हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ लाठी ☆ – डॉ उमेश चंद्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

 

(डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी की  यह लघुकथा  वैसे तो पितृ दिवस पर ही प्रकाशित होनी थी किन्तु, मुझे लगा कि इस कथा का विशेष दिन तो कोई भी हो सकता है। जीवन के कटु सत्य को प्रस्तुत करने के लिए डॉ उमेश जी की लेखनी को नमन।) 

 

☆ लाठी ☆ 
(एक अविस्मरणीय लघुकथा)
मैं पढ़-लिखकर नौकरी करने लगा । माँ-पिताजी ने अपना लंबा अमावस्यायी उपवास तोड़ा । उनके चेहरे पर झुर्रियों की इबारत एकाएक धूमिल पड़ गई ।
मेरी शादी कर दी गई । उन्हें प्यारी-सी बहू मिल गई । मुझे पत्नी मिल गयी । साल भर के बाद ही वे दादा-दादी बन गये । उन्हें बचपन मिल गया, लेकिन तभी दूर शहर में मेरा स्थानांतरण हो गया । मैं कछुआ हो गया।
कभी-कदा पत्रों की जुबान सुनता था कि धुंध पड़ी इबारत पर मौसम, आयु प्रभाव डाल रही है और लिखावट गहराती जा रही है । अब उन्हें राह चलते गड्ढे नज़र आने लगे हैं । उन्हें अब जीने का चाव भी नहीं रहा, यह बात नहीं थी, पर अक्सर वे कहते – ” बहुत जी लिए ।”
मेरे अपने परिवार के प्रति ज़िम्मेदारी बढ़ती गई । फिर भी मैंने उन्हें एक दिन पत्र लिखा- “बच्चों की फ़ीस, ड्रेस, टैक्सी, बस घर का किराया, महँगी किताबें-कापी के बाद रोज़ के ख़र्चे ही वेतन खा जाते हैं, कुछ बचता ही नहीं । अब बताइये, आपको क्या दूँ ?”
माँ-पिताजी ने जवाब में आशीर्वाद लिखा । फिर लिखा – बुढ़ापे का सहारा एक लाठी चाहिए । ख़रीद सकोगे ? दे सकोगे ?”
© डॉ.उमेश चन्द्र शुक्ल
अध्यक्ष हिन्दी-विभाग परेल, मुंबई-12

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – #4 – मज़ाक ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “मज़ाक ” जो निश्चित ही आपको अपने आस पास के किसी मानव चरित्र से रूबरू कराएगी। डॉ परिहार जी के साहित्य के पात्र अक्सर हमारे आस पास से ही होते हैं। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 4 ☆

 

☆ मज़ाक ☆

 

दीपक जी मकान बनवा रहे थे। बीस साल किराये के मकान में रहे। उस मकान की छत टपकती थी। दीवारें बदरंग थीं और फर्श टूटा-फूटा। उसी मकान में दीपक जी ने बीस साल काट दिये। अब बड़ी हसरत से अपना मकान बनवा रहे थे—–सागौन के खिड़की दरवाज़े, फर्श में काले-सफेद पत्थर, बाथरूम और रसोईघर में रंगबिरंगी टाइल्स और दीवारों पर मंहगा चमकदार पेन्ट। दीपक जी एक एक चीज़ को बारीकी से देखते रहते थे। मकान को बनाने में वे अपने मन की सारी भड़ास निकाल देना चाहते थे।

मकान से उन्हें बड़ा मोह हो गया था। अकेले होते तो मुग्ध भाव से दरो-दीवार को निहारते रहते थे। ऐसे ही घंटों गुज़र जाते थे और उन्हें पता नहीं चलता था। अपने इस कृतित्व के बीच खड़े होकर उन्हें बड़ा सुख मिलता था। लगता था जीवन सार्थक हो गया।

मकान को खुद देखकर उनका मन नहीं भरता था। उन्हें लगता था हर परिचित-मित्र को अपना मकान दिखा दें। मुहल्ले में कोई ऐसा नहीं बचा था जिससे उन्होंने मकान का मुआयना न कराया हो।  दूसरे मुहल्लों से रिश्तेदारों-मित्रों के आने पर भी वे पहला काम मकान दिखाने का करते थे।  चाय-पानी बाद में होता था, पहले मकान के दर्शन कराये जाते थे।  मकान दिखाते वक्त दीपक जी मेहमान के मुँह पर टकटकी लगाये, प्रशंसा के शब्दों की प्रतीक्षा करते रहते।  प्रशंसा सुनकर उन्हें बड़ा संतोष मिलता था।

उनकी दीवानगी का आलम यह था कि किसी के थोड़ा भी परिचित होने पर वे नमस्कार के बाद अपना मकान देखने का आमंत्रण पेश कर देते।  कोई ज़रूरी काम का बहाना करके खिसकने की कोशिश करता तो दीपक जी कहते—-‘ऐसा भी क्या ज़रूरी काम है? दो मिनट की तो बात है।’और वे उसे किसी तरह गिरफ्तार करके ले ही जाते।

यह उनका नित्यकर्म बन गया था। दिन में दो चार लोगों को मकान न दिखायें तो उन्हें कुछ कमी महसूस होती रहती थी।  सड़क से किसी न किसी को पकड़ कर वे अपना अनुष्ठान पूरा कर ही लिया करते थे।

एक दिन दुर्भाग्य से मकान दिखाने के लिए दीपक जी को कोई नहीं मिला। सड़क के किनारे भी बड़ी देर तक खड़े रहे, लेकिन कोई परिचित नहीं टकराया।  उदास मन से दीपक जी लौट आये।  बड़ा खालीपन महसूस हो रहा था।

शाम हो गयी थी।  अब किसी के आने की उम्मीद नहीं थी।  निराशा में दीपक जी ने इधर उधर देखा।  सामने एक मकान अभी बनना शुरू ही हुआ था।  उसका चौकीदार रोटी सेंकने के लिए लकड़ियों के टुकड़े इकट्ठे कर रहा था।

दीपक जी ने इशारे से उसे बुलाया। पूछा, ‘हमारा मकान देखा है?’

वह विनीत भाव से बोला, ‘नहीं देखा, साहब।’

दीपक जी ने पूछा, ‘कहाँ के हो?’

