(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश जी के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी शिक्षाप्रद लघुकथा “उपहार ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #4 ☆
☆ उपहार ☆
नन्ही परी का जन्मदिन मनाया जा रहा था .
उस की प्यारी टीचर भी आई हुई थी.
जैसे ही परी ने मोमबत्ती को फूंक मारा वैसे ही सभी ने एक स्वर में कहा , ” हैप्पी बर्थ डे टू यू …………… हैप्पी बर्थ डे टू परी, ” और सभी बारी-बारी से परी को केक खिलाने लगे .
अंत में पापा ने परी से पूछा , “ बोलो ! तुम्हें कौन सा उपहार चाहिए ?”
यह सुनते ही परी ने टीचर की तरफ देखा. टीचर ने मम्मी की पेट की तरफ इशारा कर दिया.
इसलिए परी ने तपाक से कहा, ” पापा ! मुझे यह बेबी चाहिए .”
यह सुन कर मम्मी-पापा दंग रह गए.
कहीं परी ने उन की बात तो नहीं सुन ली थी कि वे इस बच्ची को दुनिया में नहीं आने देंगे.
वे क्या बोलते. चुप हो गए .
और परी बार-बार यही दोहरा रही थी ,” पापा ! मुझे यह बेबी चाहिए.”
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है एक ऐसी ही लघुकथा “सुहाग की चूड़ी…… ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #3 ☆
☆ सुहाग की चूड़ी…… ☆
हमेशा की तरह आज भी गुलशेर अहमद चूड़ियां लेकर फेरी पर निकला था। पिछले 15-20 वर्षों से हफ्ते-दस दिनों के अंतर से आसपास के सभी गांवों में उसके चक्कर लगते रहते हैं। हर एक गाँव में उसने कुछ ठीये बना रखे हैं, जहाँ से चूड़ी बेचने की उसकी अटपटी कलात्मक आवाज सुन मुहल्ले की सभी महिलाएं जुट जाती है।
बेटी-बहू से ले कर बूढ़ी तक सभी गुलशेर मियाँ को ‘गुलशेर भाई’ के नाम से संबोधित करती हैं।
प्रायः होटल से खाना खाने के बाद मुफ्त की मुट्ठी भर सौंफ-मिश्री व 2-4 दांत खुरचनी तथा किलो-पाव किलो सब्जी की खरीदी के बाद मुफ्त की मिर्ची-धनिया लेने की परिपाटी जैसे ही यहां भी भाव-ताव की झिकझिक के साथ निर्धारित चूड़ियाँ पहनने के बाद सुहाग के नाम पर फोकट की एक चूड़ी की मांग इन महिलाओं की सदा से बनी रहती है।
आज गुलशेर मियाँ के द्वारा किसी को भी सुहाग की अतिरिक्त चूड़ी नहीं मिलने से नाराज वे सब शिकायत करने लगी-
क्या गुलशेर भाई – हमेशा तो आप एक चूड़ी अपनी ओर से देते हो फिर आज क्यों नहीं….
मेरी बहनों! बूढ़ा हो रहा हूँ, अब पहले जैसी भागदौड़ नहीं हो पाती मुझसे, यूँ ही एक-एक कर दिन भर में सौ-डेढ़ सौ चूड़ियां ऐसे ही निकल जाती है, ऊपर से कांपते हाथों से ज्यादा टूट-फुट हो जाती है सो अलग। फिर मैं आप बहन बेटियों से ज्यादा मुनाफा भी तो नहीं लेता हूँ, अब आप ही बताएं ऐसे में मेरी गृहस्थी कैसे चलेगी?
पर भैया सुहाग की एक चूड़ी तो सब जगह देते हैं!
सच बात तो ये है मेरी बेन – वो सुहाग की नहीं भीख की चूड़ी होती है।
भीख की चूड़ी! ये क्या कह रहे हो गुलशेर भाई आप?
अच्छा ये बताओ मुझे क्या, आपके सुहाग की कोई कीमत नहीं है जो उनके नाम से मुफ्त की एक चूड़ी की मांग करते रहते हैं आप सब। फिर ये जो चूड़ियां पहनी है आपने, क्या ये आपके सुहाग की चूड़ियां नहीं है? मुफ्त की एक चूड़ी के बिना क्या आप सुहागिन नहीं समझी जाएंगी? और मांग कर फोकट में बेमन से मिली चूड़ी।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावुक एवं मार्मिक लघुकथा “गटागट गोली ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 4 ☆
☆ गटागट गोली’☆
बड़े-बड़े मकानों के बीच एक झोपडी नुमा घर। घर में सभी चीजों का अभाव। विधवा माँ अपने दो बच्चों के साथ रहती थीं। गरीबी की लाचारी के कारण पहले ही बुढ़ापे ने घर कर लिया था। पर बच्चों के कारण जी रहीं थीं। दोनों बच्चियों को लेकर जाये कहाँ? कैसे भी काम करके किसी का सामान उठा, किसी की मालिश और किसी के बर्तन माँज कर गुजारा कर रही थीं।
सभी की नजर उसके झोपड़ी घर पर ही थी कि कब इसे लेकर आलीशान मकान बना ले। पर वो बेचारी बच्चों का मुँह देखकर अपना जीवन यापन कर रहीं थीं। बारिश आते ही गली, सड़क और घर एक जैसा हो जाता था। सारी नालियों का गंदा पानी उसके घर समा जाता था।
माँ के काम पर जाने के बाद बच्चे आसपास ही खेलते रहते थे। गिर जाते, चोट लग जाती, पेट दुखता या फिर बुखार। सब की एक ही दवाई पास वाले परचून के दुकान वाले अंकल जी की मीठी दवाई। उससे उनका विश्वास था या यूँ कहें कि दवाई का भ्रम बना गया था। और सहन शक्ति ज्यादा हो गई थी कुछ भी दर्द सहने की।
एक दिन बहुत जोरों की आधी तुफान आया उन्हें पता नहीं था मां कितने बजे वापस आयेगी। शाम ढले मां वापस आई। बदन बुखार से तप रहा था और सारा शरीर भीगा हुआ। जैसे तैसे कर सब आधे सुखे आधे गीले पर सो लिए।
सुबह बच्चे तो उठे पर मां सोती ही रही। बहुत देर उठाने के बाद भी जब मां नहीं उठी। तो बच्चे जाकर अंकल जी से बोले—अंकल जी मां कुछ बोल नहीं रही है। आप मीठी वाली दवाई दे दो खाकर उठ जायेगी। परचून वाले अंकल जी समझ गये। मामला कुछ गड़बड़ है। घर जाकर देखने पर पता चला मां तो सदा के लिए इस दुनिया से जा चुकी हैं। सभी पड़ोस के एकत्रित हुए अंतिम संस्कार के लिए ले जाया गया। अनाथ आश्रम वाले आकर दोनों बच्चियों को साथ ले गए। वहां पर सभी बच्चों ने सवाल किया? उत्तर में वे इतना ही बताती। मां ने न मीठी गोली नहीं खाई इसलिये भगवान के घर चली गई। खा लेती तो इस दूनिया से नहीं जाती।
दूकान वाले अंकल जी की मीठी दवाई और कुछ नहीं एक *गटागट की मीठी गोली * होती थीं। ???????
(डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी की यह लघुकथा वैसे तो पितृ दिवस पर ही प्रकाशित होनी थी किन्तु, मुझे लगा कि इस कथा का विशेष दिन तो कोई भी हो सकता है। जीवन के कटु सत्य को प्रस्तुत करने के लिए डॉ उमेश जी की लेखनी को नमन।)
☆ लाठी ☆
(एक अविस्मरणीय लघुकथा)
मैं पढ़-लिखकर नौकरी करने लगा । माँ-पिताजी ने अपना लंबा अमावस्यायी उपवास तोड़ा । उनके चेहरे पर झुर्रियों की इबारत एकाएक धूमिल पड़ गई ।
मेरी शादी कर दी गई । उन्हें प्यारी-सी बहू मिल गई । मुझे पत्नी मिल गयी । साल भर के बाद ही वे दादा-दादी बन गये । उन्हें बचपन मिल गया, लेकिन तभी दूर शहर में मेरा स्थानांतरण हो गया । मैं कछुआ हो गया।
कभी-कदा पत्रों की जुबान सुनता था कि धुंध पड़ी इबारत पर मौसम, आयु प्रभाव डाल रही है और लिखावट गहराती जा रही है । अब उन्हें राह चलते गड्ढे नज़र आने लगे हैं । उन्हें अब जीने का चाव भी नहीं रहा, यह बात नहीं थी, पर अक्सर वे कहते – ” बहुत जी लिए ।”
मेरे अपने परिवार के प्रति ज़िम्मेदारी बढ़ती गई । फिर भी मैंने उन्हें एक दिन पत्र लिखा- “बच्चों की फ़ीस, ड्रेस, टैक्सी, बस घर का किराया, महँगी किताबें-कापी के बाद रोज़ के ख़र्चे ही वेतन खा जाते हैं, कुछ बचता ही नहीं । अब बताइये, आपको क्या दूँ ?”
माँ-पिताजी ने जवाब में आशीर्वाद लिखा । फिर लिखा – बुढ़ापे का सहारा एक लाठी चाहिए । ख़रीद सकोगे ? दे सकोगे ?”
(आपसे यह साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं e-abhivyakti के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं । अब हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “मज़ाक ” जो निश्चित ही आपको अपने आस पास के किसी मानव चरित्र से रूबरू कराएगी। डॉ परिहार जी के साहित्य के पात्र अक्सर हमारे आस पास से ही होते हैं। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 4 ☆
☆ मज़ाक ☆
दीपक जी मकान बनवा रहे थे। बीस साल किराये के मकान में रहे। उस मकान की छत टपकती थी। दीवारें बदरंग थीं और फर्श टूटा-फूटा। उसी मकान में दीपक जी ने बीस साल काट दिये। अब बड़ी हसरत से अपना मकान बनवा रहे थे—–सागौन के खिड़की दरवाज़े, फर्श में काले-सफेद पत्थर, बाथरूम और रसोईघर में रंगबिरंगी टाइल्स और दीवारों पर मंहगा चमकदार पेन्ट। दीपक जी एक एक चीज़ को बारीकी से देखते रहते थे। मकान को बनाने में वे अपने मन की सारी भड़ास निकाल देना चाहते थे।
मकान से उन्हें बड़ा मोह हो गया था। अकेले होते तो मुग्ध भाव से दरो-दीवार को निहारते रहते थे। ऐसे ही घंटों गुज़र जाते थे और उन्हें पता नहीं चलता था। अपने इस कृतित्व के बीच खड़े होकर उन्हें बड़ा सुख मिलता था। लगता था जीवन सार्थक हो गया।
मकान को खुद देखकर उनका मन नहीं भरता था। उन्हें लगता था हर परिचित-मित्र को अपना मकान दिखा दें। मुहल्ले में कोई ऐसा नहीं बचा था जिससे उन्होंने मकान का मुआयना न कराया हो। दूसरे मुहल्लों से रिश्तेदारों-मित्रों के आने पर भी वे पहला काम मकान दिखाने का करते थे। चाय-पानी बाद में होता था, पहले मकान के दर्शन कराये जाते थे। मकान दिखाते वक्त दीपक जी मेहमान के मुँह पर टकटकी लगाये, प्रशंसा के शब्दों की प्रतीक्षा करते रहते। प्रशंसा सुनकर उन्हें बड़ा संतोष मिलता था।
उनकी दीवानगी का आलम यह था कि किसी के थोड़ा भी परिचित होने पर वे नमस्कार के बाद अपना मकान देखने का आमंत्रण पेश कर देते। कोई ज़रूरी काम का बहाना करके खिसकने की कोशिश करता तो दीपक जी कहते—-‘ऐसा भी क्या ज़रूरी काम है? दो मिनट की तो बात है।’और वे उसे किसी तरह गिरफ्तार करके ले ही जाते।
यह उनका नित्यकर्म बन गया था। दिन में दो चार लोगों को मकान न दिखायें तो उन्हें कुछ कमी महसूस होती रहती थी। सड़क से किसी न किसी को पकड़ कर वे अपना अनुष्ठान पूरा कर ही लिया करते थे।
एक दिन दुर्भाग्य से मकान दिखाने के लिए दीपक जी को कोई नहीं मिला। सड़क के किनारे भी बड़ी देर तक खड़े रहे, लेकिन कोई परिचित नहीं टकराया। उदास मन से दीपक जी लौट आये। बड़ा खालीपन महसूस हो रहा था।
शाम हो गयी थी। अब किसी के आने की उम्मीद नहीं थी। निराशा में दीपक जी ने इधर उधर देखा। सामने एक मकान अभी बनना शुरू ही हुआ था। उसका चौकीदार रोटी सेंकने के लिए लकड़ियों के टुकड़े इकट्ठे कर रहा था।
दीपक जी ने इशारे से उसे बुलाया। पूछा, ‘हमारा मकान देखा है?’
