हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 63 – श्राद्ध से मुक्ति ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “श्राद्ध से मुक्ति।  वर्तमान पीढ़ी न तो जानती है और न ही जानना चाहती है कि  श्राद्ध क्या और क्यों किये जाते  हैं। उन्हें जीते जी किया भी जाता है या नहीं ? पितृ पक्ष में इस सार्थक  एवं  समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 63 ☆

☆ लघुकथा – श्राद्ध से मुक्ति

रामदयाल जी पेशे से अध्यापक थे। गांव में बहुत मान सम्मान था। बेटे को पढ़ा लिखा कर बड़ा किया। उसकी इच्छानुसार काफी खर्च कर विदेश भेज दिया पढ़ने और अपने मन से सर्विस करने के लिए।

बरसों हो गए बेटे अभिमन्यु को विदेश गए हुए। सेवानिवृत्ति के बाद पति पत्नी अकेले हो गए। बीच के वर्षों में एक बार या दो बार बेटा आ गया था। परंतु उसके बाद केवल मोबाइल का सहारा। गांव में होने के कारण अभिमन्यु कहता था…. नेटवर्क की समस्या रहती है जब बहुत जरूरी हो तभी फोन किया करें। बेटे ने वहाँ अपनी पसंद से विवाह कर लिया। माँ पिताजी को बताना भी उचित नहीं समझा। बस फोन पर कह दिया कि उसने अपनी लाइफ पार्टनर ढूंढ लिया है।

माँ को बहुत झटका लगा। लगातार चिंता और दुखी रहने के कारण उम्र के इस पड़ाव पर वह जल्द ही बीमार हो चली। फिर एक दिन सब कुछ छोड़ रामदयाल को अकेले कर वह चल बसी। बेटे को फोन किया गया।  वह बोला… अभी कंपनी के हालात अच्छे नहीं चल रहे हैं। मुझे अभी आने में वक्त लग सकता है। मैं जल्द ही आऊंगा आप अपना ध्यान रखना।

कहते-कहते बरस बीत गए। माता जी के श्राद्ध का दिन आने वाला था। पिताजी ने फोन से कहा… बेटे जीव की मुक्ति के लिए श्राद्ध का होना जरूरी होता है तुम्हारा आना आवश्यक है। झल्ला कर अभिमन्यु ने कहा… ठीक है मैं आ जाऊंगा। बहू को भी ले आना… ठीक है ठीक है ले आऊंगा… सारी तैयारी करके रखियेगा। मुझे ज्यादा समय नहीं लगना चाहिए।

पिताजी खुश हो गए कि बेटा बहू आ रहे हैं। रामदयाल जी पत्नी के श्राद्ध को भूल कर बेटे के आने की खुशी में घर को सजा संवार कर खुश हो रहे थे कि बेटा बहू आ रहे हैं।

निश्चित समय पर बेटा बहू आ गए। पूजा पाठ के बाद घर के नौकर के साथ मिलकर पास पड़ोस में सभी को खाना खिलाया गया। रामदयाल जी बहुत खुश थे कि अपनी माँ का श्राद्ध कर रहा है। इसी बीच जाने कब बेटे ने पिता जी से एक कोरे कागज पर दस्तखत करवा लिया कि उसे विदेश में एक छोटा सा घर लेना है। जिसमें आपके पहचान की आवश्यकता है।

पिताजी ने खुशी से वह काम कर दिया। सभी काम निपटने के बाद रात को सभी चले गए। नौकर भी रामदयाल के पास सो रहा था। देर रात खटर-पटर की आवाज से वह उठ गया। देखा अभिमन्यु और बहू घर का सारा सामान भर चुके थे। सामने दो गाडियाँ खड़ी थी। उसे समझते देर न लगी। उनमें एक गाड़ी अनाथ आश्रम की गाड़ी थी। उसने तत्काल रामदयाल जी को उठाया। अभिमन्यु ने कहा… पिताजी मुझे बार-बार आना अब नहीं होगा। मैंने यह मकान बेच दिया है और आपकी व्यवस्था आपके जीते जी रहने के लिए अच्छे से अनाथ आश्रम में करवा दिया है।

नौकर का भी हिसाब कर पैसा और गांव में रहने की व्यवस्था कर दिया है। कल सुबह वह चला जाएगा।

और हां एक बात और मैंने… पंडित जी से कहकर आपका भी “श्राद्ध” करवा दिया है। अब किसी प्रकार के डरने की आवश्यकता नहीं है। आपकी मुक्ति हो जाएगी।

रामदयाल चश्मे को निकाल आँसू पोछते नौकर से बोले… चलो अच्छा हुआ जीते जी बेटे ने श्राद्ध कर मुझे मुक्ति दे दी।

अनाथ आश्रम के आदमी रामदयाल जी को बड़े आदर के साथ पकड़ कर अपनी गाड़ी की ओर ले चले। गरीब नौकर हैरान था ये कैसी “श्राद्ध से मुक्ति” ।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-5 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय  भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-5