वह बोला, ‘इलाहाबाद के हैं साहब।’

दीपक जी ने कहा, ‘वहाँ तुम्हारा मकान होगा।’

चौकीदार बोला, ‘एक झोपड़ी थी साहब।  नगर निगम ने गिरा दी।  चार बार बनी, चार बार गिरी।  अब बाल-बच्चों को लेकर भटक रहे हैं।’

दीपक जी ने उसकी बात अनसुनी कर दी।  बोले, ‘आओ तुम्हें मकान दिखायें।’

वे उसे भीतर ले गये। फर्श के खूबसूरत पत्थर, किचिन की टाइलें, पेन्ट की चमक, दरवाज़ों का पॉलिश, रोशनी की चौकस व्यवस्था—-सब उसे दिखाया।  वह मुँह बाये ‘वाह साहब’,  ‘बहुत अच्छा साहब’ कहता रहा।

संतुष्ट होकर दीपक जी बाहर निकले।  चौकीदार से बोले, ‘तुम अच्छे आदमी हो।  बीच बीच में आकर हमारा मकान देख जाया करो।  ये दो रुपये रख लो।  सब्जी-भाजी के काम आ जाएंगे।’

चौकीदार उन्हें धन्यवाद देकर अपनी उस अस्थायी कोठरी की तरफ बढ़ गया जहाँ बैठा उसका परिवार इस सारे नाटक को कौतूहल से देख रहा था।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – ☆ दृष्टिकोण ☆ – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

 

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं। आज प्रस्तुत है पति द्वारा  रूपवान एवं विद्वान किन्तु दृष्टिबाधित पत्नी के साथ भावुकता में हुए  प्रेमविवाह के परिणाम पर आधारित  कहानी “दृष्टिकोण”।) 

☆ दृष्टिकोण ☆

निकल!” सुमित अपनी दृष्टिबाधित पत्नी दिव्या को धक्के मारता हुआ घर के द्वार तक ले आया।

“मैं कहीं नहीं जाऊंगी, ये तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी घर है!” दिव्या नेपति से किसी तरह स्वयं को छुड़ाते हुए कहा।

“ये घर तेरा कैसे हुआ, जरा मैं भी तो सुनूँ? क्या तेरे बाप ने दहेज में दिया था, तुझे तो खाली हाथ मेरे गले डाल दिया था तेरे बाप ने, मैं अब और नहीं सह सकता तुझे, जहाँ तेरा मन करे जा, पर मेरा पीछा छोड़,” सुमित ने पुनः दिव्या की बाजू पकड़ कर दरवाजे की ओर धकेलते हुए कहा।

“पर मेरा कुसूर क्या है, तुम मुझ से इतनी नफ़रत क्यों करते हो?”  दिव्या ने सुमित से दृढ़ स्वर में पूछा।

“कुसूर? तुम्हारा अंधी होना क्या कम कुसूर है? मैं आखिर तुझे कब तक ढोता रहूँ?” सुमित ने गरजते हुए कहा।

“क्या तुम्हें मेरी ये प्रकाशहीन आँखें उस दिन नहीं दिखाई दी थीं, जब रात-दिन मेरे तथा मेरे माता-पिता की मिन्नतें करते नहीं थकते थे? तब तो तुम मेरी खूबसूरती के गीत गाया करते थे।  कहाँ गयीं वे बातें जब कहते थे, “आँखें नहीं हैं तो क्या हुआ, पढ़ी-लिखी तो हो, दिल तो तुम्हारा सुन्दर है, निश्पाप है? फिर अब मुझ में अचानक क्या परिवर्तन आ गया?” दिव्या ने पूछा।

“उसी एक भूल की तो सजा भुगत रहा हूँ अभी तक!” सुमित ने दिव्या का हाथ छोड़ते हुए कहा और कुछ सोचता हुआ अंदर चला गया।

दरअसल, दिव्या और सुमित दोनों कॉलेज में एक ही कक्षा में पढ़ा करते थे।  दिव्या न केवल पढ़ाई में सर्वश्रेष्ठ थी, बल्कि बला की खूबसूरत थी।  सभी की सहायता करना उसका स्वभाव था। जो विद्यार्थी कक्षा से अनुपस्थित रहते अथवा जिन्हें कुछ समझ नहीं आता, वे दिव्या के पास आते और दिव्या भी उन्हें संतुष्ट करके ही भेजती।  सभी सहपाठी उसका बड़ा आदर करते थे।

सुमित भी दिव्या से कभी-कभी कुछ पूछने आ जाया करता था।  धीरे-धीरे उसका मिलना दिव्या से बढ़ने लगा।  लेकिन यह मिलना अब पहले वाला नहीं रहा था।  वास्तव में दिव्या उसे अब अच्छी लगने लगी थी।  अब आलम यह हो गया कि किसी-न-किसी बहाने, सुमित सदैव दिव्या के इर्द-गिर्द ही मंडराता रहता।  एक-दो बार दिव्या ने उसे कह भी दिया, “सुमित, यदि तुम इधर-उधर घूमते ही रहोगे तो पढ़ाई कब करोगे? यही समय है पढ़ लोगे तो जीवन भर सुख पाओगे!”

“बात यह है दिव्या, मैं चाह कर भी तुम से दूर नहीं रह पाता। दरअसल, मैं तुम से प्यार करने लगा हूँ।” सुमित ने दिव्या के सामने अपने प्यार का इज़हार करते हुए कहा।

“सुमित मुझे इस प्रकार का भद्दा मज़ाक कतई पसंद नहीं है! ऐसा प्यार भावावेश की कमजोर बैसाखियों पर टिका होता है, जो जरा-सी तेज हवा के साथ उड़ जाता है और हल्की-सी तेज धूप में कुम्हला जाता है।  ईश्वर के लिए मुझ से इस तरह का मज़ाक फिर कभी मत करना!” कह कर उसने अपने हेंड-बैग से फोल्डिंग स्टिक निकाली और कक्षा की ओर बढ़ गयी।

सुमित हदप्रद-सा बैठा दिव्या को जाते हुए देखता रहा।  जब दिव्या उसकी आँखों से ओझल हो गयी तो वह गहरी सोच में डूब गया।  बहुत देर तक सोचते रहने के पश्चात् वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अब वह दिव्या के बिना जी नहीं सकेगा।  दिव्या ही अब उसकी जिन्दगी है।  क्या हुआ अगर उसकी आँखों में रोशनी नहीं है, उसके अलावा तो उसमें सब कुछ है।  सुन्दर है, सुशील है, विदूषी है, एक आँखें न होने से क्या इतने गुण कम हो जाते हैं?  नहीं, अब कुछ भी क्यों न करना पड़े, मैं अब उसके बिना नहीं रह सकता।

अगले दिन पुनः उसने दिव्या का हाथ पकड़ कर अपने घनिष्ठ मित्रों के सामने प्यार में सैकड़ों कसमें खाईं और जीवन भर साथ निभाने का वादा किया।  उसके मित्रों ने भी उसे समझाया, मगर उसपर तो प्यार का भूत सवार था, किसी के समझाने का उस पर असर न हुआ।  एक मित्र ने उसे परामर्श दिया कि वह पहले अपने माता-पिता से पूछ कर देखे कि क्या वे एक दृष्टिबाधित लड़की को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करने को तैयार हैं? कहीं ऐसा न हो कि बेचारी दिव्या का जीवन नष्ट हो जाए।  अन्य मित्रों ने भी उसके इस विचार का समर्थन किया।

संध्या काल जब वह अपने घर गया तो उसने अपनी माँ से इस विषय में बात की, जिसने

अपना फरमान सुना दिया कि यदि तुम अपनी मर्ज़ी से विवाह कर रहे हो तो अपना बोरिया

-बिस्तर बाँध कर इसी समय घर से निकल जाओ।  उसी बीच उसके पिता भी घर पहुँच गये।

माँ-बेटे के बीच होती बहस को विराम देने के उद्देश्य से पूछा,  “भाई ऐसा क्या हो गया, जो माँ-बेटे के बीच आज ठनी हुई है? क्या कोई हमें भी कुछ बताएगा?”

