(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कथा –“लिपि की कहानी”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 176 ☆
☆ बाल कथा – लिपि की कहानी☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मुनिया की सुबह तबीयत खराब हो गई। उसने एक प्रार्थनापत्र लिखा। अपनी सहेली के साथ स्कूल भेज दिया। प्रार्थनापत्र में उसने जो लिखा था, उसकी अध्यापिका ने उस प्रार्थनापत्र को उसी रूप में समझ लिया। और मुनिया को स्कूल से छुट्टी मिल गई।
क्या आप बता सकते है कि मुनिया ने प्रार्थनापत्र किस लिपि में लिख कर पहुंचाया था। नहीं जानते हो ? उसने प्रार्थनापत्र देवनागरी लिपि में लिख कर भेजा था।
देवनागरी लिपि उसे कहते हैं, जिसे आप इस वक्त यहाँ पढ़ रहे है। इसी तरह अंग्रेजी अक्षरों के संकेतों के समूहों से मिल कर बने शब्दों को रोमन लिपि कहते हैं।
इस पर राजू ने जानना चाहा, “क्या शुरु से ही इस तरह की लिपियां प्रचलित थीं?”
तब उस की मम्मी ने बताया कि शुरु शुरु में ज्ञान की बातें एक दूसरे को सुना कर बताई जाती थीं। गुरुकुल में गुरु शिष्य को ज्ञान की बातें कंठस्थ करा दिया करते थे। इस तरह अनुभव और ज्ञान की बातें पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाती थीं।
मनुष्य निरंतर, विकास करता गया। इसी के साथ उस का अनुभव बढ़ता गया। तब ढेरों ज्ञान की बातें और अनुभव को सुरक्षित रखने की आवश्यकता महसूस हुई।
इसी आवश्यकता ने मनुष्य को प्रत्येक वस्तु के संकेत बनाने के लिए प्रेरित किया। तब प्रत्येक वस्तु को इंगित करने के लिए उस के संकेताक्षर या चिन्ह बनाए गए। इस तरह चित्रसंकेतों की लिपि का आविष्कार हुआ। इस लिपि को चित्रलिपि कहा गया।
आज भी विश्व में इस लिपि पर आधारित अनेक भाषाएं प्रचलित हैं। जापान और चीन की लिपि इसका प्रमुख उदाहरण है। शब्दाचित्रों पर आधारित ये लिपियों इसका श्रेष्ठ नमूना भी है।
चित्रलिपि का आशय यह है कि अपने विचारों को चित्र बना कर अभिव्यक्त किया जाए। मगर यह लिपि अपना कार्य सरल ढंग में नहीं कर पायी। क्यों कि एक तो यह लिपि सीखना कठिन था। दूसरा, इसे लिखने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। तीसरा, लिखने वाला जो बात कहना चाहता था, वह चित्रलिपि द्वारा वैसी की वैसी व्यक्त नहीं हो पाती थी। चौथा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह आकर्षण का केंद्र नहीं थी। और यह दुरुह थी।
तब कुछ समय बाद प्रत्येक ध्वनियों के लिए एक एक शब्द संकेत बनाए गए। जिन्हें हम वर्णमाला में पढ़ते हैं। मसलन- क, ख, ग आदि। इन्हीं अक्षरों और मात्राओं के मेल से संकेत-चिन्ह बनने लगे। जो आज तक परिष्कृत हो रहे हैं।
हरेक वस्तु के लिए एक संकेत चिन्ह बनाए गए। विशेष संकेत चिन्ह विशेष चीजों के नाम बताते हैं। इस तरह प्रत्येक वस्तु के लिए एक शब्द संकेत तय किया गया। तब लिपि का आविष्कार हुआ।
इस तरह सब से पहले जो लिपि बनी, उसे ब्राह्मी लिपि के नाम से जाना जाता है। बाद में अन्य लिपियां इसी लिपि से विकसित होती गई।
ऐसे ही धीरे धीरे विकसित होते हुए आधुनिक लिपि बनी। जिसमें अनेक विशेषताएं हैं। प्रमुख विशेषता यह है कि इसे जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा भी जाता है। अर्थात् यह हमारे विचारों को वैसा ही व्यक्त करती है।
इनमें से बहुत सी लिपियों से हम परिचित हैं । ब्रिटेन में अंग्रेजी भाषा बोली जाती है। इस भाषा को रोमन लिपि में लिखते हैं। पंजाबी भाषा, गुरुमुखी लिपि में लिखी जाती है। इसी तरह तमिल, तेलगु, कन्नड़ तथा मलयालम आदि ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती हैं।
इसके अलावा भी विश्व में अनेक लिपियां प्रचलित है।
अब यह भी जान लें कि विश्व की सबसे प्राचीन लिपियां निम्न हैं- ब्राह्मी, शारदा आदि।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – लघुकथा – शाश्वत
– क्या चल रहा है इन दिनों?
