हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 238 ☆ कहानी – ‘अंत्येष्टि’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – ‘अंत्येष्टि’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 238 ☆

☆ कहानी – अंत्येष्टि 

अम्माँ बड़ी शान्ति से चली गयीं। रात को माला टारते टारते सोयीं और सबेरे माला पकड़े शान्त सोयी मिलीं। गड़बड़ इसलिए लगी कि साढ़े पाँच बजे बिस्तर छोड़ देने वाली अम्माँ उस दिन सात बजे तक भी हिली- डुली नहीं।

अम्माँ का छोटा बेटा महेन्द्र बातूनी है। हर आने वाले को कातर स्वर में बता रहा है, ‘क्या बतायें भैया, बिना बोले-बताये चली गयीं। न किसी को तकलीफ दी, न किसी से सेवा करायी। पुन्यातमा थीं, इसीलिए ऐसे चली गयीं। बस अब तो यही मनाते हैं कि उनका आसिरबाद हम पर बना रहे।’

अम्माँ अपने पुश्तैनी मकान में महेन्द्र के साथ रहती थीं। महेन्द्र की कस्बे में जनरल गुड्स की दूकान थी। बड़े वीरेन्द्र और मँझले नरेन्द्र नौकरी पर बाहर थे। दो बेटियाँ शीला और मीना भी कस्बे से बाहर अपने-अपने घर में थीं। सन्तानों में शीला दूसरे नंबर पर और मीना चौथे नंबर की थी। पति की मृत्यु के बाद अम्माँ का ज़्यादातर वक्त पूजा-पाठ में ही गुज़रता था। घर छोड़कर कहीं ज़्यादा दिन रहना उन्हें सुहाता नहीं था। इसीलिए दोनों बड़े बेटों के घर में भी वे ज़्यादा टिकती नहीं थीं। कहती थीं, ‘यहाँ तो दुआरे पर खड़े हो जाओ तो घंटा आधा-घंटा बतकहाव हो जाता है। दूसरी जगह अजनबियों के सामने मुँह खोलना मुश्किल हो जाता है। पता नहीं किस बात पर बेटे-बहू का मुँह फूल जाए। इसलिए अपने घर से अच्छी कोई जगह नहीं।’

अम्माँ के पति दूरदर्शी थे। कस्बे से तीन चार किलोमीटर दूर करीब पन्द्रह एकड़ ज़मीन अम्माँ के नाम कर गये थे। कहते थे, ‘मैं नहीं चाहता कि मेरे न रहने पर तुम्हें बेटों के आगे हाथ फैलाना पड़े। लेकिन सँभल कर रहना। समय खराब है। किसी के कहने पर बिना समझे-बूझे कोई लिखा-पढ़ी मत करना। जायदाद साधु-सन्तों का भी दिमाग खराब कर देती है।’

अम्माँ की उम्र बढ़ने के साथ बेटे चिन्तित रहने लगे थे, खासकर बड़े वीरेन्द्र। पन्द्रह सोलह साल पहले उत्तराधिकार कानून में संशोधन हो गया है। अब पिता-माता की संपत्ति में बेटियाँ बराबर की हकदार हो गयी हैं। वीरेन्द्र नये कानून पर दाँत पीसते हैं। कहते हैं यह नया कानून परिवारों की समरसता को खंड-खंड कर देगा।

अम्माँ से इस संबंध में कुछ कह पाना मुश्किल था। उनके कान तक यह बात पहुँच चुकी थी कि लड़कियों को अब संपत्ति में हक मिल गया है और वे बेटियों को उनके हक से वंचित करने के बारे में सोच भी नहीं सकती थीं। वीरेन्द्र दोनों छोटे भाइयों तक अपनी पीड़ा पहुँचा चुके थे और उधर भी लालच का बीजारोपण हो चुका था। अब बहनें भाइयों की नज़र में प्रतिद्वन्द्वी बन गयी थीं। लेकिन बहनें अपने भाइयों की मानसिकता में हो रहे परिवर्तनों से बेखबर थीं।