तुम्हारा लाड़ला ही बताएगा, मुझ से क्या पूछते हो?  तुनक कर उनकी पत्नी ने उत्तर दिया।

“हाँ, सुमित चलो तुम्हीं बताओ कि मामला क्या है? उन्होंने पुत्र की ओर घूमते हुए पूछा।

पिता का प्रश्न सुनते ही सुमित ने आँखें झुका लीं और चुपचाप वहाँ से उठ गया।  उसके जाने के पश्चात् रामदेव जी ने पत्नी के नजदीक पहुँच कर उसके कंधे पर हाथ रख कर बड़े प्यार से पूछा, “क्या बात है, आज मूड कैसे बिगड़ा हुआ है हमारी सरकार का?”

“पत्नी ने उनका हाथ झटकते हुए मुँह फेर कर कहा, “अपने लाड़ले से ही पूछिये, आज-कल वह कॉलेज में पढ़ने नहीं, बल्कि इश्क लड़ाने जाता है। किसी अंधी लड़की से प्यार करने लगा है और कहता है, उसी से विवाह करेगा। जिसके जी में जो आए करे, मैं तो घर में केवल रोटियाँ बनाने के लिए हूँ।”

पत्नी की बात सुन कर रामदेव भी गम्भीर हो गये। प्यार तो उन्होंने भी किया था, पर बद्किसमती से अपनी प्रेमिका को पत्नी नहीं बना सके थे। वे अपने अतीत में डूब गये। नहीं, जो उनके साथ हुआ है, वे अपने पुत्र के साथ ऐसा अन्याय कदापि नहीं होने देंगे, वे उसके साथ हैं, अपने ही हृदय में उन्होंने एक निश्चय कर लिया। उसके पश्चात वे अपने पुत्र के पास गये और उसके पास बैठ कर सारी बातें सुनीं। उसके बाद उन्होंने कहा, “देखो सुमित तुम विवाह अपनी पसंद की लड़की से करना चाहते हो, मुझे कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु मेरी सलाह है कि अपने निर्णय पर एक बार पुनः विचार करो, क्योंकि वह लड़की जैसा तुम बता रहे हो, सामान्य नहीं है, दिव्यांग है। कहीं ऐसा न हो कि तुम विवाह के मामले में जल्दबाजी कर रहे हो। मैं यह कभी नहीं चाहूंगा कि बाद में किसी तरह की समस्या पैदा हो।

“मैं कई बार सोच चका हूँ, मैं उसका जीवन भर साथ निभाऊंगा। मैं उसे अपनी आँखों से दुनिया दिखाऊंगा।” सुमित ने पिता को भरोसा दिलाते हुए कहा।

“तो ठीक है, मेरी ओर से कोई रोक नहीं है, तुम शौक से विवाह करो, मेरा समर्थन है”।

रामदेव जी ने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए अपनी स्वीकृति दे दी।

खुशी से जैसे सुमित पागल ही हो गया था। उस रात उसे नींद नहीं आई और प्रातः होते ही कॉलेज के लिए निकल गया। अभी कोई भी नहीं आया था। वह गेट के पास ही अपने मित्रों का इंतजार करने लगा। जैसे ही वे आए, दौड़ कर वह उनके गले लग गया और अपनी खुशी उनके साथ साँझा की। उसके बाद वे दिव्या से मिले। दिव्या ने कहा, “देखो सुमित, अभी तुम्हें मैं बहुत सुन्दर लग रही हूँ। इसका कारण तुम जानते हो? इसका कारण है तुम्हारा मेरी सुन्दर काया के प्रति क्षणिक आकर्षण। जिस दिन ये आकर्षण समाप्त हो जाएगा, मेरे लिए तुम्हारे दिल में न प्यार बचेगा और न ही सहानुभूति। अतः मैं तुम्हारे भावावेश में लिए इस निर्णय से सहमत नहीं हूँ। तुम इस विषय पर दोबारा ठंडे दिमाग से विचार करो। तुम मेरी जिस खूबसूरती पर मर-मिटे हो, एक दिन इसका तुम्हारे लिए कोई महत्व नहीं होगा। उस समय पछताने से अच्छा है कि तुम मेरा ही नहीं, अपितु अपना भी भला-बुरा समझ लो।”

प्रेरणा ने दिव्या की इस बात का समर्थन किया। उसकी देखा-देखी और मित्र भीउसे अपने निर्णय पर पुनः विचार की सलाह देने लगे।

सुमित ने अपने निर्णय पर दृढ़ रहते हुए अपना फैसला पुनः दोहराते हुए कहा कि चाहे दुनिया इधर-से-उधर हो जाए, पर उसका निर्णय यही रहेगा। उसके पश्चात् सभी मित्रों ने दिव्या को समझाते हुए सलाह दी, “देखो दिव्या, तुम्हें इतना प्यार करने वाला पति मिल रहा है तो इस अवसर को तुम्हें जाने नहीं देना चाहिये। ऐसे सुखद अवसर जीवन में बार-बार नहीं आते।”

दिव्या ने उनकी बात सुनकर पुनः कहना प्रारम्भ किया, “तो ठीक है, यदि तुम्हारे पिता जी विवाह के लिए तैयार हैं तो उन्हें मेरे घर भेजिये ताकि आगे बात बढ़ सके।”

सुमित ने वैसा ही किया। रामदेव जी दिव्या के पिता जी से मिले और उन्हें विवाह के लिए तैयार कर लिया। लेकिन सुमित की माँ किसी तरह भी राजी न हुई। हालाँकि विवाह भी हो गया और दिव्या सुमित के घर आ गयी, मगर माँ का क्रोध न शांत होना था, न हुआ। सुमित को माँ की नाराजगी के कारण अपने दूसरे मकान में जाना पड़ा। घर चलाने के लिए सुमित ने कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और एक निजी कम्पनी में क्लर्क की नौकरी कर ली और दिव्या ने कॉलेज जारी रखा। आखिर उसने प्रथम श्रेणी में स्नातक की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। इसका परिणाम यह हुआ कि उसे बी.एड में आसानी से प्रवेश मिल गया। बी.एड समाप्त होते ही उसे अध्यापक की नौकरी भी मिल गयी।

दूसरी ओर शनैः-शनैः सुमित के सिर से प्यार का भूत उतरने लगा। वह बात-बात पर दिव्या के साथ उलझने लगता। कई बार तो बात इतनी बढ़ जाती कि सुमित कई-कई दिन के लिए घर से गायब हो जाता।  उसकी माँ सदैव उसके कानों में विष उड़ेलती रहती।  वह सदैव एक ही राग अलापती, “सुमित, तू ने मेरे अरमानों में आग लगा दी। गाज़ियाबाद वाले अब भी मेरे पीछे पड़े हैं।  बेटा, यदि  तू एक बार मुझे अपनी स्विकृति दे दे, फिर देख, तेरी जिंदगी मैं कैसे बदल देती हूँ।  लड़की अभी एम.फिल में पढ़ रही है और उसके पिताजी एक फ्लैट और कार देने को तैयार हैं। मुझे सोच कर बता दे ताकि मैं आगे बात कर सकूँ”। उसी दिन से सुमित के व्यवहार में परिवर्तन दिखाई देने लगा। वह दिव्या पर छोटी-सी बात पर भी झल्ला जाता और उसे खरी-खोटी सुनाने लगता। बढ़ते-बढ़ते बात यहाँ तक पहुँच गयी कि दिव्या से छुटकारा पाने का उपाय ढूँढ़ने लगा। अब सुमित को माँ के अलावा और किसी की बात भाती ही नहीं थी। वह उसी के बताए रास्ते पर पालतू कुत्ते के समान दौड़ रहा था।