– कुछ ख़ास नहीं। हाँ पिछले सप्ताह तुम्हारी ‘अतीत के चित्र’ पुस्तक पढ़़ी।
– कैसी लगी?
– बहुत अच्छी। तुमने अपने बचपन से बुढ़ापे तक की घटनाएँ ऐसे लिखी हैं जैसे सामने कोई फिल्म चल रही हो।….अच्छा एक बात बताओ, इसमें हमारे प्रेम पर कुछ क्यों नहीं लिखा?
– प्रेम तो शाश्वत है। प्रेम का देहकाल व्यतीत होता है पर प्रेम कभी अतीत नहीं होता। बस इसलिए न लिखा गया, न लिखा जाएगा कभी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी
इस साधना में – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे
ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “तुलादान”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 196 ☆
🌻लघुकथा🌻 ⚖️ तुलादान ⚖️
अपने पुत्र के प्रतिवर्ष के जन्म दिवस पर तुला दान करके पिताजी गदगद हो दान स्वरूप अन्न, वस्त्र, फल, बर्तन, सूखे मेवे बाँटा करते थे।
आज पिताजी के दशगात्र में विदेश में रहने वाला बेटा घर के सारे पुराने पीतल, काँसे के बर्तनों को निकाल कर पंडित जी के सामने तराजू पर रखकर कह रहा था… जो कुछ भी करना है, इससे ही करना है। आप अपना हिसाब- किताब, दान- दक्षिणा सब इसी से निपटा लीजिएगा।
जमीन के सारे कागजात मैंने विक्रय के लिए भेजें हैं। इन फालतू के आडंबर और मरने के बाद मुक्ति – मोक्ष के लिए मैं विदेशी रुपए खर्च नहीं कर सकता।
मुझे वापस जाना भी है। पंडित जी ने सिर्फ इतना कहा… ठीक है मरने बाद पिंडदान होता है और पिंडदान के रूप में आप कुछ नहीं कर सकते तो कोई बात नहीं।
आज आप स्वयं बैठ जाइए क्योंकि आपके पिताजी आपके लिए सदैव तुलादान करते थे मैं समझ लूंगा यह वही है।
पास खड़ा उनका पुत्र भी कहने लगा.. बैठ जाइए पापा मुझे भी पता चल जाएगा कि भविष्य में ऐसा करना पड़ता है। तब मैं पहले से आपके लिए तुलादान की व्यवस्था करके रख लूंगा। बेटे ने देखा तराजू के तोल में वह स्वयं एक पिंड बन चुका है।
चुपचाप कमरे में जाता दिखा। पंडित जी मुस्कुराते हुए घर की ओर चल दिए।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी एक विचारणीय लघुकथा – “सरकार के कान में“.)
☆ लघुकथा – सरकार के कान में☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
‘अरे बाबा क्यों इतने जोर शोर से चिल्ला रहे हो?’ कबाड़ी से एक बुजुर्ग ने पूछा.
‘आपके गेट के सामने बोर्ड जो लगा है – गेट के बाहर से चिल्लाएं. कबाड़ी फेरी वालों का अंदर आना मना है.’
‘वह तो ठीक है पर इतने जोर से चिल्लाने के लिए थोड़े ही लिखा है. ससुरे कान बज उठे.’