दिन गुज़रने के साथ भाइयों की बेकली बढ़ रही थी। एक ही रास्ता था कि अम्माँ बेटों के नाम संपत्ति का वसीयतनामा कर दें, लेकिन अम्माँ से धोखे में कोई काम करा लेना मुश्किल था। कहीं दस्तखत करने के मामले में वे बड़ी सतर्क थीं। कागज़ को खुद पढ़ने की कोशिश करती थीं। मन नहीं भरता था तो पति के दोस्त गोकुल प्रसाद से पूछने की बात करती थीं। गोकुल प्रसाद तीनों भाइयों को फूटी आँख नहीं सुहाते थे क्योंकि वे खरे आदमी थे। स्वर्गीय मित्र की पत्नी को धोखा देना वे पाप समझते थे।

बेटों की इसी ऊहापोह के बीच में अम्माँ अचानक चल बसीं। सब बेटे बेटियों के जुटते जुटते शाम हो गयी, इसलिए अम्माँ की अन्तिम यात्रा दूसरे दिन के लिए टल गयी। जैसा कि स्वाभाविक है, बेटियाँ अम्माँ के अचानक चले जाने से बहुत दुखी थीं। अमूमन बेटियों का माँ-बाप से लगाव  ताज़िन्दगी रहता है और उनके लिए रिश्तों की अहमियत ज़मीन- ज़ायदाद से ज़्यादा होती है। बेटियाँ किसी भी कीमत पर आजीवन मायके से जुड़ी रहना चाहती हैं।

बेटियाँ दुख में डूबी थीं लेकिन उनके भाइयों में कुछ अजीब सी बेचैनी थी, जो दूसरों की नज़र में अम्माँ के विछोह के कारण हो सकती थी। बड़े वीरेन्द्र इधर-उधर घूम कर कोने में पड़ी कुर्सी पर बैठकर बार-बार जैसे गहरी सोच में डूब जाते थे। कोई आवाज़ लगाता तो जैसे नींद से जागते। दोनों छोटे भाई भी उन्हीं के आसपास मँडराते थे। बार-बार आँखें मिलतीं जैसे किसी बात पर कोई सहमति बन रही हो।

रात को ग्यारह बजे बड़े भैया ने सबसे कहा, ‘अब सब लोग जाकर आराम कर लो। अब रोने धोने से क्या फायदा? अपनी तबियत मत खराब करो। हम तीनों भाई अम्माँ के पास बैठे हैं।’

बड़े भैया ने सबको जबरन अम्माँ के कमरे से बाहर कर दिया। अब उस कमरे में सन्नाटा था। नींद की ज़रूरत सबको थी, अन्यथा सुबह का काम आगे कैसे बढ़ेगा?

पहाड़ सी रात कट गयी और भोर हो गयी। अम्माँ की बेटियों को चैन कहाँ? हाथ-मुँह धो कर दोनों अम्माँ के कमरे में पहुँचीं। अब अम्माँ के दर्शन थोड़ी देर और होंगे। जन्मदायिनी और सन्तान के सुख के लिए हर मुसीबत झेलने वाली ममतामयी माँ का प्यारा मुख हमेशा के लिए लोप हो जाएगा।

अम्माँ के शरीर पर करुण दृष्टि फेरती शीला अचानक चौंकी। अम्माँ के बाएँ हाथ का अँगूठा नीला था, जैसे किसी ने स्याही लगायी हो। पास ही एक कपड़े का गीला टुकड़ा पड़ा था। उसमें भी स्याही लगी थी, जैसे अँगूठे को उससे पोंछा गया हो। शीला ने मीना का ध्यान उस तरफ खींचा। दोनों परेशान होकर बड़े भाई के पास दौड़ीं। वीरेन्द्र आये, चिथड़े को उठाकर हाथ में दबा लिया और बोले, ‘कुछ नहीं है। रात भर ज़मीन पर सोयी हैं तो अँगूठा नीला पड़ गया है। फालतू बातों में वक्त बर्बाद मत करो। आगे की तैयारी करो।’

उन्होंने अम्माँ का कपड़ा खींच कर बायाँ हाथ ढक दिया, किन्तु दोनों बहनों के मन में यह बात बराबर घुमड़ती रही। कुछ ठीक ठीक समझ में नहीं आ रहा था।

अन्ततः अम्माँ अपने घर-द्वार का मोह छोड़कर रुख़सत हो गयीं। सचमुच दुखी तो बेटियाँ ही थीं। बेटे किसी और उधेड़-बुन में लगे थे।

