हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सपना… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सपना.. ? ?

..सपने देखने की एक उम्र होती है। तुम्हारी तो उम्र ही सपने देखने में बीत गई। कब छूटेगा सपनों से तुम्हारा वास्ता?

..सपने हैं तो मैं हूँ। सपने जिया हूँ, सपना साथ लिये मरूँगा भी। दुनिया छोड़ूँगा तब भी मेरी खुली आँखों में एक सपना तैरता मिलेगा तुम्हें।

…सुनो, सपना देखने की कोई उम्र नहीं होती और हाँ, सपने की भी कोई उम्र नहीं होती। वह खंड-खंड अखंड बना रहता है।

..यूँ समझ लो कि सपना हूँ मैं!

?

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 4:34 बजे, 31.5.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 4 ☆ लघुकथा – घोंसला… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “घोंसला“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 4 ☆

✍ लघुकथा – घोंसला… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

रोज की तरह संजय बैंच पर आकर विकास के पास बैठ तो गए पर लग ऐसा रहा था कि वे वहाँ उपस्थित ही नहीं हैं। वे अच्छी पोस्ट से रिटायर  हुए हैं। अच्छी खासी पैंशन मिल रही है फिर भी बेचैन रहते हैं।  विकास ने पूछ ही लिया कि भाई क्या बात है, आज इतने उदास क्यों हैं । मायूस होकर संजय बोले क्या बताऊँ यार घर मेंं रहना मुश्किल हो गया है। पता नहीं किस मिट्टी की बनी है मेरी पत्नी। जब तक माँ जिंदा थी तो किसी न किसी बात पर झगड़ती थी।  माँ को कभी बहू का सुख नहीं मिला। दुखी मन से चली गई बेचारी। बेटे की शादी करके लाए, घर में बहू आ गई। सब खुश थे पर मेरी पत्नी नहीं। दहेज में उसे अपने लिए अँगूठी चाहिए थी, वह नहीं मिली  तो बहू को ताना मारती रहती। ऐसा लगता था कि वह ताना मारने के अवसर ढूँढ़ती रहती । बेटा बहू दोनों नौकरी करते थे पर घर आने  पर  अपनी माँ का मुँह फूला हुआ पाते। उन दोनों को शाम को घर आते समय कभी हँसी खुशी  स्वागत किया हो, ऐसा अवसर सोचने पर भी याद नहीं आता। आखिर वे दोनों घर छोड़ कर चले गए। किराए का फ्लैट ले लिया।

मेरे साथ तो कभी ढँग से बात की ही नहीं। अगर पड़ोसी कोई महिला मुझसे हँसकर बात करले तो बस दिन भर बड़ बड़। खाने पीने पार्टी करने, दोस्तो यारों में रहना मुझे अच्छा लगता है पर उसे अच्छा नहीं लगता। अब तो यही पता नहीं चलता कि वह किस बात से नाराज है। घर में कोई कमी नहीं। एक बेटी है वह भी अपनी माँ के चरण चिन्हों पर चल रही है। उसकी शादी कर दी है,  पर माँ है कि उसे अपनी ससुराल में नहीं रहने देती। पति, सास, ससुर के खिलाफ हमेशा भडकाती रहती है। और तो और, मेरे साथ लड़ने को माँ बेटी एक हो जाती हैं। मैं दिन में घर से बाहर निकलता हूँ तो प्रश्नों की झडी लग जाती है कि कहाँ जा रहे हो, जा रहे हो तो यह ले आना,वह ले आना और जल्दी आना। अब रिटायर होने के बाद कोई काम तो है नहीं । इनके क्लेश से घर में रहना मुश्किल हो जाता तो शाम को घूमने के बहाने यहाँ पार्क में आ जाता हूँ। लौटने की इच्छा ही नहीं होती क्योंकि घर जाने पर पता नहीं माँ बेटी से किस बात पर क्या सुनने को मिले। पेट की आग तो बुझानी है, चुपचाप दो रोटी खा लेता हूँ। पता नहीं आज दोनों किस बात से नाराज़ हैं। जब मैं घर से निकल रहा था तो पीछे से कह रहींं थीं कि लौट के आने की जरूरत नहीं। विकास चुपचाप सुन रहे थे और पेड़  से गिरे बिखरे घोंसले को एकटक देख रहे थे। उन्हें लगा, कभी वे इसी घोंसले में बैठते थे।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : पुणे महाराष्ट्र 

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 41 – लघुकथा – संवेदनशीलता और समर्पण ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – संवेदनशीलता और समर्पण)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 41 – लघुकथा – संवेदनशीलता और समर्पण ?

