हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 138 ☆ लघुकथा – सेंध दिल में ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा सेंध दिल में। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 138 ☆

☆ लघुकथा – सेंध दिल में ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

फ्लैट का दरवाजा खोलकर अंदर आते ही उसकी नजर सोफे पर रखी लाल रंग की साड़ी पर पड़ी। उसने पास जाकर देखा ‘अरे! यह कितनी सुंदर साड़ी है। लाल रंग पर सुनहरा बार्डर कितना खिल रहा है, चमक भी कितनी है साड़ी में। सुनहरे बार्डरवाली लाल साड़ी तो मुझे भी चाहिए। कब से दिल में है पर पैसे ना होने से हर बार मन मसोसकर रह जाती हूँ। ’ – उसने मन ही मन सोचा।

मालकिन के फ्लैट की चाभी उसी के पास रहती है पर वह घर की किसी चीज को कभी हाथ नहीं लगाती। ‘अपनी इज्जत अपने हाथ’ लेकिन आज साड़ी पर नजर पड़ी तो मानों अटक ही गई। काम करते-करते भी उसकी आँखें उसी ओर चली जा रही थीं। ‘आज क्या हो गया उसे?’ उसने अपने मन को चेताया ‘अरे! कमान कस!’। काम निपटाती जा रही थी लेकिन मन बेलगाम घोड़े की तरह उस साड़ी की ओर ही खिंचा चला जा रहा था।

‘साड़ी को एक बार हाथ से छूकर देखने का बहुत मन हो रहा है। ‘

‘ठीक नहीं है ना! मालकिन की किसी चीज को हाथ लगाना। ‘

‘पर कौन-सा पहन के देख रही हूँ साड़ी को, बस हाथ से छूकर देखना ही तो है’ – उसका मन तर्क–वितर्क करने लगा।

उसने धीरे से पैकेट खोलकर साड़ी निकाल ली- ‘अरे! कितनी मुलायम है, रेशम हो जैसे, सिल्क की होगी जरूर, बहुत महँगी भी होगी। मेमसाहब ऐसी ही साड़ी तो पहनती हैं’। साड़ी हाथ में लेकर वह आईने के सामने खड़ी हो गई। मन फिर मचला- ‘एक बार कंधे पर डालकर देखूँ क्या, कैसी लगती है मुझ पर? हाँ तह नहीं खोलूंगी, बस ऐसे ही डाल लूंगी। ‘ बड़े करीने से अपने कंधे पर साड़ी डालते ही वह चौंक गई –‘ओए! कितनी सुंदर दिख रही है मैं इस सिलक की लाल साड़ी में, गजब खिल रहा है रंग मुझ पर। ‘ खुशी से पागल- सी हो गई किसी को दिखाने के लिए, कैसे बताए कि वह इतनी सुंदर भी दिखती है। ‘बाप रे! सिलक की साड़ी की कैसी चमक है, मेरे चेहरे की रंग-रौनक ही बदल गई। इतनी अच्छी तो कभी दिखी ही नहीं, अपनी शादी में भी नहीं। ‘ हाथ मचलने लगे फोन उठाने को, ‘पति को एक वीडियो कॉल कर लूँ? नहीं-नहीं, वह नाराज होगा उसने पहले ही कहा था कि ‘साहब के घर कोई लोचा नहीं माँगता’, फिर क्या करे? अच्छा एक फोटो तो खींच ही लेती हूँ, पर क्या फायदा किसी को दिखा तो नहीं सकती?सबको पता है मेरी हैसियत।

 ‘किसी को नहीं दिखा सकती तो क्या, खुद तो देखकर खुश हो सकती हूँ?’ मालकिन की बड़ी ड्रेसिंग टेबिल के सामने जाकर वह खड़ी हो गई। आत्ममुग्ध हो खुशी में गुनगुनाने लगी। उसने आईने में स्वयं को भरपूर नजरों से देखा जैसे अपने उस रूप को आँखों में कैद कर लेना चाहती हो। वह जैसे अपनी ही आँखों में उतरती चली गई। पर तभी न जाने उसे क्या हुआ अचानक विचलित हो खुद पर बरस पड़ी -‘अरे! क्या कर रही है?मत् मारी गई है क्या? संभाल अपने मन को।

‘मैं तो बस साड़ी को छूकर देखना चाह रही थी- – कभी देखी नहीं ना, ऐसी साड़ी- वह मायूसी से बोली। ‘

‘माँ की बात याद है ना! एक छोटी-सी गलती इज्जत मिट्टी में मिला देती है। ‘

वह झटके से आईने के सामने से हट गई। बचपन में माँ ने दिल की जगह पत्थर का टुकड़ा लगा दिया था यह कहकर कि ‘लड़की जात और ऊपर से गरीब, गम खाना सीख। ‘

आज पत्थर दिल में सेंध लग गई थी?