सभी बेटे-बेटियाँ तेरहीं तक वहाँ रहे। दोनों बहनों के ज़ेहन में लगातार अम्माँ का नीला अँगूठा कौंधता था। तीनों भाई उनसे नज़र बचाते फिरते थे। ऊपर से मिठास थी, लेकिन भीतर कुछ गड़बड़ था।

तेरहीं के दूसरे दिन तीनों भाई सकुचते हुए बहनों के पास पहुँचे। बड़े बोले, ‘छोटे ने बताया है कि उसे अम्माँ की अलमारी में वसीयतनामा मिला है जिसमें उनकी जायदाद हम तीनों भाइयों में बाँटी गयी है। हम तो चाहते थे कि उनकी जायदाद में सबका हिस्सा हो, लेकिन जैसी उनकी मर्जी। उनकी इच्छा के हिसाब से चलना पड़ेगा। हमने छोटे से कहा है कि सबको फोटोकॉपी निकाल कर दे दे। किसी को शिकायत न हो।’

बहनों ने सुना तो भौंचक्की रह गयीं। बड़ी ने पूछा, ‘कहांँ है वसीयतनामा?’

छोटे ने दूर से वसीयतनामा दिखाया, कहा, ‘यह अम्माँ का अँगूठा लगा है। दो गवाहों के दस्कत हैं।’

बड़ी ने पूछा, ‘किसके दस्कत हैं?’

जवाब मिला, ‘गनेश और पुरसोत्तम के दस्कत हैं। उनके सामने ही अँगूठा लगाया गया।’

गनेश और पुरुषोत्तम छोटे के लँगोटिया यार थे।

छोटी बहन बोली, ‘लेकिन अम्माँ तो दस्कत कर लेती थीं। फिर अँगूठा क्यों लगवाना पड़ा?’

छोटा हाथ उठाकर बोला, ‘हम बताते हैं। एक-डेढ़ महीने से अम्माँ के हाथ काँपने लगे थे। बहुत कमजोर हो गयी थीं। बर्तन उठाती थीं तो छूट जाता था। दस्कत करने में दिक्कत होती थी। इसलिए अँगूठा लगाना पड़ा।’

बड़ी बोली, ‘इन गवाहों को बुलवाओ। मुझे कुछ पूछना है।’

छोटा, ‘मैं देखता हूँ’ कहकर ग़ायब हो गया। दोनों बहने संज्ञाशून्य वहाँ बैठी रहीं। आधे घंटे बाद छोटा लौटकर बोला, ‘वे दोनों एक शादी में बाहर गये हैं। आएँगे तो मैं आपसे फोन पर बात करा दूँगा। लेकिन मैं आपको बताता हूँ कहीं कोई गड़बड़ नहीं है।’

बड़ी देर तक चुप रहने के बाद अचानक शीला बड़े भाई के सामने फट पड़ी— ‘दादा, आपने यह सब प्रपंच क्यों किया? हमें जमीन जायदाद का लालच नहीं है। आप कहते तो हम वैसे ही लिख कर दे देते।’

सुनकर बड़े भैया भिन्ना गये। क्रोध में बोले, ‘मैंने क्या किया है? मुझे तो पता भी नहीं था कि अम्माँ क्या लिख गयी हैं। मैं परपंच क्यों करूँगा? मुझ पर इलजाम लगाने की जरूरत नहीं है।’

वे फनफनाते हुए बाहर निकल गये।

शीला के पति सास की ग़मी में नहीं आ सके थे। दिल के मरीज़ थे। लेकिन फोन करके पत्नी से हालचाल ले लेते थे। उस दिन उनका फोन आया, ‘सब ठीक-ठाक निपट गया?’

उनकी पत्नी ने जवाब दिया, ‘सब ठीक से हो गया। एक अंत्येष्टि तेरह दिन पहले हुई थी, एक आज हो गयी।’

पति घबरा कर बोले, ‘कौन चला गया?’