वह विनीत भाव से बोला, ‘नहीं देखा, साहब।’
दीपक जी ने पूछा, ‘कहाँ के हो?’
वह बोला, ‘इलाहाबाद के हैं साहब।’
दीपक जी ने कहा, ‘वहाँ तुम्हारा मकान होगा।’
चौकीदार बोला, ‘एक झोपड़ी थी साहब। नगर निगम ने गिरा दी। चार बार बनी, चार बार गिरी। अब बाल-बच्चों को लेकर भटक रहे हैं।’
दीपक जी ने उसकी बात अनसुनी कर दी। बोले, ‘आओ तुम्हें मकान दिखायें।’
वे उसे भीतर ले गये। फर्श के खूबसूरत पत्थर, किचिन की टाइलें, पेन्ट की चमक, दरवाज़ों का पॉलिश, रोशनी की चौकस व्यवस्था—-सब उसे दिखाया। वह मुँह बाये ‘वाह साहब’, ‘बहुत अच्छा साहब’ कहता रहा।
संतुष्ट होकर दीपक जी बाहर निकले। चौकीदार से बोले, ‘तुम अच्छे आदमी हो। बीच बीच में आकर हमारा मकान देख जाया करो। ये दो रुपये रख लो। सब्जी-भाजी के काम आ जाएंगे।’
चौकीदार उन्हें धन्यवाद देकर अपनी उस अस्थायी कोठरी की तरफ बढ़ गया जहाँ बैठा उसका परिवार इस सारे नाटक को कौतूहल से देख रहा था।
(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं। आज प्रस्तुत है पति द्वारा रूपवान एवं विद्वान किन्तु दृष्टिबाधित पत्नी के साथ भावुकता में हुए प्रेमविवाह के परिणाम पर आधारित कहानी “दृष्टिकोण”।)
☆ दृष्टिकोण ☆
निकल!” सुमित अपनी दृष्टिबाधित पत्नी दिव्या को धक्के मारता हुआ घर के द्वार तक ले आया।
“मैं कहीं नहीं जाऊंगी, ये तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी घर है!” दिव्या नेपति से किसी तरह स्वयं को छुड़ाते हुए कहा।
“ये घर तेरा कैसे हुआ, जरा मैं भी तो सुनूँ? क्या तेरे बाप ने दहेज में दिया था, तुझे तो खाली हाथ मेरे गले डाल दिया था तेरे बाप ने, मैं अब और नहीं सह सकता तुझे, जहाँ तेरा मन करे जा, पर मेरा पीछा छोड़,” सुमित ने पुनः दिव्या की बाजू पकड़ कर दरवाजे की ओर धकेलते हुए कहा।
“पर मेरा कुसूर क्या है, तुम मुझ से इतनी नफ़रत क्यों करते हो?” दिव्या ने सुमित से दृढ़ स्वर में पूछा।
“कुसूर? तुम्हारा अंधी होना क्या कम कुसूर है? मैं आखिर तुझे कब तक ढोता रहूँ?” सुमित ने गरजते हुए कहा।
“क्या तुम्हें मेरी ये प्रकाशहीन आँखें उस दिन नहीं दिखाई दी थीं, जब रात-दिन मेरे तथा मेरे माता-पिता की मिन्नतें करते नहीं थकते थे? तब तो तुम मेरी खूबसूरती के गीत गाया करते थे। कहाँ गयीं वे बातें जब कहते थे, “आँखें नहीं हैं तो क्या हुआ, पढ़ी-लिखी तो हो, दिल तो तुम्हारा सुन्दर है, निश्पाप है? फिर अब मुझ में अचानक क्या परिवर्तन आ गया?” दिव्या ने पूछा।
“उसी एक भूल की तो सजा भुगत रहा हूँ अभी तक!” सुमित ने दिव्या का हाथ छोड़ते हुए कहा और कुछ सोचता हुआ अंदर चला गया।
दरअसल, दिव्या और सुमित दोनों कॉलेज में एक ही कक्षा में पढ़ा करते थे। दिव्या न केवल पढ़ाई में सर्वश्रेष्ठ थी, बल्कि बला की खूबसूरत थी। सभी की सहायता करना उसका स्वभाव था। जो विद्यार्थी कक्षा से अनुपस्थित रहते अथवा जिन्हें कुछ समझ नहीं आता, वे दिव्या के पास आते और दिव्या भी उन्हें संतुष्ट करके ही भेजती। सभी सहपाठी उसका बड़ा आदर करते थे।
सुमित भी दिव्या से कभी-कभी कुछ पूछने आ जाया करता था। धीरे-धीरे उसका मिलना दिव्या से बढ़ने लगा। लेकिन यह मिलना अब पहले वाला नहीं रहा था। वास्तव में दिव्या उसे अब अच्छी लगने लगी थी। अब आलम यह हो गया कि किसी-न-किसी बहाने, सुमित सदैव दिव्या के इर्द-गिर्द ही मंडराता रहता। एक-दो बार दिव्या ने उसे कह भी दिया, “सुमित, यदि तुम इधर-उधर घूमते ही रहोगे तो पढ़ाई कब करोगे? यही समय है पढ़ लोगे तो जीवन भर सुख पाओगे!”
“बात यह है दिव्या, मैं चाह कर भी तुम से दूर नहीं रह पाता। दरअसल, मैं तुम से प्यार करने लगा हूँ।” सुमित ने दिव्या के सामने अपने प्यार का इज़हार करते हुए कहा।
“सुमित मुझे इस प्रकार का भद्दा मज़ाक कतई पसंद नहीं है! ऐसा प्यार भावावेश की कमजोर बैसाखियों पर टिका होता है, जो जरा-सी तेज हवा के साथ उड़ जाता है और हल्की-सी तेज धूप में कुम्हला जाता है। ईश्वर के लिए मुझ से इस तरह का मज़ाक फिर कभी मत करना!” कह कर उसने अपने हेंड-बैग से फोल्डिंग स्टिक निकाली और कक्षा की ओर बढ़ गयी।
सुमित हदप्रद-सा बैठा दिव्या को जाते हुए देखता रहा। जब दिव्या उसकी आँखों से ओझल हो गयी तो वह गहरी सोच में डूब गया। बहुत देर तक सोचते रहने के पश्चात् वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अब वह दिव्या के बिना जी नहीं सकेगा। दिव्या ही अब उसकी जिन्दगी है। क्या हुआ अगर उसकी आँखों में रोशनी नहीं है, उसके अलावा तो उसमें सब कुछ है। सुन्दर है, सुशील है, विदूषी है, एक आँखें न होने से क्या इतने गुण कम हो जाते हैं? नहीं, अब कुछ भी क्यों न करना पड़े, मैं अब उसके बिना नहीं रह सकता।
अगले दिन पुनः उसने दिव्या का हाथ पकड़ कर अपने घनिष्ठ मित्रों के सामने प्यार में सैकड़ों कसमें खाईं और जीवन भर साथ निभाने का वादा किया। उसके मित्रों ने भी उसे समझाया, मगर उसपर तो प्यार का भूत सवार था, किसी के समझाने का उस पर असर न हुआ। एक मित्र ने उसे परामर्श दिया कि वह पहले अपने माता-पिता से पूछ कर देखे कि क्या वे एक दृष्टिबाधित लड़की को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करने को तैयार हैं? कहीं ऐसा न हो कि बेचारी दिव्या का जीवन नष्ट हो जाए। अन्य मित्रों ने भी उसके इस विचार का समर्थन किया।
संध्या काल जब वह अपने घर गया तो उसने अपनी माँ से इस विषय में बात की, जिसने
अपना फरमान सुना दिया कि यदि तुम अपनी मर्ज़ी से विवाह कर रहे हो तो अपना बोरिया
-बिस्तर बाँध कर इसी समय घर से निकल जाओ। उसी बीच उसके पिता भी घर पहुँच गये।
माँ-बेटे के बीच होती बहस को विराम देने के उद्देश्य से पूछा, “भाई ऐसा क्या हो गया, जो माँ-बेटे के बीच आज ठनी हुई है? क्या कोई हमें भी कुछ बताएगा?”
तुम्हारा लाड़ला ही बताएगा, मुझ से क्या पूछते हो? तुनक कर उनकी पत्नी ने उत्तर दिया।
“हाँ, सुमित चलो तुम्हीं बताओ कि मामला क्या है? उन्होंने पुत्र की ओर घूमते हुए पूछा।
पिता का प्रश्न सुनते ही सुमित ने आँखें झुका लीं और चुपचाप वहाँ से उठ गया। उसके जाने के पश्चात् रामदेव जी ने पत्नी के नजदीक पहुँच कर उसके कंधे पर हाथ रख कर बड़े प्यार से पूछा, “क्या बात है, आज मूड कैसे बिगड़ा हुआ है हमारी सरकार का?”
