सुश्री निर्देश निधि
(आज प्रस्तुत है हिंदी साहित्य की सशक्त युवा हस्ताक्षर सुश्री निर्देश निधि जी की एक और कालजयी रचना “झांनवाद्दन ”। मैं निःशब्द हूँ और स्तब्ध भी हूँ। इस रचना को तो सामयिक भी नहीं कह सकता। एक स्त्री ही दूसरी स्त्री के अंतर्मन को पढ़ सकती है और इतनी गंभीरता से लिपिबद्ध कर सकती है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि – यदि आपने इस रचना को एक बार पढ़ना प्रारम्भ कर दिया तो समाप्त किये बिना रुक न सकेंगे। अनायास ही मुंशी प्रेमचंद के कथानकों के पात्र वर्तमान कालखंड में नेत्रों के समक्ष सजीव होने लगते हैं। सुश्री निर्देश निधि जी की रचनाओं के सन्दर्भ में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। उनके एक-एक शब्द इतना कुछ कह जाते हैं कि मेरी लेखनी थम जाती है। आदरणीया की लेखनी को सादर नमन।
ऐसी कालजयी रचना को हमारे विश्वभर के पाठकों तक पहुंचाने के लिए हम आदरणीय कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के सहयोग के लिए ह्रदय से आभारी हैं। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी न केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रवीण हैं, बल्कि उर्दू और संस्कृत में भी अच्छा-खासा दखल रखते हैं। उन्होंने समय समय पर हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए सुश्री निर्देश निधि जी की कालजयी रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध कराया है जिसे हमने विगत अंकों में प्रकाशित भी किया है और अपेक्षा करते हैं कि भविष्य में हमारे पाठक उनसे ऐसी उत्कृष्ट रचनाओं के अंग्रेजी अनुवाद आत्मसात कर सकेंगे।)
आप सुश्री निर्देश निधि जी की अन्य कालजयी रचनाएँ निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :
- सुनो स्त्रियों
- महानगर की काया पर चाँद
- शेष विहार
- नदी नीलकंठ नहीं होती
☆ कथा-कहानी : “झांनवाद्दन” ☆
हम सब उसी दिन ‘चार वाली’ से अपने गांव आये थे, चार वाली मतलब, सुबह के चार बजे हल्दौर स्टेशन पर पहुंचने वाली ट्रेन। वैसे तो यह सुबह लगभग पौने छह बजे पहुंची थी, अब तो कभी-कभी सात बजे भी पहुंचती है पर उसके नाम में अभी तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ। बड़ी बुआ बताती थीं कि फिरंगियों के समय में मजाल है जो घड़ी भर भी लेट होती हो। ठीक चार बजे स्टेशन पर आ कर खड़ी होती। खैर महाशय चाचा तो बैलगाड़ी लेकर हमें लेने चार बजे ही आ गये थे। उन्होंने बैलों के आगे बोरी में हरी कुट्टी रख रखी थी, ट्रेन को आते देख बोरी समेटी और बैलगाड़ी के नीचे वाले हिस्से में बंधे टाट के झूले जैसी जगह रख दी। जब तक ट्रेन रुकी चाचा ने बैलों को गाड़ी में जोत लिया। शुरू-शुरू में जब हम बैलगाड़ी में बैठते तो हम सारे बहन-भाई आगे भर जाते या सारे के सारे पीछे पैर लटका कर बैठना चाहते। आगे सारे बैठते तो बैलों पर जुए का जोर ज्यादा पड़ता चाचा हमें पीछे होकर बैठने को कहते। अगर हम सारे पीछे बैठ जाते तो चाचा बड़े प्यार से कहते, “बेट्टे जरा से आग्गे कू होज्जाओ नई तो गाड्डी उडल जागी।“ उडलना मतलब गाड़ी का आगे वाला हिस्सा हवा में, पीछे वाला जमीन पर सारे सवार भी जमीन पर। अब हम सारे परफैक्ट थे पूरा बैलेंस बनाकर बैठते।
स्टेशन से घर तक लगभग एक घंटे का समय लगा। घर आ चुका था, हमारा प्यारा घर। ताला खोलकर पहले मैं और पहले मैं करके घर के अन्दर आये । साल भर से झड़ी हमारे नीम की पत्तियाँ, आंधियों में टूट गई टहनियां, अंधड़ों में उड़ कर आई धूल, कूड़े – करकट, फटे कागज और कटी हुई पतंगों से आंगन पटा पड़ा था। आपसी सहयोग का समय था, सबने हाथ बटाया तो शाम तक घर का चेहरा ऐसा चमक उठा जैसे दादा – दादी के देहावसान के बाद वो ही हमारा बुजुर्ग हो और हमारे घर आने पर अपने पौढ़ चेहरे पर गम्भीरता भरी मुस्कान बिखेर रहा हो। हमारा घर दरअसल हमारे बुज़ुर्गों की बड़ी सी हवेली थी। पिता जी ने जिसका आधुनिकीकरण करवा लिया था। अपने गाँव और अपने इस घर से पिता जी का अटूट रिश्ता था। कोई छुट्टियां मनाने कहीं जाता, कोई कहीं और पिता जी अपने सारे परिवार के साथ चले आते अपने गाँव। वो पुलिस में अफसर थे, पूरी तरह अनुशासित उसूल के पक्के यानी साल में साढ़े दस महीने बिना नागा पुलिस की नौकरी और पूरे डेढ़ महीने गाँव में पिकनिक या कहें उत्सव।
सारा दिन साफ़ – सफ़ाई और सामान लगाने में किसी तेज़ रफ्तार पंछी – सा छू हो गया। गर्मियों के लंबे दिन की सांझ आंगन को पार करती हुई घर की छत से उतर कर विदा ले रही थी। बात पैंतीस से चालीस वर्ष पुरानी होगी, उन दिनों गाँव में बिजली की व्यवस्था की सुध किसी राजनीतिक पार्टी को आई नहीं थी अतः पिछले बरस साफ करके रखी गई लालटैन और लैम्प्स झाड़े जा रहे थे। जिससे कि अंधेरा होने से पहले ही उजाला फैल सके। चाची रात का खाना बनाकर ले आई थी। खाना खाने की तैयारी अभी चल ही रही थी कि अचानक वातावरण में किसी की आवाज, आवाज क्या किसी का जोर-जोर से चिल्लाना तैर गया। शान्त-सुन्दर सांझ आज ही से शुरू हो रहा था हमारा ग्रामीण उत्सव। पिताजी जितनी तो नहीं, पर उनसे थोड़ी ही कम उत्सुकता के साथ हम सब भी इस उत्सव की प्रतीक्षा साल भर करते। हम सब भले ही थक गये थे पर थे उत्साह से भरे हुए। ऐसे में ये कराहते, चीखते शब्द जो कह रहे थे,