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 16 – बदलते रिश्ते ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बदलते रिश्ते।)

☆ लघुकथा – बदलते रिश्ते ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अरुणा जी को किताबें पढ़ने का बहुत शौक था। उनकी बहू जूही ने उन्हें कहा कि आप किताबें मत पढ़ो मैं आपको मोबाइल पर आज कहानी दिखाती हूँ। आप किसकी सुनेंगी।   बहू तुम अपनी पसंद की कहानी सुना दो।  मां मैं आपको मालगुडी डेज की कहानियां दिखाती हूं।

सास बहू दोनों कहानी देखते-देखते उसमें खो गई, तभी अचानक उसका मोबाइल का नेट चला गया। 

बहू की कहानी बहुत अच्छी लगी। उसने कहा – मां जी आप किताब उठाइए, अब मुझे आगे की यह कहानी  पढ़नी है। अरुणा जी मुस्कुराने लग गई और उन्होंने कहां कि कहां गई तुम्हारी टेक्नोलॉजी। कोई बात नहीं, वक्त के साथ सब कुछ बदलता है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 269 ☆ लघुकथा –  लंदन से 5 – सेव पेपर सेव ट्री ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा लंदन से 5 – सेव पेपर सेव ट्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 269 ☆

? लघुकथा – लंदन से 5 –  सेव पेपर सेव ट्री ?

सार्वजनिक मुद्दो को जनहित याचिकाओ के माध्यम से उठाने के लिए वकील साहब की बड़ी पहचान थी। बच्चों के एजुकेशन को लेकर चलाई गई उनकी पिटिशन को विश्व स्तर पर यूनेस्को ने भी रिकगनाईज किया था।

उस दिन एक मंहगे रेस्त्रां में काफी पीते हुए उन्होंने देखा कि रेस्त्रां ने अपना मीनू कागज की जगह मोबाइल से स्कैन के जरिए प्रस्तुत कर सेव पेपर की मुहिम प्रमोट की थी। इससे वकील साहब बहुत प्रभावित हुए। उन का ध्यान गया कि ई पेपर के इस नए जमाने में भी ढेर सारे अखबार प्रिंट हो रहे हैं, स्कूलों में बच्चों को कापी पर ढेर सा होम वर्क करना होता है, चुनावों में बेहिसाब पोस्टर छापे जाते हैं, पेपर प्लेट्स में खाद्य पदार्थ दिए जाने भी कागज वेस्ट होता है, प्रचार में हैंड बिल्स में कागज की बेहिसाब बरबादी उन्हें दिखी। वकील साहब को समझ आया कि थोड़े से कागज की बचत का मतलब एक वृक्ष की जिंदगी बचाना है।

वकील साहब ने सेव पेपर की पी आई एल लगाने का मन बना लिया। उसी रात उन्होंने गहन अध्ययन कर एक तार्किक ड्राफ्ट तैयार किया, जिसमें उन्होंने मांग रखी कि यह अनिवार्य किया जाए कि न्यूज पेपर्स प्रकाशक महीने के अंत में अपने ग्राहकों से पुराने रद्दी अखबार वापिस खरीदें और रिसाइकिल हेतु भेजें। अखबार छापने के लिए कम से कम 50 प्रतिशत रिसाइकिल पेपर ही प्रयुक्त किया जावे।

सुबह सेव पेपर सेव ट्री की अपनी यह जन हित याचिका लेकर वे कोर्ट पहुंचे। उनके बड़े कांटेक्ट सर्किल में उनकी इस नई पी आई एल को हाथों हाथ लिया गया। और उसी शाम क्लब में उनकी एक प्रेस वार्ता रखी गई। पत्रकारों को पी आई एल की जानकारी देने के लिए वकील साहब के स्टाफ ने एक बड़ी विज्ञप्ति प्रिंट की। एन समय पर वकील साहब की दृष्टि पड़ी की विज्ञप्ति में उन्हें प्राप्त सम्मानों में हाल ही मिले कुछ अवार्ड छूट गए हैं। उन्होंने स्टाफ को कड़ी फटकार लगाई, आनन फानन में विज्ञप्ति के नए सविस्तृत प्रिंट फिर से निकाले गए, प्रेस वार्ता बहुत सक्सेसफुल रही, क्योंकि दूसरे दिन हर अखबार के सिटी पेज पर उनकी फोटो सहित चर्चा थी। उनके पर्सनल स्टाफ ने अखबार की कटिंग की फाइल बनाते हुए देखा कि कल शाम की रिजेक्टेड विज्ञप्ति के पन्ने फड़फड़ा रहे थे और उनसे रद्दी की टोकरी भरी हुई थी, जिसे जलाने के लिए आफिस बाय बाहर ले जा रहा था।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 185 – मुलताई होली – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा मुलताई होली”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 185 ☆

☆ लघुकथा 🌻 मुलताई होली 🌻

रंग उत्सव का आनंद, फागुन होली की मस्ती, किसका मन नहीं होता रंगों से खेलने का। लाल, हरा, पीला, नीला, गुलाबी, गुलाल सबका मन मोह रही है।

और हो भी क्यों नहीं, होली की खुशियाँ भी कुछ ऐसी होती है कि हर उम्र का व्यक्ति बड़ा – छोटा सबको रंग लगाना अच्छा लगता हैं।