अगले दिन नित्य की भाँति दिव्या उठते ही अपने दैनिक कार्यों में जुट गयी। उसने अपने तथा सुमित के लिए नाश्ता तैयार किया, तदोपरांत वह विद्यालय के लिए तैयार होने लगी।  तैयार हो कर उसने सुमित का नाश्ता लगा दिया और उसे आवाज़ दी।  सुमित भी नाश्ते की मेज पर गुमसुम आ बैठा।  दिव्या ने चाय बना कर प्याला सुमित के सामने रख दिया और स्वयं भी नाश्ता करने लगी।  सुमित चाय पीकर उठ गया, नाश्ते को उसने हाथ भी न लगाया।  जब दिव्या ने नाश्ता समाप्त कर के बर्तन उठाए तो सुमित का नाश्ता ज्यों का त्यों पाया।  उसने सुमित को आवाज दी और नाश्ता न करने का कारण पूछा।  वह बोली, “सुमित तुम नाराज़ तो मुझ से हो, नाश्ते ने क्या बिगाड़ा है?  प्लीज़ खा लो!”

“नहीं, मुझे भूख नहीं है,” सुमित ने कहा।

उसके बाद दिव्या ने भी अधिक जिद न की।  बर्तन किचन में रखकर वह अपने कमरे में आई और पर्स उठा कर विद्यालय के लिए रवाना होते हुए कहा, “मैं जा रही हूँ, दरवाजा बंद कर लो!”

लेकिन सुमित ने उत्तर में कुछ न कहा और दरवाजा बंद करने आ गया।  बाहर निकल कर दिव्या ने रिक्शा लिया और विद्यालय पहुँच गयी।

दिन भर वह अपने और सुमित के विषय में ही सोचती रही।  जब उसकी छुट्टी हुई तो उसने घर के लिए रिक्शा ले लिया और घर के दरवाजे पर जा उतरी।  दरवाजे पर ताला लटका था, अतः उसने अपने पर्स से चाबी निकाली और ताला खोलने लगी।  परन्तु ये क्या! सुमित घर का ताला बदल  गया था।  उसने मोबाइल निकाला और सुमित को कॉल कर दिया।  सुमित ने फोन उठाया तो दिव्या ने दूसरा ताला लगाने का कारण पूछा।  उसने कहा, “अब से मेरा और तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं, तुम जहाँ चाहे रहो, इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए बंद हो गये हैं। वैसे तुम्हें कल तक तलाक का नोटिस भी मिल जाएगा और मुझे आज के बाद कभी फोन नहीं करना, समझी!”

फोन कट गया था, मगर मोबाइल अब भी उसके कान से लगा था।  उसे अपने कानों पर जैसे भरोसा ही नहीं हो रहा था कि सुमित इतना भी नीचे गिर सकता है।  एक बार तो वह घबराई, परन्तु उसने दूसरे ही पल स्वयं को सम्भाल लिया और अपने मन में जैसे कोई कठोर निश्चय कर के वह पुनः उसी रिक्शे पर बैठ गयी।

 

© श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार’ 

दिल्ली

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #1 रमा बाई ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

 

(हम डॉ भावना शुक्ल जी  के हृदय  से आभारी हैं जिन्होने “साहित्य निकुंज” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ के आग्रह को स्वीकार किया। आपकी  साहित्य की लगभग सभी विधाओं में  रचनाएँ प्रकाशित/प्रसारित हुई हैं एवं आप कई  पुरस्कारों /अलंकरणों से  पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी साहित्यिक यात्रा की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया  >> डॉ. भावना शुक्ल जी << पर क्लिक करने कष्ट करें। अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की लघुकथा “रमा बाई”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #1  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ रमा बाई ☆

 

आज तडके ही रमा बाई दौड़-दौड़ी आई बोली… बीबी जी काम जल्दी करवा लो आज नीचे वाले घर में कन्या भोज का बहुत बड़ा परोगराम है ।

हमने कहा “अच्छा तभी आज बहुत सज संवर कर आई हो । आज बच्चे भी साथ लाई हो ।”

“जी बीबी जी, कहिये जल्दी काम करूं नहीं तो 12 बजे के बाद आ पाऊंगी ।”

“ठीक है कोई बात नहीं बाद में ही आना, अभी हम भी आरती में शामिल होने नीचे ही आ रहे है ।”

“अच्छा बीबी जी ।”

ठीक 12 बजे घर की घंटी बजी सामने रमा बाई खडी थी।

हमने कहा – “हम तेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे ।अरे! क्या हुआ चुप क्यों खड़ी हो कुछ तो बोलो।  मुँह पर बारह क्यों बज रहे है? ”

“क्या बताऊं बीबी जी नीचे वाली बीबीजी का सारा काम हो गया । सब कन्या खा कर गई उसके बाद हमने बीबी जी से कहा अब हम भी जायेंगे तो अब हमें भी कुछ प्रसाद खाने को दे दो ।  तो मालूम वह क्या बोली? आज के दिन हम छोटी जाति के लोगों खाना नहीं देते कल देंगे ” ।

तब हम बोली बीबीजी “हमको क्या तुम बासा खाने को दोगी ? अपने पास ही रखो, अभी हमारे घर में इतना खाना है कि आप चलो हम आपको भी खिला देंगे। ”

 

© डॉ भावना शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #3 ☆ सबक ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  शिक्षाप्रद लघुकथा “सबक ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #2 ☆

 

☆ सबक ☆

 

मैडम ने सोच लिया था कि आज पान मसाला खाने वाले छात्र को रंगे हाथ पकड़ कर सबक सिखा कर रहूंगी. इसलिए जैसे ही छात्र ने खिड़की की ओर मुँह कर के ‘पिच’ किया वैसे ही मैडम ने उसे पकड़ लिया.

“क्यों रे ! पान मसाला खाता है शर्म नहीं आती” कहते हुए मैडम ने उस के कान पकड़ लिए.

छात्र कुछ नहीं बोला.

“बोलता क्यों नहीं है ? कहाँ से सीखा, ये गंदी आदत?” मैडम गुस्से से चीखी.

छात्र डर कर काँप गया. उस के मुंह से निकला “गोपाल सर से !” और उस के हाथ सर की कुर्सी के पास वाली खिड़की की ओर चले गए. जिस पर पान मसाले के निशान पड़े हुए थे.