“छोड़ दे रे अजीजा, छोड़ दे रे अजीजा।“
एक बार, दो बार, दस बार, पचास बार, सौ बार यानी अनगिनत बार। ये ही शब्द अनवरत दोहराए जा रहे थे। मन बड़ा खराब हो गया । खाना भी बड़ी मुश्किल से खाया गया। आवाज हमारे घर के पिछवाड़े से आ रही थी। मेरा बालमन तुरन्त खोजने पर आमादा हो गया, कौन है ये क्यों चिल्ला रही हैं? यह अजीजा कौन है? इसे कब छोड़ेगा? वगैरह – वगैरह, और भी न जाने कितने प्रश्न एक के बाद एक, शायद एक ही साथ मन में कौंधने लगे। अम्मा ने चाची से पूछा, “कौन है ये और क्यों चिल्ला रही है ?” “यो……यो झांनवाद्दन है, इसका दिमाग चल था इसलियों इसै बांध रक्खा है इसके जेठ नै।“ चाची ने बड़ा संक्षिप्त उत्तर दिया, तब के लिए जैसे इतना काफी था।
हमारा घर हिन्दुओं का आखिरी घर था। उसके बाद सारे मुसलमान रहते थे, कुछ शेख, कुछ जुलाहे लेकिन जुलाहों के साथ ही खड्डी चलाकर कपड़ा बनाने का काम शेख भी करते थे। मुझे गाँव की पूरी स्थिति की खबर होती क्योंकि मैं छोटी थी, बच्चों के साथ खेलते-खेलते सारे गाँव का चक्कर लगाकर आती ग्रामीण जीवन मुझे भी बड़ा लुभाता। और कौतूहलवश मैं सारी बातें अपने ग्रामीण मित्रों से पूछती। सारे बाल मित्र तत्परता से मुझे सही-सही जानकारी देते। मसलन पथवारे में चमनों चाची की जगह कौन सी है? इतने सारे उपले कहां रखे जाते हैं? बिटौड़ा कैसे बनाता है? उसे बरसात में भीगने से बचाने के लिए बूंगा, यानी फूंस का कवर कैसे बनता है? छान कैसे छाई जाती है? डंगरो की क्या देखभाल होती है, दुधारू गाय-भैंस को बिनौले की खल ही खिलाना क्यों अच्छा होता है। ताजिये कहां बनते हैं? किस सामान से बनते हैं, कौन सबसे अच्छा कारीगर है या हमारे घर के पीछे रह रहे मुसलमान जुलाहे खड्डी कैसे चलाते हैं, चैक का कपड़ा कैसे बुना जाता है और सादा कैसे, कौन सबसे अच्छा सूत कातती है? वगैरह-वगैरह । जब मैं अपने गाँव से लौटती तो मुझे गाँव का अच्छा खासा ज्ञान हो जाता। मेरे इस ज्ञान पर पिताजी बहुत खुश होते, और मुझे ढेर सा लाड़ करते।
मैं गाँव में कितना भी घूमती पर किसी के घर बैठती नहीं थी। बस एक रेशमा का व्यक्तित्व और उसका साफ-सुथरा घर मुझे वहाँ बैठ जाने का आमन्त्रण देता और मैं अक्सर उसकी चारपाई पर बैठ जाती। रेशमा गोरी-चिट्टी, लम्बी-तगड़ी शेखनी, तीन छोटे-छोटे बेटों की माँ, पर चेहरे से किशोरी सी दिखती , कहते थे कि उसकी माँ पर किसी अंग्रेज का दिल आ गया था वो जिसका परिणाम थी। उसकी हल्की नीली आँखेँ, गोरा-गुलाबी रंग, सुनहरे बाल, उसके नैन-नक्श और उसका आश्चर्यजनक रूप से समय का पाबन्द और अनुशासित होना मुखरता से इस अफवाह की पुष्टि करते। उसमें गजब का आकर्षण था। इतना कि छोटी सी मैं साल भर बाद आकर भी उससे मिलना नहीं भूलती। चाची की बेटी सोम्मी और दूसरे बच्चों के साथ मैं सबसे पहले उसी के घर जाती। मेरे जाने पर वो भी खुश होती। उसने मुझे नाम से कभी नहीं पुकारा, वो मुझे अफसर की बेट्टी कहकर पुकारती। बड़े से घर में उसके सास – ससुर, जेठ – जिठानी, उनके सात – आठ अविवाहित बड़े – छोटे लड़के – लड़कियां, एक विवाहित बेटा और उसका परिवार रहता । उसी घर के आँगन के एक कोने में रसोई और एक कोठरी उसके हिस्से में आई थी, रसोई के पास ही उसका चरखा और ढेर सारी रूई रहती जिसे वो महीन-महीन कातकर ढेर सारी पूनियां बना लेती। आजादी के बाद तब तक बहुत लम्बा समय नहीं गुज़रा था, हथकरघा उद्योग जीवित था और लोग उसका कपड़ा पहनते भी थे।
रेशमा का पति अपने दस बहन – भाइयों में आठवें नम्बर पर था। अजीजुद्दीन सबसे बड़ा था, उसकी पत्नी उसके बड़े मामा की बेटी थी और रेशमा उसके छोटे मामा की जिसे अजीजुद्दीन की पत्नी अपने देवर रईसुद्दीन के साथ ब्याह कर ले आई थी। रेशमा जैसी अनिंद्य सुन्दरी को पाकर वो सीधा – सादा नौजवान धन्य हो गया। नई-नई पत्नी, अनिंद्य सुंदरी रेशमा की उपस्थिति उसे हर वक्त घर आने का आमन्त्रण देती। कभी सूत के बहाने, कभी रूई के बहाने, कभी खाना-पीना तो कभी कपड़े। जब कोई भी बहाना ना मिलता तो बस यही पूछने चला आता कि शाम का खाना बनाने की लिये पर्याप्त लकड़ियाँ हैं या नहीं? उसके आते ही रेशमा झट से कोठरी की तरफ दौड़ती। नया-नया प्रेम, मन से तन तक प्रयोग कर लेने की पूरी छूट। पति ही सबसे अच्छा प्रेमी साबित हो सकता है, रेशमा का मन पूरी तरह इस विश्वास से भर गया था। ना कुछ अनैतिक, ना कुछ अनर्थ और ना ही सामाजिक खींचतान। जब कोई अविवाहिता किसी लड़के से प्रेम कर बैठती है तो उसे कितना तनाव होता है, घर का, समाज का, यहां तक कि अपनी नैतिकता का। प्रेमी की आँख से निकलती आनन्द की क्षणिक रश्मियां तन-मन पर अपना चटख रंग फेंकती तो जरूर है पर अगले ही क्षण सारी ऊर्जा उस चटखपन को छिपाने में खर्च हो जाती है और ना छिपा पाने की स्थिति तो उसे अन्दर तक निस्तेज कर जाती है, यह जानती थी वह। जैसे प्रेम ना हुआ किसी के खून का संगीन अपराध हो। इसलिये उसका रईसुद्दीन ही उसका सबसे बेहतर प्रेमी था। दोनों एक दूसरे की, पूरी तरह पसन्द। उनकी छोटी सी कोठरी उनके तन-मन की ही तरह प्यार से लबालब भरी थी।