अरे कांता…… सुनो तुम जल्दी-जल्दी काम निपटा लो। आज 12:00 बजे हमारे सभी परिचित होली खेलने आएंगे। रंग, फाग उड़ेगा, ढोल – नगाड़े बजेंगे, मिठाइयां बटेगी और स्वादिष्ट भोजन सभी को खिलाया जाएगा।

जी मेम साहब…. कांता ने चहक कर आवाज लगाई।

अपना काम कर रही थी। झाड़ू – पोछा लगाते- लगाते देखी कि बाहर बालकनी में कई बोरी मुल्तानी मिट्टी जिससे होली खेली जाती है, रखी हैं। जिसमें से भीनी-भीनी खुशबू भी आ रही है।

गांव में थोड़ा सा गुलाल, रंग और फिर कीचड़, पानी से होली खेलते देख, वह शहर आने के बाद मिट्टी से होली का रंग लगाते देख रही थी।

पिछले साल भी वह इस होली का आनंद उठाई थी। परंतु आज इतने बोरियों को इकट्ठा देख उसके अपने छोटे से घर जहाँ की मिट्टी की दीवार जगह से उखड़ी थी, याद आ गया… अचानक काम करते-करते वह रुक गई।

हिम्मत नहीं हो रही थी कि मेमसाहब से बोल दे….. कि वह दो बोरियां मुझे भी दे दीजिएगा। ताकि मैं अपने घर ले जाकर दीवारों को मुलताई मिट्टी पोत-लीप लूंगी।

हमारी तो होली के साथ-साथ दीवाली भी हो जाएगी और घर भी अपने आप महकने लगेगा। फिर बुदबुदाते हुए जाने लगी और मन में ही बात कर रही थीं… यह सब बड़े आदमियों के चोचलें  हैं। इन्हें क्या पता कि हम गरीबों की देहरी इन मिट्टी से नया रंग रूप ले खिल उठती है।

जाने दो मैं फिर कभी मांग लूंगी। कांता के हाव-भाव और गहरी बात को सुन मेमसाहब सोच में पड़ गई।

बातें मन को एक नया विचार दे रही थी। सभी मेहमानों का आना-जाना शुरू हो गया। जब सभी लोग आ गए कोई रंग कोई गुलाल कोई मिट्टी लेकर आए थे। जोर-जोर से ढोल नगाड़े और डीजे की आवाज के बीच अचानक मेमसाहब की आवाज गूंज उठी…. आज की होली हम सिर्फ अबीर, गुलाल और रंग से खेलेंगे।

जो भी मिट्टी रखी है उसे सभी पास के गांव में ले चलेंगे। वहाँ पर होली खेलकर आएंगे। हँसते हुए सब ने कहा… अच्छा है मिट्टी से होली खेल कर आ जाएंगे गांव वाले जो ठहरें।

सभी की सहमति लगभग तय हो गई इन सब बातों से अनजान कांताबाई अपने काम में लगी।

किसी दूसरे ने कहा देखो कांता मेमसाहब कह रही हैं… सब तुम्हारे गांव जा रहे हैं।

खुशी का ठिकाना नहीं रहा वह सोचकर झूम उठी कि मैं सभी को थोड़ा सा अच्छा वाला गुलाल, रंग लगाकर मिट्टी की बोरी को दीवाल रंगने के लिए रख लूंगी।

मेरे घर की दीवाल भी मुलताई मिट्टी से होली खेल महक उठेगी । जोश से भरा उसका हाथ जल्दी-जल्दी काम में चलने लगा। मेमसाहब को आज होली के मुलताई रंग की अत्यंत प्रसन्नता हो रही थीं। सच तो यह है कि हम बेवजह किसी भी चीज की उपयोगिता को बिना सोचे समझे उसे नष्ट कर देते हैं। सोचने वाली बात है आप भी जरा सोचिएगा। 🙏🙏🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – भूख… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘भूख…’।)

☆ लघुकथा – भूख… ☆

शांति, घर घर में जाकर बर्तन धो कर अपनी आजीविका चलाती थी, पिछले कई दिनों से बीमार थी, वह काम पर नहीं जा पाई थी, घर में, दाल, चावल, आटा सब खत्म हो चुका था, फाके की नौबत आ गई थी, अपने बेटे को भी कुछ नहीं बना पाई थी, बेटा कल रात से भूखा था, शाम होने को आई, घर में अन्न का एक दाना भी नहीं था, वह जानती थी, अभी उसका शराबी पति, आकर, पैसे मांगेगा, अब उसके पास पैसे नहीं हैं, जब भी शराब पीने के लिए पैसे नहीं देगी, तो उसका पति उसकी पिटाई करेगा, यह रोज का नियम बन गया था, उसका पति रमेश कई दिनों से बेकार था, काम पर नहीं जाता था, उधार ले लेकर शराब पीता था, और अब तो उसके सभी जानने वालों ने, उसे उधार देना बंद कर दिया था, परंतु वह सोचता था, कि, उसकी पत्नी के पास पैसे रखे होंगे, वही वह मांगता था, जब वह मना करती तो वह अपनी पत्नी को पीटता था, आज भी जैसे ही घर में घुसा उसने देखा, बच्चे ने कागज खा लिया है, उसने बच्चे की पिटाई करना शुरू कर दी, बच्चा रोता रहा, परंतु उसने कुछ नहीं बताया कि कागज क्यों खाया,