“पत्नी ने उनका हाथ झटकते हुए मुँह फेर कर कहा, “अपने लाड़ले से ही पूछिये, आज-कल वह कॉलेज में पढ़ने नहीं, बल्कि इश्क लड़ाने जाता है। किसी अंधी लड़की से प्यार करने लगा है और कहता है, उसी से विवाह करेगा। जिसके जी में जो आए करे, मैं तो घर में केवल रोटियाँ बनाने के लिए हूँ।”
पत्नी की बात सुन कर रामदेव भी गम्भीर हो गये। प्यार तो उन्होंने भी किया था, पर बद्किसमती से अपनी प्रेमिका को पत्नी नहीं बना सके थे। वे अपने अतीत में डूब गये। नहीं, जो उनके साथ हुआ है, वे अपने पुत्र के साथ ऐसा अन्याय कदापि नहीं होने देंगे, वे उसके साथ हैं, अपने ही हृदय में उन्होंने एक निश्चय कर लिया। उसके पश्चात वे अपने पुत्र के पास गये और उसके पास बैठ कर सारी बातें सुनीं। उसके बाद उन्होंने कहा, “देखो सुमित तुम विवाह अपनी पसंद की लड़की से करना चाहते हो, मुझे कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु मेरी सलाह है कि अपने निर्णय पर एक बार पुनः विचार करो, क्योंकि वह लड़की जैसा तुम बता रहे हो, सामान्य नहीं है, दिव्यांग है। कहीं ऐसा न हो कि तुम विवाह के मामले में जल्दबाजी कर रहे हो। मैं यह कभी नहीं चाहूंगा कि बाद में किसी तरह की समस्या पैदा हो।
“मैं कई बार सोच चका हूँ, मैं उसका जीवन भर साथ निभाऊंगा। मैं उसे अपनी आँखों से दुनिया दिखाऊंगा।” सुमित ने पिता को भरोसा दिलाते हुए कहा।
“तो ठीक है, मेरी ओर से कोई रोक नहीं है, तुम शौक से विवाह करो, मेरा समर्थन है”।
रामदेव जी ने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए अपनी स्वीकृति दे दी।
खुशी से जैसे सुमित पागल ही हो गया था। उस रात उसे नींद नहीं आई और प्रातः होते ही कॉलेज के लिए निकल गया। अभी कोई भी नहीं आया था। वह गेट के पास ही अपने मित्रों का इंतजार करने लगा। जैसे ही वे आए, दौड़ कर वह उनके गले लग गया और अपनी खुशी उनके साथ साँझा की। उसके बाद वे दिव्या से मिले। दिव्या ने कहा, “देखो सुमित, अभी तुम्हें मैं बहुत सुन्दर लग रही हूँ। इसका कारण तुम जानते हो? इसका कारण है तुम्हारा मेरी सुन्दर काया के प्रति क्षणिक आकर्षण। जिस दिन ये आकर्षण समाप्त हो जाएगा, मेरे लिए तुम्हारे दिल में न प्यार बचेगा और न ही सहानुभूति। अतः मैं तुम्हारे भावावेश में लिए इस निर्णय से सहमत नहीं हूँ। तुम इस विषय पर दोबारा ठंडे दिमाग से विचार करो। तुम मेरी जिस खूबसूरती पर मर-मिटे हो, एक दिन इसका तुम्हारे लिए कोई महत्व नहीं होगा। उस समय पछताने से अच्छा है कि तुम मेरा ही नहीं, अपितु अपना भी भला-बुरा समझ लो।”
प्रेरणा ने दिव्या की इस बात का समर्थन किया। उसकी देखा-देखी और मित्र भीउसे अपने निर्णय पर पुनः विचार की सलाह देने लगे।
सुमित ने अपने निर्णय पर दृढ़ रहते हुए अपना फैसला पुनः दोहराते हुए कहा कि चाहे दुनिया इधर-से-उधर हो जाए, पर उसका निर्णय यही रहेगा। उसके पश्चात् सभी मित्रों ने दिव्या को समझाते हुए सलाह दी, “देखो दिव्या, तुम्हें इतना प्यार करने वाला पति मिल रहा है तो इस अवसर को तुम्हें जाने नहीं देना चाहिये। ऐसे सुखद अवसर जीवन में बार-बार नहीं आते।”
दिव्या ने उनकी बात सुनकर पुनः कहना प्रारम्भ किया, “तो ठीक है, यदि तुम्हारे पिता जी विवाह के लिए तैयार हैं तो उन्हें मेरे घर भेजिये ताकि आगे बात बढ़ सके।”
सुमित ने वैसा ही किया। रामदेव जी दिव्या के पिता जी से मिले और उन्हें विवाह के लिए तैयार कर लिया। लेकिन सुमित की माँ किसी तरह भी राजी न हुई। हालाँकि विवाह भी हो गया और दिव्या सुमित के घर आ गयी, मगर माँ का क्रोध न शांत होना था, न हुआ। सुमित को माँ की नाराजगी के कारण अपने दूसरे मकान में जाना पड़ा। घर चलाने के लिए सुमित ने कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और एक निजी कम्पनी में क्लर्क की नौकरी कर ली और दिव्या ने कॉलेज जारी रखा। आखिर उसने प्रथम श्रेणी में स्नातक की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। इसका परिणाम यह हुआ कि उसे बी.एड में आसानी से प्रवेश मिल गया। बी.एड समाप्त होते ही उसे अध्यापक की नौकरी भी मिल गयी।
दूसरी ओर शनैः-शनैः सुमित के सिर से प्यार का भूत उतरने लगा। वह बात-बात पर दिव्या के साथ उलझने लगता। कई बार तो बात इतनी बढ़ जाती कि सुमित कई-कई दिन के लिए घर से गायब हो जाता। उसकी माँ सदैव उसके कानों में विष उड़ेलती रहती। वह सदैव एक ही राग अलापती, “सुमित, तू ने मेरे अरमानों में आग लगा दी। गाज़ियाबाद वाले अब भी मेरे पीछे पड़े हैं। बेटा, यदि तू एक बार मुझे अपनी स्विकृति दे दे, फिर देख, तेरी जिंदगी मैं कैसे बदल देती हूँ। लड़की अभी एम.फिल में पढ़ रही है और उसके पिताजी एक फ्लैट और कार देने को तैयार हैं। मुझे सोच कर बता दे ताकि मैं आगे बात कर सकूँ”। उसी दिन से सुमित के व्यवहार में परिवर्तन दिखाई देने लगा। वह दिव्या पर छोटी-सी बात पर भी झल्ला जाता और उसे खरी-खोटी सुनाने लगता। बढ़ते-बढ़ते बात यहाँ तक पहुँच गयी कि दिव्या से छुटकारा पाने का उपाय ढूँढ़ने लगा। अब सुमित को माँ के अलावा और किसी की बात भाती ही नहीं थी। वह उसी के बताए रास्ते पर पालतू कुत्ते के समान दौड़ रहा था।
अगले दिन नित्य की भाँति दिव्या उठते ही अपने दैनिक कार्यों में जुट गयी। उसने अपने तथा सुमित के लिए नाश्ता तैयार किया, तदोपरांत वह विद्यालय के लिए तैयार होने लगी। तैयार हो कर उसने सुमित का नाश्ता लगा दिया और उसे आवाज़ दी। सुमित भी नाश्ते की मेज पर गुमसुम आ बैठा। दिव्या ने चाय बना कर प्याला सुमित के सामने रख दिया और स्वयं भी नाश्ता करने लगी। सुमित चाय पीकर उठ गया, नाश्ते को उसने हाथ भी न लगाया। जब दिव्या ने नाश्ता समाप्त कर के बर्तन उठाए तो सुमित का नाश्ता ज्यों का त्यों पाया। उसने सुमित को आवाज दी और नाश्ता न करने का कारण पूछा। वह बोली, “सुमित तुम नाराज़ तो मुझ से हो, नाश्ते ने क्या बिगाड़ा है? प्लीज़ खा लो!”