पर इस प्रेम की बड़ी हानि उठानी पड़ी रेशमा को। वो सोचती, शायद प्रेम किसी से बर्दाश्त होता ही नहीं है भले वो पति-पत्नी का ही क्यों ना हो। रईसुद्दीन की उस पर दीवानगी देखकर, जिसकी वो सौ प्रतिशत अधिकारिणी थी, घर की सभी औरतों के सीनों में ईर्ष्या घर कर गई थी। स्वयं उसकी तहेरी बहन जो उसे अपने देवर के लिए ब्याह कर लाई थी, उसकी शत्रु बन बैठी थी। वैसे तो उसका अप्रतिम सौन्दर्य ही बहुत था घर की औरतों में ईर्ष्या पैदा करने के लिए, उस पर चाँदी पहनने वाली औरतों के बीच रेशमा का सोने की मुरकियां और बुलाक पहनने और रईसुद्दीन के प्यार-मोहब्बत ने आग में घी का काम किया। सास को तो उसके नाम से भी नफरत होने लगी थी। जब भी रेशमा सूत कातने बैठती वह उसे किसी ना किसी बहाने उठाती रहती जिससे कम सूत कातने पर रईसुद्दीन उस पर गुस्सा करे। परन्तु उस स्फूर्ति के भण्डार को खाविंद की वाहवाही लूटने से कौन रोक सकता था? खाविंद भी कब पीछे रहता था, जब भी कपड़ा बेचने बाजार जाता, उसके लिये, चूढ़ियां, पायल, चुटीला, रिबन, लाली, पाउडर, चप्पल वगैरह – वगैरह कुछ ना कुछ लेकर ही लौटता। वो इन चीजों को लेकर ही इतनी खुश हो जाती जैसे दुनिया की सारी सम्पत्ति उसे मिल गई हो। अपने आप को पूर्णतः सन्तुष्ट समझती, और ज्यादा की हवस बिल्कुल ना करती। उसका ये सन्तोष भी दूसरों को भड़काने का छोटा कारण नहीं था। ठीक ही कहते हैं कि नज़र और हाय तो पत्थर को भी चटका देती है। सचमुच उसके सुख का ये पक्का पत्थर चटकने ही जा रहा था।
गाँव के किसी शेख के यहां उसका कोई रिश्तेदार आया। जो अरब जाकर बड़ा अमीर हो गया था, अब भी अरब में ही रह रहा था। रईसुद्दीन की मेहनत और लगन देखकर उसे अपने साथ ले जाने की बात कही, उसे अरब जाकर अपनी फकीरी से रईसी तक का सफर कह सुनाया, अथाह धन का भी लालच दिया। यूं तो रईसुद्दीन यहां गांव में भी अच्छा ही कमा लेता दिन-रात मेहनत करता, खड्डी चलाता। परंतु शायद रेशमा को रानी बनाकर रखने का लालच मन में समाया या जो भी कारण रहा, उसने अरब के शेख का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। रेशमा लाख रोई गिड़गिड़ाई, छोटे-छोटे बच्चों का हवाला दिया, अपने प्यार की कसमें दीं पर उसकी एक नहीं चली। रेशमा जानती थी, आखिर मर्द बच्चा अपने निर्णय खुद लेता है, उसको अदनी सी औरत कैसे बदल सकती है? वही हुआ जो वह चाहता था। वो शेख जैसा अमीर बनने का सपना आँखों में लेकर उसके साथ चला गया।
रेशमा का अनन्य प्रेमी जा चुका था, रो-रोकर उसने अपना बुरा हाल कर लिया था। रेशमी गुड़िया अब मुरझा गयी थी। कैसा पत्थर दिल खाविंद था जिसे अपनी घरवाली के आंसू और बेतहाशा खूबसूरती भी न रोक पाई। ना उसके अकेलेपन से ही उसने कोई खौफ खाया। वैसे भी खूबसूरत पत्नियों पर तो मर्द का विश्वास थोड़ा कम ही होता है। न जाने उसने इतना विश्वास रेशमा पर कैसे कर लिया कि उसे अकेली छोड़ कर चल दिया । क्या वो नहीं जानता था कि अकेली औरत अधिकांश पुरुषों की नजर में सिर्फ एक देह होती है। अकेलेपन में उसे सहारा देने के लिये सैकडों हाथ बढ़ते तो जरूर हैं, पर क्या उनमें से एक भी उसका दैहिक परिचय लिये बगैर उसका साथ देने को राजी होता है? होने को तो ऐसा भी जरूर होता होगा पर क्या हर औरत का भाग्य इतना अच्छा होता है कि उसे कोई ऐसा मिल पाए? क्या वो नहीं जानता होगा, कि परदे ही परदे में क्या-क्या दुस्साहस नहीं हो जाते? क्या वो नहीं जानता होगा कि दुर्भाग्यवश स्त्री जात को सबसे बड़े खतरों का सामना अपने ही घर में करना पड़ता है? घर में सहजता से उपलब्ध जो होती है फिर लोक-लाज उसका मुंह बन्द किये रखती है। वो औरत थी, वो ये सब जानती थी। वो अपने आपको सुरक्षित रखना चाहती थी अपने प्रेमी पति के लिये। पर सीधा – सादा रईसुद्दीन ये तो वास्तव में नहीं जानता होगा कि वो अपने ही घर में अपनी औरत के लिये आदमखोरों की खेप छोड़कर जा रहा था। जाते वक्त रेशमा को समझाकर गया था, “तू अकेल्ली कां है? आद्धा खानदान तो इसी हवेल्ली मैं रै रया और आद्धा पड़ौस मैं, फेर तू अकेल्ली कां है? जो और किसी की तू ना बी मान्नै तो अम्मी-अब्बू तो रैंगे तेरे साथ। जी कू भारी मतना करै। खुसी-खुसी रइये, बालको कू देखिये। पैस्से लाऊंगा शेख जी साब की तरो, जब तू कैगी हाँ तुमने ठीक करा जो गए।’’
क्या रेशमा के प्रति उसके पति का आकर्षण भी सिर्फ दैहिक था? जो सन्तानों के हो जाने के बाद कुछ फीका पड़ गया था। ऐसा ही होगा वरना कोई ऐसा कैसे हो सकता है कि प्रेम के अमृत से भरी गहरी, साफ-सुन्दर झील को छोड़कर चन्द सिक्कों के पीछे तपते रेगिस्तान में दौड़ता फिरे। शायद उसने रेशमा से प्रागैतिहासिक युग के उस गुरिल्ले जैसा ही प्रेम किया था जो मादा की गंध मात्र के पीछे पागल होकर सन्तति निर्माण हेतु एक निश्चित समय के लिये ही जोड़ा बनाता होगा। इन्सानी विकास के अनगिनत वर्षों बाद भी गंध से रूप तक का ही सफर तय कर पाया था ये रईसुद्दीन नाम का गुरिल्ला। जो भी हो रेशमा का घर बिखर चुका था।
इस बार जब मैं रेशमा से मिलने गई, मुझे देखकर वो हर बार की तरह खुश हो गई थी, खुशी थोड़ी बेस्वाद ही सही पर वो झट से भागकर कोठरी में से अरबी खजूर ले आई थी और बोली, “अफसर की बेट्टी ये खजूर खाओ अरब सै भेज्जे हैं बालको के अब्बू नै, भौत मीट्ठे है।“ मीठे खजूर भेजकर बड़ा खुश था कमबख्त, शायद जानता नहीं था कि उसने रेशमा के जीवन को कितनी कड़वाहट से भर दिया था। अकेली जान पर वो कितनी जिम्मेदारी थोप गया था। जब गया था तो तीसरा बच्चा पेट में था अब वो भी चलने-फिरने लायक हो गया था, तीनों बच्चों की जिम्मेदारी, सास – ससुर का काम, सूत कातना, खड्डी चलाना, और सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी उसे खुद अपने आपको सुरक्षित रखना। बरसों ना तो रईसुद्दीन आया और ना कुछ खास पैसा ही भेज पाया था। बल्कि जिस शेख के साथ रईसुद्दीन गया था उसका पत्र आया था जिसमें उसने बताया था कि रईसुद्दीन ने कोई अपराध कर दिया है, वैसे तो यहां का कानून बड़ा सख्त है पर फिर भी मैं उसे जेल से छुड़वाने की पूरी कोशिश करूंगा। अरबी शेख के गांव वाले रिश्तेदार के घर से ही दबी-दबी सी खबर निकली थी कि रईसुद्दीन किसी हादसे में मारा गया। जिस पर विश्वास नहीं किया था रेशमा ने। पर इस खत ने तो उसके सिर से आसमान और पैरों से जमीन ही छीन ली। एक तरफ अकेलेपन का दंश रेशमा को आहत किये दे रहा था । दूसरी तरफ घर की ईर्ष्यालु औरतें खुश थीं और मर्द सहानुभूति रखने लगे थे। पर उसने किसी की तरफ ध्यान नहीं दिया। दिन – रात खड्डी चलाकर अपने बच्चों का पेट अकेली ही पालने लगी। अब खाविंद से अलग रहने की झुंझलाहट धीरे – धीरे उसका खूबसूरत चेहरा ढकने लगी थी। जिस खानदान के सहारे वो उसे छोड़कर गया था वो साथ रहने का दिखावा मात्रा निकला, और वही निकला उसके लिये सबसे बड़ा खतरा भी । । जबसे रईसुद्दीन के लौटने की आशा धूमिल पड़ी थी तबसे उसके बड़े भाई अजीजुद्दीन के दूसरे नम्बर के लड़के की नज़र रेशमा पर कुछ ज्यादा ही ठहरने लगी थी। कई बार उसकी हरकतों के विषय में रेशमा ने अपने सास-ससुर से कहा भी था। परन्तु उन्होंने बात आई – गई कर दी थी।
पूस की काली स्याह, ठिठुरती रात, उस पर बेवक्त मूसलाधार बारिश, जलते अलाव और रजाई ओढ़ने के बावजूद शरीर जमे जा रहे थे। रेशमा एक ही चारपाई पर अपने तीनों बच्चों को समेटे पड़ी थी जैसे कोई चिड़िया अपने अण्डे निषेचित करती है कि उसके दरवाजे पर खट-खट की आवाज़ हुई। रेशमा ने पूछा,
“कौन है?” बाहर से कोई धीमी और महीन आवाज आई। उसने फिर पूछा, फिर वही महीन आवाज आई,
“खोल तो मैं हूँ।“ जैसे घर की कोई औरत बोल रही थी, रेशमा ने आधा सुना, आधा न सुना और दरवाजा खोल दिया। तेज़ बारिश के साथ ही घुप्प अंधेरा था, आने वाले की परछाई तक दिखाई नहीं दी। रेशमा टॉर्च उठाने के लिये टटोलती हुई पीछे हटी, आने वाले ने सांकल लगा ली रेशमा ने जैसे ही टॉर्च जलाई उसे एक लम्बा तगड़ा आदमी दिखाई दिया जिसने अपने चेहरे पर ढाटा बांध रखा था। परन्तु उसकी कद-काठी देखकर रेशमा को समझते देर नहीं लगी कि वो कौन था। आगन्तुक ने हाथ से टॉर्च छीन कर दूर फेंक दी टॉर्च की रोशनी देर तक इधर से उधर लुढ़क कर बंद हो गई । आगंतुक उसका हाथ पकड़कर बेरहमी से खींचते हुए कोठरी के एक कोने में ले गया। रेशमा ने पुरजोर विरोध किया, चीखी-चिल्लाई पर किसी को कोई आवाज़ नहीं गई या किसी ने जान बूझकर नहीं सुना। शारीरिक बल से हांका हुआ पुरुष का वासना भरा अहंकार एक स्त्री के साथ जो सबसे बुरा कर सकता था, वो उसने किया। वो हट्टी-कट्टी शेखनी सचमुच अबला बन रह गई थी। उसकी चीत्कार से उसके तीनों बच्चे जाग गए थे। सोचकर बुरी तरह सहम गए कि उनकी मां को कोई जान से मारने आया है। अपनी मां को जीवित देखकर उन्होंने राहत की सांस ली। परन्तु उन्हें क्या पता कि उनकी मां मर ही चुकी थी अब जीवित थी तो केवल उसकी देह ।
रेशमा बारिश में गिरती-पड़ती, भीगती- भागती, बदहवास सी अपनी सास के पास जाकर रोते हुए चीख-चीख कर अजीजुद्दीन के दूसरे नम्बर के बेटे की करतूत बता रही थी, पर सास कुछ नहीं बोली। शायद सबकी मौन स्वीकृति थी। अब तक रईसुद्दीन की मौत की खबर लगभग पक्की हो गई थी। और उसकी सारी ‘सम्पत्ति’ पर दूसरे घरवालों का कानूनन हक था। अतः वो हार कर अपनी कोठरी में लौट आई। आबरू ही नहीं आत्माभिमान, सम्मान सब कुछ तार-तार हो गया था। अब क्या? क्या करेगी जीकर?