क्योंकि बच्चा जानता था, कि पिता कुछ नहीं सुनेगा, फिर मारेगा,

उसके पिता ने, अपनी पत्नी से शराब के लिए पैसे मांगे, जब शांति ने पैसे देने से मना किया, कहा नहीं हैं, तो  रमेश ने उसकी डंडे से पिटाई की,

बहुत मारा, और कहा बच्चा कागज खा रहा था, तो यह भी नहीं देख सकती, ,

और मार पीट कर बाहर चला गया,

शांति कराहती हुई उठी, बेटे को उठाया, और आंसू बहाते हुए, बेटे से बोली,

क्यों जान लेना चाहता है मेरी,

क्यों कागज खा रहा था, ,

बेटे ने कहा, मां कल से भोजन नहीं मिला, बहुत भूख लगी थी, कागज पर रोटी बनी थी, इसलिए कागज खा लिया था..

शांति कुछ नहीं बोल सकी, जड़ हो गई, आंसू भी थम गए, बेटे को गले लगाकर स्तब्ध हो गई.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 234 ☆ कहानी – गृहप्रवेश ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – गृहप्रवेश। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 234 ☆

☆ कथा-कहानी –  गृहप्रवेश

गौड़ साहब बैंक से वी.आर.एस. लेकर घर बैठ गये। धन काफी प्राप्त हुआ, लेकिन  असमय ही बेकार हो गये। अभी हाथ- पाँव दुरुस्त हैं, इसलिए दो चार महीने के आराम के बाद खाली वक्त अखरने लगा। पहले सोचा था कि फुरसत मिलने पर घूम-घाम कर रिश्तेदारों से मेल- मुलाकात करेंगे, मूर्छित पड़े रिश्तों को हिला-डुला कर फिर जगाएँगे, लेकिन जल्दी ही भ्रम दूर हो गया। सब के पास उन जैसी फुरसत नहीं। घंटे दो- घंटे के प्रेम-मिलन के बाद धीरे-धीरे सन्नाटा घुसपैठ करने लगता है। दो-तीन दिन के बाद सवालिया निगाहें उठने लगती हैं कि (शरद जोशी के शब्दों में) ‘अतिथि तुम कब जाओगे?’

गौड़ साहब तड़के उठकर खूब घूमते हैं। घूमते घूमते पार्क में बैठ जाते हैं तो जब तक मन न ऊबे बैठे रहते हैं। कोई जल्दी नहीं रहती। घर जल्दी लौटकर ‘खटपट’ करके दूसरों की नींद डिस्टर्ब करने से क्या फायदा? पार्क में कुछ और रिटायर्ड मिल जाते हैं तो गप-गोष्ठी भी हो जाती है। लौटते में कई घरों से ढेर सारे फूल तोड़ लाते हैं और फिर नहा-धोकर घंटों पूजा करते हैं।

कुछ दिन तक मन ऊबने पर बैंक में पुराने साथियों के पास जा बैठते थे। उनके जैसे और भी स्वेच्छा से सेवानिवृत्त आ जाते थे। कुछ दिनों में ही ये सब फुरसत-पीड़ित लोग बैंक के प्रशासन की आँखों में खटकने लगे। दीवारों पर पट्टियाँ लग गयीं कि ‘कर्मचारियों के पास फालतू न बैठें।’ कर्मचारियों को भी हिदायत मिल गयी कि आसपास खाली कुर्सियाँ न रखें, न ही फालतू लोगों को ‘लिफ्ट’ दें। इस प्रकार गौड़ साहब का वक्त काटने का यह रास्ता बन्द हुआ।

वैसे गौड़ साहब परिवार की तरफ से निश्चिंत हैं। तीन बेटे और एक बेटी है। दो बेटे काम से लग गये हैं। बड़े बेटे और बेटी की शादी हो गयी है। छोटा बेटा एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा है। उसकी पढ़ाई मँहगी है और इससे गौड़ साहब को सेवानिवृत्ति से प्राप्त राशि में कुछ घुन लगा है। लेकिन उन्हें भरोसा है कि लड़का जल्दी काम से लगकर उन्हें पूरी तरह चिन्तामुक्त करेगा। फिलहाल वे मँझले बेटे की शादी की तैयारी में व्यस्त हैं।