पत्नी ने जवाब दिया, ‘कोई नहीं गया। उस दिन आदमी की अंत्येष्टि हुई थी, आज रिश्तों की हो गयी।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – रिश्ता ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  रिश्ता)

☆ लघुकथा – रिश्ता ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

एक परिवार के मुखिया का नाम गुरदित्त सिंह था, दूसरे परिवार के मुखिया का नाम हरदित्त सिंह था। दोनों परिवारों के मुखिया एक ही दादा की संतान थे। दोनों परिवारों में अनबन हुई, अनबन मनमुटाव में बदली और मनमुटाव एक तरह की दुश्मनी में। इस दुश्मनी में एक-दूसरे के ख़ून की प्यास नहीं थी, बहिष्कार था। दोनों परिवारों के बीच अब कोई रिश्ता नहीं रहा था। गुरदित्त सिंह अपने परिवार के साथ ‘अ’ ज़िले के अपने पैतृक गाँव अलीपुर में रह रहा था, जबकि हरदित्त सिंह अपने परिवार के साथ ‘ब’ ज़िले के एक गाँव दरियापुर में जा बसा था। हरदित्त सिंह के पोते संदीप सिंह का चयन बतौर गणित अध्यापक हो गया और उसकी पहली नियुक्ति अलीपुर के निकटवर्ती गाँव शेखूपुर के स्कूल में हुई। अब संदीप सिंह ‘अ’ ज़िले के शेखूपुर के निकटवर्ती एक क़स्बे में रह रहा था। यहाँ से उस समेत चार अध्यापक एक कार में एक साथ शेखूपुर जाते थे। शेखूपुर वाली सड़क अलीपुर के खेतों से होकर गुज़रती थी। सड़क के साथ लगते अपने खेत में गुरदित्त सिंह अक्सर काम करते दिखाई देता। संदीप सिंह वहाँ गाड़ी रुकवाता और झुककर रिश्ते के दादा के पाँव छुते हुए ‘पैरी पोना’ कहता। दादा भी उसे आशीर्वाद दे देता।

एक दिन जब उसने हमेशा की तरह पाँव छूकर ‘पैरी पोना’ किया तो गुरदित्त सिंह ने कहा, “सुन भई संदीपे, इस महीने की चौबीस तारीख़ को मेरे पोते सुरजीत सिंह का ब्याह है। न तो मैं तेरे घर कोई कार्ड भेजूँगा, न तेरे परिवार को बुलाऊँगा, पर तू शादी में आ जाणा।” यह बात उसने इतने सहज और सरल तरीक़े से कही कि संदीप के साथी अध्यापक हैरान रह गए। रास्ते में एक साथी अध्यापक ने छेड़ा, “यह कैसा रिश्ता है संदीप कि मैं बुलाऊँगा नहीं, पर तू आ जाणा?”

दूसरे अध्यापक ने कहा, “यह इसके पैरी पोना का इनाम है।”

“वैसे बात अगले ने मुँह पर दे मारी। कमाल है, कोई ऐसे भी कर सकता है कि ख़ुद जिसको शादी में बुला रहा है, उसी के सामने उसके परिवार का अपमान कर रहा है।” तीसरे ने कहा।

“आज मौक़ा है, बनाओ मज़ाक मेरा, पर एक बात कहूँ, ज़माना बेशक बहुत बदल गया है, लेकिन मेरे यह दादा अब भी पुराने ज़माने के खरे किसान ही हैं। बातें गढ़ना नहीं सीखा। इसलिए न उनकी दुश्मनी में कोई खोट है और न प्यार में।”

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – बागडोर – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – बागडोर ।) 

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – बागडोर – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

युद्ध में पराजय का लक्षण देख कर राजा ने भागते – भागते अपने सैनिकों से कहा, “जयी हो कर लौटना।” राजा अपने महल में छिप कर युद्ध का हाल जानने की कोशिश करता रहा। पराजय की सूचना पर वह देश छोड़ कर भागने वाला था। उसकी सेना जयी हो कर लौटी। पर सैनिकों ने अपना राजा चुन लिया था। वह जमाना ही ऐसा था कायर और अवसरवादी के हाथ में भूल से भी सत्ता की बागडोर छोड़ी नहीं जाती थी।
***

© श्री रामदेव धुरंधर

17– 04 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 99 – इंटरव्यू : 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “इंटरव्यू  : 5

☆ कथा-कहानी # 99 –  इंटरव्यू : 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

# समापन

अरेस्ट होने की सिर्फ बात सुनकर ही साहब की सारी हेकड़ी निकल गई और अपने साथ साथ ले गई साहबी, अकड़, लालच, संवेदनहीनता, उपेक्षा करने की आदत, सब कुछ होने के बाद भी असंतुष्टि और साथ ही डिप्रेशन की बीमारी भी. सारा रौब पलायन होने के बाद व्यक्तित्व में आ गई निचले दर्जे की विनम्रता जिसे गिड़गिड़ाना भी कह सकते हैं. ये वह अवस्था होती है जब अपने अलावा उपस्थित हर व्यक्ति महत्वपूर्ण लगने लगता है.