उन निशानों को देख कर मैडम चौंक उठी. वो छात्र को सबक सिखाने गई थी, खुद ही सबक ले कर चुपचाप चली आ गई.

वे छात्र को क्या जवाब देती ? समझ न सकीं.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #2 – सुख-दुख के आँसू……☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही लघुकथा  “सुख-दुख  के आँसू”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #2  ☆

 

☆ सुख-दुख के आँसू…… ☆

 

अपने सर्वसुविधायुक्त कमरे में सुख के समस्त संसाधनों पर नजर डालते हुए वृध्द रामदीन को पूर्व के अपने अभावग्रस्त दिनों की स्मृतियों ने घेर लिया। अपने माता-पिता के संघर्षपूर्ण जीवन के कष्टों के स्मरण के साथ ही बरबस आंखों ने अश्रुजल बहाना शुरू कर दिया।

उसी समय, “चलिए पिताजी- खाना खा लीजिए” कहते हुए बहू ने कमरे में प्रवेश किया।

अरे–आप तो रो रहे हैं! क्या हुआ पिताजी, तबीयत तो ठीक है न?

हाँ बेटी, कुछ नहीं हुआ तबीयत को। ये तो आँखों मे दवाई डालने से आंसू निकल रहे हैं, रो थोड़े ही रहा हूँ मैं ।

तो ठीक है पिताजी, चलिए मैं थाली लगा रही हूँ ।

दूसरे दिन सुबह चाय पीते हुए बेटे ने पूछा–

कल आप रो क्यों रहे थे, क्या हुआ पिताजी, बताइये हमें?

कुछ नहीं बेटे, बहु से कहा तो था मैंने कि, दवाई के कारण आंखों से आंसू निकल रहे हैं।

पर आंख की दवाई तो आप के कमरे में थी ही नहीं, वह तो परसों से मेरे पास है,

बताइए न पिताजी क्या परेशानी है आपको, कोई गलती या चूक तो नहीं हो रही है हमसे?

ऐसी कोई बात नहीं है बेटे, सच बात यह है कि, तुम सब बच्चों के द्वारा आत्मीय भाव से की जा रही मेरी सेवा-सुश्रुषा व देखभाल से द्रवित मन से ईश्वर से तुम्हारी सुख समृध्दि की मंगल कामना करते हुए अनायास ही खूशी के आंसू बहने लगे थे, बस यही बात है।

किन्तु, एक और सच बात यह भी थी कि इस खुशी के साथ जुड़ी हुई  थी पुरानी स्मृतियाँ। रामदीन अपने माता-पिता के लिए उस समय की परिस्थितियों के चलते  ये सब नहीं कर पाया था, जो आज उसके बच्चे पूरी निष्ठा से उसके लिए कर रहे हैं।

सुख-दुख के यही आँसू यदा-कदा प्रकट हो रामदीन के एकाकी मन को ठंडक प्रदान करते रहते हैं।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – ☆ मौत का खेल ☆ – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

 

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं। आज प्रस्तुत है  बाल मनोविज्ञान एवं माता पिता की मानवीय संवेदनाओं को उकेरती भावुक कथा  “मौत का खेल”।  आज सोशल मीडिया पर ऐसे विडियो गेम्स आ गए हैं जो बच्चों की मनोवृत्ति को किस तरह अपने कब्जे में कर लेते हैं इसकी जानकारी माता पिता को होना अत्यंत आवश्यक है। यह एक दुखांत किन्तु शिक्षाप्रद कहानी है जिसे प्रत्येक अभिभावक को अवश्य पढ़नी चाहिए। ऐसे विषयों पर साहित्यिक रचना के लिए श्री सिसोदिया जी  बधाई के पात्र हैं।) 

☆ मौत का खेल ☆

“मम्मी, मैं खेलने जा रहा हूँ, ओके बाय!” अंकुर ने दूध का गिलास सिंक में फेंकते हुए कहा और दरवाज़ा खोल कर बिना अपनी माँ के उत्तर की प्रतीक्षा किये घर से बाहर भाग गया।

“अरे! अपने पापा के घर आने से पहले ज़रूर आ जाना, वरना वे बहुत गुस्सा होंगे!” अंदर से सुमन ने बाहर भागते अपने पुत्र को लगभग चिल्लाते हुए हिदायत दी। परन्तु सुमन की आवाज़ जैसे अंकुर ने सुनी ही नहीं। वह तो अपने मित्रों की ओर भागा जा रहा था। वह सोच रहा था कि आज भी उसके साथी उसका मज़ाक बनाएंगे कि वह तो लड़कियों की तरह घर में ही घुसा रहता है। वह हाँफता हुआ कॉलोनी के पार्क में पहुँच गया। उसे यह देख कर अपार खुशी हुई कि आज वह अपने साथियों में सबसे पहले पहुँचा था। वह उनकी प्रतीक्षा करने लगा । तभी उसे सामने से आता हुआ गौरव दिखाई दिया। आज अंकुर की बारी थी।

उसने ऊँची आवाज़ में गौरव को लक्ष्य करके कहा,

“अबे यार, मैं कब से तुम लोगों का वेट कर रहा हूँ और वह गोलू कहाँ है?”

“अच्छा बेटा, आज जल्दी आ गया तो इतना इतरा रहा है! अभी तो चार भी नहीं बजे। यह देख गोलू भी आ गया।” गौरव ने नज़दीक पहुँचते हुए उत्तर दिया।

“अबे, आज तो ढीलू भी टाइम पर आ गया”, दूर से ही गोलू ने हँसते हुए चुटकी ली।

दरअसल अंकुर को उसके साथी इसी नाम से पुकारते थे।  कारण यह था कि वह समय पर कभी नहीं पहुँचता था।  जब उसके पापा घर पर होते थे, तब तो उसका घर से निकलना ही नहीं हो पाता था।  यदि वे उसे बुलाने जाते तो अंकुर के पापा शर्मा जी, उन्हें ही डाँट कर भगा दिया करते थे। कुछ ही देर में वे सारे इकट्ठे हो गये  और क्रिकेट खेलने लगे।  गोलू बल्लेबाजी कर रहा था और सुमित गेंदबाजी।  अंकुर बाउन्ड्री बचाने के लिए सीमा रेखा पर तैनात था।

गोलू ने सुमित की एक ढीली गेंद को उछाल दिया।  अंकुर ने हवा में डाईव लगाते हुए गेंद को लपकना चाहा, किंतु वह गेंद तक नहीं पहुँच सका और पार्क की रेलिंग पर जा गिरा।  रेलिंग की नुकीली सलाखों ने उसके शरीर को लहुलुहान कर दिया।  सभी लोग इकट्ठे हो गये।  बच्चे अंकुर की छाती और गर्दन से रक्त बहता देख कर घबरा गये।  तभी कुछ सज्जन पुरुष जो पार्क में मौजूद थे, वहाँ पहुँच गये और तत्काल अंकुर को उठा कर अस्पताल ले गये और अंकुर के घर खबर भिजवा दी। शर्मा जी भी अपने दफ्तर से तुरंत अस्पताल पहुँच गये और घर से सुमन भी।

अंकुर की मरहम-पट्टी करके दवाइयाँ लिख दी गयीं और उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी।  उसे पूरी तरह ठीक होने में एक सप्ताह लग गया। लेकिन शर्मा जी ने पुत्र तथा पत्नी सुमन को सख्त हिदायत दी कि अब से अंकुर का बाहर जाना बिल्कुल बंद है। हालाँकि सुमन ने पति को बहुत समझाया कि खेलकूद में बच्चों को चोट तो लगती ही रहती है, पर शर्मा जी पर सुमन के समझाने का कोई असर न हुआ, उलटे सुमन को ही चार बातें सुननी पड़ीं।

अगले दिन शर्मा जी पुत्र के लिए लैपटॉप तथा महंगा मोबाइल ले आए।

उन्होंने उसे ये उपकरण देते हुए कहा,  “ले, मैंने तेरे लिए घर में ही खेलने का प्रबन्ध कर दिया है, अब से बाहर जा कर उन आवारा लड़कों के साथ खेलने की ज़रूरत नहीं है, समझे!”