मँझले बेटे की शादी से तीन चार महीने पहले गौड़ साहब मकान में ऊपर दो कमरे और एक हॉल बनाने में लग गये क्योंकि अभी तक मकान एक मंज़िल का ही था और उसमें जगह पर्याप्त नहीं है। बड़े बेटे का परिवार भी उनके साथ ही है। गौड़ साहब ने पहले ऊपर नहीं बनाया क्योंकि वे व्यर्थ में ईंट-पत्थरों में सिर मारना पसन्द नहीं करते। उन्हें किराये पर उठाने की दृष्टि से निर्माण कराना भी पसन्द नहीं। कहते हैं, ‘किरायेदार से जब तक पटी, पटी। जब नहीं पटती तब एक ही घर में उसके साथ रहना सज़ा हो जाती है। जिस आदमी का चेहरा देखने से ब्लड- प्रेशर बढ़ता है उसके चौबीस घंटे दर्शन करने पड़ते हैं। राम राम!’ वे कानों को हाथ लगाते हैं।

निर्माण में गौड़ साहब का ही पैसा लग रहा है। बेटों को पता है उनके पास रकम है। उन्हें बेटों से माँगने में संकोच लगता है। अपनी मर्जी से उन्होंने कोई पेमेंट कर दिया तो ठीक, वर्ना गौड़ साहब अपने बैंक का रुख करते हैं। जब ढाई तीन लाख निकल गये तो उन्होंने धीरे से मँझले बेटे बृजेन्द्र से ज़िक्र किया,कहा, ‘बेटा, सब पैसा खर्च हो जाएगा तो बुढ़ापे में तकलीफ होगी। कभी बीमारी ने पकड़ा तो मुश्किल हो जाएगी। आजकल प्राइवेट अस्पतालों में तीन-चार दिन भी भर्ती रहना पड़े तो बीस पच्चीस हज़ार का बिल बन जाता है। यही हाल रहा तो आदमी बीमार पड़ने से डरेगा।’

बृजेन्द्र ने जवाब दिया, ‘दिक्कत हो तो आप लोन ले लो, बाबूजी। हम चुकाने में मदद करेंगे। हमारे पास इकट्ठे होते तो दे देते। चिन्ता करने की जरूरत नहीं है।’

लेकिन उसके आश्वासन से गौड़ साहब की चिन्ता कैसे दूर हो? जो हो, उन्होंने शादी के पहले काम करीब करीब पूरा कर लिया है। थोड़ा बहुत फिटिंग-विटिंग का काम रह गया है सो होता रहेगा। नयी बहू को अलग कमरा मिल जाएगा।

निर्माण कार्य के चलते ज़्यादातर वक्त गौड़ साहब कमर पर हाथ धरे, ऊपर मुँह उठाये, काम का निरीक्षण करते दिख जाते हैं। धूप में भी निरीक्षण करना पड़ता है। मिस्त्री-मज़दूर का क्या भरोसा? उधर से निकलने वाले उनकी उस मुद्रा से परिचित हो गये हैं। अब अपनी जगह न दिखें तो आश्चर्य होता है।

शादी हो गयी और बहू घर आ गयी। बहू के पिता यानी गौड़ साहब के नये समधी बड़े सरकारी पद पर हैं। अच्छा रुतबा है। उनसे रिश्ता होने पर गौड़ साहब का मर्तबा भी बढ़ा है। पावरफुल होने के बावजूद समधी साहब लड़की के बाप की सभी औपचारिकताओं का निर्वाह करते हैं।

पास का पैसा निकल जाने से गौड़ साहब कुछ श्रीहीन हुए हैं। कंधे कुछ झुक गये हैं और चाल भी सुस्त पड़ गयी है। कहते हैं जब लक्ष्मी आती है तो छाती पर लात मारती है जिससे आदमी की छाती चौड़ी हो जाती है, और जब जाती है तो पीठ पर लात मारती है जिससे कंधे सिकुड़ जाते हैं।

एक दिन उनके भतीजे ने उन्हें और परेशानी में डाल दिया। घर में एक तरफ ले जाकर बोला, ‘चाचा जी, आप यहाँ दिन रात एक करके बृजेन्द्र भैया के लिए कमरे बनवा रहे हैं, लेकिन उन्होंने तो आलोक नगर में डुप्लेक्स बुक करवा लिया है।’

सुनकर गौड़ साहब को खासा झटका लगा। बोले, ‘कैसी बातें करता है तू? बृजेन्द्र भला ऐसा क्यों करने लगा? उसी के लिए तो मैंने तपती दोपहरी में खड़े होकर कमरे बनवाये हैं।’

भतीजा बोला, ‘मेरा एक दोस्त स्टेट बैंक में काम करता है, उसी ने बताया। स्टेट बैंक में लोन के लिए एप्लाई किया है। उनके ससुर भी साथ गये थे।’

गौड़ साहब का माथा घूमने लगा। यह क्या गड़बड़झाला है? बेटा भला ऐसा क्यों करेगा? ऐसा होता तो उनसे बताने में क्या दिक्कत थी? उन्होंने फालतू अपना पैसा मकान में फँसाया।

शाम को बृजेन्द्र घर आया तो उन्होंने बिना सूचना का सूत्र बताये उससे पूछा। सवाल सुनकर उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। हकलाते हुए बोला, ‘कैसा मकान? मैं भला मकान क्यों खरीदने लगा? मुझे क्या ज़रूरत? आपसे किसने बताया?’

