हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ घरवाली ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक लघुकथा “घरवाली।)

☆ लघुकथा – घरवाली ☆

‘आपका घर कहां है?’

‘जी ढाबे में’

‘और आपका ?’

‘जी, सराय में’

‘आपका हुजूर?’

‘जी होटल में दिन काट रहा हूं’

‘और आपका जी॑’

‘घर के बारे में सोचा ही नहीं’

‘ घर घरवाली से होता है, बिना घरवाली के घर यानी भूतों का डेरा, ऐसी अंधियारी रात जिसका कभी होता नहीं सबेरा’

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ ख्वाहिश ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा  ख्वाहिश।  

☆ लघुकथा – ख्वाहिश ☆

हम दोनों पक्की सहेलियां थीं। मेरे कपड़े और खिलौने उसके कपड़े और खिलौनों से ज्यादा महंगे होते थे क्योंकि उसके पिता मेरे पिता के यहाँ काम करते थे।

नीलू को पढ़ने के साथ-साथ कॉपी किताबें और अपना सामान करीने से रखने का बहुत शौक था पिताजी से उसने एक छोटी सी पेटी की ख्वाहिश भी रखी थी।

उसके जन्मदिन के दिन उसके घर में पेटी आई भी पर उसके पिता ने कहा… “कि नहीं यह तो तुम्हारी पक्की सहेली याने मेरे साहब की बेटी के लिए है, क्योंकि कल उसका  जन्मदिन  है। तुम्हें अगले जन्मदिन पर खरीद देंगे।”

पूरे साल भर नीलू पेटी में कॉपी किताबें सजाने के सपने देखती रही जन्मदिन आया लेकिन पेटी नहीं आई। पिताजी 2 दिन के दौरे के लिए शहर से बाहर चले गए उसने राह देखी शायद लौटकर पेटी लेकर आएं लेकिन पेटी फिर भी नहीं आई। नीलू जब भी मेरे घर आती मेरी पेटी को हसरत भरी निगाहों से देखती। उसे हाथों में उठाती है पर उसका इंतजार प्रेमचंद के गबन उपन्यास की नायिका को चंद्रहार मिलने की आतुरता जैसा  कट रहा था।

साल पे साल बीतते गए पर पेटी फिर भी नहीं आई। आखिरकार उसकी शादी के दिन जब दहेज के सामानों में एक पेटी रखी थी उसे देखकर उसने सभी कीमती जेवरात और सामानों को छोड़कर उस पेटी को गोद में उठा लिया और उसकी आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़े।

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अच्छी खबर☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक कविता  “लघुकथा – अच्छी खबर”। )  

☆ लघुकथा – अच्छी खबर ☆

दादी गुरप्रीत कौर का बुखार उतर ही नहीं रहा था।

बहू ज्ञानप्रीत कौर ने डॉ सतवीर सिंह को बताया – “प्रा जी। ये न बिलकुल किसी की नहीं सुनती। कल रात भर छत पर पता ही नहीं चला कब चली गई और खुले में बिस्तर बिछा कर कंबल ओढ़ कर सो गई? सबेरे जब पूछा तो बोलीं –  अरे मैं देख रही थी, इतने दिनों से ऐसी ठंड में दिल्ली बार्डर पर सरदार जी और कीरत पुत्तर जी खुले में कैसे सो रहे हैं?”

पारिवारिक डॉ सतवीर ने देखा चाची  को तेज बुखार है और शरीर काँप रहा है। बुखार का कारण सुनकर वे संतुष्ट हुए और ज्ञानप्रीत को बोले “भाभी, मैं दवाइयाँ लिख दे रहा हूँ, किसी से मँगवा लेना। सब ठीक हो जाएगा।“ फिर दादी से बोले – “दादी अब बिस्तर से नहीं उतरना। और चिंता मत करना। वहाँ बहुत लोग हैं एक दूसरे का ख्याल रखने के लिए।“

दादी सर्दी में काँपते हुए बोली – “पर पुत्तर टी वी पर देखा दिल्ली बार्डर पर बहुत सारे बेरिकेड, पुलिस फोर्स, पानी, आँसूगैस की व्यवस्था भी हो रही है।”

डॉ सतवीर ने समझाया – “दादी वो दिल्ली बार्डर है कोई वाघा – अटारी बार्डर थोड़े ही है। और बेरिकेड के उसपार पुलिस फोर्स में अपने ही भाई हैं। चिंता मत करो, जल्दी ही अच्छी खबर मिलेगी।”

पर बच्चों के समझाने से दादी का मन थोड़े ही मानने वाला था। चिंता होना भी स्वाभाविक ही था। सरदारजी की बायपास सर्जरी हो चुकी थी। शादी को पचास बरस से ऊपर हो गए थे। शादी ब्याह और परिवार में मौत के अलावा कभी भी उनसे इतने दिन अलग नहीं रहे। नौ बरस का उनका पोता गुरमीत उनकी सेवा में लग गया। जो माँगती दौड़ दौड़ कर लाता। जब तक दादी  नहीं खाती, तब तक उसके गले से एक कौर नहीं उतरता।

ज्ञानप्रीत देख रही थी जब से गुरमीत के दादा सरदार गुरशरन सिंह और गुरमीत के पिता सरदार कीरत सिंह दिल्ली के लिए पिण्ड (गाँव) के सब लोगों के साथ रवाना हुए हैं उसका चेहरा मुरझा गया है। पिण्ड के और बच्चों के साथ अपने चाचा अजीत सिंह जी के घर बना रहता।

दादी दिन भर से बुखार में बड़बड़ाती रही। “अजीब बात है … परजातन्त्र है …  लोगों ने इतनी सीटों से जिता कर लोगों की भलाई के लिए कानून बनाने का हक दिया … हक के लिए लड़ने के हक पर सियासत करने का हक थोड़े ही दिया है … सियासत कल मेज के इस ओर थी … आज मेज के उस ओर है … कल फिर इस ओर होगी … एक बेटा देश की हिफाजत के लिए है … उसे देश की हिफाजत करने दो …  एक जमीन की हिफाजत के लिए है … उसे जमीन की हिफाजत करने दो …” और सरदार जी और बेटे को याद करके पता नहीं क्या क्या बड़बड़ाती रही।

गुरमीत के कुछ भी समझ नहीं आ रहा था … उसे परजातन्त्र … कानून … हक … सियासत …शब्द बड़े अजीब लग रहे थे। सुबह से शाम हो गई। देर शाम दादी का बुखार कुछ कम हुआ तो दौड़ कर चाचा अजीत सिंह के घर अपने दोस्तों के साथ जा पहुंचा।

ज्ञानप्रीत कौर को अपनी सास की सेहत में सुधार देख कर तसल्ली हुई। दो बार गुरमीत के पिता सरदार कीरत सिंह का फोन आया किन्तु, उसने उनको कुछ भी नहीं बताया। इतने में सास की आवाज आई – “ज्ञान,  इनको फोन लगा दे, बात करने का जी कर रहा है।”

ज्ञानप्रीत कौर कुछ कहती कि- इतने में गुरमीत दौड़ कर आया और रसोई घर से थाली और  चम्मच ले आया। दादी के कमरे में रखा टॉर्च लेकर छत की ओर जाने लगा। दादी बोली – “गुरमीत पुत्तर क्या हुआ? कुछ बोल तो सही।”

गुरमीत छत की ओर दौड़ते हुए बोला – “दादी, जब तक दादा अपनी बात मनवाकर नहीं आते। रोज शाम सात बजे मैं और मेरे दोस्त एक मिनट थाली चम्मच बजाएँगे और एक मिनट टॉर्च जलाएंगे।”

गुरप्रीत और ज्ञानप्रीत हतप्रभ एक दूसरे का चेहरा देखते रह गए। दोनों मन ही मन में अपने-अपने अर्थ निकाल रहे थे और गुरमीत छत पर चला गया।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

18 दिसंबर 2020

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ डर के आगे जीत है- (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ डर के आगे जीत है – (2) ☆

उसे लगता इस समय बाहर मृत्यु खड़ी है। दरवाज़ा खुला कि उसका वरण हुआ। सो घंटों वह दरवाज़ा बंद रखती। स्नान करने जाती तो कई बार दो घंटे भीतर ही दुबकी रहती। वॉशरूम में रुके रहना उसकी मजबूरी बन चुकी थी। मन जब प्रतीक्षारत मृत्यु के चले जाने की गवाही देता, वह चुपके से दरवाज़ा खोलकर बाहर आती।