“नहीं, मुझे भूख नहीं है,” सुमित ने कहा।
उसके बाद दिव्या ने भी अधिक जिद न की। बर्तन किचन में रखकर वह अपने कमरे में आई और पर्स उठा कर विद्यालय के लिए रवाना होते हुए कहा, “मैं जा रही हूँ, दरवाजा बंद कर लो!”
लेकिन सुमित ने उत्तर में कुछ न कहा और दरवाजा बंद करने आ गया। बाहर निकल कर दिव्या ने रिक्शा लिया और विद्यालय पहुँच गयी।
दिन भर वह अपने और सुमित के विषय में ही सोचती रही। जब उसकी छुट्टी हुई तो उसने घर के लिए रिक्शा ले लिया और घर के दरवाजे पर जा उतरी। दरवाजे पर ताला लटका था, अतः उसने अपने पर्स से चाबी निकाली और ताला खोलने लगी। परन्तु ये क्या! सुमित घर का ताला बदल गया था। उसने मोबाइल निकाला और सुमित को कॉल कर दिया। सुमित ने फोन उठाया तो दिव्या ने दूसरा ताला लगाने का कारण पूछा। उसने कहा, “अब से मेरा और तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं, तुम जहाँ चाहे रहो, इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए बंद हो गये हैं। वैसे तुम्हें कल तक तलाक का नोटिस भी मिल जाएगा और मुझे आज के बाद कभी फोन नहीं करना, समझी!”
फोन कट गया था, मगर मोबाइल अब भी उसके कान से लगा था। उसे अपने कानों पर जैसे भरोसा ही नहीं हो रहा था कि सुमित इतना भी नीचे गिर सकता है। एक बार तो वह घबराई, परन्तु उसने दूसरे ही पल स्वयं को सम्भाल लिया और अपने मन में जैसे कोई कठोर निश्चय कर के वह पुनः उसी रिक्शे पर बैठ गयी।
(हम डॉ भावना शुक्ल जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने “साहित्य निकुंज” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ के आग्रह को स्वीकार किया। आपकी साहित्य की लगभग सभी विधाओं में रचनाएँ प्रकाशित/प्रसारित हुई हैं एवं आप कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी साहित्यिक यात्रा की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया >> डॉ. भावना शुक्ल जी << पर क्लिक करने कष्ट करें। अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की लघुकथा “रमा बाई”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #1 साहित्य निकुंज ☆
☆ रमा बाई ☆
आज तडके ही रमा बाई दौड़-दौड़ी आई बोली… बीबी जी काम जल्दी करवा लो आज नीचे वाले घर में कन्या भोज का बहुत बड़ा परोगराम है ।
हमने कहा “अच्छा तभी आज बहुत सज संवर कर आई हो । आज बच्चे भी साथ लाई हो ।”
“जी बीबी जी, कहिये जल्दी काम करूं नहीं तो 12 बजे के बाद आ पाऊंगी ।”
“ठीक है कोई बात नहीं बाद में ही आना, अभी हम भी आरती में शामिल होने नीचे ही आ रहे है ।”
“अच्छा बीबी जी ।”
ठीक 12 बजे घर की घंटी बजी सामने रमा बाई खडी थी।
हमने कहा – “हम तेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे ।अरे! क्या हुआ चुप क्यों खड़ी हो कुछ तो बोलो। मुँह पर बारह क्यों बज रहे है? ”
“क्या बताऊं बीबी जी नीचे वाली बीबीजी का सारा काम हो गया । सब कन्या खा कर गई उसके बाद हमने बीबी जी से कहा अब हम भी जायेंगे तो अब हमें भी कुछ प्रसाद खाने को दे दो । तो मालूम वह क्या बोली? आज के दिन हम छोटी जाति के लोगों खाना नहीं देते कल देंगे ” ।
तब हम बोली बीबीजी “हमको क्या तुम बासा खाने को दोगी ? अपने पास ही रखो, अभी हमारे घर में इतना खाना है कि आप चलो हम आपको भी खिला देंगे। ”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश जी के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी शिक्षाप्रद लघुकथा “सबक ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #2 ☆
☆ सबक ☆
मैडम ने सोच लिया था कि आज पान मसाला खाने वाले छात्र को रंगे हाथ पकड़ कर सबक सिखा कर रहूंगी. इसलिए जैसे ही छात्र ने खिड़की की ओर मुँह कर के ‘पिच’ किया वैसे ही मैडम ने उसे पकड़ लिया.
“क्यों रे ! पान मसाला खाता है शर्म नहीं आती” कहते हुए मैडम ने उस के कान पकड़ लिए.
छात्र कुछ नहीं बोला.
“बोलता क्यों नहीं है ? कहाँ से सीखा, ये गंदी आदत?” मैडम गुस्से से चीखी.
छात्र डर कर काँप गया. उस के मुंह से निकला “गोपाल सर से !” और उस के हाथ सर की कुर्सी के पास वाली खिड़की की ओर चले गए. जिस पर पान मसाले के निशान पड़े हुए थे.
उन निशानों को देख कर मैडम चौंक उठी. वो छात्र को सबक सिखाने गई थी, खुद ही सबक ले कर चुपचाप चली आ गई.