फिर बोला, ‘मैं समझ गया। दरअसल मेरे ससुर साहब अपने बड़े बेटे समीर के लिए वहाँ डुप्लेक्स खरीद रहे हैं। मैं भी उनके साथ बैंक गया था। इसीलिए किसी को गलतफहमी हो गयी। आप भी, बाबूजी, कैसी कैसी बातों पर विश्वास कर लेते हैं!’

बात आयी गयी हो गयी, लेकिन कुछ था जो गौड़ साहब के मन को लगातार कुरेदता रहा। बृजेन्द्र के ससुराल पक्ष के लोग आते रहे, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं बताया।

फिर एक दिन बृजेन्द्र उनके पास सिकुड़ता-सकुचता आ गया। हाथ में एक कार्ड। उनके पाँव छूकर, कार्ड बढ़ाकर बोला, ‘बाबू जी, आपका आशीर्वाद चाहिए।’

गौड़ साहब ने कार्ड निकाला। देखा, मज़मून के बाद ‘विनीत’ के नीचे उन्हीं का नाम छपा था। बृजेन्द्र गौड़ के आलोक नगर स्थित नये मकान में प्रवेश का कार्ड था। बृजेन्द्र कार्ड देकर सिर झुकाये खड़ा था। पिता ने प्रश्नवाचक नज़रों से उसकी तरफ देखा तो बोला, ‘आपको बता नहीं पाया, बाबूजी। डर था आपको कहीं बुरा न लगे। ऑफिस के कुछ लोग ले रहे थे तो सोचा मैं भी लेकर डाल दूँ। प्रॉपर्टी है, कुछ फायदा ही होगा।’

गौड़ साहब कुछ नहीं बोल सके।  उस दिन से उनका सब हिसाब-किताब गड़बड़ हो गया। बोलना-बताना कम हो गया। ज़्यादातर वक्त मौन ही रहते। भोजन करते तो दो रोटी के बाद ही हाथ उठा देते— ‘बस, भूख नहीं है।’

गृहप्रवेश वाले दिन के पहले से ही बृजेन्द्र खूब व्यस्त हो गया। प्रवेश वाले दिन दौड़ते- भागते पिता के पास आकर बोला, ‘बाबूजी, मैं गाड़ी भेज दूँगा। आप लोग आ जाइएगा।’

नये भवन में गहमागहमी थी। बृजेन्द्र के ससुराल पक्ष के सभी लोग उपस्थित थे। बहू, अधिकार-बोध से गर्वित, अतिथियों का स्वागत करने और उन्हें घर दिखाने में लगी थी। पिता के पहुँचते ही बृजेन्द्र उनसे बोला, ‘बाबूजी, पूजा पर आप ही बैठेंगे। आप घर के बड़े हैं।’

गौड़ साहब यंत्रवत पुरोहित के निर्देशानुसार पूजा संपन्न कराके एक तरफ बैठ गये। लोग उनसे मिलकर बात कर रहे थे लेकिन उनका मन बुझ गया था,जैसे भीतर कुछ टूट गया हो। भोजन करके वे पत्नी के साथ वापस घर आ गये। घर में उतर कर ऊपर नये बने हिस्से पर नज़र डाली तो लगा वह हिस्सा उनके सिर पर सवार हो गया है।

आठ-दस दिन गुज़रे, फिर एक दिन एक ट्रक दरवाजे़ पर आ लगा। बृजेन्द्र का साला लेकर आया था। ऊपर से सामान उतरने लगा। दोपहर तक सामान लादकर ट्रक रवाना हो गया। शाम को बृजेन्द्र की ससुराल से कार आ गयी। बृजेन्द्र और बहू छोटा-मोटा सामान लेकर नीचे आ गये। बृजेन्द्र पिता-माता के पाँव छूकर बोला, ‘बाबूजी हम जा रहे हैं। मकान को ज्यादा दिन खाली छोड़ना ठीक नहीं। जमाना खराब है। आप आइएगा। कुछ दिन हमारे साथ भी रहिएगा। वह घर भी आपका ही है।’ बहू ने भी पाँव छूते हुए कहा, ‘बाबूजी, आप लोग जरूर आइएगा।’ फिर वे कार में बैठकर सर्र से निकल गये।

उनके जाने के बाद बड़ी देर तक गौड़ साहब और उनकी पत्नी गुमसुम बैठे रहे। अन्ततः पत्नी पति से बोलीं, ‘अब सोच सोच कर तबियत खराब मत करो। बच्चे तो एक दिन अपना बसेरा बनाते ही हैं।’

गौड़ साहब लंबी साँस लेकर बोले, ‘ठीक कहती हो। गलती हमारी ही है जो हम बहुत सी गलतफहमियाँ पाल लेते हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – आगामी इतिहास –  ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – आगामी इतिहास – ।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – आगामी इतिहास –  ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