‘अरे आपके कान कच्चे हैं तो हम का करें. ई सड़क पर तो हम जुलूस बनाकर भी चिल्लाएं तो भी ससुरी ई सरकार के कान में जूं नहीं रेंगती.’
‘एक कान आपके हैं, एक कान सरकार के, दोनों के कान में कितना अंतर है जी-‘ कहकर फेरीवाला आगे बढ़ गया. बुज़ुर्गवार उसे ठगे से खड़े देखते रह गए.
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – संभावना
-देखता हूँ कि रोज़ सुबह बिना लांघा आप बालकनी में गमले में रखे पौधों में पानी डालते हैं।
-जी डालना ही चाहिए। इन पौधों को गमले में हमने लगाया है तो इन्हें समुचित जल, प्रकाश, खाद देना हमारा कर्तव्य बनता है। ये पौधे अपनी हर आवश्यकता के लिए हम पर निर्भर हैं।
-बात तो आपने पते की कही है। अच्छा एक बात और बताइए।
-पूछिए।
-यह इधर वाला जो गमला है, इसमें तो बहुत दिनों से कोई पौधा नहीं है। फिर इसकी मिट्टी में पानी क्यों डालते हैं आप?
-हाँ, इस गमले में कोई पौधा नहीं है। लेकिन इसकी माटी में पहले वाले पौधे के कुछ बीज पड़े होने की संभावना अवश्य है। हो सकता है कि उनमें से कोई बीज अंकुरण की तैयारी में हो। मैं गमले की मिट्टी नहीं, उसमें निहित संभावना के बीज सींचता हूँ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित। पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा मानसिकता।
लघुकथा – मानसिकता… सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा
बंदरों का एक झुंड जंगल से निकल उछल कूद मचाता सड़क के करीब आ गया. इतने में ही दूर से तेज रफ्तार से आती कार देख सभी कूद कर सड़क पार कर गए लेकिन एक बंदर पीछे रह गया. दुर्भाग्यवश वह कार की चपेट में आ गया. कार तो निकल गई पर बंदर अचेत हो गया था. सभी साथी बंदर उसके पास पहुंचे. चारों ओर से उसे घेर कर बैठ गए और उसके ठीक होने का इंतजार करने लगे. तभी एक बंदर ने समीप के पेड़ से पत्तों से भरी टहनी तोड़ी और उससे पंखे की तरह हवा करने लगा. कुछ ही देर में वह बंदर होश में आ गया. सभी खुशी से नाचते कूदते जंगल की ओर चल पड़े.
रास्ते में एक बंदर ने कहा- “ इंसान हमें अपना पूर्वज मानता है. अब बताओ आज जो घटना हमारे साथ घटी वही किसी इंसान के साथ घटी होती तो क्या होता?” एक बंदर जो सबसे बुजुर्ग व समझदार था बोला- “ घायल इंसान के आसपास खड़े लोग अपने मोबाइल निकाल कर वीडियो बनाते सेल्फी लेते और आगे बढ़ जाते.
(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। उनके ही शब्दों में – “1982 में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारम्भ, 2011 से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अखिल विश्व गायत्री परिवार में स्वयंसेवक के रूप में 2022 तक सतत कार्य।माँ गंगा एवं हिमालय से असीम प्रेम के कारण 2011 से गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में शांतिकुंज आश्रम हरिद्वार में निवास। यहाँ आने का उद्देश्य आध्यात्मिक उपलब्धि, समाजसेवा या सिद्धि पाना नहीं वरन कुछ ‘ मन का और हट कर ‘ करना रहा। जनवरी 2022 में शांतिकुंज में अपना संकल्पित कार्यकाल पूर्ण कर गृह नगर भोपाल वापसी एवं वर्तमान में वहीं निवास।” आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी की एक विचारणीय लघुकथा “चोर”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।)
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – चोर☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆
सतीश कार्यालय से घर आया तब तक सायंकाल का अंधेरा उतर चुका था। घर में आते ही पत्नी ने चिंता से पूछा – आज इतनी देर कैसे हो गई ?