अंकुर पहले पहल उपकरणों को देखकर चहक उठा था, लेकिन पापा की शर्त सुनकर उसका दिल बुझ गया। खुले गगन में उन्मुक्त उड़ान भरने वाले पंछी को सोने के पिंजरे में कैद कर दिया गया था। आखिरकार अंकुर को हालात से समझौता करना पड़ा। उसे भी अब मोबाइल तथा लैपटॉप पर गेम खेलने में आनंद आने लगा। कुछ दिन तक उसे बहुत छटपटाहट महसूस हुई, किंतु कुछ दिन बाद उसकी दुनिया ही इंटरनेट हो गयी।

अब वह विद्यालय से आते ही गेम खेलने बैठ जाता और फिर उठने का नाम न लेता। उसे इतना भी होश न रहता कि गृहकार्य भी करना है। विद्यालय से अब उसकी शिकायतें आने लगीं थीं। अभी तक प्रत्येक विषय में वह अव्वल आया करता था, लेकिन अब उससे सभी अध्यापक परेशान रहने लगे थे। लगभग प्रतिदिन ही विद्यालय के किसी-न-किसी अध्यापक का सुमन के पास फोन आया करता। उसके पश्चात् सुमन विद्यालय जाती और अध्यापकों तथा प्रधानाचार्य की डाँट खाकर लौट आती। वह करती भी क्या, अंकुर को वह समझा-समझा कर थक चुकी थी, परन्तु उस पर अब कहने का कोई असर होता ही नहीं था। वह सुमन की बात एक कान से सुनता और दूसरी से निकाल देता। उसके पास उसकी बात सुनने का समय ही कहाँ था।

वह तो हर समय मोबाइल अथवा लैपटॉप पर लगा रहता। कानों में इयरफोन ठुसा रहता और आँखों के सामने स्क्रीन। उसके इंटरनेट गेम की दीवानगी का आलम ये हो गया कि वह खाना-पीना सब कुछ गेम खेलते हुए ही करता। सुमन शर्मा जी से उसकी शिकायत करती तो वह यह कह कर टाल जाते कि बच्चे ऐसा करते ही रहते हैं। कुछ दिनों बाद हालत यह हो गयी कि उसे पेशाब आ रहा होता, पर वह न उठता और उसके कपड़े गीले हो जाते। सुमन बहुत चिंतित थी अपने पुत्र की इस दशा को देख कर, पर वह बेचारी क्या करती, शर्मा जी उसकी एक न सुनते थे। उसने चोरी-छुपे एक-दो बार मनोचिकित्सकों से भी सम्पर्क किया, जिन्होंने अंकुर की हालत बहुत चिंताजनक बतायी।

जब सुमन ने पति को इस विषय में शीघ्र कुछ करने के लिए कहा तो वे उस पर बहुत बिगड़े। कहने लगे, “सुमन, मुझे लगता है कि तुम मुझे समाज में उठने-बैठने लायक भी नहीं छोड़ोगी। क्या तुम जानती नहीं कि मेरी समाज में क्या पोज़ीशन है? यदि अंकुर को मनोचिकित्सक के पास दिखाने ले गये तो लोग क्या कहेंगे? वे समझेंगे कि शर्मा जी का बेटा पागल है। क्या तुम चाहती हो कि हमारे बेटे को लोग पागल कहें? तुम ने तो तिल का ताड़ बना डाला। वह मेरा बेटा है, एकदम स्वस्थ और तन्दुरुस्त समझी! अब से इस तरह की ऊट-पटांग बातें मेरे सामने कभी मत करना, वरना मुझ से बुरा कोई नहीं होगा।”

एक दिन की बात है। अंकुर विद्यालय से घर आ गया था। उसने माँ द्वारा दिया भोजन गेम खेलते हुए ही किया। उसके पश्चात् सुमन सब्जियाँ लेने के लिए बाजार चली गयी। लेकिन जब लौटी तो उसकी आँखें फटी रह गयीं। वह दहाड़ें मार कर रो पड़ी। उसकी चीखों ने घर ही नहीं पूरे मोहल्ले को हिला कर रख दिया।

पल भर में ही आसपास के महिला-पुरुषों से घर भर गया। अंकुर ने स्वयं को फाँसी लगा ली थी और मोबाइल पर एक गेम की विन्डो खुली हुई थी, जिस पर लिखा था,

“कॉंग्रेचुलेशन अंकुर! आज तुम्हारी बारी है। जाओ और खुद को फाँसी लगा कर खत्म कर दो!”

अंकुर ने उत्तर में लिखा था,

 “ओके गाइज्, आई ऐम गोइंग टू डाई। गुडबाय!”

 

© श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार’ 

दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #3 सेव पापड़ी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  पौराणिक कथा पात्रों पर आधारित  शिक्षाप्रद लघुकथा  “सेव पापड़ी ”। )

 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आदरणीया श्रीमती सिद्धेश्वरी जी ने  राजन वेलफेयर एवं डेवलपमेंट संस्थान, जोधपुर एवं लघुकथा मंच द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम स्थान  प्राप्त किया है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से हमारी सम्माननीय  लेखिका श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ  ‘शीलु’ जी को हार्दिक बधाई। 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 3 ☆

 

☆ सेव पापड़ी ☆

 

गरीब परिवार की सुंदर सी बिटिया नाम था ‘सेवती’। दुबली पतली सी मगर नाक नक्श बहुत ही सुंदर। पिताजी गंभीर बीमारी से दुनिया से जा चुके थे। मां पडोस में बरतन चौका का काम कर अपना और अपनी बच्ची गुजारा करती थी। बिटिया की सुंदरता और चंचलता सभी मुहल्ले वालो को बहुत भाती थी। सब का कुछ न कुछ काम करती रहती। बदले में उसको खाना और पहनने तथा पढने का सामान मिल जाया करता था।