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है एक ऐसी ही लघुकथा “सुख-दुख के आँसू”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #2 ☆
☆ सुख-दुख के आँसू…… ☆
अपने सर्वसुविधायुक्त कमरे में सुख के समस्त संसाधनों पर नजर डालते हुए वृध्द रामदीन को पूर्व के अपने अभावग्रस्त दिनों की स्मृतियों ने घेर लिया। अपने माता-पिता के संघर्षपूर्ण जीवन के कष्टों के स्मरण के साथ ही बरबस आंखों ने अश्रुजल बहाना शुरू कर दिया।
उसी समय, “चलिए पिताजी- खाना खा लीजिए” कहते हुए बहू ने कमरे में प्रवेश किया।
अरे–आप तो रो रहे हैं! क्या हुआ पिताजी, तबीयत तो ठीक है न?
हाँ बेटी, कुछ नहीं हुआ तबीयत को। ये तो आँखों मे दवाई डालने से आंसू निकल रहे हैं, रो थोड़े ही रहा हूँ मैं ।
तो ठीक है पिताजी, चलिए मैं थाली लगा रही हूँ ।
दूसरे दिन सुबह चाय पीते हुए बेटे ने पूछा–
कल आप रो क्यों रहे थे, क्या हुआ पिताजी, बताइये हमें?
कुछ नहीं बेटे, बहु से कहा तो था मैंने कि, दवाई के कारण आंखों से आंसू निकल रहे हैं।
पर आंख की दवाई तो आप के कमरे में थी ही नहीं, वह तो परसों से मेरे पास है,
बताइए न पिताजी क्या परेशानी है आपको, कोई गलती या चूक तो नहीं हो रही है हमसे?
ऐसी कोई बात नहीं है बेटे, सच बात यह है कि, तुम सब बच्चों के द्वारा आत्मीय भाव से की जा रही मेरी सेवा-सुश्रुषा व देखभाल से द्रवित मन से ईश्वर से तुम्हारी सुख समृध्दि की मंगल कामना करते हुए अनायास ही खूशी के आंसू बहने लगे थे, बस यही बात है।
किन्तु, एक और सच बात यह भी थी कि इस खुशी के साथ जुड़ी हुई थी पुरानी स्मृतियाँ। रामदीन अपने माता-पिता के लिए उस समय की परिस्थितियों के चलते ये सब नहीं कर पाया था, जो आज उसके बच्चे पूरी निष्ठा से उसके लिए कर रहे हैं।
सुख-दुख के यही आँसू यदा-कदा प्रकट हो रामदीन के एकाकी मन को ठंडक प्रदान करते रहते हैं।
(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं। आज प्रस्तुत है बाल मनोविज्ञान एवं माता पिता की मानवीय संवेदनाओं को उकेरती भावुक कथा “मौत का खेल”। आज सोशल मीडिया पर ऐसे विडियो गेम्स आ गए हैं जो बच्चों की मनोवृत्ति को किस तरह अपने कब्जे में कर लेते हैं इसकी जानकारी माता पिता को होना अत्यंत आवश्यक है। यह एक दुखांत किन्तु शिक्षाप्रद कहानी है जिसे प्रत्येक अभिभावक को अवश्य पढ़नी चाहिए। ऐसे विषयों पर साहित्यिक रचना के लिए श्री सिसोदिया जी बधाई के पात्र हैं।)
☆ मौत का खेल ☆
“मम्मी, मैं खेलने जा रहा हूँ, ओके बाय!” अंकुर ने दूध का गिलास सिंक में फेंकते हुए कहा और दरवाज़ा खोल कर बिना अपनी माँ के उत्तर की प्रतीक्षा किये घर से बाहर भाग गया।
“अरे! अपने पापा के घर आने से पहले ज़रूर आ जाना, वरना वे बहुत गुस्सा होंगे!” अंदर से सुमन ने बाहर भागते अपने पुत्र को लगभग चिल्लाते हुए हिदायत दी। परन्तु सुमन की आवाज़ जैसे अंकुर ने सुनी ही नहीं। वह तो अपने मित्रों की ओर भागा जा रहा था। वह सोच रहा था कि आज भी उसके साथी उसका मज़ाक बनाएंगे कि वह तो लड़कियों की तरह घर में ही घुसा रहता है। वह हाँफता हुआ कॉलोनी के पार्क में पहुँच गया। उसे यह देख कर अपार खुशी हुई कि आज वह अपने साथियों में सबसे पहले पहुँचा था। वह उनकी प्रतीक्षा करने लगा । तभी उसे सामने से आता हुआ गौरव दिखाई दिया। आज अंकुर की बारी थी।
उसने ऊँची आवाज़ में गौरव को लक्ष्य करके कहा,
“अबे यार, मैं कब से तुम लोगों का वेट कर रहा हूँ और वह गोलू कहाँ है?”
“अच्छा बेटा, आज जल्दी आ गया तो इतना इतरा रहा है! अभी तो चार भी नहीं बजे। यह देख गोलू भी आ गया।” गौरव ने नज़दीक पहुँचते हुए उत्तर दिया।
“अबे, आज तो ढीलू भी टाइम पर आ गया”, दूर से ही गोलू ने हँसते हुए चुटकी ली।
दरअसल अंकुर को उसके साथी इसी नाम से पुकारते थे। कारण यह था कि वह समय पर कभी नहीं पहुँचता था। जब उसके पापा घर पर होते थे, तब तो उसका घर से निकलना ही नहीं हो पाता था। यदि वे उसे बुलाने जाते तो अंकुर के पापा शर्मा जी, उन्हें ही डाँट कर भगा दिया करते थे। कुछ ही देर में वे सारे इकट्ठे हो गये और क्रिकेट खेलने लगे। गोलू बल्लेबाजी कर रहा था और सुमित गेंदबाजी। अंकुर बाउन्ड्री बचाने के लिए सीमा रेखा पर तैनात था।
गोलू ने सुमित की एक ढीली गेंद को उछाल दिया। अंकुर ने हवा में डाईव लगाते हुए गेंद को लपकना चाहा, किंतु वह गेंद तक नहीं पहुँच सका और पार्क की रेलिंग पर जा गिरा। रेलिंग की नुकीली सलाखों ने उसके शरीर को लहुलुहान कर दिया। सभी लोग इकट्ठे हो गये। बच्चे अंकुर की छाती और गर्दन से रक्त बहता देख कर घबरा गये। तभी कुछ सज्जन पुरुष जो पार्क में मौजूद थे, वहाँ पहुँच गये और तत्काल अंकुर को उठा कर अस्पताल ले गये और अंकुर के घर खबर भिजवा दी। शर्मा जी भी अपने दफ्तर से तुरंत अस्पताल पहुँच गये और घर से सुमन भी।
अंकुर की मरहम-पट्टी करके दवाइयाँ लिख दी गयीं और उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी। उसे पूरी तरह ठीक होने में एक सप्ताह लग गया। लेकिन शर्मा जी ने पुत्र तथा पत्नी सुमन को सख्त हिदायत दी कि अब से अंकुर का बाहर जाना बिल्कुल बंद है। हालाँकि सुमन ने पति को बहुत समझाया कि खेलकूद में बच्चों को चोट तो लगती ही रहती है, पर शर्मा जी पर सुमन के समझाने का कोई असर न हुआ, उलटे सुमन को ही चार बातें सुननी पड़ीं।
अगले दिन शर्मा जी पुत्र के लिए लैपटॉप तथा महंगा मोबाइल ले आए।
उन्होंने उसे ये उपकरण देते हुए कहा, “ले, मैंने तेरे लिए घर में ही खेलने का प्रबन्ध कर दिया है, अब से बाहर जा कर उन आवारा लड़कों के साथ खेलने की ज़रूरत नहीं है, समझे!”