निराली आई टी प्रोफ़ेशनल है। उसमें आइडिया की कोई कमी नहीं है। अपनी कंपनी की कई पार्टियाँ वही एरेंज भी करती है। साथ ही एक अच्छी माँ और गृहणी भी है। परिवार और समाज के प्रति संपूर्ण समर्पित।

उसकी बेटी यूथिका का अब इस वर्ष दसवाँ जन्मदिन था। वह कुछ हटकर करना चाहती थी।

जिस विद्यालय में युथिका पढ़ती है वह धनी वर्ग के लिए बना विद्यालय है। ऐसा इसलिए क्योंकि वहाँ की वार्षिक फीस ही बहुत अधिक है जो मध्यम वर्गीय लोगों की जेब के बाहर की बात है।

युथिका की कक्षा में तीस बच्चे हैं। सबके जन्म दिन पर ख़ास उपहार लेकर वह घर आया करती है। युथिका के हर जन्मदिन पर निराली भी बच्चों को अच्छे रिटर्न गिफ्ट्स दिया करती है। पर इस साल युथिका के जन्म दिन पर निराली ऐसा कुछ करना चाहती थी कि बच्चों को समाज के अन्य वर्गों से जोड़ा जा सके।

उसने एक सुंदर ई कार्ड बनाया। जिसमें लिखा था –

युथिका के दसवें जन्म दिन का उत्सव आओ साथ मनाएँ।

युथिका के दसवें जन्म दिन पर आप आमंत्रित हैं। आप अपने छोटे भाई बहन को भी साथ लेकर आ सकते हैं। उपहार के रूप में अपने पुराने खिलौने जो टूटे हुए न हों, जिससे आप खेलते न हों और आपके वस्त्र जो फटे न हों उन्हें सुंदर रंगीन काग़ज़ों में अलग -अलग पैक करके अपना नाम लिखकर ले आएँ। कोई नया उपहार न लाएँ।

नीरज -निराली चतुर्वेदी

और परिवार।

समय संध्या पाँच से सात बजे

‘सागरमंथन’ कॉलोनी

304 कल्पवृक्ष

मॉल रोड

जन्म दिन के दिन तीस बच्चे जो युथिका की कक्षा में पढ़ते थे और वे छात्र जो उसके साथ बस में यात्रा करते थे सभी आमंत्रित थे।

जन्म दिन के दिन पूरे घर को फूलों से और कागज़ की बनी रंगीन झंडियों से सजाया गया।

पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए गुब्बारों का उपयोग नहीं किया गया।

वक्त पर बच्चे आए। अपने साथ दो- दो पैकेट उपहार भी लेकर आए। कुछ बच्चे अपने छोटे भाई बहनों को साथ लेकर आए। उनके हाथ में भी दो -दो पैकेट थे।

उस दिन शुक्रवार का दिन था। खूब उत्साह के साथ जन्मदिन का उत्सव मनाया गया। सबसे पहले युथिका की दादी ने दीया जलाया, दादा और दादी ने उसकी आरती उतारी। निराली ने हर बच्चे के हाथ में गेंदे के फूल पकड़ाए। जन्म दिन पर गीत गाया गया। दादी ने युथिका को खीर खिलाई। बच्चों ने युथिका के सिर पर फूल बरसाए। सबने ताली बजाई।

युथिका के घर में केक काटने की प्रथा नहीं थी। इसलिए बच्चों को इसकी अपेक्षा भी नहीं थी।

पासिंग द पार्सल खेल खेला गया। उसके अनुसार बच्चों ने गीत गाया, कविता सुनाई, नृत्य प्रस्तुत किया, चुटकुले सुनाए, जानवरों की आवाज़ सुनाई। सबने आनंद लिया।

हर बच्चे को रिटर्न गिफ्ट के रूप में ब्रेनविटा नामक खेल उपहार में दिया गया।

पचहत्तर नाम लिखे हुए उपहार रंगीन कागज़ों में रिबन लगाकर युथिका को दिए गए। उसके जीवन का यह नया मोड़ था।

दूसरे दिन सुबह निराली उसके पति नीरज और युथिका बच्चों के कैंसर अस्पताल पहुँचे। युथिका के हाथ से हर बच्चे को खिलौने दिए गए जो उसके मित्र उपहार स्वरूप लाए थे। साथ में हर बच्चे को नए उपहार के रूप में तौलिया, साबुन, टूथ ब्रश, कहानी की पुस्तक, स्कैच पेंसिल और आर्ट बुक दिए गए। युथिका हरेक से बहुत स्नेह से मिली। उपहार देते समय वह बहुत खुश हो रही थी। हर बच्चा खिलौना पाकर खुश था।