पत्नी के क्रिया कर्म के बाद रघूकाका ने अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया रामखेलावन को पढ़ा लिखा अच्छा इंसान बनाकर पत्नी ‌की आखिरी इच्छा पूरी करने का। रामखेलावन की परवरिश में उन्होंने कोई कमी नहीं की।  लेकिन रामखेलावन के आज के व्यवहार से वे टूट गये थे। इन्ही परिस्थितियों में जब स्मृतियो के सागर में तूफान मचा तो उन्हें लगा जैसे स्मृतिपटल का पर्दा फाड़ प्रगट हो उनकी पत्नी उनके आंसू पोंछ टूटे हृदय को दिलासा दे रही हो और रघूकाका बर्दाश्त नहीं कर सके थे। उनके हृदय की पीड़ा आर्तनाद बन कर फूट पड़ी और वे अपने विचारों में खोये हुए बुदबुदा उठे —–

हाय प्रिये तुम कहाँ खो गई, अब  तुमसे मिल न‌ सकूँगा।
दुख सुख मन की पीड़ा, कभी किसी से कह‌ न सकूँगा।
घर होगा परिवार भी‌ होगा, दिन होगा रातें भी होगी।
सारे रिश्ते होंगे नाते होंगे, सबसे फिर मुलाकातें होंगी।
तुम ही न होंगी‌ जग में, फिर किससे दिल की बातें होंगी।

।।हाय प्रिये।।।1।।

तुम ऐसे आई मेरे जीवन में, मानों जैसे ‌बहारें आई थी।
दुख सुख‌ मे साथ चली , कदमों से ‌कदम मिलाई थी ।
थका हारा जब होता‌ था, सिरहाने तुमको पाता था।
कोमल हाथों का स्पर्श , सारी पीड़ा हर लेता था

।।।हाय प्रिये।।।2।।।

जीवन ‌के झंझावातों में, दिन रात थपेड़े खाता था ।
उनसे टकराने का साहस तुमसे ही  पाता था ।
रूखा‌ सूखा जो कुछ मिलता, उसमें ही खुश रहती थी।
अपना ग़म अपनी पीड़ा, मुझसे कभी न कहती थी ।

।।।हाय प्रिये ।।3।।

तुम मेरी जीवन रेखा‌ थी, तुम ही मेरा हमराज थी।
और मेरे गीतों गजलों की,‌ तुम ही तो आवाज थी ।
नील गगन के पार चली, शब्द मेरे खामोश‌ हो गये ।
ताल मेल सब कुछ बिगड़ा, मेरे सुर साज खो गये।

।।।हाय प्रिये ।।4।।

अब शेष बचे दिन जीवन के, यादों के सहारे काटूंगा ।
अपने ग़म अपनी पीड़ा को, मैं किससे अब बांटूंगा ।
तेरी याद लगाये सीने से, बीते पल में खो जाऊंगा।
ओढ़ कफ़न इक‌ दिन , तेरी तरह ही सो जाऊंगा

।।।हाय प्रिये ।।5।।

इस प्रकार आर्तनाद करते करते, बुदबुदाते रघूकाका के ओंठ कब शांत हो गये पता नहीं चला।

क्रमशः …. 6

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ वही की वही बात ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ वही की वही बात 

…सुनो, शहर में नई फिल्म लगी है। शनिवार की शाम को तैयार रहना।  ऑफिस से आते हुए मैं टिकट लेते आऊँगा…, जूते उतारते हुए उसने पत्नी से कहा।

…नहीं, शनिवार को नहीं चल सकती। इतवार को बबलू का जी.के. का टेस्ट है। मुझे उसकी तैयारी करानी है।

…कभी, कहीं भी जाने का मन हो, तुम्हारे बबलू का कोई न कोई अड़ंगा रहता ही है। ये बबलू हमको कभी कहीं जाने ही नहीं देगा। शैतान कहीं का!

बबलू, उन दोनों की एकमात्र संतान। लाड़ला, थोड़ा नकचढ़ा। दोनों बबलू की परवरिश पर बहुत ध्यान देते। माँ, बबलू को दुनिया में सबसे ऊँचा देखना चाहती थी तो बाप उस ऊँचाई पर जाने की सीढ़ी के लिए लगने वाला सामान जुटाता रहता।

अब ज़्यादातर ऐसा ही होने लगा था। दोनों में से किसी एक की या दोनों की जब कहीं जाने, घूमने-फिरने की इच्छा होती, बबलू बीच में आ ही जाता। वैसे दोनों को अपनी इच्छाएँ मारने का कोई रंज़ न होता। होता भी भला कैसे?

बबलू बड़ा होता गया और उनकी इच्छाओं का कद छोटा। कुछ इच्छाओं ने दम तोड़ दिया, कुछ ने रूप बदल लिया। अब मेले में झूले पर साथ बैठी पत्नी का डरकर सार्वजनिक रूप से उसके पहलू में समा जाना,बाहों में बाहें डालकर सिनेमा देखना, पकौड़ेे वाली तंग गली में एक-दूसरे से सटकर एक ही प्लेट में गोलगप्पे खाना, पति के साथ स्कूटर पर चिपक कर बैठना जैसी सारी इच्छाएँ कालातीत हो गईं। बबलू को ऊँचा बनाने की जद्‌दोज़हद के तरीके बतानेवाली किताब में उनकी अपनी इच्छाओं के लिए कोई पन्ना था ही नहीं।

एकाएक एक दिन पत्नी बोली-सुनोजी, चौदह-पंद्रह बरस हो गए शहर से निकले। अगले महीने से बबलू की बीस दिन की छुट्‌टी शुरू हो रही हैं। क्यों न हम वैष्णोदेवी हो आएँ?…..विचार तो तुम्हारा अच्छा है; पर बबलू की माँ, बबलू की इंजीनियरिंग की फीस बहुत ज्यादा है। बीस दिन बाद कॉलेज खुलेगा तो पूरा पैसा एक साथ भरना पड़ेगा। अभी वैष्णो देवी चले गए तो….!….अरे तो क्या हो गया? दिल छोटा क्यों करते हो? हम तो बस यूँ ही…और देवी माँ तो मन में बसती है…अपने पूजा घर में रोज दर्शन करते ही हैं न…!…वो तो ठीक है फिर भी बबलू की माँ मैं तुम्हारी इच्छा….!…क्या बात लेकर बैठ गए! हम माँ-बाप हैं बबलू के। बबलू पहले या हमारी इच्छा?…..सचमुच वे पति-पत्नी कहाँ रह गए थे, वह बाप था बबलू का, वह माँ थी बबलू की।

समय पंख लगाकर उड़ता रहा। बाप रिटायर हो चुका। माँ भी घर का काम करते-करते थक चुकी। अलबत्ता बबलू अब इंजीनियर हो चुका। ये बात अलग है कि उसे इंजीनियर बनाने की जुगाड़ में माँ-बाप के पास बचत के नाम पर कुछ भी नहीं बचा। फिर भी दोनों खुश थे क्योंकि बबलू को इंजीनियर देखना, उनकी सबसे बड़ी पूँजी थी। दो साल हुए, बबलू की शादी भी हो गई। बेटे का ध्यान रखनेवाली आ गई, सो माँ-बाप के पति-पत्नी होने की प्रक्रिया फिर शुरू हुई।

…सुनोजी, वैष्णोे माँ की दया से बबलू के लिए जो चाहा, सब हो गया। अब तो कोई ज़िम्मेदारी भी नहीं रही, वैष्णोेदेवी के दर्शन करने चलें?…हाँ, हाँ, क्यों नहीं? मैं आज ही बबलू से बात कर लेता हूँ। थोड़ा पैसा तो उससे लेना पड़ेगा….अगर वो हाँ कहेगा तो….तो मेरा बबलू क्या माँ-बाप को तीरथ भी नहीं करायेगा?

…..बाऊजी! आपकी और अम्मा की ये उमर है क्या घूमने-जाने की? कल कोई चोट-वोट लग जाए तो?..पर बेटा हम तो तीरथयात्रा!…अम्मा क्या फ़र्क पड़ता है, और देवी माँ तो मन में बसती है। अपने पूजाघर में रोज दर्शन करती ही हैं न आप …., उत्तर बहू ने दिया था।

माँ-बाप खिसिया गए। पति-पत्नी होने की प्रक्रिया को झटका लगा।…..”मैं कहता था न बबलू की अम्मा! ये बबलू हमको कभी कहीं जाने ही नहीं देगा। शैतान कहीं का!”..ज़बर्दस्ती हँसने की कोशिश में माँ-बाप बने पति-पत्नी ने अपने चेहरे विरुद्ध दिशा में घुमा लिए ताकि दोनों एक-दूसरे की कोरों तक आ चुका खारा पानी ना देख सकें।

 

#आपका समय सार्थक हो। 

©  संजय भारद्वाज 

( लगभग 15 वर्ष पूर्व लिखी कहानी।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 43 ☆ लघुकथा – माँ  आज भी गाती है ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा माँ  आज भी गाती है।  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 43 ☆

☆  लघुकथा – माँ  आज भी गाती है  

माँ बहुत अच्छा गाती है, अपने समय की रेडियो कलाकार भी रही है।  | पुरानी फिल्मों के गाने तो  उसे बहुत पसंद हैं | भावुक होने के कारण हर गाने को इतना दिल से गाती कि कई बार गाते-गाते गला भर आता और आवाज भर्राने लगती। तब आँसुओं और लाल हुई नाक को धोती के पल्लू से पोंछकर हँसती हुई कहती- अब नहीं गाया जाएगा बेटा ! दिल को छू जाते हैं गाने के कुछ बोल !

‘तुझे सूरज कहूँ या चंदा, तुझे दीप कहूँ या तारा’, ‘ऐ मेरे प्यारे वतन, ए मेरे उजड़े चमन’ जैसे गाने माँ हमेशा गुनगुनाती रहती थी। वह ब्रजप्रदेश की है इसलिए वहाँ के लोकगीत तो बहुत ही मीठे और जोशीले स्वर में गाती है। लंगुरिया, होरी और गाली(गीत) गाते समय उसका चेहरा देखने लायक होता था। माँ गोरी है और सुंदर भी , गाते समय चेहरा लाल हो जाता। लोकगीतों के साथ-साथ थोड़ी हँसी-ठिठोली तो ब्रजप्रदेश की पहचान है, वह भला उसे कैसे छोड़ती? जैसा लोकगीत हो, वैसे भाव उसके चेहरे पर दिखाई देने लगते।

हम अपने समधी को गारी न दैबे,

हमरे समधी का  मुखड़ा छोटा,

मिर्जापुर का जैसा लोटा….

लोटा कहते-कहते तो माँ हँस- हँसकर लोटपोट हो जाती। ढ़ोलक की थाप इस गारी (गीत) में और रस भर देती थी।

उम्र के साथ माँ धीरे-धीरे कमजोर होने लगी है। कुछ कम दिखाई देने लगा है, थोड़ा भूलने लगी है लेकिन अब भी गाने का उतना ही शौक और आवाज में उतनी ही मिठास। हाँ पहले जैसा जोश अब नहीं दिखता। अक्सर माँ फोन पर मुझसे कहती – ‘बेटा ! संगीत मन को बडी तसल्ली देता है। कभी-कभार अपने को बहलाने के लिए भी गाना चाहिए। जीना तो है ही, तो  खुश रहकर क्यों ना जिया जाए। इस जिंदादिल माँ की आवाज में उदासी मुझे फोन पर अब महसूस होने लगी थी

वह अपने दोनों बेटों के पास है। बहुएँ भी आ गयी हैं , अपने-अपने स्वभाव की। पिता जब तक जिंदा थे माँ अपना सुख-दुख उनसे बाँट लेती थी। उनकी मृत्यु के बाद वह बिल्कुल अकेली पड़ गयी। ‘नाम करेगा रौशन जग में मेरा राज-दुलारा’ गा-गाकर जिन बेटों को पाल-पोसकर बड़ा किया, उनकी बुराई करे भी तो कैसे ? पर वह यह समझने लगी कि अब बेटों को उसकी जरूरत नहीं रही।

माँ उदास होती है तो छत पर बैठकर पुराने गाने गाती है। एक दिन माँ छत पर अकेली बैठी बड़ी तन्मयता से गा रही थी- ‘भगवान ! दो घड़ी जरा इन्सान बन के देख, धरती पर चार दिन मेरा मेहमान बन के देख तुझको नहीं पता कोई कितना……..’

‘निराश शब्द आँसुओं में डूब गया। गीत के बोल टूटकर बिखर रहे थे या माँ का दिल, पता नहीं।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 62 – हाइबन – अफीम ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “अफीम । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 62 ☆

☆ अफीम ☆

अफीम को काला सोना भी कहते हैं । भारत में राजस्थान और मध्यप्रदेश के सीमावर्ती जिले चित्तौड़गढ़ व  नीमच में इसकी भरपूर पैदावार होती है। समस्त प्रकार की दवाएं इसी से बनती है । इसे ड्रग का मूल स्रोत भी कह सकते हैं । इस के फल पर चीरा लगाकर इसे निकाला जाता है। जिसे अफीम लूना कहते हैं । इस फल से पोस्तादाना मिलता हैं । फल का खोल नशे में उपयोग लिया जाता हैं ।

एक फल डोड़े में 4 से 5 चीरे लगाए जाते हैं। एक बार के चीरे में 4 से 5 चीरे लगते हैं। दूसरे दिन सुबह इसी अफीम के दूध को एक विशेष प्रकार के चम्मच से एकत्रित किया जाता है।

अफीम के खेत में सामान्य व्यक्ति आधे घंटे से ज्यादा खड़ा नहीं हो सकता है। अफीम के द्रव की सुगंध से उसे चक्कर आने लगते हैं और वह बेहोश होकर गिर जाता है। मगर इस कार्य में संलग्न व्यक्ति आराम से बिना थकावट के कार्य करते रहते हैं।

अधिकांश बड़े स्मगलर इसी की तस्करी करते हैं । यह सरकारी लाइसेंस के तहत  ₹1500 से लेकर ₹2500 किलो में खरीद कर संग्रहित की जाती है, जबकि तस्कर इसी मात्रा के एक से डेढ़ लाख रुपए तक देते हैं।

खेत में डोड़ें~

अफीम लू रही हैं

दक्ष बालिका ।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 62 – भीगे रिश्ते ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “भीगे रिश्ते।  इस सार्थक  एवं  संवेदनशील लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 62 ☆

☆ लघुकथा – भीगे रिश्ते

 विरोचनी बहुत प्यार करती थी अपने भैया से। न मां जाई और नहीं राखी का बंधन। परंतु जब से गांव से विवाह होकर आई थी, पति के खास दोस्त प्रधान से उसका भाई बहन का रिश्ता बन चुका था।

प्रधान पति देव का एक मात्र खास दोस्त पहली बार जब वह विरोचनी के घर आया।  वह अनायास ही वह देखती रह गई।

क्योंकि वही कद काठी वही मिलती-जुलती सूरत। जैसे उसका अपना भाई गांव में है। विरोचनी ने उसे भैया… कहा और बोली….. शायद सबसे दूर अपने गांव से यहां मुझे आपके रूप में  भाई मिल गया।

बहुत मित्रता थी श्रीकांत और प्रधान में। एक साथ आना – जाना। हमेशा दुख – सुख में शामिल होना। कभी-कभी तो ऐसा होता था कि पति- पत्नी के झगड़ों में भी प्रधान ही निपटारा करता था।

श्रीकांत भी अपने दोहरे रिश्ते से खुश था, क्योंकि विरोचनी को बहुत प्यार करता था। उसे लगता था उसे अपने भाई के रूप में उसका दोस्त मिल गया है।

प्रधान भैया अपने पारिवारिक कारणों की वजह से विवाह नहीं किए थे। और ना ही करना चाहते थे।

दोनों दोस्तों में बहुत ज्यादा प्यार था। सप्ताह में एक दिन ऑफिस से प्रधान विरोचनी और उनके दोनों छोटे बच्चों के लिए कुछ ना कुछ जरूर लेकर आता था। कभी बारिश में भीग जाए तो श्रीकांत के कपड़े पहन कर चला जाता था। कभी जरूरत पड़े तो श्रीकांत प्रधान के घर पर ही खाना खाकर आ जाता था।

ऑफिस में कुछ दिनों से लगातार उठा-पटक चल रही थी। किसी बात को लेकर बड़े अधिकारी के बीच श्रीकांत की अच्छी खासी बहस चल पड़ी। परंतु प्रधान देखता रहा कुछ भी नहीं बोला। इस बात से श्रीकांत थोड़ा चिढ़ गया और और दोस्तों के बीच मनमुटाव हो गया।

आना-जाना बंद, बातचीत बिल्कुल बंद। विरोचनी कभी अपने पति से पूछती…. कि भैया क्यों नहीं आ रहे हैं?? वह कह देता…. आजकल ऑफिस में काम बहुत हो गया है शायद इसलिए समय नहीं निकाल पा रहा।

एक दिन अचानक अस्पताल में प्रधान और श्रीकांत – विरोचनी की मुलाकात हो गई। बहन ने भैया को देखते ही कहा…. आप घर क्यों नहीं आ रहे हैं? घर आइए मैं जल्दी में हूँ, बाकी बातें घर पर होंगी। परंतु दोस्तों के बीच कोई संवाद नहीं था।

एक दिन बहुत जोरों की बारिश हो रही थी। सर से पांव तक प्रधान भैया भीगे हुए घर आए। विरोचनी ने देखा खुश होकर दरवाजे से बोली…. अंदर आइए परंतु प्रधान ने बहाना बनाया और बोला… मैं बारिश में बहुत भीगा हुआ हूं। फर्श गीला खराब हो जायेगा। यह बच्चों का सामान और एक पॉलिथीन में कुछ खाने का पैकेट लेकर दे दिया और जाने लगे।

विरोचनी ने उसके हाव-भाव को देखकर कहा… आज सचमुच आप बारिश से भीगे हैं। अभी तक आप रिश्ते से भीगे थे।

पलट कर वापस जाने की प्रधान की हिम्मत नहीं हुई। बरसाती पहने पहने ही वह अंदर आकर कुर्सी पर बैठ गया और कह उठा… मुझे माफ करना बहन। कमरे के अंदर श्रीकांत पेपर पढ़ रहा था। आवाज सुन बाहर आ गया और बोला.. दोस्त भीगे फर्क तो अभी सूख जाएंगे।और साफ भी हो जायेगा। परंतु अभी तक जो मन सूख रहा था उसे तुमने फिर से खींचकर हरा-भरा गिला कर दिया।

विरोचनी को कुछ समझ नहीं आया। श्रीकांत ने ठहाके लगाते हुए कहा.. भैया आए हैं गरमा गरम पकोड़े और चाय का इंतजाम करो। अभी लाई.. और फिर हँसी गूँज उठी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-4 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय  भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-4

अब तूफ़ान थम चुका था। उनके सारे सपने बिखर गये थे। वे वापस  लौट चलें थे।  अपने गाँव की उन गलियों की ओर जिसके निवासियों ने उन्हें अपार स्नेह दिया था। वहीं पर उनके अपने ने घृणा नफरत का उपहार दिया था।उन्हें प्रांगण से ‌बाहर निकलता देख रामखेलावन की जान में जान आई थी,और तुरंत मंचासीन हो अपनी कुर्सी संभाल चुके थे। प्रतियोगियों को पुरस्कृत भी किया था।  लेकिन उनके हृदय का सारा उत्साह जाता रहा था।  उन दोनों बाप बेटों के मन में अपने ही विचारों के  अंतर्द्वंद्व की  आँधियां चल रही थी।  दोनों की व्यथा अलग अलग थी। रामखेलावन सोच रहे थे कि यही स्थिति रही तो एक न एक दिन बूढ़ा बेइज्जती कर ही देगा। पिता जी के आचरण से मुझे अपमानित होना पड़ेगा। उन्होंने अपने मन‌ में झूठी शानो-शौकत तथा बड़प्पन का दंभ पाल लिया था।वे शायद यह भूल चुके थे कि वह आज जो कुछ भी है,वह रघूकाका के त्याग तपस्या व व्यवहार का परिणाम था। उसी के चलते ऊँचा ओहदा ऊँची कुर्सी मिली थी। वे आज दृढ़ निश्चय कर घर को चले थे कि अब और नहीं वे आज ही बुढऊ की ढोल खूंटी पर टांग देंगे। एक तरफ जहां रामखेलावन के‌ हृदय में आक्रोश की ज्वाला क्षोभ का लावा उबाल मार रहा था, वहीं  रघूकाका किसी हारे हुए जुआरी की तरह  ‌बोझिल कदमों से घर लौट रहे थे

ऐसा लगा जैसे ‌जीवन के जुये में एक ही दांव पर वे अपना सब कुछ अपनी ‌सारी पूँजी एक बार में ही हार बैठे हों। आज चोट बलिष्ठ शरीर पर नहीं भावुक दिल पर लगी थी। वे सोच रहे थे कि काश उस दिन अंग्रेजों की एक गोली उनके छाती में उतर गई होती तो अपमान जनक जिंदगी से सम्मानजनक मौत भली होती। इस प्रकार भावनाओं के भंवर में ‌डूबते उतराते ही रघूकाका घर  पहुँचे थे। तब तक राम खेलावन का तांगा भी घर के दरवाजे पर आ लगा था।

लालटेन की‌ पीली जलती हुई लौ की रोशनी के साये में उन दोनों बाप-बेटे का‌ सामना हुआ था।

एक ही रोशनी में बाप बेटों का रंग अलग अलग दिख रहा ‌था। रघूकाका का चेहरा जहां जूड़ी के बुखार के मरीजों की तरह पीला म्लान एवम् उतरा दीख रहा था, वहीं रामखेलावन के चेहरे की‌ भाव भंगिमा बता‌ रही थी कि आक्रोश की आग में  जलते दहकतेअंगारों सी लालिमा लिए रामखेलावन रूपी उगता सूरज आज अवश्य कहर ढायेगा ।

रघूकाका के सामने आते ही ना दुआ ना सलाम फट पड़े थे बारूद के गोले की तरह रामखेलावन – “का हो बुढ़ऊ!  काहे हमरे इज्जत के कबाड़ा करत हउआ,अब तक ई ढोल रख द, तोहार सारी कमी हम पूरा करब।”

अब रघूकाका से भी रहा नहीं गया।

उनके हृदय में पक कर मथ रहा भावनाओं का‌ फोड़ा फूट‌ पडा़ और वे भी अपने ‌ताव में आ गये और बोल पडे़ – “राम खेलावन जी, आज ई जे कुर्सी  तोहके मिलल ह, ई
एही ढोल के कमाई ह, हमें खुशी तो तब होत जब तूं सारे समाज के सामने सीना तान के कहता कि हम‌ एगो आल्हा गावे‌ वाला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के लडिका हई, जेवन
अपने मेहनत अ इनके ‌परिश्रम के पसीना से इहा तक पहुंचल हइ,। औ अपने समाज के उदाहरन‌ बनता, लेकिन जे समाज में अपना बाप के बाप ना कहि‌ सकल उ बेटा के रिस्ता का निभाई,जा बेटा‌ तू आपन सम्मान के‌ जिनगी में सुखी रहा, हमें हमरे हाल पे छोडि दा  तू भले छूटि जईबा लेकिन  ई समाज अ ढोलक हम ना छोडि पाईब” इस ‌प्रकार रघूकाका के व्यंगबाणो ने रामखेलावन को आहत तो किया ही । निरूत्तर भी,और बह चली उस सेनानी की आंखों से अश्रु धारा और फिर एक बार लौट चलें अपनी‌ सहचरी  ढोल को कंधे पे‌ लटकाये नीम स्याह काले घने अंधेरे के बीच जीवन की पथरीली राहों पर अपने जीवन की नई राह तलाशने। उस राह पे चल पड़े उल्टे पांव जिस राह से चलकर वे घर आये थे।

उन्होंने उस नीम अंधेरी घनी  काली आज की ‌रात  अपने मन में मचलते अंतर्दद्व के साथ शिवान में खेतों बीच बने भग़्न शिवालय में ‌बिताने का निश्चय कर लिया था। आखिर वे जाते भी तो कहां ? राम खेलावन की उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं हुई थी। वो सोच रहे थे कि कल की मंजिल सुबह की सूर्योदय के साथ नई उम्मीद के सहारे ढ़ूढ़ ही लेंगे ।
वो मंदिर के बरामदे में बैठे कुछ सोच रहे थे। गतिशील समय के साथ रात गहराती जा रही‌ थी और उसी गहराती रात के साथ रघूकाका के हृदय का अंतर्दद्व तीव्र हो चला था। उसी अंतर्दद्व में फँसे अपनी स्मृतियों डूबते चले गये थे। जब विचारों की गहनता बढ़ी तो रघूकाका के‌ स्मृतिपटल पर पत्नी का  चेहरा नर्तन कर उठा।  ऐसा लगा जैसे वे उन बीते पलों से संवाद कर उठे हो।

उन्हें पत्नी के साथ बिताए ‌पल हंसाने व रूलाने लगे थे।  सहसा उनके स्मृति में पत्नी के मृत्यु के समय का दृश्य उभर आया थाऔर जीवन के आखिरी पल में कहे पत्नी के शब्द याद आ रहे थे।

आखिरी समय में उनकी पत्नी ने प्यार से उनका हाथ थामते हुए आशा भरी नजरों से उन्हें देखते हुए कहा था “देखो जी रामखेलावन अभी बच्चा है इसे पाल पोस कर अच्छा इंसान ‌बनाना , . मेरे मरने पर इसी के‌ सहारे जीवन बिताना। अपना बुढ़ापा काटना। लेकिन दूसरी शादी मत करना।”

इसके बाद वह कुछ नहीं कह पाई क्यो कि रघूकाका ने उसको ओंठो पर अपना हाथ रख दिया।अब जीवन के आखिरी पलों में बिछोह‌ पीड़ा का भाव रघूकाका के हृदय में कटार की तरह चुभ रहे थे, जिसे सहने में वे असहाय नजर आ रहे थे। और फिर अगली सुबह उनकी पत्नी उनको रोता बिलखता छोड़ नश्वर संसार से बिदा हो गई।

क्रमशः …. 5

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ शिक्षक दिवस विशेष – लघुकथा – स्टेटस ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

(  श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा शिक्षक दिवस पर रचित विशेष लघुकथा  ‘स्टेटस’  हमें वर्तमान जीवन में मानवीय दृष्टिकोण के कटु सत्य से रूबरू कराती है । बंधुवर  श्री सदानंद जी  की यह लघुकथा पढ़िए और स्वयं तय करिये। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

शिक्षक दिवस विशेष – लघुकथा– स्टेटस


” भाईयों और बहिनों, शिक्षक तो भगवान से भी बड़ा होता है, भगवान जन्म देता है पर शिक्षक तो मनुष्य को गढ़ता है। आज शिक्षक दिवस पर  जिन रामस्वरूप जी के सम्मान हेतु हम सब एकत्रित हैं उन्हीं ने मुझ अनगढ़ को बनाया है जिसके कारण आज मैं सफलता की इस चोटी पर हूं। यदि ये न होते तो मेरा जीवन क्या और कहां होता, इसलिये धन्य हैं ये हमारे शिक्षक । काश  मेरे घर में भी इन जैसा कोई शिक्षक होता तो मेरा जीवन सफल हो जाता।”

तालियों की गड़गड़ाहट के बीच शहर के सराफा संघ, स्टाॅक एक्सचेंज और अनेक संस्थाओं के अध्यक्ष, नगर सेठ मनोहर लाल का भाषण  पूरा हुआ।

आज शिक्षक दिवस के अवसर पर सम्मान समारोह की अध्यक्षता कर रहे सेठ मनोहरलाल ने हाथ जोडते हुये समारोह से बिदाई ली और कार की ओर बढने लगे। पंडाल से निकलते हुये उन्होंने देखा कि  रामस्वरूप जी पीछे चल रहे उनके सचिव दीक्षित से कुछ खुसुर-पुसुर कर रहे हैं।

सबके कार में बैठते ही कार चल पडी तो मनोहरलाल जी ने आगे बैठे दीक्षित से पूछा- अरे दीक्षित, वो मास्टर तुमसे क्या बात कर रहा था भाई ?

दीक्षित ने पीछे मुड कर कहा – अरे सर, आपकी बातों से प्रभावित होकर मास्टर रामस्वरूप जी ने मुझे कहा कि उनका एक बेटा है जो बाहर शासकीय हाई स्कूल में शिक्षक है और यदि हम चाहें तो आपकी बिटिया से उसके विवाह के लिये बात कर सकते हैं। उन्हें बडा अच्छा लगेगा।

एक रहस्यमय मुस्कुराहट के साथ मनोहरलाल ने कहा- पर हमें अच्छा नहीं लगेगा दीक्षित ! अरे भाई शहर के अरबपति सेठ मनोहरलाल का दामाद एक मास्टर का छोरा, वो खुद भी मास्टर !! जितने कमरे उनके घर में हैं उससे ज्यादा तो मेरे यहां बाथरूम हैं दीक्षित !! ठीक है, उन्होंने मुझे स्कूल में पढाया है पर पैसा तो मैंने अपनी मेहनत से कमाया है। भाषण देना अलग बात है, फिर सोचो लोग क्या कहेंगे मुझे, अरे आखिर हमारा भी तो कोई स्टेटस है ।

दीक्षित चेहरे पर असमंजस के भाव लिये उन्हें देखता रह गया।

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखंड)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ समझ समझकर.. ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ समझ समझकर.. ☆

प्रातः भ्रमण कर रहा हूँ। देखता हूँ कि लगभग दस वर्षीय एक बालक साइकिल चला रहा है। पीछे से उसी की आयु की एक बिटिया बहुत गति से साइकिल चलाते आई। उसे आवाज़ देकर बोली, ‘देख, मैं तेरे से आगे!’ इतनी-सी आयु के लड़के के ‘मेल ईगो’ को ठेस पहुँची। ‘..मुझे चैलेंज?… तू मुझसे आगे?’  बिटिया ने उतने ही आत्मविश्वास से कहा, ‘हाँ, मैं तुझसे आगे।’ लड़के ने साइकिल की गति बढ़ाई,.. और बढ़ाई..और बढ़ाई पर बिटिया किसी हवाई परी-सी.., ये गई, वो गई। जहाँ तक मैं देख पाया, बिटिया आगे ही नहीं है बल्कि उसके और लड़के के बीच का अंतर भी निरंतर बढ़ाती जा रही है। बहुत आगे निकल चुकी है वह।

कर्मनिष्ठा, निरंतर अभ्यास और परिश्रम से लड़कियाँ लगभग हर क्षेत्र में आगे निकल चुकी हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था लड़के का विलोम लड़की पढ़ाती है। लड़का और लड़की, स्त्री और पुरुष विलोम नहीं अपितु पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा। महादेव यूँ ही अर्द्धनारीश्वर नहीं कहलाए। कठिनाई है कि फुरसत किसे है आँखें खोलने की।

कोई और आँखें खोले, न खोले, विवाह की वेदी पर लड़की की तुला में दहेज का बाट रखकर संतुलन(!) साधनेवाले अवश्य जाग जाएँ। आँखें खोलें, मानसिकता बदलें, पूरक का अर्थ समझें अन्यथा लड़कों की तुला में दहेज का बाट रखने को रोक नहीं सकेंगे।

समझ समझकर समझ को समझो।…भाई लोग, क्या समझे!

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 7:43 बजे, 3.9.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ अगले बरस तू जल्दी आ ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(  श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित यह समसामयिक लघुकथा ‘अगले बरस तू जल्दी आ’ हमें वर्तमान जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती है । बंधुवर  श्री सदानंद जी  की यह लघुकथा पढ़िए और स्वयं तय करिये। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

 लघुकथा  – अगले बरस तू जल्दी आ

पवित्र कैलाश  पर्वत की श्वेत चोटी पर सविता देवता की प्रथम रश्मियों के आगमन के साथ ही भगवान शिव  गुफा से बाहर आये तो देखा गणाधीश  विनायक का पृथ्वी से आगमन हो चुका है।

भोले नाथ से प्रसन्न वदन से पूछा – कहो वत्स इस बार कैसी रही पृथ्वी की यात्रा ?

पिता का चरण वंदन कर गणनाथ ने शून्य  में देखते हुये अनमने भाव से कहा – ठीक ही रही पिताश्री।

महादेव ने कुछ चिंता से पूछा – क्या बात है पुत्र कुछ अप्रसन्न दिख रहे हो? क्या इस बार भारत भू पर तुम्हारी उचित उपासना नहीं हुई?

मंगलमूर्ति ने नीची दृष्टि से ही उत्तर दिया – उपासना तो सदैव की भांति हुई किंतु इस बार उस पुण्यभूमि भारतवर्ष  एवं शेष  क्षेत्रों में स्थिति को देखकर मुझे मानव पर बहुत दया आई।

भगवान गंगाधर ने पूछा – अरे, ऐसा क्या हो गया ? सब कुशल तो है ? किसी देवता ने कोई श्राप आदि तो नहीं दिया ?

गणनाथ ने बहुत धीमे स्वर कहा – ऐसा तो लगता नहीं है, पर भारत माता के सब पुत्र बहुत कष्ट में हैं। इन दिनों पूरी धरती पर एक भयावह बीमारी चल रही है जिसके कारण भगवान ब्रह्मा की बनाई धरती पर हाहाकार मचा हुआ है। इस बार भारतवर्ष  में मेरी स्थापना भी बहुत कम स्थानों पर हुई है। इसके अतिरिक्त पूरे देश  में मुझे जलप्रलय की सी स्थिति दिखाई दी, चहुंओर असुरक्षा, महिला उत्पीडन, हत्या की अनेक घटनायें, बड़े बड़े  देश एक दूसरे से युद्ध को उद्यत दिख रहे थे। उस बीमारी के संकट के कारण गरीब मनुष्य  की तो छोड़ें पूरे संसार की अर्थव्यवस्था संकट में आ गई है। अनेकानेक लोगों के सेवा और व्यवसाय बंद हो गये हैं। कुल मिलाकर बहुत ही चिंताजनक स्थिति निर्मित दिखाई दी और जब कल अंतिम दिन बिदाई के समय भक्तों ने कहा – अगले बरस तू जल्दी आ तो मेरा मन भर आया कि ऐसी विपरीत स्थिति में मैं कैसे फिर जाऊंगा !!!!  पिताश्री ये ऐसी स्थिति क्यों हुई है ?

यह सुनकर भोलेनाथ ने गंभीर होकर उत्तर दिया – तो यह बात है , पुत्र, यह सब मानव का ही किया हुआ है, अनियमित-असंयमित जीवन, प्रकृति का दोहन, अति लालसा के कारण अपराध, इन सबकी परिणति इस रूप में है। इसके लिये मनुष्य  को स्वयं ही प्रयास करने होंगे, अपना दृष्टिकोण बदलना होगा तो हम भी उनका साथ देंगे, अन्यथा मेरी बनाई हुई व्यवस्था के अनुसार मनुष्य  को महाविनाश  के लिये तैयार रहना होगा- – –
कहते कहते भगवान शिव  की मुख मुद्रा भी गंभीर होती चली गई।   .  .  .  .  .  .  .  .  .

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार (उत्तराखंड)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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