अपने बैग को अलमारी में रखते हुये सतीश ने कहा – “अरे आज जैसे ही बस से उतरा तो अपनी सडक की अंतिम दुकान में एक ग्यारह बारह साल के गरीब लडके को दुकानदार ने पारले बिस्किट का पैकेट चुराते हुए पकड लिया। वहीं उसकी अच्छी धुनाई हो रही थी, मैंने भी दस पांच हाथ तो जड ही दिये उस चोट्टे को। देखो तो कैसे दिलेरी से चोरी करते हैं ये लोग… बढिया से ठोक कर फिर उसे भगा दिया। बस उसी मार कुटाई में आने में थोडी देर हो गई।”
हाथ पैर धोकर वह चाय पीने बैठा ही था कि अंदर से उसकी छोटी बेटी ने आकर पिता से पूछा पापा, मेरे लिये सफेद कागज लाये या आज फिर भूल गये ?
उसके सिर पर हाथ फिराते हुये उसने कहा – “अरे बिटिया आज तो दफ्तर जाते ही कागज का पूरा पैकेट निकाल कर बैग में रख लिया था। बस अभी देता हूं।”
यह सुनकर बेटी ने पूछा – “पापा, ऑफिस से क्यों लाये ? क्या आपके साहब से इसके लिये पूछा था ?”
यह सुनकर हंसते हुये सतीश बोला- “अरे बच्चे, इसमें उनसे पूछने की क्या आवश्यकता है, मैंने कोई चोरी की है क्या ?”
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – सुख शांति।)
आज घर में बड़ी चहल-पहल और रौनक है क्या बात है मां अरुण ने गंभीर स्वर में अपनी मां से कहा।
तुझे तो घर की और ना किसी की चिंता है बस तू अपने ऑफिस जा और वहां का ही काम कर।
नाराज क्यों होती हो देखो ऑफिस से थका आया हूं कम से कम एक कप चाय ही पिला दो।
हां अभी चाय बनाती हूं आज घर में सत्यनारायण की पूजा है आसपास के सभी लोग आ रहे हैं खाना बनाने के लिए हलवाई को बुलाया है, वह भोग और सब बना देगा। तेरे हाथों से पूजा करवा देती हूं जिससे घर में सुख शांति तो रहेगी और लक्ष्मी भी आएगी।
मां क्या मजाक कर रही हो घर की लक्ष्मी मेरी पत्नी जो कि तुम्हारी बहू है पोती को लेकर मायके चली गई है तुम्हारे रोज-रोज के पूजा पाठ के कामों से थका कर। तुम्हारे इन्हीं सब नाटक के कारण पिताजी भी अपने दोस्तों के साथ बाहर चले जाते हैं अब क्या चाहती हो मैं भी चला जाऊं? पता नहीं तुम कैसी सुख शांति चाहती हो?
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य रचना – ”एक मुलाकात‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 246 ☆
☆ कहानी – एक मुलाकात ☆
अचानक सुबह सात बजे टेलीफोन की घंटी बजी। सेठी जी ने फोन उठाया– ‘हलो’।
‘सेठी जी हैं?’
‘बोल रहा हूँ। ‘
‘नमस्ते, मैं आपका मित्र बोल रहा हूँ। ‘
सेठी जी अचकचाए। सबेरे सबेरे यह कौन मित्र है? उन्होंने कहा, ‘माफ करें जी। मैंने पहचाना नहीं। ‘
‘अभी तो पाँच महीने ही हुए हैं। अभी से पहचानना बन्द कर दिया भैया?’
सेठी जी के दिमाग में कुछ कौंधा,बोले, ‘अरे जड़िया जी! माफ कीजिएगा, आवाज़ कुछ समझ में नहीं आ रही थी। ‘
‘इतनी जल्दी आवाज़ मत भूलो भैया। कुछ दिन याद किये रहो। ‘
सेठी जी संकुचित हुए,बोले, ‘कैसी बातें करते हैं? आप को भला कैसे भूल सकते हैं? इतना पुराना साथ है। कहिए, इतने सबेरे कैसे याद किया?’
