श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
पुनर्पाठ –
☆ संजय दृष्टि ☆ एक पत्र- अनाम के नाम ☆
(ब्लू व्हेल के बाद ‘हाईस्कूल गेम’ अपनी हिंसक वृत्ति को लेकर चर्चा में रहा। इसी गेम की लत के शिकार एक नाबालिग ने गेम खेलने से टोकने पर अपनी माँ और बहन की नृशंस हत्या कर दी थी। उस घटना के बाद लेखक की प्रतिक्रिया, उस नाबालिग को लिखे एक पत्र के रूप में मे कागज़ पर उतरी ।)
प्रिय अनाम..,
अपने से छोटे को यही संबोधन लिखने के अभ्यास के चलते लिखा गया ‘प्रिय’..पर नहीं तुम्हें ‘प्रिय’ नहीं लिख पाऊँगा। घृणित, नराधम, बर्बर जैसे शब्दों का भी प्रयोग नहीं कर पाऊँगा क्योंकि मेरे माता-पिता ने मुझे कटुता और घृणा के संस्कार नहीं दिये। वैसे एक बात बताना बेटा…!!! …, हाँ बेटा कह सकता हूँ क्योंकि बेटा श्रवणकुमार भी हो सकता है और तुम्हारे जैसा दिग्भ्रमित क्रूरकर्मा भी।….और मैंने देखा कि तुम्हारी कल्पनातीत नृशंसता के बाद भी टीवी पर तुम्हारा पिता, तुम्हें ‘मेरा बेटा’ कह कर ही संबोधित कर रहा था। …सो एक बात बताना बेटा, कटुता और घृणा के संस्कार तो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें भी नहीं दिये थे, हिंसा के तो बिलकुल ही नहीं। फिर ऐसा क्या भर गया था तुम्हारे भीतर जो तुमने अपनी ही माँ और बहन को काल के विकराल जबड़े में डाल दिया!…उफ़!
जानते हो, आज सुबह अपनी सोसायटी के कुछ बच्चों को अपने-अपने क्रिकेट बैट की तुलना करते देखा। एक बच्चा बेहतर बैट खरीदवाने के लिए अपनी माँ से उलझ रहा था। माँ उसे आश्वासन दे रही थी कि उसे अच्छा, ठोस, मज़बूत और चौड़ा बैट खरीदवा देगी। अपनी माँ की हत्या करते समय तुम्हारे हाथ में जो बैट था, वह भी ठोस, मज़बूत और चौड़ा ही था न बेटा!…याद करो, बैट माँ ने ही दिलवाया था न बेटा!
माँ के आश्वासन के बाद उलझता यह बच्चा भी खुश हो गया। मैं सोच रहा था, कौन जाने उसके मस्तिष्क में तुम रोल मॉडेल की तरह बस जाओ। कहीं वह भी अभी से अपनी माँ के माथे की चौड़ाई और बैट की चौड़ाई की तुलना कर रहा हो। बैट इतना चौड़ा तो होना ही चाहिए कि एक ही बार में माँ का काम तमाम।…सही कह रहा हूँ न बेटा!
माँ ने शायद तुम्हें ‘हाईस्कूल गेम’ खेलने से रोका था। उन्हें डर था कि इस हिंसक खेल से तुम्हारे दिलो-दिमाग में हिंसा भर सकती है। तुम कहीं किसी पर अकारण वार न कर दो। गलती से, उन्माद में किसी की हत्या न कर बैठो।…माँ का डर सही साबित हुआ न बेटा!
जानकारी मिली है कि रोकने पर भी तुम्हारे ‘हिंसक गेम’ खेलते रहने पर चिंतित माँ ने तुम्हें एक-दो तमाचे जड़ दिये थे। तुम्हारी पीढ़ी, हमारे मुकाबले अधिक गतिशील है। हमने मुहावरा पढ़ा था, ‘ईंट का जवाब, पत्थर से दो’ पर तुमने तो चिंता का जवाब चिता से दे दिया दिया। इतनी गति भी ठीक नहीं होती बेटा!
.. और माँ ही क्यों..? वह नन्ही परी जो जन्म से तुम्हें राखी बाँधती आई, जिसने तुम्हें हमेशा रक्षक की भूमिका में देखा, जो संकट में तुम्हारी ओट को सबसे सुरक्षित स्थान समझती रही, ओट में ले जाकर उसकी ही अँतड़ियाँ तुमने बाहर निकाल दीं…बेटा!
खास बात बताऊँ, मरकर भी दोनों के मन में तुम्हारे लिए कोई दुर्भावना नहीं होगी। उनकी आत्मा चाहेंगी कि मेरे बेटे, मेरे भाई को दंड न हो, वह निर्दोष छूट जाए। सब कुछ लुट जाने के बाद तुम्हारा पिता भी तो यही चाहता है बेटा!
एक बात बताओ, खून से लथपथ माँ और बहन के पेट में कैंची और पिज्जा काटने का चाकू घोंपकर उनका मरना ‘कन्फर्म’ करते समय एक बार भी मन में यह विचार नहीं उठा कि इसी पेट में नौ महीने तुम पले थे बेटा!
तुम्हें जानकारी नहीं होगी इसलिए बता देता हूँ। मादा बिच्छू जब संतानों को जन्म देती है तो नवजात बच्चे उसकी पीठ से चिपक जाते हैं। ये भूखे नवजात धीरे-धीरे माँ का पूरा शरीर खा जाते हैं। बच्चे को पालने के लिए माँ का मर जाना! …बिच्छू समझते हो न बेटा!
बहुत भयानक दंंश होता है बिच्छू का। पंद्रह वर्ष बच्चे को बड़ा करने के बाद उसीके हाथों अपना पेट फड़वाने से बेहतर है कि आनेवाले समय में स्त्री अपना पेट फाड़कर ही बच्चे को जन्म देने लगे। संतान का आगमन, माँ का गमन! ठीक कह रहा हूँ न बेटा!
ये बात अलग है कि तब संतानें पल नहीं पायेंगी। उन्हें अपने रक्त-माँस का दूध कर पयपान कौन करवायेगा? अपनी गोद में घंटों थपकाकर सुलायेगा कौन? खानपान, पसंद-नापसंद का ध्यान रखेगा कौन? ऐसे में तो माँ के चल बसने के कुछ समय बाद संतान भी चल बसेगी। न बाँस, न बाँसुरी, न सृष्टि का मूल, न सृष्टि का फूल! यही चाहते हो न तुम बेटा!
यही चाहते हो न तुम कि सृष्टि ही थम जाये। माँ न हो, बहन न हो, बेटी न हो, कोई जीव पैदा ही न हो। लौट जायें हम शून्य की ओर!…एक बात कान खोलकर सुन लो, अपवाद से परंपराएँ नहीं डिगतीं। निरी आँख से न दिखनेवाले सूक्ष्म जंतुओं से लेकर मनुष्य और विशालकाय हाथी तक में माँ और बच्चे की स्नेह नाल समान होती है। तुम्हारे कुत्सित अपवाद से अवसाद तो है पर सब कुछ समाप्त नहीं है।
…सुनो बेटा! अपनी माँ और बहन को खो देने का दुख अनुभव कर रहे हो न! ‘नेवर एंडिंग’ मिस कर रहे हो न। एक रास्ता है। उनकी ममता और स्नेह को मन में संजोकर तुम पार्थिव रूप से न सही परोक्ष रूप से माँ और बहन को अपने साथ अनुभव कर सकते हो। तुम्हारा जीवन सुधर जाये तो वे मरकर भी जी उठेंगी।
सद्मार्ग से आगे का जीवन जीने का संकल्प लेकर अपनी माँ और बहन को पुनर्जीवित कर सकते हो।…..करोगे न बेटा..!!
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