अंततः साहब को जो इलाज चाहिए था वो इस शॉक थेरैपी से मिल गया और वे पुनः मानसिक स्वस्थ्यता की ओर बढ़े।

वहीं असहमत के फितूरी दिमाग से रचे गये इस नाटक ने न केवल नाटक का पटाक्षेप किया बल्कि अपने हिसाब बराबर करने का मौका भी पाया. साहब की बीमारी के निदान और उनके हृदय परिवर्तन की खुशी में असहमत ने फिर अपने नकली बॉस को असली ऑर्डर दिया ” अंकल जी, जाइये इस पूरी नकली टीम को और इसके नायक याने मेरे लिये, घर की बनी कड़क चाय और लजी़ज नाश्ते का इंतजाम कीजिये. कहानी यहीं खत्म हुई साहब भी अवसादहीन और प्रफुल्लित हुये और असहमत ने भी चाय नाश्ते के बाद घर की राह पकड़ी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 19 – अफवाह ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अफवाह।)

☆ लघुकथा – अफवाह ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

“अरे तुमने सुना कमला वो तुम्हारे पड़ोसी  सिंह साहब का बेटा विदेश जा रहा है माँ बाप को वृद्धाश्रम भेज कर कितना आज्ञाकारी बनता था, भई लानत है ऐसी औलाद पर इससे तो ईश्वर बच्चा ही न दे” एक सांस में पूरे मोहल्ले की खबर सुना दी  रेखा भाभी ने कमला को ।

कमला धीरे से बोली “आपको किसने कहा किससे पता चली ये बात”।

“बस तुम्हें ही खबर नहीं सारा मोहल्ला थू थू कर रहा है अभी तो सुनकर आ रही हूँ”।

भाभी सुनी हुई बात हमेशा सच हो जरूरी नहीं।

अभी  थोड़ी देर पहले फोन पर सिंह आंटी से मेरी बात हुई है उन्होंने बताया कि उनका बेटा ट्रेनिंग के लिए विदेश जा रहा है।

सिंह आंटी अपनी बिटिया के पास रहने के लिए जा रही हैं।

आप स्वयं समझदार हैं आपके बहू और बेटे के बारे में भी तो लोग जाने क्या क्या कहते हैं…।

अफवाहों पर यकीन ना करें आप…

अच्छा चलो यह सब बात छोड़ दें हैं कमला एक कप चाय तो पिला आज श्राद्ध अमावस्या में तूने खाने के लिए क्या बनाया है वह लेकर आ….।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 188 – प्रतिस्पर्धा – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “प्रतिस्पर्धा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 188 ☆

🌻 लघुकथा 🌻प्रतिस्पर्धा 🌻

आज के इस भाग दौड़ की जिंदगी में हर जगह प्रतिस्पर्धा की होड़ लगी है। जिसे देखो केवल दिखावा, ऊपरी मुखौटा लगाए हुए चारों तरफ घूम रहा है।

मकान, समान, दुकान, पकवान, पढ़ाई, लिखाई, घर, बंगला, गाड़ी, नेता- अभिनेता, कमाई, ऐश्वर्या, आराम आदि – – – यहाँ तक कि यदि पारिवारिक जीवन का तालमेल भी प्रतिस्पर्धा में टिका हुआ है।

घूम रही है सारी सृष्टि प्रतिस्पर्धा के इस चक्र में। किसी में कोई व्यक्तिगत योग्यता है तो सारा समाज टूट पड़ता है कि कैसे उसे नीचे किया जाए।

अपने को ऊपर उठाने की बजाय उसके कमियों को कुरेदने और निकालने लग जाते हैं। अपना रुतबा मान सम्मान  उससे ज्यादा करके दिखाएं – – इस प्रतिस्पर्धा की दौड़ में वह इस कदर गिर जाता है कि आज के संस्कार भी भूल जाता है कि जीवन में क्या लेना और क्या देना है।