बच्चों की खुशी की सीमा न थी। वे झटपट पैकेट खोलकर खिलौने देखने लगे। उनके चेहरे खिल उठे।

वहाँ से निकलकर वे तीनों आनंदभवन गए। यह अनाथाश्रम है। यहाँ के बच्चों के बीच उम्र के हिसाब से वस्त्र के पैकेट बाँटे गए।

उस दिन सारा दिन युथिका अस्पताल की चर्चा करती रही। हमउम्र बच्चों को अस्पताल के वस्त्रों में देखकर और बीमार हालत में देखकर वह भीतर से थोड़ी हिल उठी थी। पर निराली काफी समय से उसे मानसिक रूप से तैयार भी करती जा रही थी कि जीवन सबके लिए आरामदायक और सुंदर नहीं होता।

निराली यहीं नहीं रुकी वह रविवार के दिन पुनः अस्पताल गई। वहाँ के हर बच्चे ने खिलौना पाकर देने वाले के नाम पर एक पत्र लिखा था और यह लिखवाने का काम अस्पताल के सहयोग से ही हुआ था। निराली सारे थैंक्यू पत्र लेकर आई।

अपनी बेटी को भविष्य के लिए तैयार करने के लिए वह अभी से प्रयत्नशील है। वह इस दसवें जन्म दिन की तैयारी के लिए अस्पताल से, बच्चों की माताओं से काफी समय से बातचीत करती आ रही थी।

अगले दिन अपने दफ्तर जाने से पूर्व वह विद्यालय गई। प्रिंसीपल के हाथ में वे थैंक्यू पत्र सौंपकर आई। प्रिंसीपल इस पूरी योजना और आयोजन के लिए निराली की खूब प्रशंसा करते रहे।

शाम की एसेंबली में हर बड़े छोटे विद्यार्थी का नाम लेकर थैंक्यूपत्र दिया गया। यूथिका के घर उसके जन्मदिन के अवसर पर जो छात्र अपना खिलौना देकर आए थे वे अपने नाम का पत्र पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए। युथिका के नाम पर भी पत्र था।

अब पत्र व्यवहार का सिलसिला चलता रहा और छात्र अस्पताल के बच्चों के साथ जुड़ते चले गए।

समाज के हर वर्ग को जोड़ने के लिए किसी न किसी को ज़रिया तो बनना ही पड़ता है। इसके लिए संवेदनशीलता और समर्पण की ही तो आवश्यकता होती है। समाज में और कई निराली चाहिए।

© सुश्री ऋता सिंह

24/10/24

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – सूनी गलियाँ – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– सूनी गलियाँ –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — सूनी गलियाँ — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

बहुत ही पिछड़ा हुआ इलाका था। हमेशा मंत्री बने रहने का शौक पालने वाला राजनेता सत्यार्थी वहीं अपने लिए वोटों का धाम मानता था। वह बड़ी होशियारी से वहाँ लपकता था। बाप भैया बोलने में उसकी सानी नहीं। ग्रामीण दबा सा परिवेश होते भी महिलाएँ उसका मंचीय भाषण सुनने जाती थीं। उसे खूब वोट मिलते थे और वह मंत्री बनता था। पर ऐसा नहीं कि लोग उसे अज्ञानता के कारण वोट देते थे। उसे उम्मीद के लिए वोट दिये जाते थे।

***

© श्री रामदेव धुरंधर
04 – 01 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नव वर्ष विशेष – भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – नव वर्ष विशेष – भोर भई ? ?

मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बाईं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाहिनी ओर सड़क सरपट दौड़ रही है।  महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!

अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ  नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक  ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’

इहलोक के रेले में आत्मा और देह का सम्बंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।

अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का आज से आरम्भ हुआ यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।

? 2025  सार्थक और शुभ हो। ?

 

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जावेगी। 💥 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 40 – लघु कथा – अमृत का प्याला… ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघु कथा – अमृत का प्याला… )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 40 – लघु कथा – अमृत का प्याला…सुश्री ऋता सिंह ?