रात में कितने ही बुरे-बुरे कारनामे क्यों ना हो जाएँ, सुबह होती जरूर है। उस रात के बाद भी एक सुबह हुई थी बारिश बन्द हो गई थी पर हवा की तेजी ने सर्दी को और बढ़ा दिया था। अभी तक रेशमा अपने सुसर के सामने कभी नहीं निकली थी पर अब उसके लिये किसी से पर्दे का कोई अर्थ नहीं था। अतः वो मुंह पर पर्दा किये बिना ही अपने ससुर के सामने आ खड़ी हुई थी। जैसे आदेश दे रही थी,
‘‘रईसुद्दीन कू बुला दो।’’
ससुर चुप रहा, सास का तीखा बाण निकला,
“बेशर्मी की बी हद होत्ती है, एक तो सुसर के सामनै मुंह खोल्लो खड़ी है ऊपर सै खाविंद का नाम ले रई है। जुबान जल जा तेरी। कलमुंई जा जाक्के डूब जा कईं।“
अपने खाविंद का नाम बी ना लूं और दूसरे मरद के सामने अपने आपकू…….छिः। कहते-कहते रुक गई रेशमा।
सास बहुत ही बुरे शब्द बोली,
‘‘रईसुद्दीन मर गया है हम सबकू पता है, आज तू बी जान ले। एक औरत मैं होवैई क्या है जो इतनी मरी जा रई है, गाड्डी भर गोश्त लेक्कै घूम रई है । इंघे ऊंघेई बी तो बखेरती फिरैगी, घर केई मरद कै रै जागी तो कौन सा आसमान फट पड़ेगा?’’
रेशमा सास की बात सुनकर बुरी तरह तिलमिला गई थी? बोली,
‘‘मैं रईसुद्दीन की ब्याहता हूँ, उसके सिवा इस दुनिया मैं और किसी कै ना रहने की हूँ ।’’
“तो जा पंचों सै करवा ले फैसला। “ सास फिर बोली
“पंचों के धोरे जक्कै क्या कर लूँगी, बे तो सब बुड्ढे के लंगोटिया यार हैं, बिकाऊ हैं।“ कहकर हारी हुई स्त्री अपनी कोठरी में वापस लौट गई, जानती थी पंच भी मर्द ही तो थे, ठीक उसके घर के मर्दों जैसे ।
इस दुनियाँ में कितनी ही औरतें, अनपढ़ अपनी तरह और पढ़ी – लिखी अपनी तरह से, स्त्रीवादी होकर पुरूषों के अन्याय के खिलाफ लड़ाइयाँ लड़ती हैं। परन्तु कितनी अजीब बात है कि जितना वे पुरुषों के खिलाफ होती है उससे कहीं ज्यादा होती हैं एक दूसरे के खिलाफ। चाहे अनपढ़ हों या पढ़ी – लिखी, एक औरत दूसरी के साथ कुछ थोड़ा अन्याय नहीं करती। एक मर्द ने रेशमा के साथ अन्याय किया, दूसरे ने उसके साथ हुए अन्याय को समझना ज़रूरी नहीं समझा क्योंकि वो औरत का दर्द नहीं समझता था। परन्तु एक औरत की कौन – सी मजबूरी थी जो वो दूसरी का दर्द नहीं समझी? जिस तरह प्राचीन युग से आद्य युग तक भारतीय रियासतें आपसी द्वेष रखकर विदेशी आक्रान्ताओें को भारत पर विजय दिलाती रहीं । ठीक उसी तरह है स्त्री समाज भी, आपसी ईर्ष्या ने इसे पूरी तरह खोखला और कमजोर रखा इसी लिये इस पर राज किया पुरुष समाज ने। अपनी सास के अपराध के सामने रेशमा को अजीजुद्दीन के लड़के का अपराध कुछ खास बड़ा नहीं लग रहा था। उसका मन चाहा कि बुढ़िया का यहीं गला दबा दे। पर वो अबला है सबसे हार जाने वाली अबला, वो अपने जाते हुए पति को नहीं रोक पाई, बलात्कारी को नहीं रोक पाई अब अपनी ही जाति वाली को अनर्गल बकवास करने से नहीं रोक पाई। वो समझ गई थी कि औरत में भावनाएँ , विचार वगैरह कुछ नहीं, बस एक देह होती है वो भी मर्द के लिये, अपना नहीं तो दूसरे किसी के लिये। उसका रोम-रोम कराह उठा। अब किससे क्या कहे, बाप के घर चली जाए ? बाप को मरे तो दो बरस हो गए, भाई-भाभी तो मां को ही घास नहीं डालते। फिर भी उसने किसी के हाथ अपने भाई को बुला भेजा था। भाई आया, परन्तु उसे बाहर दालान में ही बैठा लिया गया। रेशमा के सास-ससुर, अजीजुद्दीन सबने मिलकर, पति की अनुपस्थिति में रेशमा का चाल-चलन सही ना होने की बात को उसके दिमाग में ठीक से बैठा दिया। सबूत और एक दूसरे की गवाही से हर झूठ को सच और सच को झूठ बना दिया। औरत की बदकिस्मती, कितना नाजुक बनाया चरित्र, गलत काम किये बिना भी खराब हो जाता है। और सबसे बड़ी विडम्बना ये कि उसके सगे सम्बन्धी भी इस झूठ पर अपना समर्थन देने लगते हैं। किस भाई को अपनी बहन की किशोरावस्था से शिकायत नहीं होती? किशोरी का चंचल मन खाली दर्पण सा होता है, जो कोई सामने देर तक खड़ा रहे उसी का अक्स उस पर उभरने लगता है। हर किशोरी के सपनो का राजकुमार कोई ना कोई तो बन ही जाता है। हर भाई की नजर गैलीलियो की दूरवीन बनकर बहन के कोरे-कोरे, दबे-छिपे सपनों को ताड़ लेती हैं । बहन का यही अल्हड़ प्रेम या आकर्षण, जो भी कहो भाई के दिल में उसके चरित्र के विषय में अविश्वास का बीज बो देता है। यही रेशमा के भाई के साथ हुआ। अद्वितीय सुन्दरी बहन पर कड़ी निगाह रखता। उसे याद है चौदह-पन्द्रह वर्ष की रेशमा एक हिन्दू लड़के की दीवानी हो गई थी। बड़ी सख्ती से सम्भाला था उसने। बहन का ब्याह कर वो इस घटना को लगभग भुला चुका था, परन्तु आज उसके ससुराल वालों के सबूतों और दलीलों ने उस घटना को पुनः जीवित कर दिया था, उसने मान लिया कि रेशमा ही गलत है, तब भी थी, आज भी है। ये कभी नहीं सुधरेगी, मेहमान ने गलत किया जो इसे अकेले छोड़कर इस पर भरोसा किया। वो अन्दर रेशमा के पास आया तो जरूर, परन्तु उसे ही हिदायत दे गया,
“सम्भाल के रख अपने आप कू-कुलच्छन मत ना दिखावै ।“
वो चुप खड़ी रह गई । भाई चला गया । अब उसे किसी का सहारा नहीं था जीवन भी अपना, मौत भी और प्रतिशोध भी अपना । वो चुपचाप अपनी कोठरी में चली गयी, सारा दिन वहीं पड़े-पड़े गुज़र जाता। ना बच्चों का ध्यान रहा ना अपना, महीनों मुंह से कोई शब्द नहीं निकला। क्रोध अन्दर ही अन्दर पकता रहा। ढाई-तीन महीने बीत गए। जाड़े जा चुके थे घर के मर्द गर्मी के कारण खुले में सोने लगे थे इतने दिनों खामोश रहकर अपना प्रतिशोध लेने के लिए जो ऊर्जा जुटाई थी आज रेशमा ने उसकी परीक्षा लेने का निश्चय किया। सब सो चुके थे, उसने दो तकुए आंच में लाल किये और बाहर गई जहां उसका अपराधी सोया हुआ था। वो जलते हुए तकुए उसने अपने अपराधी की दोनों आंखों में घुसा दिये। अपराधी की आंखों से धुएँ के साथ मुंह से एक हृदयविदारक चीख निकली। सब जाग गए, रेशमा वहीं खड़ी रही, उसने अपने अपराधी को सजा दे दी थी। घर का कोई छोटा – बड़ा सदस्य उसपर लात – घूंसे बरसाए बिना नहीं रहा । शरीर चोट खा रहा था तो क्या, प्रतिशोध लेकर मन शांत हो गया था। किसी ने कहा डायन है, ये तो सबको खा जाएगी किसी ने कहा पुलिस को बुलाओ, और भी अनेक राय आई पर अजीजुद्दीन ने किसी की कोई बात नहीं सुनी, उसने क्षण-भर में रेशमा के लिए एक नायाब सज़ा सोच ली थी।
उसी दिन लोहे की दो लम्बी-लम्बी मजबूत जंजीरें लाई गईं, रेशमा का एक पैर और एक हाथ अलग-अलग जंजीर से बांधकर उसे अपने बाहर वाले चबूतरे के बीचों – बीच खड़े शीशम के पेड़ के साथ बांध दिया। वह दिन-रात, सुबह-शाम वहीं बंधी रहती। वहीं एक प्लेट में, कुत्ते की तरह एक – आध रोटी डाल दी जाती, बस सुबह के समय घर की औरतें उसे जंगल तक ले जाती, शौच के लिये वो भी किसी पुरूष की निगरानी में, बस इनती ही थी उसकी स्वतंत्रता। घर की पर्दानशीं अनिंद्य सुन्दरी अब गलियारे से गुजरने वालों के मनोरंजन का साधन बन गई। उसी में दोष लगाकर गांव भर में उसके प्रति घृणा प्रचारित की गई। वहाँ से गुजरने वाला हर औरत-आदमी उस पर थू-थू करता। खासकर औरतें, यही तो एक मौका था अपने-अपने मर्दों को ये दिखा देने का कि वे चरित्रहीन का साथ नहीं दे सकतीं क्योंकि वे बड़ी ही सच्चरित्र, साध्वी स्त्रियां हैं । कोई कहती,
“कुल्टा अब बैट्ठी है हें गलियारे मैं, शर्म-हया तो है कोयना।“
“कुलच्छनी मर्दमार हो रई है । मर्दों सै बराबरी करने पै उतरी थी।“ कोई कहती ।
कोई कहती, “अपने मर्द कू तो खाई गई अब सब दूसरों कू ऐसे मारे काट्टेगी।“ और भी न जाने क्या-क्या। कई दिनों तक रेशमा अपना मुंह घुटनों में छिपाकर बैठी रही शायद ये सजा उसने सोची नहीं थी अपने लिये। औरतें रोज आतीं उसे रास्ते में बैठे रहने के ताने मारतीं। एक दिन उससे रहा नहीं गया, जैसे चिल्ला पड़ी थी उस दिन वो, “जो मेरे साथ मेरी कोठरी मैं होया गलियारे में बैठना उस्सै बुरा ना है।“ औरतें सहम गईं । दिन चहल-पहल से बचते गुजरता और रात खुद को सन्नाटे से बचाते-बचाते बहुत लम्बी होकर जाती। पति की परम प्रिया, बच्चों की स्नेहमयी माँ, एक सच्चरित्र औरत इस खौफनाक सज़ा को पाकर कितने दिन अपना मानसिक सन्तुलन बनाए रख पाई होगी आखिर ? धीरे-धीरे वो सचमुच चेन से बांधने लायक ही हो गई।
वो जहांनाबाद की थी। गांव में प्रचलन होता है किसी स्त्री को उसके अपने नाम के बजाय उसके गांव के नाम से पुकारते हैं सो उसके गाँव के नाम को अपभ्रंश बनाकर ‘‘झानंवाद्दन’’ बोला जाता। शीशम के पेड़ से बंधी पर्दानशीं झांनवाद्दन हमेशा तने की तरफ मुंह करके बैठती। पेड़ की टहनियां तोड़कर उसने अपने लिये चूल्हा, चरखा, चारपाई, बर्तन आदि सभी ‘‘सुविधाएँ ’’ जुटा ली थीं । उन टहनियों को बड़े करीने से सहेजती, उन्हें ही अपनी सम्पदा समझ सबसे उनकी रक्षा भी करती। पथवारे जा रही औरतें अपने मनोरंजन के लिये मुट्ठी भर गोबर, दूर से ही, उसके चबूतरे पर फेंक देती और कहती, “झांनवाद्दन इस गोब्बर कू अपने चौंतरे पै फैर लें।“ वो सफाई की दीवानी, उस गोबर में अपने पानी पीने वाले लोटे से ही पानी मिलाती और चबूतरे को बड़ी अच्छी तरह से लीपती। कोई न कोई उसे रोज गोबर दे जाता और वो रोज यही दोहराती। दिन फिर भी शांति से निकल जाता,पर शाम उसके लिये बड़ी दुःख देने वाली होती। गांव के छोटे-छोटे लड़कों की टोलियाँ आतीं, कभी डण्डियों से उसका करीने से रखा सामान या कहें ‘‘सम्पदा’’ बिखेर देतीं, कभी उसके चबूतरे पर मिट्टी या पत्ते फेंक देतीं, कोई उसकी कमर पर डण्डी मार कर भाग जाता। वो चिल्लाती, ‘‘हाय मुझें मार दिया, मेरा घर उजाड़ दिया उत्तों नै, तुम मर जाओ कमबख्तों, तुमै हैज्जा लेज्जा।’’
और वो इसी तरह घण्टों रोती-बड़बड़ाती और अपनी टहनियां फिर करीने से लगाने लगती। आस-पड़ोस की औरतें बच्चों पर गुस्सा करतीं। इसलिये नहीं कि वो रेशमा को परेशान होने से बचाना चाहती थीं बल्कि इसलिये कि शाम के समय रो-धोकर, गालियां देकर उसके फैलाए अपशगुन से खुद को बचा सकें। एक बात तो थी, उसे किसी ने जैसे भी चिढ़ाया हो पर उसका शारीरिक शोषण करने की बात कोई सोच भी नहीं पाया, भले ही वो दिन-रात अकेली शीशम से बंधी चबूतरे पर क्यों ना पड़ी रही हो
उस बार जब मैं बच्चों के साथ घूमने निकली तो बच्चे सबसे पहले मुझे झानंवाद्दन ही दिखाने ले गए। वो बार-बार कहे जा रही थी, “छोड़ दे रे अजीजा, छोड़ दे रे अजीजा।“ मेरे साथ के बच्चों में से एक ने उसकी पीठ पर डण्डी मारकर उसका ध्यान अपनी ओर किया, दूसरा बोला, “झांनवाद्दन-झांनवाद्दन मैं जा रया हूँ अजीजा के पास, मैं छुड़वाऊँगा तुजै। तू गाक्कै सुना। “ वो पगली अपनी छोड़ दे रे अजीज़ा, छोड़ दे रे अजीजा की रट छोड़ कर तुरन्त गाने लगी,
“पत्ता टूटा डाल से और ले गई पवन उड़ाय अबके बिछड़े ना मिलैं कहीं दूर बसैंगे जाए रे, अल्ला के प्यारों, मौला के प्यारों।“ उसका गाना खत्म हुआ तो, “छोड़ दे रे अजीजा, छोड़ दे रे अजीजा” की रट फिर शुरू हो गई थी। इस बार दूसरे लड़के ने कहा, “तुझे मैं छुड़वाऊँगा अजीजा से, चल नांच कै दिखा।“ और वो अपनी मुँह से कुछ संगीत सा निकालने लगा। मैं उस लड़के को रोकना चाहती थी पर मुंह से शब्द ही नहीं निकले, मैं घर की तरफ मुड़ने लगी। इसी बीच झांनवाद्दन की नज़र मुझ पर पड़ गई वो बड़ी कर्कश आवाज में चिल्लाई, “अफसर की बेट्टी, ए अफसर की बेट्टी रुक जा मैं तेरे लिये खजूर ला रही हूँ, खाक्कै जाना।“
तो ये झांनवाद्दन रेशमा है ! नहीं, ये भयानक औरत वो रेशमी गुड़िया कैसे हो सकती है? इतनी जानी पहचानी वो, मुझे जरा भी पहचान में नहीं आई। उसकी रेशमी-गुलाबी चमड़ी काली स्याह पड़कर जगह-जगह से चटक गई थी। हल्की नीली आंखेँ गहरे काले गड्ढों में बन्दिनी बनी पड़ी थी। उसके रेशमी-घने, सुनहरे बाल आपस में बुरी तरह गुत्थम-गुत्था हो रहे थे। चेहरा कुल मिलाकर ऐसा हो गया था, जिसे ज्यादा देर देख पाना मेरे लिये सम्भव नहीं था। किसने किया उसका इतना बुरा हाल? भगवान उसे सजा जरूर देंगे। मेरी आंखों में आंसू आ गए। इस बार वो थोड़े धीमे स्वर में बोली, “ए अफसर की बेट्टी, अफसर से कहना कि मुजै अजीजा से छुडवा दें। इंघे कू आ ना मेरे धोरे कू।“ जाने कौन सी भावना के वशीभूत हुई मैं चबूतरे के बिल्कुल पास चली गई, वो भी चेन को थोड़ी ज्यादा खींचकर मेरी तरफ आई। उसके हाथों में मेरे बाल आ गए। मेरे साथ आए सारे बच्चे सहम गए। मैं नहीं जानती मुझे उससे डर क्यों नहीं लगा? मैं और थोड़ी आगे खिसक गई। उसने मेरे बाल छोड़ दिये, मेरे सिर पर अपना हाथ बड़ी जोर से रखकर मुझे आशीष देने लगी। “अल्ला तुजै लम्बी उमर दे, तू जीती रे”, और फिर वो फफक-फफक कर रो पड़ी थी। “अफसर की बेट्टी अजीजा ने मेरे सारे बालकों कू मार दिया।“ वो मेरा हाथ पकड़कर बार-बार यही कहे जा रही थी। मेरे साथी बच्चों ने मेरा दूसरा हाथ पकड़कर कर मुझे खींच लिया था। वो चिल्लाती ही रह गई, “अफसर की बेट्टी, ए अफसर की बेट्टी मेरी बात सुनती जा, अफसर की बेट्टी मेरी बात तो सुनती जा।“
मैं रुकना चाहती थी पर चाची की बेटी सोम्मी मेरा हाथ पकड़कर मुझे खींचती हुई घर ले आई। घर आकर अम्मा से मेरी शिकायत लगाने लगी, कि मैं झांनवाददन के चबूतरे के पास चली गई थी। अम्मा मुझ पर थोड़ा सा गुस्सा भी हुई थी। झांनंवाद्दन की आवाज हमारे घर तक आ रही थी। वो गाना गा रही थी। “पत्ता टूटा डाल सै और ले गई पवन उड़ाय अब कै बिछड़े ना मिलै कहीं दूर बसैगें जाए रे अल्ला के प्यारों, मौला के प्यारों।“ मुझे लगा जैसे इस बार वो ये गाना मुझे ही सुना रही थी। गाना थोड़ी देर गाया होगा कि फिर वही, “छोड़ दें रे अजीजा, छोड़ दें रे अजीजा ” की रट शुरू कर दी थी उसने।
उस दिन घर लौट कर मैं बेहद उदास थी, पिता जी से कहा, पिता जी रेशमा को छुड़वा दो प्लीज। अगले दिन पिता जी ने अजीजुद्दीन को बुलवाकर उससे बात भी की, रेशमा को किसी पागल खाने में भरती कराने के लिए। अजीजुद्दीन ने बताया कि एक बार वो उसे छोड़कर आया था, पर वो भागकर घर आ गई, उसे एक बार उसके पीहर भी छोड़कर आया था पर वो वहां से भी भागकर आ गई थी। कौन जाने वो हर जगह से लौट कर अपने नन्हें-मुन्नों की किलकारियां सुनने और अपने अरब गये प्रेमी की प्रतीक्षा करने के लिए, दौड़ कर खुशी-खुशी जंजीरों से बंधने के लिए वापिस वहीं आ जाती हो। अजीज कहता था उसे खोलकर तो नहीं रखा जा सकता। क्योंकि वो सोचता होगा कि रेशमा ना जाने कब किसकी आंखों में गरम तकुए घुसा देगी। पर मूर्ख था वो जानता नहीं था कि उस आत्माभिमानिनी को तो सिर्फ अपने अपराधी को ही सजा देनी थी। ये भी सुना गया कि अजीजुद्दीन ने रेशमा के तीनों बच्चे उसी अरब के शेख को बेच दिये, उससे कहा कि तीनों मर गए, तभी उसकी मानसिक स्थिति बुरी तरह बिगड़ गई थी। जब मैं अम्मा को रेशमा के विषय में बता रही थी, चाची तपाक से बोली थीं, “जाद्दै दया करने की जरूरत ना है इसपै, इन्नैं बी छोटा गुनाह ना करा, औरत होक्कै इन्नै अपने जेठ के बेट्टे की दोन्नों आंख फोड़ दई थीं।“ “चाची औरत होक्के मतलब ?” इस पर चाची ने उत्तर दिया तो मैं अवाक रह गई थी, “ मरद की जात कुछ बी कल्ले औरत कू यो सब सोभा नईं देत्ता, अभी ना समझनेकी है तू, बड़ी होज्जागी न जब समझगी ।“ मर्द की जात कुछ भी कर ले मतलब ? अजीब बात थी चाची तो सच्चाई जानती थी फिर भी उसी को अपराधिनी ठहरा दिया। माना कि आंखेँ आदमी के लिए उसकी अनमोल धरोहर हैं। पर समाज में स्त्री की आबरू उससे कम है क्या? क्या लुटी हुई आबरू के साथ, समाज किसी स्त्री को सम्मानित ओहदा देता है? या कहें, दे पाता है क्या ? खुद स्त्री का अपना पति भी उसके साथ हुई इस दुर्घटना को भूलकर अपने आपसी सम्बन्ध को सहज नहीं बना पाता। कोई उसे ताने दिये बगैर नहीं छोडता, ज्यादातर औरतें ऐसे हादसों के बाद आत्महत्या तक कर लेती हैं फिर रेशमा का अपराध अजीजुद्दीन के बेटे के अपराध से बड़ा कैसे हुआ ? मैं तब भी नहीं समझ पाई थी ना आज समझ पाई हूँ और संभवतः यह प्रश्न मेरे मन में हमेशा अनुत्तरित ही रहेगा। क्या वो अपराधी बड़ा नहीं जिसने अपराध की शुरूआत की?
डेढ़ महीने तक मैं रोज उससे मिलती रही, अम्मा की डांट पड़ते रहने के बावजूद, दो-चार आंसू भी उस पर बहाती रही। इस बार डेढ़ महीने का उत्सव मेरे लिये उदासी बनकर आया था। उसके अगले बरस हम गांव नहीं आ सके थे। जहां पिता जी की पोस्टिंग थी वहां दो विरोधी पक्षों के बीच तनाव हो गया था। कर्तव्य को प्राथमिकता देने वाले पिता जी ने अपना डेढ़ माह का ग्रामीण उत्सव इस बार बलिदान कर दिया था। हम सब सारी छुट्टियाँ वहीं बोर होते रहे। मुझ बच्ची की कल्पनाओं में सारी छुट्टियों में झांनवाद्दन घूमती रही। जैसे अजीजुद्दीन ने उसका इलाज करा दिया होगा और वो फिर से वहीं रेशमा बना गई होगी। रईसुद्दीन लौट आया होगा और अब वो फिर अपने उसी घर में अपने पति और अपने तीनों बच्चों के साथ खुशी-खुशी रहने लगी होगी। जब मैं इस बार जाऊँगी तो मुझे प्यार से खाट पर बैठा देगी। इस बार वो अरबी खजूर नहीं मुझे गुड़ ही खिलाएगी अपने गांव का बना हुआ। खूब सूत कातने लगी होगी, जितने समय नहीं काता उसके हिस्से का भी। और भी ना जाने क्या-क्या अच्छा – अच्छा सोचती में अपनी उस प्रिया के लिए । वो साल बिना गांव आए बीत गया।
जब हम उसके अगले बरस गांव आए तो आते ही मैं सबसे पहले छत पर से वो चबूतरा देखने को भागी जिसके बीचों – बीच खड़े शीशम के पेड़ से रेशमा बंधी रहती थी। परन्तु चबूतरा खाली था। उस पर लोहे की दोनों चेन पेड़ से अभी भी बंधी पड़ी थी। शायद अजीजुद्दीन ने उन्हें गांव की औरतों को ये सजा याद दिलाते रहने की वजह से ना खोला हो पर अब अजीजुद्दीन से, “छोड़ दे अजीजा, छोड़ दे रे अजीजा” की गुहार लगाने वाली झांनवाद्दन वहां नहीं थी। अजीजुद्दीन ने उसे कभी स्वतंत्र नहीं किया तो क्या? वो खुद उड़ गई थी सारे बन्धन छुड़ाकर।
उस रेशमी गुड़िया पर मौसमों की कितनी भी मार क्यों ना पड़ गई हो या उसके बेतहाशा रूप पर कुरूप, डरावनी झांनवाद्दन का भयानक चेहरा क्यों ना चढ़ गया हो, मैं उसे रेशमा के नाम से ही जानूंगी, याद करूंगी। उसके खिलाए खजूरों की मिठास मेरी स्वाद ग्रन्थियां आजीवन नहीं भूलेंगी। मैं, हमेशा मानूंगी उसने साहस या दुस्साहस जो भी किया था व्यर्थ नहीं गया। अजीजुद्दीन के लड़के जैसे निरंकुश वासना से भरे पुरुष एक बार तो ये सोचने पर मजबूर हुए होंगे कि कोई स्त्री ऐसा भयानक प्रतिशोध भी ले सकती है। किसी को तो उसके इस प्रतिशोध ने डराया भी होगा । वो डर अगर किसी एक भी रेशमा की आबरू बचा पाया तो अपना सब कुछ खोकर भी रेशमा अमर हुई। मैं छत पर खड़ी – खड़ी अभी यह सब सोच ही रही थी कि बच्चों का वही पुराना शोर सुनाई दिया मैंने चौंककर देखा तो कोई पागल सा दिखने वाला आदमी फटे – चुटे, मैले – कुचैले कपड़े पहने मुंह से अपनी खिचड़ी हो आई दाढ़ी पर लार टपकाता, बगल में पानदान दबाए, कभी डरता, कभी असपष्ट से शब्द उच्चारित करता, कभी ज़ोर – ज़ोर से चिल्लाता हुआ लंगड़ाता, गिरता – पड़ता, आगे – आगे भाग रहा था । पीछे – पीछे बच्चे उसे कंकड़ – पत्थर मारते, शोर मचाते हुए भाग रहे थे । वह कुछ जाना पहचाना सा लगा । अजीजुद्दीन………?
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17-6-19