सिर्फ वही एक काम आएगा जो उसका  अपना व्यक्तिगत होगा। ऑफिस में बाबू का काम करते-करते जीवन यापन करते सुंदरलाल और उसकी धर्मपत्नी अपने तीनों पुत्रियों का लालन-पालन बहुत ही सीधे – साधे ढंग से किया। उनकी हर जरूरत का सामान, उनकी आवश्यकता अनुसार ही लेकर देना। माँ भी उन्हें घर गृहस्थी से लेकर जीवन की सच्चाई का बोध कराते संस्कार देते चली थी।

बचपन में मोहल्ले में तानाकशी और सब जगह  यही सुनाई देने वाली बात होती कि अब तीन लड़कियां हैं बेचारी क्या करें?

किसी एक को ही अच्छा बना लेगी तो बहुत बड़ी बात है। सुनते-सुनते बच्चियाँ समझौता करते-करते कब बड़ी होकर अपनी-अपनी योग्यता का परचम लहराने लगी किसी को पता ही नहीं चला।

डाॅक्टर, इंजीनियर और स्कूल शिक्षिका। विद्या, धन और निर्भयता की देवी, आज तीनों बच्चियाँ अपने मम्मी- पापा का नाम शहर में रोशन कर रही थी।

उन्होंने मम्मी – पापा के साथ शहर में एक ऐसी संस्था का निर्माण किया। जिसमें कोई भी, किसी भी समाज की बेटी आकर शिक्षा ग्रहण कर सकती है।

एक वर्ष तक तो सभी ने उनका इतना मजाक बनाया कि बेटियाँ और कर भी क्या सकती है। परंतु आज पूरे न्यूज पेपर, टीवी न्यूज़ चैनलों में खबर फैला हुआ था कि इस शहर से तीन  बेटियाँ जिन्होंने सारा जीवन अपना उन बेटी बच्चियों को समर्पित किया… जो कुछ बनकर इस देश की सेवा इस गाँव  की सेवा और अपने आसपास की सेवा करना चाहती हैं। उन्हें सभी प्रकार की सहायता और सुविधा प्रदान की जाएगी।

समाचार लगते ही नेता, व्यापारी संगठन, समाज, संस्था सभी अपना- अपना बैनर पोस्टर लेकर उनके घर के सामने फूल माला गुलदस्ते सहित खड़े थे।

प्रतिस्पर्धा की होड़ में वह यह भी भूल गए थे की.. कभी किसी ने उन्हें उन बेटियों के मान- सम्मान में ठेस पहुंचाई है। जय माता के नारों, बेटी ही शक्ति है, से पूरा मोहल्ला गूँज रहा था। और कह रहे थे बेटियाँ किसी से कम थोड़े होती है।

बेटियाँ सब कुछ कर सकती हैं। सभी अपनी-अपनी सुनने में लगे थे। प्रतिस्पर्धा किस में नहीं होती यह बात उन तीन बेटियों को अच्छी तरह मालूम था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – रोने वाला पेड़ – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – रोने वाला पेड़ ।) 

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – रोने वाला पेड़ – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

लोग कहते थे जंगल में एक पेड़ है जो बहुत रोता है। आश्चर्य ही था रोने वाला पेड़ अपरिचित रहने के बावजूद उसके गान के लिए एक जाति पैदा हो गई थी। पेड़ का परिचय तो अब भी खुलता नहीं था, लेकिन उसके गान के लिए सन्नद्ध जाति ने अपना वजूद नहीं खोया। इस जाति की उम्मीद इस अर्थ में बनी रही उस पेड़ के रोने का प्रसंग फिर कहीं छिड़ता और इस जाति के वाद्य सक्रिय हो जाते।
***

© श्री रामदेव धुरंधर

04 – 04 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – याचनाएँ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – याचनाएँ)

