हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 65 – हाइबन – जलमहल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “जलमहल। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 65 ☆

☆ जलमहल ☆

चित्तौड़गढ़ का किला जितना अद्भुत है उतनी ही अद्भुत पद्मिनी की कहानी है।  कहते हैं कि रानी पद्मिनी अति सुंदर ही थी। जिसकी एक झलक देखने के लिए अलाउद्दीन खिलजी बेताब था।  उस ने सब तरह के यतन किए। तब वह अंततः रानी पद्मिनी को देखने की अनोखी तरकीब के कारण कामयाब हुआ था।

उस तरकीब के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी को पद्मिनी रानी के दर्शन कराए गए थे । रानी पद्मिनी की विश्व प्रसिद्ध महल में पद्मिनी रानी बैठी थी । पास के कमल जल तालाब में स्वच्छ पानी भरा था । अलाउद्दीन खिलजी को इसी तालाब के पानी में रानी के प्रतिबिंब  यानी छायाकृति दिखाई गई थी।

यहां के महल की अद्भुत कृतित्व और रानी पद्मिनी के अद्वितीय सौंदर्य ने उस समय अलाउद्दीन खिलजी को अभिभूत कर दिया था।  उस के मन में रानी पद्मिनी को पाने की उत्कट इच्छा जागृत हो गई थी।  जिस की परिणति युद्ध में हुई थी।

——–

जलमहल~

पानी में डोल रहा

कमलदल।

——–

जलमहल~

पानी में लहराता

कमलदल।

~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

20-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा – कहानी ☆ दो लघुकथाएं ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ दो  लघुकथायें

एक : अपने आदमी

यह तीसरी बार हो रहा था ।

मैंने तीसरी बार किसी लड़के को नकल करते पकड़ा था औ, बदकिस्मती से वह भी किसी मास्टर, का अपना आदमी निकल आया था। मुझे फिर ठंडी चेतावनी ही मिली थी।

पहली बार हैड का लड़का ही मेरी पकड़ में आ गया था । जब मैं उसे किसी विजयी भावना में लिए जा रहा था तो पीठ पीछे सभी साथी मुस्कुरा रहे थे । नया होने की वजह से मुझे किसी के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था । और वे जानते बूझते मुस्कुरा रहे थे । हैड ने उसे यह कह कर छोड़ दिया था कि अपना शरारती बेटा है , आपसे मज़ाक कर रहा होगा ।

दूसरी बार मैंने फिर ईमानदारी से ड्यूटी करते हुए एक लड़के को रंगे हाथों नकल करते लपका था । उसकी वजह से मुझे उस प्राइवेट स्कूल के मैनेजर का सामना करना पड़ा था । वह उनका सुपुत्र जो था और मुझे नौकरी करनी थी ।

तीसरी बार खेल प्रशिक्षक भागे चले आए थे और मेरे कंधे पर आत्मीयता का भाव लादते हुए बता गये थे कि वह स्कूल का श्रेष्ठ खिलाड़ी है ।

अब मैंने कातर दृष्टि से अपने आसपास देखना शुरू कर दिया है कि जिससे मुझे मालूम हो जाये कि अपने आदमी कहां नहीं हैं ,,,

तब से मैं एक भी आदमी पर उंगली नहीं रख पाया हूं ,,,

 

दो : राजनीति के कान 

– मंत्री जी , बड़ा कहर ढाया है ,,,आपने ।

-किस मामले में भाई?

– अपने इलाके के एक मास्टर की ट्रांस्फर करके ।

-अरे , वह मास्टर ? वह तो विरोधी पार्टी के लिए भागदौड़,,,

-क्या कहते हैं हुजूर ?

– उस पर यही इल्जाम है ।

– ज़रा चल कर कार तक पहुंचने का कष्ट करेंगे?

– क्यों ?

– अपनी आंखों से उस मास्टर को देख लीजिए । जो चल कर आप तक तो पहुंच नहीं पाया । बदकिस्मती से उसकी दोनों टांगें बेकार हैं । और भागदौड़ करना उसके बस की बात कहां ? जो अपने लिए भागदौड़ नहीं कर सकता , वह किसी के विरोध में क्या भागदौड़ करेगा ?

– अच्छा भाई । तुम तो जानते हो कि राजनीति के कान बहुत कच्चे होते हैं और आंखें तो होती ही नहीं । खैर । आपने कहा है तो मैं इस गलती को दुरुस्त करवा दूंगा ।

खिसियाए हुए मंत्री जी ने कहा जरूर लेकिन आंखों में कहीं पछतावा नहीं था ।

 

©  कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ आशीर्वाद ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की लघुकथा  “आशीर्वाद ”)

☆ लघुकथा – आशीर्वाद  ☆

“अरे वाह मीनू, तुम्हारे तो ऑफिस के सारे के सारे लोग पहुंचे हुए हैं, रौनक लगवा दी तुमने तो,” अनिल ने कहा।

“बुलाने का तरीका होता है, ऐसे थोड़े ही कोई आता है,” मीनू ने मुस्कुराते हुए कहा।

“वह कैसे?” अनिल ने उत्सुकता से पूछा।

मीनू ने बताया, “मैं अपने ऑफिस में कार्ड के साथ सभी को मिठाई का डिब्बा दे रही थी। मैंने अपने सभी साथियों से कहा था, ‘मेरी बेटी की शादी में उसे आशीर्वाद देने अवश्य ही आइयेगा।’

इस पर सुशील बोला, ‘शायद मैं न आ पाऊँ, पर मैं प्रताप के हाथों शगुन का लिफाफा अवश्य ही भेज दूंगा।‘

इस पर मैंने कहा, ‘यदि आप नहीं आ सकते तो न आएं, किन्तु शगुन का लिफाफा भी मत भेजिएगा। मैं यह कार्ड और मिठाई शगुन के लिफाफे के लिए नहीं दे रही हूँ। ये मेरी अपनी ख़ुशी है जो मैं आप सब से साझा कर रही हूँ, और इसलिए दे रही हूँ कि यदि आप आएंगे तो मेरी बेटी की शादी में रौनक बढ़ेगी और उसे आप सबका आशीर्वाद भी मिलेगा। इसलिए मेरा निवेदन है कि आप सभी लोग शादी में अवश्य आएं। और हां, शगुन का लिफाफा मैं सिर्फ उसी से लूंगी जो मेरी बेटी को शादी में उसे आशीर्वाद देने पहुंचेगा, अन्यथा नहीं।‘

“तभी आज शादी में ऑफिस के सभी लोग बेटी को आशीर्वाद देने आए हुए हैं।” अनिल मुस्कुरा दिया।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 45 ☆ लघुकथा – किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी….. ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी……   स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद भावुकता से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को मानवीय रिश्तों और दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 45 ☆

☆  लघुकथा – किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी…..

सौम्या हर बार की तरह इस बार भी गर्मी की छुट्टियों में बच्चों को लेकर मायके चली गयी थी। जैसे-जैसे बच्चे बड़े हो रहे थे  मायके से उसकी दूरियां बढ़ती जा रही थीं। कारण वह समझती थी। जिन बातों को वह आज तक नजरअंदाज करने की कोशिश करती थी वे बातें अब खुलकर बच्चों के सामने आने लगी थी। बच्चे नासमझ नहीं रह गए थे और वह भी किन-किन बातों पर पर्दा डालती। उसने भी जैसा चल रहा है चलने दो ,का भाव अपना लिया था।

उस दिन तो सौम्या भी सकते में आ गयी जब भाई ने घर के सामान के लिए दिए पैसों का हिसाब माँगते हुए कहा- सौम्या ! मुझे दो ना पैसों का हिसाब। पापा का इन्तजार क्यों कर रही हो। मैं और पापा एक ही तो हैं। मयंक मासूमियत से बोला- मतलब…..? और मेरी मम्मी ? वो भी तो नाना-नानी की बेटी हैं ?

सौम्या ने बच्चों के सामने बात बढ़ाना उचित नहीं समझा। बच्चों के मन में रिश्तों को लेकर कड़वाहट नहीं घुलनी चाहिए। सच, जब रिश्ते पूरी गरमाहट के साथ रजाई की तरह बच्चों को अपने में लपेट लेते हैं तो बच्चों की दुनिया ही बदल जाती है। और ऐसा ना होने पर अपनों के प्रति ही अविश्वास का भाव………।

सौम्या ने उस समय तो बात टाल दी लेकिन भाई का वाक्य उसे कचोटता रहा। उसे याद आया वह दिन जब शादी के बाद उसने भावुकतावश एक सादे लिफाफे में मुँह दिखाई में मिले रुपए रखकर भाई को भेज दिए थे। भाई के मोह में वह उस दिन यह भी नहीं सोच पाई कि सादे लिफाफे में रखकर रुपए नहीं भेजने चाहिए, मनीआर्डर करना चाहिए था। ऐसा एक लिफाफा तो मिल गया। दूसरा नहीं पहुँचा ,शायद किसी ने रुपए निकाल लिए होंगे। आज वही भाई उसे यह एहसास करा रहा है कि तुम अब इस परिवार से अलग हो। सौम्या ने उस दिन ही यह तय कर लिया था कि वह माता-पिता के लिए ही मायके जाएगी। हाँ इतना जरूर था कि अब वह मायके अकेले जाने लगी थी। पति और बच्चों के सामने मायके में अपमान सहना जरा कठिन होता है।

समय किसी के लिए रुकता नहीं। माँ-पापा की मृत्यु के बाद मायके जाना लगभग खत्म हो गया। जब रिश्तों में तरावट नहीं रही तो दीवारों का मोह क्या करना। धीरे-धीरे घर, शहर सब छूट गया। जब पलटकर देखती तो आश्चर्य होता कि जीवन के इतने साल जिस घर में बिताए वहीँ आज कदम रखना मुश्किल है। उसे फिराक गोरखपुरी का शेर याद आया-

किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी।

ये हुस्नो-इश्क तो धोखा है सब मगर फिर भी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 64 – तुरपाई ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “ तुरपाई ।  निःस्वार्थ  सेवा /सहयोग का फल ईश्वर आपको कब देंगे आप नहीं जानते। एक भावप्रवण एवं सुखान्त लघुकथा । इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 64 ☆

☆ लघुकथा – तुरपाई

गांव में एक अनाथ बच्चा ‘तरुण’। घूम – घूम कर माँग कर खाता था। पता नहीं कब और कहाँ से आया। छोटा सा था और सब की बातें सुनता रहता था।

बस्ती में एक एक घर उसे पहचानने लगे थे। धीरे-धीरे बड़ा होने लगा।  अब वह कभी-कभी किसी का काम कर देता था और जो मिल जाता था खाकर अपना गुजारा करता। जहां नींद लगता एक पट्टी डाल सो जाया करता था।

गांव में एक दर्जी जिनके पास अपना कहने को कोई नहीं और संपत्ति के नाम पर कहने को कुछ भी नहीं था। एक सिलाई मशीन और टूटी फूटी झोपड़ी जो उन्होंने एक पेड़ और खंभे की आड़ से बना रखा था। जिसमें मशीन रखकर हर समय फटा पुराना सीते हुए दिखाई देते थे।

कभी-कभी तरुण वहीं पर आकर बैठता और कहता… बाबा मुझे कुछ बनना है कुछ काम सिखा दो। यहाँ पर कोई मुझे काम देना नहीं चाहता। दर्जी के मन में रोज सुनते सुनते दया की भावना उमड़ उठी। उन्होंने कहा.. चल मेरे भी कोई नहीं है और तू भी अनाथ है।

आज से तू और मैं एक नया काम करते हैं “रिश्तो की तुरपाई” तेरा भी कोई नहीं और मुझे भी एक सहारा चाहिए। फटे पुराने कपड़ों पर तरुण धीरे-धीरे तुरपाई का काम करने लगा।

मन में स्कूल जाने की चाहत हुई उसने कहा बाबा मुझे स्कूल जाना है। उन्होंने कहा.. चला जा और पढ़ाई कर धीरे-धीरे वह पढ़ाई से आगे बढ़ने लगा। गरीब जान सरकारी स्कूल से फीस माफ हो गई। उसे पढ़ने के लिए बाहर जाना पड़ा।

दर्जी ने सोचा चला गया। चलो अच्छा है जीवन सुधर जाएगा उसका। उसकी अपनी जिंदगी है।

कुछ वर्षों में सब भूल जाएगा।

वर्षों बाद एक दिन अचानक एक बार गाँव में अतिक्रमण हटाओ के अंतर्गत सभी झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ा जा रहा था। सयाने हो चुके दर्जी परेशान हो इधर उधर भागने लगे और गिड़गिड़ा कर कहने लगे.. अब इस उमर में मैं कहाँ जाऊँगा। मुझे यहीं रहने दो मेरी जिंदगी कितनी बची है। परंतु उसमें से कुछ आदमी निकलकर सारा सामान गाड़ी में भरने लगे और कहने लगे अब तुम्हें यहाँ नहीं रहना है साहब का आदेश है। डरकर दर्जी एक किनारे खड़ा हो गया। तुम्हें जहां छोड़ना है चलो गाड़ी में बैठो।

असहाय दर्जी अपने टूटे फूटे सामान और एक सिलाई मशीन की लालच में गाड़ी में बैठ गया।

गाड़ी एक दुकान के पास जाकर रुक गई। दर्जी ने सोचा यहाँ पर क्यों रुक गए? चश्मे से देखा दुकान के बोर्ड पर लिखा हुआ था “तुरपाई घर”। उसे समझते देर नहीं लगी। हाँफते हुए इधर – उधर देख अपने तरुण की खोज करने लगा। तरुण भी वहाँ बाहें फैला अपने रिश्ते को समेटने के लिए बेताब खड़ा था। आज सचमुच तुरपाई से भरपाई हो गई। दोनों ने गले लग जी भर कर रोया। सभी कर्मचारी कभी फटे हाल दर्जी और कभी अपने साहब को देख रहे थे। उनका आदेश था एक-एक सामान को संभाल कर दुकान पर लगा दिया जाए।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ ज़र, जोरू, जमीन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ ज़र, जोरू, जमीन ☆

यह जमीन मेरी है,…नहीं मेरी है,..तुम्हारी कैसे हुई, मेरी है।….तलवारें खिंच गईं। जहाँ कभी खेत थे, वहाँ कई खेत रहे।

ये संपत्ति मेरी है,…पुश्तैनी संपत्ति है, यह मेरी है,..खबरदार! यह पूरी की पूरी मेरी है।..सहोदर, शत्रुओं से एक दूसरे पर टूट पड़े। घायल रिश्ते, रिसते रहे।

यह स्त्री मेरी है,…मैं बरसों से इसे चाहता हूँ, यह मेरी है,…इससे पहली मुलाकात मेरी हुई थी, यह मेरी है।… प्रेम की आड़ में देह को लेकर गोलियाँ चलीं, प्रेम क्षत- विक्षत हुआ।

यह ईश्वर हमारा नहीं है,…हम तुम्हारे ईश्वर का नाम नहीं लेते,…हम भी तुम्हारे ईश्वर को नहीं मानते,…तुम्हारा ईश्वर हमारा ईश्वर नहीं है।…हिस्सों में बँटा ईश्वर तार-तार होता रहा।

आदमी की नादानी पर जमीन, संपत्ति और स्त्री ठठाकर हँस पड़े।

©  संजय भारद्वाज 

प्रातः 8:01बजे, 31.5.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ बेघर☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक विचारणीय लघुकथा  बेघर।  

☆ लघुकथा – बेघर ☆

“पिताजी मेरा नाम क्यों नहीं लिखवाया?”

नन्ही सी नम्रता ने अपने नए घर की नेम प्लेट पर पिता और छोटे भाई का नाम लिखा देखकर पूछा।

“बेटियां तो पराई होती हैं तुम्हारा घर तो तुम्हारे पति का घर होगा” पिताजी ने कहा

बेटियां पराई होती हैं, जिम्मेदारी होती हैं सुनते सुनते नम्रता 18 साल में ही ब्याह दी गई। ससुराल आकर  लगातार एक पैर पर  चकरघिन्नी जैसे घूमते घूमते सास-ससुर की सेवा और बच्चों को पालने में लग गई।   साथ साथ अपना घर… और घर पर लिखा अपना नाम के सपनों को जीती हुई उसे पूरा करने में जुट गई।  पति की कम आय में गुजारा करना शुरू के दिया।

कामवाली भी नहीं लगवाई और बच्चों को ट्यूशन खुद ही सब निपटा लेती। फिर स्कूल में नौकरी और शाम को ट्यूशन के साथ आखिरकार लोन लेकर घर बनवाया।

बरसो के अथक प्रयासों के बाद नेमप्लेट पर केवल पति का और बेटे का नाम लिखा देख बचपन से पाला हुआ अरमान एक पल में ही धराशाई हो गया।

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-6 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का अंतिम भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका- 6

वो गहननिंद्रा में निमग्न हो गये, काफी‌ दिन चढ़ जाने पर ही चरवाहे बच्चों की‌ आवाजें सुन कर जागे और अगल बगल छोटे बच्चों का‌ समूह खेलते पाया था। उनकी मधुर आवाज से ही उनका मन खिलखिला उठा था और वे एक बार फिर सारी दुख चिंताये भूल कर बच्चों मे‌ बच्चा बनते दिखे। वे मेले से खरीदी रेवड़ियां और बेर फल बच्चों में बाँटते दिखे। तब से वह भग्न शिवालय ही उनका आशियाना बना।

अब वे‌ विरक्त संन्यासी का जीवन गुजार ‌रहे थे। उन्हें जिंदगी को एक नये सकारात्मक दृष्टिकोण ‌से देखने का जरिया मिल गया था। एक दिन जीवन के मस्ती भरे क्षणों के बीच उन्हीं खंडहरों में रघूकाका का पार्थिव शरीर मिला। उस दिन सहचरी ढोल सिरहाने पड़ी आँसू बहा रही थी। कलाकार मर चुका था कला सिसक रही थी।

उनके शव को चील कौवे नोच रहे थे। शायद यही उनकी आखिरी इच्छा थी  कि मृत्यु हो तो उनका शरीर उन‌ भूखे बेजुबानों के काम‌ आ जाय । वे लाख प्रयास के बाद भी उस समाज का परित्याग कर चुके थे।  जहां अपनों से नफ़रत गैरों से बेपनाह मुहब्बत मिली थी।  प्यार मुहब्बत और नफरतों का ये खेल ही उनके  दुख का कारण बना था । आज सुहानी सुबह उदास थी और चरवाहे बच्चों की आँखें नम थी।  जो कल तक रघूकाका के साथ खेलते थे। इस प्रकार स्वतंत्रता संग्राम सेना के‌ एक महावीर ‌योद्धा का चरित्र एक‌ किंवदंती बन कर रह गया, जिनका उल्लेख इतिहास के किताबों में नहीं मिलता। स्वतन्त्रता संग्राम के ऐसे कई अनाम और गुमनाम योद्धा इतिहास के पन्नों में भी उपलब्ध नहीं हैं।

उपसंहार – यद्यपि मृत्यु के पश्चात पार्थिव शरीर पंच तत्व में विलीन हो जाता है। मात्र रह जाती है, जीवन मृत्यु के‌ बीच बिताए ‌पलों की कुछ खट्टी मीठी यादें जो घटनाओं के रूप धारे स्मृतियों के झरोखों से झांकती कभी कथा, कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र की विधाओं में सजी पाठकों श्रोताओं के दिलो-दिमाग  को अपने इंद्रधनुषी रंगों से आलोकित एवम् स्पंदित करती नजर आती है तो कभी‌ भावुक‌ हृदय को झकझोरती भी है।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 44 ☆ लघुकथा – मैडम ! कुछ करो ना ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा मैडम ! कुछ करो ना।  भ्रूण /कन्या हत्या और  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद भावुकता से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 44 ☆

☆  लघुकथा – मैडम ! कुछ करो ना  

अस्पताल में विक्षिप्त अवस्था में पड़ी वह बार-बार चिल्ला उठती थी- मत फेंकों, मत फेंकों मेरी बच्चियों को नदी में। मैं….. मैं पाल लूँगी किसी तरह उन्हें। मजूरी करुँगी, भीख माँगूगी पर तुमसे पैसे नहीं माँगूगी। कहीं चली जाउँगी इन्हें लेकर, तुन्हें अपनी शक्ल भी नहीं दिखाउँगी| छोड़ दो इन्हें, तुम्हारे पैर पड़ती हूँ। इन बेचारी बच्चियों का क्या दोष? ………. और फिर मानों उसकी आवाज दूर होती चली गयी।

बेहोशी की हालत में वह बीच-बीच में कभी चिल्लाती, कभी गिड़गिड़ाती और कभी फूट-फूटकर रोने लगती। नर्स ने आकर नींद का इंजेक्शन दिया और वह औरत निढ़ाल होकर बिस्तर पर गिर गयी। दर्द उसके चेहरे पर अब भी पसरा था।

नर्स ने पास खड़ी समाज सेविका को बताया कि पिछले एक महीने से इस औरत का यही हाल है। नदी के पुल पर बेहोश पड़ी मिली थी| कोई अनजान आदमी अस्पताल में भर्ती करा गया था। पता चला है कि इसके पति ने इसकी पाँच, तीन और एक वर्ष की तीनों बच्चियों को इसके सामने पुल से नदी में फेंक दिया। जब इसने देखा कि पति ने दो बेटियों को नदी में फेंक दिया तो एक वर्ष की बच्ची जो इसकी गोद में थी उसे लेकर यह भागने लगी। उस हैवान ने उसे भी इसके हाथों से छीनकर नदी में फेंक दिया। तब से ही इसका यह हाल है। बहुत गहरा सदमा लगा है इसे।

मैडम ! क्यों करते हैं लोग ऐसा? फूल-सी बच्चियों को मौत की नींद सुलाते इनका दिल नहीं काँपता? नर्स गिड़गिड़ाती हुई बोली- मैडम ! कुछ करिए ना। आप तो समाज सेविका हैं, बहुत कुछ कर सकती हैं। समाज सेविका पथरायी आँखों से बिस्तर पर बेसुध पड़ी औरत को एकटक देख रही थी। पत्थर दिल समाज से टकरा-टकराकर उसके आँसू भी सूख गए थे।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 63 – हाइबन – बादल महल ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “बादल महल। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 63 ☆

☆ बादल महल ☆

बादल महल कुंभलगढ़ किले के शीर्ष पर स्थित एक खूबसूरत महल है । यह संपूर्ण महल दो खंडों में विभाजित हैं । किन्तु आपस में जुड़ा हुआ है। इस महल के एक और मर्दाना महल है।  दूसरी ओर जनाना महल निर्मित है। इसी माहौल में वातानुकूलित लाल पत्थर की जालिया लगी है। लाल पत्थर की जालियों की विशिष्ट बनावट के कारण गर्म हवा ठंडी होकर अंदर की ओर बहती है।

बादल महल बहुत ही ऊँचाई पर बना हुआ महल है । इस महल से जमीन बहुत गहराई में नजर आती है । ऐसा दिखता है मानो आप बादलों के बीच उड़ते हुए उड़न खटोले से जमीन को देख रहे हैं । इसी ऊंचाई और दृश्यता की वजह से इसका नाम बादल महल पड़ा है।

लाल झरोखा~

फर्श पर देखते

सूर्य के बिंब।

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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