अब तक तो यही बतलाया गया गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य की धनुर्विद्या से अचंभित हो जाने पर अपने डर के कारण उसका अंगूठा मांगा था। अब महाभारत का वह पन्ना पलट गया था। ठगी का मर्म समझ जाने वाला एकलव्य पूरी सामर्थ्य से द्रोणाचार्य के सामने खड़ा हो कर उसका अंगूठा मांग रहा था। जिसने भी महाभारत के उस पन्ने पर हाथ रखा वह भावी चेता था। उसने एकलव्य का इतिहास लिखा।
***

© श्री रामदेव धुरंधर

21 — 03 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 95 – इंटरव्यू : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “इंटरव्यू  : 1

☆ कथा-कहानी # 95 –  इंटरव्यू : 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

असहमत के पिताजी के दोस्त थे  शासन के उच्च पद पर विराजमान. जब तक कुछ बन नहीं पाये तब तक दोस्त रहे, बाद में बेवफा क्लासफेलो ही रहे. असहमत उन्हें प्यार से अंकल जी कहता था पर बहुत अरसे से उन्होंने असहमत से ” सुरक्षित दूरी ” बना ली थी. कारण ये माना जाता था कि शायद उच्च पदों के प्रशिक्षण में शिक्षा का पहला पाठ यही रहा हो या फिर  असहमत के उद्दंड स्वभाव के कारण लोग दूरी बनाने लगे हों पर ऐसा नहीं था .असली कारण असहमत का उनके आदेश को मना करने  का था और आदेश भी कैसा “आज हमारा प्यून नहीं आया तो हमारे डॉगी को शाम को बाहर घुमा लाओ ताकि वो “फ्रेश ” हो जाय.मना करने का कारण यह बिल्कुल नहीं था कि प्यून की जगह असहमत का उपयोग किया जा रहा है बल्कि असहमत के मन में कुत्तों के प्रति बैठा डर था. डर उसे सिर्फ कुत्तों से लगता था बाकियों को तो वो अलसेट देने के मौके ढूंढता रहता था.

कुछ अरसे बाद बड़े याने बहुत बड़े साहब रिटायर होकर फूलमालाओं के साथ घर आ गये. जिन्होंने उनकी विदाई पार्टी दी वो ऊपरी तौर पर दुल्हन के समान फूट फूट कर रो रहे थे पर अंदर से दूल्हे के समान खुश और रोमांचित थे. तारीफ इतनी की गई कि लगने लगा बैलगाड़ी बैल नहीं बल्कि यही या वही जो इनके घर के domestic थे, चला रहे थे.निश्चित रूप से शुरु में टेंशन में रहे कि अब ऑफिस कैसे चलेगा, समस्याओं को कौन हैंडल करेगा, विरासती लीडरशिप के बिना वक्त की सुई उल्टी न घूमने लगें. हालांकि बहुत दिलेरी से बोलकर आये थे कि “Call me any time when you need me and I am unofficially always there even after my official farewell” पर कॉल न आनी थी न आई बार बार चेक करने के बावजूद. जब भी घंटी बजती ,लपक के उठाते ,ऑफिस के बजाय इन्वेस्टमेंट ऐजेंट्स रहते जिन्हें मालुम पड़ चुका था कि साहब को फंड मिलने वाला है. म्यूचल फंड, Bank deposit schemes, LIC, different senior citizen schemes के मार्केटिंग प्रवचनों से तनाव बढ़ने लगा. अफसरी और ऑफिस का मोह जल्दी नहीं छूट पाता क्योंकि राम, बुद्ध, महावीर के देश में निर्विकार होने की कला रिटायरमेंट के बाद सिखाने वाला गुरुकुल है ही नहीं.

जारी रहेगा :::

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 15 – चंदा ये कैसा धंधा? ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मिलावटी दुनिया।)

☆ लघुकथा – चंदा ये कैसा धंधा? ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

दरवाजे की घंटी बजी और सामने एक बड़ा झुंड दिखाई दिया।

कहां गए बत्रा जी?

कमला उनको देखकर मन में विचार करने लगी अब क्या करूं तभी एकाएक उसके मुंह से कुछ शब्द निकले…

अभी देखा न घर से बाहर गए बत्रा जी आप कौन हैं?

एक काले मोटे बड़ी बड़ी मूंछ वाले लड़कों ने रसीद निकालते हुए कहा ऐसा है आंटी नई कमेटी बनी है चंदा दो।

अरे क्यों चंदा दे भाई हमारी कमेटी है।

वह भंग हो गई कारण नहीं बता सकते।

ऐसा कहीं होता है क्या मेंबर्स की मीटिंग भी हुई।

देखो आंटी वह सामने लाइट लगी है हमने लगवाई है ₹500 महीने देना पड़ेगा।

यह कोई जबरदस्ती है इतने में ही पड़ोस के चार लड़के आगे और बातों बातों में आग बबूला होने लगे मारपीट हो गई, सिर फुटौव्वल की नौबत आ गई।

कमला जी ने जोर से कहा – बच्चों शांत हो जाओ किसी बुजुर्ग को अपने साथ होता तो यह नौबत नहीं आती, देखो भाई हम तुम्हें नहीं जानते ना पहचानते हमारे मोहल्ले के तुम लग नहीं रहे हो?