☆ लघुकथा – याचनाएँ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

वह औरत जो उस प्रसिद्ध मंदिर के बाहर बैठकर भीख माँगती थी, उसकी दोनों टाँगें नाकारा थीं और वह हथेलियों के बल पर घिसटती हुई चलती थी। मंदिर के बाहर लोगों की क़तारें होतीं। वह सोचती – इन खाते-पीते, आराम से चल-फिर रहे साबुत लोगों के पास सब कुछ तो है। आख़िर ये भगवान से और क्या माँगते होंगे? काश, वह इनके मन की याचना को सुन पाती! वह हैरान रह गई जब उसने पाया कि वह इन सब लोगों की मन ही मन भगवान से की गई याचनाओं को सुन सकती है। वह कुछ देर तक सुनती रही। फिर उसका चेहरा तमतमा गया। उसे लगा, उसके कान फट जायेंगे, वह पागल हो जायेगी। इतना लोभ, इतना द्वेष, इतनी निष्ठुरता! किसी ने अकूत दौलत की याचना की थी, किसी ने पड़ोसी की दुकान में आग लग जाने की कामना की थी, किसी ने अपने पिता के लिए मौत माँगी थी। कोई अपने मिलावट के धंधे में बरक्कत की याचना कर रहा था, कोई दवाइयों के कारख़ाने का मालिक महामारी के लिए याचना कर रहा था। ऐसी और भी कितनी याचनाएँ…। उसने कानों में उँगलियाँ ठूँस लीं और चिल्लाई- मुझे दी हुई यह अयाचित शक्ति वापस लो भगवान, मैं आधी-अधूरी जैसी भी हूँ, अच्छी हूँ।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #165 – बाल कहानी – कलम की पूजा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक बाल कहानी – कलम की पूजा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 165 ☆

बाल कहानी – कलम की पूजा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

 श्रेया ने जब घर कदम रखा तो अपनी मम्मी से पूछा, “मम्मीजी! एक बात बताइए ना?” कहते हुए वह मम्मी के गले से लिपट गई।

“क्या बात है?” श्रेया मम्मी ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हो पूछा, “आखिर तुम क्या पूछना चाहती हो?”

“यही कि गुरुजी अपनी कलम की पूजा बसंत पंचमी को क्यों करते हैं?” श्रेया ने पूछा तो उसकी मम्मी ने जवाब दिया, “यह भारतीय संस्कृति और परंपरा है जिस चीज का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है हम उस को सम्मान देने के लिए उसकी पूजा करते हैं।

“इससे उस उपयोगी चीज के प्रति हमारे मन में अगाध प्रेम पैदा होता है तथा हम उसका बेहतर उपयोग कर पाते हैं।”

“मगर बसंत पंचमी को ही कलम की पूजा क्यों की जाती है?” श्रेया ने पूछा।

“इसका अपना कारण और अपनी कहानी है,” मम्मी ने कहा, “क्या तुम वह कहानी सुनना चाहोगी?”

“हां!” श्रेया बोली, “सुनाइए ना वह कहानी।”

“तो सुनो,” उसकी मम्मी ने कहना शुरू किया, “बहुत पहले की बात है। जब सृष्टि की संरचना का कार्य ब्रह्माजी ने शुरू किया था। उस समय ब्रह्माजी ने मनुष्य का निर्माण कर लिया था।”

“जी।” श्रेया ने कहां।

“उस वक्त सृष्टि में सन्नाटा पसरा हुआ था,” मम्मीजी ने कहना जारी रखा, “तब ब्रह्माजी को सृष्टि में कुछ-कुछ अधूरापन लगा। हर चीज मौन थीं। पानी में कल-कल की ध्वनि नहीं थी।

“हवा बिल्कुल शांति थीं। उसमें साए-साए की ध्वनि नहीं थी। मनुष्य बोलना नहीं जानता था। इसलिए ब्रह्माजी ने सोचा कि इस सन्नाटे को खत्म करना चाहिए।

“तब उन्होंने अपने कमंडल से जल निकालकर छिटका। तब एक देवी की उत्पत्ति हुई। यह देवी अपने एक हाथ में वीणा और दूसरे हाथ में पुस्तक व माला लेकर उत्पन्न हुई थी।

” इस देवी को ब्रह्माजी की मानस पुत्री कहा गया। इसका नाम था सरस्वती देवी। उन्होंने ब्रह्माजी की आज्ञा से वीणा वादन किया।”

“फिर क्या हुआ मम्मीजी,” श्रेया ने पूछा।

“होना क्या था?” मम्मीजी ने कहा, “वीणा वादन से धरती में कंपन हुआ। मनुष्य को स्वर यानी- वाणी मिली। जल को कल-कल का स्वर मिला। यानी पूरा वातावरण से सन्नाटा गायब हो गया।”

“अच्छा!”