पास में ही लाला हलवाई की दुकान थी। हलवाई दादा उसे बहुत प्यार करते थे। उसकी कद काठी के कारण सेवती की जगह वे उसे सेव पापड़ी कह कर बुलाते थे। अब तो सब के लिये सेव पापड़ी हो गई थी। अपना नाम जैसे वह भूल ही गई थी। धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। पढ़ाई में भी बहुत तेज थी और मन लगा कर पढ़ाई करती थीं। मां अच्छे घरों में काम करती थी सभी सलाह देते कि बिटिया को पढ़ाना। हमेशा गरीबी का अहसास कर कहती मैं इसे ज्यादा नहीं पढा सकुगीं। पर हलवाई दादा हर तरफ से मदद कर रहे थे। कभी कहते नहीं पर सभी आवश्यकताओं को पूरा करते जाते थे।

सेव पापड़ी भी उन्हें अपने पिता तुल्य मानती थी। उनके घर का आना जाना लगा रहता था। धीरे-धीरे वह बारहवीं कक्षा पास कर ली। अब तो मां को और ज्यादा चिंता होने लगी थी। पर हलवाई दादा कहते इतनी जल्दी भी क्या है। मां बेचारी बडों का कहना मान चुप हो जाती थी।। कालेज में दाखिला हो गया और आगे की पढ़ाई कर सेवती स्कूल अध्यापिका बन गई। मां अब तो और भी परेशान होने लगी ब्याह के लिए।

हलवाई दादा ने कहा अब तुम विवाह की तैयारी करो लड़का हमने देख लिया है। मुहल्ले में सभी तरफ खुशी खुशी सेव पापड़ी की शादी की बातें फैल गई। बिटिया की मां दादा को कुछ न बोल सकी। काडॅ छप गये* सेव पापड़ी संग रसगुल्ला *। ये कैसा काडॅ छपवाया दादा ने। बात करने पर कहते मै तुम्हारा कभी गलत नहीं करूंगा। तुम्हें बहुत अच्छा जीवन साथी मिलेगा। घर सज चुका था सारी तैयारियाँ हो चुकी। मुहल्ले वाले सभी अपनी सेव पापड़ी बिटिया के लिए उत्साहित थे कि दुल्हा कहा का और कौन हैं। सेव पापड़ी भी बहुत परेशान थीं। पर बडों की आज्ञा और कुछ अपने भाग्य पर छोड़ शादी के लिए तैयार होने लगी। बारात ले दुल्हा बाजे और बारातियों के साथ चला आ रहा था।

सेहरा बंधा था और कुछ जान बुझ कर दूल्हे ने अपना चेहरा छुपा रखा था। द्वार चार पूजा पाठ और फिर वरमाला। सेव पापड़ी की धडकन बढते जा रही थीं। पर ज्यो ही दुल्हे ने वरमाला पर अपना सेहरा हटाया सब की निगाहें खुली की खुली रह गई। दुल्हे राजा कोई और नहीं हलवाई दादा का अपना बेटा रमेश जो बाहर इंजीनियर बन नौकरी कर रहा था। सबने खुब ताली बजाकर उनका स्वागत किया। दादा सेवपापडी के लिये अपने ही बेटे जो मन ही मन सेवती को बहुत प्यार करता था और सारा खेल उसी ने बनाया था। अब सेव पापड़ी सदा सदा के लिए (मिठाई) दुल्हन बन हलवाई दादा के घर चली गई। सारे घराती बरातियों को आज सेवपापडीऔर रसगुल्ला बहुत अच्छा लग रहा था। सभी चाव से खाते नजर आ रहे थे। और हलवाई दादा के आंखों में खुशी के आंसू। मां भी इतनी खुश कुछ बोल न सकी पर हाथ जोड़कर हलवाई दादा के सामने खड़ी रही। सेवती (सेवपापडी) अपने रमेश (रसगुल्ला) की दुल्हन बन शरमाते हुये बहुत खुश दिखने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – #3 – जूते ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य   एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “जूते” जो निश्चित ही  आपको जीवन के  कटु सत्य एवं कटु अनुभवों से रूबरू कराएगी।  ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 3 ☆
☆ जूते  ☆

हम नर्मदा-यात्रा पर थे। आदिवासी फगनू सिंह हमारे मार्गदर्शक थे। साथ मदद के लिए छोटू भी था। फिर भी सामान ढोने के लिए हमें रोज़ अपने पड़ाव से दो आदमी लेने पड़ते थे जिन्हें हम अगले पड़ाव पर छोड़ देते थे। गाँवों में निर्धनता ऐसी कि मज़दूरी के नाम से तत्काल लोग हाज़िर हो जाते। जितने चाहिए हों, उठा लो।

मंडला तक के आखिरी चरण में हमारे साथ दो आदिवासी किशोर थे। चुस्त, फुर्तीले, लेकिन पाँव में जूता-चप्पल कुछ नहीं।  कंधे पर बोझ धरे, पथरीली ज़मीन और तपती चट्टानों पर वे नंगे पाँव ऐसे चलते जैसे हम शीतल, साफ ज़मीन पर चलते हैं।  हम में से कुछ लोग हज़ार दो हज़ार वाले जूते धारण किये थे।  दिल्ली से आये डा. मिश्र उन लड़कों की तरफ से आँखें फेरकर चलते थे।  कहते थे, ‘इन्हें चलते देख मेरी रीढ़ में फुरफुरी दौड़ती है। देखा नहीं जाता।  हम तो ऐसे दो कदम नहीं चल सकते।’

मंडला में यात्रा की समाप्ति पर डा. मिश्र इस दल को सीधे जूते की दूकान में ले गये।  बोले, ‘सबसे पहले इन लड़कों के लिए चप्पल ख़रीदना है।  उसके बाद दूसरा काम।’

जूते की दूकान वाले ने पूरे सेवाभाव से उन लड़कों को रबर की चप्पलें पहना दीं।  लड़कों ने तटस्थ भाव से चप्पलें पाँव में डाल लीं।  हमारा अपराध-बोध कुछ कम हुआ।  जूते की दूकान से हम कपड़े की दूकान पर गये जहाँ फगनू सिंह को अपने लिए गमछा ख़रीदना था।  सब ने अपने जूते दूकान के बाहर उतार दिये।  ख़रीदारी ख़त्म करके हम सड़क पर आ गये। आदिवासी लड़के हमारे आगे चल रहे थे। गर्मी में सड़क दहक रही थी।

एकाएक डा. मिश्र चिल्लाये, ‘अरे,ये लड़के अपनी चप्पलें दूकान में ही छोड़ आये।’ लड़कों को बुलाकर चप्पलें पहनने के लिए वापस भेजा गया।

हमारे दल के लीडर वेगड़ जी ताली मारकर हँसे, बोले, ‘प्रकृति को मालूम था कि हमारा समाज इन लड़कों को पहनने के लिए जूते नहीं देगा, इसलिए उसने अपनी तरफ से इंतजाम कर दिया है। ये लड़के हमारी दया के मोहताज नहीं हैं।’

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #3 – छोले चावल ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश “स्मृतियाँ/Memories”।  आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक और संस्मरण “छोले चावल”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #3 ☆

☆ छोले चावल ☆

 