ना दुआ ना सलाम ना राम राम तुम कैसे मेहमान?

बच्चों तुम लोग तो लाठी के जोर पर ऐड दिखा रहे हो क्या?

नहीं दूंगी एक पैसा और जो लगी है स्ट्रीट लाइट नगर निगम लगाती है।

₹500 कम होता है किसी गरीब को देंगे किसी बच्चे की पढ़ाई के लिए लगाएंगे तो ज्यादा अच्छा है।

आप लोग पढे-लिखे अच्छे घर के लगते हो कोई ढंग का काम करो।

एक लड़के ने बेशर्मी से हंसकर कहा- आपको कोई ऐतराज है ज्ञानी आंटी।

अरे बच्चों के ऊपर इतनी दया नहीं करोगी क्या?

धूप में गला भी सूख गया है चाय पानी के लिए ही कुछ दो,आप ही ने तो कहा था आंटी चंदा कैसा धंधा……

धंधे की शुरुआत की है कुछ बोली तो करवा दो।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 184 – लघुकथा – नशा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा नशा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 184 ☆

☆ लघुकथा 🌹 नशा 🌹

रंग से सराबोर और लाल-लाल आँख, बिखरे बाल, चेहरे पर मासूमियत और लड़खड़ाते कदम।

दरवाजे की घंटी बजी। जैसे ही दरवाजा खुला लगभग गिरते हुए बबलू ने कहा… “अंकल मुझे माफ कर दीजिए। पापा नाराज होंगे और इस हालत में मैं उनके सामने नहीं जाना चाहता। बाकी आप संभाल लेना।”

कहते-कहते धड़ाम से कमरे में बिछे पलंग पर औंधा गिरा।

संजय और उसकी धर्मपत्नी को समझते देर नहीं लगी कि बबलू आज नशे में धुत है।

गुस्से में पत्नी ने बोलना आरंभ किया..” घसीट कर बाहर कर दो हमें क्या करना है। इस लड़के से कोई लेना-देना नहीं।” कहते-कहते जल्दी-जल्दी पानी का गिलास लाकर बबलू को पिलाने लगी। मुँह पर पानी के छींटे मारने लगी। “हे भगवान यह क्या हुआ… कैसी संगत हो गई। हमने आना-जाना क्या छोड़ा। बच्चे को बिगाड़ कर रख डाला।” संजय भी आवक बबलू के सिर पर हाथ फेरता जा रहा था।

“अब चुप हो जाओ मैं ही बात करता हूँ।” पत्नी ने कहा.. “कोई जरूरत नहीं होश आने पर स्वयं ही चला जाएगा” और जोर-जोर से इधर-उधर चलने लगी और बातें करने लगी ताकि पड़ोसी सुन ले।

आकाश और संजय की गहरी दोस्ती थी। और होती भी क्यों नहीं एक अच्छे पड़ोसी भी साथ-साथ बन गए थे। परंतु एक छोटी सी गलतफहमी के कारण दोनों के बीच मनमुटाव यहाँ तक हुआ की बातचीत तो छोड़िए शक्ल भी देखना पसंद नहीं करते थे।

बरसों बाद फोन नंबर डायल किया, नंबर देखते ही दोस्त आकाश ने अपनी पत्नी से कहा… “संजय का फोन आ रहा है।” श्रीमती झल्लाकर बोली… “कोई जरूरत नहीं है अब वक्त मिल गया। अकल ठिकाने आ गई। रहने दीजिए।”

“परंतु पता भी तो चले हुआ क्या है।”

“हेलो… बबलू मेरे घर पर है। संगति का असर है। थोड़ा बहक गया है तुम नाराज नहीं होना डर रहा है। अभी सोया है। सब ठीक हो जाएगा। हम मिलकर संभाल लेंगे।”

फोन पर बात करते-करते दोनों पति-पत्नी की आँखों में आँसू बहने लगे।

“मैं अभी आता हूँ।” दरवाजे पर बरसों बाद दोनों दोस्त मिले। पलंग पर बैठ गंभीर चर्चा करने लगे।

“अरे छोड़ यार हो जाता है गलती हो गई है। अब दोबारा नहीं होना चाहिए।” बबलू अचानक उठ बैठा जेब से गुलाल उड़ाते कहने लगा…. “मैंने कोई नशा नहीं किया। आप दोनों का नशा उतारना था और जो असली नशा आप दोनों के बीच है उसे फिर से चढ़ाना था।

इसलिए मैंने इस नशे का नाटक किया।” चारों एक दूसरे का मुँह देखने लगे।” इस नाटक को करने के लिए मैंने कल से कुछ नहीं खाया है। कुछ मिलेगा।” “अब तुम मार खाओगे।”

हँसी का गुब्बारा फूटने छूटने लगा.. बबलू के नशे ने अपना काम कर दिया था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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