“हां,” मम्मीजी ने कहा, “इसी वीणा वादन की वर्ण लहरी से बुद्धि की देवी का वास मानव तन में हुआ। जिससे बुद्धि की देवी सरस्वती पुस्तक के साथ-साथ मानव तन-मन में समाहित हो गई।”

“वाह! यह तो मजेदार कहानी है।”

“हां। इसी वजह से माघ पंचमी के दिन सरस्वती जयंती के रुप में हम बसंत पंचमी का त्यौहार मनाते हैं,” मम्मी ने कहा, “इस वक्त का मौसम सुहावना होता है। ना गर्मी,  ना ठंडी और ना बरसात का समय होता है। प्रकृति अपने पूरे निखार पर होती है।

“फसल पककर घर में आ चुकी होती है। हम धनधान्य से परिपूर्ण हो जाते हैं। इस कारण इस दिन बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की पूजा करके इसे धूमधाम से मनाते हैं।

“चूंकि शिक्षक का काम शिक्षा देना होता है। वे सरस्वती के उपासक होते हैं। इस कारण कलम की पूजा करते हैं,” मम्मी ने कहा।

“तब तो हमें भी कलम की पूजा करना चाहिए।” श्रेया ने कहा, “हम भी विद्यार्थी हैं। हमें विद्या की देवी विद्या का उपहार दे सकती है।”

“बिल्कुल सही कहा श्रेया,” मम्मी ने कहा और श्रेया को ढेर सारा आशीर्वाद देकर बोली, “हमारी बेटी श्रेया आजकल बहुत होशियार हो गई है।”

“इस कारण वह इस बसंत पंचमी पर अपनी कलम की पूजा करेगी,” कहते हुए श्रेया ने मैच पर पड़ी वीणा के तार को छेड़ दिया। वीणा झंकृत हो चुकी थी।

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 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-12-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 18 – मूकदर्शक ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मूकदर्शक।)

☆ लघुकथा – मूकदर्शक ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अपने ही चेहरे को दर्पण के सामने खड़ी होकर मैं देख रही हूं – पाषाणवत स्तब्ध   अपने से ही संवाद करती।

इतनी ठंडी में भी माथे से पसीना जो चुहचुहा रहा था। हृदय पर एक भारी बोझ का अनुभव हो रहा था ।

क्या हो गया मेरे साथ?

किसी तरह से इस जिंदगी में चैन नहीं मिल रहा है पुरानी यादों की किरचें चुभ रही धी।

नहीं, ना वह मुझे छोड़ कर जा सकता है, न ही मैं उसे छोड़ सकती?

हे विधाता यह तूने क्या किया?

ऐसे अगणित सवाल मन में गूंज रहे थे।

सीधे सच्चे पथ के हमराही को कोई डर नहीं होता किसी अनुबंध के टूटने का डर कुटिल और दुष्ट को होता है।

समाज में तो सभी लोग ढाढस बनाने की बजाय अनभिज्ञ होने का स्वांग रचाते हैं और बार-बार वही बातों को दोहराते हैं, छल पूर्वक एक दूसरे के साथ झूठी हंसी का स्वांग रचाते हैं।

हृदयाघात होने के कारण अचानक चल बसे।

समझ नहीं आ रहा था कि विधाता ने कैसा खेल रचा?

क्या कोई हल निकालेंगे।

मेरे पति राम की प्राइवेट नौकरी थी और मेरे पास अब जीवन जीने का कोई सहारा नहीं है पढ़ाई लिखाई भी नहीं की है ?

5 साल के बेटे को अच्छे से पढ़ा सकूं समाज की हमदर्दी से क्या मेरा घर चलेगा?

काश 12वीं के बाद पढ़ाई की होती।

लेकिन कोई बात नहीं, मुझे अच्छा खाना बनाना आता है, और सिलाई भी आती है।

बेटे के सहारे ही अपना जीवन काट दूंगी। समाज का क्या उसकी हमदर्दी भी 4 दिन की है। कोई किसी का नहीं होता, आज इस सच को जान लिया, सब मूर्ख बनाते हैं, सब मूक दर्शक हैं।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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