‘याद करने के लिए कोई वजह ज़रूरी है क्या भाई? याद तो बस याद है। जब उसकी मरजी हुई, आ जाती है। ‘
सेठी जी कुछ और सकुचाये,बोले, ‘बड़ी अच्छी बात है। आप हम सबको याद तो करते हैं। ‘
‘और क्या करें भैया? अब कुछ काम धाम तो रहा नहीं, इसलिए जिन्दगी में जो अच्छा वक्त गुजरा उसी की दिमाग में रिवाइंडिंग करते रहते हैं। ‘
‘ठीक कहा आपने। अच्छी बातों और अच्छे दोस्तों को याद करते रहना चाहिए। और सुनाइए। ‘
‘बस सब ठीक है। आज शाम को फुरसत है क्या? आपसे मिलना था। ‘
सेठी जी अचकचा गये। यह रिटायर्ड आदमी किसलिए मिलना चाहता है? रिटायर्ड आदमी से मिलना मतलब सब काम छोड़कर बिलकुल बेफिकर होकर बैठना होता है। अब जिन्दगी में इतनी बेफिक्री और इतना इत्मीनान कहाँ है कि फैलकर बातचीत की जा सके।
वे एक क्षण सोचकर बोले, ‘आज तो थोड़ा बिज़ी हूँ। आज गुरुवार है। आप इतवार को सुबह आइए न। इत्मीनान से बातें होंगीं। चलेगा?’
‘सब चलेगा। यहाँ अब सब दिन बराबर हैं। क्या गुरुवार और क्या इतवार। ‘
‘तो फिर ठीक है। मैं इतवार को आपका इन्तज़ार करूँगा। ‘
‘बिलकुल ठीक। नौ बजे के करीब ठीक रहेगा?’
‘हाँ, हाँ, आइए। ‘
सेठी जी ने फोन रख दिया। फोन रखने के साथ मूड गड़बड़ हो गया। रिटायर्ड आदमी के साथ बैठना मतलब घंटा डेढ़-घंटा बरबाद करना। आधे घंटे तो बातचीत ठीक, फिर ज़बर्दस्ती वक्त के खालीपन को भरना। निरर्थक मुद्दे उठा उठाकर सामने रखते रहो। रिटायर्ड आदमी अप्रासंगिक हो जाता है, वह न वर्तमान के काम का रहता है, न भविष्य के। वह बस इतिहास का हिस्सा बन जाता है। अब उससे क्या बातें करें और उसके सामने अपना कौन सा दुखड़ा रोयें? जिन्हें रोने के लिए कोई भी कंधा चाहिए उनके लिए ठीक है। बाकी जिन्हें काम-धाम करना है, भविष्य की योजनाएँ बनानी हैं, उनके लिए रिटायर्ड आदमी का संग-साथ किस काम का? रिटायर्ड आदमी तो अपने जैसों के गोल में ही शोभा देते हैं, जहाँ बैठकर वे गठिया, कब्ज और बहुओं की लापरवाही और अकर्मण्यता का रोना रोते रहते हैं।
सेठी जी सोचते हैं अब ज़माना भी बदल गया। उनके बाप-दादा के ज़माने में परिचित और दोस्त घर में चाहे जब आते जाते रहते थे। शादी-ब्याह में रिश्तेदार हफ्तों पड़े रहते थे। घर में रोज़ शाम को महफिल लगती थी। दुनिया भर की बातें होती थीं, जिनके बारे में आज सोचना भी हास्यास्पद लगता है। अब आधे घंटे की खातिरदारी के बाद मेहमान को भी अड़चन होने लगती है और मेज़बान को भी। अपनी दुनिया से बाहर निकलने की फुरसत नहीं है। सब अपने-अपने टापू में कैद हैं। इसलिए सेठी जी सोचते हैं कि जड़िया जी आएँगे तो उनसे क्या बातें होंगीं?
जड़िया जी ज़िन्दगी भर रहे भी अटपटे ही। न कभी ज़िन्दगी को व्यवस्थित किया, न कोई ख़ाका बनाया। दफ्तर में ज़िन्दगी गला दी, लेकिन शिकार फाँसने की विधि नहीं सीखी। जो भेंट-उपहार मिल गया, उसी में खुश हो लिये। न ज़मीन-ज़ायदाद बनायी, न शेयर वगैरः खरीदे। ज़िन्दगी को साधने की कला में फिसड्डी रहे। लेकिन इन बातों का महत्व उनकी समझ में कभी नहीं आया, न ही कभी अपने अनाड़ीपन पर उन्हें कोई अफसोस हुआ।
जड़िया जी के विदाई कार्यक्रम में तो हस्बमामूल उनकी तारीफ ही हुई थी। नौकरी और ज़िन्दगी से रुखसत होते आदमी के लिए भला बोलने का ही कायदा होता है। फिर जो लोग अपनी ज़िन्दगी बिना ज़्यादा दाँव-पेंच चलाये सीधे-सीधे गुज़ार देते हैं, उनके प्रति लोग भावुक भी हो जाते हैं।
विदाई कार्यक्रम के बाद सेठी जी को जड़िया जी बाज़ार में दो तीन बार दिखायी दिये थे। एक बार एक दुकान में साइकिल पर थैला लटकाये खड़े दिखे। एक बार और स्कूटर पर एक बच्चे को सामने खड़ा किये जाते दिखे। दोनों ने हाथ उठाकर एक दूसरे को अभिवादन किया। एक बार दफ्तर में भी दिखे थे। तब बस ‘कैसे हैं?’, ‘कैसे हैं?’ हुआ था। जड़िया जी से मिलने की कोई खास इच्छा सेठी जी को कभी नहीं हुई थी। रिटायर्ड आदमी से मिलने की इच्छा तभी होती है जब उससे कुछ काम पड़े, और रिटायर्ड आदमी के पास लोगों का काम कम ही अटकता है। वजह यह कि रिटायर्ड आदमी ज़िन्दगी के राजमार्ग से हटा हुआ होता है।
इसीलिए सेठी जी इस बात को लेकर परेशान हो गये कि जड़िया जी उनसे क्यों मिलना चाहते हैं। शायद कोई काम हो। सीधे-सादे आदमी के सामने ज़िन्दगी की दस झंझटें होती हैं। परिवार को अव्यवस्थित और अनियोजित रखने के परिणाम रिटायरमेंट के बाद पूरी शिद्दत से सामने आने लगते हैं। जड़िया जी ने कभी भविष्य की चिन्ता तो की नहीं। शायद कोई आर्थिक समस्या आ खड़ी हुई हो।
जड़िया जी दो चार हज़ार रुपये माँगने लगें तो क्या होगा? पहले से निर्णय कर लेना ठीक होगा। पैसे की तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन जड़िया जी लौटा न पाये, तब क्या होगा? इस संभावना पर विचार करने के बाद ही पैसा देना उचित होगा। वैसे तो जड़िया जी भले आदमी हैं, लेकिन लौटाने की स्थिति में न हुए तो क्या किया जा सकेगा? उनसे यह पूछना भी तो उचित नहीं होगा कि उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है और वह किस उद्देश्य से पैसे चाहते हैं।
सोचते-सोचते सेठी जी अशान्त हो गये। यह कहाँ की परेशानी आ गयी? बिना उद्देश्य के आदमी क्यों मिलना चाहता है? उन्हें रिटायर्ड आदमियों पर गुस्सा भी आया कि बेमतलब एक घर से दूसरे घर डोलते रहते हैं। अपने घर में बैठकर राम नाम भजें, सोई अच्छा। एक मन हुआ, इतवार को सुबह कहीं सटक लें। फिर सोचा, यह ठीक नहीं होगा। एक तो जड़िया जी को सफाई देना मुश्किल होगा, दूसरे इस तरह से जड़िया जी से कब तक बचेंगे? जिसे मिलना ही है, वह दुबारा आ जाएगा।
इतवार को सबेरे सेठी जी जड़िया जी का इन्तज़ार करते बैठे रहे। करीब सवा नौ बजे वे साइकिल पर आते दिखे। कपड़ों- लत्तों के बारे में उनका औघड़पन साफ दिखता था। कुर्ते की एक बाँह कुहनी के ऊपर चढ़ी थी, तो दूसरी नीचे तक लटकी थी। कॉलर एक तरफ उठा था, तो दूसरी तरफ दबा था।
गेट में घुसकर वे कुछ देर बाहर बिलम गये। सेठी जी ने झाँककर देखा तो वे साइकिल का हैंडल थामे, माली से बात करने और क्यारियों में उगे हुए पौधों के बारे में जानकारी लेने में मसरूफ थे। ‘ये कभी नहीं सुधरेंगे’, सेठी जी ने सोचा। अन्ततः जड़िया जी अन्दर आ ही गये। बहुत जोश से दोनों पुराने सहकर्मियों का मिलन हुआ। रिटायर्ड आदमी के स्वास्थ्य के बारे में पूछना सबसे पहले ज़रूरी होता है, सो सेठी जी ने किया। फिर दफ्तर की बातें छिड़ गयीं— साथियों की बातें, ऊपर के अधिकारियों की बातें और जो पहले रिटायर हो गये या ऊपर चले गये उनकी स्मृतियाँ।
सेठी जी से बात करते जड़िया जी तो भाव-विभोर थे, लेकिन सेठी जी के मन में खिंचाव था। वे भीतर से सावधान थे। जड़िया जी की बातें उन्हें असली बात के आसपास लगायी गयी फूल-पत्तियाँ लग रही थीं। उन्हें विश्वास था कि अन्ततः जड़िया जी कोई ना कोई माँग ज़रूर करेंगे। इसलिए उनका जोश और जड़िया जी की बातों पर छूटती उनकी हँसी बड़ी सीमा तक नकली थी। उन्होंने सोच रखा था कि अगर जड़िया जी पैसे की माँग करेंगे तो वे ज़्यादा से ज़्यादा हजार रुपया देकर मजबूरी ज़ाहिर कर देंगे ताकि अगर पैसा डूब भी जाए तो ज़्यादा न अखरे।
बात करते घंटा भर से ऊपर हो गया लेकिन जड़िया जी मतलब की बात पर नहीं आये। सेठी जी का सब्र का बाँध टूटने को आया। जब भी बातों में विराम आता, सेठी जी कुछ तनाव की स्थिति में आ जाते, यह सोचकर कि अब जड़िया जी के मन की बात प्रकट होगी। लेकिन फिर बातों का सिलसिला किसी दूसरी दिशा में मुड़ जाता। सेठी जी को खीझ होने लगी कि यह आदमी इतना ढोंग क्यों कर रहा है।
अन्ततः जड़िया जी कुर्सी से आधे उठे, बोले, ‘काफी वक्त हो गया। खूब आनन्द आया। अब आप भी अपना कामकाज निपटाइए। हम तो रिटायर्ड हैं। अपने पास वक्त ही वक्त है। ‘
सेठी जी अभी भी तनावमुक्त नहीं हुए थे। अब वे खुद ही बोल पड़े, ‘और मेरे लायक कोई काम हो तो बताइएगा। ‘
जड़िया जी बोले, ‘काम क्या? इतनी देर आपके साथ बैठकर मन हल्का कर लिया, इससे बड़ा काम और क्या हो सकता है?’
जड़िया जी चल दिए। सेठी जी पीछे पीछे चले। अब उनके मन में ग्लानि थी। जड़िया जी को ज़रूरतमन्द समझ कर ठीक से बात भी नहीं कर पाये। पूरे समय लगभग मुक्ति पाने के अन्दाज़ में बातें हुईं। कुछ ढीले होकर बात करते तो मज़ा आता। गलतफहमी पालने से अपने प्रति और जड़िया जी के प्रति अन्याय हो गया।
गेट पर आकर जड़िया जी ने साइकिल निकाली तो सेठी जी आजिज़ी के स्वर में बोले, ‘फिर आइए। अभी कुछ मज़ा नहीं आया। मन नहीं भरा। ‘
जड़िया जी हँसकर बोले, ‘फिर आ जाएँगे। रिटायर्ड आदमी को तो इशारा काफी है। आप एक बार बुलाएँगे तो हम दो बार आ जाएँगे। ‘
सेठी जी भावुक को गये। लगा जैसे गले में कुछ अटक रहा है। भाव-विभोर होकर उन्होंने जड़िया जी को अपनी बाँह में लपेट लिया। फिर देर तक खड़े, जड़िया जी की अटपटी काया को साइकिल पर दाहिने बाएँ झूलते, धीरे-धीरे विलीन होते देखते रहे।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है मारीशस में गरीब परिवार में बेटी की शादी और सामजिक विडम्बनाओं पर आधारित लघुकथा “गरीब की गरीबी”।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — गरीब की गरीबी —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
संदर्भ : मॉरिशस में गरीब परिवार की बेटी की शादी और सामाजिक विडंबनाओं पर आधारित यह लघुकथा यहाँ के अनेक घरों का एक आईना है।
बेटी की शादी की दौड़ धूप में लगे हुए माँ – बाप थक कर चूर हो गए थे। बेटी ससुराल गई। माँ – बाप अपनी बेटी के लिए कल्पना लोक में खोये हुए थे। भगवान बेटी के नाम जीवन भर का सुख लिख दे। परिवार के जो एक दो लोग रह गए थे वे शाम होने से पहले चले गए थे। पंडाल तोड़ा जा चुका था। कुरसियाँ घर के किनारे में रखी हुई थीं। कल सुबह यह सब वापस चला जाता। पति – पत्नी को आज की रात बहुत सावधानी बरतनी पड़ती। इधर चोरियाँ बढ़ गई हैं। इन चीजों को चुराने वाले मौके की ताक में रहते हैं। वे जानते हैं शादी पूरी हो जाने पर लोग अपनी समस्या का निदान मान कर रात को सोते हैं तो थकान के कारण नींद उन्हें बहुत दबोचती है। वे इधर खुर्राटे ले रहे हों और उधर आंगन में चोर सब कुछ चुरा कर ले जाने की ताक में हों।
बच्चे सो गए थे। पति पत्नी की आँखों में नींद होने के बावजूद वे बैठे हुए थे। बाहर की चीजों के लिए उन्हें जागना तो था। पर इससे कहीं अधिक अपने भविष्य की आपदाओं का लेखा – जोखा आवश्यक मान कर उन्हें अपनी आँखों की नींद को भूल जाना था। जहाँ तक हो सका शादी के लिए अपनी कमाई से आपूर्ति करते रहे और कर्ज ने भी गर्दन तक की सवारी कर ली। सोनार को थोड़ा देना अभी बाकी था। इधर उधर के सारे कर्ज को मिलाएँ तो वह बोझिल ही था।
दोनों इन्हीं बातों में खोये हुए थे कि दामाद का फोन आया। उसने कहा, “आप की बेटी जो उपहार ले कर आई है एक उपहार में सिन्दूर, नींबू, धान, राख, सरसों, कबूतर का सिर वगैरह मिला है। हमारे यहाँ हलचल मची हुई है। सब डरे हुए हैं। शादी तो हमारे लिए जंजाल बन गई। कहीं ऐसा न हो यहाँ से जोड़े मुर्दे निकलें।”
दामाद को पता था यहाँ एक नामी ओझा रहता है। वह कह रहा था उस ओझा को ले कर अभी ही आएँ। दामाद ने न कह कर भी एक तरह से कह ही तो दिया उपहार में मिली ये सारी समस्याएँ आप लोगों की ओर से हैं तो आप लोग ही संभालें।
अपनी बेटी होने से माँ – बाप उसके लिए अपनी जान लड़ाते। सवाल पैदा हुआ इतनी रात को उस ओझा के घर जाना होता। उससे कहें तो क्या वह अभी जाने के लिए तैयार होगा? कौन नहीं जानता वह दस बीस हजार की बात करता है। जाने के लिए टैक्सी भी देखनी पड़ती। टैक्सी वाला ना नुकर करते दाम दोगुना कहता। यह सब मानो अग्नि परीक्षा हो !