मेरे पास अब कोई परमानेंट ड्राइवर नहीं है। आवश्यकता पड़ने पर मैं ड्राइवर रखने वाली संस्था से ड्राइवर बुला लेती हूँ।

आज मुझे एक लंबी यात्रा पर निकालना था तो एक परिचित ड्राइवर जो अक्सर मेरी गाड़ी चलाने  के लिए आता था,  मैंने उसी की माँग डाली थी। सौभाग्यवश संस्था ने उसे गाड़ी चलाने के लिए  के लिए भेज दिया था।

गाड़ी में बैठते ही साथ उसने एक डिब्बा खोलकर मुझे मिठाई खिलाई और बोला , आंटी मैंने एक और ज़मीन का टुकड़ा खरीद लिया ।

उसकी बात सुनकर मुझे  खुशी हुई।

लोगों की गाड़ी चलाकर प्रति घंटे ₹100 कमानेवाले इस चालक ने अपने घर की खेती बाड़ी कभी नहीं बेची। बल्कि अब एक और टुकड़ा जमीन का खरीद ही लिया। उसकी हिम्मत की दाद देनी चाहिए।

मैंने खुशी से पूछा –  तो अब इसमें भी तो  खेती ही  करोगे न बेटा ?

वह  हँसकर बोला – जी, बिल्कुल ! अब यह खेती घर वालों के लिए है।

मतलब ?

वह गियर बदलते हुए  बोला,  अब मैं इस पर ऑर्गेनिक  खेती  करूँगा ।

तो क्या इसके पहले ऑर्गेनिक खेती नहीं करते थे ?

नहीं आंटी ,  हम हर प्रकार के पेस्टिसाइड डालकर ही फसलें उगाया  करते हैं। वरना कीड़े लगकर फसलें खराब होने लगती हैं। छोटी ज़मीन का एक और टुकड़ा है हमारे घर में  जिस पर घर पर लगने वाली रोज़मर्रा की सब्ज़ियाँ उगाई जाती हैं। अब परिवार बड़ा हो गया  है इसलिए एक और ज़मीन के टुकड़े  की जरूरत पड़ गई। अब उन दोनों ज़मीन के टुकड़ों पर घर के लोगों के लिए बिना किसी प्रकार के पेस्टिसाइड यूज़ किए , गोबर  खाद आदि डालकर खेती करेंगे। घरवालों को ,बच्चों को सबको शुद्ध और ताज़ी सब्ज़ियाँ नियमित रूप से अब मिला करेंगी।बच्चे हेल्दी रहेंगे।

मैंने एक गहन उच्छ् वास छोड़ा।

सोचने लगी औरों को  जहऱ देने  वाले सारा अमृत का प्याला अपने लिए ही रख लेते हैं!! शायद यही ज़माने का नियम है।

© सुश्री ऋता सिंह

30/7/23

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – मेरे दो दिल – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– मेरे दो दिल –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — मेरे दो दिल — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

— —
मेरे भीतर के लेखक को न जाने कैसे सोचने की समझ आ गई मेरे अपने दो दिल हैं। यह तो मुझे बहुत ही शुभ प्रतीत हुआ। मैंने तत्काल गणित बना लिया एक दिल स्वाभाविक रूप से बायीं ओर है। यही दिल मेरे जीवन की मीमांसा निर्धारित करता है। रहा एक वह दिल जो अदृश्य रूप से मेरे सीने की दायीं ओर जड़ित है। यह दायीं ओर का मेरा दिल मेरे लेखन का संगी – साथी है।

***

© श्री रामदेव धुरंधर
29 – 12 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 146 ☆ लघुकथा – विडंबना ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा विडंबना। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 146 ☆

☆ लघुकथा – विडंबना ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

“बहू! गैस तेज करो, पूरियाँ तेज आँच पर ही फूलती हैं” यह कहकर सास ने गैस का बटन फुल के चिन्ह की ओर घुमा दिया| पूरियाँ तेजी से फूलकर सुनहरी हो रही थी और घरवाले खा- खाकर। कढ़ाई से निकलता धुआँ पूरियों को सुनहरा बना रहा था और मुझे जला रहा था। मेरी छुट्टियाँ पूरी-कचौड़ी बनाने में खाक हो रही थीं। बहुत दिन बाद एक हफ्ते की छुट्टी मिली थी। कई काम दिमाग में थे, सोचा था छुट्टियों में निबटा लूंगी। लेकिन एक-एक कर सातों दिन नाश्ते- खाने में हवन हो गए।

पति का अनकहा आदेश- “तुम्हारी छुट्टी है अम्मा को थोड़ा आराम दो अब।” बच्चों की फरमाइश – “मम्मी ! अपनी छुट्टी में तो मेरे प्रोजेक्ट में मदद कर सकती हैं ना ?”

बस! बाकी सारे कामकाज चलते रहे, मेरे कामों की फाइलें खुल ही न सकीं। कॉलेज में परीक्षाएँ खत्म हुई थीं, जाँचने के लिए कॉपियों का बंडल मेरी मेज पर पड़ा मेरी राह तकता रह गया। घर भर मेरी छुट्टी को एन्जॉय करता रहा। “बहू की छुट्टी है” का भाव सासू जी को मुक्त कर देता। पति जो काम खुद कर लेते थे अब उन छोटे-मोटे कामों के लिए भी वे मुझे आवाज लगाते।

मन में झुंझलाहट थी, छुट्टी खत्म होने को आई थी। छुट्टी के पहले जो थकान थी, वह छुट्टी खत्म होने तक और बढ़ गई। कल से फिर वही सुबह की भागम-भाग— यह सब बैठी सोच ही रही थी कि पति ने बड़ी सहजता से मेरी पीठ पर हाथ मारते हुए कहा- “बड़ी बोर हो यार तुम? कभी तो खुश रहा करो? छुट्टियों में भी रोनी सूरत बनाए रहती हो।” आराम से सोफे पर लेटकर क्रिकेट मैच देखते हुए उन्होंने अपनी बात पूरी की- “एन्जॉय करो लाइफ को यार!”

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 3 ☆ लघुकथा – परिवर्तन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “परिवर्तन“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 3 ☆

✍ लघुकथा – परिवर्तन… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

सड़क पर यातायात बहुत बढ गया। ट्रैफिक जाम हो जाता। ऑफिस जाने आने वाले सुबह शाम परेशान होते, खीजते। व्यवस्था को दोष देते। प्रिंट और मीडिया पत्रकार ट्रैफिक जाम और परेशान नागरिकों के विविध एंगल से प्रभावी फोटो समाचार के साथ प्रकाशित करते। जनता तो खीजते, घिघियाते बड़बड़ाते हुए सहन करने में नंवर वन पहले थी और आज भी है। सोचती है कि हमारा धर्म सहना है। घर हवा पानी सड़क के लिए सरकार कर के रूप में जो माँगे वह अदा करना है। जनता बहुत धार्मिक है, सहनशील है, उदार है और ईश्वर सहित सब पर विश्वास करती है।

जनता के सब्र को फल मिला और मंत्री जी निरीक्षण करने आ गए। स्थिति परिस्थिति का जायजा लिया और सड़क चौराहे के ऊपर उत्तर से दक्षिण की ओर ऊपरी पुल बनाने का निर्णय सुना दिया। निर्णय पर कार्रवाई चलती रही, सड़क का अध्ययन नाप जोख होने लगा। एंक्रोचमेंट हटाए जाने लगे। छोटे मोटे खोमचे वाले, चायपान का ठेला लगाने वाले, सड़क के हिस्से को फुटपाथ समझ उस पर सामान बेचने वाले, धंधा बंद होने से परेशान तो हुए, भुनभुनाते हुए इधर उधर भागने लगे। दो पहिया वाले और पैदल चलने वाले थोड़े खुश हुए कि उन्हें आवागमन के लिए थोड़ी जगह मिल गई। सात आठ महीने ऐसे ही गुजर गए।

इन सबके चलते एक दिन पुल के पिलर के लिए गड्ढे खोदने की प्रक्रिया दिखाई दी। खुदाई प्रक्रिया से सड़क पर अवरोध आने लगा। लोग खुदाई स्थल के दाएं बाएं से अपने दुपहिया चौपहिया वाहन निकाल जैसे तैसे आने जाने लगे। पैदल चलने वालों के लिए तो सड़क पर जगह पहले ही कम थी, अब और अधिक कम हो गई। जाम में खड़े वाहनों के बीच से या इधर उधर से सड़क पार करने वाले वृद्धों, महिलाओं व व्यक्तियों को देखकर वाहन चालकों की निगाहों में प्रश्न उबलते से दिखते कि लोग सड़क पर पैदल क्यों चलते हैं, सड़क पर आते ही क्यों हैं? बच्चों को देखकर उनकी निगाहों में थोड़ा रहम भी दिखाई दे जाता।

सड़क चौक के इधर उधर बने पिलर कांक्रीट की मोटी और भारी बड़ी चादरों से ढंके जाने लगे। असल में ये चादरें नहीं पुल के हिस्से थे जो मशीनों द्वारा बनाए जाते मशीनों द्वारा ऊपर चढाए जाते और मशीनों द्वारा ही एक पिलर से दूसरे पिलर के बीच बिछा दिए जाते । नीचे केवल गड्ढे खोदे गए। पिलर भी ऐसे खडे किए जाते हैं कि नीचे सीमेंट बालू कुछ दिखाई नहीं देता। लोहे की सरियों का बड़ा सा गोल जाल खड़ा किया जाता है और मशीन से तैयार कांक्रीट उस जाल में उड़ेल दिया जाता है। और कुछ दिन में पिलर खडे हो जाते हैं। केवल पिलर के आसपास की जमीन पर बैरियर लगा कर सड़क को छोटा अवश्य करना पड़ता है और आवागमन के लिए रास्ते मोड़ दिए जाते हैं।

अब चौराहे के ऊपर पुल बिछाना शुरू हुआ तो चौराहे पर पुल के नीचे आना जाना बंद कर दिया गया और वाहनों का रूट बदल दिया गया । आम गरीब नागरिकों के लिए सबसे अधिक सुविधाजनक साधन सरकारी बस के अड्डे को इधर उधर बिखरा दिया। चौराहे के उत्तर, दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में बस चौराहे तक आतीं और वहीं से लौट जाती हैं। नियमित बस यात्री को अपने निश्चित स्थान पर बस न पाकर, जहाँ उपलब्ध हैं वहाँ जिस किसी प्रकार पहुंच कर बस पकड़नी होती है और वापसी में उसी जगह उतरना होता है। घर से बस पकड़ने के लिए पहुंचने और वापसी में घर तक पहुंचने के लिए पुल बनाने के लिए किए गए परिवर्तन को सहन करना ही होगा। जब पुल बन जाएगा तब सब ठीक हो जाएगा। ऐसे ही तो विकास होगा। उपलब्ध सड़क पर बढती वाहनों की संख्या से उत्पन्न समस्या से निपटने के लिए परिवर्तन तो होगा ही।

 

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : पुणे महाराष्ट्र 

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 53 – अलार्म…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा # 53 – अलार्म श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

मोबाइल का अलार्म लगातार बज रहा था और सुनीता  बार-बार बंद कर  दे रही थी। मां ने आवाज लगाई  तो उसने रजाई को और ऊपर तक तान कर सो गई। मां ने इस बार जोर से चिल्लाया आखिरी बार बोल रही हूं, उठ कर नीचे जाकर नाश्ता कर लो।  जल्दी उठो वरना अकेली ही घर में रह जाओगी। मैं ताला लगा कर ऑफिस चली जाऊंगी।

सुनीता अलसाई सी चिल्लाकर बोली  मैं कल जरूर आपके साथ कॉलेज जाउंगी आज सारा दिन घर में सोने दो।

माँ ने कहा – कल तो कभी आयेगा ही नहीं? चलो! अब जल्दी से उठकर तैयार जाओ। आज बहुत कोहरा है बाहर कुछ दिख भी नहीं रहा है ठंडी हवा से शरीर कंपकंपा रहा है।

कुछ देर बाद दोनों सड़क पर थे। सुनीता की माँ का ध्यान बाहर सड़क के किनारे झोपड़ी और फुटपाथ में बैठे हुए कुछ लोगों की ओर गया।

इतनी ठंड में सुबह सुबह ये बच्चे कैसे खेल रहे हैं और सभी लोग काम पर जा रहे हैं। ठंड तो सबको लगती है, मुझे भी लग रही है। लेकिन देखो तुम्हारे पिताजी नहीं रहे। मैं पढ़ी लिखी थी इसलिए नौकरी कर तुम्हें पढ़ा रही हूं। अपना और तुम्हारा ध्यान रख रही हूं। तुम बड़ी ऑफिसर बनो। सामाजिक ताकत तो एक बड़े पद पर रहकर ही मिलती है। अन्यथा ये समाज के भेड़िये तुम्हें खा जाएंगे। ठंड में इंसान मजबूर होकर काम पर जाता है। तुम अच्छे से पढ़ाई करो और एक बड़ी ऑफिसर बनो।

अपने लक्ष्य को सामने रखो अपने आप ठंड भाग जाएगी। अपने मन में दृढ़ निश्चय करो। अलार्म बजते ही तुम समय के साथ नहीं चलोगी तो पीछे रह जाओगी। समय किसी के लिए रुकता नहीं है। देखो बातों बातों में तुम्हारा कॉलेज आ गया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares