हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 74 ☆ किस्सा दुखीराम सुखीराम का ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  ‘किस्सा दुखीराम सुखीराम का’।  इस विशिष्ट रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 74 ☆

☆ किस्सा दुखीराम सुखीराम का

एक गाँव में दो आदमी रहते थे। एक दुखीराम, दूसरा सुखीराम। दुखीराम गरीब था, मेहनत-मजूरी करके अपना पेट भरता था। सुखीराम धन-संपत्ति वाला, बड़ी हवेली में रहता था।

लेकिन दरअसल दुखीराम और सुखीराम दोनों ही दुखी थे। दुखीराम इसलिए कि गरीब होने के बावजूद उसे राक्षसी भूख लगती थी। रोटियों की गड्डी मिनटों में ऐसे ग़ायब होती जैसे किसी जादूगर ने अपनी छड़ी घुमा दी हो। अपना भोजन उदरस्थ कर वह परिवार के दूसरे सदस्यों के भोजन की तरफ टुकुर टुकुर निहारता बैठा रहता। कोई सदस्य नाराज़ होकर हाथ रोक कर अपनी थाली उसकी तरफ सरका देता और दुखीराम झूठा संकोच दिखाता फिर खाने में जुट जाता।

परिवार के लोग दुखीराम की विकराल भूख से परेशान थे। उसकी मजूरी अकेले उसी के लिए काफी न होती। गाँव के लोग भोज में उसे बुलाने से कतराते थे। रिश्तेदार भी उसे अपने यहाँ बुलाने से बचते थे। जिस घर में उसके चरण पड़ते वहाँ मातम छा जाता।

गाँव के दूसरे छोर पर अपनी विशाल हवेली में सुखीराम रहता था। सुखीराम सब तरह से सुखी था। किसी चीज़ की कमी नहीं थी। घर में दूध-दही की नदियाँ बहती थीं। एक ही रोना था कि सुखीराम को भूख नहीं लगती थी। घर में छप्पन भोजन तैयार होते, लेकिन सुखीराम को उनकी तरफ देखने का मन न होता। किसी तरह एकाध रोटी हलक़ से उतरती। इस चक्कर में सुखीराम ने जाने कितने चूर्ण और भस्म फाँक लिये, लेकिन भूख को नहीं जागना था, सो नहीं जागी। हवेली में सभी लोग परेशान थे। भगवान ने सब कुछ दिया, लेकिन तन में कुछ पहुँचता नहीं। ऐसी समृद्धि किस काम की?

दुखीराम और सुखीराम दोनों ही परेशान थे, एक अपनी सर्वग्रासी भूख से तो दूसरा भूख की बेवफाई से। दोनों ही चिन्ताग्रस्त थे। एक भगवान से भूख घटाने की प्रार्थना करता तो दूसरा भूख बढ़ाने की।

आखिर उनकी प्रार्थना सुनी गयी और एक रात भगवान दोनों के सपने में आये। दोनों ने अपनी अपनी व्यथा सुनायी। भगवान पशोपेश में। एक चाहे भूख कम करना, दूसरा चाहे भूख बढ़ाना। एक की भूख गरम तो दूसरे की नरम। अन्ततः उनकी प्रार्थना मंज़ूर हो गयी। दुखीराम की जठराग्नि सुखीराम के शरीर में स्थानांतरित हो गयी और सुखीराम की जठराग्नि दुखीराम के शरीर में।

दूसरे दिन उठे तो दोनों का व्यवहार आश्चर्यजनक। दुखीराम भोजन की तरफ पीठ फेर कर बैठ गया और सुखीराम दौड़ दौड़ कर भोजन पर हाथ साफ करने लगा। बड़ी मुश्किल से यह शुभ दिन आया था। दोनों के परिवार परम प्रसन्न। दोनों के परिवारों ने मन्दिर जाकर भगवान को धन्यवाद दिया और प्रसाद चढ़ाया। इस चमत्कार के बाद दोनों परिवार दीर्घकाल तक सुखी रहे।

जैसे दुखीराम सुखीराम के दिन बहुरे ऐसे ही सब के बहुरें।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ किताबें ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा  ”किताबें ”। )

☆ लघुकथा – किताबें ☆ 

वे पाँच थे. पाँचों मिलकर अपनी-अपनी तरह से किताबों की व्याख्या कर रहे थे.

पहला बोला- “किताबें भविष्य की निर्माणी हैं. समय की चाबी हैं. किस्मत का दरवाजा यानी खुल जा सिम- सिम हैं.”

दूसरा बोला – “दरअसल हम किताबें नहीं पढ़ते बल्कि किताबें हमें पढ़ती हैं.”

तीसरा – “समय की पहरुयें है किताबें.”

चौथा – “किताबें हूर हैं.”

पांचवा – “चलो जी, अब बहुत हो गई किताबों की चमचागिरी. कल से पेट में दाना नहीं गया है. खाली पेट किताबें नहीं पढ़ी जा सकती. ये बोरे में भरी किताबें कबाड़ी को बेचने जा रहा हूँ, ताकि भोजन का ताना बाना बुना जा सके.”

किताबें भूख की बलि चढा दी गई.

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 69 ☆ लघुकथा – कोठे की शोभा ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं उनकी एक सार्थक लघुकथा  “कोठे की शोभा। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 69 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – कोठे की शोभा ☆

हर वर्ष की तरह इस बार भी कालेज में डांस कंपटीशन  हुआ । हर बार की तरह   प्रतिभाओं की भी कोई कमी नहीं थी।  परन्तु  स्निग्धा उन सबसे अलग साबित हुई । उसके  नृत्य ने सबका मन मोह लिया ।इतनी छोटी सी उम्र में उसके पांवों की थिरकन और वाद्यों की सुरताल के साथ उनका सामंजस्य अदभुत था । निर्णायको ने एक मत से उसे विजेता घोषित करने में जरा भी देर नहीं की । कालेज का खचाखच भरा हाल इस निर्णय पर देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा । इतना ही नहीं उसे अंतर्विश्वविद्यालयीन  प्रतियोगिता के लिए भी नामांकित कर दिया गया ।

पुरस्कार देते समय मंच पर जज महोदय ने कहा ‘बेटा  ! इस अवसर पर हम चाहते हैं कि आपकी माता जी को भी सम्मानित किया जाय क्योंकि आपकी इस प्रतिभा को निखारने में उनका योगदान निश्चय ही सबसे अधिक रहा होगा ।यदि वे यहां उपस्थित हों तो उन्हें भी मंच पर बुलाइए । उस महान हस्ती से हम भी  मिलना चाहेंगे । ”

तभी  नीचे से आवाज आईं ,” सर , स्निग्धा  डांस इसलिए अच्छा करती है , क्योंकि इनकी माता जी किसी कोठे की शोभा हैं । वे स्निग्धा के किसी कार्यक्रम में नहीं जातीं क्योंकि ,  कोठे की शोभा कोठे में ही शोभा देती है।”

जजों के साथ ,सारा कक्ष इस सूचना से हतप्रभ था ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 51 ☆ लघुकथा – चकनाचूर सपनें ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं और स्त्री विमर्श पर आधारित  उनकी लघुकथा ‘चकनाचूर सपनें। ऋचा जी के ही शब्दों में –  “महिलाओं  के  शोषण का यह रूप भी समाज में देखने को मिलता है  । भावनात्मक शोषण  का यह रूप बहुत भयावह होता है क्योंकि अपने ही परिवारजनों द्वारा होने वाले इस कृत्य की  कहीं शिकायत  भी  नही  की जाती   है ।  माँ  पुत्र मोह में  बेटियों के भविष्य का विचार नहीं करती।”डॉ डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण और स्त्री विमर्श परआधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 51 ☆

☆  लघुकथा – चकनाचूर सपनें

दिन भर मशीन की तरह वह एक के बाद एक घर के  काम निपटाती जा रही  थी। उसका चेहरा भावहीन था, सबसे बातचीत भले ही कर रही थी पर आवाज में कुछ उदासी थी। जैसे मन ही मन झुंझला रही हो। उसके छोटे भाई की शादी थी। घर में हँसी मजाक चल रहा था लेकिन वह उसमें शामिल नहीं थी,  शायद वह वहाँ रहना ही नहीं चाहती थी।  कुमुद ऐसी तो नहीं थी, क्या हो गया इसे? मैंने उसकी अविवाहित बडी बहन से पूछा, अरे कोई बात नहीं है, बहुत मूडी है। उसने बात टाल दी। मुझे यह बात खटक रही थी कि दो बडी बहनों के रहते छोटे भाई की शादी की जा रही है। कुमुद के मन में भी शायद ऐसा ही कुछ चल रहा हो? लडकियाँ खुद ही शादी करना ना चाहें तो बात अलग है पर जानबूझकर उनकी उपेक्षा करना? उनकी भी तो कुछ इच्छाएं, कुछ सपने होंगे? खैर छोडो, दूसरे के फटे में पैर कौन अड़ाए ?

शादी के घर में रिश्तेदारों का जमावड़ा हो और आपस में निंदा – पुराण ना हो, ऐसा कभी हो सकता है क्या? महिला संगीत चल रहा था और साथ में महिलाओं की खुसपुसाहट भी – जवान बहनें बिनब्याही बैठी हैं और छोटे भाई की शादी कर रहे हैं माँ – बाप। बड़ी तो अधेड़ हो गई है, कुमुद के लिए तो देखना चाहिए। ढोलक की थाप के साथ नाच – गाने तो चल ही रहे थे, निंदा रस भी खुलकर बरस रहा था। अरे कुमुद ! अबकी तू उठ, बहुत दिन से तेरा नाच नहीं देखा, ससुराल जाने के लिए थोडी प्रैक्टिस कर ले – बुआ ने हँसते हुए कहा। भाभी अब कुमुद के लिए लड़का देखो, नहीं तो यह भी कोमल की तरह बुढ़ा जाएगी नौकरी करते- करते, फिर कोई दूल्हा ना मिलेगा इसे। ढोलक की थाप थम गई और बात चटाक से लगी घरवालों को। नाचने के लिए उठते कुमुद के कदम मानों वहीं थम गए लेकिन चेहरा खिल गया। ऐसा लगा मानों किसी ने तो उसके दिल की बात कह दी हो । वह उठी और दिल खोलकर नाचने लगी।

कुमुद की माँ अपनी ननद रानी से उलझ रही थीं – बहन जी आपको रायता फैलाने की क्या जरूरत थी सबके सामने ये सब बात छेड़कर। इत्ता दान दहेज कहाँ से लाएं दो – दो लडकियों के हाथ पीले करने  को। ऐरे – गैरे घर में जाकर किसी दूसरे की जी- हजूरी करने से तो अच्छा है अपने छोटे भाई का परिवार पालें। छोटे को सहारा हो जाएगा, उसकी नौकरी भी पक्की ना है अभी। कोमल तो समझ गई है ये बात, पर इस कुमुद के दिमाग में ना बैठ रही। खैर समझ जाएगी यह भी —

कुमुद मगन मन नाच रही थी। ढोलक की थाप और तालियों के शोर में माँ की बात उसे  सुनाई नहीं दे रही थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ जगह ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

( संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम  साहित्यकारों ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा  ”जगह”। )

☆ लघुकथा – जगह ☆ 

उसके पास कुल  जमा ढाई कमरे ही तो हैं.  एक कमरे में बहू बेटा सोते हैं तो दूसरे में वे बूढ़ाऔर बूढ़ी. उनके  हिस्से में एक पोती  भी है जो पूरे पलंग पर लोटती रहती है. बाकी बचे आधे कमरे में उनकी रसोई और उसी में उनका घर गृहस्थी का सामान  ठूंसा पड़ा रहता है.

“कहीं दूसरा बच्चा आ गया तो…” पलंग पर दादी अपनी  पोती  को खिसकाकर देखती है.

“बच्चे के फैल पसरकर सोने से हममें से एक को जागना पड़ता है” – दादा कहता है.

“दूसरे बच्चे के आने पर तो हम दोनों को ही जागना पड़ेगा” – दादी बोलती है.

“तब तो हमारे लिए पलंग पर जगह ही नहीं बचेगी”.- दोनों एक साथ बोलते हैं.

“भागयवान सारा झगड़ा इस जगह का ही तो है. जब तीसरी पीढ़ी जगह बनाती है, तो पहली जगह गँवाती है”.

“न जाने कैसी  हवा चली है कि आजकल बहुएं बच्चों को अपने पास नहीं सुलाती, वरना थोड़ी जगह हम बूढा-बूढ़ी को भी नसीब न हो जाती”.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 69 – दूजा राम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं भाई बहिन के प्यार की अनुभूति लिए एक अतिसुन्दर लघुकथा  “दूजा राम।  कई बार त्योहारों पर और कुछ विशेष अवसरों पर हम अपने रिश्ते  निभाते कुछ नए रिश्ते अपने आप बना लेते हैं। शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है। इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 69 ☆

☆ लघुकथा – दूजा राम ☆

वसुंधरा का ससुराल में पहला साल। भाई दूज का त्यौहार। अपने मम्मी-पापा के घर दीपावली के बाद भाई दूज को धूमधाम से मनाती थी। परंतु ससुराल में आने के बाद पहली दीपावली पर घर की बड़ी बहू होने के कारण दीपावली का पूजन बड़े उत्साह से अपने ससुराल परिवार वालों के साथ मनाई।

ससुराल का परिवार भी बड़ा और बहुत ही खुशनुमा माहौल वाला। सभी की इच्छा और जरूरतों का ध्यान रखा जाता। हमउम्र ननद और देवर की तो बात ही मत कहिए। दिन भर घर में मौज-मस्ती का माहौल बना रहता।

परंतु भाई दूज के दिन सुबह से ही अपने छोटे भाई की याद में वसुंधरा का मन बहुत उदास था। दिन भर घर में भाई के साथ किए गए शैतानी और बचपन की यादों को याद कर वह मन ही मन उदास हो उसकी आँखों में आंसू भर भर जा रहे थे। क्योंकि ये पहला साल हैं जब वह अपने भाई से दूर है।

पतिदेव की बहनें और ननदें अपने भैया को दूज का टीका लगा हँसी ठिठोली कर रहीं  थी।

परंतु बस अपनी भाभी वसुंधरा के चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं ला पा रहे थे। सासु माँ और पतिदेव भी परेशान हो रहे थे। आठ दस ननद देवर भाभी को थोड़ा परेशान देखकर सभी अनमने से थे।

सभी टीका लगा कर उठ रहे थे परंतु एक राम जिनका नाम था बहुत ही समझदार, नटखट और मासूम सा देवर बैठा रहा।

सभी ने कहा… “भाई क्यों बैठा है उठ प्रोग्राम खत्म हो गया।” और एक बार फिर से ठहाका लगा गया।

परंतु अचानक सब शांत हो गए राम ने अपनी भाभी की तरफ ईशारा कर कहा…. “भाभीश्री दूज का चाँद तो मैं नहीं बन पाऊंगा, आपके भाई जैसा, परंतु मुझे दूजा राम समझकर ही टीका लगाओ। तभी मैं यहाँ से उठूंगा।”

वसुंधरा भाभी के बड़े-बड़े नैनों से अश्रुधार बहने लगी।  वह दौड़ कर पूजा की थाली ले आई। दूज का टीका लगाने चल पड़ी। और अपने इस अनोखे रिश्ते को निभाने तैयार हो गई।

तिलक लगा ईश्वर से सारी दुआएं मांगी। घर में सभी बड़े ताली बजाकर आशीष देने लगे। देखते-देखते ही वसुंधरा का चेहरा खिल उठा।

उसे ससुराल में अपने देवर के रुप में भाई दूज पर अपना भाई जो मिल गया दूज का चाँद।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 73 ☆ लघुकथा – मेरे ख़ैरख़्वाह ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक  लघुकथा   ‘मेरे ख़ैरख़्वाह’।  इस हास्य कथा के लिए डॉ परिहार जी के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर और लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 73 ☆

☆ लघुकथा – मेरे ख़ैरख़्वाह

 सबेरे आठ बजे दरवाज़े की घंटी बजी। खोला तो सामने मल्लू था। मुझे देखकर उसने ज़ोर से, जैसे आश्चर्य से, ‘अरे’ कहा और फिर दौड़ कर मुझसे लिपट गया। मैंने घबरा कर उसे पीछे ढकेला, कहा, ’ए भाई, कोरोना काल में लिपटना चिपटना सख़्त मना है। उधर बैठ।’

वह और ज़्यादा मेरी छाती से चिपक गया, विनती के स्वर में बोला, ’थोड़ी देर रुक जाओ, भैया। बड़ी राहत महसूस हो रही है।’

जैसे तैसे उसे अलग करके पूछा,’सबेरे सबेरे इतना इमोशनल क्यों हो रहा है भाई?’

वह सोफे पर बैठकर बड़े भावुक स्वर में बोला,’बात यह है भैया, कि रात को आपके बारे में बहुत बुरा सपना देखा। तीन बजे जो नींद खुली तो सुबह तक चिन्ता के मारे जागता ही रह गया। रात भर दिल में धुकधुक होती रही। यहाँ डरते डरते आया कि पता नहीं क्या देखने को मिले। पता नहीं आपसे भेंट होगी या नहीं। आपको देखा तो जान में जान आयी।’

मैंने हँसकर कहा,’चलो कोई बात नहीं। कहते हैं किसी की मौत की झूठी खबर फैलने से उसकी उम्र बढ़ जाती है।’

मल्लू बोला,’ठीक कहते हैं, लेकिन मैं इसलिए परेशान हूँ कि मेरे सपने अक्सर सच निकलते हैं। मैंने अपने चाचाजी के बारे में ऐसा ही सपना देखा था। दो दिन बाद ही वे चल बसे थे।’

मैंने जवाब दिया,’चिन्ता मत करो। मेरा ब्लड प्रेशर ठीक है। शुगर वुगर भी नहीं है। हाथ पाँव दुरुस्त हैं।’

वह बोला,’आपके मुँह में घी शक्कर, लेकिन सपने के हिसाब से दस बीस दिन चिन्ता तो रहेगी। मैं फोन करके हालचाल  लेता रहूँगा।’

थोड़ी देर बैठने के बाद वह बोला,’अब चलता हूँ, लेकिन मेरा चित्त इधर ही लगा रहेगा। वैसे तो सब ठीक है, लेकिन सपने की वजह से खटका होता है। सब कुछ नार्मल होने के बावजूद लोग बैठे बैठे लुढ़क जाते हैं।’

मैंने तिरछी नज़र से दाहिने बायें देखा कि परिवार का कोई सदस्य मल्लू भाई के शुभ वचन न सुन रहा हो। सौभाग्य से वहाँ कोई नहीं था।

वह उठ खड़ा हुआ, फिर हाथ जोड़कर बोला, ’आप ऐसा मत समझना कि मैं आपके लिए बुरा सोचता हूँ। मैं तो उस सपने की वजह से परेशान हूँ।’

मैंने कहा,’चिन्ता मत करो। मैं तुम्हारी बात समझता हूँ। मैं घर में बता दूँगा कि मेरी तबियत गड़बड़ होने पर तुम्हें फोन कर दें। देखते हैं तुम्हारे सपने में कितना दम है।’

वह एक बार और हाथ जोड़कर बाहर हो गया।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 68 ☆ लघुकथा – प्रतिष्ठित रचनाकार ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं उनकी एक सार्थक लघुकथा  “प्रतिष्ठित रचनाकार । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 68 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – प्रतिष्ठित रचनाकार ☆

लेखिका ख्याति प्राप्त थी। जीवन के सभी पहलुओं पर लिखी उनकी कहानियों की चर्चा हर मंच पर होती थी। आज के समाचार पत्र में उनका साक्षात्कार भी छपा। जीवन के मानवीय पक्ष से अलंकृत उनके विचार अनुकरणीय थे।

पिताजी  ने पढ़ा तो प्रभावित हुए बिना न रह पाए। बोले,  ” बिटिया,  हम  सोच रहे हैं कि इस बार अपनी संस्था के पुरस्कार वितरण समारोह  में इन्हें ही बुला लेते है। प्रतिष्ठित रचनाकार हैं। आयेगीं तो कार्यक्रम की गरिमा बढ़ेगी। तुम इनसे अच्छी तरह परिचित भी हो। इसलिए तुम ही बात कर लो।”

मैंने तुरंत फोन मिला लिया। उम्मीद के अनुसार उनके  मधुर कंठ से आवाज़ आई..”बोलो बेटा कैसी हो..?”

“जी, आंटी अच्छी हूँ। प्रतिवर्ष पिताजी माँ की स्मृति में कहानी विधा पर एक पुरस्कार वितरण समारोह का आयोजन करते हैं। उसमें मुख्य अतिथि को भी सम्मानित करने की परम्परा है। कुछ नगद राशि भी दी जाती है। यदि इस बार आप मुख्य अतिथि बनने की स्वीकृति दे दें तो समारोह का महत्व बढ़ने के साथ ढेर सारे नए रचनाकारों को आपका मार्गदर्शन भी मिलेगा।”

“बेटा बात तो बहुत अच्छी है। लेकिन मुझे इस तरह के छोटे-मोटे समारोहों में जाना भाता नहीं है।”

इससे पहले कि मैं कुछ कह पाती, मेरा संपर्क उनसे कट गया।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 50 ☆ लघुकथा – दिया हुआ वापस आता ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं पर आधारित  उनकी लघुकथा ‘दिया हुआ वापस आता’डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 50 ☆

☆  लघुकथा – दिया हुआ वापस आता 

काकी का रोज का नियम था सुबह उठकर पक्षियों के लिए आटे की छोटी- छोटी गोलियां बनाकर छत की मुंडेर पर रखना। पक्षियों के लिए पानी तो हमेशा उनके घर की छत पर रखा ही रहता था। घर के बाहर भी  उन्होंने  सीमेंट की हौद बनवा  दी थी। सर्दी, गर्मी,बरसात कुछ भी हो वह पानी से लबालब भरी ही रहती। कई बार पडोसी टोक देते ‌- अरे बारिश में क्यों पानी भर रही हो काकी, इस मौसम में थोडे ही  प्यास लगती होगी जानवरों को। काकी हँसकर उत्तर देती -अरे! हमारी तुम्हारी तरह बोलकर माँग सकते होते  तो ना भरती पानी, पर बिचारे बेजुबान प्राणी हैं, क्या पता कब प्यास लगे।

काकी पशु –पक्षियों, इंसान सबके लिए करती ही रहती थीं। वास्तव में गीता का वाक्य ‘ कर्म करो, फल की इच्छा मत करो ‘काकी के  जीवन को देखकर मानों अपना अर्थ समझा देता था। आस – पडोस के लिए तो काकी रात –दिन कुछ ना देखती, सब मानों उनके ही परिवार के अभिन्न अंग। वह तरह – तरह के अचार डालती और छोटी छोटी कटोरियों में रख पडोसियों को दे आतीं।  आसपास के बच्चे तो उनके पीछे ही पडे रहते – काकी चूरनवाली गोली दो ना। काकी गुड, इमली, अजवाईन और सेंधा नमक मिलाकर पाचक गोली बनाकर रखतीं, बच्चे चटकारे लेकर खट्टी – मीठी गोलियां चूसते रहते।  कुल मिलाकर  काकी का घर जमावडा था आस – पडोसवालों के लिए और क्यों ना हो, काकी छोटी – मोटी बीमारियों के घरेलू नुस्खों का खजाना जो थीं। किसी को कुछ  तकलीफ हुई कि वह उनके पास पहुँच जाता फिर सरसों के तेल में हल्दी गरम करके लगाना हो या काढा बनाकर देना, वह सब कुछ बडे स्नेह से करतीं।

काकी घर में अकेले ही रहती थीं, दो लडके थे पर दूसरे शहरों  में रहते थे। उनके बहुत कहने पर भी काकी उनके साथ नहीं गईं। शहर में लोगों का अजनबीपन उन्हें रास नहीं आया, कुछ दिन रहकर वापस आ गईं। कोरोना के बारे में  काकी ने भी सुन रखा था, तरह – तरह की बातें कि कोरोना हो जाने पर घरवाले भी हाथ नहीं लगाते। आस पडोस में किसी को कोरोना हो जाए तो लोग बात करना भी छोड देते हैं। और भी ना जाने क्या- क्या –। सर्दी, जुकाम,बुखार तो मौसम बदलने पर होता ही है लेकिन कोरोना के आतंक ने इस मामूली बीमारी को भी भयावह बना दिया। काकी को भी सुबह से बदन में थोडी हरारत लग रही थी। अकेली घर में रहते हुए  रात में एक बार तो उसके मन में भी विचार आया – अगर उसे कोरोना हो गया तो ? कोई अस्पताल ले जाएगा कि नहीं ? फिर वह मुस्कुराई – देखा जाएगा जो होगा, पहले से सोचकर क्या फायदा और सो गई।

काकी की नींद खुली तो  अपने को अस्पताल के बिस्तर पर पाया। उसने आसपास नजर दौडाई, सब अनजान चेहरे थे। नर्स को अपने पास बुलाकर पूछा,उसने बताया –‘ उसकी पडोसिन बीना  रात में पेट दर्द की दवा लेने काकी के घर गई जब कई बार आवाज देने पर कोई उत्तर नहीं आया तो वह घर के अंदर  गई। उसने देखा कि काकी बहुत तेज बुखार में बेहोश पडी है। पडोसियों ने उसे तुरंत अस्पताल में भर्ती करवाया  और कह गए हैं कि काकी बिल्कुल चिंता ना करें। हम सब अस्पताल के बाहर ही खडे हैं,जो भी जरूरत हो हमें बताएं ‘। काकी को कुछ कहना ही नहीं पडा, खाना – पीना, दवा सब पडोसियों ने संभाल लिया था। जल्दी ही काकी के बच्चे भी आ गए। काकी को पता ही ना चला कि कोरोना कब आया और चला गया। पास खडी नर्स किसी से कह रही थी – इनका दूसरों के लिए किया हुआ ही वापस आ रहा है, वरना आज के समय में किसी के लिए कौन करता है इतना।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ रोटी ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

( संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम  साहित्यकारों ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा  ” रोटी ”। )

☆ लघुकथा – रोटी ☆ 

एक पेड़ के नीचे बैठकर कुछ लोग रोटी चालीसा पढ़ रहे थे . पास ही में एक मलंग अपनी ढपली अपना राग सुना रहा था.

एक व्यक्ति बोला – जब से रोटी बनी है तबसे वह अपने ही मूल स्वरूप में है. आकार प्रकार, लंबाई-चौडाई, व्यास, त्रिज्या लगभग वही. थोड़ी बहुत ज्यादा थोड़ी बहुत कम.

दूसरा व्यक्ति बोला – स्पष्ट है कि उस लघु आकार रोटी में भूख है, वहशीपन है, दरिंदगी है, पागलपन गहरे बहुत गहरे तक छुपा है.

तीसरा बोला – वही रोटी जब पेट में चली जाती है तो उमंग, सरलता, सौजन्यता, बुद्धि, चातुर्य, साहित्य, कला, आनंदोत्सव ले आती है. रोटी जीवन है यार. इस असार संसार में रोटी वह नाव  है जिससे जीवन नैया पार लगतीं है.

चौथा बोला – हाँ भाईयो, कितने रूप-स्वरूप हैं रोटी के, जिसके भाग्य में जैसा रूप हासिल हो जाए. बड़ी कातिल होती है रोटी. इसने हरिश्चन्द्र जैसे राजा को भी डोम की नौकरी करा दी थी.

सबकी बातें सुनकर मलंग बोला- बच्चों, जरा मेरी ओर देखो. मैं मलंग हूं. मेरे पास कुछ नहीं है. बिल्कुल फक्कड़. पर मुझे रोटी की कमी नहीं है. उस तरफ देखो, एक महिला पत्तल में रोटी-दाल लिए चली आ रही है.

उन लोगों को रोटी का गणित समझ के परे था.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares