपने गौरवशाली अतीत और उन्नत सभ्यता के बारे में जान सके। अशेष बरसात, अवशेष हो जाएगी और ज़िंदा बची नदियों के ऊपर एकाध दशक में कभी-कभार ही बरसेगी। पेड़ का जीवाश्म मिलना शुभ माना जाएगा। ‘हरा’ शब्द की मीमांसा के लिए अनेक टीकाकार ग्रंथ रचेंगे। पानी से स्नान करना किंवदंती होगा। एक समय पृथ्वी पर जल ही जल था, को कपोलकल्पित कहकर अमान्य कर दिया जाएगा।

धनवान दिन में तीन बार एक-एक गिलास पानी पी सकेंगे। निर्धन को तीन दिन में एक बार पानी का एक गिलास मिलेगा। यह समाज रस शब्द से अपरिचित होगा। गला तर नहीं होगा, आकंठ कोई नहीं डूबेगा। डूबकर कभी कोई मृत्यु नहीं होगी।’

…पर हम हमेशा ऐसे नहीं थे। हमारे पूर्वजों की ये तस्वीरें देखो। सुनते हैं उनके समय में हर घर में दो बाल्टी पानी होता था।

..हाँ तभी तो उनकी आँखों में गीलापन दिखता है।

…ये सबसे ज्यादा पनीली आँखोंवाला कौन है?

…यही वह लेखक है जिसने हमारा आज का सच दो हजार साल पहले ही लिख दिया था।

…ओह ! स्कूल की घंटी बजी और 42वीं सदी के बच्चों की बातें रुक गईं।

समुद्र मंथन से अमृत निकला था। आज का अमृत, जल है। स्मरण रहे, जल है तो कल है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 88 ☆ लघुकथा – विश्वास ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं एक अत्यंत विचारणीय लघुकथा  “विश्वास। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 88 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – विश्वास ☆

देश का माहौल बहुत खराब है।इस कोरोना महामारी ने सबका सुख चैन छीन लिया है। आज उनको काम से यू.पी. जाना है और रास्ते में थे, तभी पता चला लॉक डाउन में कुछ ढील है तो सारे लोग सड़क पर उतर आए। रास्ते जाम हो गए। तभी नजर पड़ी एक राहगीर रास्ते में बेहोश पड़ा है और उसके सर से खून बह रहा है। इतनी भीड़ में पैदल चल रहे राहगीर को कोई टक्कर मार गया होगा। कोरोना के भय से कोई भी हाथ लगाने को तैयार नहीं लेकिन उनका मन नहीं माना। उनको  विश्वास था कि  हो सकता है इस बेचारे की जान बच जाए। वह पानी और सैनिटाइजर लेकर नीचे उतरे। उस पर पानी का छिड़काव किया। उसमें कुछ हरकत हुई तब उन्होंने पुलिस को फोन किया। एंबुलेंस बुलाई। उसका फोन दूर गिरा था उन्होंने उसे सैनेटाईज किया। जानना चाहा कि आखरी फोन  किसे किया था। इत्तेफाक से वह इसके पिता का नंबर  था। सारी जानकारी दे दी गई। उसे बस्ती के अस्पताल में भर्ती करवा दिया और वह खतरे से बाहर है।उनका दृढ़ विश्वास और बढ़ गया।

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #2– अनिरुद्ध-ऊषा ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है  द्वितीय प्रेमकथा  – अनिरुद्ध-ऊषा  )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #2– अनिरुद्ध-ऊषा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

हरिवंश पुराण में मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ज़िले की एक छोटी सी बस्ती सोहागपुर का उल्लेख श्रोणितपुर नाम से बांणासुर राक्षस की राजधानी के रूप में आता है। महाभारत युद्ध से कृष्ण की स्थापना एक सर्वमान्य आर्य नेतृत्व के रूप में हो गई थी लेकिन कई अनार्य राजा उनसे ईर्ष्यावश द्वेष पाले रखते थे। यादवों का राज्य अरबसागर किनारे स्थित द्वारका से नर्मदा के उत्तरी तट तक फैला हुआ था यानि पूरा गुजरात, मालवा और दक्षिणी बुंदेलखंड का कुछ हिस्सा उनके आधिपत्य में था। असुरराज बांणासुर का राज्य नर्मदा के दक्षिण में श्रोणितपुर राजधानी से पूरे छत्तीसगढ़ तक फैला था। नर्मदा नदी उनके राज्यों की प्राकृतिक विभाजक रेखा थी।

राज्यों की कूटनीति का एक परम सिद्धांत है कि या तो तुम अपने राज्य का पड़ोसी राज्य में विस्तार करो अन्यथा पड़ौसी तुम्हारे राज्य की सीमा पार करके अपने राज्य का विस्तार करेगा। असुरराज बांणासुर के सैनिक आज के नरसिंहपुर, होशंगाबाद और हरदा जिलों से नर्मदा पार करके यादव राज्य में घुसकर आज के सागर, दमोह, रायसेन, सीहोर और देवास जिलों पर हमला करके इलाक़ा अधिग्रहित करने की कोशिश करते रहते थे। कृष्ण ने अपने पौत्र अनिरुद्ध को उस इलाक़े की रक्षा के लिए नियुक्त किया, तभी उसका बांणासुर की पुत्री ऊषा से प्रेम प्रसंग हो गया। अनिरुद्ध राजकुमारी ऊषा से मिलने शोणितपुर तक पहुँच गया। उस समय बांणासुर ने ऊषा के लिए बागड़ा-वन में एक क़िला अग्निगढ़ नाम से बनाया हुआ था। उषा की मायावी सहेली चित्रलेखा ने अनिरुद्ध को शोणितपुर से अग्निगढ़ क़िले तक पहुँचा दिया। दो प्यासे हृदय एक होकर रसरंग की ख़ुमारी में खो गए। जब बांणासुर को जासूसों ने ख़बर दी तो राक्षसराज ने अनिरुद्ध को बंदी बना लिया। शिव पुराण के पाँचवें भाग युद्ध-खंड में बाणासुर-शोणितपुर कथा का वर्णन आता है। हम इसे आर्य-अनार्य संस्कृति सम्मिलन प्रक्रिया के रूप में देख रहे हैं।

पुराणों के रचनाकार ऋषि-मुनि उस समय के इतिहासकार थे, जिन्होंने कहानी के रूप में सामयिक घटनाओं को रोचक रूप दिया था। उन्होंने अपने साहित्य में कथा को आगे बढ़ाने के लिए वरदान और श्राप नामक दो तरीक़े आदमी के अहंकार को बढ़ाने, फिर अहंकार या अहंकारी को नष्ट्र करने के तरीक़े स्वरूप सुनियोजित रूप से प्रयोग किए हैं ताकि राजा कभी भी अति अहंकारी न हो। अहंकार राजा का अत्यावश्यक गुण है परंतु राजा का अति अहंकार प्रजा को दम्भी बनाता है। पहले अति अहंकारी राजा का विनाश होता है फिर बेलगाम प्रजा आपस में भिड़ने लगती है और राष्ट्र बर्बादी के कगार पर पहुँच जाता है। शिव पुराण में लिखित कृष्ण-बाणासुर संग्राम की पूरी कहानी इस प्रकार है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार दक्ष प्रजापति की तेरह कन्याएँ कश्यप मुनि की पत्नियाँ थीं। उनमें से एक अदिति के गर्भ से इंद्र, अरूण, वरुण, सूर्य इत्यादि देवता उत्पन्न हुए इसीलिए अदिति के एक पुत्र सूर्य का एक नाम आदित्य है। दिति के गर्भ से उत्पन्न पुत्र दैत्य कहलाए। उसके हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष दो पुत्र हुए। हिरण्यकश्यप के चार पुत्र हुए। ह्लाद, अनुह्लाद, संह्लाद और प्रह्लाद। प्रह्लाद आर्यों के प्रधान देव विष्णु का भक्त हुआ और विष्णु के  नरसिंह अवतार द्वारा हिरण्यकश्यप के वध का कारण बना। प्रह्लाद का पुत्र राजा विरोचन हुआ जिसने अपना सिर देवताओं के राजा इंद्र को  दान में दे दिया था। विरोचन का लड़का राजा बलि हुआ जिसने विष्णु को समस्त पृथ्वी दान कर दी थी। उसी राजा बलि का पुत्र था शोणितपुर का राजा बांणासुर। इस प्रकार आर्य लोग अनार्यों को भक्ति और दान द्वारा उनके लोभ और वैमनस्य पिघला कर अपनी उदार संस्कृति में ढालते जा रहे हैं। अनार्यों के प्रमुख देव शिव है जो कि ऋग्वेद में आर्यों के रूद्र थे। वे हमेशा ख़ुश होकर दैत्यों को वरदान दे देते हैं, परंतु देवताओं को वरदान देते नहीं दिखते हैं। इसका उलट वे आर्य देवों को भस्म करते हैं जैसे कामदेव को शिव ने अनंग कर दिया था। वही कामदेव कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में अवतरित हुए थे। रति ने भी उनकी पत्नी बनकर जन्म लिया, जिनका पुत्र अनिरुद्ध था। विष्णु उपासक होने से विष्णु ही आर्यों के संकटमोचक थे।

बांणासुर ताण्डव नृत्य द्वारा शिव को प्रसन्न कर त्रिलोकाधिपतियों को बलपूर्वक जीतकर श्रोणितपुर को अपनी राजधानी बना कर राज्य करने लगा। उसने भगवान शंकर को प्रसन्न कर उन्हें अपने नगर का अध्यक्ष बनाकर गणों और पुत्रों सहित निवास करने की विनती की जिसे भगवान शिव ने स्वीकार किया और शोणितपुर में निवास करने लगे।

एक बार उसने तांडव नृत्य कर अपने हजार हाथों से ताली बजा-बजाकर भगवान शंकर को प्रसन्न कर कहा – “हे त्रिपुरारी! पूरे त्रिलोक में मुझे आप जैसा बलशाली योद्धा नहीं मिल रहा। कोई मुझसे अब युद्ध करने को तैयार नहीं है। हे! शंकर मेरी 1000 भुजाएँ फड़क रहीं हैं या तो आपसा योद्धा मुझसे युद्ध करे या आप मेरी भुजाओं को कटवा दें।” भगवान शंकर बाणासुर का दर्प  समझ गए। उन्होंने मुस्कुराते हुए उसकी मंशा पूरी होने का वरदान दे दिया। वह भगवान शंकर जैसे योद्धा के साथ युद्ध चाहता था। तदानुसार दैव योजना से बांणासुर की पुत्री उषा एक रात कामातुर हुई। पार्वती ने उसके स्वप्न में प्रद्युम्न पुत्र अनिरुद्ध को भेजकर शमन कराया। उसकी स्वप्न छवि ऊषा  के हृदय में बस गई। उसने अपनी सेविका सखी मायावी चित्रकार चित्रलेखा से अनिरुद्ध से मिलाने की विनती की। चित्रलेखा ने अनिरुद्ध को द्वारका से लाकर उषा के महल में छोड़ दिया। बांणासुर के रक्षकों ने यह ख़बर उस तक पहुँचा दी कि कोई देव पुरुष उसकी पुत्री ऊषा का भोग कर रहा है। अनिरुद्ध बंदी बना लिया गया। भगवान शंकर की माया के अनुसार अपने पौत्र अनिरुद्ध को बाणासुर से मुक्त कराने के लिए श्रीकृष्ण को शोणितपुर पर चढ़ाई करनी पड़ी। भगवान शंकर अपने भक्त बाणासुर की तरफ से युद्ध करने के लिए खड़े हुए थे।

शंकर और श्रीकृष्ण में भीषण युद्ध होने लगा तब श्रीकृष्ण शंकर जी के पास जाकर बोले – “हे प्रभु मैं तो आपके ही आदेश से और आपके श्राप से दैत्य की मुक्ति के कारण इस दुष्ट की भुजाएं काटने आया था। आप मुझसे ही भीषण युद्ध कर रहे हैं।” तब भगवान शंकर ने श्री कृष्ण जी को अपने भक्त वत्सल होने का वास्ता देते हुए बताया कि मुझे “जृम्भणास्त्र” से जृम्भित कर अपना अभीष्ट सिद्ध करो। श्रीकृष्ण ने ऐसा ही किया और उसके बाद में उन्होंने बांणासुर की चार भुजाएँ छोड़कर बाक़ी भुजाएं काट डाली, जब सुदर्शन चक्र से सिर काटने लगे तो  भगवान शंकर ने उन्हें यह कह कर रोक लिया कि हे मधुसूदन आपने रावण और कंस या किसी भी प्रमुख दैत्यराज का वध चक्र से नहीं किया है। आप चक्र को लौटा लीजिए। दैत्य मेरा परम भक्त है।

सोहागपुर में शंकर मंदिर के सामने एक प्रस्तर भुजा अभी भी पड़ी है जिसे बांणासुर की भुजा बताई जाती है। बांणासुर ने हाथ जोड़कर शिव से एक वरदान माँगा कि ऊषा-अनिरुद्ध से उत्पन्न उसका दौहित्य शोणितपुर पर राज्य करे। उसके बाद शिव कैलाश और कृष्ण द्वारका चले गए। यह  कहानी इस तरफ़ संकेत करती है कि आर्य-अनार्य संस्कृतियों का सम्मिलन नर्मदा घाटी में घटित हो रहा था।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#47 – आधा किलो आटा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#47 – आधा किलो आटा ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक नगर का सेठ अपार धन सम्पदा का स्वामी था। एक दिन उसे अपनी सम्पत्ति के मूल्य निर्धारण की इच्छा हुई। उसने तत्काल अपने लेखा अधिकारी को बुलाया और आदेश दिया कि मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल्य निर्धारण कर ब्यौरा दीजिए, पता तो चले मेरे पास कुल कितनी सम्पदा है।

सप्ताह भर बाद लेखाधिकारी ब्यौरा लेकर सेठ की सेवा में उपस्थित हुआ। सेठ ने पूछा- “कुल कितनी सम्पदा है?” लेखाधिकारी नें कहा – “सेठ जी, मोटे तौर पर कहूँ तो आपकी सात पीढ़ी बिना कुछ किए धरे आनन्द से भोग सके इतनी सम्पदा है आपकी”

लेखाधिकारी के जाने के बाद सेठ चिंता में डूब गए, ‘तो क्या मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मरेगी?’ वे रात दिन चिंता में रहने लगे।  तनाव ग्रस्त रहते, भूख भाग चुकी थी, कुछ ही दिनों में कृशकाय हो गए। सेठानी द्वारा बार बार तनाव का कारण पूछने पर भी जवाब नहीं देते। सेठानी से हालत देखी नहीं जा रही थी। उसने मन स्थिरता व शान्त्ति के किए साधु संत के पास सत्संग में जाने को प्रेरित किया। सेठ को भी यह विचार पसंद आया। चलो अच्छा है, संत अवश्य कोई विद्या जानते होंगे जिससे मेरे दुख दूर हो जाय।

सेठ सीधा संत समागम में पहूँचा और एकांत में मिलकर अपनी समस्या का निदान जानना चाहा। सेठ नें कहा- “महाराज मेरे दुख का तो पार नहीं है, मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मर जाएगी। मेरे पास मात्र अपनी सात पीढ़ी के लिए पर्याप्त हो इतनी ही सम्पत्ति है। कृपया कोई उपाय बताएँ कि मेरे पास और सम्पत्ति आए और अगली पीढ़ियाँ भूखी न मरे। आप जो भी बताएं मैं अनुष्ठान, विधी आदि करने को तैयार हूँ”

संत ने समस्या समझी और बोले- “इसका तो हल बड़ा आसान है। ध्यान से सुनो सेठ, बस्ती के अन्तिम छोर पर एक बुढ़िया रहती है, एक दम कंगाल और विपन्न। उसके न कोई कमानेवाला है और न वह कुछ कमा पाने में समर्थ है। उसे मात्र आधा किलो आटा दान दे दो। अगर वह यह दान स्वीकार कर ले तो इतना पुण्य उपार्जित हो जाएगा कि तुम्हारी समस्त मनोकामना पूर्ण हो जाएगी। तुम्हें अवश्य अपना वांछित प्राप्त होगा।”

सेठ को बड़ा आसान उपाय मिल गया। उसे सब्र कहां था, घर पहुंच कर सेवक के साथ कुन्तल भर आटा लेकर पहुँच गया बुढिया के झोपडे पर। सेठ नें कहा- “माताजी मैं आपके लिए आटा लाया हूँ इसे स्वीकार कीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा आटा तो मेरे पास है, मुझे नहीं चाहिए”

सेठ ने कहा- “फिर भी रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “क्या करूंगी रख के मुझे आवश्यकता नहीं है”

सेठ ने कहा- “अच्छा, कोई बात नहीं, कुन्तल नहीं तो यह आधा किलो तो रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, आज खाने के लिए जरूरी, आधा किलो आटा पहले से ही  मेरे पास है, मुझे अतिरिक्त की जरूरत नहीं है”

सेठ ने कहा- “तो फिर इसे कल के लिए रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, कल की चिंता मैं आज क्यों करूँ, जैसे हमेशा प्रबंध होता है कल के लिए कल प्रबंध हो जाएगा”  बूढ़ी मां ने लेने से साफ इन्कार कर दिया।

सेठ की आँख खुल चुकी थी, एक गरीब बुढ़िया कल के भोजन की चिंता नहीं कर रही और मेरे पास अथाह धन सामग्री होते हुए भी मैं आठवी पीढ़ी की चिन्ता में घुल रहा हूँ। मेरी चिंता का कारण अभाव नहीं तृष्णा है।

वाकई तृष्णा का कोई अन्त नहीं है। संग्रहखोरी तो दूषण ही है। संतोष में ही शान्ति व सुख निहित है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – मूल्यांकन ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

 

 

 

 

☆ जीवनरंग ☆ अनुवादित लघुकथा – मूल्यांकन ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

“हे बघा, माझ्याकडे ए, बी, सी, डी, या चारही प्रतींचा कापूस ठेवलेला आहे. त्याच्याशी ताडून पाहून मी कापसाची किंमत ठरवत असतो. पण तुम्ही आणलेला कापूस यातल्या कुठल्याच श्रेणीत बसत नाहीये. कुठल्यातरी वेगळ्याच विचित्र प्रकारचा आहे तुमचा कापूस. म्हणून त्याला ई श्रेणी दिली गेली आहे. त्या श्रेणीच्या भावाप्रमाणेच तुम्हाला पैसे मिळतील.”

“तुम्ही जरा समजून घेण्याचा प्रयत्न करा साहेब. मी खूप कष्ट करून, आणि खूप सारे पैसे खर्च करून हे पीक घेतलं आहे. त्याची योग्य ती किंमत ठरवावी अशी अपेक्षा आहे माझी.”

कापसाची प्रत ठरवणारा तो माणूस आणि तो शेतकरी यांच्यात काहीच नक्की ठरत नाहीये हे पाहून, तिथल्या व्यवस्थापकांनी दुसऱ्या बाजारातल्या एका परीक्षा करणाऱ्याला बोलावलं. तो माणूस त्या शेतकऱ्याचा कापूस पाहून फक्त आश्चर्यचकीतच झाला नाही, तर अक्षरशः भारावल्यासारखा झाला.

“अरे वा, हा तर चीनमधला ‘ब्लू कॉटन‘ म्हणून ओळखला जाणारा लांब धाग्यांचा कापूस आहे. आपल्याकडच्या शेतात हे पीक घेण्यासाठी खूपच कष्ट करावे लागतात, आणि खर्चही खूप करावा लागतो.”

“म्हणजे कापूस शेतात पिकतो का ?” पहिल्या परिक्षकाने त्या दुसऱ्या परिक्षकाला जरा बाजूला नेऊन विचारलं.

“म्हणजे मग तुम्ही काय समजत होतात ?”

“मी तर समजत होतो की साखर किंवा थर्मोकोलसारखे हा कापूस तयार करण्याचेही कारखाने असतील.”

 

मूळ हिंदी कथा : श्री भगवान वैद्य ‘ प्रखर‘

अनुवाद :  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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