अंकुर पहले पहल उपकरणों को देखकर चहक उठा था, लेकिन पापा की शर्त सुनकर उसका दिल बुझ गया। खुले गगन में उन्मुक्त उड़ान भरने वाले पंछी को सोने के पिंजरे में कैद कर दिया गया था। आखिरकार अंकुर को हालात से समझौता करना पड़ा। उसे भी अब मोबाइल तथा लैपटॉप पर गेम खेलने में आनंद आने लगा। कुछ दिन तक उसे बहुत छटपटाहट महसूस हुई, किंतु कुछ दिन बाद उसकी दुनिया ही इंटरनेट हो गयी।
अब वह विद्यालय से आते ही गेम खेलने बैठ जाता और फिर उठने का नाम न लेता। उसे इतना भी होश न रहता कि गृहकार्य भी करना है। विद्यालय से अब उसकी शिकायतें आने लगीं थीं। अभी तक प्रत्येक विषय में वह अव्वल आया करता था, लेकिन अब उससे सभी अध्यापक परेशान रहने लगे थे। लगभग प्रतिदिन ही विद्यालय के किसी-न-किसी अध्यापक का सुमन के पास फोन आया करता। उसके पश्चात् सुमन विद्यालय जाती और अध्यापकों तथा प्रधानाचार्य की डाँट खाकर लौट आती। वह करती भी क्या, अंकुर को वह समझा-समझा कर थक चुकी थी, परन्तु उस पर अब कहने का कोई असर होता ही नहीं था। वह सुमन की बात एक कान से सुनता और दूसरी से निकाल देता। उसके पास उसकी बात सुनने का समय ही कहाँ था।
वह तो हर समय मोबाइल अथवा लैपटॉप पर लगा रहता। कानों में इयरफोन ठुसा रहता और आँखों के सामने स्क्रीन। उसके इंटरनेट गेम की दीवानगी का आलम ये हो गया कि वह खाना-पीना सब कुछ गेम खेलते हुए ही करता। सुमन शर्मा जी से उसकी शिकायत करती तो वह यह कह कर टाल जाते कि बच्चे ऐसा करते ही रहते हैं। कुछ दिनों बाद हालत यह हो गयी कि उसे पेशाब आ रहा होता, पर वह न उठता और उसके कपड़े गीले हो जाते। सुमन बहुत चिंतित थी अपने पुत्र की इस दशा को देख कर, पर वह बेचारी क्या करती, शर्मा जी उसकी एक न सुनते थे। उसने चोरी-छुपे एक-दो बार मनोचिकित्सकों से भी सम्पर्क किया, जिन्होंने अंकुर की हालत बहुत चिंताजनक बतायी।
जब सुमन ने पति को इस विषय में शीघ्र कुछ करने के लिए कहा तो वे उस पर बहुत बिगड़े। कहने लगे, “सुमन, मुझे लगता है कि तुम मुझे समाज में उठने-बैठने लायक भी नहीं छोड़ोगी। क्या तुम जानती नहीं कि मेरी समाज में क्या पोज़ीशन है? यदि अंकुर को मनोचिकित्सक के पास दिखाने ले गये तो लोग क्या कहेंगे? वे समझेंगे कि शर्मा जी का बेटा पागल है। क्या तुम चाहती हो कि हमारे बेटे को लोग पागल कहें? तुम ने तो तिल का ताड़ बना डाला। वह मेरा बेटा है, एकदम स्वस्थ और तन्दुरुस्त समझी! अब से इस तरह की ऊट-पटांग बातें मेरे सामने कभी मत करना, वरना मुझ से बुरा कोई नहीं होगा।”
एक दिन की बात है। अंकुर विद्यालय से घर आ गया था। उसने माँ द्वारा दिया भोजन गेम खेलते हुए ही किया। उसके पश्चात् सुमन सब्जियाँ लेने के लिए बाजार चली गयी। लेकिन जब लौटी तो उसकी आँखें फटी रह गयीं। वह दहाड़ें मार कर रो पड़ी। उसकी चीखों ने घर ही नहीं पूरे मोहल्ले को हिला कर रख दिया।
पल भर में ही आसपास के महिला-पुरुषों से घर भर गया। अंकुर ने स्वयं को फाँसी लगा ली थी और मोबाइल पर एक गेम की विन्डो खुली हुई थी, जिस पर लिखा था,
“कॉंग्रेचुलेशन अंकुर! आज तुम्हारी बारी है। जाओ और खुद को फाँसी लगा कर खत्म कर दो!”