सितम्बर 2005 से लेकर फरवरी 2006 तक मैने दिल्ली से C-DAC का कोर्स किया था जिसमे उच्च (advanced) कप्म्यूटर की तकनीक पढ़ाई जाती है । हमारा केंद्र दिल्ली के लाजपत नगर 4 मे था, अमर कॉलोनी में । हमारे अध्यन केंद्र से मेरे किराये का कमरा बस 150 – 200 मीटर दूर था । हमारे केंद्र मे सुबह 8 से रात्रि 6 बजे तक क्लास और लैब होती थी उन दिनों हम रात में लगभग 2-3 बजे तक जाग कर पढ़ाई करते थे । हमारा अध्यन केंद्र और मेरा किराये का कमरा बीच बाज़ार में थे ।

मेरे साथ मेरे तीन दोस्त और रहते थे क्योकि हमारा कमरा बीच बाज़ार में था तो वहाँ खाने और पीने की चीजों की दुकानों और होटलो की कोई कमी ना थी । जिस इमारत में तीसरी मंजिल पर हमारा कमरा था उस ही मंजिल में भूतल (ground floor) पर एक चाय वाले की दुकान थी चाय वाले का नाम राजेंद्र था उसके साथ एक और लड़का भी काम करता था जिसका नाम राजू था । उस पूरे क्षेत्र में केवल वो ही एक चाय की दुकान थी तो राजेंद्र चाय वाले के यहाँ सुबह 7 से लेकर रात 11 बजे तक काफी भीड़ रहती थी । राजेंद्र की चाय औसत ही थी इस लिए कभी कभी हम थोड़ा दूर जा कर भी किसी और टपरी पर चाय पी लिया करते थे और अगर कभी देर रात को चाय पीनी हो तब भी हम टहलते टहलते दूर कहीं चाय पीने चले जाते थे ।

धीरे धीरे समय के साथ राजेंद्र की दुकान पर भीड़ बढ़ने लगी । उसकी दुकान पर हमेशा लोगो का ताँता लगा रहता था । राजेंद्र की दुकान पर सब ही तरह के लोग आते थे कुछ वो भी जो लोगो को डराने धमकाने का काम करते थे कुछ हमारे जैसे पढ़ने वाले छात्र एवं कुछ पुलिस वाले भी । धीरे धीरे राजेंद्र की चाय की गुणवत्ता घटने लगी । मैं और मेरे मित्र चाय के लिए कोई और विकल्प ढूंढ़ने लगे । हम राजेंद्र की चाय से ऊब गए थे । अचानक एक दिन जब मैं अपने केंद्र पर जा रहा था मैने देखा की राजेंद्र की चाय की दुकान की बायीं और की सड़क पर एक 23-24 साल का लड़का कुछ सामान लगा रहा था वो लड़का देखने में बहुत सुन्दर और हटा कट्ठा था एवं बहुत अच्छे घर का लग रहा था । शाम को जब मैं अपने अध्ययन केंद्र से वापस आ रहा था तो मैने देखा की राजेंद्र की दुकान के बायीं ओर  सुबह जहाँ एक लड़का कुछ सामान लगा रहा था वहाँ पर एक नयी चाय की दुकान खुल चुकी थी उस चाय की दुकान को देख कर मेरी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा । उस चाय की दुकान पर कोई भी ग्राहक ना था जैसे ही मैने चाय वाले की तरफ देखा उस चाय वाले के मुस्कुराते हुए चेहरे ने मेरी तरफ देख कर बोला ‘भईया चाय पियोगे ?’

मैं थका हुआ था मैने कुछ देर सोचा उसकी तरफ देखा और बोला ‘हाँ भईया एक स्पेशल चाय बना दो केवल दूध की’ पांच मिनट के अंदर उसने चाय का गिलास मेरी तरफ बढ़ाया चाय काफी अच्छी बनी थी मैने चाय पीते पीते कहा ‘भईया चाय अच्छी बनी  है’ उसने कहा ‘धन्यवाद सर’ फिर मैने पूछा की उसका नाम क्या है और वो कहाँ का रहनेवाला है तो उसने अपना नाम चींकल बताया और वो पंजाब के किसी छोटे से शहर का था । धीरे धीरे मैने और मेरे तीन साथियो ने राजेंद्र की जगह चींकल की टपरी से चाय पीना शुरू कर दिया । चींकल केवल 1 कप चाय या 1 ऑमलेट भी तीसरी मंजिल तक ऊपर आ कर दे देता था वह बहुत ही जिन्दा दिल लड़का था बड़ा हंसमुख सब को खुश रखने वाला । धीरे धीरे चींकल, चाय वाले से ज्यादा हमारा दोस्त बन गया था । 1 महीने के अंदर ही अंदर राजेंद्र चाय वाले के ग्राहक कम होने लगे और चींकल के बढ़ने लगे ।

क्योंकि हम लोगो को काफी पढ़ाई करनी होती थी तो हम चींकल की दुकान पर कम ही जाते थे और जो कुछ चाहिए होता था वो तीसरी मंजिल के छज्जे से आवाज़ लगा कर बोल देते थे और चींकल ले आता था । कई बार मैने उससे पूछने की कोशिश की कि वो तो अच्छे घर का लगता है फिर ये चाय बेचने का काम क्यों करता है ? पर वो हर बार टाल जाता था । एक दिन जब करीब सुबह के 11 बजे मैं अपने केंद्र जा रहा था तो चींकल ने आवाज़ लगायी और बोला ‘भईया मेरी बीवी ने आज छोले चावल बनाये है आ जाओ थोड़े थोड़े खा लेते है’ मैने काफी मना किया पर वो नहीं माना और टिफिन के ढक्कन में मेरे लिए भी थोड़े से छोले चावल कर दिए मैने खा लिए । छोले चावल बहुत ही स्वादिष्ट बने थे ।

उस दिन मैं बहुत थक गया था हमारे कंप्यूटर केंद्र में मैं नयी तकनीक में प्रोग्रामिंग सीख रहा था जो मेरी समझ में नहीं आ रहा थी तो शाम के करीब 6 बजे जब मैं निराश और थक कर कमरे पर वापस जा रहा था तो मैंने देखा की चींकल की दुकान के पास कुछ लोग खड़े है तीन चार लोग उसे पीटते जा रहे थे और दो लड़के उसकी चाय की टपरी का सामान तोड़ रहे थे । पास ही में राजेंद्र चाय वाला खड़ा हुआ हंस रहा था मैं समझ गया की ये सब राजेंद्र चाय वाला ही करवा रहा था । मैं कुछ बोलने वाला ही था कि  राजेंद्र चाय वाले ने मेरी तरफ घूर कर देखा और मैं डर गया । चींकल ने मुझे आवाज़ भी लगायी ‘आशीष भईया’ पर मैं अनसुना कर के आगे निकल गया और अपने कमरे में जाने के लिए इमारत में घुस गया । पता नहीं क्यों मैं डरपोक बन गया था अगली सुबह वहाँ जहाँ पर चींकल की चाय की दुकान हुआ करती थी उसके कुछ अवशेष पड़े थे मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे । चींकल द्वारा खिलाये हुए घर के बने छोले चावल शायद मैं आज भी नहीं पचा पाया हूँ ।

रस : करुण

© आशीष कुमार  

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