आज फिर वह बाथरूम में थर-थर काँप रही थी। मौत मानो दरवाज़ा तोड़कर भीतर प्रवेश कर ही लेगी। एकाएक सारा साहस बटोरकर उसने दरवाज़ा खोल दिया और निकल आई मौत का सामने करने।

आश्चर्य! दूर-दूर तक कोई नहीं था। उसका भय काल के गाल में समा चुका था।

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 71 – चतुराई धरी रह गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “चतुराई धरी रह गई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 71☆

☆ चतुराई धरी रह गई ☆

चतुरसिंह के पिता का देहांत हो चुका था. उस ने अपने छोटे भाई कोमलसिंह को बंटवारा करने के लिए बुलाया, “बंटवारे के पहले खाना खा लेते है.” खाने परोसते हुए चतुरसिंह ने कोमलसिंह से कहा.

कोमलसिंह ने जवाब दिया, “ भैया ! बंटवारा आप ही कर लेते. मुझे अपना हिस्सा दे देते. बाकि आप रख लेते. मुझे बुलाने की क्या जरुरत थी ?”

“नहीं भाई. मै यह सुनना बरदाश्त नहीं कर सकता हूँ कि बड़े भाई ने छोटे भाई का हिस्सा मार लिया,” कहते हुए चतुरसिंह ने भोजन की दो थाली परोस कर सामने रख दी.

एक थाली में मिठाई ज्यादा थी. इस वजह से वह थाली खालीखाली नजर आ रही थी. दूसरी थाली में पापड़, चावल, भुजिए ज्यादा थे. वह ज्यादा भरी हुई नज़र आ रही थी. मिठाई वाली थाली में दूधपाक, मलाईबरफी व अन्य कीमती मिठाइयाँ रखी थी.

“जैसा भी खाना चाहो, वैसी थाली उठा लो,” चतुरसिंह ने कहा, वह यह जानना चाहता था कि बंटवारे के समय कोमलसिंह किस बात को तवज्जो देता है. ज्यादा मॉल लेना पसंद करता है या कम.

चूँकि कोमलसिंह को मीठा कम पसंद था. इसलिए उस ने पापड़भुजिए वाली थाली उठा ली, “भैया मुझे यह खाना पसंद है,” कहते हुए कोमलसिंह खाना खाने लगा.

चतुरसिंह समझ गया कि कोमलसिंह को ज्यादा माल चाहिए. वह लालची है. इस कारण  उस ने ज्यादा खाना भरी हुई थाली ली है. इसे इस का मज़ा चखाना चाहिए. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने बंटवारे के लिए नई तरकीब सोच ली.

खाना खा कर दोनों भाई कमरे में पहुंचे. चतुरसिंह ने घर के सामान के दो हिस्से कर रखे थे.

“इन सामान में से कौनसा सामान चाहिए ?” चतुरसिंह ने सामने रखे हुए सामान की ओर इशारा किया.

एक ओर फ्रीज़, पंखें, वाशिंग मशीन रखी थी. दूसरी ओर ढेर सारे बरतन रखे थे. चुंकि कोमलसिंह के पास फ्रीज़, पंखे,वाशिंग मशीन थी. उस ने सोचा कि भाई साहब के पास यह चीज़ नहीं है. इसलिए ये चीज़ भाई साहब के पास रहना चाहिए.

यह सोचते हुए कोमलसिंह ने बड़े ढेर की ओर इशारा कर के कहा, “मुझे यह बड़ा वाला ढेर चाहिए.”

चतुरसिंह मुस्कराया, “ जैसी तेरी मरजी. यूँ मत कहना कि बड़े भाई ने बंटवारा ठीक से नहीं किया,” चतुरसिंह अपनी चतुराई पर मंदमंद मुस्कराता हुआ बोला. जब कि वह जानता था कि उसे ज्यादा कीमती सामान प्राप्त हुआ है.

कोमलसिंह खुश था. वह अपने बड़े भाई की मदद कर रहा था.

“अब इन दोनों ढेर में से कौनसा ढेर लेना पसंद करोगे ?” चतुरसिंह ने अपने माता की जेवरात की दो पोटली दिखाते हुए कहा.

कोमलसिंह ने बारीबारी दोनों पोटली का निरिक्षण किया, एक पोटली भारी थी, दूसरी हल्की व छोटी. उस ने सोचा कि चतुरसिंह बड़े भाई है. इसलिए उन्हें ज्यादा हिस्सा चाहिए.

“भैया ! आप  बड़े है. आप का परिवार बड़ा है, इसलिए आप बड़ी पोटली रखिए,” कोमलसिंह ने छोटी पोटली उठा ली, “यह छोटी पोटली मेरी है.”

“नहीं नहीं भाई, तुम बड़ी पोटली लो, “ चतुरसिंह ने बड़ी पोटली कोमलसिंह के सामने रखते हुए कहा.

“नहीं भैया, आप बड़े है, बड़ी चीज़ पर आप का हक बनता है,” कहते हुए कोमलसिंह ने छोटी पोटली रख ली.

चतुरसिंह चकित रह गया. उस ने बड़ी पोटली में चांदी के जेवरात रखे थे. छोटी पोटली में सोने के जेवरात थे. वह जानता था कि कोमलसिंह लालच में आ कर बड़ी पोटली लेगा. जिस में उस के पास चांदी के जेवरात चले जाएँगे और वह सोने के जेवरात ले लेगा.

मगर, यहाँ उल्टा हो गया था.

अब की बार चतुरसिंह ने चतुराई की, “ कोमलसिंह इस बार तू बंटवारा करना.  नहीं तो लोग कहेंगे कि बड़े भाई ने बंटवारा कर के छोटे भाई को ठग लिया, “ चतुरसिंह ने कोमलसिंह को ठगने के लिए योजना बनाई .

कोमलसिंह कोमल ह्रदय था. वह बड़े भाई साहब का हित चाहता था. बड़े भाई के ज्यादा बच्चे थे. इसलिए वह चाहता था कि जमीन का ज्यादा हिस्सा बड़े भाई साहब को मिले. इसलिए वह चतुरसिंह को अपने पैतृक घर पर ले गया.

“भाई साहब ! यह अपने पैतृक मकान है. पिताजी ने आप के जाने के बाद इसे बनाया था,” कोमलसिंह ने कहा.

चतुरसिंह ने देखा कि एक ओर दो मकान और तीन मंजिल भवन खड़ा है, दूसरी ओर एक दुकान के पास से अन्दर जाने का गेट है. यानि एक ओर बहुमंज़िल भवन के साथ दो दुकान बनी हुई थी. दूसरी ओर एक दुकान और पीछे जाने का गेट था.

चतुरसिंह नहीं चाहता था कि जेवरात की तरह ठगा जाए इसलिए उस ने कहा, “ कोमलसिंह तुम ही बताओ. मुझे कौनसा हिस्सा लेना चाहिए ?”

“ भाई साहब, मेरी रॉय में तो आप दूसरा हिस्सा ले लेना चाहिए,” कोमलसिंह ने कहा तो चतुरसिंह चकित रह गया.

छोटा भाई हो कर बड़े भाई को ठगना चाहता है. खुद बहुमंजिल मकान और दो दुकान हडप करना चाहता है. मुझे एक दुकान और छोटा सा बाड़ा देना चाहता है. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमलसिंह, मेरा परिवार बड़ा है, इसलिए मै चाहता हूँ कि यह बहुमंजिल मकान वाला हिस्सा में ले लूँ.”

इस पर कोमलसिंह ने कहा, “ भैया ! आप हिस्सा लेने से पहले यह दूसरा हिस्सा देख ले.” कोमलसिंह ने चतुरसिंह से कहा. वह चाहता था कि बड़े भाई को ज्यादा हिस्सा मिलें. क्यों कि दूसरे हिस्से के अंदर १० मकान और लंबाचौडा खेत था, साथ ही बहुत सारे मवेशी भी थे.

मगर, चतुरसिंह ने सोचा कि छोटा भाई उसे ठगना चाहता है. इसलिए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमल, मुझे कुछ नहीं देखना है, यह दूसरा हिस्सा तेरे रहा, पहला हिस्सा मेरे पास रहेगा.”

“भैया ! एक बार और सोच लो,” कोमलसिंह ने कहा , “ आप को ज्यादा हिस्सा चाहिए, इसलिए आप यह दूसरा हिस्सा ले लें.”

चतुरसिंह जानता था कि खाली जमीन के ज्यादा हिस्से से उस का यह बहुमंजिल मकान अच्छा है. इसलिए उस ने छोटे भाई की बात नहीं मानी. सभी पंचो के सामने अपनेअपने हिस्से का बंटवारा लिख लिया.

“भैया. एक बार मेरा हिस्सा भी देख लेते,” कहते हुए कोमलसिंह चतुरसिंह को अपना हिस्सा दिखने के लिए दुकान के पास वाले गेट से अंदर गया.

आगेआगे कोमलसिंह था, पीछेपीछे चतुरसिंह चल रह था. जैसे ही वे गेट के अंदर गए, उन्हें गेट के पीछे लम्बाचौड़ा खेत नजर आया. सामने की तरफ १० भवन बने हुए था. कई मवेशी चर रहे थे.

यह देख कर चतुरसिंह दंग रह गया, “कोमल यह हिस्सा पापाजी ने कब खरीदा था ?”

“ भैया ! आप के जाने के बाद,” कोमलसिंह ने बताया, “ इसीलिए मै आप से कहा रहा था कि आप बड़े है, आप को बड़ा हिस्सा चाहिए, मगर, आप माने नहीं,”

मगर, अब चतुरसिंह क्या करता ? उस की चतुराई की वजह से वह स्वयम ठगा जा चुका था. वह चुप हो गया.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-09-20

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ दो लघुकथाएं – स्त्रियाँ ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी “दो लघुकथाएं – स्त्रियाँ।)

☆ लघुकथा – दो लघुकथाएं – स्त्रियाँ ☆

[1] नयी माँ

कचरा बीनने वाली ने कचरे के ढेर में नवजात कन्या को बिलखते देखा तो हक्का बक्का रह गयी.

कैसी होगी इसकी निष्ठुर मां… राम-राम इसके बदन पर तो कीड़े रेंग रहे हैं…खून रिस रहा है.. मुंह झोंसी… किसका पाप यहां डाल गयी है रे. उसके मुंह से धाराप्रवाह निकल रहा था.

न जाने कबसे भूखी होगी रे… कहते – कहते उसने अपना स्तन बच्ची के मुँह में डाल दिया.

बच्ची अब टुकुर टुकुर इस नई मां को देख रही थी. उमंग से हुलसती बच्ची के चेहरे पर वात्सल्य पसारता जा रहा था.

 

[2]  वर्चस्व

न जाने कितने कितने वर्षों बाद एक महिला सुप्रीम कोर्ट की जज बनी है.

अब तक मात्र छः महिलाएं ही तो बनी हैं,  इसकी गिनती सातवीं है. हद कर दी इन पुरुषों ने, महिलाओं को आगे बढ़ने ही नहीं देते.

महिला मंडल में एक विचार विमर्श चल रहा था. तब एक समझौता वाली महिला चुप न रह सकी.

बहिनों, जरा विराम लो, हम जो कुछ भी हैं पुरुषों के बल पर ही तो हैं. वर्चस्ववादी पुरुष ही हमें ऊंचाईयां प्रदान करते हैं. इसे नकारना मिथ्या है. भाई-पिता-पति के बिना हम एक कदम भी बढ़ सकने में समर्थ हो सकेंगे?

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 71 – लघुकथा – परिचय ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  लघुकथा  “परिचय।  हम जानते हैं कि शक का कोई इलाज़ नहीं फिर भी उसके शिकार होकर अक्सर हम अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। जब ऑंखें खुलती हैं तब बहुत देर हो जाती है और पश्चाताप होता है। किन्तु, दुर्लभ मानव जीवन और समय लौट कर नहीं आता। सकारात्मक सन्देश देती स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 71 ☆

☆ लघुकथा – परिचय ☆

माया ने आज फिर तकिए से वही पुराना कागज निकाला। जिसमें सुबोध ने लिखा था…. निकल जाओ मेरी जिंदगी से फिर लौट कर कभी नहीं आना.. तंग आ गया हूँ मैं तुम्हारी वजह से। दोनों आँखों से अश्रुओं की धार बह चली। उस का क्या कसूर था, बस इसी सवाल को लेकर फिर वह रोते रोते तकिए पर सर रखकर लेट गई।

जाने कब तरुण ने आकर लाइट जलाया और बाल सँवार कर प्यार से पूछने लगा…. फिर पुरानी बातों में खो गई। बेटा आता होगा, तैयार हो जाओ अच्छा नहीं लगेगा।

माया झटपट मुँह धोकर चेहरे को साफ कर अपने आप को संभालती हुई बाहर आई।

दरवाजे पर बेटे की गाड़ी आकर रुक गई। तरुण और माया बेटे के साथ आज एक अजनबी को  देख रहे थे। जिस की बढ़ी हुई दाढी और फटेहाल दशा बता रही थी कि वह बहुत ही तंग हालत पर है।

पास आने पर माया ने ठिठक कर कुर्सी पकड़ ली। तरुण समझ गया यह वही सुबोध है।

उसी समय बेटे ने कहा मम्मी यह व्यक्ति आप के बारे में पूछ रहा था ऑफिस में। आपसे मिलना है कह रहा था। पुरानी पहचान बता रहा था।

मैं इन्हें घर ले लाया। माया ने तुरंत अपने बेटे को कहा बेटे इन्हें हमारे बैठक में बिठा  दो। यह हमारे दूर के परिचय वाले है। मैं चाय नाश्ता का इंतजाम करती हूं।

सुबोध को इसकी उम्मीद नहीं थी वह देखता रहा अपने को दूर का परिचय वाला।

अंदर तक हिल गया वह। बेटा अपने कमरे में चला गया। माया के अंदर जाने के बाद तरुण ने हाथ जोड सुबोध से बाहर जाने को कहा।

सुबोध समझ चुका उसे उसकी कर्मों की सजा मिली चुकी है। सुबोध और माया पति-पत्नी दोनों ही ऑफिस में काम करते थे। परन्तु, माया को बस से आने में थोड़ी देरी हो जाती थी। बस इसी बात से हमेशा दोनों में लड़ाई हो जाती थी और बसी बसाई गृहस्थी को आग लगाकर अलग हो गया था।

यह भी नहीं देखा कि माया माँ बनने वाली है। बेटे ने बाहर आकर देखा।

मम्मी पापा दोनों एक दूसरे से लिपटे थे और मम्मी की आँसू की धार रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।  बेटे ने सोचा यह कैसा परिचित है, इसका क्या परिचय है। मम्मी-पापा क्यों परेशान होकर रो रहे हैं?

 

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 76 ☆ संघे शक्ति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 76 – संघे शक्ति ☆

कुछ घटनाएँ ऐसी घटती हैं जो नेत्रों को खारी बूँदों से भर देती हैं। उस सुबह भी कुछ ऐसा ही हुआ। कलेवर में छोटी पर प्रभाव में बड़ी घटना का साक्षी बना।

प्रात: भ्रमण से लौट रहा था। बस स्टॉप के पास वाले फुटपाथ पर एक पेड़ के नीचे दो-तीन वर्ष से एक फकीरनुमा भिक्षुक का बसेरा है। फुटपाथ के एक ओर पार्क की दीवार है, दूसरी ओर सड़क और सड़क के उस पार छोटी-सी टपरी। आते-जाते लोगों से फकीर की कभी चाय की मांग हो तो केवल पैसे देकर काम नहीं चलता। सड़क पार से एक प्याला चाय लाकर देना पड़ता है। शायद पैरों से लाचार से है यह वृद्ध क्योंकि उसे कभी चलते नहीं देखा।

सहसा दृष्टि पड़ी कि वृद्ध को घेरकर पास के उर्दू माध्यम के विद्यालय में पढ़नेवाली आठ-दस छात्राएँ खड़ी हैं। सिर पर स्कार्फ बाँधे, छठी-सातवीं में पढ़नेवाली बच्चियाँ। उत्सुकता के शमन के लिए अवलोकन किया तो नेत्र सजल हो उठे। भिक्षुक को पीने के लिए पानी चाहिए था और हर बच्ची अपने वॉटर बॉटल में से थोड़ा-थोड़ा पानी भिक्षुक के जलपात्र में डाल रही थी। अद्भुत, अलौकिक दृश्य! देखता ही रह गया मैं!

इच्छा हुई दौड़कर जाऊँ और इनके माथे पर हाथ रखकर कहूँ, “ वेल डन बेटियो! सबाब का काम किया।” फिर लगा इस कच्ची उम्र को पाप-पुण्य के जटिल समीकरण से मुक्त ही रहने दूँ, रहने दूँ इन्हें सहज। सहजता जो जानती है कि प्यास है तो पानी की व्यवस्था करनी चाहिए।

फकीर की पानी की ज़रूरत पूरी करने के लिए एक साथ बढ़े इन नन्हे हाथों ने एक बात और सिखाई कि प्रयास सामूहिक हों तो पानी का पात्र ही नहीं, सूखी नदियाँ और रूठी बावड़ियाँ भी भरी जा सकती हैं।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ तीन लघुकथाएं – लड़कियाँ -☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी “तीन लघुकथाएं  – लड़कियाँ –।)

☆ लघुकथा – तीन लघुकथाएं – लड़कियाँ ☆

[1] खब्ती

तुम्हारी पड़ोसन खब्ती है क्या?

क्यों क्या हुआ है?

सुना है उसके यहाँ लड़की हुई है और वह पूरे मुहल्ले में मिठाई बाँट रही है.

 

[2] खूसट

क्यों, तुम अपनी लड़की को कोचिंग कहाँ से दिला रही हो?

अजीब खूसट हो जी तुम, लड़का नहीं है मेरे पास जो लड़की को कोचिंग दिलाकर फिजूलखर्ची करती रहूंगी.

 

[3] करमखोटिटयां

पाँच लड़कियों की मां से किसी महिला ने पूछा-बडी जिगर वाली हो बिना, पांच लड़कियां पैदा करने के बाद भी खुश-खुश नजर आ रही हो.

उत्तर में महिला बोली-न न न यह खुशी तो पाँच लड़कियों के बाद पैदा हुए लड़के की है, वरना इन करम खोटिटयों ने तो मुझे जी्ते जी मार डाला था.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ बहू हो तो ऐसी ☆ श्री अशोक कुमार धमेंनियाँ ‘अशोक’

श्री अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’

(श्री अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’जी साहित्य की सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। प्रकाशन – 4 पुस्तकें प्रकाशित 2 पुस्तकें प्रकाशनाधीन 3 सांझा प्रकाशन। विभिन्न मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं में लघु कथाएं, कविता, कहानी, व्यंग्य, यात्रा वृतांत आदि प्रकाशित होते रहते हैं । कवि सम्मेलनों, चैनलों, नियमित गोष्ठियों में कविता आदि  का पाठन तथा काव्य  कृतियों पर समीक्षा लेखन। कई सामाजिक कार्यक्रमों में सहभागिता। भोपाल की प्राचीनतम साहित्यिक संस्था ‘कला मंदिर’ के उपाध्यक्ष। प्रादेशिक / राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों / अलंकरणों  से  पुरस्कृत /अलंकृत। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर  एवं विचारणीय लघुकथा ‘बहू हो तो ऐसी‘। )

☆ लघुकथा  – बहू हो तो ऐसी ☆

रामसेवक ने सुबह-सुबह नहाया – धोया और प्रतिदिन की भांति पूजा करने मंदिर चले गए। रास्ते में सोचते जा रहे थे :-

“कल रात की सब्जी अच्छी ना होने के कारण भोजन से पेट नहीं भरा । खाने में दाल अथवा रसीली सब्जी होने पर सुविधा हो जाती है । दांत कमजोर हो गए हैं । सूखी सब्जी में अब  दाँत साथ नहीं देते । बहू से कहना उचित नहीं है।”

मंदिर से लौटकर घर आने पर रामसेवक सीधे भोजन पर बैठते थे । घर आने पर उन्हें थाली लगी मिली ।

थाली देखते ही सोचा – अरे, थाली में तो दाल,  सब्जी वगैरह सब कुछ है। सब्जी भी करेले की, जो मुझे बहुत पसंद है। राम सेवक ने कहा :-

“अरे बहू, घर में करेले तो थे ही नहीं । तुमने करेले की सब्जी कैसे बना डाली ? ”

“पापा! आपको करेले पसंद है ना । मुझे मालूम है रात में आपने भरपेट खाना नहीं खाया । आप जब मंदिर गए थे तो मैंने बाहर जाकर ठेले से करेले खरीदे ताकि आपको सब्जी पसंद आए और आप भरपेट भोजन कर सकें । शाम को आप क्या खाएंगे , यह भी बता दीजिए ताकि आपको खाने में असुविधा ना हो । ”

रामसेवक भावुक हो गए । उनकी आँखें नम हो गईं। उन्हें उनकी फिक्र करने वाली बहू जो मिली थी।

© अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’

भोपाल म प्र

मो0-9893494226

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